Chapter 17, Verse 23
Verse textतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।17.23।।
Verse transliteration
oṁ tat sad iti nirdeśho brahmaṇas tri-vidhaḥ smṛitaḥ brāhmaṇās tena vedāśh cha yajñāśh cha vihitāḥ purā
Verse words
- om tat sat—syllables representing aspects of transcendence
- iti—thus
- nirdeśhaḥ—symbolic representatives
- brahmaṇaḥ—the Supreme Absolute Truth
- tri-vidhaḥ—of three kinds
- smṛitaḥ—have been declared
- brāhmaṇāḥ—the priests
- tena—from them
- vedāḥ—scriptures
- cha—and
- yajñāḥ—sacrifice
- cha—and
- vihitāḥ—came about
- purā—from the beginning of creation
Verse translations
Swami Sivananda
"Om Tat Sat": This has been declared to be the triple designation of Brahman. By that, the Brahmanas, the Vedas, and the sacrifices were created formerly.
Shri Purohit Swami
Om Tat Sat is the triple designation of the Eternal Spirit, by which the Vedic Scriptures, ceremonials, and sacrifices were ordained of old.
Swami Ramsukhdas
।।17.23।। ऊँ, तत् और सत् -- इन तीनों नामोंसे जिस परमात्माका निर्देश किया गया है, उसी परमात्माने सृष्टिके आदिमें वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञोंकी रचना की है।
Swami Tejomayananda
।।17.23।। 'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से आदिकाल में (पुरा) ब्राहम्ण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं।।
Swami Adidevananda
Om, Tat, Sat—thus, Brahman is denoted by this threefold expression. In the past, Brahmanas, the Vedas, and sacrifices were ordained in association with these.
Swami Gambirananda
"Om-tat-sat" - this is considered to be the threefold designation of Brahman. The Brahmanas, Vedas, and sacrifices were ordained by that in days of yore.
Dr. S. Sankaranarayan
OM TAT SAT: This is held to be the three-fold indication of Brahman. Through this, the Vedas and sacrifices were fashioned by Brahma in the past.
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।17.23।।ननु चैवं विचार्यमाणे सर्वमपि यज्ञतपोदानादि राजसतामसप्रायमेवेति व्यर्थो यज्ञादिप्रयास इत्याशङ्क्य तथाविधस्यापि सात्त्विकत्वापादनप्रकारं दर्शयितुमाह -- ओमिति। ऊँतत्सदित्येवं त्रिविधो ब्रह्मणाः परमात्मनो निर्देशो नाम व्यपदेशः स्मृतः शिष्टैः। तत्र तावत्ओमिति त्रिवृद्ब्रह्म इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धेरोमिति ब्रह्मणो नाम? जगत्कारणत्वेनातिप्रसिद्धत्वात्? अविदुषां परोक्षत्वाच्च। तच्छब्दोऽपि ब्रह्मणो नाम। परमार्थसत्त्वसाधुत्वप्रशस्तत्वाभिः सच्छब्दो ब्रह्मणो नामसदेव सोम्येदमग्र आसीत् इत्यादिश्रुतेः। अयं त्रिविधोऽपि नामनिर्देशो विगुणमपि सगुणीकर्तुं समर्थ इत्याशयेन स्तौति। तेन त्रिविधेन ब्रह्मणो निर्देशेन ब्राह्मणाश्च वेदाश्च यज्ञाश्च पूर्वं सृष्ट्यादौ विहिताः विधात्रा निर्मिताः सगुणीकृता वा। यद्वा यस्यायं त्रिविधो निर्देशस्तेन परमात्मना ब्राह्मणादयः पवित्रतमाः सृष्टाः। तस्मात्तस्यायं त्रिविधो निर्देशोऽतिप्रशस्त इत्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।17.23।। व्याख्या -- तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः -- ? तत् और सत् -- यह तीन प्रकारका परमात्माका निर्देश है अर्थात् परमात्माके तीन नाम हैं (इन तीनों नामोंकी व्याख्या भगवान्ने आगे के चार श्लोकोंमें की है)। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा -- उस परमात्माने पहले (सृष्टिके आरम्भमें) वेदों? ब्राह्मणों और यज्ञोंको बनाया। इन तीनोंमें विधि बतानेवाले वेद हैं? अनुष्ठान करनेवाले ब्राह्मण हैं और क्रिया करनेके लिये यज्ञ हैं। अब इनमें यज्ञ? तप? दान आदिकी क्रियाओंमें कोई कमी रह जाय? तो क्या करें परमात्माका नाम लें तो उस कमीकी पूर्ति हो जायगी। जैसे रसोई बनानेवाला जलसे आटा सानता (गूँधता) है? तो कभी उसमें जल अधिक पड़ जाय? तो वह क्या करता है आटा और मिला लेता है। ऐसे ही कोई निष्कामभावसे यज्ञ? दान आदि शुभकर्म करे और उनमें कोई कमी -- अङ्गवैगुण्य रह जाय? तो जिस भगवान्से यज्ञ आदि रचे गये हैं? उस भगवान्का नाम लेनेसे वह अङ्गवैगुण्य ठीक हो जाता है? उसकी पूर्ति हो जाती है।
Swami Chinmayananda
।।17.23।। ? तत् सत् जिस शब्द के द्वारा किसी वस्तु को इंगित किया जाता है उसे निर्देश कहते हैं। इस प्रकार? तत्सत् ब्रह्म का त्रिविध निर्देश माना गया है अर्थात् इनमें से प्रत्येक शब्द ब्रह्म का ही संकेतक है। प्राय कर्मकाण्ड के विधान में कर्म करते समय इस प्रकार के निर्देश के स्मरण और उच्चारण का उपदेश दिया जाता है? जिसके फलस्वरूप कर्मानुष्ठान में रह गयी अपूर्णता या दोष की निवृत्ति हो जाती है। प्रत्येक कर्म अपना फल देता है? परन्तु वह फल केवल कर्म पर ही निर्भर न होकर कर्त्ता के उद्देश्य की शुद्धता की भी अपेक्षा रखता है। कोई व्यक्ति कितने ही परिश्रमपूर्वक किसी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान क्यों न करे? यदि उसका उद्देश्य हीनस्तर का है तो वह अनुष्ठान उस कर्ता को श्रेष्ठ फल प्रदान करने में असमर्थ होता है। हम सबके कर्म एक समान प्रतीत हो सकते हैं? तथापि एक व्यक्ति को प्राप्त फल दूसरे से भिन्न होता है। इसका कारण कर्ता के उद्देश्य का गुणधर्म ही हो सकता है।ईश्वर के स्मरण के द्वारा हम अपने उद्देश्यों की आभा को और अधिक तेजस्वी बना सकते हैं। अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने से ही हम अपने परमात्म स्वरूप में स्थित हो सकते हैं। जिस मात्रा में हमारे कर्म निस्वार्थ होंगे उसी मात्रा में प्राप्त पुरस्कार भी शुद्ध होगा। अहंकार के नाश के लिए साधक को अपनी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा का बोध होना आवश्यक है। उस आत्मतत्त्व का प्रतीक है जो अजन्मा? अविनाशी? सर्व उपाधियों के अतीत और शरीरादि उपाधियों का अधिष्ठान है। तत् शब्द परब्रह्म का सूचक है। उपनिषदों के प्रसिद्ध महावाक्य तत्त्वमसि में? तत् उस परम सत्य को इंगित करता है? जो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति? स्थिति और लय का स्थान है। अर्थात् जगत्कारण ब्रह्म तत् शब्द के द्वारा इंगित किया गया है। सत् का अर्थ त्रिकाल अबाधित सत्ता। यह सत्स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है। इस प्रकार? तत्सत् इन तीन शब्दों के द्वारा विश्वातीत? विश्वकारण और विश्व व्यापक परमात्मा का स्मरण करना ही उसके साथ तादात्म्य करना है।ईश्वर स्मरण से हमारे कर्म शुद्ध हो जाते हैं। तत्सत् द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्म से ही समस्त वर्ण? धर्म? वेद और यज्ञ उत्पन्न हुए हैं। अध्यस्त सृष्टि का कारण उसका अधिष्ठान ही होता है। अब? आगामी श्लोकों में इन तीन शब्दों के प्रयोग के विधान को बताते हैं
Sri Anandgiri
।।17.23।।विहितानां कर्मणां प्रमादयुक्ते वैगुण्ये कथं परिहारः स्यादित्याशङ्क्याह -- यज्ञेति।मिति ब्रह्म इत्यादिश्रुतेः ओमिति तावद्ब्रह्मणो नामनिर्देशः?तत्त्वमसि इति श्रुतेःतदित्यपि ब्रह्मणो नामनिर्देशः?सदेव सोम्येदम् इति श्रुतेः सदित्यपि तस्य नामेति मत्वाह -- ओमिति। कथं निर्देशेन तेषां विधानमित्याशङ्क्याह -- निर्दिश्यत इति। यज्ञादीनां वैगुण्यप्रतीतिकाले यथोक्तनाम्नामन्यतमोच्चारणादवैगुण्यं सिध्यतीति भावः। कर्मसाद्गुण्यकारणं त्रिविधं नाम स्तौति -- ब्राह्मणा इति। पूर्वं सर्गादौ निर्माणं च प्रजापतिकर्तृकम्।
Sri Dhanpati
।।17.23।।एवं आहारादीनां वैगुण्ये कथं परिहारः स्यादित्याकाङ्क्षायां तेषां साद्गुण्यकरणाय करुणानिधिर्मगवान्प्रायाश्चित्तमुपदिशति। ऊँतत्सदिति एष निर्देषः निर्दिश्यतेऽनेनेति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधो नामनिर्देशः ऊँमिति ब्रह्म? तत्त्वमसि? सदेव सोम्येत्यादिवेदान्तेषु ब्रह्मविद्धिः स्मृतश्चिन्तितः यज्ञादिसाद्गुण्यसिद्य्धर्थ अवश्यमिदं प्रायश्चित्तमनुष्ठेयमिति बोधनाय निर्देशं स्तौति। ब्राह्मणाः कर्तारो द्विजाः वेदाः करणानि यज्ञाः कर्माणि पुरा पूर्वं प्रजापतिना तेन निर्देशन विहता निर्मिताः। तथाच कर्त्रादीनां त्रयाणमपि कारणभूतात्वादस्य वैगुण्यनिवारकत्वं युक्तमेवेति भावः।
Sri Madhavacharya
।।17.23।।पुनश्च कर्मादीतिकर्तव्यताविधानार्थमर्थवादमाह -- तत्सदित्यादिना। परस्य ब्रह्मणो ह्येतानि नामानि। ओतं जगद्यत्र स्वयं च पूर्णो वेदोक्तरूपोऽनुपचारतश्च। सर्वैः शुभैश्चाभियुतो न चान्यैः तत्सदित्येनमतो वदन्ति इति हि ऋग्वेदखिलेषु। द्वितीयपादस्तच्छब्दार्थः। सदेव सोम्येदमग्र आसीत् [छां.उ.6।2।1] इति च। मिति ब्रह्म [तैति.1।8।1ना.प.8।2] इति च। तेन ब्रह्मणा आत्मपूजार्थं वेदविधिर्व्यञ्जनम्। मा तूक्ता पुरस्तात्।
Sri Neelkanth
।।17.23।।अदृष्टार्थानां यज्ञदानतपःप्रभृतीनां वैकल्यशङ्कायां साद्गुण्यसिद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तमुपदिश्यते -- तत्सदिति। ओमिति तदिति सदिति च त्रिविधस्त्रिप्रकारोऽयं ब्रह्मणो निर्देशो नाम्नां पाठः। यथा सहस्रनाम्नां पाठे सहस्रं नामानि एवमस्मिन्नपि नामपाठे त्रीण्येव नामानीत्यर्थः।ओमिति ब्रह्म इति तैत्तिरीयके?तदिति वा एतस्य महतो भूतस्य नाम भवति इत्यैतरेयके?सदेव सोम्येदमग्र आसीत् इति छान्दोग्ये च एतेषां शब्दानां ब्रह्मनामत्वप्रसिद्धेः। तेन नामत्रयेण ब्राह्मणादयो विहिताः। पुरा सर्गादौ ब्राह्मणाः एतन्नामत्रयोच्चारणसामर्थ्येनैव विधात्रा विप्रादयो विहिताः। प्रकाशिता इत्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।17.23।। तत् सत् इति त्रिविधः अयं निर्देशः शब्दः ब्रह्मणः स्मृतः? ब्रह्मणः अन्वयी भवति।ब्रह्म च वेदः वेदशब्देन वैदिकं कर्म उच्यते वैदिकं यज्ञादिकम् यज्ञादिकं कर्म तत् सद् इति शब्दान्वितं भवति।ओम् इति शब्दस्य अन्वयो वैदिककर्माङ्गत्वेन प्रयोगादौ प्रयुज्यमानतयातत् सत् इति शब्दयोः अन्वयः पूज्यत्वाय वाचकतया।तेन त्रिविधेन शब्देन अन्विता ब्राह्मणा वेदान्वयिनः त्रैवर्णिकाः वेदाः च यज्ञाः च पुरा विहिताः पुरा मया एव निर्मिता इत्यर्थः।त्रयाणाम् तत् सत् इति शब्दानाम् अन्वयप्रकारो वर्ण्यते। प्रथमम्ओम् इति शब्दस्य अन्वयप्रकारम् आह --
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।17.23।।उक्तत्रैविध्यवदुपर्यपि त्रैविध्यान्तरोक्तिरिति शङ्काव्युदासाय उक्तसमस्तलक्षणपरतयोत्तरमवतारयति -- एवमित्यादिना। त्रैविध्यविधिरनपेक्षितः? लक्ष्येषूद्दिष्टेषु लक्षणविधिस्त्वपेक्षित इत्यभिप्रायेणब्रह्मणः स्मृतः इत्यन्वयो दर्शितः। वक्ष्यमाणप्रकारेण त्रिष्वति निर्देशेषु कर्मत्वेनान्वयायोगात् -- ब्रह्मणोऽन्वयी भवतीति सम्बन्धसामान्यार्थतोक्तिः। ननुओं तत्सत् इति वैदिकस्य यज्ञादेर्लक्षणमुच्यत इत्युक्तमयुक्तं? ब्रह्मशब्दस्य तद्वाचकत्वाभावान्मुख्यार्थबाधाभावाच्च। त्रयाणां च साक्षात्परब्रह्मनामत्वं श्रुतिसिद्धं तत्ते पदं सङ्ग्रहेण ब्रवीमि ओमित्येतत् [कठो.1।2।15] इति वा एतस्य महतो भूतस्य नाम भवति? योऽस्यैतदेव नाम वेद ब्रह्म भवतीति सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः [छां.उ.6।8।6] इत्यादिषु। अतः शास्त्रप्रधानप्रतिपाद्यपरब्रह्मनिर्देशप्रकारोऽयमुपासकसंव्यवहारार्थमुपदिश्यत इति युक्तम्। द्विगुणमपि हि कर्म,ब्रह्मणोऽभिधानत्रयप्रयोगेण सगुणं सम्पादितं भवति। कर्मणि कर्मान्तरेण लौकिकवाचा निद्राप्रमादादिभिश्च व्यवाये सन्तः सर्वत्रओं तत्सत् इत्युदाहरेयुः। अतएव चाध्यायाद्यन्तेषु सर्वेष्वयमेव त्रिविधो निर्देशः पठ्यत इति शङ्कायां -- कर्मणि ब्रह्मशब्दमवतारयितुं तत्प्रतिपादके प्रयोगस्तावत्सिद्ध इत्यभिप्रायेणाऽऽहब्रह्म च वेद इति। वेदाभिधानस्य पूर्वापरवशात्तदर्थपरतामभिप्रेत्याऽहवेदशब्देनेति। वेदनिरूढप्रयोगेण शब्देनेत्यर्थः।ब्रह्मशब्देन इति केषाञ्चित्पाठः।अयमभिप्रायः -- यद्यपिओं तत्सत् इति शब्दानां साक्षात्परब्रह्मनामत्वं प्रसिद्धं? तथाप्यत्र तद्विवक्षा न युक्ता अध्याये तत्प्रश्नाद्यभावात्? अनन्तरं चब्राह्मणास्तेन इत्यादिनाऽनन्वयप्रसङ्गाच्च अतो वेदेनोपलक्षणेन वैदिकस्यैवायं त्रिधा निर्देशः -- इति। एतदेव विवृणोति -- वैदिकमिति। त्रयाणामन्वयप्रकारेऽवान्तरभेदं वक्ष्यमाणमुपक्षिपतिओमिति। करणाद्यर्थासम्भवादुपलक्षणतृतीयार्थमाह -- तेन त्रिविधेन शब्देनान्विता इति। ब्राह्मणशब्दोऽत्र ब्रह्मशब्दविवक्षितवेदान्वयात् त्रैवर्णिकविषयः।ब्रह्मवादिनाम्
Sri Abhinavgupta
।।17.23 -- 17.27।।इदानीं ये गुणत्रितयसंकटोत्तीर्णधियः ते क्रियां कथमाचरन्ति इति तादृक़्प्रकार उच्यते -- ओमित्यादि अभिधीयते इत्यन्तम्। ओं तत् सत् इत्येभिस्त्रिभिः शब्दैर्ब्रह्मणो निर्देशः? संमुखीकरणम्। तत्र ओम् इत्यनेन शास्त्रार्थोऽयमादेहसंबन्धमूरीकार्य इति सूच्यते।तत् इति सर्वनामपदेन सामान्यमात्राभिधायिना विशेषपरामर्शमात्रासमर्थेन फलानभिसंधानं ब्रह्मण्युच्यते अभिसंधानस्य विशेषपरिग्रहमन्तरेण अभावात् सकलविशेषानुग्राहित्वेऽपि सकलफलसंधाने सर्वकर्तृतायामपि विशिष्टफलायोगात्।सत् इत्यमुया श्रुत्या प्रशंसा अभिधीयते। क्रियमाणमपि इदं यज्ञादिकं दुष्टम् इति बुद्ध्या क्रियमाणं तामसतामेति। विशिष्टफलाभिसंधानेन च क्रियमाणं न च सत्? बन्धाधायकमेवेति। तस्मात् कर्तव्यमिदम् इति मन्वानाः [ फलविशेषमनभिसंदधानाः ] यज्ञादि कुर्वाणा अपि न बध्यन्ते। अनेनैवाभिप्रायेण आदिपर्वण्युक्तम् -- तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः।प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्क स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः।।( M? Adi? Ch? 1? verse 210 ) इति।कल्कः? बन्धकः। स्वाभाविक इति -- ब्राह्मणेन निष्कारणं षडङ्गं ( omits षडङ्गम् ) वेदादि अध्येतव्यम् इति। प्रसह्य? शास्त्रलोकप्रसिद्धोचितया चेष्टया। भावेन? सत्त्वादिगुणत्रययोगिना चित्तेन उपहतान्येतान्येव,( ?N?K उपहतान्येव ) बन्धकानि? नान्यथा इति तात्पर्यम्। अतो यज्ञादि यावच्छरीरभावितया कार्यमेव। तदर्थे [ च ] हितं ( N?K विहितम् ) कर्म अर्जनादि।यदि वा ओम् इत्यनेन समुपशान्तसमस्तप्रपञ्चम् तत् इत्यनेनोद्भिद्यमानविश्वतरङ्गपरामर्शमात्रात्मकेच्छास्वातन्त्र्य -- स्वभावम् सत् इत्यनेन इच्छास्वातन्त्र्यभरविजृम्भमाणभेदकम्? पूर्णत्वेऽपि तावच्चित्रस्वभावतया भवनमिति प्रतिपाद्यते। तथाचोक्तम्,सद्भावे साधुभावे च इति। तेन परमं प्रशान्तं ( S परमप्रशान्तरूपं ) रूपं पुरस्कृत्य दित्सायियक्षातितप्सात्मकेच्छातरङ्गसंगतं च मध्येकृत्य दानयज्ञतपःक्रियाकारककलापपरिपूर्णं यच्चरमं वपुः इदमुल्लसितम्? एतत् खलु समं त्रितयमनर्गलस्य स्वाभाविकं रूपम् इति कस्य किं कथं कुतः क्व ( N omits क्व ) केन फलं स्यादिति।
Sri Jayatritha
।।17.23।।ओमित्यादिकं तु प्रकृतासङ्गतं कथमुच्यते इत्यत आह -- पुनश्चेति। कर्मेति यज्ञ उच्यते? आदिपदेन तपोदाने। इतिकर्तव्यता इत्थम्भावः। विधानार्थं प्रतिपादनार्थम्। अफलाकाङ्क्षिभिरित्यादिनोक्तत्वात्पुनश्चेत्युक्तम्। यज्ञतपोदानानां सात्त्विकत्वादिहेतवोऽसाधारणा धर्माः प्रागुक्ताः? साधारणांस्तु वक्तुं पुराकल्पादिरूपमर्थवादमाहेत्यर्थः। ब्रह्मशब्दस्य हिरण्यगर्भाद्यर्थतां निर्देशशब्दस्य च भावार्थतां वारयितुं व्याख्याति -- परस्येति। निर्दिश्यतेऽनेनेति निर्देशो नाम। कुत एतत् इत्यतो हीत्युक्तम्। भावार्थत्वेओम् तत्सत् इत्येतैः सामानाधिकरण्यानुपपत्तेर्नामार्थत्वमेवाङ्गीकार्यम्। ओमादिकं च परब्रह्मनामत्वेन प्रसिद्धमित्यर्थः। तामेव प्रसिद्धिं दर्शयति -- ओतमिति। ओतं प्रविष्टम्। आश्रितं यत्र परमेश्वरे यः स्वयं च जगत्योतः प्रविष्टः पूर्णः अनुपचारतो मुख्यया वृत्त्या। अत्र ओतं जगद्यत्र इत्यादिना ओंशब्दस्य निमित्तद्वयेन भगवति वृत्तिर्दर्शिता।अवतेष्टिलोपश्च [वार्ति. ] इति वचनात्। सर्वैरित्यनेन सच्छब्दस्य।साधुभावे च [17।26] इति वक्ष्यमाणत्वात्। तच्छब्दस्य तु न केनापि। अतःओं तत्सत् इत्येतमित्ययुक्तमित्यत आह -- द्वितीयेति। वेदोक्तेति द्वितीयपादस्तच्छब्दार्थव्याख्यानपरः। तदिति हि नित्यपरोक्षत्वमुच्यते। न चेश्वरस्वरूपमनुमातुं शक्यम् अतो वेदैकवेद्यत्वात्तत् इत्युच्यत इति भावः। सदोंशब्दयोः परब्रह्मनामत्वे श्रुत्यन्तरं चाऽऽह -- सदेवेति। तेनेति निर्देशपरामर्श इति कश्चित्? तदसदिति भावेनाऽऽह -- तेनेति। कुत एतत् निर्देशस्य ब्राह्मणादिविधानायोगात्। निर्देशस्तुत्यर्थमिदमुच्यत इति चेत्? न भूतोक्तिसम्भवेन तदयोगात्। ब्रह्मणोऽपि ब्राह्मणादिविधानानुपपत्तिः। प्रयोजनाभावादित्यत आह -- आत्मेति। आत्मपूजया प्राणिनां सुखार्थं ब्राह्मणादयो विहिता इति सम्बन्धः। ब्राह्मणादिवद्वेदानामपि विधानं निर्माणमेवेति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- वेदेति। व्यञ्जनमेव विधानं? न निर्माणमित्यर्थः। सकृच्छ्रुतस्य विहितशब्दस्य द्विधाऽर्थकल्पनं कुतः इति चेत्? वेदापौरुषेयत्वस्य प्रमितत्वात्। किं तत्प्रमाणं इत्यत आह -- मा त्विति। परमेश्वरस्य वेदव्यञ्जनं नाध्यापकवत्। किन्तु स्वातन्त्र्यमप्यस्तीति ज्ञापयितुं विधिग्रहणं कृतम्। वेदो हि विध्यात्माऽस्ति विधिः प्रेरणं? नियोग इति चानर्थान्तरम्। न च नियोक्तारमन्तरेण नियोगः सम्भवति। न च शब्दादीनां नियोक्तृत्वं सम्भवति? लोकविरोधात्। न चोच्चारक एव नियोक्ता मामुपासीतेत्यादावव्यवस्थापातात्। तस्मात्स्वतन्त्रेण वक्त्रा भाव्यम्। न चैवं पौरुषेयत्वापत्तिः? अनादिसिद्धेनैव शब्दार्थसम्बन्धेन तस्य नियोक्तृत्वाभ्युपगमादिति।
Sri Madhusudan Saraswati
।।17.23।।तदेवमाहारयज्ञतपोदानानां त्रैविध्यकथनेन सात्त्विकानि तान्यादेयानि राजसतामसानि तु परिहर्तव्यानीत्युक्तं तत्राहारस्य दृष्टार्थत्वेन नास्त्यङ्गवैगुण्येन पुण्येन फलाभावशङ्का यज्ञतपोदानानां त्वदृष्टार्थानामङ्गवैगुण्यादपूर्वानुत्पत्तौ फलाभावः स्यादिति सात्त्विकानामपि तेषामानर्थक्यं प्रमादबहुलत्वादनुष्ठातृ़णां अतस्तद्वैगुण्यपरिहाराय तत्सदिति भगवन्नामोच्चारणरूपं सामान्यप्रायश्चित्तं परमकारुणिकतयोपदिशति भगवान् -- मिति। तत्सदित्येवंरूपो ब्रह्मणः परमात्मनो निर्देशो निर्दिश्यतेऽनेनेति निर्देशः प्रतिपादकः शब्दः नामेति यावत्। त्रिविधस्तिस्रो विधा अवयवा यस्य स त्रिविधः स्मृतो वेदान्तविद्भिः। एकवचनावयवमेकं नाम प्रणववत्। यस्मात्पूर्वैर्महर्षिभिरयं ब्रह्मणो निर्देशः स्मृतस्तस्मादिदानींतनैरपि स्मर्तव्य इति विधिरत्र कल्प्यतेवषट्कर्तुः प्रथमभक्षः इत्यादिष्विव। वचनानित्वपूर्वत्वादिति न्यायाद्यज्ञदानतपःक्रियासंयोगाच्चास्य तदवैगुण्यमेव फलं नष्टाश्वदग्धरथवत् परस्पराकाङ्क्षया कल्प्यते।प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। स्मरणादेव तद्विष्णोः संपूर्णं स्यादिति श्रुतिः इति स्मृतेस्तथैव शिष्टाचाराच्च ब्रह्मणो निर्देशः स्तूयते कर्मवैगुण्यपरिहारसामर्थ्यकथनाय। ब्राह्मणा इति त्रैवर्णिकोपलक्षणं। ब्राह्मणाद्याः कर्तारो वेदाः करणानि यज्ञाः कर्माणि तेन ब्रह्मणो निर्देशेन करणभूतेन पुरा विहिताः प्रजापतिना तस्माद्यज्ञादिसृष्टिहेतुत्वेन तद्वैगुण्यपरिहारसमर्थो महाप्रभावोयं निर्देश इत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।17.23।।ननु देशकालाद्यभावकृतानां यज्ञानां यदि तामसत्वं तदा निर्गुणेष्वपि समः समाधिः इत्याशङ्क्य तेषां देशकालादिसम्पत्त्यभावेऽपि तत्सम्पत्तिर्भवतीत्याशयेनाऽऽह -- ओं तत्सदिति।ओं तत्सत् इत्येवरूपो ब्रह्मणः पुरुषोत्तमस्य त्रिविधो निर्द्देशो नामव्यपदेशः स्मृतो भक्तैः तत्रओमित्येकाक्षरं ब्रह्म [8।13] इत्यादिभिःम् इति ब्रह्मणः संज्ञा नामेति। यतो वाचो निवर्तन्ते [तै.उ.2।42।9] आनन्दमात्रमितियत् इत्यारभ्य,ततो न ज्ञायते तु तत् इत्यन्तादिवाक्येभ्यस्तदित्यपि ब्रह्मण एव नाम। मूलसत्तावाचकत्वेन सच्छब्दोऽपि ब्रह्मवाचक एव। एतत्ित्रविधमपि ब्रह्मणो नाम। स्वरूपज्ञानपूर्वकं सर्वत्र यज्ञादिक्रियासु आदौ विनियुक्तं सर्वदेशादिसम्पत्तिसाधकमिति ज्ञापनाय पूर्वसिद्धं तथात्वमाह -- ब्राह्मणा इति। येन त्रिविधनिर्देशेन ब्राह्मणा ब्रह्मज्ञा ब्रह्मप्रापका वा वेदाः ब्रह्मस्वरूपास्तज्ज्ञा वा चकारेण सशब्दार्थाः। यज्ञाः यजनात्मकाः? चकारेण साधिदैवाः। पुरा सृष्ट्यादौ विहिता विधात्रा निर्मिताः? अतः पूर्वमेतदुदाहरणात्सर्वं सम्पद्यत इति भावः। अथवा तेन ब्रह्मणोऽयं त्रिविधो निर्देशस्तेन ब्रह्मणा पूर्वमेते निर्मिताः स्वार्थं? ततस्तत्स्वरूपं ज्ञानपूर्वकनामत्रयोदाहरणसंसूचनात्मकेन निर्गुणानां सर्वं सम्पत्स्यत इति भावः।
Sri Shankaracharya
।।17.23।। --, तत् सत् इति एवं निर्देशः? निर्दिश्यते अनेनेति निर्देशः? त्रिविधो नामनिर्देशः ब्रह्मणः स्मृतः चिन्तितः वेदान्तेषु ब्रह्मविद्भिः। ब्राह्मणाः तेन निर्देशेन त्रिविधेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः निर्मिताः पुरा पूर्वम् इति निर्देशस्तुत्यर्थम् उच्यते।।
Sri Vallabhacharya
।।17.23।।एवं श्रुतिसिद्धानां यागतपोदानानां सत्त्वादिगुणभेदेन भेद उक्तः इदानीं तस्य श्रौतस्यैव यज्ञादेर्देशकालादिसम्पत्त्यभावेऽपि तत्सम्पत्तिप्रकारमाह -- तत्सदिति। ब्रह्मणः वेदस्य पुरुषोत्तमस्य च त्रिविधो नाम व्यपदेशः स्मृतो ब्रह्मवादिभिः भक्तैश्च।ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म [18।13] इत्यादिभिरोमिति संज्ञा ब्रह्मणः। तदिति संज्ञा यतो वाचो निवर्तन्ते [तै.उ.2।4]आनन्दमात्रमिति यत् इत्यारभ्यततो न ज्ञायते तत् इत्यन्तादिवाक्यैः। सदिति च नाम ब्रह्मणःसद्ब्रह्मास्ति ब्रह्म इति च वेदवादिभिरित्येत्ित्रविधं सर्वत्र यज्ञादौ विनियुक्तं सर्वदेशकालादिसम्पत्तिसाधकमिति ज्ञापनाय पूर्ववृत्तमाह -- ब्राह्मणास्तेनेति स्पष्टम्। अन्ये तु यज्ञादेः प्रणवयोगेन तत्सच्छब्दनिर्देश्यतया च लक्षणमाहुः इति। तत्सत् इति त्रिविधोऽयं निर्देशो ब्रह्मणः परस्य शाब्दस्य चान्वयी स्मृतः ब्रह्मशब्देन ब्रह्मात्मकं सर्वमक्षरादिकमक्षरपदवाक्यादिकमत्रोच्यते। तत्तत्सत् इतिशब्दान्वितं भवति तत्र प्रयोगादावाद्यःप्रणवश्छन्दसामिव इति सम्मत्या प्रणवस्यान्वयः श्रौतनामसु विधितः प्रयुज्यमानतयातत्सत् इतिशब्दयोश्च तत्रान्वयः पूर्णभावप्रयोजकशक्त्या भवतीत्यर्थः। तेनतत्सत् इतिनिर्देशेन ब्रह्मणा वा ब्राह्मणा वेदास्त्रिकाण्डा यज्ञाश्च एकैकेन वा विहिताः विशेषेण हिता वा मया पुरा सर्गादावित्यर्थः। अत्र इत्युच्चारकतया ब्राह्मणाःतत् इति ब्रह्मपरतया वेदाःसत् इति तदर्थीयकर्मतया यज्ञाः कृता इति विवेचनीयमिति केचिदाहुः। वयं तु उच्चारकतया ब्राह्मणाः उच्चार्यतया वेदाः कार्यतया यज्ञा विहिताः पुरा वेदाधिकृतानामित्येव ब्रूमः।
Swami Sivananda
17.23 तत्सत् Om Tat Sat? इति thus? निर्देशः designation? ब्रह्मणः of Brahman? त्रिविधः threefold? स्मृतः has been declared? ब्राह्मणाः Brahmanas? तेन by that? वेदाः Vedas? च and? यज्ञाः sacrifices? च and? विहिताः created? पुरा formerly.Commentary Om Tat Sat is the root of the entire universe. Om is the Akshara Brahman. Tat means Thath? the indefinable. Sat means Reality.Para Brahman? that Supreme Being? the abiding place of all that lives and moves? is beyond name and class. The Vedas have ventured to give a name to Him. A new born child has no name but no,receiving one he will answer to it. Men who are troubled by the afflictions of this world run to the Deity for refuge and call Him by the name. When Brahman is invoked through the name that which is hidden is revealed to the aspirant.These three words have a divine power of their own. The vibrations that they produce in one are such as to arouse the latent divinity and also to secure the necessary response from the Cosmic Being Whom they connote.When a sacrificial rite or the like is found defective? it will be rendered perfect by the utterance of the powerful Mantra Om Tat Sat or one of the three designations in the end. With Om or Om Tat Sat all acts of sacrifice? study of sacred scriptures? spiritual discipline and meditation are commenced. If the doer of sacrifices remembers either of these Mantras all obstacles that stand in the way of success of the sacrifices are removed.Om Tat Sat has been declared to be the triple designation of Brahman in the Vedanta by the knowers of Brahman. The power of creation that lies in the Creator emanates from this Mantra. When He meditated inwardly on the meaning of this Mantra and repeated the threefold word? He acired the power to create. Then He created the Brahmanas? gave them the Vedas to be their guide and directed them to perform sacrifices and other rites.Puraa Of old At the beginning of creation by the Prajapati.Brahman here means the Veda.