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7. ज्ञानविज्ञानयोग (Gyaan Vigyana Yoga)

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Chapter 7 - ज्ञानविज्ञानयोग

भगवद गीता का सातवा अध्याय ज्ञानविज्ञानयोग है। इस अध्याय में कृष्ण बताते हैं कि वह सर्वोच्च सत्य हैं एवं हर चीज़ के मुख्य कारण हैं। वे इस भौतिक संसार में अपनी भ्रामक ऊर्जा - योगमाया के बारे में बताते हैं अथवा प्रकट करते हैं कि इस ऊर्जा पर काबू पाना साधारण मनुष्य के लिए कितना कठिन है परन्तु जो मनुष्य अपने मन को परमात्मा में लीन कर लेते हैं वे इस माया को जीत लेते हैं और उन्हे आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। वे उन चार प्रकार के लोगों का भी वर्णन करते हैं जो भक्ति में लीन होकर उनको आत्मसमर्पण करते हैं अथवा वे चार प्रकार जो नहीं करते। कृष्ण पुष्टि करते हैं कि वे ही परम सत्य हैं। जो लोग इस सत्य को समझ लेते हैं, वे आध्यात्मिक प्राप्ति के शिखर पर पहुंच जाते हैं और भगवान को प्राप्त कर लेते हैं।

The seventh chapter of the Bhagavad Gita is "Gyaan Vigyana Yoga ". In this chapter, Krishna reveals that he is the Supreme Truth, the principal cause and the sustaining force of everything. He reveals his illusionary energy in this material world called Maya, which is very difficult to overcome but those who surrender their minds unto Him attain Him easily. He also describes the four types of people who surrender to Him in devotion and the four kinds that don't. Krishna confirms that He is the Ultimate Reality and those who realize this Truth reach the pinnacle of spiritual realization and unite with the Lord.


7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 1

Verse text

श्री भगवानुवाच मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः। असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।7.1।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 2

Verse text

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।7.2।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 3

Verse text

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्िचद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्िचन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।7.3।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 4

Verse text

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 5

Verse text

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 6

Verse text

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।7.6।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 7

Verse text

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 8

Verse text

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः। प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 9

Verse text

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।7.9।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 10

Verse text

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।7.10।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 11

Verse text

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 12

Verse text

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि।।7.12।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 13

Verse text

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।।7.13।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 14

Verse text

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 15

Verse text

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 16

Verse text

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 17

Verse text

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।7.17।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 18

Verse text

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।7.18।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 19

Verse text

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 20

Verse text

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 21

Verse text

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 22

Verse text

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान्।।7.22।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 23

Verse text

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्। देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 24

Verse text

अव्यक्तं व्यक्ितमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 25

Verse text

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।7.25।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 26

Verse text

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।7.26।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 27

Verse text

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 28

Verse text

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।7.28।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 29

Verse text

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।।7.29।।

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7.ज्ञानविज्ञानयोग, Verse 30

Verse text

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।7.30।।

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