Chapter 12, Verse 5
Verse textक्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।12.5।।
Verse transliteration
kleśho ’dhikataras teṣhām avyaktāsakta-chetasām avyaktā hi gatir duḥkhaṁ dehavadbhir avāpyate
Verse words
- kleśhaḥ—tribulations
- adhika-taraḥ—full of
- teṣhām—of those
- avyakta—to the unmanifest
- āsakta—attached
- chetasām—whose minds
- avyaktā—the unmanifest
- hi—indeed
- gatiḥ—path
- duḥkham—exceeding difficulty
- deha-vadbhiḥ—for the embodied
- avāpyate—is reached
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
But the trouble is much greater for those who have their minds fixed on the Unmanifest, for it is difficult for those with physical bodies to attain the Unmanifest goal.
Swami Ramsukhdas
।।12.5।।अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले उन साधकोंको (अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियोंके द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है।
Swami Tejomayananda
।।12.5।। परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है।।
Swami Adidevananda
Greater is the difficulty for those whose minds are thus attached to the unmanifest, for the way of the unmanifest is hard to reach for embodied beings.
Swami Gambirananda
For those whose minds are attached to the Unmanifested, the struggle is greater; for the Goal, which is the Unmanifest, is attained with difficulty by the embodied ones.
Swami Sivananda
Greater is their trouble whose minds are set on the unmanifested, for the goal of the unmanifested is very hard for the embodied to reach.
Shri Purohit Swami
But they who fix their attention on the Absolute and Impersonal encounter greater hardships, for it is difficult for those who have a body to realize Me as without one.
Verse commentaries
Sri Neelkanth
।।12.5।।अस्या गतेर्दुष्प्रापत्वमाह -- क्लेश इति। यद्यपि सगुणविदामधिकः क्लेशोऽस्त्येव तथापि ते सालम्बना ध्यायन्ति सोपानारोहक्रमेण परां काष्ठां प्रविशन्ति। येषां तु निरालम्बं ध्यानमाकाशयुद्धसमं तेषां निर्विषये चेतःस्थिरीकरणेऽधिकतरः क्लेशोऽस्ति। तत्र क्रमिकध्यानप्रयोगः शुद्धे चिन्मात्रे विश्वरूपं माययाध्यस्तम्। तत्र च केवलमातिवाहिकं कृत्स्नं जडमाधिभौतिकमध्यस्तम्। यथोक्तं वसिष्ठेनआतिवाहिक एवायं त्वादृशैश्चित्तदेहकः। आधिभौतिकया बुद्ध्या गृहीतश्चिरभावनात्।। इति। अतिक्रम्य पाषाणादीन्वहति इष्टदेशं नयत्यभिमानिनमित्यतिवाहि सर्वत्राप्रतिहतगतिकं भूतसूक्ष्मं तेन निर्वत्त आतिवाहिकोऽयं कृत्स्नः प्रपञ्चो यतश्चित्तदेहकः चित्तमेव देहः स्वरूपमस्येति स्वप्नतुल्य एव सन् चिरभावनात् वज्रपञ्जरवत्काठिन्येनोपेत आधिभौतिकया स्थूलभूतप्रभवया बुद्ध्या गृहीत इति श्लोकार्थः। एवं च यथा तीव्राभिनिवेशेन निरीक्ष्यमाणो रज्जूरगः स्वयं शाम्यति तदधिष्ठानभूता रज्जुश्चाविर्भवति तथा वस्तुतश्चिद्रूपायामपि माधवादिमूर्तौ जाड्यमध्यस्तं तामेवाभिनिवेशेन चिरकालं चर्मचक्षुषैव पश्यतस्तस्या मूर्तेर्जाड्यं तिरोधीयते चैतन्यमाविर्भवति। अतएव बाणादयः स्वाराध्यैः सार्धं स्वामिभृत्यन्यायेन व्यवहरन्तीति सर्वत्रोपाख्यायते। एवमचेतनाया मूर्तेरपि तत्त्वं विश्वरूपमेवेति मूर्तिमेवात्यादरेण पश्यंस्तस्यास्तत्त्वं विश्वरूपमवगच्छति यदपश्यदर्जुनो वासुदेवदेहे एतदेव वितर्कजं प्रत्यक्षं प्रकृत्योक्तं भगवता योगभाष्यकारेण बादरायणेनतत्परं प्रत्यक्षं तच्च श्रुतानुमानयोर्बीजम् इति। स्थूलालम्बनः समाधिर्वितर्कः। विश्वरूपस्याप्यस्मितामात्रेऽध्यासात्तस्यावलोकनेऽस्मितामात्रमवशिष्यते। अस्मिताया अपि शुद्धायां चितावध्यस्तत्वात्तस्यामपि समाहिते मनसि सहैव मनसाऽस्मिता तिरोधीयते शुद्धा चितिरेवावशिष्यते इति। एवं व्यक्तासक्ताः सोपानारोहक्रमेण परां काष्ठां प्रतिपद्यन्ते। ये तु अव्यक्तासक्ताः पक्षिवदकस्मादूर्ध्वं पदमारुरुक्षन्ति ते लयेन विक्षेपेण च भृशं बाध्यन्ते। लयमेव च कदाचित्समाधित्वेनाभ्युपगच्छन्तीति तेषां पराभवसंभावनाप्यस्तीत्यत उक्तं क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसामिति। हि यस्मादव्यक्ता निरालंबना गतिः पदप्राप्तिर्देहवद्भिर्देहाभिमानिभिर्दुःखं यथास्यात्तथा अवाप्यते न तु सा सुखप्राप्येति भावः।
Swami Ramsukhdas
।।12.5।। व्याख्या--'क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्'--अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले-- इस विशेषणसे यहाँ उन साधकोंकी बात कही गयी है, जो निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ तो मानते हैं, पर जिनका चित्त निर्गुणतत्त्वमें आविष्ट नहीं हुआ है। तत्त्वमें आविष्ट होनेके लिये साधकमें तीन बातोंकी आवश्यकता होती है -- रुचि, विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनोंके द्वारा निर्गुण-तत्त्वकी महिमा सुननेसे जिनकी (निराकारमें आसक्त चित्तवाला होने और निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ माननेके कारण) उसमें कुछ रुचि तौ पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरम्भ भी कर देते हैं; परन्तु वैराग्यकी कमी और देहाभिमानके कारण जिनका चित्त तत्त्वमें प्रविष्ट नहीं होता-- ऐसे साधकोंके लिये यहाँ 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' पदका प्रयोग हुआ है।
Swami Chinmayananda
।।12.5।। सगुण और निर्गुण दोनों के ही उपासकों को एक ही लक्ष्य की प्राप्ति बताने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण दोनों मार्गों की तुलना करने का प्रय़त्न करते हैं जबकि वास्तव में वे अतुलनीय हैं तथा समान प्रभाव और गुण वाले हैं। भगवान् कहते हैं? अव्यक्त के उपासकों को सगुणोपासकों की अपेक्षा अधिक कष्ट होता है। इस कथन को इतना ही और इसी रूप में समझने पर ऐसा प्रतीत होगा कि यह कथन न केवल सगुणोपासना का समर्थन ही करता है? बल्कि निर्गुणोपासना की निश्चयात्मक रूप से निन्दा भी करता है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण और पथभ्रष्टक व्याख्या गीता को उपनिषत्प्रतिपादित सनातन ज्ञान का खण्डन करने वाला शास्त्र बना देगी। भक्ति मार्ग के कुछ वाचाल समर्थक ऐसे हैं? जो श्रद्धालु धर्मप्राण जनता को छलने के लिए इस श्लोकार्थ को ही उद्धृत करते हैं स्वयं भगवान् ही प्रथम पंक्ति के तात्पर्य को दूसरी पंक्ति में स्पष्ट करते हैं। अव्यक्त के उपासकों को अधिक क्लेश क्यों होता है भगवान् बताते हैं कि देहधारियों के द्वारा अव्यक्त की गति कठिनाई से प्राप्त की जाती है। इस श्लोक में परीक्षणीय शब्द है देहवद्भि अर्थात् देहधारियों के द्वारा। प्राय इस शब्द का यही वाच्यार्थ स्वीकार किया जाता है। परन्तु यदि हम इस प्रकार की व्याख्या के दूसरे स्वाभाविक पक्ष को देखें? तो ऐसे अर्थ की असंगति स्पष्ट हो जायेगी। यदि सभी देहधारी मनुष्य केवल सगुणसाकार की ही उपासना कर सकते हैं? तो इसका अर्थ यह होगा कि निराकार का ध्यान करना केवल देहत्याग के बाद ही संभव होगा।इसलिए? श्रीशंकराचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि देहवद्भि का अर्थ है देहाभिमानवद्भि अर्थात् देहधारी से तात्पर्य उन लोगों से है? जिन्हें देहाभिमान बहुत दृढ़ है। जो देह को ही अपना स्वरूप समझते हैं? वे लोग उनमें आसक्त होकर सदा विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। ऐसे विषयासक्त पुरषों के लिए अनन्त निराकार और सर्वव्यापी तत्त्व का ध्यान करना प्राय असंभव होता है। जिसकी दृष्टि मन्द हो और हाथ काँपते हों? ऐसे वृद्ध व्यक्ति को सुई में धागा डालने में बड़ी कठिनाई हो सकती है। इसी प्रकार? जो मन और बुद्धि क्षुब्ध हैं? चंचल और विषयोपभोग में लालायित रहती है? ऐसे अन्तकरण से युक्त पुरुष समस्त नाम और रूपों के अतीत अनन्त आत्मवैभव को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है? वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है।संक्षेप में बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप का ध्यान करना अधिक सरल और लाभदायक है। यदि मनुष्य जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा समझकर करे? तो शनैशनै उसकी देहासक्ति तथा विषयोपभोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार? अव्यक्त और अविनाशी तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।अक्षरोपासकों के जीवनवर्तन के विषय को इसी अध्याय के अन्तिम भाग में वर्णन किया जायेगा। तथापि अब? सगुण की उपासना करने वालों के लिए उपयोगी साधनाओं का वर्णन किया जा रहा है
Sri Anandgiri
।।12.5।।सगुणोपासकेष्वपि कथमित्याह -- किंत्विति। अक्षरोपासनस्य दुष्करत्वादुपासनान्तरस्य सुकरत्वादित्यभिप्रेत्याह -- क्लेश इति। अधिक एवेतरेभ्यो द्वैतदर्शिभ्यः कामिभ्य इति शेषः। तेषां क्लेशस्याधिकतरत्वे हेतुं मत्वा विशिनष्टि -- देहेति। अव्यक्तमत्यन्तसूक्ष्मं निर्विशेषमक्षरं तस्मिन्नासक्तमभिनिविष्टं चेतो येषां तेषामिति यावत्। अक्षरोपासकानां क्लेशस्याधिकतरत्वे भगवानेव हेतुमाह -- अव्यक्तेति। दुःखं दुःखेन कृच्छ्रेणेति यावत्? अतो देहाभिमानत्यागादित्यर्थः। ते कथं वर्तन्ते तत्राह -- अक्षरेति।
Sri Dhanpati
।।12.5।।एवं चेत्तर्हि एतेषां सत्तमतां कुतो न ब्रूषे कुतश्च सगुणोपासकान् सत्तमानुक्तवानसीत्याशङ्क्य स्वस्वरुपाणां सतां युक्ततमत्वस्यायुक्ततमव्वस्य वा वक्तव्यत्वात्सगुणोपासने क्लेशाधिकतराभावच्चेत्याशयेनाह -- क्लेश इति। यद्यपि सगुणोपासकानां मत्कर्मपरायणतादौ क्लेशोऽधिकोऽस्त्येव तथाप्यक्षरोपासकानां देहाभिमानपरित्यागनिबन्धोऽधिकतरः क्लेशः अव्यक्ते करणागोचरे तत्प्राप्त्यर्थमासक्तं चेतश्चित्तं येषां तेषामव्यक्तासक्तचेतसां हि यस्मादव्यक्ताक्षरात्मिका गतिर्देहवद्भिर्देहाभिमानवद्भिर्दुःखं यथा स्यात्तथा। अतिकष्टेनेति यावत्। अवाप्यतेऽतः क्लेशोऽधिकतर इत्युक्तम्।
Sri Madhavacharya
।।12.5।।कथं तर्हि त्वदुपासकानामुत्तमत्वं इत्यत आह -- क्लेश इति। अव्यक्ता गतिर्दुःखं ह्यवाप्यते। गतिर्मार्गः। अव्यक्तोपासनद्वारको मत्प्राप्तिमार्गो दुःखमवाप्यत इत्यर्थः। अतिशयोपासनसर्वेन्द्रियातिनियमनसर्वसमबुद्धिसर्वभूतहितेरतत्वातिसुष्ट्वाचारसम्यग्विष्णुभक्त्यादिसाधनसन्दर्भमृते नाव्यक्तापरोक्षम्।तदृते च न विष्णुप्रसादः। सत्यपि तस्मिन्नसम्यग्भगवदुपासनमृते नर्ते च तं मोक्षः? विनाऽव्यक्तोपासनं भवत्येव भगवदुपासकानां मोक्ष इति क्लेशिष्ठो़ऽयं मार्ग इति भावः। तथाप्यपरोक्षीकृताव्यक्तानां सुकरं भगवदुपासनमित्येव प्रयोजनम्। तत्रापि योऽव्यक्तापरोक्षे प्रयासस्तावता प्रयासेन यदि भगवन्तमुपास्ते? ऊनेन वा? तदा भगवदपरोक्षमेव भवतीति द्वितीयमधिकम्। इन्द्रियसंयमाद्यूनभावे अत्युपासकस्यापि देवी नातिप्रसादमेति। देवस्तु तानि साधनानि भक्तिमतः स्वयमेव प्रयत्नेन ददातीति सौकर्यमिति भक्तानां भगवुपासने। इतरत्र च क्लेशोऽधिकतरः।तदेतत्सर्वं पर्युपासते सन्नियम्याधिकतर इति परिसन्तरप्शब्दैः प्रतीयते। सामवेदे माधुच्छन्दशाखायां चोक्तम् -- भक्ताश्च येऽतीव विष्णावतीव जितेन्द्रियाः सम्यगाचारयुक्ताः। उपासते तां समबुद्धयश्च तेषां देवी दृश्यते नेतरेषाम्। दृष्टा च सा भक्तिमतीव विष्णौ दत्त्वोपास्ते सर्वविघ्नांश्छिनत्ति। उपास्य तं वासुदेवं विदित्वा ततस्ततः शान्तिमत्यन्तमेति इति। उक्तं च सामवेदे अयास्यशाखायाम् -- प्रसन्नो भविता देवः सोऽव्यक्तेन सहैव तु। यावता तत्प्रसादो हि तावतैव न संशयः। न तत्प्रसादमात्रेण प्रीयते स महेश्वरः। तस्मिन्प्रीते तु सर्वस्य प्रीतिस्त भवति ध्रुवम्।।यद्यप्युपासनाधिक्यं तथापि गुणदो हि सः। मुक्तिदश्च स एवैको नाव्यक्तादिस्तु कश्चन इति।ममात्मभावमिच्छन्तो यतन्ते परमात्मने [म.भा.12।228।20] इति मोक्षधर्मे श्रीवचनम्।धर्मनित्ये महाबुद्धौ ब्रह्मण्ये सत्यवादिनि। प्रश्रिते दानशीले च सदैव निवसाम्यहम् [म.भा.12।228।26] इति च।महतः परं तु ब्रह्मैव। तथा हि भगवता सयुक्तिकमभिहितम्।वदतीति चेन्न प्राज्ञो हि त्रयाणामेव चैवमुपन्यासः प्रश्नश्चेत्यादि। तमिति पुल्लिङ्गाच्चैतत्सिद्धिः। महतः परत्वं तु अव्यक्तपरस्य भवत्येव। तथा चाग्निवेश्यशाखायाम् -- अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवम् [कठो.3।15] इति। परो हि देवः पुरुहूतो महत्तः इति। न चाव्यक्तरूपं भगवता निषिद्धं भारतादौ साधितत्वात्। शरीररूपकविन्यस्तगृहीतेरित्यादौ तु साङ्ख्यप्रसिद्धं,प्रधानं निषिध्य वैदिकमव्यक्तमेवोक्तम्। तथा च सौकरायणश्रुतिः -- शरीररूपिका अशरीरस्य विष्णोर्यतः प्रिया सा जगतः प्रसूतिः इति। सुव्रतानां क्षिप्रं महदैश्वर्यं ददाति देवी न देव इति विशेषः। सुवर्णवर्णां पद्मकरां च देवीं सर्वेश्वरीं व्याप्तजडां च बुद्ध्वा। सैवेति वै सुव्रतानां तु मासान्महाविभूतिं श्रीस्तु दद्यान्न देवः इत्यृग्वेदखिलेषु।
Sri Ramanujacharya
।।12.5।।तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसां क्लेशः तु अधिकतरः? अव्यक्ता हि गतिः अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः देहवद्भिः देहात्माभिमानयुक्तैः दुःखेन अवाप्यते देहवन्तो हि देहम् एव आत्मानं मन्यन्ते।भगवन्तम् उपासीनानां युक्ततमत्वं सुव्यक्तम् आह --
Sri Sridhara Swami
।।12.5।। ननु च तेऽपि त्वामेव प्राप्नुवन्ति तर्हीतरेषां युक्ततमत्वं कुत इत्यपेक्षायां क्लेशाक्लेशकृतं विशेषमाह -- क्लेश इति त्रिभिः। अव्यक्ते निर्विशेष अक्षर आसक्तं चेतो येषां तेषां क्लेशोऽधिकतरः। हि यस्मादव्यक्तविषया गतिर्निष्ठा देहाभिमानिभिः दुःखं यथाभवत्येवमवाप्यते। देहाभिमानिनां नित्यं प्रत्यक्प्रवणत्वस्य दुर्घटत्वादिति भावः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।। 12.5 अक्षरनिष्ठस्यापकर्षमाह -- ये त्वक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयेण। सर्वप्रकारनिर्देशनिषेधस्य स्ववचनविरोधादिदुष्टत्वाद्यथावस्थितस्वरूपे निषेध्यतया विवक्षितं निर्देशविशेषं सहेतुकमाहदेहादन्यतयेति। यद्यपि देहादन्यस्मिन्नपि देहिनि देहद्वारा देवादिशब्दाः प्रवर्तन्ते तथापि विविच्य निर्देष्टव्ये प्रकृतिसम्बन्धरहिते चापवृक्तात्मस्वरूपे तावत्तादृशवृत्तिरपि न सम्भवतीत्यभिप्रायः।तत एव देहादन्यतयैवेत्यर्थः। अत्यन्तानभिव्यक्तत्वविवक्षायांउपासते इति स्ववाक्येनापि विरोध इत्यभिप्रायेणाह -- चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तमिति।सर्वत्रगम् इत्यत्राणुत्व श्रुतिविरोधपरिहारायाहदेवादिदेहेष्विति। यद्वा निषेध्यस्य चिन्त्यत्वस्य प्रसङ्गार्थंसर्वत्रगम् इत्युक्तमित्याह -- देवादिदेहेषु वर्तमानमपीति।तेन तेन रूपेणेति आत्मचिन्ताविधिविरोधाच्चिन्त्यमात्रनिषेधो न शक्यत इति भावः।तत एव कूटस्थमिति तत्तद्विलक्षणत्वादित्यर्थः। अनेकेषां सन्तन्यमानानां पुरुषाणां साधारणो हि पूर्वः पुरुषः कूटस्थः अत्र तु साधारण्यमात्रं लक्ष्यत इत्याहसर्वसाधारणमिति। एतेन कूटशब्दनिर्दिष्टमायाध्यक्षत्वं वा राशिवत्स्थितत्वं वा वदन्तः प्रसिद्धार्थपरित्यागादिभिर्निरस्ताः। अतः कूट इव निश्चलं वृद्धिक्षयादिरहितमित्यप्यत्र मन्दम्। नन्वेकदा सर्वसाधारणत्वमसिद्धं? कालभेदेन सर्वजातीयशरीरपरिग्रहेऽपि सर्वव्यक्तिपरिग्रहो नास्ति? अतः कथं सर्वसाधारणत्वमित्यत आहदेवादीति। नह्यसाधारणा देवत्वादय आत्मन्यव्यवधानेन सम्बध्यन्त इति भावः।उत्क्रान्त्यादिमतो जीवस्य स्पन्दनिषेधादेरनुपपन्नत्वादत्राचलशब्दविवक्षितमाह -- अपरिणामित्वेनेति। अनित्यत्वं हि परिणामेन व्याप्तम्। ततश्च व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो विवक्षित इत्यपुनरुक्तिरित्याह -- तत एव ध्रुवमिति।उपासते [12।2] इत्यनेनैव मनोनियमनस्य सिद्धत्वात्तदुपयुक्तबाह्येन्द्रियव्यापारनियमनपरतया व्याचष्टेसम्यङ्नियम्येति।अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहः [वि.ध.104।3बृ.ना.31।76] इत्यादिकमभिप्रेत्योक्तंसर्वत्रेति।शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यादिकमभिप्रेत्यआत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धय इत्युक्तम्।तत एव -- समबुद्धित्वादेव।य एवमक्षरमुपासते अक्षरशब्दवाच्यं प्रत्यगात्मानं प्राप्यतया निश्चित्य परमात्मानं तत्प्रापकतयोपासते।तेऽपीति मद्व्यतिरिक्तप्राप्यान्तरनिश्चयवन्तोऽपीत्यर्थः।मां प्राप्नुवन्त्येव -- विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता [वि.पु.6।7।61] इत्युक्तप्रकारेणअविभागेन दृष्टत्वात् [ब्र.सू.4।4।3] इत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतं मुक्तस्वरूपं मत्समानाकारं प्राप्नुवन्तीत्यर्थ इत्यर्थः।प्रमेयशरीरं साधीयः? यदि प्रमाणमुपलभामह इत्याशङ्क्य सोपबृंहणश्रुतिमुदाहरतिपरमं साम्यमुपैतीति। ननु अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते [मुं.उ.1।1।5]अक्षरमम्बरान्तधृतेः [ब्र.सू.1।3।10] इत्यादिषु परब्रह्मसाधारणतया प्रयुज्यमानमक्षरपदं कथं जीवात्मवाचकम् उच्यते अमृताक्षरं हरः [श्वे.उ.1।10]कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] इत्यादिषूक्तत्वादित्याहतथाक्षरशब्दनिर्दिष्टादित्यादिना।पञ्चविंशकमव्यक्तं षड्विंशः पुरुषोत्तमः। एतज्ज्ञात्वा विमुच्यन्ते यतयः शान्तबुद्धयः [य.स्मृ.] इत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तजीवात्मासक्तचेतसां क्लेशस्त्वधिकतरः? मय्यावेशितचेतस्त्वाभावात्। अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः सर्वेन्द्रियोपरतिरूपा। ननु देहवत्त्वं सनकादीनामपि सम्भवतीत्याशङ्क्यदेहात्माभिमानयुक्तैरित्युक्तम्।
Sri Abhinavgupta
।।12.3 -- 12.5।।येत्वित्यादि अवाप्यते इत्यन्तम्। ये पुनरक्षरं (S ये त्वक्षरम्) ब्रह्म उपास्ते आत्मानं [ तैरपि ] सर्वत्रगम् इत्यादिभिर्विशेषणैः आत्मनः सर्वे ईश्वरधर्मा आरोप्यन्ते। अतो ब्रह्मोपासका अपि मामेव यद्यपि यान्ति तथापि अधिकतरस्तेषां क्लेशः। आत्मनि किल अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकारोपं विधाय पश्चात्तमेव उपासते इति स्वतः सिद्धगुणग्रामगरिमणि ईश्वरे ( ईश्वरेऽपि) अयत्नसाध्ये स्थितेऽपि द्विगुणमायासं विन्दन्ति।
Sri Jayatritha
।।12.5।।नन्वितरेषां किं फलं इत्यस्य प्रश्नस्यते प्राप्नुवन्ति मामेव [12।4] इत्युत्तरं दत्तम्? तत्किमुत्तरेण इत्यत आह -- कथमिति। पूर्ववाक्ये पक्षग्रहणमात्रं कृतम्? न तु तत्राभिप्रेतस्य दोषस्य परिहारः। अतः पूर्वपक्षिणाऽभिप्रायोद्धाटने कृते तत्समाधानमाहेति भावः। तर्ह्युभयेषां फलसाम्ये। यद्यप्येषा शङ्का पूर्ववाक्ये परिहृता? पर्यादिपदप्रयोगात्। तथा च वक्ष्यति। तथापि साध्यस्यानुक्तत्वाद्धेतुवचनं स्वरूपकथनं मन्यमानस्य भवत्येव पुनः शङ्का। उत्तरार्धे पदानां व्यवहितत्वादन्वयाप्रतीतौ तमाह -- अव्यक्तेति। अनेनदुःखं इत्यस्य क्रियाविशेषणत्वमुक्तम्। गतिशब्दस्याकर्तरि कारके भावे च प्रयोगादत्र विवक्षितमर्थमाह -- गतिरिति। गम्यतेऽनेनेति व्युत्पादनादुपायो गतिरित्यर्थः। ननु मार्गस्याव्यक्तत्वं कथमुच्यते कुतश्च गम्यार्थता गतिशब्दस्य त्यज्यत इत्यत आह -- अव्यक्तेति। अव्यक्तोपासनं द्वारं उपायो यस्यासौ तथोक्तः। अव्यक्तोपासनानन्तरभावि,यद्भगवदुपासनं तदेवमुच्यते अनेनाव्यक्तशब्दस्तदुपासनं लक्षयति। तेन च तद्द्वारकत्वं लक्ष्यते गम्यार्थतायां च गतिशब्दस्याव्यक्ताख्यं गम्यमित्युक्तं स्यात्। न च तद्युक्तम्।ते प्राप्नुवन्ति मामेव इति भगवत्प्राप्तेरुक्तत्वादित्युक्तं भवति। अत्र पूर्वार्धेऽस्य मार्गस्याधिकतरक्लेशवत्त्वं प्रतिज्ञाय कथमित्यतस्तत्प्रसिद्धमित्युत्तरार्धेनोक्तम्। तत्प्रसिद्धिं विवृणोति -- अतिशयेति।षष्ठोक्तप्रकारेण सर्वसमबुद्धिः? ततः किं इत्यत आह -- तदृते चेति। अयोगव्यवच्छेद एवायमुक्तः? न तु तावन्मात्रेणेत्याह -- सत्यपीति। तस्मिन्नव्यक्तापरोक्ष्ये सति विष्णुप्रसाद इति वर्तते। ततोऽपि किं इत्यत आह -- नर्ते चेति। तं विष्णुप्रसादम्। अस्त्वेवमव्यक्तोपासनद्वारकभगवत्प्राप्तिमार्गप्रकारः। तथापि कथमत्राधिकतरः क्लेश इत्यत आह -- विनेति। अव्यक्तोपासनमार्गं अयमव्यक्तोपासनद्वारकः। एवं तर्हि किमिति प्रवृत्तो येनार्जुनेनाशङ्कितः इत्यत आह -- तथापीति। एवं तर्हि मार्गयोः साम्यमेव। अनेन प्रयोजनेन क्लेशस्य समाधानादित्यत आह -- तत्रापीति। अव्यक्तोपासनद्वारकेमार्गेऽपि द्वितीयं भगवदुपासने दुःखं पाक्षिकमेतत्? ऊनेन वेत्युक्तत्वात् इतश्चाव्यक्तोपासनद्वारके मार्गे भगवदुपासनात्क्लेशोऽधिकतर इत्याह -- इन्द्रियेति। नातिप्रसादमेतीत्यतः परमेक इति शब्दः। द्वावपि हेतौ प्रकारार्थौ वा।कुतोऽयं भगवतो भावः इत्यत आह -- तदेतदिति। उपलक्षणमेतत्। सर्वत्र समबुद्धय इत्यादिनेत्यपि द्रष्टव्यम्? तत्र परीत्यनेनोपासकस्यातिशयः। समित्यनेनेन्द्रियनियमस्यातिशयः। सर्वत्रेत्यादिना सर्वेत्यादिकम्। तरपाऽतिसुष्ट्वाचारादिकम्।अव्यक्ता गतिः इत्यनेन तदृते चेत्यादिव्यवधानम्। मामेवेत्यवधारणेन तथापीत्यादिकं प्राप्नुवन्तीति स्वातन्त्र्योक्त्येन्द्रियसंयमादिति देवतासहायाभावः। भगवदुपासने त्वेतदभावो यथा गीतोक्तस्तदुत्तरत्र प्रदर्शयिष्यते। आगमान्तरसिद्धत्वाच्चायं भवति। भगवदभिप्राय इत्याह -- सामवेद इति। तेषामित्यादिषष्ठी तृतीयार्थे। विदित्वा साक्षात्कृत्य ततो वेदनात्प्रसन्नात्ततो वासुदेवात्। यावता प्रयासेन तत्प्रसादोऽव्यक्तप्रसादः। सर्वस्यापीति द्वितीयस्तुशब्दोऽपिशब्दार्थे आधिक्यशब्देन न्यूनत्वमप्युलक्ष्यते। न्यूनाधिकयोरन्यत्र प्रत्यवायहेतुत्वात्। नाव्यक्तादेरिति पाठे मध्ये इत्युपस्कारः। ममोपासनेनात्मभावं कैवल्यं परमात्मने तमुद्दिश्यअस्य वाक्यस्य कथं प्रकृतोपयोग इत्यत उक्तम् -- श्रीवचनमिति। नित्ये नियते ब्रह्मण्ये ब्रह्मणि साधौ निवसामि प्रसन्ना भवामीति च श्रीवचनमिति सम्बन्धः।पूर्वं शङ्काहेतुत्वेन श्रियं वसाना [ऋक्सं.7।4।4।4] इत्यादीनि वाक्यान्युदाहृतानि तेष्विदमेकं नाव्यक्तविषयमिति वस्तुस्थितिमाह -- महत इति। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं [कठो.3।15] इति वाक्यप्रतिपाद्यमिति यावत्। अत्राभ्युच्चययुक्तिं चाह -- तमिति। ननूक्तपरामर्शोपपत्तेरितिपूर्वपक्षेऽपि युक्तिरुक्तेत्यतः साऽन्यथासिद्धेत्याह -- महत इति। तथा चोक्तवक्ष्यमाणबलात् अव्यक्तात्पुरुषः परः [कठो.3।11] इत्युक्तस्यायं परामर्श इति भावः। श्रुत्यन्तरेणैवं व्याख्यातत्वाच्च एतद्वाक्यं तत्परमित्याह -- तथाचेति। पुरुभिर्हूतः पुरुहूतः। नन्वव्यक्तं नाम तत्त्वमेव नास्तीति सूत्रकृतोक्तं ततस्तदभिमानिन्यव्यक्ताख्या देवताऽपि नास्ति तत्कथं तद्विषयतया व्याख्यानं इत्यत आह -- न चेति। तर्हि कथं तत्सूत्रं इत्यत आह -- शरीरेति। साङ्ख्यप्रसिद्धं प्रधानमिति स्वतन्त्रं मुख्यतः शब्दवाच्यमित्यर्थः। वैदिकमिति भगवदधीनं तत्सम्बन्धेन शब्दवाच्यमित्यर्थः। अत्र श्रुतिं चाह तथा चेति। प्राक् तथाऽप्यपरोक्षीकृताव्यक्तानामित्यादिनैकं प्रयोजनमुक्तम्। अपरं च सप्रमाणकमाह -- सुव्रतानामिति। बुद्ध्येत्युक्तप्रकारेणोपासीना य इति शेषः। एतत्प्रयोजनं गीतायां न सूचितमिति न तत्रैवोक्तम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।12.5।।इदानीमेतेभ्यः पूर्वेषामतिशयं दर्शयन्नाह -- क्लेशोऽधिकतर इति। पूर्वेषामपि विषयेभ्य आहृत्य सगुणे ब्रह्मणि मनआवेशेन सततं तत्कर्मपरायणत्वे च परश्रद्धोपेतत्वे च क्लेशोऽधिको भवत्येव किंतु अव्यक्तासक्तचेतसां निर्गुणब्रह्मचिन्तनपराणां तेषां पूर्वोक्तसाधनवतां क्लेश आयासोऽधिकतरः अतिशयेनाधिकः। अत्र स्वयमेव हेतुमाह भगवान् -- अव्यक्तेति। अव्यक्ता हि गतिः। हि यस्मादक्षरात्मकं गन्तव्यं फलभूतं ब्रह्म,दुःखं यथा स्यात्तथा कृच्छ्रेण देहवद्भिर्देहमानिभिरवाप्यते सर्वकर्मसंन्यासं कृत्वा गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यानां तेन तेन विचारेण तत्तद्भ्रमनिराकरणे महान् प्रयासः प्रत्यक्षसिद्धस्ततः क्लेशोऽधिकतरस्तेषामित्युक्तं। यद्यप्येकमेव फलं तथापि ये दुष्करेणोपायेन प्राप्नुवन्ति तदपेक्षया सुकरेणोपायेन प्राप्नुवन्तो भवन्ति श्रेष्ठा इत्यभिप्रायः।
Sri Purushottamji
।।12.5।।किञ्च मदभिमता भावात्परम्पराप्राप्तावपि तेषां क्लेशः? अप्रकटरूपासक्तचित्तानां सेवार्थप्रकटितसर्वेन्द्रियवैकल्यात् क्लेशः अधिकतरो भवति? आसक्तचित्तत्वाद्दर्शनाद्यभिलाषे सति तदभावादाधिक्यं भवति साधनदशायामपि? अत एवाधिकतरत्वमुक्तम्। फलमपि दुःखेन प्राप्यत इत्याह -- अव्यक्तेति। देहवद्भिः देहात्मसेवमानवद्भिः अव्यक्ता गतिः अव्यक्तनिष्ठा गतिः दुःखं दुःखेन अवाप्यते प्राप्यते। हीति युक्तत्वाय। भगवत्सेवैकयोग्यदेहस्य व्यर्थगमनेन सा गतिर्दुःखेनैव प्राप्यते। प्राप्त्यनन्तरमप्यलौकिकदेहाद्यभावादव्यक्ततया प्रवेशे तदात्मकांशस्य पूर्वानुभूतलौकिकेन्द्रियरसस्मरणेन जले निमग्नस्य जलपानवद्दुःखं प्राप्यत इति भावः।
Sri Shankaracharya
।।12.5।। --,क्लेशः अधिकतरः? यद्यपि मत्कर्मादिपराणां क्लेशः अधिक एव क्लेशः अधिकतरस्तु अक्षरात्मनां परमात्मदर्शिनां देहाभिमानपरित्यागनिमित्तः। अव्यक्तासक्तचेतसाम् अव्यक्ते आसक्तं चेतः येषां ते अव्यक्तासक्तचेतसः तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि यस्मात् या गतिः अक्षरात्मिका दुःखं सा देहवद्भिः देहाभिमानवद्भिः अवाप्यते? अतः क्लेशः अधिकतरः।।अक्षरोपासकानां यत् वर्तनम्? तत् उपरिष्टाद्वक्ष्यामः --,
Sri Vallabhacharya
।।12.5।।तेषां तथाऽव्यक्ततया प्राप्तिरेव मत्स्वरूपस्य? न च तदधिगमपूर्वकं सुखमपीत्याह -- इह क्लेशोऽधिकतरो दुःखमव्यक्ता गतिरिति। तत्रापि सर्वभूतहिते रता एव तदा तथा मां प्राप्नुवन्ति। अनेन भागवतैकादशस्कन्धे भक्तस्वरूपनिरूपणे सर्वभूतहिते रतस्य भगवदात्माप्तिरुक्ता? नान्यस्य? तथेहापीत्युक्तं भवति। ततो देह इव देहवतां मदव्यक्तदेहासक्तचेतसां न तदन्तस्थितस्यात्मनो मम प्राप्तिः साक्षाद्रसानन्दरूपा? किन्तु दुःखमव्यक्तगतिरेव स्वरूपसहानिरैक्यं लवणस्य सलिल इवेति भावः। किञ्च तदुपासनकालेऽपि साधनक्लेशोऽधिकतरः? निर्विशेषे तस्मिन्नभेदेन भावनाया दुःखसम्भवात्। अतएवोक्तं -- श्रेयस्सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो क्लिशयन्ति ये केवलबोधलब्धये [भाग.10।14।14] इति। ते पुरुषोत्तमस्य भक्तिमुदस्य केवलस्याक्षरात्मनो बोधलब्ध्यै क्लिश्यन्तीति क्लेशोऽधिकःश्रम एव हि केवलं इत्याशयेन तरप् च। मद्भजनमार्गे त्वारम्भत एव परमानन्दः अक्षरज्ञानमार्गे त्वन्तत इत्यपि विशेषः।
Swami Sivananda
12.5 क्लेशः the trouble? अधिकतरः (is) greater? तेषाम् of those? अव्यक्तासक्तचेतसाम् whose minds are set on the unmanifested? अव्यक्ता the unmanifested? हि for? गतिः goal? दुःखम् pain? देहवद्भिः by the embodied? अवाप्यते is reached.Commentary Worshippers of the Saguna (alified) and the Nirguna (unalified) Brahman reach the same goal. But the latter path is very hard and arduous? because the aspirant has to give up attachment to the body from the very beginning of his spiritual practice.The embodied Those who identify themselves with their bodies. Identification with the body is Dehabhimana. The imperishable Brahman is very hard to reach for those who are attached to their bodies. Further? it is extremely difficult to fix the resltess mind on the formless and attributeless Brahman. Contemplation on the imperishable? attributeless Brahman demands a very sharp? onepointed and subtle intellect. The Upanishad says Drisyate tu agraya buddhya sukshmaya sukshmadarsibhih -- It is seen by subtle seers through their subtle intellect.He who meditates on the unmanifested should possess the four means. Then he will have to approach a Guru who is well versed in the scriptures and who is also established in Brahman. He will have to hear the Truth from him? then reflect and meditate on It.He who realises the Nirguna (attributeless) Brahman attains eternal bliss or Selfrealisation or Kaivalya (Moksha) which is preceded by the destruction of ignorance with its effects. He who realises the Saguna Brahman (Brahman with attributes) goes to Brahmaloka and enjoys all the wealth and powers of the Lord. He then gets initiation into the mysteries of the Absolute from Hiranyagarbha and without any effort and without the practice of hearing? reflection and meditation attains? through the grace of the Lord alone? the same state as attained by those who have realised the Nirguna Brahman. Through the knowledge of the Self? ignorance and its effects,are destroyed in the case of the worshippers of the Saguna Brahman also.