1. अर्जुनविषादयोग (Arjuna Visada Yoga)
भगवद गीता का पहला अध्याय अर्जुन विशाद योग उन पात्रों और परिस्थितियों का परिचय कराता है जिनके कारण पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत का महासंग्राम हुआ। यह अध्याय उन कारणों का वर्णन करता है जिनके कारण भगवद गीता का ईश्वरावेश हुआ। जब महाबली योद्धा अर्जुन दोनों पक्षों पर युद्ध के लिए तैयार खड़े योद्धाओं को देखते हैं तो वह अपने ही रिश्तेदारों एवं मित्रों को खोने के डर तथा फलस्वरूप पापों के कारण दुखी और उदास हो जाते हैं। इसलिए वह श्री कृष्ण को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करते हैं। इस प्रकार, भगवद गीता के ज्ञान का प्रकाश होता है।
Continue readingThe first chapter of the Bhagavad Gita - "Arjuna Vishada Yoga" introduces the setup, the setting, the characters and the circumstances that led to the epic battle of Mahabharata, fought between the Pandavas and the Kauravas. It outlines the reasons that led to the revelation of the of Bhagavad Gita. As both armies stand ready for the battle, the mighty warrior Arjuna, on observing the warriors on both sides becomes increasingly sad and depressed due to the fear of losing his relatives and friends and the consequent sins attributed to killing his own relatives. So, he surrenders to Lord Krishna, seeking a solution. Thus, follows the wisdom of the Bhagavad Gita.
Continue reading2. सांख्ययोग (Sankhya Yoga)
भगवद गीता का दूसरा अध्याय सांख्य योग है। यह अध्याय भगवद गीता का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है क्योंकि इसमें भगवान श्रीकृष्ण संपूर्ण गीता की शिक्षाओं को संघनित करते हैं। यह अध्याय पूरी गीता का सार है। सांख्य योग को 4 मुख्य विषयों में वर्गीकृत किया जा सकता है - १. अर्जुन ने पूरी तरह से भगवान कृष्ण को आत्मसमर्पण किया और उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया। २. सभी दु:खों के मुख्य कारणों की व्याख्या, जो स्व की वास्तविक प्रकृति की अज्ञानता है। ३. कर्मयोग - अपने कर्मों के फलों से जुड़े बिना नि:स्वार्थ क्रिया का अनुशासन। ४. एक परिपूर्ण मनुष्य का विवरण - जिसका मस्तिष्क स्थिर और एक-इशारा है।
Continue readingThe second chapter of the Bhagavad Gita is "Sankhya Yoga". This is the most important chapter of the Bhagavad Gita as Lord Krishna condenses the teachings of the entire Gita in this chapter. This chapter is the essence of the entire Gita. "Sankhya Yoga" can be categorized into 4 main topics - 1. Arjuna completely surrenders himself to Lord Krishna and accepts his position as a disciple and Krishna as his Guru. He requests Krishna to guide him on how to dismiss his sorrow. 2. Explanation of the main cause of all grief, which is ignorance of the true nature of Self. 3. Karma Yoga - the discipline of selfless action without being attached to its fruits. 4. Description of a Perfect Man - One whose mind is steady and one-pointed.
Continue reading3. कर्मयोग (Karma Yoga)
भगवद गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग या निःस्वार्थ सेवा का मार्ग है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण जीवन में कर्म के महत्व पर जोर देते हैं। वे बताते हैं कि इस भौतिक संसार में हर मनुष्य का किसी न किसी प्रकार की क्रिया में सम्मिलित होना अनिवार्य है। इसके अलावा, वह उन कार्यों के बारे में बताते हैं जो मनुष्य को बांधते हैं अथवा वे जो मनुष्य को मुक्ति दिलाते हैं। वे मनुष्य जो अपने कर्तव्यों को भगवन की ख़ुशी के लिए एवं बिना फल की अपेक्षा किये हुए निरंतर करते रहते हैं, वे अंत में मुक्ति प्राप्त करते हैं।
Continue readingThe third chapter of the Bhagavad Gita is "Karma Yoga" or the "Path of Selfless Service". Here Lord Krishna emphasizes the importance of karma in life. He reveals that it is important for every human being to engage in some sort of activity in this material world. Further, he describes the kinds of actions that lead to bondage and the kinds that lead to liberation. Those persons who continue to perform their respective duties externally for the pleasure of the Supreme, without attachment to its rewards get liberation at the end.
Continue reading4. ज्ञानकर्मसंन्यासयोग (Jnana Karma Sanyasa Yoga)
भगवद गीता का चौथा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग योग है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण कर्मयोग का गुणगान करते हैं अथवा अर्जुन को आत्मा एवं परम सत्य का बोध कराते हैं। वे भौतिक संसार में अपनी उपस्तिथि के पीछे कारण का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि भले ही वह अनन्त हैं, फिर भी वह इस धरती पर धर्म और शांति को पुन: स्थापित करने के लिए समय समय पर जन्म लेते रहते हैं। उनके जन्म और क्रियाकलाप शाश्वत हैं और सामूहिक दोषों से कभी भी दूषित नहीं होते हैं। वे मनुष्य जो इस सत्य को जानते और समझते हैं, वे संपूर्ण श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति करते हैं और अंततः उन्हें प्राप्त करते हैं। उनहे इस दुनिया में फिर से जन्म लेने की जरूरत नहीं है।
Continue readingThe fourth chapter of the Bhagavad Gita is "Jnana Karma Sanyasa Yoga". In this chapter, Krishna glorifies the Karma Yoga and imparts the Transcendental Knowledge (the knowledge of the soul and the Ultimate Truth) to Arjuna. He reveals the reason behind his appearance in this material world. He reveals that even though he is eternal, he reincarnates time after time to re-establish dharma and peace on this Earth. His births and activities are eternal and are never contaminated by material flaws. Those persons who know and understand this Truth engage in his devotion with full faith and eventually attain Him. They do not have to take birth in this world again.
Continue reading5. कर्मसंन्यासयोग (Karma Sanyasa Yoga)
भगवद गीता का पांचवा अध्याय कर्मसन्यासयोग योग है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और कर्मसन्यासयोग कि तुलना करते हुआ यह बतलाया है कि यह दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य तक पहुँचने के माध्यम हैं। इसलिए हम इनमें से किसी भी मार्ग का चुनाव कर सकते हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति को अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करते हुए अथवा उनके फल कि चिंता करे बिना अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए। इस तरह वे पाप से अप्रभावित रहते हैं और अंततः मुक्ति प्राप्त करते हैं।
Continue readingThe fifth chapter of the Bhagavad Gita is "Karma Sanyasa Yoga". In this chapter, Krishna compares the paths of renunciation in actions (Karma Sanyas) and actions with detachment (Karma Yoga) and explains that both are means to reach the same goal and we can choose either. A wise person should perform his/her worldly duties without attachment to the fruits of his/her actions and dedicate them to God. This way they remain unaffected by sin and eventually attain liberation.
Continue reading6. ध्यानयोग (Dhyana Yoga)
भगवद गीता का छठा अध्याय ध्यान योग है। इस अध्याय में कृष्ण बताते हैं कि हम किस प्रकार ध्यान योग का अभ्यास कर सकते हैं। वे ध्यान की तैयारी में कर्म की भूमिका पर चर्चा करते हैं अथवा बताते हैं कि किस प्रकार भक्ति में किया गए कर्म मनुष्ये के मन को शुद्ध करते हैं और उसकी आध्यात्मिक चेतना की वृद्धि में सहायता करते हैं। वे उन बाधाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं जो कि मनुष्य को अपने दिमाग को नियंत्रित करते समय झेलनी पड़ती हैं अथवा उन सटीक तरीकों का वर्णन करते हैं जिनसे एक मनुष्य अपने दिमाग को जीत सकता है। उन्होंने प्रकट किया की हम किस प्रकार परमात्मा पर अपना ध्यान केंद्रित करके भगवान के साथ एक हो सकते हैं।
Continue readingThe sixth chapter of the Bhagavad Gita is "Dhyana Yoga". In this chapter, Krishna reveals the "Yoga of Meditation" and how to practise this Yoga. He discusses the role of action in preparing for Meditation, how performing duties in devotion purifies one's mind and heightens one's spiritual consciousness. He explains in detail the obstacles that one faces when trying to control their mind and the exact methods by which one can conquer their mind. He reveals how one can focus their mind on Paramatma and unite with the God.
Continue reading7. ज्ञानविज्ञानयोग (Gyaan Vigyana Yoga)
भगवद गीता का सातवा अध्याय ज्ञानविज्ञानयोग है। इस अध्याय में कृष्ण बताते हैं कि वह सर्वोच्च सत्य हैं एवं हर चीज़ के मुख्य कारण हैं। वे इस भौतिक संसार में अपनी भ्रामक ऊर्जा - योगमाया के बारे में बताते हैं अथवा प्रकट करते हैं कि इस ऊर्जा पर काबू पाना साधारण मनुष्य के लिए कितना कठिन है परन्तु जो मनुष्य अपने मन को परमात्मा में लीन कर लेते हैं वे इस माया को जीत लेते हैं और उन्हे आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। वे उन चार प्रकार के लोगों का भी वर्णन करते हैं जो भक्ति में लीन होकर उनको आत्मसमर्पण करते हैं अथवा वे चार प्रकार जो नहीं करते। कृष्ण पुष्टि करते हैं कि वे ही परम सत्य हैं। जो लोग इस सत्य को समझ लेते हैं, वे आध्यात्मिक प्राप्ति के शिखर पर पहुंच जाते हैं और भगवान को प्राप्त कर लेते हैं।
Continue readingThe seventh chapter of the Bhagavad Gita is "Gyaan Vigyana Yoga ". In this chapter, Krishna reveals that he is the Supreme Truth, the principal cause and the sustaining force of everything. He reveals his illusionary energy in this material world called Maya, which is very difficult to overcome but those who surrender their minds unto Him attain Him easily. He also describes the four types of people who surrender to Him in devotion and the four kinds that don't. Krishna confirms that He is the Ultimate Reality and those who realize this Truth reach the pinnacle of spiritual realization and unite with the Lord.
Continue reading8. अक्षरब्रह्मयोग (Akshara Brahma Yoga)
भगवद गीता का आठवां अध्याय अक्षरब्रह्मयोग है। इस अध्याय में, कृष्ण मृत्यु से पहले अंतिम विचार का महत्व बताते हैं। अगर हम मृत्यु के समय कृष्ण को याद कर लें तो हम निश्चित रूप से उन्हें प्राप्त करेंगे। इसलिए हर समय प्रभु के बारे में जागरूकता रखना, उनके बारे में सोचना और हर समय उनके नामों का जप करना बहुत महत्वपूर्ण है। अपने मन को पूरी तरह से कृष्ण की निरंतर भक्ति में समाहित करके हम इस भौतिक संसार से परे भगवान के सर्वोच्च निवास तक जा सकते हैं।
Continue readingThe eighth chapter of the Bhagavad Gita is "Akshara Brahma Yoga". In this chapter, Krishna reveals the importance of the last thought before death. If we can remember Krishna at the time of death, we will certainly attain him. Thus, it is very important to be in constant awareness of the Lord at all times, thinking of Him and chanting His names at all times. By perfectly absorbing their mind in Him through constant devotion, one can go beyond this material existence to Lord's Supreme abode.
Continue reading9. राजविद्याराजगुह्ययोग (Raja Vidya Yoga)
भगवद गीता का नौवां अध्याय राजविद्याराजगुह्ययोग है। इस अध्याय में, कृष्ण समझाते हैं कि वह सर्वोच्च हैं और यह भौतिक संसार उनकी योगमाया द्वारा रचित और खंडित होता रहता है अथवा मनुष्य उनकी देखरेख में आते जाते रहते हैं। वे हमारी आध्यात्मिक जागरूकता के प्रति भक्ति की भूमिका और महत्व का वर्णन करते हैं। ऐसी भक्ति में मनुष्य को भगवन के लिए ही जीवित रहना चाहिए, अपना सर्वस्व भगवन को ही समर्पित करना चाहिए और सबकुछ भगवन के लिए ही करना चाहिए। जो इस प्रकार की भक्ति का अनुसरण करता है वह इस भौतिक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है और भगवान के साथ एकजुट हो जाता है।
Continue readingThe ninth chapter of the Bhagavad Gita is "Raja Vidya Yoga". In this chapter, Krishna explains that He is Supreme and how this material existence is created, maintained and destroyed by His Yogmaya and all beings come and go under his supervision. He reveals the Role and the Importance of Bhakti (transcendental devotional service) towards our Spiritual Awakening. In such devotion, one must live for the God, offer everything that he possesses to Him and do everything for Him only. One who follows such devotion becomes free from the bonds of this material world and unites with the Lord.
Continue reading10. विभूतियोग (Vibhooti Yoga)
भगवद गीता का दसवां अध्याय विभूतियोग है। इस अध्याय में, कृष्ण स्वयं को सभी कारणों के कारण बताते हैं। अर्जुन की भक्ति को बढ़ाने के लिए वे अपने विभिन्न अवतारों और प्रतिष्ठानों का वर्णन करते हैं। अर्जुन पूरी तरह से भगवान के सर्वोच्च पद से आश्वस्त हैं और उन्हें सर्वोच्च व्यक्तित्व के रूप में घोषित करते हैं। वे कृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि वे अपनी अन्य दिव्य महिमाओं के बारेमे बताएं जो कि सुनने में अमृत सामान हैं।
Continue readingThe tenth chapter of the Bhagavad Gita is "Vibhooti Yoga". In this chapter, Krishna reveals Himself as the cause of all causes. He describes His various manifestations and opulences in order to increase Arjuna's Bhakti. Arjuna is fully convinced of Lord's paramount position and proclaims him to be the Supreme Personality. He prays to Krishna to describe more of His divine glories which are like nectar to hear.
Continue reading11. विश्वरूपदर्शनयोग (Vishwaroopa Darshana Yoga)
भगवद गीता का ग्यारहवा अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग है। इस अध्याय में, अर्जुन कृष्ण को अपने विश्व रूप को प्रकट करने का अनुरोध करते हैं जो की सारे विश्वों अथवा संपूर्ण अस्तित्व का स्त्रोत है। भगवान कृष्ण के शरीर में पूरी सृष्टि को देखने में सक्षम होने के लिए अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी जाती है।
Continue readingThe eleventh chapter of the Bhagavad Gita is "Vishwaroopa Darshana Yoga". In this chapter, Arjuna requests Krishna to reveal His Universal Cosmic Form that encompasses all the universes, the entire existence. Arjuna is granted divine vision to be able to see the entirety of creation in the body of the Supreme Lord Krishna.
Continue reading12. भक्तियोग (Bhakti Yoga)
भगवद गीता का बारहवां अध्याय भक्तियोग है। इस अध्याय में, कृष्ण भक्ति योग की श्रेष्ठता पर बल देते हैं और भक्ति के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हैं। वे आगे बताते हैं कि वे भक्त जो अपने सभी कर्म उनको समर्पित करके, अपनी चेतना उनमें विलीन करके, सच्चे मन से उनकी भक्ति करते हैं वे बहुत जल्दी जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं। वे अपने सबसे प्रिय भक्तों के विभिन्न गुड़ों का भी वर्णन करते हैं।
Continue readingThe twelfth chapter of the Bhagavad Gita is "Bhakti Yoga". In this chapter, Krishna emphasizes the superiority of Bhakti Yoga (the path of devotion) over all other types of spiritual disciplines and reveals various aspects of devotion. He further explains that the devotees who perform pure devotional service to Him, with their consciousness, merged in Him and all their actions dedicated to Him, are quickly liberated from the cycle of life and death. He also describes the various qualities of the devotees who are very dear to Him.
Continue reading13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग (Ksetra Ksetrajna Vibhaaga Yoga)
भगवद गीता का तेरवाह अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग है। क्षेत्र शब्द का मतलब भूमि और क्षेत्ररक्षण का मतलब क्षेत्र का जानकार है। हमारा भौतिक शरीर क्षेत्र के सामान है और हमारी अमर आत्मा क्षेत्र के जानकार के सामान है। इस अध्याय में, कृष्ण भौतिक शरीर और अमर आत्मा के बीच भेद करते हैं। वह बताते हैं कि भौतिक शरीर अस्थायी और विनाशकारी है जबकि आत्मा स्थायी और शाश्वत है। भौतिक शरीर नष्ट हो सकता है लेकिन आत्मा कभी भी नष्ट नहीं हो सकती। यह अध्याय फिर भगवान का वर्णन करता है, जो की सर्वोच्च आत्मा हैं। सभी व्यक्तिगत आत्माएं सर्वोच्च आत्मा से उत्पन्न हुई हैं। जो स्पष्ट रूप से शरीर, आत्मा और सर्वोच्च आत्मा के बीच अंतर को समझ लेता है वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
Continue readingThe thirteenth chapter of the Bhagavad Gita is "Ksetra Ksetrajna Vibhaaga Yoga". The word "kshetra" means "the field", and the "kshetrajna" means "the knower of the field". We can think of our material body as the field and our immortal soul as the knower of the field. In this chapter, Krishna discriminates between the physical body and the immortal soul. He explains that the physical body is temporary and perishable whereas the soul is permanent and eternal. The physical body can be destroyed but the soul can never be destroyed. The chapter then describes God, who is the Supreme Soul. All the individual souls have originated from the Supreme Soul. One who clearly understands the difference between the body, the Soul and the Supreme Soul attains the realization of Brahman.
Continue reading14. गुणत्रयविभागयोग (Gunatraya Vibhaga Yoga)
भगवद गीता का चौदहवा अध्याय गुणत्रयविभागयोग है। इस अध्याय में, कृष्ण भौतिक प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन करते हैं जिनसे भौतिक संसार में सब कुछ प्रभावित होता है - अच्छाई, लालसा और अज्ञान। आगे वह इन तीनों गुणों के प्रधान अभिलक्षणों अथवा कारणों का वर्णन करते हैं और बताते हैं कि कैसे ये तीनों गुण मनुष्य को प्रभावित करते हैं। फिर वह ऐसे व्यक्तियों की विभिन्न विशेषताओं का वर्णन करते हैं जो कि इन गुणों पर जीत पा चुके हैं। इस अध्याय के अंत में कृष्ण हमें सच्ची भक्ति कि शक्ति का स्मरण कराते हैं और बताते हैं की हम कैसे भगवन के साथ जुड़ कर इन गुणों को पार कर सकते हैं।
Continue readingThe fourteenth chapter of the Bhagavad Gita is "Gunatraya Vibhaga Yoga". In this chapter, Krishna reveals the three gunas (modes) of the material nature - goodness, passion and ignorance which everything in the material existence is influenced by. He further explains the essential characteristics of each of these modes, their cause and how they influence a living entity affected by them. He then reveals the various characteristics of the persons who have gone beyond these gunas. The chapter ends with Krishna reminding us of the power of pure devotion to God and how attachment to God can help us transcend these gunas.
Continue reading15. पुरुषोत्तमयोग (Purushottama Yoga)
भगवद गीता का पंद्रहवा अध्याय पुरुषोत्तमयोग है। संस्कृत में, पुरूष का मतलब सर्वव्यापी भगवान है, और पुरुषोत्तम का मतलब है ईश्वर का कालातीत और पारस्परिक पहलू। कृष्णा बताते हैं कि ईश्वर के इस महान ज्ञान का उद्देश्य भौतिक संसार के बंधन से खुद को अलग करना है और कृष्ण को सर्वोच्च दिव्य व्यक्तित्व के रूप में समझना है, जो विश्व के शाश्वत नियंत्रक और निर्वाहक हैं। जो इस परम सत्य को समझता है वह प्रभु को समर्पण करता है और उनकी भक्ति सेवा में संलग्न हो जाता है।
Continue readingThe fifteenth chapter of the Bhagavad Gita is "Purushottama Yoga". In Sanskrit, Purusha means the "All-pervading God", and Purushottam means the timeless & transcendental aspect of God. Krishna reveals that the purpose of this Transcendental knowledge of the God is to detach ourselves from the bondage of the material world and to understand Krishna as the Supreme Divine Personality, who is the eternal controller and sustainer of the world. One who understands this Ultimate Truth surrenders to Him and engages in His devotional service.
Continue reading16. दैवासुरसम्पद्विभागयोग (Daivasura Sampad Vibhaga Yoga)
भगवद गीता का सोलहवा अध्याय दैवासुरसम्पद्विभागयोग है। इस अध्याय में, कृष्ण स्पष्ट रूप से मानवों की दो प्रकार की प्रकृतियों का वर्णन करते हैं- दैवीय और दानवीय। दानवीय स्वभाव वाले लोग स्वयं को लालसा और अज्ञान के तरीकों से जोड़ते हैं, शास्त्रों के नियमों का पालन नहीं करते हैं और भौतिक विचारों को ग्रहण करते हैं। ये लोग निचली जातियों में जन्म लेते हैं और भौतिक बंधनों में और भी बंध जाते हैं। परन्तु जो लोग दैवीय स्वभाव वाले होते हैं, वे शास्त्रों के निर्देशों का पालन करते हैं, अच्छे काम करते हैं और आध्यात्मिक प्रथाओं के माध्यम से मन को शुद्ध करते हैं। इससे दैवीय गुणों में वृद्धि होती है और वे अंततः आध्यात्मिक प्राप्ति प्राप्त करते हैं।
Continue readingThe sixteenth chapter of the Bhagavad Gita is "Daivasura Sampad Vibhaga Yoga". In this chapter, Krishna describes explicitly the two kinds of natures among human beings - divine and demoniac. Those who possess demonaic qualities associate themselves with the modes of passion and ignorance do not follow the regulations of the scriptures and embrace materialistic views. These people attain lower births and further material bondage. But people who possess divine qualities, follow the instructions of the scriptures, associate themselves with the mode of goodness and purify the mind through spiritual practices. This leads to the enhancement of divine qualities and they eventually attain spiritual realization.
Continue reading17. श्रद्धात्रयविभागयोग (Sraddhatraya Vibhaga Yoga)
भगवद गीता का सत्रहवा अध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग है। इस अध्याय में, कृष्ण भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से संबंधित तीन प्रकार के विश्वासों का वर्णन करते हैं। भगवान कृष्ण आगे बताते हैं कि यह विश्वास की प्रकृति है जो जीवन की गुणवत्ता और जीवित संस्थाओं के चरित्र को निर्धारित करती है। जो लोग लालसा और अज्ञानता में विश्वास रखते हैं, वे ऐसे कार्य करते हैं जो कि अस्थायी और भौतिक फल देते हैं परन्तु जो लोग अच्छाई में विश्वास रखते हैं वे शास्त्रपूर्ण निर्देशों के अनुसार कार्य करते हैं और इसलिए उन्हें स्थायी और अधिक प्रवीण फल प्राप्त होते हैं जो मन को और भी शुद्ध करते हैं।
Continue readingThe seventeenth chapter of the Bhagavad Gita is "Sraddhatraya Vibhaga Yoga". In this chapter, Krishna describes the three types of faith corresponding to the three modes of the material nature. Lord Krishna further reveals that it is the nature of faith that determines the quality of life and the character of living entities. Those who have faith in passion and ignorance perform actions that yield temporary, material results while those who have faith in goodness perform actions in accordance with scriptural instructions and hence their hearts get further purified.
Continue reading18. मोक्षसंन्यासयोग (Moksha Sanyaas Yoga)
भगवद गीता का अठारहवा अध्याय मोक्षसन्यासयोग है। अर्जुन कृष्ण से अनुरोध करते हैं कि वे संन्यास और त्याग के बीच अंतर को समझाने की कृपा करें। कृष्ण बताते हैं कि एक संन्यासी वह है जो आध्यात्मिक अनुशासन का अभ्यास करने के लिए परिवार और समाज को त्याग देता है जबकि एक त्यागी वह है जो अपने कर्मों के फलों कि चिंता करे बिना भगवन को समर्पित करके कर्म करता रहता है। कृष्ण बताते हैं कि त्याग संन्यास से श्रेष्ठ है। फिर कृष्णा भौतिक संसार के तीन प्रकार के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। कृष्णा घोषणा करते हैं कि परमात्मा की शुद्ध एवं सत्य भक्ति ही आध्यात्मिकता का उच्चतम मार्ग है। अगर हम हर क्षण उनका स्मरण करते रहें, उनका नाम जपते रहें, अपना सर्वस्व उनको समर्पित कर दें, उन्हें ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य बना लें तो उनकी कृपा से हम निश्चित रूप से सभी बाधाओं और कठिनाइओं को दूर कर पाएंगे और इस जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो पाएंगे।
Continue readingThe eighteenth chapter of the Bhagavad Gita is "Moksha Sanyas Yoga". Arjuna requests the Lord to explain the difference between the two types of renunciations - sanyaas(renunciation of actions) and tyaag(renunciation of desires). Krishna explains that a sanyaasi is one who abandons family and society in order to practise spiritual discipline whereas a tyaagi is one who performs their duties without attachment to the rewards of their actions and dedicating them to the God. Krishna recommends the second kind of renunciation - tyaag. Krishna then gives a detailed analysis of the effects of the three modes of material nature. He declares that the highest path of spirituality is pure, unconditional loving service unto the Supreme Divine Personality, Krishna. If we always remember Him, keep chanting His name and dedicate all our actions unto Him, take refuge in Him and make Him our Supreme goal, then by His grace, we will surely overcome all obstacles and difficulties and be freed from this cycle of birth and death.
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