Chapter 7, Verse 18
Verse textउदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।7.18।।
Verse transliteration
udārāḥ sarva evaite jñānī tvātmaiva me matam āsthitaḥ sa hi yuktātmā mām evānuttamāṁ gatim
Verse words
- udārāḥ—noble
- sarve—all
- eva—indeed
- ete—these
- jñānī—those in knowledge
- tu—but
- ātmā eva—my very self
- me—my
- matam—opinion
- āsthitaḥ—situated
- saḥ—he
- hi—certainly
- yukta-ātmā—those who are united
- mām—in me
- eva—certainly
- anuttamām—the supreme
- gatim—goal
Verse translations
Swami Adidevananda
All these are indeed generous, but I deem the man of knowledge to be My very self; for he, integrated, is devoted solely to Me as the highest end.
Swami Ramsukhdas
।।7.18।। पहले कहे हुए सब-के-सब भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है -- ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह युक्तात्मा है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मेरेमें ही दृढ़ आस्थावाला है।
Swami Tejomayananda
।।7.18।। (यद्यपि) ये सब उत्कृष्ट हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें अच्छी प्रकार स्थित है।।
Swami Gambirananda
Indeed, all of these are noble, but the man of Knowledge is the Self itself. This is my opinion. For, with a steadfast mind, he is set on the path leading only to Me, who am the supreme Goal.
Swami Sivananda
Indeed, all these are noble; however, I consider the wise man as My very Self; for, he is steadfast in mind and established in Me alone as the supreme goal.
Dr. S. Sankaranarayan
All these are indeed noble persons. But the man of wisdom is considered as the very Soul of Mine. For, with his self (mind) that has mastered the Yoga, he has resorted to Me alone as his most supreme goal.
Shri Purohit Swami
Noble-minded are they all, but the wise man I hold as my own self; for he, remaining always at peace with me, makes me his ultimate goal.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।7.18।।तर्हि किमितरे त्वद्भक्तास्त्रिविधाः संसृताः इति नहि नहीत्याह उदाराः सर्व इति। एते मद्भक्ताः सर्व एवोदारा देवान्तरोपासकेभ्यो महान्तो वदान्याश्च मत्तो यत्किञ्चित् गृह्णन्ति मम सर्वसमर्पकाः प्रथमं अन्यथा फलसिद्धिर्न स्यात्। परं व्यावहारिकरीत्या तद्भजनं प्राकृतमिति न तत्र प्रियत्वमुक्तम्। संसृतिरपि प्राकृतानामिव न भविष्यति यथा कथञ्चिद्भजनात्। उक्तं च भागवते 1।5।17त्यक्त्वा स्वधम चरणाम्बुजं इत्युपक्रम्ययत्र क्व वाऽभद्रमभूदमुष्य किं को वाऽर्थ आप्तो भजतां स्वधर्मतः इत्यादिनाकामं क्रोधं भयंस्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विदधते यान्ति तन्मयतां हि ते भाग.10।29।15 इति चान्ते तन्मयत्वफलमननादुदारास्ते। यथाकथञ्चित्कार्यापेक्षयापि भगवत्सम्बन्धिभावे प्रवृत्तिरुचिततरेति सङ्क्षेपः। मम महिमतत्त्वज्ञानी पुनरात्मैवेति मे मतम्। ब्रह्मवादानुरोधि भगवन्मतं वा आस्थितः आश्रितः मामेवानुत्तमां गतिं मुक्तिं फलभूतामास्थितश्च मे मतः। तत्रात्मत्वं मन्ये। तदधीन इत्यर्थसिद्धम्। तत उत्तमः।
Sri Dhanpati
।।7.18।। तर्हि किमार्तादयस्तवाप्रियाः न आत्मत्वेनात्यर्थमिति विशेषणादित्याह उदारा इति। उदाराः सर्व एते त्रयोऽप्यन्यभ्य आर्तादिभ्यः। आर्त्यादिनिवृत्त्यर्थमितरदेवतादिभक्तेभ्य उत्कृष्टाः मम प्रिया एवेत्यर्थः। नहि कश्चिदार्तो वा जिज्ञासुर्वाऽर्थार्थी आर्तादिभ्यः। आर्त्यादिनिवृत्त्यर्थमितरदेवतादिभक्तेभ्य उत्कृष्टाः मम प्रिया एवेत्यर्थः। नहि कश्चिदार्थो वा जिज्ञासुर्वाऽर्थार्थी वा मद्भक्तो मम वासुदेवस्याप्रियो भवति। परंतुये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाभ्यहम् इत्युक्तत्वात् यो यदर्थ मां भजति तमहमपि तत्फलदानेन भजामि। यस्तु निष्कामी प्रेमातिशयेन मां भजति तमहमपि तथैव भजाम्यतो ज्ञानी इत्यर्थं प्रियो भवतीति विशेषः। तत्कुत इति तत्राह। ज्ञानी तु ममात्मैव नान्यो यत इति मे मतं निश्चयः।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। तुशब्दस्तेभ्यो विशेषद्योतनार्थः। ज्ञानी त्वात्मैवेत्यत्र हेतुमाह आस्थित इति। हि यस्मात्स ज्ञानी अहमेव भगवान्वासुदेवो नान्योऽहमस्मीत्येवं युक्तः समाहित आत्मा चित्तं यस्य सः मामेव परं ब्रह्मानुत्तमां गतिं निरतिशयं गन्तव्यं गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः।
Sri Neelkanth
।।7.18।।उदारा इति। सर्वेऽप्येते उदारा उत्कृष्टा एव। ज्ञानी तु ममात्मैवेति मम मतं निश्चितम्। हि यतः स युक्तात्मा अहमेव भगवान्वासुदेव इत्यभेदेन मयि समाहितचित्तो मामेवानुत्तमां श्रेष्ठां गतिमास्थितो नतु मत्तोऽन्यदारोग्यादिकं कामयमानो मद्भक्तिं करोति। किंतर्हि मत्प्राप्त्यर्थमेव मां भजत इत्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।7.18।। व्याख्या--उदाराः सर्व एवैते ये सब-के-सब भक्त उदार हैं, श्रेष्ठ भाववाले हैं। भगवान्ने यहाँ जो 'उदाराः'शब्दका प्रयोग किया है, उसमें कई विचित्र भाव हैं; जैसे-- (1) चौथे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि 'भक्त जिस प्रकार मेरे शरण होते हैं, उसी प्रकार मैं उनका भजन करता हूँ।' भक्त भगवान्को चाहते हैं और भगवान् भक्तको चाहते हैं। परन्तु इन दोनोंमें पहले भक्तने ही सम्बन्ध जोड़ा है और जो पहले सम्बन्ध जोड़ता है, वह उदार होता है। तात्पर्य यह है कि भगवान् सम्बन्ध जोड़ें या न जोड़ें, इसकी भक्त परवाह नहीं करता। वह तो अपनी तरफसे पहले सम्बन्ध जोड़ता है और अपनेको समर्पित करता है। इसलिये वह उदार है। (2) देवताओंके भक्त सकामभावसे विधिपूर्वक यज्ञ दान, तप आदि कर्म करते हैं तो देवताओंको उनकी कामनाके अनुसार वह चीज देनी ही पड़ती है; क्योंकि देवतालोग उनका हित-अहित नहीं देखते। परन्तु भगवान्का भक्त अगर भगवान्से कोई चीज माँगता है तो भगवान् अगर उचित समझें तो वह चीज दे देते हैं अर्थात् देनेसे उसकी भक्ति बढ़ती हो, तो दे देते हैं और भक्ति न बढ़ती हो संसारमें फँसावट होती हो तो नहीं देते। कारण कि भगवान् परम पिता हैं और परम हितैषी हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपनी कामनाकी पूर्ति हो अथवा न हो, तो भी वे भगवान्का ही भजन करते हैं, भगवान्के भजनको नहीं छोड़ते--यह उनकी उदारता ही है। (3) संसारके भोग और रुपये-पैसे प्रत्यक्ष सुखदायी दीखते हैं और भगवान्के भजनमें प्रत्यक्ष जल्दी सुख नहीं दीखता, फिर भी संसारके प्रत्यक्ष सुखको छोड़कर अर्थात् भोग भोगने और संग्रह करनेकी लालसाको छोड़कर भगवान्का भजन करते हैं, यह उनकी उदारता ही है। (4) भगवान्के दरबारमें माँगनेवालोंको भी उदार कहा जाता है--यहि दरबार दीनको आदर रीति सदा चलि आई। (विनयपत्रिका 165। 5) अर्थात् कोई कुछ माँगता है, कोई धन चाहता है, कोई दुःख दूर करना चाहता है--ऐसे माँगनेवाले भक्तोंको भी भगवान् उदार कहते हैं, यह भगवान्की विशेष उदारता ही है। (5) भक्तोंका लौकिक-पारलौकिक कामनापूर्तिके लिये अन्यकी तरफ किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं जाता। वे केवल भगवान्से ही कामनापूर्ति चाहते हैं। भक्तोंका यह अनन्यभाव ही उनकी उदारता है।'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' यहाँ 'तु'पदसे ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी विलक्षणता बतायी है कि दूसरे भक्त तो उदार हैं ही, पर ज्ञानीको उदार क्या कहें, वह तो मेरा स्वरूप ही है। स्वरूपमें किसी निमित्तसे, किसी कारणविशेषसे प्रियता नहीं होती, प्रत्युत अपना स्वरूप होनेसे स्वतः-स्वाभाविक प्रियता होती है।प्रेममें प्रेमी अपने-आपको प्रेमास्पदपर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी सत्ता अलग नहीं मानता। ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमीपर न्योछावर हो जाते हैं। उनको इस प्रेमाद्वैतकी विलक्षण अनुभूति होती है। ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है। परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेम-तत्त्व अनिर्वचनीय है। शरीरके साथ सर्वथाअभिन्नता (एकता) मानते हुए भी निरन्तर भिन्नता बनी रहती है और भिन्नताका अनुभव होनेपर भी भिन्नता बनी रहती है। इसी तरह प्रेमतत्त्वमें भिन्नता रहते हुए भी अभिन्नता बनी रहती है और अभिन्नताका अनुभव होनेपर भी अभिन्नता बनी रहती है।जैसे, नदी समुद्रमें प्रविष्ट होती है तो प्रविष्ट होते ही नदी और समद्रके जलकी एकता हो जाती है। एकता होनेपर भी दोनों तरफसे जलका एक प्रवाह चलता रहता है अर्थात् कभी नदीका समुद्रकी तरफ और कभी समुद्रका नदीकी तरफ एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। ऐसे ही प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है। उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है--इसका खयाल नहीं रहता। वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं। यही 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्'पदोंका तात्पर्य है।'आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्' क्योंकि जिससे उत्तम गति कोई हो ही नहीं सकती, ऐसे सर्वोपरि मेरेमें ही उसकी श्रद्धा, विश्वास और दृढ़ आस्था है। तात्पर्य है कि उसकी वृत्ति किसी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर मेरेसे हटती नहीं, प्रत्युत एक मेरेमें ही लगी रहती है।'केवल भगवान् ही मेरे हैं'--इस प्रकार मेरेमें उसका जो अपनापन है, उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलताको लेकर किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं पड़ता, प्रत्युत वह अपनापन दृढ़ होता और बढ़ता ही चला जाता है।वह युक्तात्मा है अर्थात् वह किसी भी अवस्थामें मेरेसे अलग नहीं होता, प्रत्युत सदा मेरेसे अभिन्न रहता है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें कहे हुए ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी वास्तविकता और उसके भजनका प्रकार आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।7.18।। विशाल हृदय के भक्तानुग्रहकारक भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो कोई भी भक्त मेरी भक्ति करता है वह अन्य जनों की अपेक्षा उत्कृष्ट ही है फिर चाहे वह अपने कष्ट निवारणार्थ मेरा भक्त हो अथवा वह अर्थार्थी हो। किसानकिसी प्रकार से वह मुझ अनन्तस्वरूप की ओर ही अग्रसर हो रहा होता है। अत वह उत्कृष्ट है। तथापि इन चतुर्विध भक्तों में ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है।हम सब जानते हैं कि किसी मन्त्री का मित्र होना और स्वयं ही मन्त्री बनना इन दोनों में बहुत अन्तर है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन्त्री की मित्रता प्राप्त होने मात्र से भी मनुष्य को समाज में एक विशेष प्रभावपूर्ण स्थान प्राप्त होता है परन्तु मन्त्री पद की समस्त गरिमा एवं अधिकार तो स्वयं मन्त्री बनने पर ही प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार किसी फल विशेष के लिए ईश्वर की आराधना करना उसका आह्वान करना निश्चय ही एक दैवी गुण है किन्तु ज्ञानी पुरुष निष्काम होकर मन और बुद्धि के अतीत अपने परमात्मस्वरूप को पहचान कर परिच्छिन्न अहंकार को ही समाप्त कर देता है और परमात्मा के साथ वह एकत्वभाव को प्राप्त हो जाता है।तत्पश्चात् ऐसा ज्ञानी पुरुष सदा आत्मस्वरूप में ही स्थित होता है। इसलिए अन्य भक्तों की तुलना में ज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ है यह श्रीकृष्ण का मत है।
Sri Ramanujacharya
।।7.18।।सर्वे एव एते माम् एव उपासते इति उदाराः वदान्याः ये मत्तो यत् किञ्चिद् अपि गृह्णन्ति ते हि मम सर्वस्वदायिनः। ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतं तदायत्तात्मधारणः अहम् इति मन्ये।कस्माद् एवं यस्माद् अयं मया विना आत्मधारणासंभावनया माम् एव अनुत्तमं प्राप्यम् आस्थितः अतः तेन विना मम अपि आत्मधारणं न संभवति ततो मम अपि आत्मा हि सः।न अल्पसंख्यासंख्यातानां पुण्यजन्मनां फलम् इदं यन्मच्छेषतैकरसात्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकं मत्प्रपदनम् अपि तु
Sri Sridhara Swami
।।7.18।। तर्हि किमितरे त्रयस्त्वद्भक्ताः संसरन्ति नहि नहीत्याह उदारा इति। सर्वेऽप्येत उदारा महान्तः। मोक्षभाज एवेत्यर्थः। ज्ञानी पुरात्मैवेति मे मतं निश्चयः। हि यस्मात् स ज्ञानी युक्तात्मा मदेकचित्तः सन् न विद्यत उत्तमा यस्यास्तामनुत्तमां सर्वोत्तमां गतिं मामेवास्थित आश्रितवान्। मद्व्यतिरिक्तमन्यत्फलं न मन्यत इत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।7.18।।तेषाम् 7।17 इति श्लोकस्यार्थ एवउदाराः इत्यनेनापि दृढीक्रियते। ज्ञानिनोऽत्यर्थप्रियत्ववचनादन्येषामपि किञ्चित्प्रियत्वं फलितम् तदेवउदाराः सर्वे इति पादेन विशदीकृतम्। तदेकोपायत्वस्य साधारण्यंमामेवोपासत इत्यनेन दर्शितम्। उदारशब्दस्यात्र मन्दप्रयोजनोत्कर्षमात्रपरत्वव्युदासाय प्रसिद्ध्यनुरोधेनाह वदान्या इति। अर्थित्वेनावस्थितानां कथं वदान्यत्वं इत्यत्राह ये मत्त इति। सकलफलप्रदत्वलक्षणं परमौदार्यमेव हि मम सर्वस्वम् तच्च प्रतिग्रहीतृसापेक्षं तदभावे कथं स्यादित्युक्तं भवति।मतम् इति नपुंसकत्वान्न ज्ञानीत्यनेनान्वयःमतः इति परोक्तपाठस्त्वप्रसिद्धः तस्मादितिशब्दोऽध्याहृतः। अयमर्थः त्रय्यन्तसिद्धान्तो भवतु वा मा वा कृष्णसिद्धान्तस्त्वयमिति भावः। आत्मशब्दस्यात्र बहुप्रमाणविरुद्धत्वान्न तादात्म्यादिविषयत्वम् तथा सति व्यतिरेकनिर्देशबाधश्च। अतस्तदभिप्रेतमाह तदायत्तेति। शरीरं प्रति धारको ह्यात्मा। प्रियत्वातिशयप्रतिपादनाय सावधारणोऽयमात्मत्वारोपः। अस्मिन्नभिमानमात्रसारे भवत्सिद्धान्ते किं प्रमाणमभिमतं इत्याकाङ्क्षायाम्आस्थितः इत्यादिकमुच्यत इत्याह कस्मादेवमिति। हिर्हेतौ।युक्तात्मा इत्याशंसायां क्तः परमात्मयोगाशंसाविशिष्ट एव आत्मा यस्य सोऽत्र युक्तात्मा तदेतदभिप्रेत्योक्तं मया विनाऽऽत्मधारणासम्भावनयेति। मदनुसन्धानाभावे सति अर्थान्तरानुसन्धानप्रवृत्तेरसमर्थस्वभावतयेत्यर्थः।मामेवेति अयुक्तदशायामसत्त्वमेव हि स्यादिति भावः।मामेव उपायभूतमेव न तु फलान्तरलवमित्यर्थः।प्राप्यमिति गतिशब्दोऽत्र गन्तव्यपरः। अस्त्वेवं तदायत्तधारणो यथाप्रमाणं ज्ञानी ततः किमायातं भगवतस्तदायत्तधारणत्वस्य इत्यत्राहअतस्तेन विनेति। सहृदयानां मदभिप्रायविदां चैतद्व्यक्तमित्यभिप्रायः। तथा हिन तस्यान्यः प्रियतरः प्रतिबुद्धैर्महात्मभिः। विद्यते त्रिषु लोकेषु ततोऽस्म्येकान्तितां गतः। नारदैतद्धि ते सत्यं वचनं समुदाहृतम्। नास्य भक्तैः प्रियतरो लोके कश्चन विद्यते इति।ततो ममात्मा हि स इति आधारत्वादिविशेषो ह्यात्मलक्षणमिति भावः। ऐश्वर्यादिकामाः सर्व एव मत्स्वरूपस्यातिशयहेतवः। ज्ञानी तु मम स्वरूपसत्ताहेतुरिति स्वभक्तस्तुतिपरः श्लोकः।
Sri Abhinavgupta
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।7.18।।तत्किमार्तादयस्तव न प्रियाः न अत्यर्थमिति विशेषणादित्याह एते आर्तादयः सकामा अपि मद्भक्ताः सर्वे त्रयोऽप्युदारा एव उत्कृष्टा एव पूर्वजन्मार्जितानेकसुकृतराशित्वात्। अन्यथा हि मां न भजेयुरेव। आर्तस्य जिज्ञासोरर्थार्थिनश्च मद्विमुखस्य क्षुद्रदेवताभक्तस्यापि बहुलमुपलम्भात्। अतो मम प्रिया एव ते। नहि ज्ञानवानज्ञो वा कश्चिदपि भक्तो ममाप्रियो भवति किंतु यस्य यादृशी मयि प्रीतिर्ममापि तत्र तादृशी प्रीतिरिति स्वभावसिद्धमेवैतत्। तत्र सकामानां त्रयाणां काम्यमानमपि प्रियमहमपि प्रियः। ज्ञानिनस्तु प्रियान्तरशून्यस्याहमेव निरतिशयप्रीतिविषयः। अतः सोऽपि मम निरतिशयप्रीतिविषय इति विशेषः। अन्यथा हि मम कृतज्ञता न स्यात् कृतघ्नता च स्यात्। अतएवात्यर्थमिति विशेषणमुपात्तं प्राक्। तथा हियदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवति इत्यत्र तरबर्थस्य विवक्षितत्वाद्विद्यादिव्यतिरेकेण कृतमपि कर्म वीर्यवद्भवत्येव तथात्यर्थं ज्ञानी भक्तो मम प्रिय इत्युक्तेर्योज्ञानव्यतिरेकेण भक्तः सोऽपि प्रिय इति पर्यवस्यत्येव अत्यर्थमिति विशेषणस्य विवक्षितत्वात्। उक्तंहिये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् इति। अतो मामात्मत्वेन ज्ञानवाञ्ज्ञानी आत्मैव न मत्तो भिन्नः किं त्वहमेव स इति मम मतं निश्चयः। तुशब्दः सकामभेददर्शित्रितयापेक्षया निष्कामत्वभेदादर्शित्वविशेषद्योतनार्थः। हि यस्मात्स ज्ञानी युक्तात्मा सदा मयि समाहितचित्तः सन् मां भगवन्तमनन्तमानन्दघनमात्मानमेवानुत्तमां सर्वोत्कृष्टां गतिं गन्तव्यं परमं फलमास्थितोऽङ्गीकृतवान् नतु मद्भिन्नं किमपि फलं स मन्यत इत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।7.18।।नन्वेषु चतुर्विधेषु ज्ञानी उत्तम उक्तस्ततोऽपि भक्तस्तदा पूर्वोक्तानां किं फलं इत्यपेक्षायामाह उदारा इति। एते सर्व एव स्वार्थपरित्यागेन मदर्थधर्मादित्रयभजनकर्त्तारः उदाराः मोक्षाधिकारिणः। तु पुनः ज्ञानी आत्मैव मदात्मक एव मुक्त एवेत्यर्थ इति मे मतम्। हीति निश्चयेन। अनन्यमनसा सर्वत्यागेन अनुत्तमां न विद्यते उत्तमा यस्यास्तादृशीं गतिं प्राप्य स्थानं ज्ञात्वा मामेवास्थितः स युक्तात्मा मत्संयोगयुक्तो दास्यादिभावेनेत्यर्थः। स उत्तम इति भावः।
Sri Shankaracharya
।।7.18।। उदाराः उत्कृष्टाः सर्व एव एते त्रयोऽपि मम प्रिया एवेत्यर्थः। न हि कश्चित् मद्भक्तः मम वासुदेवस्य अप्रियः भवति। ज्ञानी तु अत्यर्थं प्रियो भवतीति विशेषः। तत् कस्मात् इत्यत आह ज्ञानी तु आत्मैव न अन्यो मत्तः इति मे मम मतं निश्चयः। आस्थितः आरोढुं प्रवृत्तः सः ज्ञानी हि यस्मात् अहमेव भगवान् वासुदेवः न अन्योऽस्मि इत्येवं युक्तात्मा समाहितचित्तः सन् मामेव परं ब्रह्म गन्तव्यम् अनुत्तमां गतिं गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः।।ज्ञानी पुनरपि स्तूयते
Sri Anandgiri
।।7.18।।ज्ञानी चेदत्यर्थमीश्वरस्य प्रियो भवति तर्हि विशेषणसामर्थ्यादितरेषामप्रियत्वं प्राप्तमिति शङ्कते न तर्हीति। तेषां भगवन्तं प्रति प्रियत्वमत्र विवक्षितमित्याह नेति। अत्यर्थमिति विशेषणस्य तर्हि किं प्रयोजनमिति पृच्छति किं तर्हीति। सर्वेषां भगवदभिमुखत्वादुत्कर्षेऽपि ज्ञानिनि तदतिरेकमङ्गीकृत्य विशेषणमित्याह उदारा इति। किं तत्र प्रमाणमित्याशङ्क्येश्वरज्ञानमित्याह मे मतमिति। ज्ञानी त्वात्मैवेत्यत्र हेतुमाह आस्थित इति। सर्वशब्दस्य ज्ञानिव्यतिरिक्तविषयत्वमाह त्रयोऽपीति। ज्ञानिव्यतिरिक्तानां भगवदभिमुखत्वेऽपि ज्ञानाभावापराधान्न भगवत्प्रीतिविषयतेत्याशङ्क्याह नहीति। कस्तर्हि ज्ञानवति विशेषस्तत्राह ज्ञानी त्विति। तमेव विशेषं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति तत्कस्मादित्यादिना। सर्वमात्मानं पश्यतोऽपि तस्य तव कथं यथोक्तो निश्चयः स्यादित्याशङ्क्यास्थित इत्येतद्व्याकरोति आरोढुमिति। आरोहे हेतुं सूचयति स ज्ञानीति। आरोढुं प्रवृत्तत्वमेव स्फुटयति मामेवेति।
Swami Sivananda
7.18 उदाराः noble? सर्वे all? एव surely? एते these? ज्ञानी the wise? तु but? आत्मा Self? एव very? मे My? मतम् opinion? आस्थितः is established? सः he? हि verily? युक्तात्मा steadfastminded? माम् Me? एव verily? अनुत्तमाम्,the supreme? गतिम् goal.Commentary Are not the other three kinds of devotees dear to the Lord They are. They are all noble souls. But the wise man is exceedingly dear because he has a steady mind he has fixed his mind on Brahman. He does not want any worldly object? but only the Supreme Being. He seeks Brahman alone as the supreme goal. He practises Ahamgraha Upasana (meditation on the Self as the all). He tries to realise that he is identical with the Supreme Self. Therefore I regard a wise man as My very Self. (Cf.II.49)