Chapter 7, Verse 30
Verse textसाधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।7.30।।
Verse transliteration
sādhibhūtādhidaivaṁ māṁ sādhiyajñaṁ cha ye viduḥ prayāṇa-kāle ’pi cha māṁ te vidur yukta-chetasaḥ
Verse words
- sa-adhibhūta—governing principle of the field of matter
- adhidaivam—governing principle of the celestial gods
- mām—me
- sa-adhiyajñam—governing principle of the Lord all sacrificial performances
- cha—and
- ye—who
- viduḥ—know
- prayāṇa—of death
- kāle—at the time
- api—even
- cha—and
- mām—me
- te—they
- viduḥ—know
- yukta-chetasaḥ—in full consciousness of me
Verse translations
Swami Tejomayananda
।।7.30।। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकाल में भी मुझे जानते हैं।।
Swami Ramsukhdas
।।7.30।। जो मनुष्य अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
Swami Adidevananda
And those who know Me with the Adhibhuta, Adhidaiva, and Adhiyajna, they too, with their minds fixed in meditation, know Me even at the hour of death.
Swami Gambirananda
Those who know me as existing in both the physical and divine planes, and also in the context of the sacrifice, they with concentrated minds know me even at the time of death.
Swami Sivananda
Those who know Me with the Adhibhuta (pertaining to the elements), Adhidaiva (pertaining to the gods), and the Adhiyajna (pertaining to the sacrifice) know Me even at the time of death, remaining steadfast in mind.
Dr. S. Sankaranarayan
Those who realize Me as one [identical] with what governs the beings, deities, and with what governs the sacrifices—they, even at the moment of their departure, experience Me, having mastered the Yoga.
Shri Purohit Swami
Those who see Me in the life of the world, in the universal sacrifice, and as pure Divinity, keeping their minds steady, they live in Me even in the hour of death's approach.
Verse commentaries
Swami Sivananda
7.30 साधिभूताधिदैवम् with the Adhibhuta and the Adhidaiva together? माम् Me? साधियज्ञम् with the Adhiyajna? च and? ये who? विदुः know? प्रयाणकाले at the time of death? अपि even? च and? माम् Me? ते they? विदुः know? युक्तचेतसः steadfast in mind.Commentary They who are steadfast in mind? who have taken refuge in Me? who know Me as the knowledge of elements in the physical plane? as the knowledge of the gods in the celestial or mental plane? as the knowledge of the sacrifice in the realm of sacrifice? are not affected by death. They do not lose their memory. They continue to keep up the consciousness of Me even at the time of their departure from this world. Those who worship Me along with these three know Me even at the time of death. (Cf.VIII.25)(This chapter is known by the names Vijnana Yoga and Jnana Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the Science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the seventh discourse entitledThe Yoga of Wisdom and Realisation. ,
Sri Vallabhacharya
।।7.30।।साधिभूतेति। अत्रये इति पुनर्निदेशात्पूर्वनिर्दिष्टेभ्योऽन्ये जिज्ञासव उक्ता इत्यवसीयते। ये च मां (साधिभूतं) साधिदैवं साधियज्ञमिति विशेषसहितं विदुरिति। किञ्च भगवत्तत्त्वजिज्ञासवः प्राणानां प्रयाणकालेऽपि ते च मां तथाभूतमात्मानं विदुः। किम्भूतास्ते युक्तचेतस इति योगसिद्धिरन्ते सूचिता।
Sri Anandgiri
।।7.30।।न केवलं भगवन्निष्ठानां सर्वाध्यात्मिककर्मात्मकब्रह्मवित्त्वमेव किंत्वधिभूतादिसहितं तद्वेदित्वमपि सिध्यतीत्याह साधिभूतेति। अध्यात्मं कर्माधिभूतमधिदैवमधियज्ञश्चेति पञ्चकमेतद्ब्रह्म ये विदुस्तेषां यथोक्तज्ञानवतां समाहितचेतसामापदवस्थायामपि भगवत्तत्त्वज्ञानमप्रतिहतं तिष्ठतीत्याह प्रयाणेति।अपिचेति निपाताभ्यां तस्यामवस्थायां करणग्रामस्य व्यग्रतया ज्ञानासंभवेऽपि मयि समाहितचित्तानामुक्तज्ञानवतां भगवत्तत्त्वज्ञानमयत्नलभ्यमिति द्योत्यते। तदनेन सप्तमेनोत्तममधिकारिणं प्रति ज्ञेयं निरूपयता तदर्थमेव सर्वात्मकत्वादिकमुपदिशता प्रकृतिद्वयद्वारेण सर्वकारणत्वादिति च वदता तत्पदवाच्यं तल्लक्ष्यं चोपक्षिप्तम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञान0 सप्तमोऽध्यायः।।7।।
Swami Chinmayananda
।।7.30।। आत्मानुभवी पुरुष न केवल मन के स्वभाव (अध्यात्म) और कर्म ऋ़े स्वरूप को ही जानते हैं वरन् वे अधिभूत (पंच विषय रूप जगत्) अधिदैव (इन्द्रिय मन और बुद्धि की कार्य प्रणाली) और अधियज्ञ अर्थात् उन परिस्थितियों को भी जानते हैं जिनमें विषय ग्रहण रूप यज्ञ सम्पन्न होता है।ईश्वर के किसी रूप विशेष के भक्त के विषय में सम्भवत यह धारणा उचित हो सकती है कि भक्तजन अव्यावहारिक होते हैं और उनमें सांसारिक जीवन को सफलतापूर्वक जीने की कुशलता नहीं होती। एक सगुण उपासक अपने इष्ट देवता का ध्यान करने में ही इतना भावुक और व्यस्त हो जाता है कि उसमें संसार को समझने की न रुचि होती है और न क्षमता। परन्तु वेदान्त शास्त्र में आत्मज्ञानी पुरुष का जो चित्रण मिलता है उसके अनुसार वह पुरुष न केवल आत्मानुभव में दृढ़निष्ठ होता है वरन् वह सर्वत्र सदा एवं समस्त परिस्थितियों में अपने मन का स्वामी बना रहता है और ऐसी सार्मथ्य से सम्पन्न होता है जिसे सम्पूर्ण जगत् को स्वीकार करना पड़ता है।ऐसा स्वामित्व प्राप्त पुरुष ही जगत् को नेतृत्व प्रदान कर सकता है। सब प्रकार के असंयम एवं विपर्ययों से मुक्त वह ज्ञानी पुरुष अध्यात्म और अधिभूत को जानते हुए जगत् में ईश्वर के समान रहता है। सारांशत इस अध्याय की समाप्ति भगवान् की इस घोषणा के साथ होती है कि जो पुरुष मुझे जानता है वह सब कुछ जानता है। भगवान् श्रीकृष्ण के समान वह अपनी वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के भाग्य निर्माण में मार्गदर्शक बनता है।इस अध्याय के अन्तिम दो श्लोक उनमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का पूर्णरूप से वर्णन नहीं करते हैं। ये सूत्ररूप श्लोक हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है। दो अध्यायों को संबद्ध करने की पारम्परिक शास्त्रीय पद्धतियों में से यह एक पद्धति है।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ज्ञानविज्ञानयोग नामक सप्तम अध्याय समाप्त होता है।उपनिषदों में उपदिष्ट सिद्धांत महर्षि व्यास के समय केवल काव्यत्मक पूर्णत्व के काल्पनिक वर्णन के रूप में रह गये थे जिनका जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस प्रकार अपनी संस्कृति के मूल वैभव एवं सार्मथ्य से विलग हुए हिन्दुओं की सांस्कृतिक चेतना में पुनर्जीवित करना आवश्यक था। यह कार्य उन्हें उनके दार्शनिक सिद्धांतों में सौन्दर्य एवं तेजस्विता को दर्शा कर सम्पन्न किया जा सकता था। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने निश्चयात्मक रूप से यह सिद्ध किया है तथा इस पर बल दिया है कि वेदान्त प्रतिपादित पूर्णत्व कोई कल्पना नहीं वरन् वह साधक की वास्तविक उपलब्धि बन सकती है जिसे जीवन में सफलतापूर्वक जी कर वह अप्ानी पीढ़ी का कल्याण कर सकता है। अत इस अध्याय का ज्ञानविज्ञानयोग शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त है। केवल ज्ञान विशेष उपयोगी नहीं होता। ज्ञान का पूर्णत्व उसके यथार्थ अनुभव में है। ज्ञान का उपदेश तो दिया जा सकता है परन्तु अनुभव (विज्ञान) नहीं। धर्म तत्त्व ज्ञान का उपदेश देता है और उसके साथ ही उन उपायों का भी निर्देशन करता है जिनके द्वारा वह ज्ञान साधक का अपना विज्ञान बन सके और जीवन के साथ एकरूप हो जाय। इस प्रकार धर्म का प्रयोजन ऐसे अनुभवी पुरुषों का निर्माण करना है जो जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करके धर्म को सत्योचित प्रमाणित कर सकें और अपनी पीढ़ियों को आनन्दाभिभूत करके कृतार्थ करने में सक्षम हों।
Swami Ramsukhdas
।।7.30।। व्याख्या--'साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः'--[पूर्वश्लोकमें निर्गुणनिराकारको जाननेका वर्णन करके अब सगुणसाकारको जाननेकी बात कहते हैं।]यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टिका है जिसमें तमोगुणकी प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दीखती है अर्थात् इसमें सत्यता स्थिरता सुखरूपता श्रेष्ठता और आकर्षण दीखता है। यह सत्यता आदि सबकेसब वास्तवमें भगवान्के ही हैं क्षणभङ्गुर संसारके नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फकी सत्ता जलके बिना नहीं हो सकती ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूतकी सत्ता भगवान्के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्वसे यह संसार भगवत्स्वरूप ही है ऐसा जानना ही अधिभूतके सहित भगवान्को जानना है।अधिदैव नाम सृष्टिकी रचना करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीका है जिनमें रजोगुणकी प्रधानता है। भगवान् ही ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्वसे ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं ऐसा जानना ही अधिदैवके सहित भगवान्को जानना है।अधियज्ञ नाम भगवान् विष्णुका है जो अन्तर्यामीरूपसे सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुणकी प्रधानता है। तत्त्वसे भगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे सबमें परिपूर्ण हैं ऐसा जानना ही अधियज्ञके सहित भगवान्को जानना है।अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके सहित भगवान्को जाननेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्णके शरीरके किसी एक अंशमें विराट्रूप है (गीता 10। 42 11। 7) और उस विराट्रूपमें अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड) अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं जैसा कि अर्जुनने कहा है हे देव मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको जिनकी नाभिसे कमल निकला है उन विष्णुको कमलपर विराजमान ब्रह्मको और शंकर आदिको देख रहा हूँ (गीता 11। 15)। अतः तत्त्वसे अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं।'प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः'--जो संसारके भोगों और संग्रहकी प्राप्तिअप्राप्तिमें समान रहनेवाले हैं तथा संसारसे सर्वथा उपरत होकर भगवान्में लगे हुए हैं वे पुरुष युक्तचेता हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मेरेको ही जानते हैं अर्थात् अन्तकालकी पीड़ा आदिमें भी वे मेरेमें ही अटलरूपसे स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्मशरीरमें कितनी ही हलचल होनेपर भी कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होते। भगवान्के समग्ररूपसम्बन्धी विशेष बात (1) प्रकृति और प्रकृतिके कार्य क्रिया पदार्थ आदिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही सभी विकार पैदा होते हैं और उन क्रिया पदार्थ आदिकी प्रकटरूपसे सत्ता दीखने लग जाती है। परन्तु प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके भगवत्स्वरूपमें स्थित होनेसे उनकी स्वतन्त्र सत्ता उस भगवत्तत्त्वमें ही लीन हो जाती है। फिर उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं दीखती।जैसे किसी व्यक्तिके विषयमें हमारी जो अच्छे और बुरेकी मान्यता है वह मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो वह व्यक्ति भगवान्का स्वरूप है अर्थात् उस व्यक्तिमें तत्त्वके सिवाय दूसरा कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही संसारमें यह ठीक है यह बेठीक है इस प्रकार ठीकबेठीककी मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो संसार भगवान्का स्वरूप ही है। हाँ संसारमें जो वर्णआश्रमकी मर्यादा है ऐसा काम करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये यह जो विधिनिषेधकी मर्यादा है इसको महापुरुषोंने जीवोंके कल्याणार्थ व्यवहारके लिये मान्यता दी है।जब यह भौतिक सृष्टि नहीं थी तब भी भगवान् थे और इसके लीन होनेपर भी भगवान् रहेंगे इस तरहसे जब वास्तविक भगवत्तत्त्वका बोध हो जाता है तब भौतिक सृष्टिकी सत्ता भगवान्में ही लीन हो जाती है अर्थात् इस सृष्टिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न रहनेपर संसार मिट जाता है उसका अभाव हो जाता है प्रत्युत अन्तःकरणमें सत्यत्वेन जो संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई थी जो कि जीवके कल्याणमें बाधक थी वह नहीं रहती। जैसे सोनेके गहनोंकी अनेक तरहकी आकृति और अलगअलग उपयोग होनेपर भी उन सबमें एक ही सोना है ऐसे ही भगवद्भक्तके द्वारा अनेक तरहका यथायोग्य सांसारिक व्यवहार होनेपर भी उन सबमें एक ही भगवत्तत्त्व है ऐसी अटलबुद्धि रहती है। इस तत्त्वको समझनेके लिये ही उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें समग्ररूपका वर्णन हुआ है।(2) उपासनाकी दृष्टिसे भगवान्के प्रायः दो रूपोंका विशेष वर्णन आता है एक सगुण और एक निर्गुण। इनमें सगुणके दो भेद होते हैं एक सगुणसाकार और एक सगुणनिराकार। परन्तु निर्गुणके दो भेद नहीं होते निर्गुण निराकार ही होता है। हाँ निराकारके दो भेद होते हैं एक सगुणनिराकार और एक निर्गुणनिराकार।उपासना करनेवाले दो रुचिके होते हैं एक सगुणविषयक रुचिवाला होता है और एक निर्गुणविषयक रुचिवाला होता है। परन्तु इन दोनोंकी उपासना भगवान्के सगुणनिराकार रूपसे ही शुरू होती है जैसे परमात्मप्राप्तिके लिये कोई भी साधक चलता है तो वह पहले परमात्मा है इस प्रकार परमात्माकी सत्ताको मानता है और वे परमात्मा सबसे श्रेष्ठ हैं सबसे दयालु हैं उनसे बढ़कर कोई है नहीं ऐसे भाव उसके भीतर रहते हैं तो उपासना सगुणनिराकारसे ही शुरू हुई। इसका कारण यह है कि बुद्धि प्रकृतिका कार्य (सगुण) होनेसे निर्गुणको पकड़ नहीं सकती। इसलिये निर्गुणके उपासकका लक्ष्य तो निर्गुणनिराकार होता है पर बुद्धिसे वह सगुणनिराकारका ही चिन्तन करता है (टिप्पणी प0 445)।सगुणकी ही उपासना करनेवाले पहले सगुणसाकार मानकर उपासना करते हैं। परन्तु मनमें जबतक साकाररूप दृढ़ नहीं होता तबतक प्रभु हैं और वे मेरे सामने हैं ऐसी मान्यता मुख्य होती है। इस मान्यतामें सगुण भगवान्की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होती है उतनी ही उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें जब वह सगुणसाकाररूपसे भगवान्के दर्शन भाषण स्पर्श और प्रसाद प्राप्त कर लेता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।निर्गुणकी उपासना करनेवाले परमात्माको सम्पूर्ण संसारमें व्यापक समझते हुए चिन्तन करते हैं। उनकी वृत्ति जितनी ही सूक्ष्म होती चली जाती है उतनी ही उनकी उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें सांसारिक आसक्ति और गुणोंका सर्वथा त्याग होनेपर जब मैं तू आदि कुछ भी नहीं रहता केवल चिन्मयतत्त्व शेष रह जाता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।इस प्रकार दोनोंकी अपनीअपनी उपासनाकी पूर्णता होनेपर दोनोंकी एकता हो जाती है अर्थत् दोनों एक हीतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं (टिप्पणी प0 446.1)। सगुणसाकारके उपासकोंको तो भगवत्कृपासे निर्गुणनिराकारका भी बोध हो जाता है मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।(मानस 3। 36। 5) निर्गुणनिराकारके उपासकमें यदि भक्तिके संस्कार हैं और भगवान्के दर्शनकी अभिलाषा है तो उसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं अथवा भगवान्को उससे कुछ काम लेना होता है तो भगवान् अपनी तरफसे भी दर्शन दे सकते हैं। जैसे निर्गुणनिराकारके उपासक मधुसूदनाचार्यजीको भगवान्ने अपनी तरफसे दर्शन दिये थे (टिप्पणी प0 446.2)।(3) वास्तवमें परमात्मा सगुणनिर्गुण साकारनिराकार सब कुछ हैं। सगुणनिर्गुण तो उनके विशेषण हैं नाम हैं। साधक परमात्माको गुणोंके सहित मानता है तो उसके लिये वे सगुण हैं और साधक उनको गुणोंसे रहित मानता है तो उसके लिये वे निर्गुण हैं। वास्तवमें परमात्मा सगुण तथा निर्गुण दोनों हैं और दोनोंसे परे भी हैं। परन्तु इस वास्तविकताका पता तभी लगता है जब बोध होता है।भगवान्के सौन्दर्य माधुर्य ऐश्वर्य औदार्य आदि जो दिव्य गुण हैं उन गुणोंके सहित सर्वत्र व्यापक परमात्माको सगुण कहते हैं। इस सगुणके दो भेद होते हैं
Sri Madhusudan Saraswati
।।7.30।।नचैवंभूतानां मद्भक्तानां मृत्युकालेऽपि विवशकरणतया मद्विस्मरणं शङ्कनीयम् यतः साधिभूताधिदैवमधिभूताधिदैवाभ्यां सहितं तथा साधियज्ञं चाधियज्ञेन च सहितं मां ये विदुश्चिन्तयन्ति ते युक्तचेतसः सर्वदा मयि समाहितचेतसः सन्तस्तत्संस्कारपाटवात्प्रयाणकाले प्राणोत्क्रमणकाले करणग्रामस्यात्यन्तन्यग्रतायामपि चकारादयत्नेनैव मत्कृपया मां सर्वात्मानं विदुर्जानन्ति तेषां मृतिकालेऽपि मदाकारैव चित्तवृत्तिः पूर्वोपचितसंस्कारपाटवाद्भवति। तथाच ते मद्भक्तियोगात्कृतार्था एवेति भावः। अधिभूताधिदैवाधियज्ञशब्दानुत्तरेऽध्यायेऽर्जुनप्रश्नपूर्वकं व्याख्यास्यति भगवानिति सर्वमनाविलम्। तदत्रोत्तमाधिकारिणं प्रति ज्ञेयं मध्यमाधिकारिणं प्रति च ध्येयं लक्षणया मुख्यया च वृत्त्या तत्पदप्रतिपाद्यं ब्रह्म निरूपितम्।
Sri Purushottamji
।।7.30।।एवं ज्ञानस्य फलमाह साधिभूताधिदेव मेति। साधिभूताधिदैवम् अधिभूतेन अधिकरणात्मकेन अधिदेवेन मूलरूपेण सह अधियज्ञेन अंशात्मककर्मरूपेण च सहितं ये मां विदुस्ते युक्तचेतसः युक्तं तन्निष्ठं चेतो येषां तादृशा भवन्ति मां प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। च पुनः प्रयाणकाले मरणसमयेऽपि भ्रमादिरहितास्ते मां विदुः जानन्ति मरणकाले स्वज्ञानोक्त्याअन्ते या मतिः सा गतिः [ ] इति वाक्योक्तरीत्या प्राप्नुवन्तीति व्यञ्जितम्।भक्तानामेव श्रीकृष्णज्ञानविज्ञानयोग्यता। अतोऽत्र ज्ञानविज्ञानयोगं हरिरुवाच हि।।7।।
Sri Dhanpati
।।7.30।।ननु मरणकाले तेषां त्वद्विस्मरणस्य संभवात्कथं संसारान्मोक्ष इत्याशङ्क्याह सेति। अधिभूतं चाधिदैवं चाधिभूताधिदैवमिति समाहारद्वन्द्वस्तेन सहवर्तत इति तम् अधियज्ञेन सह वर्तत इति तं च मां ये विदुः प्रयाणकाले मरणकालेऽपि च मां ते युक्तचेतसो विदुरतस्तेषां मोक्षप्राप्तौ न कोऽपि संदेह इति। साधिभूतादिपदार्थस्तु मूलएव स्फुटीभविष्यति। तदनेन सप्तमाध्यानेनोक्तमाधिकारिणं प्रति ज्ञेयं निरुपयता तज्ज्ञानार्थ मध्यमाधिकारिणं प्रति तत्पदवाच्यं प्रतिपादयता तत्पदवाच्यं तल्लक्ष्यं च प्रदर्शितम्।श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां सप्तमोध्यायः।।7।।
Sri Neelkanth
।।7.30।।एवं तत्पदार्थविवेकं सद्योमुक्तिहेतुं समाप्य तत्प्राप्त्युपायभूतान्युपासनानि क्रममुक्तिफलानि विस्तरेण वक्तुकामः संक्षेपेण सूत्रयति साधिभूतेति। अधिभूतं च अधिदैवं च ताभ्यां सहितं साधिभूताधिदैवम्। तथाऽधियज्ञेन सहितं साधियज्ञं च मां ये विदुरुपासते ते युक्तचेतसः। यतो नित्यं समाहितचित्तास्ततो मां प्रयाणकालेऽपि सर्वजनव्यामोहके विदुरेव। भावनादार्ढ्यान्मरणकालेऽपि तस्य ज्ञानस्य प्रमोषो न भवत्यतो भगवति नैरन्तर्येण दृढा भावना कर्तव्येति भावः। अधिभूतादिपदार्थं तु भगवानेव व्याख्यास्यतीति नोक्तवन्तो वयम्।
Sri Shankaracharya
।।7.30।। साधिभूताधिदैवम् अधिभूतं च अधिदैवं च अधिभूताधिदैवम् सह अधिभूताधिदैवेन वर्तते इति साधिभूताधिदैवं च मां ये विदुः साधियज्ञं च सह अधियज्ञेन साधियज्ञं ये विदुः प्रयाणकाले अपि च मरणकाले अपि च मां ते विदुः युक्तचेतसः समाहितचित्ता इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येसप्तमोऽध्यायः।।
Sri Ramanujacharya
।।7.30।।अत्र य इति पुनर्निर्देशात् पूर्वनिर्दिष्टेभ्यः अन्ये अधिकारिणो ज्ञायन्ते।साधिभूतं साधिदैवं माम् ऐश्वर्यार्थिनो ये विदुः इत्येतद् अनुवादस्वरूपम् अपि अप्राप्तार्थत्वात् तद्विधायकम् एव।तथा साधियज्ञम् इत्यपि त्रयाणाम् अधिकारिणाम् अविशेषेण विधीयते अर्थस्वाभाव्यात् त्रयाणां हि नित्यनैमित्तिकरूपमहायज्ञाद्यनुष्ठानम् अवर्जनीयम्।ते च प्रयाणकालेऽपि स्वाप्राप्यानुगुणं मां विदुः।ते च इति चकारात् पूर्वे जरामरणमोक्षाय यतमानाश्च प्रयाणकालेऽपि विदुः इति समुच्चीयन्ते। अनेन ज्ञानिनः अपि अर्थस्वाभाव्यात् साधियज्ञं मां विदुः प्रयाणकाले अपि स्वप्राप्यानुगुणं मां विदुः इति उक्तं भवति।
Sri Sridhara Swami
।।7.30।। न चैवंभूतानां योगभ्रंशशङ्कापीत्याह साधिभूताधिदैवमिति। अधिभूतादिशब्दानामर्थं भगवानेवानन्तराध्याये व्याख्यास्यति। अधिभूतेनाधिदैवेन च सहाधियज्ञेन च सहितं ये मां भजन्ति ते युक्तचेतसः मय्यासक्तमनसः प्रयाणकालेऽपि मरणसमयेऽपि मां विदुर्जानन्ति नतु तदापि व्याकुलीभूय मां विस्मरन्ति। अतो मद्भक्तानां न योगभ्रंशशङ्केत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।7.30।।साधिभूत इति श्लोकस्यश्वर्यार्थिविषयत्वं वक्तुमधिकारिणो भेदमात्रज्ञापकं तावद्दर्शयति अत्रेति। पूर्वाधिकारिविषयत्वेसाधियज्ञं च ते विदुः इति हि वक्तव्यम् न चैवं शिष्टाः पठन्ति। न चात्र यच्छब्दावृत्तेः प्रयोजनमस्तीति भावः। प्रश्नोत्तरवशाच्चाधिकारिभेदः सेत्स्यति। एवं सामान्येन ज्ञातमधिकारिभेदमधिभूतादिसामर्थ्याद्विशिनष्टिऐश्वर्यार्थिन इति।जरामरणमोक्षाय [7।29] इत्यादाविव अत्रापि यच्छब्दवशादनुवादत्वं प्रतीतमिति तत्प्रतिक्षिपतिइत्येतदित्यादिना। यदाग्नेयोऽष्टाकपालः [श.ब्रा.2।5।1।11] इत्यादिवदिति भावः। अस्य च विधित्वं प्रश्नादिवशाच्च फलिष्यति। नह्यवगते प्रश्नाद्यवकाशः।साधियज्ञम् इत्यस्यैकस्मिन्नधिकारिणि निर्दिष्टस्याप्यर्थस्वाभाव्यात्ित्रष्वप्यन्वयं दर्शयति तथेति।अर्थस्वाभाव्यादिति सर्वाधिकारिसाधारणतया प्रमाणसिद्धयज्ञाख्यपदार्थस्वाभाव्यादित्यर्थः। एतदेव दर्शयति त्रयाणां हीति। अन्यथासन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु इत्यादिक्रमेण कर्मानर्हत्वादिप्रसङ्ग इत्यभिप्रायेणाहअवर्जनीयमिति। अपि चेत्येकाव्ययार्थत्वे प्रयोजनाभावात् पृथक्त्वे सप्रयोजनतया अन्वयसम्भवाच्च विभज्याह ते चेति। अन्तिमप्रत्ययस्यैकस्यैव वक्ष्यमाणं विषयविशेषेण प्राप्यानुगुणाकारत्वं युक्तचेतश्शब्देन विवक्षितमित्याह स्वप्राप्यानुगुणमिति। चकारस्य पृथगन्वयेन लब्धमाहते चेति।चकारादिति यद्वृत्तप्रतियोगिकत्वात्तद्वृत्तमैश्वर्यार्थिविषयमेव। चकारात्तु पूर्वश्लोकोक्तानां समुच्चयः। तेषामपि ह्यन्तिमप्रत्यये विशेषो वक्ष्यत इति भावः।त्रयाणाम् इत्यादिकमयुक्तं ज्ञानिनामत्र प्रसङ्गाभावादित्यत्राह अनेनेति। यज्ञान्तिमप्रत्ययमात्रयोरधिकारित्रयसाधारण्यसिद्धेरिति भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां सप्तमोऽध्यायः।।7।।
Sri Abhinavgupta
।।7.28 7.30।।येषामित्यादि युक्तचेतस इत्यन्तम्। ये तु विनष्टतामसाः पुण्यापुण्यपरिक्षयक्षेमीकृतात्मानः ते विपाटितमहामोहवितानाः सर्वमेव भगवद्रश्मिखचितं जरामरणमयतमिस्रस्रुतं ब्रह्म विदन्ति आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाधियाज्ञिकानि च ममैव रूपान्तराणि। प्रयाणकाले च नित्यं भगवद् भावितान्तःकरणत्वात् मां जानन्ति यतो येषां जन्म पूर्वमेव भगवत्तत्त्वं ते अन्तकाले परमेश्वरं संस्मरेयुः। किं जन्मासेवनया इति ये मन्यन्ते तेषां तूष्णींभाव एव शोभनः इति।