Chapter 12, Verse 16
Verse textअनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.16।।
Verse transliteration
anapekṣhaḥ śhuchir dakṣha udāsīno gata-vyathaḥ sarvārambha-parityāgī yo mad-bhaktaḥ sa me priyaḥ
Verse words
- anapekṣhaḥ—indifferent to worldly gain
- śhuchiḥ—pure
- dakṣhaḥ—skillful
- udāsīnaḥ—without cares
- gata-vyathaḥ—untroubled
- sarva-ārambha—of all undertakings
- parityāgī—renouncer
- saḥ—who
- mat-bhaktaḥ—my devotee
- saḥ—he
- me—to ne
- priyaḥ—very dear
Verse translations
Swami Gambirananda
He who has no desires, who is pure, dexterous, impartial, free from fear, and who has renounced every undertaking—such a devotee of Mine is dear to Me.
Dr. S. Sankaranarayan
He who does not expect anything, who is pure, dexterous, unconcerned, and untroubled, and who has renounced all his undertakings all around—that devotee of Mine is dear to Me.
Shri Purohit Swami
He who expects nothing, is pure, watchful, indifferent, unruffled, and renounces all initiative—such a one is My beloved.
Swami Ramsukhdas
।।12.16।।जो आकाङ्क्षासे रहित, बाहर-भीतरसे पवित्र, दक्ष, उदासीन, व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नये-नये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
Swami Tejomayananda
।।12.16।। जो अपेक्षारहित, शुद्ध, दक्ष, उदासीन, व्यथारहित और सर्वकर्मों का संन्यास करने वाला मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।।
Swami Adidevananda
He who is free from desires, who is pure, expert, indifferent, and free from agony, who has renounced every undertaking—he is dear to me.
Swami Sivananda
He who is free from wants, pure, expert, unconcerned, and free from pain, renouncing all undertakings and commencements, he who is devoted to Me is dear to Me.
Verse commentaries
Sri Madhusudan Saraswati
।।12.16।।अनपेक्ष इति। किंच निरपेक्षः सर्वेषु भोगोपकरणेषु यदृच्छोपनीतेष्वपि निःस्पृहः? शुचिर्बाह्याभ्यन्तरशौचसंपन्नः? दक्ष उपस्थितेषु ज्ञातव्येषु कर्तव्येषु च सद्य एव ज्ञातुं कर्तुं च समर्थः? उदासीनो न कस्यचिन्मित्रादेः पक्षं भजते? यो गतव्यथः परैस्ताड्यमानस्यापि गता नोत्पन्ना व्यथा पीडा यस्य सः? उत्पन्नायामपि व्यथायामनपकर्तृत्वं क्षमित्वं? व्यथाकारणेषु सत्स्वप्यनुत्पन्नव्यथत्वं गतव्यथत्वमिति भेदः। ऐहिकामुष्मिकफलानि सर्वाणि कर्माणि सर्वारम्भास्तान्परित्युक्तं शीलं यस्य स सर्वारम्भपरित्यागी संन्यासी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
Sri Purushottamji
।।12.16।।किञ्च। अनपेक्षः सेवादौ स्वमनोऽतिरिक्तापेक्षारहितः समर्थ इति यावत्। शुचिः मत्स्मरणवान्? दक्षः भजनस्वरूपज्ञानवान्? उदासीनः लोकेषु? गतव्यथः मानसिकक्लेशरहितः? सर्वारम्भपरित्यागी दृष्टश्रुतफलककर्माऽनुद्यमानस्वभावः। एतादृशो मद्भक्तः मद्भजनकर्त्ता स मे प्रियः।
Sri Shankaracharya
।।12.16।। --,देहेन्द्रियविषयसंबन्धादिषु अपेक्षाविषयेषु अनपेक्षः निःस्पृहः। शुचिः बाह्येन आभ्यन्तरेण च शौचेन संपन्नः। दक्षः प्रत्युत्पन्नेषु कार्येषु सद्यः यथावत् प्रतिपत्तुं समर्थः। उदासीनः न कस्यचित् मित्रादेः पक्षं भजते यः? सः उदासीनः यतिः। गतव्यथः गतभयः। सर्वारम्भपरित्यागी आरभ्यन्त इति आरम्भाः इहामुत्रफलभोगार्थानि कामहेतूनि कर्माणि सर्वारम्भाः? तान् परित्यक्तुं शीलम् अस्येति सर्वारम्भपरित्यागी यः मद्भक्तः सः मे प्रियः।।किञ्च --,
Sri Vallabhacharya
।।12.16।।अनपेक्ष इति। मत्सेवातिरिक्तं सालोक्यादिकमपि नापेक्षते। तथासालोक्यसार्ष्टिसारूप्यसामीप्यैकत्वमप्युत। दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः [3।29।13] इति भागवतवचनात्। शुचिराचारवान्आचारप्रभवो धर्मस्तेनैव च सुखी भवेत् इति वाक्यात्। तथा भगवत्सेवायां तत्तच्छृङ्गारयोजने दक्षः चतुरः। तत्प्रतिकूले गृहादावुदासीनः। तत्रापि गतव्यथःभार्यादीनां तथाऽन्येषामसतश्चाक्रमं सहेत् तथा कलत्रादिकं प्रतिकूलं दृष्ट्वा तदीयसर्वविषयारम्भपरित्यागी च। सेवायां हिउद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो वा स्यात्तु बाधकः इति श्रीमदाचार्यैरप्युच्यते? अतः सर्वारम्भभोगोऽनुचितः घातकत्वात्। य एवम्भूतो भक्तः स मे प्रियः।
Swami Sivananda
12.16 अनपेक्षः (he who is) free from wants? शुचिः pure? दक्षः expert? उदासीनः unconcerned? गतव्यथः free from pain? सर्वारम्भपरित्यागी renouncing all undertakings or commencements? यः who? मद्भक्तः My,devotee? सः he? मे to Me? प्रियः dear.CommentarY He is free from dependence. He is indifferent to the body? the senses? the objects of the senses and their mutual connections. He has external and internal purity. External purity is attained through earth and water (washing and bathing). Inner purity is attained by the eradication of likes and dislikes? lust? anger? jealousy? etc.? and through the cultivation of the virtues -- friendship (towards eals)? compassion (towards those who are inferior) and complacency (towards superiors).Daksha Prompt? swift and skilful in all actions expert. He is able to decide rightly and immediately in matters that demand prompt attention and action.Udasina He who does not take up the side of a friend and the like (in a controversy) he who is indifferent to whatever happens.Gatavyathah He who is free from pain. He is not troubled even if he is beaten by a wicked man. He is not pained or afflicted by any result of any action or any happening.Sarvarambhaparityagi He habitually renounces all actions calculated to secure the objects of enjoyment? whether of this world or of the next. He has abandoned all egoistic? personal and mental initiative in all actions? mental and physical. He has merged his will in the cosmic will. He allows the divine will to work through him. He has neither preference nor personal desire and so he is swift? prompt and skilful in all actions. The divine will works through him in a dynamic manner.Such a devotee is My own Self and so he is very dear to Me.
Sri Anandgiri
।।12.16।।निरपेक्षत्वादिकमपि ज्ञानिनो विशेषणमित्याह -- अनपेक्ष इति। आदिपदमपेक्षणीयसर्वसंग्रहार्थं? प्रतिपत्तव्येषु प्रतिपत्तुं कर्तव्येषु कर्तुं चेत्यर्थः। परैस्ताडितस्यापि गता व्यथा भयमस्येति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- गतेति। नच क्षमीत्यनेन पौनरुक्त्यं प्रत्युत्पन्नायामपि व्यथायामपकर्तृष्वनपकर्तृत्वं क्षमित्वमित्यभ्युपगमात्।
Sri Dhanpati
।।12.16।।निरपेक्षत्वादिकमपि ज्ञानिनो विशेषणमित्याशयेनाह। अनपेक्षः देहेन्द्रियविषयसंबन्धेषु सर्वेष्वपेक्षणीयेषु यदृच्छायोपलब्धेष्वपेक्षाशून्यो निस्पृहः। शुचिः मृदम्ब्वादिनिमित्तेन बाह्येन दयादिनाभ्यन्तरेण च शौचने संपन्नः पुण्यापुण्याभ्यामलिप्य इति वा। अस्मिन्पक्षे प्रकरणाविरोधः। पुण्यापुण्ये न करोत्यस्ताभ्यामलिप्त इत्यर्थे तु शूभाशुभपरित्यागीत्येन पौनरुक्त्यं बोध्यम्। दक्षः प्रत्युत्पन्नेषु कर्तव्येषु यथावज्ज्ञातु कर्तुं न कुशलो नत्वलसः। कस्यचिन्मित्रादेः पक्षपातं न भजत इत्युदासीनः। यत्तु मानापमानादौ समवृत्तिरुदासीन इति तन्न। तथा मानापमानयोरित्यादिना पौनरुक्त्यापत्तेः। ताडितुमुद्यतादपि व्यथानिमित्तं गतं भयं यस्मात्। नच क्षमीत्यनेन पौनरुक्त्यं परैस्ताडितस्य प्रत्युत्पन्नायामापि पीडायां तन्निमित्तं ताडनकर्तृषु ताडनाद्यकर्तुत्वं क्षमित्वमित्यभ्युपगमात्। अतएवैहिकामुष्मकदुःखनिवृत्तितत्सुखप्राप्त्यर्थानि कर्माणि आरभ्यन्त इत्यारम्भास्तान् परियक्तुं शीलमस्य स सर्वारम्भपरित्यागी। यतो भयहेतुभूतसर्वारम्भपरित्यागी अतो गतव्यथ इति वा। यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
Sri Madhavacharya
।।12.16।।सर्वारम्भपरित्यागी इत्यादेः सामान्यविशेषव्याख्यानव्याख्येयभावेनापुनरुक्तिः। हर्षादिभिर्मुक्त इत्युक्ते कादाचित्कमपि भवतीतियो न हृष्यति [12।17] इत्युक्तम्। उपचारपरिहारार्थं पूर्वम् आधिक्यज्ञानार्थं भक्त्यभ्यासः।ये तु सर्वाणि कर्माणि [12।6] इत्यादेः प्रपञ्च एषः।
Swami Ramsukhdas
।।12.16।। व्याख्या--'अनपेक्षः'--भक्त भगवान्को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। उसकी दृष्टिमें भगवत्प्राप्तिसे बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं होता। अतः संसारकी किसी भी वस्तुमें उसका किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव नहीं होता। इतना ही नहीं? अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धिमें भी उसका अपनापन नहीं रहता, प्रत्युत वह उनको भी भगवान्का ही मानता है, जो कि वास्तवमें भगवान्के ही हैं। अतः उसको शरीर-निर्वाहकी भी चिन्ता नहीं होती। फिर वह और किस बातकी अपेक्षा करे? अर्थात् फिर उसे किसी भी वस्तुकी इच्छा-वासना-स्पृहा नहीं रहती। भक्तपर चाहे कितनी ही बड़ी आपत्ति आ जाय, आपत्तिका ज्ञान होनेपर भी उसके चित्तपर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। भयंकर-से-भयंकर परिस्थितिमें भी वह भगवान्की लीलाका अनुभव करके मस्त रहता है। इसलिये वह किसी प्रकारकी अनुकूलताकी कामना नहीं करता। नाशवान् पदार्थ तो रहते नहीं, उनका वियोग अवश्यम्भावी है और अविनाशी परमात्मासे कभी वियोग होता ही नहीं --इस वास्तविकताको जाननेके कारण भक्तमें स्वाभाविक ही नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा पैदा नहीं होती। यह बात खास ध्यान देनेकी है कि केवल इच्छा करनेसे शरीर-निर्वाहके पदार्थ मिलते हों तथा इच्छा न करनेसे न मिलते हों--ऐसा कोई नियम नहीं है। वास्तवमें शरीर-निर्वाहकी आवश्यक सामग्री स्वतः प्राप्त होती है; क्योंकि जीवमात्रके शरीर-निर्वाहकी आवश्यक सामग्रीका प्रबन्ध भगवान्की ओरसे पहले ही हुआ रहता है। इच्छा करनेसे तो आवश्यक वस्तुओंकी प्राप्तिमें बाधा ही आती है। अगर मनुष्य किसी वस्तुको अपने लिये अत्यन्त आवश्यक समझकर वह वस्तु कैसे मिले? कहाँ मिले? कब मिले?' -- ऐसी प्रबल इच्छाको अपने अन्तःकरणमें पकड़े रहता है, तो उसकी उस इच्छाका विस्तार नहीं हो पाता अर्थात् उसकी वह इच्छा दूसरे लोगोंके अन्तःकरणतक नहीं पहुँच पाती। इस कारण दूसरे लोगोंके अन्तःकरणमें उस आवश्यक वस्तुको देनेकी इच्छा या प्रेरणा नहीं होती। प्रायः देखा जाता है कि लेनेकी प्रबल इच्छा रखनेवाले-(चोर आदि) को कोई देना नहीं चाहता। इसके विपरीत किसी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले विरक्त त्यागी और बालककी आवश्यकताओंका अनुभव अपने-आप दूसरोंको होता है, और दूसरे उनके शरीर-निर्वाहका अपने-आप प्रसन्नतापूर्वक प्रबन्ध करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि इच्छा न करनेसे जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ बिना माँगे स्वतः मिलती हैं। अतः वस्तुओंकी इच्छा करना केवल मूर्खता और अकारण दुःख पाना ही है। सिद्ध भक्तको तो अपने कहे जानेवाले शरीरकी भी अपेक्षा नहीं होती; इसलिये वह सर्वथा निरपेक्ष होता है। किसी-किसी भक्तको तो इसकी भी अपेक्षा नहीं होती कि भगवान् दर्शन दें! भगवान् दर्शन दें तो आनन्द, न दें तो आनन्द! वह तो सदा भगवान्की प्रसन्नता और कृपाको देखकर मस्त रहता है। ऐसे निरपेक्ष भक्तके पीछे-पीछे भगवान् भी घूमा करते हैं! भगवान् स्वयं कहते हैं -- निरेपक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्। अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः।। (श्रीमद्भा0 11। 14। 16) 'जो निरपेक्ष (किसीकी अपेक्षा न रखनेवाला), निरन्तर मेरा मनन करनेवाला, शान्त, द्वेष-रहित और सबके प्रति समान दृष्टि रखनेवाला है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं सदा यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसकी चरण-रज मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।' किसी वस्तुकी इच्छाको लेकर भगवान्की भक्ति करनेवाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तुका ही भक्त होता है; क्योंकि (वस्तुकी ओर लक्ष्य रहनेसे) वह वस्तुके लिये ही भगवान्की भक्ति करता है, न कि भगवान्के लिये। परन्तु भगवान्की यह उदारता है कि उसको भी अपना भक्त मानते हैं (गीता 7। 16); क्योंकि वह इच्छित वस्तुके लिये किसी दूसरेपर भरोसा न रखकर अर्थात् केवल भगवान्पर भरोसा रखकर ही भजन करता है। इतना ही नहीं, भगवान् भक्त ध्रुवकी तरह उस (अर्थार्थी भक्त) की इच्छा पूरी करके उसको सर्वथा निःस्पृह भी बना देते हैं। 'शुचिः'--शरीरमें अहंता-ममता (मैं-मेरापन) न रहनेसे भक्तका शरीर अत्यन्त पवित्र होता है। अन्तःकरणमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोधादि विकारोंके न रहनेसे उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र होता है। ऐसे (बाहर-भीतरसे अत्यन्त पवित्र) भक्तके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तनसे दूसरे लोग भी पवित्र हो जाते हैं। तीर्थ सब लोगोंको पवित्र करते हैं; किन्तु ऐसे भक्त तीर्थोंको भी तीर्थत्व प्रदान करते हैं अर्थात् तीर्थ भी उनके चरण-स्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं (पर भक्तोंके मनमें ऐसा अहंकार नहीं होता)। ऐसे भक्त अपने हृदयमें विराजित 'पवित्राणां पवित्रम्' (पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाले) भगवान्के प्रभावसे तीर्थोंको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं -- तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता।।(श्रीमद्भा0 1। 13। 10)महाराज भगीरथ गङ्गाजीसे कहते हैं -- साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः। हरन्त्यघं तेऽङ्गसङ्गात् तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरिः।।(श्रीमद्भा0 9। 9। 6)'माता! जिन्होंने लोक-परलोककी समस्त कामनाओंका त्याग कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी साधु पुरुष हैं, वे अपने अङ्गस्पर्शसे तुम्हारे (पापियोंके अङ्ग-स्पर्शसे आये) समस्त पापोंको नष्ट कर देंगे; क्योंकि उनके हृदयमें समस्त पापोंका नाश करनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं।' 'दक्षः'--जिसने करनेयोग्य काम कर लिया है, वही दक्ष है। मानव-जीवनका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इसीके लिये मनुष्यशरीर मिला है। अतः जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया अर्थात् भगवान्को प्राप्त कर लिया, वही वास्तवमें दक्ष अर्थात् चतुर है। भगवान् कहते हैं -- एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्। यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।(श्रीमद्भा0 11। 29। 22)'विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।' सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तवमें दक्षता नहीं है। एक दृष्टिसे तो व्यवहारमें अधिक दक्षता होना कलङ्क ही है; क्योंकि इससे अन्तःकरणमें जड पदार्थोंका आदर बढ़ता है, जो मनुष्यके पतनका कारण होता है।सिद्ध भक्तमें व्यावहारिक (सांसारिक) दक्षता भी होती है। परन्तु व्यावहारिक दक्षताको पारमार्थिक स्थितिकी कसौटी मानना वस्तुतः सिद्ध भक्तका अपमान ही करना है।'उदासीनः'--उदासीन शब्दका अर्थ है -- उत्आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ, तटस्थ, पक्षपातसे रहित।विवाद करनेवाले दो व्यक्तियोंके प्रति जिसका सर्वथा तटस्थ भाव रहता है, उसको उदासीन कहा जाता है। उदासीन शब्द निर्लिप्तताका द्योतक है। जैसे ऊँचे पर्वतपर खड़े हुए पुरुषपर नीचे पृथ्वीपर लगी हुई आग या बाढ़ आदिका कोई असर नहीं पड़ता, ऐसे ही किसी भी अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिका भक्तपर कोई असर नहीं पड़ता, वह सदा निर्लिप्त रहता है।जो मनुष्य भक्तका हित चाहता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है, वह उसका मित्र समझा जाता है और जो मनुष्य भक्तका अहित चाहता है तथा उसके प्रतिकूल आचरण करता है? वह उसका शत्रु समझा जाता है। इस प्रकार मित्र और शत्रु समझे जानेवाले व्यक्तिके साथ भक्तके बाहरी व्यवहारमें फरक मालूम दे सकता है; परन्तु भक्तके अन्तःकरणमें दोनों मनुष्योंके प्रति किञ्चिन्मात्र भी भेदभाव नहीं होता। वह दोनों स्थितियोंमें सर्वथा उदासीन अर्थात् निर्लिप्त रहता है।भक्तके अन्तःकरणमें अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। वह शरीरसहित सम्पूर्ण संसारको परमात्माका ही मानता है। इसलिये उसका व्यवहार पक्षपातसे रहित होता है।'गतव्यथः'--कुछ मिले या न मिले, कुछ भी आये या चला जाय, जिसके चित्तमें दुःख-चिन्ता-शोकरूप हलचल कभी होती ही नहीं, उस भक्तको यहाँ 'गतव्यथः' कहा गया है।यहाँ 'व्यथा' शब्द केवल दुःखका वाचक नहीं है। अनुकूलताकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें प्रसन्नता तथा प्रतिकूलताकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें खिन्नताकी जो हलचल होती है, वह भी 'व्यथा' ही है। अतः अनुकूलता तथा प्रतिकूलतासे अन्तःकरणमें होनेवाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंके सर्वथा अभावको ही यहाँ 'गतव्यथः' पदसे कहा गया है। 'सर्वारम्भपरित्यागी'--भोग और संग्रहके उद्देश्यसे नयेनये कर्म करनेको 'आरम्भ' कहते हैं; जैसे -- सुखभोगके उद्देश्यसे घरमें नयी-नयी चीजें इकट्ठी करना, वस्त्र खरीदना; रुपये बढ़ानेके उद्देश्यसे नयीनयी दूकानें खोलना, नया व्यापार शुरू करना आदि। भक्त भोग और संग्रहके लिये किये जानेवाले मात्र कर्मोंका सर्वथा त्यागी होता है (टिप्पणी प0 656.1)।जिसका उद्देश्य संसारका है और जो वर्ण, आश्रम, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदिको लेकर,अपनेमें विशेषता देखता है, वह भक्त नहीं होता। भक्त भगवन्निष्ठ होता है। अतः उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रि, मन, बुद्धि, क्रिया फल आदि सब भगवान्के अर्पित होते हैं। वास्तवमें इन शरीरादिके मालिक भगवान् ही हैं। प्रकृति और प्रकृतिका कार्यमात्र भगवान्का है। अतः भक्त एक भगवान्के सिवाय किसीको भी अपना नहीं मानता। वह अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके द्वारा होनेवाले मात्र कर्म भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होते हैं। धन-सम्पत्ति, सुख-आराम, मान-बड़ाई आदिके लिये किये जानेवाले कर्म उसके द्वारा कभी होते ही नहीं।जिसके भीतर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी ही सच्ची लगन लगी है, वह साधक चाहे किसी भी मार्गका क्यों न हो, भोग भोगने और संग्रह करनेके उद्देश्यसे वह कभी कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता।'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' -- भगवान्में स्वाभाविक ही इतना महान् आकर्षण है कि भक्त स्वतः उनकी ओर खिंच जाता है, उनका प्रेमी हो जाता है।आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।(श्रीमद्भा0 1। 7। 10)'ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्की हेतुरहित (निष्काम) भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि अगर भगवान्में इतना महान् आकर्षण है, तो सभी मनुष्य भगवान्की ओर क्यों नहीं खिंच जाते, उनके प्रेमी क्यों नहीं हो जाते? वास्तवमें देखा जाय तो जीव भगवान्का ही अंश है। अतः उसका भगवान्की ओर स्वतः-स्वाभाविक आकर्षण होता है। परन्तु जो भगवान् वास्तवमें अपने हैं, उनको तो मनुष्यने अपना माना नहीं और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ शरीर-कुटुम्बादि अपने नहीं हैं, उनको उसने अपना मान लिया। इसीलिये वह शारीरिक निर्वाह और सुखकी कामनासे सांसारिक भोगोंकी ओर आकृष्ट हो गया तथा अपने अंशी भगवान्से दूर (विमुख) हो गया। फिर भी उसकी यह दूरी वास्तविक नहीं माननी चाहिये। कारण कि नाशवान् भोगोंकी ओर आकृष्ट होनेसे उसकी भगवान्से दूरी दिखायी तो देती है, पर वास्तवमें दूरी है नहीं; क्योंकि उन भोगोंमें भी तो सर्वव्यापी भगवान् परिपूर्ण हैं। परन्तु इन्द्रियोंके विषयोंमें अर्थात् भोगोंमें ही आसक्ति होनेके कारण उसको उनमें छिपे भगवान् दिखायी नहीं देते। जब इन नाशवान् भोगोंकी ओर उसका आकर्षण नहीं रहता, तब वह स्वतः ही भगवान्की ओर खिंच जाता है। संसारमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेसे भक्तका एकमात्र भगवान्में स्वतः प्रेम होता है। ऐसे अनन्यप्रेमी भक्तको भगवान् 'मद्भक्तः' कहते हैं।जिस भक्तका भगवान्में अनन्य प्रेम है, वह भगवान्को प्रिय होता है। सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके पाँच लक्षणोंवाला चौथा प्रकरण आगेके श्लोकमें आया है।
Swami Chinmayananda
।।12.16।। यह तीसरा भाग है। ज्ञानी भक्त के चरित्र पर यह श्लोक और अधिक प्रकाश डालता है। पूर्व के दो भागों में उसके चौदह लक्षण बताये जा चुके हैं? और अब इन छ गुणों को बताकर भक्त के चित्र को और अधिक स्पष्ट किया जा रहा है।जो अनपेक्ष (अपेक्षारहित) है सामान्य पुरुष अपने सुख और शान्ति के लिए बाह्य देश? काल? वस्तु ? व्यक्ति और परिस्थितियों पर आश्रित होता है। इनमें से प्रिय की प्राप्ति होने पर वह क्षण भर रोमांचित कर देने वाले हर्षोल्लास का अनुभव करता है। परन्तु एक सच्चा भक्त अपने सुख के लिए बाह्य जगत् की अपेक्षा नहीं रखता? क्योंकि उसकी प्रेरणा? समता और प्रसन्नता का स्रोत हृदयस्थ आत्मा ही होता है।जो शुचि अर्थात् शुद्ध है एक सच्चा भक्त शारीरिक शुद्धि तथा उसी प्रकार आन्तरिक शुद्धि से भी सम्पन्न होता है। जो भक्त साधक की स्थिति में भी शरीर मन और जगत् के साथ अपने सम्बन्धों में शुद्धि रखने के प्रति जागरूक रहता है वही फिर सिद्ध भक्त शुचि को प्राप्त होता है। यह एक सुविदित तथ्य है कि कोई पुरुष जिस वातावरण में रहता है? उसे देखकर तथा उसकी वस्तुओं? वस्त्रों आदि की दशा देखकर उस पुरुष के स्वभाव? अनुशासन तथा संस्कृति का अनुमान किया जा सकता है। शारीरिक शुचिता तथा व्यवहार में भी पवित्रता रखने पर भारत में अत्यधिक बल दिया गया है। बाह्य शुद्धि के बिना आन्तरिक शुद्धि मात्र दिवास्वप्न? या व्यर्थ की आशा ही सिद्ध होगी।दक्ष (कुशल) सदा सजगता तो सुगठित पुरुष का स्वभाव ही बन जाता है। किसी भी कार्य़ की सफलता की कुंजी उत्साह है। कुशल और समर्थ व्यक्ति वह नहीं है जो अपने व्यवहार और कार्य में त्रुटियां करता रहता है। दक्ष भक्त मन से सजग और बुद्धि से समर्थ होता है। उसमें मन की शक्ति का अपव्यय नहीं होता अत एक बार किसी कार्य का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लेने के पश्चात् वह उस कार्य का सिद्धि के लिए सदा तत्पर रहता है। जैसा कि हम देख रहे हैं? यदि धार्मिक कहे जाने वाले लोग अपने कार्य में आलसी? असावधान और अशिष्ट हो गये हैं? तो हम समझ सकते हैं कि हिन्दू धर्म अपने प्राचीन वैभव से कितना दूर भटक गया है।उदासीन समाज में ऐसे अनेक भक्त कहे जाने वाले लोगों का मिलना कठिन नहीं हैं? जिन्होंने अपने आप को एक अनभिव्यक्त दुखपूर्ण स्थिति में समर्पित कर दिया है और उसका कारण केवल यह है कि किसी ने उसके साथ विश्वासघात अथवा दुर्व्यवहार किया था। ऐसे मूढ़ भक्त सोचते हैं कि समाज के इन अपराधों के प्रति वे उदासीन रहेंगे। बाद में उनकी भक्ति ही उन्हें एक दुर्भाग्यपूर्ण दायित्व प्रतीत होने लगती है? न कि एक वास्तविक लाभ दर्शनशास्त्र को विपरीत समझने पर उसकी समाप्ति समाज के आत्मघात में ही होती है।उदासीन भाव का प्रयोजन केवल अपने मन की शक्तियों का अपव्यय रोकने के लिए ही है। मनुष्य के जीवन में? छोटीछोटी कठिनाइयाँ? सामान्य बीमारियां सुखसुविधा का अभाव आदि का होना तो स्वाभाविक और सामान्य बात है। उनको ही अत्यधिक महत्व देना और उनकी निवृत्ति के लिए दिन रात प्रयत्न करते रहने का अर्थ जीवन भर परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के संघर्ष में ही डूबे रहना है। यहाँ साधक को यह उपदेश दिया गया है कि जीवन की इन साधारण परिस्थितियों में वह अपनी मानसिक शक्ति को व्यर्थ ही नहीं खोने दे? बल्कि इन घटनाओं में उदासीन भाव से रहकर शक्ति का संचय करे। छोटेमोटे दुख और कष्ट अनित्य होने के कारण स्व्ात ही निवृत्त हो जाते हैं? अत उनके लिए चिन्ता और संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है।व्यथारहित (भयरहित) जब मनुष्य किसी वस्तु विशेष की कामना से अभिभूत हो जाता है? तब उसे मन में यह भय लगा रहता है कि कहीं उसकी इच्छा अतृप्त ही न रह जाये। परन्तु ज्ञानी भक्त सब कामनाओं से मुक्त होने के कारण निर्भय होता है।सर्वारम्भ परित्यागी संस्कृत में आरम्भ शब्द का अर्थ कर्म भी होता है। अत सर्वारम्भ परित्यागी शब्द का अर्थ कोई यह नहीं समझे कि भक्त वह है? जो सब कर्मों का त्याग कर देता है इस प्रकार के शाब्दिक अर्थ के कारण बहुसंख्यक हिन्दू लोग कर्म करने में अकुशल और आलसी हो गये हैं। इन लोगों को देखकर ही अन्य लोग हमारी आलोचना करते हुए कहते हैं कि हिन्दू धर्म में आलस्य को ही दैवी आदर्श के रूप में गौरवान्वित किया गया है परन्तु यह अनुचित है? क्योंकि इस शब्द के आशय की सर्वथा उपेक्षा की गयी है। यदि कोई व्यक्ति किसी कर्म में निश्चित प्रारम्भ देखता है? तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह स्वयं को उस कर्म का आरम्भकर्ता मानता है। उसके मन में यह भाव दृढ़ होना चाहिए कि उसने ही यह कर्म विशेष किसी विशेष फल को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ किया है? जिसे प्राप्त कर वह कोई निश्चित लाभ या सुख प्राप्त करेगा। जो पुरुष भगवान् का भक्त है? और सांस्कृतिक पूर्णत्व को प्राप्त करना चाहता है? उसको इस प्रकार के मान और कर्तृत्व के अभिमान को सर्वथा त्याग कर निरहंकार भाव से जगत् में कर्म करने चाहिए।वास्तविकता यह है कि हमारे जीवन में कोई भी कर्म नया नहीं है? जिसका अपना स्वतन्त्र प्रारम्भ और समाप्ति हो। सम्पूर्ण जगत् के सनातन कर्म व्यापार में ही सभी कर्मों का समावेश हो जाता है। यदि भलीभांति विचार किया जाये तो ज्ञात होगा कि हमारे सभी कर्म जगत् में उपलब्ध वस्तुओं और स्थितियों से नियन्त्रित? नियमित? शासित और प्रेरित होते हैं। ईश्वर के भक्त को विश्व की इस एकता का सदैव भान बना रहता है? और इसलिए? वह जगत् में सदा ईश्वर के हाथों में एक करण या निमित्त के रूप में कर्म करता है? न कि किसी कर्म के स्वतन्त्र कर्ता के रूप में।उपर्युक्त सद्गुणों से सम्पन्न भक्त मुझे प्रिय है। भक्त के कुछ और लक्षण बताते हुए भगवान् कहते हैं
Sri Neelkanth
।।12.16।।अस्यैव व्युत्थानावस्थामाह -- अनपेक्ष इति। सुखप्राप्तौ दुःखहाने वा तत्साधने वा लिप्साशून्योऽनपेक्षः। शुचिः बाह्याभ्यन्तरशौचवान् पुण्यापुण्याभ्यामलिप्तो वा। दक्षः भगवद्भजनादावनलसः। उदासीनो मानापमानादौ समवृत्तिः। अतएव गता व्यथा चेतःपीडा यस्य स गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी संन्यासित्वादेव। यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
Sri Ramanujacharya
।।12.16।।अनपेक्षः -- आत्मव्यतिरिक्ते कृत्स्ने वस्तुनि अनपेक्षः? शुचिः -- शास्त्रविहितद्रव्यवर्धितकायः? दक्षः -- शास्त्रीयक्रियोपादानसमर्थः अन्यत्र उदासीनः? गतव्यथः -- शास्त्रीयक्रियानिर्वृत्तौ अवर्जनीयशीतोष्णपरुषस्पर्शादिदुःखेषु व्यथारहितः? सर्वारम्भपरित्यागी -- शास्त्रीयव्यतिरिक्तसर्वकर्मारम्भपरित्यागी? य एवंभूतो मद्भक्तः स मे प्रियः।
Sri Sridhara Swami
।।12.16।।किंच -- अनपेक्ष इति। अनपेक्षो यदृच्छोपस्थितेऽप्यर्थे निस्पृहः? शुचिर्बाह्याभ्यन्तरशौचसंपन्नः? तक्षोऽनलसः? उदासीनः पक्षपातरहितः? गतव्यथ आधिशून्यः सर्वान्दृष्टादृष्टार्थानारम्भानुद्यमान्परित्यक्तुं शीलं यस्य स एवंभूतः सन् यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।12.16।।आत्ममात्रापेक्षत्वेन शास्त्रीयमात्रजागरूकत्वं तद्व्यतिरिक्तेष्वत्यन्तनिरीहत्वं चाह -- अनपेक्षः इति श्लोकेन। प्रस्तुताधिकारविरोधव्युदासाय सामान्यं विशेषे नियमयतिआत्मव्यतिरिक्त इति। अन्येषु सङ्कोचकाभावात्कृत्स्न इत्युक्तम्। फलीभूतस्य शुचित्वस्य स्वरूपेण विधातुमशक्यत्वात्तद्धेतौ तात्पर्यमित्याह -- शास्त्रविहितेति। अन्यविषयसामर्थ्यस्यानुपयुक्तत्वात्तदुपयुक्तानुष्ठानसामर्थ्यं दक्षशब्देनाभिधीयत इत्याहशास्त्रीयेति। विरोधपरिहारायौदासीन्यं विहितव्यतिरिक्तविषयमित्याहअन्यत्रोदासीन इति। अविहिताप्रतिषिद्धेष्वित्यर्थः। अपक्षपातिन्वमिहौदासीन्यं वदन्तःसमः शत्रौ च [12।18] इत्यादिवक्ष्यमाणपौनरुक्त्यान्निरस्ताः। निषिद्ध्यमानव्यथाप्रसङ्गं दर्शयतिशास्त्रीयक्रियानिर्वृत्ताविति। विहितयोगारम्भादिव्यवच्छेदायाहशास्त्रीयव्यतिरिक्तेति। साभिसन्धिकपरित्यागस्यात्र विवक्षितत्वात् माध्यस्थ्यरूपौदासीन्याद्भेदः। यद्वा निष्प्रयत्नतारूपोदासीनत्वफलं सर्वकर्मारम्भपरित्यागः। कर्मात्र वाक्कायव्यापारः। स एवारभ्यमाणत्वादारम्भः। तस्योपादानं वा। एतदखिलमपि मद्भक्तिविशिष्टतयैव प्रियत्वकारणमिति मद्भक्तशब्देन विवक्षितमित्याहय एवम्भूतो मद्भक्त इति।
Sri Abhinavgupta
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
Sri Jayatritha
।।12.16।।पुनरुक्तिदोषमाशङ्क्य परिहरति -- सर्वेति।सर्वारम्भपरितयागीशुभाशुभपरित्यागी [12।17],इत्यादौ सामान्यविशेषभावेनसन्तुष्टः सततं योगी [12।14]सन्तुष्टो येन केनचित् [12।19] इत्यादौ व्याख्यानव्याख्येयभावेनहर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः [12।15]यो न हृष्यति [12।17] इत्यत्र नोक्तं प्रकारद्वयं सम्भवतीत्यत आह -- हर्षादिभिरिति। निष्ठाप्रत्ययेनातीतत्वप्रतीत्या कालान्तरे हर्षादिकं भवतीत्याशङ्क्य क्रियाप्रबन्धे विहितेन लटा प्रतिपादयतीत्यर्थः। तर्हीदमेवास्तु? किं तेन इत्यत आह -- उपचारेति। सिद्धेऽर्थे वचनमुपचारं तात्पर्यद्योतनेन परिहरतीत्यर्थः।यो मद्भक्तः इति भक्तिः पुनःपुनरुच्यते? तत्प्रयोजनमाह -- आधिक्येति।अद्वेष्टा [12।13] इत्यादिनोक्तेषु सर्वधर्मेषु भक्तेरिति शेषः।अद्वेष्टा इत्यादेः सङ्गत्यदर्शनात्तामाह -- ये त्वेति। प्रपञ्चस्तदुपलक्षितस्याभिधानम्। अक्षरोपासकानधिकृत्यैतदुच्यते इत्यसत्। सन्निहितसम्बन्धे सति व्यवहितसम्बन्धप्रहणायोगात्योमद्भक्तः स मे प्रियः इत्यादिवचनाच्च।