Chapter 10, Verse 23
Verse textरुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्। वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।10.23।।
Verse transliteration
rudrāṇāṁ śhaṅkaraśh chāsmi vitteśho yakṣha-rakṣhasām vasūnāṁ pāvakaśh chāsmi meruḥ śhikhariṇām aham
Verse words
- rudrāṇām—amongst the Rudras
- śhaṅkaraḥ—Lord Shiv
- cha—and
- asmi—I am
- vitta-īśhaḥ—the god of wealth and the treasurer of the celestial gods
- yakṣha—amongst the semi-divine demons
- rakṣhasām—amongst the demons
- vasūnām—amongst the Vasus
- pāvakaḥ—Agni (fire)
- cha—and
- asmi—I am
- meruḥ—Mount Meru
- śhikhariṇām—amongst the mountains
- aham—I am
Verse translations
Swami Adidevananda
Of the Rudras, I am Sankara. Of the Yaksas and Raksasas, I am the Lord of Wealth (Kubera). Of the Vasus, I am Agni; of the mountains, I am Meru.
Swami Sivananda
And among the Rudras, I am Sankara; among the Yakshas and Rakshasas, the Lord of Wealth (Kubera); among the Vasus, I am Pavaka (Fire); and among the seven mountains, I am Meru.
Dr. S. Sankaranarayan
And of the Rudras, I am Sankara; of the Yaksas and the Raksas, I am the Lord of Wealth (Kubera); of the Vasus, I am the Fire-God; of the mountains, I am Meru.
Shri Purohit Swami
Among forces of vitality, I am the life; I am Mammon to the heathens and the godless; I am the energy in fire, earth, wind, sky, heaven, sun, moon, and planets; and among mountains, I am Mount Meru.
Swami Ramsukhdas
।।10.23।। रुद्रोंमें शंकर और यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर मैं हूँ।वसुओंमें पावक (अग्नि) और शिखरवाले पर्वतोंमें सुमेरु मैं हूँ।
Swami Tejomayananda
।।10.23।। मैं (ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनपति कुबेर (वित्तेश) हूँ; (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ तथा शिखर वाले पर्वतों में मेरु हूँ।।
Swami Gambirananda
Among the Rudras, I am Aja, Ekapada, Ahirbudhnya, Pinaki, Aparajita, Tryam-baka, Mahesvara, Vrsakapi, Sambhu, Harana, and Isvara; among the Yaksas and goblins, I am Kubera; among the Vasus, I am Fire; and among the mountains, I am Meru.
Verse commentaries
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।10.23।।रुद्राणामिति। रुद्रेष्वेकस्य शङ्करसंज्ञयैवोत्कर्षद्योतनम्। यक्षराक्षसजात्योरविदूरविप्रकर्षात्यक्षरक्षसामित्युक्तम्? न तु वित्तेशस्य राक्षसत्वगन्धः यद्वानक्षत्राणामहं शशी [10।21] इतिवज्जातिद्वयपतित्वमात्रमिह विवक्षितम्। वित्तेशसंज्ञया च धनदस्यासाधारणैश्वर्योत्कर्षद्योतनम्।स्थावराणां हिमालयः [10।25] इति पर्वतमात्राणां परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वात्मेरुः शिखरिणाम् इत्यत्र शिखरिशब्दः पर्वतविशेषोपलक्षकः। शक्तश्चायं शब्दो विशेषं दर्शयितुमित्यभिप्रायेणोक्तंशिखरशोभिनां पर्वतानामिति। प्रशंसापरः प्रत्यय इति भावः। प्रशस्तरत्नकाञ्चनादिमयशिखरविशेषयोगान्मेरोरतिशयः।
Sri Ramanujacharya
।।10.23।।रुद्राणाम् एकादशानां शङ्करः अहम् अस्मि यक्षरक्षसां वैश्रवणः अहम्? वसूनाम् अष्टानां पावकः अहम् शिखरिणां शिखरशोभिनां पर्वतानां मध्ये मेरुः अहम्।
Sri Neelkanth
।।10.23।।रुद्राणामेकादशानां? वसूनामष्टानां? शिखराणि रत्नविशेषास्तद्वतां मध्ये मेरुरहम्।
Swami Chinmayananda
।।10.23।। मैं रुद्रों में शंकर हूँ जीवन का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को नाश के अधिष्ठाता देवता के रूप में रुद्र की कल्पना को भलीभाँति समझना चाहिये। प्रत्येक परवर्ती (आगामी) रचना के पूर्व नाश होना आवश्यक है। फल को स्थान देने के लिए फूल को नष्ट होना पड़ता है और बीज को प्राप्त करने के लिए फल का विनाश आवश्यक है। ये बीज पुन नष्ट होकर पौधे को जन्म देते हैं। इस प्रकार? प्रत्येक प्रगति और विकास के पूर्व रचनात्मक विनाश की एक अखण्ड शृंखला बनी रहती है। इस तथ्य को सूक्ष्मदर्शी तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने पहचाना? और ज्ञान की परिपक्वता में निर्भय होकर उन्होंने रचनात्मक विनाश के सुखदायक देवता शंकर को सम्मान दिया और उनका पूजार्चन किया।मैं यक्ष और राक्षसों में कुबेर हूँ स्वर्ग के धन के कोषाध्यक्ष कुबेर कहे जाते हैं। कुबेर शब्द का अर्थ है कुत्सित शरीर वाला। पुराणों में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है कुबेर अत्यन्त कुत्सित राक्षसी प्राणी है? स्थूल एवं ह्रस्व काय? (त्रिपाद) तीन पैरों वाले? विशाल उदर के? लघु मस्तक वाले और जिसके आठ दांत बाहर निकले हुये हैं। स्वर्ग के इस कोषाध्यक्ष की सहायता के लिए उसी के समान कुरूप? भोगवादी और क्रूरचिन्तक यक्ष और राक्षसों की नियुक्ति होती है? जो कोष रक्षा में कुबेर की सहायता करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय ऋषिगण पूँजीवाद के कितने विरोधी थे कि उन्होंने धनपति कुबेर को अत्यन्त हास्यास्पद और विकृत आकृति वाला इतना कुरूप चित्रित किया है कि हमें हँसी भी नहीं आ सकती।मैं वसुओं में अग्नि हूँ वेदों में आठ वसुओं का वर्णन किया गया है? जो ऋतुओं के अधिष्ठाता देवता हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि इन वसुओं का मुख अग्नि है। वहाँ? मुख से तात्पर्य अनुभव और भोग के साधन से है। अत? आत्मा ही वह स्रोत है? जहाँ से हमें समस्त ऋतुओं के अनुभव प्राप्त होते हैं।बाह्य प्रकृति में छ ऋतुएँ हैं? तथा दो ऋतुएँ मन की हैं सुख और दुख। इस प्रकार यहाँ आठ ऋतुओं का निर्देश है। बसन्त ऋतु में यदि वियोग के कारण हम दुखी हों? तो उस ऋतु के फूल भी हमारे लिए अश्रुधार बहाते हुए प्रतीत होते हैं जबकि मन में सफलता का पूर्ण आनन्द उमड़ रहा हो तो शरद ऋतु के पर्णहीन वृक्ष भी हमें आनन्द का नृत्य करते प्रतीत होते हैं इस कारण ये दो आन्तरिक ऋतुएँ हैं। इन सबका अनुभव आत्मचैतन्य की उपस्थिति में ही हो सकता है? अन्यथा नहीं।मैं समस्त पर्वतों में मेरु पर्वत हूँ मेरु एक पौराणिक पर्वत है? जिसका प्राचीन हिन्दू भूगोल शास्त्र में विश्व के मध्य बिन्दु के रूप में वर्णन किया गया है। इस पर्वत के ऊपर देवता वास करते हैं और इसके नीचे सप्तद्वीप फैले हुए हैं? जिनसे यह जगत् बना है। मेरु पर्वत की ऊँचाई सात से आठ हजार मील मानी गई है? जिसके शिखर से गंगा सभी दिशाओं में बहती है। इस वर्णन से अनेक विद्वानों का यह मत बना कि यह हिमालय का वर्णन है? जो? निसन्देह ही? अस्वीकार्य नहीं हो सकता। परन्तु हम उसे वस्तुत गूढ़ सांकेतिक भाषा में किया गया तत्त्व का वर्णन मानेंगे। मेरु पर्वत ऐसे प्रभावी स्थान का सूचक है जिसका आधार जम्बू द्वीप में है। जिसके उच्च शिखर से अध्यात्म ज्ञान की गंगा समस्त द्वीपों का कल्याण करने के लिए प्रवाहित होती है।परिचित जगत् की वस्तुओं में आत्मा की प्रतिष्ठा को बताते हुए आगे कहते हैं
Sri Anandgiri
।।10.23।।मन्त्रब्राह्मणसमुदायानामृगादीनां मध्ये सामवेदोऽस्मीति। ध्यानान्तरमुदाहरति -- वेदानामिति। संघाते जीवाधिष्ठिते यावत्पञ्चत्वं सर्वत्र व्यापिनी चैतन्याभिव्यञ्जिकेति शेषः।
Swami Sivananda
10.23 रुद्राणाम् among the Rudras? शङ्करः Sankara? च and? अस्मि (I) am? वित्तेशः Kubera? यक्षरक्षसाम्,among celestial fairies and spirits? वसूनाम् among Vasus? पावकः Pavaka? च and? अस्मि (I) am? मेरुः Meru? शिखरिणाम् of mountains? अहम् I.Commentary Rudras are eleven in number. The ten vital airs (Pranas and the UpaPranas? which are five each) and the mind are the eleven Rudras. They are so called because they produce grief when they depart from the body. They have been symbolised in the Puranas as follows Virabhadra? Sankara? Girisa? Ajaikapati? Bhuvanadhisvara? Aherbhujya? Pinaki? Aparajita? Kapali? Sthanu and Bhaga. Among these Rudras? Sankara is regarded as the chief.Vasus are earth? water? fire? air? ether? sun? moon and stars. They are so called because they comprehend the whole universe within them. They have been symbolised in the Puranas as follows Apah? Dhruva? Soma? Dhara? Anila? Anala? Pratyusa and Prabhasa. Of these Anala or Pavaka (fire) is the chief.
Sri Vallabhacharya
।।10.23।।रुद्राणामिति। एकादशानां मध्ये वा मूलं शङ्करोऽस्मि वैषणवत्वेन माननीयः। वित्तेशो मम कोशाधिकारी। वसूनां मध्ये पावको भगवन्मुखभूतोऽग्निरहम्।
Swami Ramsukhdas
।।10.23।। व्याख्या--'रुद्राणां शंकरश्चास्मि'-- हर, बहुरूप, त्र्यम्बक आदि ग्यारह रुद्रोंमें शम्भु अर्थात् शंकर सबके अधिपति हैं। ये कल्याण प्रदान करनेवाले और कल्याणस्वरूप हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है।
Sri Dhanpati
।।10.23।।रुद्राणां वीरभद्रशेभुगिरिशाजैकपादाहिर्बुन्धयपिनाकिभवानीशकपालिदिक्पतिस्थाणुरुद्रसंज्ञानामेकादशानां शं करोतीति शंकरः। शुंभुश्चास्मि शं भवत्यस्मादिति व्युत्पत्तेः। वित्तेशः कुबेरः। वसूनां ध्रुवाध्वरापसोभानलानिलप्रत्यूषप्रभाससंज्ञानामष्टानामग्मिरस्मि। शिखरवतामत्युच्छ्रितानां मेरुरहम्।
Sri Shankaracharya
।।10.23।। --,रुद्राणाम् एकादशानां शंकरश्च अस्मि। वित्तेशः कुबेरः यक्षरक्षसां यक्षाणां रक्षसां च। वसूनाम् अष्टानां पावकश्च अस्मि अग्निः। मेरुः शिखरिणां शिखरवताम् अहम्।।
Sri Purushottamji
।।10.23।।रुद्राणां तामसानामेकादशानां च मध्ये शङ्करः सुखकरः सर्वेषां भक्तिज्ञानोपदेशकोऽस्मि। यक्षरक्षसां वित्तेशः कुबेरोऽस्मि। वसूनां मध्ये मुख्यतया द्रोणोऽस्मि। अतएवद्रोणो वसूनां प्रवरः इति श्रीभागवते [10।8।48] उक्तम्। च पुनः पावकः अग्निरस्मि। शिखरिणां शिखरवतामुच्चानां मध्ये मेरुरहमस्मि।
Sri Madhusudan Saraswati
।।10.23।।रुद्राणामेकादशानां मध्ये शंकरः वित्तेशो धनाध्यक्षः कुबेरः। यक्षरक्षसां यक्षाणां राक्षसानां च। वसूनामष्टानां पावकोऽग्निः। मेरुः सुमेरुः शिखरिणां शिखरवतामत्युच्छ्रितानां पर्वतानां च।
Sri Abhinavgupta
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
Sri Sridhara Swami
।।10.23।।रुद्राणामिति। यक्षरक्षसामिति। राक्षसानामपि क्रूरत्वादिसाम्याद्यक्षैः सहैकीकृत्य निर्देशः। तेषां मध्ये वित्तेशः कुबेरोऽस्मि। पावकोऽग्निः। शिखरिणां शिखरवतामुच्छ्रितानां मध्ये मेरुः।