Chapter 7, Verse 3
Verse textमनुष्याणां सहस्रेषु कश्िचद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्िचन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।7.3।।
Verse transliteration
manuṣhyāṇāṁ sahasreṣhu kaśhchid yatati siddhaye yatatām api siddhānāṁ kaśhchin māṁ vetti tattvataḥ
Verse words
- manuṣhyāṇām—of men
- sahasreṣhu—out of many thousands
- kaśhchit—someone
- yatati—strives
- siddhaye—for perfection
- yatatām—of those who strive
- api—even
- siddhānām—of those who have achieved perfection
- kaśhchit—someone
- mām—me
- vetti—knows
- tattvataḥ—in truth
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।7.3।। हजारों मनुष्योंमें कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है।
Swami Tejomayananda
।।7.3।। सहस्रों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य पूर्णत्व की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई ही पुरुष मुझे तत्त्व से जानता है।।
Swami Adidevananda
Among thousands of men, some strive for perfection; even among those who strive for perfection, only some know Me; and among those who know Me, only some truly know Me.
Swami Gambirananda
Among thousands of men, a rare one endeavors for perfection. Even among the perfected ones who are diligent, one perchance knows Me in truth.
Swami Sivananda
Among thousands of men, one may perchance strive for perfection; even among those successful strivers, only one may perchance know Me in essence.
Dr. S. Sankaranarayan
Among thousands of men, perhaps one makes an effort for the determined knowledge. Among those, even though they make an effort, perhaps one realizes Me correctly with the determined knowledge.
Shri Purohit Swami
Among thousands of men, scarcely one strives for perfection, and even among those who gain occult powers, perhaps only one knows me in truth.
Verse commentaries
Sri Neelkanth
।।7.3।।एतदेव ज्ञानं दौर्लभ्यप्रदर्शनेन स्तौति मनुष्याणामिति। यततां यतमानानाम्।
Sri Jayatritha
।।7.3।।ननु ज्ञानादिवचनं प्रतिज्ञाय यत्किञ्चित्कथमुच्यते इत्यत आह दौर्लभ्यमिति। श्रोतुरादरजननार्थमिति शेषः। ज्ञानस्य दौर्लभ्ये विज्ञानस्य तत्सुतराम्।
Swami Sivananda
7.3 मनुष्याणाम् of men? सहस्रेषु among thousands? कश्चित् some one? यतति strives? सिद्धये for perfection? यतताम् of the striving ones? अपि even? सिद्धानाम् of the successful ones? कश्चित् some one? माम् Me? वेत्ति knows? तत्त्वतः in essence.Commentary Mark how difficult it is to attain to the knowledge of the Self or to how Brahman in essence. Siddhanam literally means those who have attained to perfection (the perfected ones) but here it means only those who strive to attain perfection.Those who purchase diamonds? rubies or pearls are few. Those who study the postgraduate course are few. Even so those who attempt for Selfrealisation and who actually know the Truth in essence are few only. The liberated ones (Jivanmuktas) are rare. Real Sadhakas are also rare. The,knowledge of the Self bestows incalculable fruits on man? viz.? immortality? eternal bliss? perennial joy and everlasting peace. It is very difficult to attain to this knowledge of the Self. But a good and earnest spiritual aspirant (Sadhaka) who is endowed with a strong determination and iron resolve? and who is eipped with the four means to salvation can easily obtain the knowledge of the Self.
Sri Madhusudan Saraswati
।।7.3।।अतिदुर्लभं चैतन्मदनुग्रहमन्तरेण महाफलं ज्ञानम् यतः मनुष्याणां शास्त्रीयज्ञानकर्मयोग्यानां सहस्रेषु मध्ये कश्चिदेकोऽनेकजन्मकृतसुकृतसमासादितनित्यानित्यवस्तुविवेकः सन् यतति यतते सिद्धये सत्त्वशुद्धिद्वारा ज्ञानोत्पत्तये। यततां यतमानानां ज्ञानाय सिद्धानां प्रागर्जितसुकृतानां साधकानामपि मध्ये कश्चिदेकः श्रवणमनननिदिध्यासनपरिपाकान्ते मामीश्वरं वेत्ति साक्षात्करोति तत्त्वतः प्रत्यगभेदेन तत्त्वमसीत्यादिगुरूपदिष्टमहावाक्येभ्यः। अनेकेषु मनुष्येष्वात्मज्ञानसाधनानुष्ठायी परमदुर्लभः। साधनानुष्ठायिष्वपि मध्ये फलभागी परमदुर्लभ इति किं वक्तव्यमस्य ज्ञानस्य माहात्म्यमित्यभिप्रायः।
Sri Purushottamji
।।7.3।।ज्ञातव्यं कुतो नावशिष्यते इत्यत आह मनुष्याणामिति। पूर्वं तु भगवत्सन्निधानान्निस्सृतानां जीवानां मध्ये मनुष्यत्वं प्राप्तानामेव भजनाधिकारस्तत्प्राप्तिश्च दास्यदानानुग्रहैकसाध्या तत्प्राप्त्यनन्तरं च भावार्थं समर्पितस्य देहस्य तदाप्त्यर्थं लीलया प्राकट्यमतिदुर्लभं तत्रापि भावसेवया प्रीतेन भगवदुक्तस्वस्वरूपज्ञानमतिदुर्लभम्। एतत्सर्वसिद्धिर्यज्ज्ञानेन भवति तज्ज्ञाने न किञ्चिदवशिष्यते तदाह मनुष्याणां सहस्रेषु भजनौपयिकप्राप्तदेहानां सहस्रेषु असङ्ख्यातेषु कश्चित् दुर्लभो मदनुग्रहैकरूपः सिद्धये मत्सिद्धिस्वरूपनिमित्तं यासिद्धिर्द्वितीयस्कन्धे अ.1 उक्ता तदर्थं यतति यत्नवान् भवति। यततामपि यत्नं कुर्वतामपि सिद्धानां मध्ये कश्चित् स्वरमणेच्छादिभावरहितस्तत्स्वरूपात्मकधामरममाणं मां तत्त्वतस्तदनुग्रहैकलभ्यत्वेन वेत्ति जानाति। यत एतज्ज्ञानमतिदुर्लभम्। यज्ज्ञानान्तरं न किञ्चिदवशिष्यते तन्मया त्वदर्थमुच्यत इति भावः।
Sri Dhanpati
।।7.3।।अतो मद्विषयं तत्त्वज्ञानं सार्वज्ञ्यसंपादकत्वादतिदुर्लभमित्याह मनुष्याणामिति। मनुष्याणामनेकयोनिषु पुण्यवशाल्लब्धदेहानां सहस्त्रेषु असंख्यातेषुशतं सहस्त्रं लक्षं च सर्वमक्षय्यवाचकम् इत्युक्तेः। अक्षय्यमित्यस्यासंख्यातमित्यर्थः। कश्चिदनेकजन्मार्जितपुण्यपुञ्जवशाल्लब्धविवेकादिसाधनो यतते यत्नं श्रवणादिरुपं करोति। यततामपि यतमानानामपि सिद्धानां मुमुक्षणाम्। साधकत्वेऽपि सिद्धत्वकथनं तेषामुत्कर्षद्योतनार्थम्। अपरे तु सिद्धये आत्मज्ञानाय यतते। यततामपि सहस्त्रेषु कश्चिदेव प्रकृष्टपुण्यवशादात्मानं वेत्ति तादृशानामप्यात्मज्ञानसिद्धानां सहस्त्रेषु कश्चिदेव मां परमात्मानं मत्प्रसादेन तत्त्वतो वेत्तीति वर्णयन्ति। अस्मिन्पक्षे मुख्यसिद्धशब्दार्थालाभस्त्वस्त्येवात्मपदाध्याहारस्य कश्चिदत्यस्य वेत्तीत्यस्य चावृत्तेरध्याहारस्य वा क्लेशोऽतिरिच्यते इत्ययं षक्षश्चिन्त्यः। तेषां मध्ये कश्चितेव मां परमेश्वरं तत्त्वतो यथावतस्वाभिन्नत्वेन वेत्ति जानाति।
Sri Madhavacharya
।।7.3।।दौर्लभ्यं ज्ञानस्याह मनुष्याणामिति।
Sri Shankaracharya
।।7.3।। मनुष्याणां मध्ये सहस्रेषु अनेकेषु कश्चित् यतति प्रयत्नं करोति सिद्धये सिद्ध्यर्थम्। तेषां यततामपि सिद्धानाम् सिद्धा एव हि ते ये मोक्षाय यतन्ते तेषां कश्चित् एव हि मां वेत्ति तत्त्वतः यथावत्।।श्रोतारं प्ररोचनेन अभिमुखीकृत्याह
Swami Ramsukhdas
।।7.3।। व्याख्या--'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये'--(टिप्पणी प0 395.1) 'हजारों मनुष्योंमें' कोई एक ही मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है। तात्पर्य है कि जिनमें मनुष्यपना है अर्थात् जिनमें पशुओंकी तरह खाना-पीना और ऐश-आराम करना नहीं है, वे ही वास्तवमें मनुष्य हैं। उन मनुष्योंमें भी जो नीति और धर्मपर चलनेवाले हैं, ऐसे मनुष्य हजारों हैं। उन हजारों मनुष्योंमें भी कोई एक ही सिद्धिके लिये (टिप्पणी प0 395.2) यत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं, जिसमें दुःखका लेश भी नहीं और आनन्दकी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं, कमीकी सम्भावना ही नहीं--ऐसे स्वतःसिद्ध नित्यतत्त्वकी प्राप्तिके लिये यत्न करता है।जो परलोकमें स्वर्ग आदिकी प्राप्ति नहीं चाहता और इस लोकमें धन, मान, भोग, कीर्ति आदि नहीं चाहता अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें नहीं अटकता और भोगे हुए भोगोंके तथा मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिके संस्कार रहनेसे उन विषयोंका सङ्ग होनेपर, उन विषयोंमें रुचि होते रहनेपर भी जो अपनी मान्यता, उद्देश्य, विचार, सिद्धान्त आदिसे विचलित नहीं होता--ऐसा कोई एक पुरुष ही सिद्धिके लिये यत्न करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धिके लिये यत्न करनेवाले अर्थात् दृढ़तासे उधर लगनेवाले बहुत कम मनुष्य होते हैं।परमात्मप्राप्तिकी तरफ न लगनेमें कारण है--भोग और संग्रहमें लगना। सांसारिक भोग-पदार्थोंमें केवल आरम्भमें ही सुख दीखता है। मनुष्य प्रायः तत्काल सुख देनेवाले साधनोंमें ही लगते हैं। उनका परिणाम क्या होगा--इसपर वे विचार करते ही नहीं। अगर वे भोग और ऐश्वर्यके परिणामपर विचार करने लग जायँ कि 'भोग और संग्रहके अन्तमें कुछ नहीं मिलेगा, रीते रह जायँगे और उनकी प्राप्तिके लिये किये हुए पाप-कर्मोंके फलस्वरूप चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंके रूपमें दुःख-ही-दुख मिलेगा', तो वे परमात्माके साधनमें लग जायँगे। दूसरा कारण यह है कि प्रायः लोग सांसारिक भोगोंमें ही लगे रहते हैं। उनमेंसे कुछ लोग संसारके भोगोंसे ऊँचे उठते भी हैं तो वे परलोकके स्वर्ग आदि भोग-भूमियोंकी प्राप्तिमें लग जाते हैं। परन्तु अपना कल्याण हो जाय, परमात्माकी प्राप्ति हो जाय--ऐसा दृढ़तासे विचार करके परमात्माकी तरफ लगनेवाले लोग बहुत कम होते हैं। इतिहासमें भी देखते हैं तो सकामभावसे तपस्या आदि साधन करनेवालोंके ही चरित्र विशेष आते हैं। कल्याणके लिये तत्परतासे साधन करनेवालोंके चरित्र बहुत ही कम आते हैं।वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इधर सच्ची लगनसे तत्परतापूर्वक लगनेवाले बहुत कम हैं। इधर दृढ़तासे न लगनेमें संयोगजन्य सुखकी तरफ आकृष्ट होना और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी आशा (टिप्पणी प0 395.3) रखना ही खास कारण है। 'यततामपि सिद्धानाम्' (टिप्पणी प0 395.4)--यहाँ 'सिद्ध' शब्दसे उनको लेना चाहिये, जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है और जो केवल एक भगवान्में ही लग गये हैं। उन्हींको गीतामें 'महात्मा' कहा गया है। यद्यपि 'सब कुछ परमात्मा ही है' ऐसा जाननेवाले तत्त्वज्ञ पुरुषको भी (7। 19में) महात्मा कहा गया है, तथापि यहाँ तो वे ही महात्मा साधक लेने चाहिये, जो आसुरी सम्पत्तिसे रहित होकर केवल दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर अनन्यभावसे भगवान्का भजन करते हैं (गीता 9। 13)। इसका कारण यह है कि वे यत्न करते हैं--'यतताम्।'इसलिये यहाँ (7। 19 में वर्णित) तत्त्वज्ञ महात्माको नहीं लेना चाहिये।यहाँ 'यतताम्'पदका तात्पर्य मात्र बाह्य चेष्टाओंसे नहीं है। इसका तात्पर्य है--भीतरमें केवल परमात्मप्राप्तिकी उत्कट उत्कण्ठा लगना, स्वाभाविक ही लगन होना और स्वाभाविक ही आदरपूर्वक उन परमात्माका चिन्तन होना। 'कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः'--ऐसे यत्न करनेवालोंमें कोई एक ही मेरेको तत्त्वसे जानता है। यहाँ 'कोई एक ही जानता है' ऐसा कहनेका यह बिलकुल तात्पर्य नहीं है कि यत्न करनेवाले सब नहीं जानेंगे, प्रत्युत यहाँ इसका तात्पर्य है कि प्रयत्नशील साधकोंमें वर्तमान समयमें कोई एक ही तत्त्वको जाननेवाला मिलता है। कारण कि कोई एक ही उस तत्त्वको जानता है और वैसे ही दूसरा कोई एक ही उस तत्त्वका विवेचन करता है--'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः'(गीता 2। 29)। यहाँ 'तथैव चान्यः'(वैसे ही दूसरा कोई) कहनेका तात्पर्य न जाननेवाला नहीं है; क्योंकि जो नहीं जानता है, वह क्या कहेगा और कैसे कहेगा? अतः 'दूसरा कोई' कहनेका तात्पर्य है कि जाननेवालोंमेंसे कोई एक उसका विवेचन करनेवाला होता है। दूसरे जितने भी जानकार हैं, वे स्वयं तो जानते हैं, पर विवेचन करनेमें, दूसरोंको समझानेमें वे सब-के-सब समर्थ नहीं होते।प्रायः लोग इस (तीसरे) श्लोकको तत्त्वकी कठिनता बतानेवाला मानते हैं। परन्तु वास्तवमें यह श्लोक तत्त्वकी कठिनताके विषयमें नहीं है; क्योंकि परमात्म-तत्त्वकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत तत्त्वप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होना और अभिलाषाकी पूर्तिके लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका मिलना दुर्लभ है, कठिन है। यहाँ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि 'मैं कहूँगा और तू जानेगा,' तो अर्जुन-जैसा अपने श्रेयका प्रश्न करनेवाला और भगवान-जैसा सर्वज्ञ कहनेका मिलना दुर्लभ है। वास्तवमें देखा जाय तो केवल उत्कट अभिलाषा होना ही दुर्लभ है। कारण कि अभिलाषा होनेपर उसको जाननेकी जिम्मेवारी भगवान्पर आ जाती है।यहाँ तत्त्वतः कहनेका तात्पर्य है कि वह मेरे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, विष्णु आदि रूपोंमें प्रकट होनेवाले और समय-समयपर तरह-तरहके अवतार लेनेवाले मुझको तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् उसके जाननेमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता और उसके अनुभवमें एक परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। सम्बन्ध-- दूसरे श्लोकमें भगवान्ने ज्ञान-विज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञाके अनुसार अब भगवान् ज्ञान-विज्ञान कहनेका उपक्रम करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।7.3।। भारतीय आध्यात्मिक साहित्य में भिन्नभिन्न आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से बारम्बार इस विचार को दोहराया है कि आत्मज्ञान तथा उसका अपरोक्ष अनुभव प्राप्त करने वाले साधक विरले ही होते हैं। इसके पूर्व भी हमें यह बताया गया था कि वेदान्त के सिद्धांतों को भी एक आश्चर्य के समान सुना तथा समझा जाता है। उपनिषदों में भी इसीतथ्य का ऋषियों ने वर्णन किया है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार आत्मज्ञान की प्राप्ति का उत्तरदायितत्व साधक पर ही निर्भर है। यदि कोई साधक इस अनुभव को प्राप्त नहीं कर पाता है तो उसका एकमात्र कारण आवश्यक पुरुषार्थ का अभाव है। वेदान्त अध्यात्म विषयक विज्ञान होने के कारण हमारे लिए अपने अवगुणों का ज्ञानमात्र पर्याप्त नहीं है वरन् उसकी निवृत्ति के लिए और आत्मबल की वृद्धि के लिए आवश्यक है कि हम वेदान्त ज्ञान को अपने जीवन में उतारने का भी सदैव प्रयत्न करें। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि किसी विरले पुरुष में ही आत्मोन्नति की तीव्र अभिलाषा होती है जिसके लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहता है।सहस्रों मनुष्यों में से जो लोग वेदान्त का श्रवण करते हैं तथा सम्भवत बौद्धिक स्तर पर तत्प्रतिपादित समस्त सिद्धांतों को समझते भी हैं उनमें भी कोईकोई पुरुष ऐसे ही होते हैं जो आध्यात्मिक जीवन पद्धति को पूर्णतया अपनाते हैं ऐसे प्रयत्नशील साधकों में से कोई एक साधक मुझे तत्त्व से जानता है।इसके अनेक कारण हैं। जब शिष्य उत्साहपूर्वक एकाग्रचित्त होकर सद्गुरु के उपदेश का श्रवण करता है तब वह स्वयं किसी सीमा तक ऊँचा उठ भी सकता है। परन्तु हो सकता है कि सत्य के द्वार तक पहुँचकर भी वह किसी सूक्ष्म एवं अज्ञात अभिलाषा अथवा अनजाने गर्व के कारण अपनी प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध कर ले और इस प्रकार सत्य के दर्शन से वंचित ही रह जाय। इस दृष्टि से ईसामसीह की यह घोषणा अर्थपूर्ण है कि एक धनवान् व्यक्ति के स्वर्ग द्वार में प्रवेख करने की अपेक्षा एक ऊँट सुई के छिद्र से सरलता से प्रवेश करके बाहर निकल सकता है। यहाँ धन शब्द से अभिप्राय मन में संचित वासनाओं से है न कि लौकिक सम्पत्ति से। जब तक मन पूर्णत्ाया वासनारहित होकर शुद्ध नहीं हो जाता तब तक वह सत्य के आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता है।भगवान् श्रीकृष्ण की दृष्टि को ध्यान में रखकर इस श्लोक पर विचार करने से उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि विरले लोग ही वेदान्त का श्रवण करके उसके सिद्धांत को यथार्थ रूप में समझ पाते हैं। उनमें भी ऐसे साधकों की संख्या बहुत कम ही होती है जिनमें सत्य एवं शुद्धि का जीवन जीने के लिए लक्ष्य का आवश्यक ज्ञान मन की दृढ़ता शारीरिक सहनशक्ति तथा प्रयत्न की सम्पन्नता हो। अर्जुन तथा गीता के जिज्ञासु लोग ऐसे ही विरले पुरुष हैं जो आत्मज्ञान के अधिकारी हैं। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण विज्ञान के सहित ज्ञान के उपदेश का वचन देते हैं जिससे आत्मा का साक्षात् अनुभव हो सकता है।इस प्रकार श्रोता में इस ज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न कराकर भगवान् आगे कहते हैं
Sri Anandgiri
।।7.3।।ज्ञानस्य दुर्लभत्वं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति कथमित्यादिना। सहस्रशब्दस्य बहुवाचकत्वमुपेत्य व्याकरोति अनेकेष्विति। सिद्धये सत्त्वशुद्धिद्वारा ज्ञानोत्पत्त्यर्थमित्यर्थः। सिद्ध्यर्थं यतमानानां कथं सिद्धत्वमित्याशङ्क्याह सिद्धा एवेति। सर्वेषामेव तेषां ज्ञानोदयात्तस्य सुलभत्वमित्याशङ्क्याह तेषामिति।
Sri Ramanujacharya
।।7.3।।मनुष्याः शास्त्राधिकारयोग्याः तेषां सहस्रेषु कश्चिद् एव सिद्धिपर्यन्तं यतते। सिद्धिपर्यन्तं यतमानानां सहस्रेषु कश्चिद् एव मां विदित्वा मत्तः सिद्धये यतते। मद्विदां सहस्रेषु तत्त्वतो यथावत्स्थितं मां वेत्ति न कश्चिद् इति अभिप्रायः।स महात्मा सुदुर्लभः (गीता 7।19)मां तु वेद न कश्चन (गीता 7।26) इति हि वक्ष्यते।
Sri Sridhara Swami
।।7.3।।मद्भक्तिं विना तु मज्ज्ञानं दुर्लभमित्याह मनुष्याणामिति। असंख्यातानां जीवानां मध्ये मनुष्यव्यतिरिक्तानां श्रेयसि प्रवृत्तिरेव नास्ति मनुष्याणां तु सहस्रेषु मध्ये कश्चिदेव प्रकृष्टपुण्यवशात्सिद्धये आत्मज्ञानाय प्रयतते प्रयत्नं कुर्वतामपि सहस्रेषु कश्चिदेव प्रकृष्टपुण्यवशादात्मानं वेत्ति तादृशानां चात्मज्ञानसिद्धानां सहस्रेषु कश्चिदेव मां परमात्मानं मत्प्रसादेन तत्त्वतो वेत्ति तदेवमतिदुर्लभमपि मज्ज्ञानं तुभ्यमहं वक्ष्यामीत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।7.3।।पुनरपि प्रकारान्तरेण प्रशंसा क्रियत इत्यभिप्रायेणाह वक्ष्यमाणस्येति। मनुष्यशब्दोऽत्र न जातिविशेषाभिप्रायः देवादीनामप्यधिकारस्य शारीरके समर्थितत्वात्। अतः सिद्ध्यर्थयतनयोग्यमात्राभिप्राय इति दर्शयतिशास्त्राधिकारयोग्या इति। सिद्ध्यर्थयतनमात्रं प्रायेण सर्वसाधारणम् अतःसिद्धये इत्यस्यकश्चित् इत्युक्तविशेषान्वयायसिद्धिपर्यन्तमित्युक्तम्।मां वेत्ति इत्युक्तवेदनस्य तदधीनसिद्धिपर्यन्तयतनार्थत्वंयततामपि सिद्धानाम् इत्यनुवादेनाभिप्रेतमित्याहमां विदित्वा मत्तः सिद्धये यतत इति। प्राप्यस्यैव प्रापकत्वादिकमिह तत्त्वम्।तत्त्वतः इति विशिष्टं वेदनं सामान्यतोऽपि वेदनमात्रे सत्येव हि भवति अतोयततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्तिमद्विधेषु कश्चिन्मां तत्त्वतो वेत्ति इति वाक्यद्वयं विवक्षितमित्यभिप्रायेणसिद्धिपर्यन्तं यतमानानामित्यादिवाक्यभेदः।कश्चिन्मां वेत्ति इत्यत्र कश्चिदेव वेत्ति न द्वाविति विवक्षा व्यासभीष्माद्यनेकदर्शनादयुक्ता। कश्चिद्वेत्त्येवेति विवक्षा चात्र निरर्थका दौर्लभ्यवचनविरुद्धा च अतोऽर्थस्वभावाद्वक्ष्यमाणसंवादाच्च फलितं दुर्लभत्वाभिप्रायं दर्शयति न कश्चिदिति।
Sri Vallabhacharya
।।7.3।।यतः मनुष्याणामिति। आत्मतत्त्वज्ञानाय कश्चिद्यतति। तादृशानामपि मध्ये मां भगवन्तं परमात्मानं सर्वधर्माश्रयमीश्वरं तत्त्वतः निरतिशयमहिमत्वतः कश्चिदेव व्यासवामदेवशुकादिर्वेत्ति न सर्वः। अतस्तन्मदीयं ज्ञानं ते वक्ष्यामीत्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।7.3।।मनुष्याणामिति। अस्य च वस्तुनः सर्वो न योग्यः इत्यनेन दुर्लभत्वात् यत्नसेव्यतामाह(N यत्नः सेव्यतामित्याह)।