Chapter 17, Verse 2
Verse textश्री भगवानुवाचत्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।17.2।।
Verse transliteration
śhrī-bhagavān uvācha tri-vidhā bhavati śhraddhā dehināṁ sā svabhāva-jā sāttvikī rājasī chaiva tāmasī cheti tāṁ śhṛiṇu
Verse words
- śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Personality said
- tri-vidhā—of three kinds
- bhavati—is
- śhraddhā—faith
- dehinām—embodied beings
- sā—which
- sva-bhāva-jā—born of one’s innate nature
- sāttvikī—of the mode of goodness
- rājasī—of the mode of passion
- cha—and
- eva—certainly
- tāmasī—of the mode of ignorance
- cha—and
- iti—thus
- tām—about this
- śhṛiṇu—hear
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
The Bhagavat said, "The faith of the embodied persons is born of their nature and is of three kinds [viz.]: that which is made of Sattva; that which is made of Rajas; and that which is made of Tamas. Listen about them."
Swami Ramsukhdas
।।17.2।।श्रीभगवान् बोले -- मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी -- ऐसे तीन तरहकी ही होती है, उसको तुम मेरेसे सुनो।
Swami Tejomayananda
।।17.2।। श्री भगवान् ने कहा -- देहधारियों (मनुष्यों) की वह स्वाभाविक (ज्ञानरहित) श्रद्धा तीन प्रकार की - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक - होती हैं, उसे तुम मुझसे सुनो।।
Swami Adidevananda
The Lord said, "The faith of embodied beings is threefold, born of their own nature and constituted of Sattva, Rajas, and Tamas. Now, listen to me about it."
Swami Gambirananda
The Blessed Lord said, "That faith of the embodied beings, born of their own nature, is threefold—born of sattva, rajas, and tamas. Hear about it."
Swami Sivananda
The Blessed Lord said, "There are threefold faiths inherent in the nature of the embodied: the sattvic (pure), the rajasic (passionate), and the tamasic (dark). Hear of them."
Shri Purohit Swami
Lord Shri Krishna replied: Man has an inherent faith in one or another of the qualities—purity, passion, and ignorance. Now, listen.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।17.2।। --,त्रिविधा त्रिप्रकारा भवति श्रद्धा? यस्यां निष्ठायां त्वं पृच्छसि? देहिनां शरीरिणां सा स्वभावजा जन्मान्तरकृतः धर्मादिसंस्कारः मरणकाले अभिव्यक्तः स्वभावः उच्यते? ततो जाता स्वभावजा। सात्त्विकी सत्त्वनिर्वृत्ता देवपूजादिविषया राजसी रजोनिर्वृत्ता यक्षरक्षःपूजादिविषया तामसी तमोनिर्वृत्ता प्रेतपिशाचादिपूजाविषया एवं त्रिविधां ताम् उच्यमानां श्रद्धां शृणु अवधारय।।सा इयं त्रिविधा भवति --,
Swami Sivananda
17.2 त्रिविधा threefold? भवति is? श्रद्धा faith? देहिनाम् of the embodied? सा that (faith)? स्वभावजा (is) inherent in (their) nature? सात्त्विकी Sattvic (pure)? राजसी Rajasic (passionate)? च and? एव even? तामसी Tamasic (dark)? च and? इति thus? ताम् it? श्रृणु hear (thou).Commentary The whole world is made up? as if were? of faith. Faith assumes a threefold aspect under the influence of the three alities. When Sattva is strongly developed? when there is a preponderance of Sattva or purity in a man? it is easy for him to attain Selfrealisation or the knowledge of the Self. If Rajas is predominant? the faith becomes the handmaid of activity. If Tamas or inertia prevails? faith is annihilated.Those who are endowed with Sattvic faith aim at the attainment of liberation. Those who are endowed with Rajasic faith run after inferior duties or worldly activities. Those whose faith is Tamasic are cruel. They kill animals for sacrifice. They invoke the spirits and talk with ghosts. When faith is joined to Sattva? it leads to salvation. When Rajas preponderates? it colours the faith and leads to various activities. When Tamas predominates? the faith results in darkness.Faith acires different alities when it is in company with the mind of man. Mind is a thing of many colours. Just as the water of the Ganga is contaminated by being put in a vessel where lior had been kept? so also a virtuous person is spoiled by bad company or constant association with evil persons. The three Gunas or attributes colour the faith of a man. The mind of a man is governed by the preponderating attribute or ality which manifests itself when the other two alities are suppressed. Faith takes a threefold aspect in accordance with the inherent nature or tendencies of the man. The inclinations of men are moulded according to their ality or inherent nature born of their past Samskaras.As is the tendency? so is the desire as is the desire? so is the action as is the action? so is the birth into another being after death. The body is like the seed of the tree? a perpetual chain. Seed perishes in developing into a tree and the tree again produces the seed. This process or cycle continues eternally. Even so man takes a body? does actions? develops tendencies? dies and puts,on a new body in accordance with the nature or tendencies. This continues till he gets knowledge of the Self by transcending the three Gunas? when ignorance? the root cause of birth and death? is destroyed.Faith is born of the individual nature? i.e.? the Samskaras or the latent impressions of virtuous and vicious actions which were performed in the past births and which manifested themselves at the time of death. In the subconscious mind or the Chitta there is a reservoir of past impressions which are revived through the operation of memory.Sattvic Faith in the worship of gods? which is an effect of Sattva.Rajasic Faith in the worship of the Yakshas and Rakshasas? which is an effect of Rajas.Tamasic Faith in the worship of the disembodied spirits and ghosts? which is an effect of Tamas.Faith is the main support of life. It is not mere intellectual belief or blind acceptance of pet dogmas or doctrines. You must understand clearly its characteristics? just as you recognise a tree from the fruits? the mind of a man from his speech? and the actions of previous birth from worldly pleasures and pains.Svabhavaja Inherent in their nature born of past Samskaras.Tam Of it? referring to the threefold faith.
Sri Madhusudan Saraswati
।।17.2।।ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य श्रद्धया यजन्ते ते श्रद्धाभेदाद्भिद्यन्ते तत्र ये सात्त्विक्या श्रद्धयान्वितास्ते देवाः शास्त्रोक्तसाधनेऽधिक्रियन्ते तत्फलेन च युज्यन्ते। ये तु राजस्या तामस्या च श्रद्धयान्वितास्तेऽसुरा न शास्त्रीयसाधनेऽधिक्रियन्ते नवा तत्फलेन युज्यन्त इति विवेकेनार्जुनस्य संदेहमपनिनीषुः श्रद्धाभेदं यथा श्रद्धयान्विताः शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते सा देहिनां स्वभावजा। जन्मान्तरकृतो धर्माधर्मादिशुभाशुभसंस्कार इदानींतनजन्मारम्भकः स्वभावः। स त्रिविधः सात्त्विको राजसस्तामसश्चेति। तेन जनिता श्रद्धा त्रिविधा भवतिं सात्त्विकी राजसी तामसी च। कारणानुरूपत्वात्कार्यस्य। या त्वारब्धे जन्मनि शास्त्रसंस्कारमात्रजा विदुषां सा कारणैकरूपत्वादेकरूपा सात्त्विक्येव न राजसी तामसी चेति प्रथमश्चकारार्थः। शास्त्रनिरपेक्षा तु प्राणिमात्रसाधारणी स्वभावजा। सैव स्वभावत्रैविध्यात्ित्रविधेत्येवकारार्थः। उक्तविधात्रयसमुच्चयार्थश्चरमश्चकारः। यतः प्राग्भवीयवासनाख्यस्वभावस्याभिभावकं शास्त्रीयं विवेकविज्ञानमनादृतशास्त्राणां देहिनां नास्ति अतस्तेषां स्वभाववशात्ित्रधाभवन्तीं तां श्रद्धां शृणु। श्रुत्वा च देवासुरभावं स्वयमेवावधारयेत्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।17.2।। व्याख्या -- [अर्जुनने निष्ठाको जाननेके लिये प्रश्न किया था? पर भगवान् उसका उत्तर श्रद्धाको लेकर देते हैं क्योंकि श्रद्धाके अनुसार ही निष्ठा होती है।]त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा -- श्रद्धा तीन तरहकी होती है। वह श्रद्धा कौनसी है सङ्गजा है? शास्त्रजा है या स्वभावजा है तो कहते हैं कि वह स्वभावजा है -- सा स्वभावजा अर्थात् स्वभावसे पैदा हुई स्वतःसिद्ध श्रद्धा है। वह न तो सङ्गसे पैदा हुई है और न शास्त्रोंसे पैदा हुई है। वे स्वाभाविक इस प्रवाहमें बह रहे हैं और देवता आदिका पूजन करते जा रहे हैं।सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु -- वह स्वभावजा श्रद्धा तीन प्रकारकी होती है -- सात्त्विकी? राजसी और तामसी। उन तीनोंको अलगअलग सुनो।पीछेके श्लोकमें सत्त्वमाहो रजस्तमः पदोंमें आहो अव्यय देनेका तात्पर्य यह था कि अर्जुनकी दृष्टिमें सत्त्वम् से दैवीसम्पत्ति और रजस्तमः से आसुरीसम्पत्ति -- ये दो ही विभाग हैं और भगवान् भी बन्धनकी दृष्टिसे राजसीतामसी दोनोंको आसुरीसम्पत्ति ही मानते हैं -- निबन्धायासुरीमता (16। 5)। परंतु बन्धनकी दृष्टिसे राजसी और तामसी एक होते हुए भी दोनोंके बन्धनमें भेद है। राजस मनुष्य सकामभावसे शास्त्रविहित कर्म भी करते हैं अतः वे स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाकर और वहाँके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर फिर मृत्युलोकमें लौट आते हैं -- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता 9। 21)। परन्तु तामस मनुष्य शास्त्रविहित कर्म नहीं करते अतः वे कामना और मूढ़ताके कारण अधम गतिमें जाते हैं -- अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)। इस प्रकार राजस और तामस -- दोनों ही मनुष्योंका बन्धन बना रहता है। दोनोंके बन्धनमें भेदकी दृष्टिसे ही भगवान् आसुरीसम्पदावालोंकी श्रद्धाके राजसी और तामसी -- दो भेद करते हैं और सात्त्विकी? राजसी और तामसी -- तीनों श्रद्धाओंको अलगअलग सुननेके लिये कहते हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वर्णित स्वभावजा श्रद्धाके तीन भेद क्यों होते हैं -- इसे भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।17.2।। अपने मुख्य प्रवचन के पूर्व आमुख रूप में? भगवान् कहते हैं कि श्रद्धा तीन प्रकार की होती हैं सात्त्विकी? राजसी और तामसी। श्रद्धा के अनुसार हमारी वासनाएं होती हैं और वे ही जीवन विषयक हमारे दृष्टिकोण को निश्चित करती हैं। हमारे समस्त विचार? भावनाएं और कर्म हमारे दृष्टिकोण के अनुरूप ही होते हैं। अत स्वाभाविक ही है कि मनुष्य के शारीरिक कर्म? मानसिक व्यवहार और बौद्धिक संरचनाएं सब उसकी श्रद्धा से निश्चित होते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी श्रद्धा के अनुरूप होता है? यह नियम है। जो मनुष्य अपनी देह के साथ जितना अधिक तादात्म्य करेगा उतना ही अधिक स्थूल और दृढ़ उसका अभिमान या अहंकार होगा। यह सब सत्त्व? रज और तम इन गुणों के न्यूनाधिक्य पर निर्भर करता है।श्रद्धा के समझने के लिए इन तीन गुणों के सन्दर्भ का क्या औचित्य है इस पर कहते हैं
Sri Anandgiri
।।17.2।।विशेषनिष्ठमुत्तरं सामान्येन वक्तुं न शक्यमित्याशयेन परिहरति -- सामान्येति। किमिति श्रद्धात्रैविध्यं प्रश्नानुपयुक्तमुच्यते तत्राह -- यस्यामिति। श्रद्धापूर्विकायां क्रियायामिति यावत्। श्रद्धात्रैविध्ये हेतुमाह -- सा स्वभावजेति। स्वभावशब्दार्थं प्रकृतोपयोगितया कथयति -- जन्मान्तरेति। कथं त्रिविधेत्यपेक्षायामाह -- सात्त्विकीत्यादिना। कथमुक्ता श्रद्धा स्वभावजेति तत्राह -- तामिति।
Sri Dhanpati
।।17.2।।प्रश्नानुरुपमुत्तरं श्रीभगवानुवाच। त्रिविधा त्रिप्रकारा श्रद्धा भवति? ययान्वितानां निष्ठां त्वं पृच्छसि सा देहिनं देहवतां जीवानां स्वभावजा। जन्मान्तरकृतधर्माधर्मादिसंस्कारो मरणकालेऽभिव्यक्तः स्वभाव उच्यते। तस्माज्जाता जीवानां त्रिविधात्स्वभावाज्जातत्वात् श्रद्धा त्रिविधा भवतीत्यर्थः। या तु अस्वभावजा असूनामभावोऽस्वभावः मरणमित्यर्थस्तस्मिन्समीपे सति जाता। मरणसमये व्यस्तानां समस्तानां वा गुणानामुद्भवे जन्मान्तरे तत्संस्कारवशात्तत्तद्गुणाधिक एव भवतीति व्यवस्था कारणमितीतरेषां व्याख्या। सा तुमुखमस्तीत वक्त्व्यं इतिन्यायविजृम्बितत्वादुपेक्ष्या। श्रद्धायास्त्रैविध्यमाह। एवं त्रिविधां तां श्रद्धां भयोच्यमानां श्रुणु।
Sri Madhavacharya
।।17.2।।अतो विभज्याऽऽह -- त्रिविधेत्यादिना।
Sri Neelkanth
।।17.2।।एवं सामान्यतः पृष्टे सामान्यमेवोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- त्रिविधेति। स्वभावः प्राग्भवीयौ धर्माधर्मौ ततो जाता स्वभावजा। यदि प्राग्भवे सात्त्विको देवतापूजादिधर्मोऽनेनानुष्ठितस्तर्हि तस्य शुद्धसात्त्विक्येव श्रद्धा भवति। यदि राजसो यक्षादिपूजारूपस्तर्हि राजस्येव। यदि तामसो भूतप्रेतादिपूजारूपस्तर्हि तामसी श्रद्धा भवति। एवं त्रिविधा श्रद्धा देहिनां देहाभिमानवतां भवति तां मया व्याख्यास्यमानां शृणु।
Sri Ramanujacharya
।।17.2।।श्रीभगवानुवाच -- सर्वेषां देहिनां श्रद्धा त्रिविधा भवति सा च स्वभावजा -- स्वभावः स्वासाधारणो भावः? प्राचीनवासनानिमित्तः तत्तद्रुचिविशेषः? यत्र रुचिः तत्र श्रद्धा जायते। श्रद्धा हिस्वाभिमतं साधयति एतत् इतिविश्वासपूर्विका साधने त्वरा। वासना रुचिः च श्रद्धा च आत्मधर्माः गुणसंसर्गजाः।तेषाम् आत्मधर्माणां वासनादीना जनकाः देहेन्द्रियान्तः करणविषयगता धर्माः कार्यैकनिरूपणीयाः सत्त्वादयो गुणाः? सत्त्वादिगुणयुक्तदेहाद्यनुभवजा इत्यर्थः।ततः च इयं श्रद्धा सात्त्विकी राजसी तामसी च इति त्रिविधा। ताम् इमां श्रद्धां श्रृणु। सा श्रद्धा यत्स्वभावा तं स्वभावं श्रृणु इति अर्थः।
Sri Sridhara Swami
।।17.2।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- त्रिविधेति। अयमर्थःशास्त्रतत्त्वज्ञानतः प्रवर्तमानानां परमेश्वरपूजाविषया सात्त्विकी एकविधैव श्रद्धा। लोकाचारमात्रेण तु प्रवर्तमानानां देहिनां या श्रद्धा सा तु सात्त्विकी राजसी तामसी चेति त्रिविधा भवति। तत्र हेतुः। स्वभावजा स्वभावः पूर्वकर्मसंस्कारस्तस्माज्जाता स्वभावजा। स्वभावमन्यथा कर्तुं समर्थं हि शास्त्रोक्तं विवेकज्ञानं तत्तु तेषां नास्ति? अतः केवलं स्वभावेनैव भवतीति श्रद्धा त्रिविधा भवति? तामिमां त्रिविधां श्रद्धां श्रृणु। तदुक्तम्व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन इत्यादिना।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।17.2।।श्रद्धा कतिविधा इति प्रश्नाभावेऽपि तदुक्तिवैघट्यशङ्कां परिहरन् श्रद्धात्रैविध्यकथनस्य प्रयोजनं चाऽऽह -- एवं पृष्ट इत्यादिना। पूर्वोपदिष्टविरुद्धं पृष्ट इत्यर्थः।हृदि निधायेति -- क्रमेण साक्षादुत्तरमवतारयितुमित्यर्थः। प्रश्नस्यात्यन्तानादरपरत्वज्ञापनाय वा सहसा साक्षादुत्तरानुक्तिरिति भावः।गुणतस्त्रैविध्यमिति -- गुणभेदनिमित्तफलभेदयोगित्वमिति भावः। अत्र हि श्रद्धायोगात्सात्त्विकत्वं शास्त्रोल्लङ्घनात्तामसत्वं तदुभयसमुच्चयाद्राजसत्वमाशङ्कितं तत्र तावच्छ्रद्धापूर्वकत्वं फलसाधनत्वायोपयुक्तम्? तच्छास्त्रीयेष्वेव तत्रापि श्रद्धाया न त्वैकान्तिकत्वमित्यभिप्रायेण शास्त्रीयश्रद्धायास्त्रैविध्यग्रहणम्। एतेन परिसङ्ख्यान्यायेनाशास्त्रीयेषु फलभेदनिमित्तं त्रैविध्यं प्रत्युक्तम्। अत्र श्रद्धाभेदात् सत्त्वादिनिष्ठाभेदनिर्णय इत्युक्तं भवति।देहिनां इत्यनेन तत्तद्देहानुरूपमधिकारिवैचित्र्यं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाऽऽहसर्वेषामिति। ब्रह्मादीनामपीत्यर्थः।देहिनाम् इति सत्त्वादिगुणप्रचुरदेहविशेषानुरूपमिति भावः। साधारणेषु शास्त्रेषु तत्प्ररोचकेष्वर्थवादादिषु च कथं पुरुषभेदनियतश्रद्धाभेदः इति शङ्कायांसा स्वभावजा इति वाक्यान्तरमित्यभिप्रायेणाऽऽहसा चेति। कार्यासाधारणत्वाय कारणासाधारणत्वविवक्षामाहस्वभावः स्वासाधारणो भाव इति। कोऽसौ भावः कश्च तस्याप्यसाधारण्यहेतुः इत्यत्राऽऽह -- प्राचीनेति। भावशब्दोऽत्र धर्मविशेषपरः। नानार्थे स्वभावशब्दे कथमत्र रुचिविवक्षा इत्यत्राऽऽहयत्र रुचिरिति। रुचिश्रद्धयोः कार्यकारणभावोऽन्वयव्यतिरेकसिद्ध इत्यर्थः। रुचिव्यतिरिक्ता तत्कार्यभूता का श्रद्धा इत्यत्राऽऽहश्रद्धाहीति।श्रद्धा विश्वासकाङ्क्षयोः इति त्वरापर्यन्तविश्वासेऽपि हि श्रद्धाशब्दं नैघण्टुकाः पठन्ति। ननु कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव [बृ.उ.1।5।3] इति श्रवणात् अन्तःकरणधर्मेष्वात्मानमलिम्पत्सु श्रद्धादिषु गुणकृतत्वाच्च गुणधर्मत्वसम्भवेऽपि कथमत्र स्वशब्देन देहिशब्देन च निर्दिष्टप्रत्यगात्मनि तदन्वयोक्तिः तत्राऽऽहवासनेति। शुद्धस्वभावस्यैवात्मनः कर्ममूलगुणमयप्रकृतिसंसर्गोपाधिकधर्मभूतज्ञानपरिणतिविशेषा इत्यर्थः। श्रद्धाभेदेषु सात्त्विकादिसंज्ञानिवेशाय निर्गुणस्यात्मनः कथं सत्त्वादिमूलवासनादियोगः इति शङ्काव्युदासाय च देहिशब्दसूचितप्रक्रियया गुणसंसर्गजत्वं विवृणोतितेषामिति। यथौषधादिविशिष्टदहनादिसम्बन्धात् पार्थिवादिषु पाकजगुणारम्भः? तथाऽत्रेति भावः। तत्तत्कार्यहेतुतया शास्त्रसिद्धानामनुपलब्ध्या निराकरणमयुक्तमित्यभिप्रायेणाऽऽहकार्यैकनिरूपणीया इति। अतीन्द्रियाणामननुभूतानां कथं वासनाहेतुत्वं इत्यत्राऽऽहसत्त्वादिगुणयुक्तेति। मूलकारणापेक्षया श्रद्धायाः सात्त्विकादिसंज्ञाभेद इत्याहततश्चेति। सात्त्विकत्वादित्रैविध्येन श्रावितायां पुनःश्रृणु इति किमुच्यते इत्यत्राऽऽहसा श्रद्धा यत्स्वभावेति। स्वरूपस्य सामान्यतस्त्रैविध्यस्य च विदितत्वादविदितप्रकारविशेषाभिप्रायेणश्रृणु इत्युक्तम्।
Sri Abhinavgupta
।।17.2।।तदत्रोत्तरं श्रद्धानुसारेण दीयते श्रीभगवता ( omits श्रीभगवता ) -- त्रिविधेति। तत्र चायमाशयः -- शास्त्रं नाम किल पक्षपातारूषितबुद्धिपूर्वकत्वविहीनम् ( ? N पक्षपातादूषित -- ) ? तथा परामर्शदार्ढ्यरूपं बोधस्वातन्त्र्यादेव ( ? N? K -- रूपबोध -- ) दृढं परामृष्टं तथा,( ? N? K दृढपरामृष्ट ( ?N श्य ) तथा ) फलादिस्वभावं? शुद्धविमर्शनिष्यन्दवाक्तत्त्वपरमार्थपरब्रह्मस्वभावम् ( ? N omit परमार्थ S omits the succeeding पर -- ) ? स्वतन्त्रप्रसरतया आन्तरात् बोधस्वभावात् बहिःप्रसरपर्यन्तं? तच्च ( S? K? omits तच्च Substitutes सा च ) सुसूक्ष्मप्रणवादिरूपात् ( ? N -- प्रधानादिरूपव्यव -- ) व्यवहारप्रसिद्धप्रवा ( ? N -- प्रवाह -- )दपरंपरापर्यन्तम्। यदाह -- तद्विदां च स्मृतिशीले इति। ( गौतमधर्मसूत्रम् I? 2 )तच्च स्वत एव हिताहितोपदेशाय कार्याकार्यविवेचकम्। यस्य स्वभावत एव सत्त्वातिरेकसुकुमारं हृदयं? तेनाचरितं शास्त्रितमेव। अन्यस्तु रजस्तमःकलुषीकृतः शास्त्रोक्तमप्याचरन् न आचरति? शास्त्रार्थस्य कात्स्न्र्येन अननुष्ठानात्। शास्त्रं हि सत्त्ववतामेव फलवदिति शास्त्रमेवाह -- यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्।विद्या तपश्च शीलं च स तीर्थफलमश्नुते।।इति ( M Aranya? Ch. 80? v. 30 )नान्यः? असंयतत्वात्। तस्मात् शास्त्रार्थः परित्यक्तकामक्रोधमोहेषु सफल इति तात्पर्यम् अस्य अध्यायस्य। तदेवैतत् प्रताय्यते? स्पष्टार्थत्वाच्च न विव्रियते। किं तु ( S omits किंतु ) केवलं पाठविप्रतिपत्तिनिवारणायैव लिख्यते।
Sri Jayatritha
।।17.2।।ननुतेषां निष्ठा तु का [17।1] इति पृष्टे सात्त्विकत्वादिकं वक्तव्यम्? त्रिविधेत्यादिकं तु किमर्थमुच्यते इत्यत आह -- अत इति। यत एवमर्जुनेन वेदविधिमजानतां निष्ठा पृष्टा? अज्ञानं च भेदकं त्रयाणामपि सम्भवात्। न चाज्ञानस्य प्रभेदाः सन्ति? अतः श्रद्धयाऽन्विता इति तद्विशेषणत्वेनोक्तां श्रद्धां सात्त्विकत्वादिना विभज्य तदाश्रयेण तेषां स्वरूपमाहेत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।17.2।।अत्रोत्तरमाह श्रीकृष्णः -- त्रिविधेति। देहिनां देहाभिमानवतां लौकिकानां श्रद्धा त्रिविधा भवति? सात्त्विकी च पुनः राजस्येव? तथा तामसी चेत्यमुना प्रकारेण त्रिविधा। सा च स्वभावजा स्वस्यौत्पत्तिकगुणजा? न तु निर्गुणा। तथाचायं भावः -- शास्त्रोक्तविद्ध्युक्तमद्भजनश्रद्धातो लौकिकादिगुणज्ञानोदयो भवति निर्गुणत्वाज्जीवस्यापि निर्गुणत्वेन सत्त्वसङ्गाभावान्मत्प्राप्तिफला श्रद्धैकरूपैव? भिन्ना गुणस्वभावजा? त्रिविधा च भिन्ना न तत्फलसाधिकेति भिन्नत्वज्ञापनाय तां त्रिविधां मयोच्यमानां श्रृणु? तच्छ्रवणादेव त्वत्सन्देहनिवृत्तिर्भविष्यतीति।
Sri Vallabhacharya
।।17.2।।एवं पृष्टः पुनरपि द्विविधेषु त्रिगुणविवेकेनैव शास्त्रीयश्रद्धादिस्वरूपमाह -- श्रीभगवानुवाच त्रिविधेति। देहाभिमान आसुरः? तद्वतामशास्त्रविधिमुत्सृज्याननुसृत्य वर्तमानानां उभयविधानां जीवानां सा स्वभावजेति। त्रिगुणमयं स्वभावमन्यथा कर्त्तुं शक्तं हि शास्त्रीयं विज्ञानं? तत्तूक्तानां नास्तीति कामकारपदवाच्या निष्ठैव केवलं पूर्वतनस्वभावजा। श्रद्धा सा त्रिविधा भवति सात्त्विकी राजसी तामसी चेति मत्तस्तां श्रृणु।