Chapter 7, Verse 24
Verse textअव्यक्तं व्यक्ितमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।।
Verse transliteration
avyaktaṁ vyaktim āpannaṁ manyante mām abuddhayaḥ paraṁ bhāvam ajānanto mamāvyayam anuttamam
Verse words
- avyaktam—formless
- vyaktim—possessing a personality
- āpannam—to have assumed
- manyante—think
- mām—me
- abuddhayaḥ—less intelligent
- param—Supreme
- bhāvam—nature
- ajānantaḥ—not understanding
- mama—my
- avyayam—imperishable
- anuttamam—excellent
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।7.24।। बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
Shri Purohit Swami
The ignorant think of Me, who am the Unmanifested Spirit, as if I were in human form. They do not understand that My Superior Nature is unchanging and most excellent.
Swami Gambirananda
The unintelligent, unaware of My supreme state which is immutable and unsurpassable, think of Me as having become manifest from the unmanifest.
Swami Tejomayananda
।।7.24।। बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम (सर्वोत्तम) अव्यय परम भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त को व्यक्त मानते हैं।।
Swami Sivananda
The foolish think of Me, the Unmanifest, as having manifestation, not knowing My higher, immutable, and most excellent nature.
Dr. S. Sankaranarayan
Those of poor intellect are not aware of My higher, unchanging, and supreme nature; and thus, they consider Me, the Unmanifest, to be manifest.
Swami Adidevananda
Not knowing My higher, immutable, and unsurpassed nature, the ignorant think of Me as an entity that has now become manifest, though I was previously unmanifest.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।7.24।। अव्यक्तम् अप्रकाशं व्यक्तिम् आपन्नं प्रकाशं गतम् इदानीं मन्यन्ते मां नित्यप्रसिद्धमीश्वरमपि सन्तम् अबुद्धयः अविवेकिनः परं भावं परमात्मस्वरूपम् अजानन्तः अविवेकिनः मम अव्ययं व्ययरहितम् अनुत्तमं निरतिशयं मदीयं भावमजानन्तः मन्यन्ते इत्यर्थः।।तदज्ञानं किंनिमित्तमित्युच्यते
Sri Vallabhacharya
।।7.24।।मद्भजने देवान्तरभजने च तैषां मत्स्वरूपमाहात्म्याज्ञानमेव हेतुरित्याह अव्यक्तमिति। यतोऽक्षरमैश्वर्यं अप्रकटं वा व्यक्तिरहितं वा मानुषलोके स्वेच्छया स्वगताशेषालौकिकसौन्दर्यं दुर्विभाव्यं व्यक्तिमापन्नं निराकारं मन्यन्ते वा मानयन्ति प्राकृतं व्यक्तिमापन्नं वा मन्यन्तेऽबुद्धयोऽतः तथा मानने हेतुः मम सदानन्दमात्रस्याचिन्त्यैश्वर्यस्य परं भावमंशांशिभावेनावस्थितिभावमानन्दमात्रत्वलक्षणं वाऽजानन्त इति।
Swami Sivananda
7.24 अव्यक्तम् the unmanifested? व्यक्तिम् to manifestation? आपन्नम् come to? मन्यन्ते think? माम् Me? अबुद्धयः the foolish? परम् the highest? भावम् nature? अजानन्तः not knowing? मम My? अव्ययम् immutable? अनुत्तमम् most excellent.Commentary The ignorant take Lord Krishna as a common mortal. They think that He has taken a body like ordinary human beings from the unmanifested state on account of the force of Karma of the previous birth. They have no knowledge of His higher? imperishable and selfluminous nature as the Highest Self. They think that He has just now come into manifestation? though He is selfexistent? eternal? beginningless? endless? birthless? deathless? changeless? infinite and unmanifest.
Swami Chinmayananda
।।7.24।। समस्त नामरूपों की वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि में प्रकाशित हो रहे परम सत्य को ग्रहण करने की विवेकसार्मथ्य जिनमें नहीं है वे लोग अव्यय अविनाशी आत्मतत्त्व का सााक्षात् नहीं कर पाते। अनित्य दृश्यमान जगत् में अत्यन्त आसक्ति के कारण वे यह नहीं जान पाते कि यह सम्पूर्ण नामरूपमय जगत् सूत्र में मणियों के समान परमात्मा में पिरोया हुआ है।जिस चैतन्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित हो रहा है उस परम सत्य को ही यहाँ अव्यक्त शब्द से इंगित किया गया है। इस शब्द का लक्ष्यार्थ समझना आवश्यक है। जो वस्तु इन्द्रियगोचर है या मन और बुद्धि के द्वारा जानी जा सकती है जैसे भावना या विचार वह व्यक्त कहलाती है। अत इन तीनों उपाधियों के द्वारा जिसे जाना नहीं जा सकता वह वस्तु अव्यक्त है।आत्मतत्त्व ही अव्यक्त हो सकता है क्योंकि वही एकमात्र चेतन तत्त्व है जिसके कारण इन्द्रियां मन और बुद्धि स्वविषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा इन सबका द्रष्टा है और इसलिए कभी दृश्यरूप में नहीं जाना जा सकता। वह अव्यक्त है।बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग केवल स्थूल भौतिक रूप को ही देख पाते हैं। अविवेक के कारण वे गुरु अथवा अवतार के शरीर को और सार्मथ्य को देखकर उतने मात्र को ही सनातन सत्य समझ लेते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चित्त की एकाग्रता के लिए अथवा उपासना के लिए किसी उपास्य की प्रतीक या प्रतिमा के रूप में आवश्यकता होती है किन्तु वह प्रतिमा स्वयं परमार्थ सत्य नहीं हो सकती। यदि वही सत्य वस्तु होती तो पाषाण से मूर्ति बनाने के पश्चात् या गुरु के पास पहुँचने मात्र से साधक को सत्य की प्राप्ति हो जाने से उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती मूर्ति पूजा का प्रयोजन चित्त की शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त करना है जिसके द्वारा ध्यान का अभ्यास करके आत्मा का साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।यह श्लोक स्पष्ट रूप से हमें बताता है कि बोतल को औषधि सममझना शरीर को ही गुरु और मूर्ति को ही भगवान् समझ लेना व्यर्थ है सभी श्वेत काष्ठ चन्दन नहीं और आकाश में प्रत्येक चमकीली वस्तु तारा नहीं होती। हो सकता है कि किसी ऊँचे स्तम्भ से आ रहे प्रकाश को देखकर अतिमूढ़ पुरुष उसे सूर्य समझ ले परन्तु कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उसकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेगा। अवतार का सिद्धांत हिन्दू धर्म में स्वीकार किया जाता है। किसीनकिसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति ही अवतार कहा जा सकता है। एक ही सत्य सर्वत्र सबमें व्याप्त है। मन और बुद्धि की उपाधियों में वह व्यक्त होता है। जितना ही अधिक शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा उतना ही अधिक चैतन्य का प्रकाश उसमें व्यक्त होगा।जिस पुरुष का अन्तकरण अत्यन्त शुद्ध एवं स्थिर होता है और जिसने अपरा प्रकृति पर पूर्ण विजय पा ली होती है वह ऋषि मुनि या पैगम्बर कहलाता है। ये पुरुष आत्मस्वरूप को पहचानकर कि वही भूतमात्र की आत्मा है उसमें स्थित होकर दिव्य जीवन जीते हैं। उनके शरीर मन और बुद्धि को ही परम सत्य समझना ऐसी ही त्रुटि है जैसे कि तरंगों को ही समुद्र समझ लेना है यही कारण है कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे अविवेकी लोगों के लिए अबुद्धय जैसे कठोर शब्द का प्रयोग करते हैं।यह अज्ञान किस निमित्त से है इस पर कहते हैं
Sri Anandgiri
।।7.24।।भगवद्भजनस्योत्तमफलत्वेऽपि प्राणिनां प्रायेण तन्निष्ठत्वाभावे प्रश्नपूर्वकं निमित्तं निवेदयति किंनिमित्तमित्यादिना। अप्रकाशं शरीरग्रहणात्पूर्वमिति शेषः। इदानीं लीलाविग्रहपरिग्रहावस्थायामित्यर्थः। प्रकाशस्य तर्हि कादाचित्कत्वं भगवति प्राप्तं नेत्याह नित्येति। कथं तर्हि भगवन्तमागन्तुकप्रकाशं मन्यन्ते तत्राबुद्धय इत्युत्तरम्। तद्विवृणोति परमिति। परमनुत्तममिति विशेषणद्वयं सोपाधिकनिरुपाधिकभावार्थम्।
Sri Dhanpati
।।7.24।।तर्हि सर्वेऽपि देवतान्तरभजनं विहाय त्वामेव कुतो न प्रतिपद्यन्त इत्याशङ्क्य मदप्रतिपत्तौ मत्परमेश्वरभावाज्ञानमेव निमित्तमित्याह। अव्यक्तमप्रकाशं लीलाविग्रहग्रहणात्पूर्वं इदानीं तद्ग्रहणावस्थायां व्यक्तिमापन्नं प्रकाशमागतं मां मन्यन्ते अबुद्धयो विवेकहीनाः। अबुद्धय इत्येतदुक्तं विवृणोति। ममाव्ययं व्ययरहितमनुत्तमं निरतिशयं परं भावं परमात्मस्वरुपं सोपाधिनिरुपाध्यात्मकमजानन्तोऽविवेकिनो नित्यसिद्धमीश्वरमपि सन्तं मां पूर्वमसन्तमधुनैवोत्पन्नं मन्यन्ते इत्यर्थः।
Sri Madhavacharya
।।7.24।।को विशेषस्तवान्येभ्यः इत्यत आह अव्यक्तमिति। कार्यदेहादिवर्जितम्। तद्वानिव प्रतीयस इत्यत आह व्यक्तिमापन्नमिति। कार्यदेहाद्यापन्नम्। तच्चोक्तम् सदसतः परम् न तस्य कार्यम् अपाणिपादः श्वे.उ.3।19आनन्ददेहं पुरुषं मन्यन्ते गौणदैहिकम् इत्यादौ। भावं याथार्थ्यम्। तथाऽब्रवीत् याथातथ्यमजानन्तः परं तस्य विमोहिताः इत्यादि।
Sri Neelkanth
।।7.24।।एवं तर्हि कुतस्त्वामेव सर्वे न प्रतिपद्यन्त इत्याशङ्क्याज्ञानादित्याह अव्यक्तमिति। अव्यक्तं सर्वोपाधिशून्यत्वेनास्पष्टमपि वासुदेवशरीरेण व्यक्तिमापन्नमस्मदादिवच्छरीराभिमानिनं मामबुद्धयो मन्यन्ते। यतो मम परं भावं परत्वमुत्कृष्टत्वमजानन्तः। उत्कृष्टत्वमेव विशिनष्टि। अव्ययं न व्येतीत्यव्ययमविनाशिनम्। अनुत्तमं यस्मादन्यदुत्कृष्टं च नास्ति। निरतिशयमखण्डैश्वर्यरूपमित्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।7.24।।सर्वैः कर्मभिः आराध्यः अहं सर्वेश्वरः वाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावः परमकारुण्याद् आश्रितवात्सल्यात् च सर्वसमाश्रयणीयत्वाय अजहत्स्वभाव एव वसुदेवसूनुः अवतीर्ण इति मम एवं परं भावम् अव्ययम् अनुत्तमम् अजानन्तः प्राकृतराजसूनुसमानम् इतः पूर्वम् अनभिव्यक्तम् इदानीं कर्मवशाद् जन्मविशेषं प्राप्य व्यक्तिम् आपन्नं प्राप्तं माम् अबुद्धयो मन्यन्ते अतो मां न श्रयन्ते न कर्मभिः आराधयन्ति च।कुत एवं न प्रकाश्यते इति अत्र आह
Sri Sridhara Swami
।।7.24।। ननु च समाने प्रयासे महति च फलविशेषे सति सर्वेऽपि किमिति देवान्तरं हित्वा त्वामेव न भजन्ति तत्राह अव्यक्तमिति। अव्यक्तं प्रपञ्चातीतं मां व्यक्तिं मनुष्यमत्स्यकूर्मादिभावं प्राप्तमल्पबुद्धयो मन्यन्ते। तत्र हेतुः। मम परं भावं स्वरूपमजानन्तः। कथंभूतम्। अव्ययं नित्यम्। न विद्यत उत्तमो यस्मात्तं भावं। अतो जगद्रक्षार्थं लीलयाविष्कृतनानाविशुद्धोर्जितसत्त्वमूर्तिं मां परमेश्वरं स्वकर्मनिर्मितभौतिकदेहं देवतान्तरसमं पश्यन्तो मन्दमतयो मां नातीवाद्रियन्ते प्रत्युत क्षिप्रफलं देवतान्तरमेव भजन्ति ते चोक्तप्रकारेणान्तवत्फलं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।7.24।।ननु फलान्तरदेवतान्तरवासनया हि त्वद्विषयज्ञानप्रतिबन्ध उक्तः त्वत्साक्षात्काराभावे हि तदुपपत्तिः त्वयि कारुण्यादिगुणप्रेरिते सर्वसमाश्रयणीयत्वायावतारवशादशेषजननयनगोचरे कथं त्वत्परित्याग इत्यत्रोत्तरम् अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् इत्यभिप्रायेणाह इतरे त्विति। इतरे चतुर्विधसुकृतिभ्योऽन्ये।परं भावम् इत्यनेनाभिप्रेतं निरतिशयपरत्वसौलभ्यरूपं स्वभावं दर्शयतिसर्वैः कर्मभिरित्यादिना अवतीर्ण इत्यन्तेन।अजहत्स्वभाव इत्यव्ययशब्दाभिप्रेतोक्तिः। अस्मादुत्तमं नास्तीत्यनुत्तमम् अनवधिकातिशयमित्यर्थः। अत्रअव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् इत्येतत्सामर्थ्यादवतारविषयत्वम् तत्रापिमाम् इत्यस्यौचित्यादवतारविशेषविषयत्वं च सिद्धमित्यभिप्रेत्योक्तंवसुदेवसूनुरवतीर्ण इतिप्राकृतराजसूनुसमानमिति च। इदं सर्वावतारोपलक्षणतया विशेषोदाहरणमात्रं वा।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् इत्यनयोरर्थान्तरभ्रमव्युदासायाहप्राकृतेत्यादि। मन्दमतिबोद्धव्यतया निन्द्यमानोऽर्थोऽत्रायमेव भवितुमर्हतीति भावः। इतः पूर्वमनभिव्यक्तत्वमिदानीमवताराद्व्यक्तत्वमपि प्रमाणसिद्धम् तत्कथमत्र प्रतिक्षिप्यत इत्यत्रोक्तंकर्मवशाज्जन्मविशेषं प्राप्येति। उत्सर्गापवादादिनयात्सङ्कोच इति भावः।अबुद्धयः इत्यनेन परमात्मतदवतारादिविषयश्रवणमननादिराहित्यं वैलक्षण्यज्ञापकलिङ्गदर्शनेऽपि तदूहशक्तिवैकल्यं च विवक्षितम्। फलितमाह अत इत्यादि। आश्रयणमत्र प्रपत्तिपूर्वकभजनं तदभावाच्च तदङ्गतया वर्णाश्रमादिधर्मान् स्तुतिनमस्कारादींश्च न कुर्वत इत्याह न कर्मभिरिति।
Sri Abhinavgupta
।।7.24।।ननु सर्वगते भगवत्तत्त्वे किमिति देवतान्तरोपासकानां मितं फलम् उच्यते अव्यक्तमिति। ते खलु अल्पबुद्धित्त्वात् मत्स्वरूपं पारमार्थिकम् अविद्यमानव्यक्तिकं न प्रत्यभिजानीते। अपि तु निजकामनासमुचिताकारविशिष्टज्ञानस्वभावं (N स्वभावां) व्यक्तिमेवापन्नं विदन्ति नान्यथा। अत एव न नाम्नि आकारे वा कश्चिद्ग्रहः। किंतु सिद्धान्तोऽयमत्र यः कामनापरिहारेण यत्किञ्चिद्देवतारूपमालम्बते तस्य तत् शुद्धमुक्तभावेन (S मुक्तभावे) पर्यवस्यति। विपर्ययात्तु विपर्ययः (SN add इति) ।
Sri Jayatritha
।।7.24।।अव्यक्तं इति श्लोकस्य प्रकृतेन साक्षात्सङ्गत्यभावात् तं सङ्गमयितुमाह क इति। अन्येभ्यो ब्रह्मादिभ्यः। येन तान् प्राप्तानामन्तवत्फलत्वेऽपि त्वां प्राप्तानामनन्तफलतेति शङ्काशेषः। कथमनेनोक्तशङ्कापरिहारः इत्यत आह कार्येति। अनेन यथाश्रुतं पदं पठित्वा व्याख्यातम्। वस्तुतःअव्यक्तं मां इत्यनुवादादव्यक्तोऽहमिति यत्सिद्धं तस्येदं व्याख्यानमिति ज्ञातव्यम्। इदानीमुत्तरस्य सङ्गतिमाह तद्वानिति। कार्यदेहादिमान् इवेति मृदूक्तिः वस्तुतस्त्वेवेति। अतो न तद्वर्जित इति शेषः। प्रकृतोपयोगितया व्याचष्टे कार्येति। भगवतः कार्यदेहादिवर्जितत्वं तद्वत्ताप्रतीतिश्चाज्ञानमूलेत्येतत्कुतः येन वाक्यद्वयमुक्तार्थं स्यात् इत्यतोऽर्थद्वये क्रमेण प्रमाणान्याह तच्चेति। कार्यात्कारणाच्च। इदमपरं रूपं परं तु रूपमजानन्त इति प्रतीतिनिरासार्थमाह भावमिति। याथार्थ्यं प्रमाणाव्यभिचरितस्वरूपम्। अत एव परम्। कुतोऽयमर्थः समाख्यानादित्याह तथेति। यद्यप्ययमर्थःत्रिभिः 7।13 इत्यत्रोक्तस्तथापि प्रसङ्गात् पुनरुक्त इत्यदोषः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।7.24।।एवं भगवद्भजनस्य सर्वोत्तमफलत्वेऽपि कथं प्रायेण प्राणिनो भगवद्विमुखा इत्यत्र हेतुमाह भगवान् अव्यक्तं देहग्रहणात्प्राक् कार्याक्षमत्वेन स्थितमिदानीं वसुदेवगृहे व्यक्तिं भौतिकदेहावच्छेदेन कार्यक्षमतां प्राप्तं किंचिज्जीवमेव मन्यन्ते मामीश्वरमप्यबुद्धयो विवेकशून्याः। अव्यक्तं सर्वकारणमपि मां व्यक्तिं कार्यरूपतां मत्स्यकूर्माद्यनेकावताररूपेण प्राप्तिमिति वा। कथं ते जीवास्त्वां न विचिन्वन्ति। तत्राबुद्धय इत्युक्तं हेतुं विवृणोति परं सर्वकारणरूपमव्ययं नित्यं मम भावं स्वरूपं सोपाधिकजानन्तस्तथा निरुपाधिकमप्यनुत्तमं सर्वोत्कृष्टमनतिशयाद्वितीयपरमानन्दघनमनन्तं मम स्वरूपजानन्तो जीवानुकारिकार्यदर्शनाज्जीवमेव कंचिन्मां मन्यन्ते ततो मामीश्वरत्वेनाभिमतं विहाय प्रसिद्धं देवतान्तरमेव भजन्ते। ततश्चान्तवदेव फलं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। अग्रे च वक्ष्यतेअवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् इति।
Swami Ramsukhdas
।।7.24।। व्याख्या--अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं ৷৷. ममाव्ययमनुत्तमम्--जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरेमें श्रद्धा-भक्ति नहीं है, वे अल्पमेधाके कारण अर्थात् समझकी कमीके कारण मेरेको साधारण मनुष्यकी तरह अव्यक्तसे व्यक्त होनेवाला अर्थात् जन्मने-मरनेवाला मानते हैं। मेरा जो अविनाशी अव्ययभाव है अर्थात् जिससे बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता और जो देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत, सदा एकरूप रहनेवाला, निर्मल और असम्बद्ध है--ऐसे मेरे अविनाशी भावको वे नहीं जानते और मेरा अवतार लेनेका जो तत्त्व है, उसको नहीं जानते। इसलिये वे मेरेको साधरण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नहीं करते, प्रत्युत देवताओंकी उपासना करते हैं।'अबुद्धयः' पदका यह अर्थ नहीं है कि उनमें बुद्धिका अभाव है प्रत्युत बुद्धिमें विवेक रहते हुए भी अर्थात् संसारको उत्पत्ति-विनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं--यही उनमें बुद्धिरहितपना है, मूढ़ता है।दूसरा भाव यह है कि कामनाको कोई रख नहीं सकता, कामना रह नहीं सकती; क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामनापूर्तिके बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तवमें कामनाकी सत्ता ही नहीं है, फिर भी उसका त्याग नहीं कर सकते --यही अबुद्धिपना है।मेरे स्वरूपको न जाननेसे वे अन्य देवताओंकी उपासनामें लग गये और उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामनामें लग जानेसे वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरेसे विमुख हो गये। यद्यपि वे मेरेसे अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता, तथापि कामनाके कारण ज्ञान ढक जानेसे वे देवताओंकी तरफ खिंच जाते हैं। अगर वे मेरेको जान जाते, तो फिर केवल मेरा ही भजन करते।(1) बुद्धिमान् मनुष्य वे होते हैं, जो भगवान्के शरण होते हैं। वे भगवान्को ही सर्वोपरि मानते हैं। (2) अल्पमेधावाले मनुष्य वे होते हैं, जो देवताओंके शरण होते हैं। वे देवताओंको अपनेसे बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता, सरलता रहती है। (3) अबुद्धिवाले मनुष्य वे होते हैं, जो भगवान्को देवता-जैसा भी नहीं मानते; किन्तु साधारण मनुष्य-जैसा ही मानते हैं। वे अपनेको ही सर्वोपरि, सबसे बड़ा मानते हैं ,(गीता 16। 14 15)। यही तीनोंमें अन्तर है।'परं भावमजानन्तः' का तात्पर्य है कि मैं अज रहता हुआ, अविनाशी होता हुआ और लोकोंका ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे प्रकट होता हूँ--इस मेरे परमभावको बुद्धिहीन मनुष्य नहीं जानते।'अनुत्तमम्'कहनेका तात्पर्य है कि पन्द्रहवें अध्यायमें जिसको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम बताया है अर्थात् जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नहीं, ऐसे मेरे अनुत्तम भावको वे नहीं जानते। विशेष बात इस (चौबीसवें) श्लोकका अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि '(ये) अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः' अर्थात् जो सदा निराकार रहनेवाले मेरेको केवल साकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरूपको नहीं जानते। दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि '(ये) व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः'अर्थात् मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हुआ हूँ--ऐसे मेरेको केवल निराकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भावको नहीं जानते।उपर्युक्त दोनों अर्थोंमेंसे कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ माननेपर केवल निराकारको माननेवाले साकाररूपकी और साकाररूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे और केवल साकार माननेवाले निराकाररूपकी और निराकार-रूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे। यह सब एकदेशीयपना ही है। पृथ्वी, जल, तेज आदि जो महाभूत हैं, जो कि विनाशी और विकारी हैं, वे भी दो-दो तरहके होते हैं--स्थूल और सूक्ष्म। जैसे, स्थूलरूपसे पृथ्वी साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है ;जल बर्फ, बूँदें, बादल और भापरूपसे साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है; तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाईमें रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होनेसे साकार है, इत्यादि। इस तरहसे भौतिक सृष्टिके भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तवमें वह दो नहीं होती। साकार होनेपर निराकारमें कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होनेपर साकारमें कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्माके साकार और निराकार दोनों होनेमें क्या बाधा है? अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं, और निराकार भी हैं सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं।गीता साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण--दोनोंको मानती है। नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको 'अव्यक्तमूर्ति' कहा है। चौथे अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ, अविनाशी होता हुआ भी अन्तर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होनेमें और साकार होते हुए निराकार होनेमें भगवान्में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आता। ऐसे भगवान्के स्वरूपको न जाननेके कारण लोग उनके विषयमें तरह-तरहकी कल्पनाएँ किया करते हैं। सम्बन्ध--भगवान्को साधारण मनुष्य माननेमें क्या कारण है? इसपर आगेका श्लोक कहते हैं
Sri Purushottamji
।।7.24।।तर्हि कथं न सर्वे त्वामेव भजन्ति इत्यत आह अव्यक्तमिति। अबुद्धयः कामहृतज्ञाना अव्यक्तं न विद्यते व्यक्तो लौकिकवत् प्रकटो व्यवहारो यस्य व्यक्तिर्जात्यादिर्वा यस्य तादृशं पुरुषोत्तमं व्यक्तिमापन्नं मनुष्यादिभावेन जगति प्रकटं लौकिकत्वेन अन्यदेवसमं मनुष्यादिसमं वा मन्यन्ते। कुतः इत्याकाङ्क्षायामाह परमिति। मम पुरुषोत्तमस्य अव्ययं नाशरहितं लीलात्मकं केषुचित्। भाग्यवत्सु प्रकटीभूय तद्रसपोषार्थं तत्समानाकारेण लीलारूपमजानन्तः। किञ्च अनुत्तमं न विद्यते उत्तमो यस्मात्तादृशं परं भावंपुरुषोत्तमात्मकमजानन्तो मां तथा मन्यन्ते। अतः स्वकामितफलक्षिप्रप्रसादार्थमन्यदेवता एव भजन्ति न तु मामित्यर्थः।