Chapter 11, Verse 9
Verse textसञ्जय उवाच एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः। दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।11.9।।
Verse transliteration
sañjaya uvācha evam uktvā tato rājan mahā-yogeśhvaro hariḥ darśhayām āsa pārthāya paramaṁ rūpam aiśhwaram
Verse words
- sañjayaḥ uvācha—Sanjay said
- evam—thus
- uktvā—having spoken
- tataḥ—then
- rājan—King
- mahā-yoga-īśhvaraḥ—the Supreme Lord of Yog
- hariḥ—Shree Krishna
- darśhayām āsa—displayed
- pārthāya—to Arjun
- paramam—divine
- rūpam aiśhwaram—opulence
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।11.9।। सञ्जय बोले -- हे राजन् ! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको परम ऐश्वर-रूप दिखाया।
Swami Tejomayananda
।।11.9।। संजय ने कहा -- हे राजन् ! महायोगेश्वर हरि ने इस प्रकार कहकर फिर अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त रूप को दर्शाया।।
Swami Adidevananda
Sanjaya said, "O King, having spoken, Sri Krishna, the great Lord of Yoga, then revealed to Arjuna the supreme, lordly form."
Swami Gambirananda
Sanjaya said, "O King, having spoken thus, thereafter, Hari, the great Master of Yoga, showed to the son of Prtha the supreme divine form."
Swami Sivananda
Sanjaya said, Having thus spoken, O king, the great Lord of Yoga, Hari (Krishna), showed Arjuna His supreme form as the Lord.
Dr. S. Sankaranarayan
Sanjaya said, "O king! Having thus stated, Hari, the mighty Lord of the Yogins, showed to the son of Prtha His own Supreme Lordly form."
Shri Purohit Swami
Sanjaya continued: "Having thus spoken, O King, the Lord Shri Krishna, the Almighty Prince of Wisdom, showed Arjuna the Supreme Form of the Great God.
Verse commentaries
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।11.9।।महायोगेश्वरो हरिः इत्यनयोस्तिरस्कारकं पूर्वप्रतिपन्नं रूपमाह -- सारथ्येऽवस्थितः पार्थमातुलज इति। एतेन दिव्यरूपप्रकाशनहेतुभूतवात्सल्यादिसूचनं च। महत्त्वेन विशेषणादाश्चर्यत्वम्। महच्छब्दस्य च योगेश्वरविशेषणत्वादपि योगविशेषत्वमत्रोचितमित्यभिप्रायेणाहमहाश्चर्ययोगानामिति। अन्येष्वप्याश्चर्ययोगस्य तदधीनत्वमीश्वरशब्देन विवक्षितम्।महायोगेश्वरो हरिः इति पदद्वयाभिप्रेतं सामान्यविशेषवाक्यार्थं दर्शयतिपरब्रह्मभूतो नारायण इति।पश्य मे योगमैश्वरं [11।8]परमं रूपमैश्वरम् इत्यनयोरदूरविप्रकर्षेण घटनादैकार्थ्यम्।ऐश्वरं रूपं दर्शयामास इत्युक्ते स्वेतरस्य कस्यचिद्रूपमिति धीः स्यादिति तद्व्युदासायोक्तंस्वासाधारणमिति। रूपशब्दस्यात्रापि सानुबन्धस्वरूपपरतया तदभिव्यञ्जकविग्रहपरतया स्वरूपादिसमस्तासाधारणाकारमात्रपरतया वा निर्वाहो ग्राह्यः। अत्र पार्थशब्देन स्वस्वरूपप्रदर्शनार्थः प्रीतिहेतुः सम्बन्धोऽभिप्रेत इति प्रदर्शनायाहपितृष्वसुः पृथायाः पुत्रायेति। परममैश्वरं रूपमित्युक्तं विवृणोति -- तद्विविधेति। निखिलजगदाश्रयत्वं स्वरूपतो विग्रहद्वारा च। यद्वाअनेक -- [11।10] इत्यादेरुत्थानप्रदर्शनमिदम्। तत एव हितच्चेदृशम् इति संहितम्।इहैकस्थम् [11।7] इत्यादिभिः सिद्धोऽयमर्थः। प्रशासितृशब्देनाधिष्ठातृत्वं विवक्षितम्।
Sri Abhinavgupta
।।11.9।।No commentary.
Swami Sivananda
11.9 एवम् thus? उक्त्वा having spoken? ततः then? राजन् O king? महायोगेश्वरः the great Lord of Yoga? हरिः Hari? दर्शयामास showed? पार्थाय to Arjuna? परमम् Supreme? रूपम् form? ऐश्वरम् Sovereign.Commentary King This verse is addressed by Sanjaya to Dhritarashtra.Supreme Form The Cosmic Form.
Sri Vallabhacharya
।।11.9।।एवं सञ्जय उवाच राजन्निति। एवमुक्त्वा महायोगेश्वरः सर्वसमर्थः परमं ऐश्वरं रूपं पार्थाय दर्शयामास।
Sri Shankaracharya
।।11.9।। --,एवं यथोक्तप्रकारेण उक्त्वा ततः अनन्तरं राजन् धृतराष्ट्र? महायोगेश्वरः महांश्च असौ योगेश्वरश्च हरिः नारायणः दर्शयामास दर्शितवान् पार्थाय पृथासुताय परमं रूपं विश्वरूपम् ऐश्वरम्।।
Sri Jayatritha
।।11.9 -- 11.10।।महायोगेश्वरो हरिः इत्यत्र हरिशब्दस्य प्रकृतोपयुक्तमर्थमाह -- हरिरिति। गेहेषु इष्टिगृहेषु। हरतेरिकारप्रत्ययः। श्रेष्ठोऽप्राकृतः। अप्राकृतविग्रहस्य साकारस्यैवानन्तपूजास्थानेषु स्वरूपेणैव युगपत्सन्निधाने किं वक्तव्यं महायोगेश्वरत्वं इति।
Sri Madhusudan Saraswati
।।11.9।।भगवानर्जुनाय दिव्यं रूपं दर्शितवान् स च तद्दृष्ट्वा विस्मयाविष्टो भगवन्तं विज्ञापितवानितीमं वृत्तान्तमेवमुक्त्वेत्यादिभिः षड्भिः श्लोकैर्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एवमिति। एवं नतु मां शक्यसे द्रष्टुमनेन चक्षुषाऽतो दिव्यं ददामि ते चक्षुरित्युक्त्वा ततो दिव्यचक्षुःप्रदानादनन्तरं हे राजन् धृतराष्ट्र? स्थिरो भव श्रवणाय। महान्सर्वोत्कृष्टश्चासौ योगेश्वरश्चेति महायोगेश्वरो हरिभक्तानां सर्वक्लेशापहारी भगवान् दर्शनायोग्यमपि दर्शयामास पार्थाय एकान्तभक्ताय परमं दिव्यं रूपमैश्वरम्।
Swami Ramsukhdas
।।11.9।। व्याख्या--'एवमुक्त्वा ततो ৷৷. परमं रूपमैश्वरम्'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जो यह कहा था कि 'तू अपने चर्मचक्षुओंसे मुझे नहीं देख सकता, इसलिये मैं तेरेको दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरे ईश्वर-सम्बन्धी योगको देख' उसीका संकेत यहाँ सञ्जयने 'एवमुक्त्वा' पदसे किया है।चौथे श्लोकमें अर्जुनने भगवान्को 'योगेश्वर' कहा और यहाँ सञ्जय भगवान्को 'महायोगेश्वर' कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान्ने अर्जुनकी प्रार्थनासे बहुत अधिक अपना विश्वरूप दिखाया। भक्तकी थोड़ी-सी भी वास्तविक रुचि भगवान्की तरफ होनेपर भगवान् अपनी अपार शक्तिसे उसकी पूर्ति कर देते हैं। तीसरे श्लोकमें अर्जुनने जिस रूपके लिये 'रूपमैश्वरम्' कहा, उसी रूपके लिये यहाँ सञ्जय 'परमं रूपमैश्वरम्' कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान्का विश्वरूप बहुत ही विलक्षण है। सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा विलक्षण, अलौकिक, अद्भुत विश्वरूप दिखाया, जिसको धैर्यशाली, जितेन्द्रिय, शूरवीर और भगवान्से प्राप्त दिव्यदृष्टिवाले अर्जुनको भी दुर्निरीक्ष्य कहना प़ड़ा (11। 17) और भयभीत होना पड़ा (11। 45), तथा भगवान्को भी 'व्यपेतभीः' कहकर अर्जुनको आश्वासन देना पड़ा (11। 49)। सम्बन्ध--अब सञ्जय भगवान्के उस परम ऐश्वर-रूपका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।11.9।। बहुमुखी प्रतिभा के धनी महर्षि व्यासजी ने साहित्य के जिस किसी पक्ष को स्पर्श किया उसे पूर्णत्व के सर्वोत्कृष्ट शिखर तक उठाये बिना नहीं छोड़ा। व्यासजी की प्रतिभा का वर्णन कौन कर सकता है उनमें अतुलनीय काव्य रचना की कल्पनातीत क्षमता? अनुपम गध शैली? विशुद्ध वर्णन? कलात्मक साहित्यिक रचना? आकृति और विचार दोनों में ही मौलिक नव निर्माण की सार्मथ्य? ये सब गुण पूर्ण मात्रा में थे। तेजस्वी दार्शनिक? पूर्ण ज्ञानी और व्यावहारिक ज्ञान में कुशल व्यासजी कभी राजभवनों में तो कभी युद्धभूमि में दिखाई देते? कभी बद्रीनाथ में तो कभी पुन शान्त एकान्त हिमशिखरों का मार्ग तय करते विशाल मूर्ति महर्षि व्यास? हिन्दू परम्परा और आर्य संस्कृति में जो कुछ सर्वश्रेष्ठ है? उस सबके साक्षात् मूर्तरूप थे। ऐसा सर्वगुण सम्पन्न प्रतिभाशाली पुरुष विश्व के इतिहास में कभी किसी अन्य काल में नहीं जन्मा होगा? जिसने अपने जीवन काल में व्यासजी के समान इतनी अधिक उपलब्धियां प्राप्त की हों।भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संकेत किया कि विश्वरूप में वह क्या देखने की अपेक्षा रख सकता है तथा विराट् स्वरूप का यह दर्शन उसे कहां होगा। अब? व्यासजी एक अत्यन्त अल्प से प्रकरण का उल्लेख करते हैं? जिसमें संजय? दुष्ट कौरवों के अन्ध पिता धृतराष्ट्र के लिए युद्धभूमि के वृतान्त का वर्णन करता है।साहित्य की दृष्टि से इस श्लोक का प्रयोजन केवल यह बताना है कि श्रीकृष्ण ने अपने दिये हुए वचनों के अनुसार? वास्तव में? अर्जुन को अपना विश्वरूप दर्शाया। परन्तु इसके साथ ही? महाभारत के कुशल रचयिता व्यासजी? हमारे लिए? संजय के मन के भावों को तथा पाण्डवों के प्रति उसकी सहानुभूति का चित्रण भी करना चाहते हैं। हम पहले ही कह चुके हैं कि संजय हमारा विशेष संवाददाता है। स्पष्ट है कि उसकी सहानुभूति भगवान् के मित्र पांडवों के साथ है। उसकी यह प्रवृत्ति निसंशय रूप से यहाँ स्पष्ट झलकती है? जब वह धृतराष्ट्र को केवल राजन् शब्द से संबोधित करता है जब कि श्रीकृष्ण को महायोगेश्वर तथा हरि के नाम से। हरण करने वाला हरि कहलाता है?अर्थात् जो मिथ्या का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है।संजय के इन शब्दों के साथ श्रोतृसमुदाय तथा गीता के अध्येतृ वर्ग का ध्यान युद्ध की भूमि से हटाकर राजप्रासाद की ओर आकर्षित किया जाता है। पाठकों को यह स्मरण कराने के लिए कि गीता के तत्त्वज्ञान का व्यावहारिक जीनव से घनिष्ठ संबंध है तथा उसकी जीवन में उपयोगिता भी है? सम्भवत ऐसे दृश्य परिवर्तन की आवश्यकता है। संजय धृतराष्ट्र को सूचना देता है कि महायोगेश्वर हरि ने अर्जुन को अपना ईश्वरीय रूप दिखाया। संजय के मन में अभी भी कहीं क्षीण आशा है कि यह सुनकर कि विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ हैं? सम्भवत अन्धराजा अपने पुत्रों की भावी पराजय को देखें? और विवेक से काम लेकर? विनाशकारी युद्ध को रोक दें।अगले श्लोकों में संजय विश्वरूप में दर्शनीय वस्तुओं का वर्णन करने का प्रयत्न करता है
Sri Anandgiri
।।11.9।।इमं वृत्तान्तं धृतराष्ट्राय संजयो निवेदितवानित्याह -- संजय इति। मदीयं विश्वरूपाख्यं रूपं न प्राकृतेन चक्षुषा निरीक्षितुं क्षमं किंतु दिव्येनेत्यादि यथोक्तप्रकारः। अनन्तरं दिव्यचक्षुषः प्रदानादिति शेषः। हरत्यविद्यां सकार्यामिति हरिः। यदीश्वरस्य मायोपहितस्य परममुत्कृष्टं रूपं तद्दर्शयांबभूवेत्याह -- परममिति।
Sri Dhanpati
।।11.9।।एतादृशो भगवतो वासुदेवस्य महिमार्जुनपक्षपातश्चेति सूचयन् धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच। एवं यथोक्तेन प्रकारेणोक्त्वा ततोऽनन्तरं महांश्चासौ योगेश्वरो हरिः पार्थाय परमप्रेमास्पदाय परममैश्वररुपं दर्शयामास। हरिरित्यनेन स्वभक्तानां पार्थानां दुःखहरण उद्यत इत्युक्तम्। महायोगेश्वर इत्यनेन विश्वरुपप्रदर्शनादिना येनकेनापि प्रकारेण तद्धरणेऽतिसमर्थ इति सूचितम्। एतादृशकृष्णानुगृहीतैः पाण्जवैस्त्वं संधिं न कृतवान् न करोष चातो चाजनीतिहीनो नाममात्रेण राजासीति हे राजन्निति संबोधनेन ध्वनितम्।
Sri Purushottamji
।।11.9।।एवमुक्त्वा अर्जुनाय स्वरूपं दर्शयामास भगवानिति धृतराष्ट्रं प्रति सञ्जय उवाच -- एवमिति। राजन्याभिमानेन दिव्यदृष्ट्यसुरावेशिभीष्मादिमारणेन सर्वदुःखनिराकरणार्थं महायोगेश्वरः सर्वकरणसमर्थः सर्वात्मकयोगबलेन एवमुक्त्वा अलौकिकीं दृष्टिं दत्त्वा पार्थाय स्वाङ्गीकृताय परमं रूपं पुरुषोत्तमरूपं दर्शयामास। ततस्तद्दर्शनानन्तरं ऐश्वरं रूपं दर्शयामास।
Sri Madhavacharya
।।11.9 -- 11.10।।हरिः सर्वयज्ञभागहारित्वात्।इडोपहूतं गेहेषु हरे भागं क्रतुष्वहम्। वर्णो मे हरितः श्रेष्ठस्तस्माद्धरिरिति स्मृतः इति हि मोक्षधर्मे ()।
Sri Neelkanth
।।11.9।।एवमुक्त्वा भगवानर्जुनाय दिव्यं रूपं दर्शितवान्? सच दृष्ट्वा विस्मयाविष्टो भगवन्तं,विज्ञापितवानितीमं वृत्तान्तमेवमुक्त्वेत्यादिषड्भिः श्लोकैर्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एवमुक्त्वेत्यादि। ततः दिव्यचक्षुःप्रदानानन्तरम्। राजन् हे धृतराष्ट्र? महांश्चासौ योगेश्वरश्चेति विग्रहः। महतो योगस्य वा ईश्वरः। परमं दिव्यं रूपं ऐश्वरं मायाविसंबन्धि नतु मायातीतं दर्शयामास।
Sri Ramanujacharya
।।11.9।।संजय उवाच -- एवम् उक्त्वा सारथ्ये अवस्थितः पार्थमातुलजो महायोगेश्वरो हरिः महाश्चर्य योगानाम् ईश्वरः परब्रह्मभूतो नारायणः परमम् ऐश्वरं स्वासाधारणं रूपं पार्थाय पितृष्वसुः पृथायाः पुत्राय दर्शयामास तद् विविधविचित्रनिखिलजगदाश्रयं विश्वस्य प्रशासितृ च रूपम्।तत् च ईदृशम् --
Sri Sridhara Swami
।।11.9।। एवमुक्त्वा भगवानर्जुनाय रूपं दर्शितवान्। तच्च रूपं दृष्ट्वार्जुनः श्रीकृष्णं विज्ञापितवानितीममर्थं एवमुक्त्वेत्यादिभिः ष़ड्भिः श्लोकैर्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एवमिति। हे राजन् धृतराष्ट्र? महांश्चासौ योगेश्वरश्च हरिः परममैश्वरं रूपं दर्शितवान्।