Chapter 10, Verse 10
Verse textतेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।।
Verse transliteration
teṣhāṁ satata-yuktānāṁ bhajatāṁ prīti-pūrvakam dadāmi buddhi-yogaṁ taṁ yena mām upayānti te
Verse words
- teṣhām—to them
- satata-yuktānām—ever steadfast
- bhajatām—who engage in devotion
- prīti-pūrvakam—with love
- dadāmi—I give
- buddhi-yogam—divine knowledge
- tam—that
- yena—by which
- mām—to me
- upayānti—come
- te—they
Verse translations
Swami Adidevananda
To those who are ceaselessly united with Me and who worship Me with immense love, I lovingly grant that mental disposition (Buddhi-yoga) which leads them to Me.
Swami Gambirananda
To those who are ever devoted and worship Me with love, I grant the possession of wisdom that leads them to Me.
Swami Sivananda
To those who are ever steadfast, worshipping me with love, I give the yoga of discrimination, by which they come to me.
Dr. S. Sankaranarayan
To these persons, who thus mingle with Me and revere Me with love, I grant the knowledge-Yoga by which they can reach Me.
Shri Purohit Swami
To those who are always devout and who worship Me with love, I give the power of discrimination that leads them to Me.
Swami Ramsukhdas
।।10.10।। उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।
Swami Tejomayananda
।।10.10।। उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह 'बुद्धियोग' देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।
Verse commentaries
Swami Sivananda
10.10 तेषाम् to them? सततयुक्तानाम् ever steadfast? भजताम् (of the) worshipping? प्रीतिपूर्वकम् with love? ददामि (I) give? बुद्धियोगम् Yoga of discrimination? तम् that? येन by which? माम् to Me? उपयान्ति come? ते they.Commentary The devotees who have dedicated themselves to the Lord? who are ever harmonious and selfabiding? who are ever devout and who adore Him with intense love (not for attaining any selfish purpose)? obtain the divine grace. The Lord gives them wisdom or the Yoga of discrimination or understanding by which they attain the knowledge of the Self. The Lord bestows on these devotees who have fixed their thoughts on Him alone? devotion of right knowledge. (Buddhi Yoga) by which they know Him in essence. They know through the eye of intuition in deep meditaion the Supreme Lord? the One in all? the Self of all? as their own Self? destitue of all limitations. Buddhi here is the inner eye of intuition by which the magnificent experience of oneness is had. Buddhi Yoga is Jnana Yoga. (Cf.IV.39XII.6and7)Why does the Lord impart this Yoga of knowledge to His devotees What obstacles does the Buddhi Yoga remove on the path of the aspirant or devotee The Lord gives the answer in the following verse.
Swami Ramsukhdas
।।10.10।। व्याख्या --[भगवन्निष्ठ भक्त भगवान्को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं (टिप्पणी प0 546.3)। उनका तो एक ही काम है-- हरदम भगवान्में लगे रहना। भगवान्में लगे रहनेके सिवाय उनके लिये और कोई काम ही नहीं है। अब सारा-का-सारा काम, सारी जिम्मेवारी भगवान्की ही है अर्थात् उन भक्तोंसे जो कुछ कराना है, उनको जो कुछ देना है आदि सब काम भगवान्का ही रह जाता है। इसलिये भगवान् यहाँ (दो श्लोकोंमें) उन भक्तोंको समता और तत्त्वज्ञान देनेकी बात कह रहे हैं।]
Swami Chinmayananda
।।10.10।। जब तक सबसे श्रेष्ठ आनन्ददायक वस्तु या लक्ष्य को नहीं पाया गया है जिसमें हमारा मन पूर्णतया रम सके? तब तक बाह्य विषयों? भावनाओं तथा विचारों के जगत् के साथ हुए तादात्म्य से हमारी सफलतापूर्वक निवृत्ति नहीं हो सकती। आनन्दस्वरूप आत्मा में ध्यानाकर्षण करने की ऐसी सार्मथ्य है और इसलिए? जिस मात्रा या सीमा तक इस आत्मस्वरूप में मन स्थित होता है? उसी मात्रा में वह दुखदायी मिथ्या बंधनों की पकड़ से मुक्त हो जाता है। इस वेदान्तिक सत्य का भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में वर्णन करते हैं? जो मेरा भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।प्रिय के साथ तादात्म्य का ही अर्थ है प्रेम। आत्मा के साथ हुए तादात्म्य के अनुपात में ही जीव भक्त कहलाता है और जब वह सततयुक्त हो जाता है? तभी वह वास्तविक रूप में हृदयस्थित अपनी अव्यक्त दिव्यता को अभिव्यक्त कर पाता है।ऐसे भक्त जो निरन्तर भक्ति? सन्तोष और आनन्द के वातावरण में सतत आत्मा का चिन्तन करते हैं उन भक्तों को स्वयं भगवान् ही वह बुद्धियोग देते हैं? जिसके द्वारा वे भगवान् को ही प्राप्त होते हैं।बुद्धियोग का पहले भी वर्णन किया जा चुका है। आत्मा के अनन्त स्वरूप पर निदिध्यासन से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना ही बुद्धियोग है। प्रस्तुत संदर्भ में उसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि उपर्युक्त पद्धति से साधनाभ्यास करने वाले साधक को सत्य का बौद्धिक ग्रहण होता है। निसंदेह हमारा वह अभिप्राय कदापि नहीं है कि परिच्छिन्न बुद्धि के द्वारा कभी अनन्त वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है। हम केवल लौकिक जगत् के एक सुपरिचित वाक्प्रचार का उपयोग ही कर रहे हैं। जब तक बुद्धि से ग्रहण किया गया एक अनुभव किसी अन्य अनुभव से बाधित नहीं होता? तब तक उस पूर्व अनुभव को प्रामाणिक और संदेह रहित माना जाता है। आत्मा का अनुभव्ा कदापि बाधित नहीं हो सकता? क्योंकि वह अनुभवकर्ता का ही स्वरूप है। ऐसा दृढ़ ज्ञान केवल उन साधकों को ही प्राप्त होता है जिनमें आत्मानुसंधान करने की परिपक्वता एवं स्थिरता आ जाती है।इस प्रकार? उक्त ध्यानाभ्यास के द्वारा सत्य पर पड़े आवरण और तज्जनित विक्षेपों की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है? तब वह साधक समाधि का साक्षात् अनुभव करता है? जो बुद्धियोग की परिसमाप्ति और पूर्णता है।इस बुद्धियोग के द्वारा भगवान् अपने भक्तों के लिए निश्चित रूप से क्या करते हैं? इसका वर्णन अगले श्लोक में है --
Sri Anandgiri
।।10.10।।यदुक्तं सोऽविकम्पेनेत्यादि तदर्थं भूमिकां कृत्वा तदिदानीमुदाहरति -- ये यथोक्तेति। नित्याभियुक्तानामनवरतं भगवत्यैकाग्र्यसंपन्नानामित्यर्थः। पुत्रादिलोकत्रयहेत्वर्थित्वेन वा गर्भदासत्वेन वा प्रत्यहं जीवनोपायसिद्धये वा भजनमिति शङ्कित्वा दूषयति -- किमित्यादिना। प्रागुक्तां ज्ञानाख्यां भक्तिं स्नेहेन कुर्वतामित्यर्थः। तेभ्योऽहं तत्त्वज्ञानं प्रयच्छामीत्याह -- ददामीति। उक्तबुद्धिसंबन्धस्य फलमाह -- येनेति। ध्यानजन्यप्रकर्षकाष्ठागतान्तःकरणपरिणामे निरस्ताशेषविशेषभगवद्रूपप्राप्तिहेतौ बुद्धियोगे प्रश्नपूर्वकमुक्तानधिकारिणो दर्शयति -- के त इति।
Sri Dhanpati
।।10.10।।तेषां सततयुक्तानां सततं निरन्तरमभियुक्तानाम्। किमर्थित्वादिपूर्वकं नेत्याह। प्रीतिः स्नेहस्तपूर्वकं भजताम्। प्रेमलक्षणभक्तिमतामित्यर्थः। तं सम्यग्ज्ञानलक्षणमविकल्पबुद्धियोगं ददामि। येन बुद्धियोगेन मां परमात्मानमात्मत्वेपयान्ति प्रतिपद्यन्ते। साक्षात्कुर्वन्तीत्यर्थः। ते ये मां मच्चित्तत्वादिप्रकारैर्भजन्ते।
Sri Madhavacharya
।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।
Sri Neelkanth
।।10.10।।उपासनायाः फलमाह -- तेषामिति। सततयुक्तानां नित्योत्साहवताम्। प्रीतिः प्रेमा तत्पूर्वकं भजतां सेवमानानां तेभ्यो ददामि तं बुद्धियोगं ज्ञानरूपं योगं समाधिम्। ज्ञाननिष्ठामित्यर्थः। तां ददामि येन यया निष्ठया ते मामुपयान्ति समुद्रमिव नद्योऽभेदेन प्रविशन्ति।
Sri Ramanujacharya
।।10.10।।तेषां सततयुक्तानां मयि सततयोगम् आशंसमानानां मां भजमानानाम् अहं तम् एव बुद्धियोगं विपाकदशापन्नं प्रीतिपूर्वकम् ददामि येन ते माम् उपयान्ति।किं च --
Sri Sridhara Swami
।।10.10।।एवंभूतानां च सम्यग्ज्ञानमहं ददामीत्याह -- तेषामिति। एवं सततयुक्तानां मय्यासक्तानां प्रीतिपूर्वकं भजतां तेषां तं बुद्धिरूपं योगमुपायं ददामि। तमिति कम्। येनोपायेन ते भक्ता मां प्राप्नुवन्ति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।10.10।।भगवद्गुणविभूतिज्ञानस्य भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिहेतुत्वमुक्तम् तथाविधविवृद्धभक्तेर्भगवत्प्राप्तिपूर्वभाविविशदतमसाक्षात्काररूपावस्थाविशेषहेतुत्वं भगवत्प्रसादावान्तरव्यापारकमुच्यतेतेषामिति।मयि सततयोगमाशंसमानानामिति। नहि सततं समाधानरूपो योगः शक्यः। सततशब्देन प्रतिदिनविवक्षा च न स्वारसिकी? न च प्राप्तिरूपसततयोग इदानीं वृत्तः अत आशंसार्थत्वमेव युक्तमिति भावः।तमेवेति आशंसाविषयान्तर्गतमेवेत्यर्थः। सततयोगाशंसयैव भजने प्रीतिरूपत्वस्य फलितत्वात्प्रीतिपूर्वकम् इत्यस्य भजनान्वये प्रयोजनं नास्तिददामि इत्यनेनान्वये तु भजनावान्तरव्यापारकथनरूपेण परमोदारत्वादिभगवद्गुणगणप्रकाशनेन च महत्प्रयोजनमित्यभिप्रायेणप्रीतिपूर्वकं ददामीत्यन्वय उक्तः।मामुपयान्ति इत्यत्रापरामृष्टपदपदार्थैर्मूढैरैक्यापत्तिर्व्याख्याता।
Sri Abhinavgupta
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
Sri Jayatritha
।।10.8 -- 10.10।।ननुएतां विभूतिम् [10।7] इति परिज्ञातुः फलमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यतस्तात्पर्यान्तरमाह -- सन्ति चेति। उक्तफले विश्वासजननार्थमिति शेषः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।10.10।।ये यथोक्तेन प्रकारेण भजन्ते मां -- तेषां सततं सर्वदा युक्तानां भगवत्येकाग्रबुद्धीनां। अतएव लाभपूजाख्यात्याद्यनभिसंधाय प्रीतिपूर्वकमेव भजतां सेवमानानां तेषां अविकम्पेन योगेनेति यः प्रागुक्तस्तं बुद्धियोगं मत्तत्त्वविषयसम्यग्दर्शनं ददामि उत्पादयामि। येन बुद्धियोगेन मामीश्वरमात्मत्वेनोपयान्ति ये मच्चित्तत्वादिप्रकारैर्मां भजन्ते ते।
Sri Purushottamji
।।10.10।।एवम्भावेन भजतामहं फलं ददामीत्याह -- एवमिति। एवममुना प्रकारेण सततयुक्तानां निरन्तरं मत्कृपाविशिष्टानां प्रीतिपूर्वकमनुद्वेगेन भजतां तं बुद्धियोगं मत्स्वरूपानुभवात्मकभक्त्युपायरूपं ददामि? येन ते मामुपयान्ति प्राप्नुवन्ति। उपसर्गेण तथा यान्ति यथा तद्भावच्युतिः कदापि न भवतीति ज्ञापितम्।
Sri Shankaracharya
।।10.10।। --,तेषां सततयुक्तानां नित्याभियुक्तानां निवृत्तसर्वबाह्यैषणानां भजतां सेवमानानाम्। किम् अर्थित्वादिना कारणेन नेत्याह -- प्रीतिपूर्वकं प्रीतिः स्नेहः तत्पूर्वकं मां भजतामित्यर्थः। ददामि प्रयच्छामि बुद्धियोगं बुद्धिः सम्यग्दर्शनं मत्तत्त्वविषयं तेन योगः बुद्धियोगः तं बुद्धियोगम्? येन बुद्धियोगेन सम्यग्दर्शनलक्षणेन मां परमेश्वरम् आत्मभूतम् आत्मत्वेन उपयान्ति प्रतिपद्यन्ते। के ते ये मच्चित्तत्वादिप्रकारैः मां भजन्ते।।किमर्थम्? कस्य वा? त्वत्प्राप्तिप्रतिबन्धहेतोः नाशकं बुद्धियोगं तेषां त्वद्भक्तानां ददासि इत्यपेक्षायामाह --,
Sri Vallabhacharya
।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च,माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददामि येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।