Chapter 15, Verse 17
Verse textउत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।
Verse transliteration
uttamaḥ puruṣhas tv anyaḥ paramātmety udāhṛitaḥ yo loka-trayam āviśhya bibharty avyaya īśhvaraḥ
Verse words
- uttamaḥ—the Supreme
- puruṣhaḥ—Divine Personality
- tu—but
- anyaḥ—besides
- parama-ātmā—the Supreme Soul
- iti—thus
- udāhṛitaḥ—is said
- yaḥ—who
- loka trayam—the three worlds
- āviśhya—enters
- bibharti—supports
- avyayaḥ—indestructible
- īśhvaraḥ—the controller
Verse translations
Swami Sivananda
But distinct is the Supreme Purusha, called the highest Self, indestructible and Lord, who pervades the three worlds and sustains them.
Shri Purohit Swami
But I am higher than all, the Supreme God, the Absolute Self, the Eternal Lord, who pervades and upholds all the worlds.
Swami Ramsukhdas
।।15.17।।उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नामसे कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।
Swami Tejomayananda
।।15.17।। परन्तु उत्तम पुरुष अन्य ही है, जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण करने वाला अव्यय ईश्वर है।।
Swami Adidevananda
There is a Supreme Person other than these. He is referred to as the Supreme Self (Paramatma) in all the Vedas. He, as the Immutable One and the Lord, enters the threefold world and supports it.
Swami Gambirananda
But the Supreme Person is different; He is spoken of as the transcendental Self, permeating the three worlds and upholding them, and He is the imperishable God.
Dr. S. Sankaranarayan
But the Highest Person, distinct from both [this], is spoken of as the Supreme Self, which, being the changeless Lord, sustains the triad of the world by entering into it.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।15.17।। --,उत्तमः उत्कृष्टतमः पुरुषस्तु अन्यः अत्यन्तविलक्षणः आभ्यां परमात्मा इति परमश्च असौ देहाद्यविद्याकृतात्मभ्यः? आत्मा च सर्वभूतानां प्रत्यक्चेतनः? इत्यतः परमात्मा इति उदाहृतः उक्तः वेदान्तेषु। स एव विशिष्यते यः लोकत्रयं भूर्भुवःस्वराख्यं स्वकीयया चैतन्यबलशक्त्या आविश्य प्रविश्य बिभर्ति स्वरूपसद्भावमात्रेण बिभर्ति धारयति अव्ययः न अस्य व्ययः विद्यते इति अव्ययः। कः ईश्वरः सर्वज्ञः नारायणाख्यः ईशनशीलः।।यथाव्याख्यातस्य ईश्वरस्य पुरुषोत्तमः इत्येतत् नाम प्रसिद्धम्। तस्य नामनिर्वचनप्रसिद्ध्या अर्थवत्त्वं नाम्नो दर्शयन् निरतिशयः अहम् ईश्वरः इति आत्मानं दर्शयति भगवान् --,
Sri Vallabhacharya
।।15.17।।तदुत्तममाश्रयभूतं मुख्यं स्वरूपमाह (तदधिदैवतम्) उत्तमः पुरुषस्त्वन्य इति। तुशब्दः पूर्वतो भेदं दर्शयति। एताभ्यां अन्यो विलक्षणोऽमितसच्चिदानन्दात्मा पुरुषोत्तमः सर्वकारणकारणभूतः। निरस्तविकृतिरव्यय ईश्वरोऽद्भुतैश्वर्यो विभिन्नधर्माश्रय इति यावत्। स लोकत्रयं गुणात्मकमाविश्यान्तर्यामिरूपो भूत्वा बिभर्तीति ततः पुरुषोत्तम इत्युदाहृतः सर्वैः। यद्वा नन्वक्षरपरमपुरुषयोरपि भगवत्त्वात्को विशेषः तत्राह -- परमात्मेति। परमश्चासावात्मा चेति गङ्गाऽध्यात्मदेवतयोरिव तयोः स्वरूपमिति भावः। तथा च पुराणि स्वप्रकृतिकार्याणि अवराणि तत्सम्बन्धी क्षरस्तदुष्कृष्टोऽक्षरश्चराचरात्मा तदुत्तमः पुरुषोत्तम इति व्युत्पत्तिः? तेन नित्यबद्धमुक्तपुरुषद्वयाद्विलक्षणता दर्शिता।बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः [भाग.11।11।1] इति भागवतवाक्यात्। अस्यार्थः -- बद्ध इति क्षररूपतयाख्या आत्मनः मुक्त इत्यक्षररूपतया च विशेषाख्या मे गुणतः (सत्त्वरजस्तमोरूपात्। यद्वा) इच्छारूपाद्भवति तस्य मे मायामूलत्वात् मायां प्रति तस्य कारणत्वात्न मे मोक्षो न बन्धनं इति वैलक्षण्येन विरुद्धधर्माश्रयत्वमितिनहि विरध उभयं भगवत्यपरिगणितगुणगण ईश्वरेऽनवगाह्यमाहात्म्येऽर्वाचीनविकल्पवितर्कविचारप्रमाणाभासकुतर्कशास्त्रकलितान्तःकरणाश्रयदुरवग्रहवादिनां विवादानवसरः इति भागवतेनैव [6।9।36] सूत्रभाष्यरूपेण निर्णयात्।
Swami Sivananda
15.17 उत्तमः the Supreme? पुरुषः Purusha? तु but? अन्यः another? परमात्मा the highest? Self? इति thus? उदाहृतः called? यः who? लोकत्रयम् the three worlds? आविश्य pervading? बिभर्ति sustains? अव्ययः the indestructible? ईश्वरः Lord.Commentary Purushottama is beyond the universe though He pervades the three worlds. Therefore He is called the Supreme Being by the Vedas and men of this world. He pervades the three worlds and upholds them yet? He is not tainted by the world. He is above the world or worldliness.Just as the waking state is different from the dram or the deep sleep states? just as the orb of the sun is different from his rays or the mirage they casue? so also is the highest Purusha different from the perishable and the imperishable Purushas.The highest Purusha is the haven of peace. In Him all take their refuge and eternal rest. He is incomparable for He is selfcontained there is nothing like Him. He can only be compared to Himself. The imperishable Being (Akshara Brahman) Who is beyond the world and the Avyaktam (the Unmanifested) are essentially the same as the Purushottama Who transcends both the Kshara and the Akshara.The Purushottama is ite distinct from the two -- Kshara and Akshara. He is the Supreme Being. The physical body? the astral body and the causal body are also termed the Self. But these are secondary selves. Paramatma or the Supreme Self is the primary Self. Purushottama or Paramatma is the supreme or the highest when compared with the other secondary selves created by ignorance. He is the innermost consciousness of all beings. He is the support of everything. He is the Niyanta? the Inner Ruler. He is independent. Therefore He is known as the Supreme Self in the Vedanta.Anyah Another? ite distinct from the two.Lokatrayam The three worlds Bhuh (the earth)? Bhuvah (the midregion) and Svah (heaven) are the three worlds.Purushottama is further described as follows He is the imperishable and omniscient Lord Narayana Who permeates the three worlds by His vital energy and sustains them by His mere existence in them.Avyaya Imperishable? that which is free from the modifications such as birth? death? etc. Just as the king who rules his subjects and controls them is distinct from them? so also the Supreme Being Who is the ruler of the perishable and the imperishable is distinct from them. (Cf.VIII.20)
Swami Chinmayananda
।।15.17।। कोई एक व्यक्ति विभिन्न उपाधियों? व्यक्तियों? कार्यों और पदों की दृष्टि से विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता है और यदि इन आपेक्षिक दृष्टिकोणों को दूर कर दिया जाय? तो वह व्यक्ति शून्य रूप नहीं हो जायेगा। वह मात्र एक निर्विशेष व्यक्ति रह जाता है। इसी प्रकार? जो परम तत्त्व नित्यपरिवर्तनशील जगत् के रूप में क्षर पुरुष कहलाता है और क्षर के ज्ञाता के रूप में अक्षर पुरुष? वह स्वयं इन दोनों से भिन्न ही है? जिसे यहाँ उत्तम पुरुष? परमात्मा और अव्यय ईश्वर कहा गया है।क्षर से परे पहुँचने पर अक्षर ही नहीं? वरन् उत्तम पुरुष ही रह जाता है? क्योंकि क्षरत्व के अभाव में अक्षरत्व का भी अभाव हो जाता है। तब रह जाता है? इन दोनों का परमार्थ अधिष्ठान परमात्मा। यह परमात्मा या अव्यय ईश्वर तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका धारणपोषण करता है। संस्कृत में लोक शब्द का अर्थ है वह वस्तु जो देखी या अनुभव की जाती है। इस दृष्टि से? यहाँ लोक शब्द का अर्थ स्वर्गादि लोक हो सकता है और हमारी परिचित अनुभवों की तीन अवस्थाएं जाग्रत? स्वप्न और सुषुप्ति भी हो सकती हैं। एक ही संवित् (चैतन्य) इन तीनों को प्रकाशित करता है।यहाँ विशेष ध्यान देने की बाता यह है कि इन तीनों पुरुषों को भिन्नभिन्न नहीं समझना चाहिये। केवल उत्तम पुरुष ही पारमार्थिक सत्य है? जो दो विभिन्न उपाधियों की दृष्टि से क्षर और अक्षर के रूप में प्रतीत हो रहा है। उपाधियों के अभाव में वह केवल अपने नित्यशुद्ध? निरुपाधिक स्वरूप में रह जाता है। उदाहरणार्थ? एक ही सर्वगत आकाश घट और मठ इन दो उपाधियों से अवच्छिन्न होकर घटाकाश और मठाकाश के रूप में प्रतीत होता है। यहाँ यह स्पष्ट है कि यह कोई तीन आकाश घटाकाश? मठाकाश और महाकाश नहीं बन गये हैं। घट और मठ की उपाधियों से ध्यान दूर कर लें तो ज्ञात होता कि वस्तुत आकाश एक ही है।इसी प्रकार? उत्तम पुरुष ही दृश्य और दृष्टा के रूप में क्षर और अक्षर पुरुष कहलाता है। परन्तु उपाधियों से विवर्जित हुआ वह परमात्मा ही है।अगले श्लोक में? भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम शब्द की व्युत्पत्ति दर्शाकर यह बताते हैं कि वे किस प्रकार परम ब्रह्म स्वरूप हैं
Sri Anandgiri
।।15.17।।कार्यकारणाख्यौ राशी दर्शयित्वा राश्यन्तरं दर्शयति -- आभ्यामिति। वैलक्षण्यफलमाह -- क्षरेति। उपाधिद्वयकृतगुणदोषास्पर्शे फलितमाह -- नित्येति। आभ्यां क्षराक्षराभ्यामिति यावत्। उत्तमोऽन्य इति पदद्वयं वस्तुतः सर्वथैव क्षराक्षरात्मत्वाभावदृष्ट्यर्थम्। जडवर्गस्यान्यत्वकृतं स्वातन्त्र्यं निरस्यति -- स एवेति। लोकत्रयमित्युपलक्षणं सर्वं जगदपि विवक्षितम्। चैतन्यमेव बलं तत्र शक्तिर्माया तयेति यावत्। जगद्धारणे परस्य व्यापारान्तरं वारयति -- स्वरूपेति। नचास्यान्यो धारयिता स्वतोऽचलत्वादित्याह -- अव्यय इति।संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः इति श्रुत्यर्थं गृहीत्वाह -- ईश्वर इति।
Sri Dhanpati
।।15.17।।कार्यकारणाख्यौ राशी दर्शियत्वा ताभ्यां विलक्षणं राशयन्तरं परमात्माख्यं दर्शयति -- उत्तम इति। आभ्यां क्षराक्षराभ्यां अन्यो विलक्षणः उपाधिद्वयदोषेणासंस्पृष्टो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावः उत्तमः उत्कृष्टमः पुरुषः अविद्यात्मभ्यो देहादिभ्यः परश्चासौ सर्वभूतानामात्मा च प्रत्यक्वेतन इत्यतः परमात्मेत्युदाहृतः वेदान्तेषु प्रतिपादितः। परमात्मानमेव विशिनष्टि। यो लोकत्रयं भूर्भुवःस्वराख्यं त्रिलोकीपक्षाश्रयेण समस्तं जगत् स्वकीयया मायया चैतन्यबलशत्त्या आविशय प्रविश्य स्वरुपसद्भावमात्रेण विभर्ति धारयति पोषयति प्रकाशयति। न विद्यते व्ययो यस्य सोऽव्ययः ईश्वरः ईशनशीलो नारायणाख्यः परमेश्वर इत्यर्थ।
Sri Madhavacharya
।।15.16 -- 15.17।।क्षरः भूतानि ब्रह्मादीनि। कूटस्था प्रकृतिः। तथा च शार्कराक्षश्रुतिः -- प्रजापतिप्रमुखाः सर्वजीवाः क्षरोऽक्षरः पुरुषो वै प्रधानम्। तदुत्तमं चान्यमुदाहरन्ति जालाजालं मातरिश्वानमेकम् इति।
Sri Neelkanth
।।15.17।।एताभ्यां कार्यकारणोपाधिभ्यामन्यो निरुपाधिरुत्तमः पुरुषः योऽसौ परमात्मेत्युदाहृतः शास्त्रे। योऽसौ मायया ईश्वरो भूत्वा लोकत्रयमुत्तममध्यमाधमशरीररूपमाविश्य प्रविश्य धारयति शरीरत्रयम्। अथापि अव्ययः सर्वज्ञत्वेन ईश्वरधर्मेण अल्पज्ञत्वेन जीवधर्मेण वा न व्येति वर्धते क्षीयते वेत्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।15.17।। व्याख्या -- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः -- पूर्वश्लोकमें क्षर और अक्षर दो प्रकारके पुरुषोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् यह बताते हैं कि उन दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है (टिप्पणी प0 782)।यहाँ अन्यः पद परमात्माको अविनाशी अक्षर(जीवात्मा) से भिन्न बतानके लिये नहीं? प्रत्युत उससे विलक्षण बतानेके लिये आया है। इसीलिये भगवान्ने आगे अठारहवें श्लोकमें अपनेको नाशवान् क्षरसे अतीत और अविनाशी अक्षरसे उत्तम बताया है। परमात्माका अंश होते हुए भी जीवात्माकी दृष्टि या खिंचाव नाशवान् क्षरकी ओर हो रहा है। इसीलिये यहाँ भगवान्को उससे विलक्षण बताया गया है।परमात्मेत्युदाहृतः -- उस उत्तम पुरुषको ही परमात्मा नामसे कहा जाता है। परमात्मा शब्द निर्गुणका वाचक माना जाता है? जिसका अर्थ है -- परम (श्रेष्ठ) आत्मा अथवा सम्पूर्ण जीवोंकी आत्मा। इस श्लोकमें परमात्मा और ईश्वर -- दोनों शब्द आये हैं? जिसका तात्पर्य है कि निर्गुण और सगुण सब एक पुरुषोत्तम ही है।यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः -- वह उत्तम पुरुष (परमात्मा) तीनों लोकोंमें अर्थात् सर्वत्र समानरूपसे नित्य व्याप्त है।यहाँ बिभर्ति पदका तात्पर्य यह है कि वास्तवमें परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियोंका भरणपोषण करते हैं? पर जीवात्मा संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण भूलसे सांसारिक व्यक्तियों आदिको अपना मानकर उनके भरणपोषणादिका भार अपने ऊपर ले लेता है। इससे वह व्यर्थ ही दुःख पाता रहता है (टिप्पणी प0 783.1)।भगवान्को अव्ययः कहनेका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण लोकोंका भरणपोषण करते रहनेपर भी भगवान्का कोई व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात् उनमें किसी तरहकी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। वे सदा ज्योंकेत्यों रहते हैं।ईश्वरः शब्द सगुणका वाचक माना जाता है? जिसका अर्थ है -- शासन करनेवाला।मार्मिक बातयद्यपि मातापिता बालकका पालनपोषण किया करते हैं? तथापि बालकको इस बातका ज्ञान नहीं होता कि मेरा पालनपोषण कौन करता है? कैसे करता है और किसलिये करता है इसी तरह यद्यपि भगवान् मात्र प्राणियोंका पालनपोषण करते हैं? तथापि अज्ञानी मनुष्यको (भगवान्पर दृष्टि न रहनेसे) इस बातका पता ही नहीं लगता कि मेरा पालनपोषण कौन करता है। भगवान्का शरणागत भक्त ही इस बातको ठीक तरहसे जानता है कि एक भगवान् ही सबका सम्यक् प्रकारसे पालनपोषण कर रहे हैं।पालनपोषण करनेमें भगवान् किसीके साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्तअभक्त? पापीपुण्यात्मा? आस्तिकनास्तिक आदि सभीका समानरूपसे पालनपोषण करते हैं (टिप्पणी प0 783.2)। प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि भगवान्द्वारा रचित सृष्टिमें सूर्य सबको समानरूपसे प्रकाश देता है? पृथ्वी सबको समानरूपसे धारण करती है? वैश्वानरअग्नि सबके अन्नको समानरूपसे पचाती है? वायु सबको (श्वास लेनेके लिये) समानरूपसे प्राप्त होती है? अन्नजल सबको समानरूपसे तृप्त करते हैं? इत्यादि। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वर्णित उत्तम पुरुषके साथ अपनी एकता बताकर अब साकाररूपसे प्रकट भगवान् श्रीकृष्ण अपना अत्यन्त गोपनीय रहस्य प्रकट कहते हैं।
Sri Jayatritha
।।15.16 -- 15.17।।क्षराक्षरशब्दौ जडजीवार्थावित्यपव्याख्याननिरासार्थमाह -- क्षर इति। भूतग्रहणं युक्तिसूचनार्थम्। न हि जडमात्रे भूतशब्दो रूढः? किन्तु जीवेष्वपि। पुरुषशब्दस्य चैतदुपलक्षणम्। प्रकृतिश्चेतना।अक्षरं इति वक्तव्येकूटस्थः इति वचनमपि युक्तिसूचनार्थमेव। न हि जीवानां कूटस्थत्वमस्ति?,सुखादिमत्त्वेन विकारित्वात्। श्रुतिसम्मत्याऽयमेवार्थ इत्याह -- तथा चेति।क्षरः इत्यनुवादेन प्रजापतीत्यादि व्याख्यानम्। अन्यं परमात्मानम्। क्षरान्तर्भूतोऽपि मातरिश्वा विवक्षाविशेषेणाक्षरोऽपि भवतीत्युच्यते -- जालेति। जालं संसारबन्धः सोऽस्यास्तीति जालःअर्श आदिभ्योऽच् [अष्टा.5।2।127] इति। तद्रहितश्चाजालः,अभिमानाभावात्।
Sri Ramanujacharya
।।15.17।।उत्तमः पुरुषः तु ताभ्यां क्षराक्षरशब्दनिर्दिष्टाभ्यां बद्धमुक्तपुरुषाभ्याम् अन्यः अर्थान्तरभूतः परमात्मा इति उदाहृतः।सर्वासु श्रुतिषु परमात्मा इति निर्देशाद् एव हि उत्तमः पुरुषो बद्धमुक्तपुरुषाभ्याम् अर्थान्तरभूतः इति अवगम्यते। कथम् यो लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति लोक्यत इति लोकः तत्त्रयं लोकत्रयम् अचेतनं तत्संसृष्टः चेतनो मुक्तः च इति प्रमाणावगम्यम् एतत् त्रयं य आत्मतया आविश्य बिभर्ति? स तस्माद् व्याप्याद् भर्तव्यात् च अर्थान्तरभूतः।इतः च उक्तात् लोकत्रयाद् अर्थान्तरभूतः। यतः सः अव्यय ईश्वरः च। अव्ययस्वभावो हि व्ययस्वभावाद् अचेतनात् तत्संबन्धेन तदनुसारिणः च चेतनाद् अचित्संबन्धयोग्यता पूर्वसंबन्धिनः मुक्तात् च अर्थान्तरभूत एव तथा एतस्य लोकत्रयस्य ईश्वरः ईशितव्यात् तस्माद् अर्थान्तरभूतः।
Sri Sridhara Swami
।।15.17।।यदर्थमेतौ लक्षितौ तमाह -- उत्तम इति। एताभ्यां क्षराक्षराभ्यामन्यो विलक्षणस्तूत्तमः पुरुषः। वैलक्षण्यमेवाह। परमश्चासावात्मेति चोदाहृत उक्तः श्रुतिभिः। आत्मत्वेन क्षरादचेतनाद्विलक्षणः परमत्वेनाक्षराच्चेतनाद्भोक्तुर्विलक्षण इत्यर्थः। परमात्मत्वमेव दर्शयति यो लोकत्रयमिति। य ईश्वर ईशनशीलः? अव्ययश्च निर्विकार एव सन् लोकत्रयं कृत्स्नमाविश्य बिभर्ति पालयति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।15.17।।अप्राप्तत्वादन्यत्वस्य विधेयत्वं वदन् तस्य प्रतियोगिसापेक्षत्वात् प्रकृतक्षराक्षरपुरुषयोरेव प्रतियोगित्वमाह -- उत्तमः पुरुषस्तु ताभ्यामिति।परमात्मेत्युदाहृतः इत्यस्य विधेयपरत्वासम्भवेन अन्यत्वहेतुपरत्वमाह -- सर्वासु श्रुतिषु चेति।तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः [महाना.9।13वासु.6महो.1।9चतुर्वेदो.6] आत्मा नारायणः परः [महाना.9।4] इत्यादिष्वित्यर्थः। परमात्मेतिनिर्देशहेतुत्वोपपादकत्वेनोत्तरार्धमवतारयति -- कथमिति। लोकशब्दस्य भुवनपरत्वे लोकत्रयं भूरादिलोकत्रयं? स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणलोकत्रयं वा स्यात्। तथा च तद्व्यापनभरणयोः सर्वात्मत्वपर्यवसितपरमात्मत्वोपपादकत्वेन क्षराक्षरात्मकसर्वान्यत्वसाधकत्वं न स्यात्। कृतकमकृतकं कृतकाकृतकमिति लोकत्रयपरत्वेऽपि तत्रत्यपुरुषेषु लक्षणा स्वीकार्या ततो वरं योगवृत्त्याश्रयणमित्यभिप्रेत्य व्याचष्टे -- लोक्यत इति लोक इत्यादिना। कथमचाक्षुषयोर्बद्धमुक्तयोर्लोकनकर्मत्वमित्यत आह -- प्रमाणावगम्यमेतत्त्रयमिति।यः इति अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [चित्त्यु.11।1आ.3।11] भर्त्ता सन् भ्रियमाणो बिभर्ति [आ.3।14] इत्यादिकमत्राभिप्रेतम्।सः इति -- परमात्मेति निर्दिष्ट इत्यर्थः।यः इत्यस्य तत्परत्वात्प्रत्येकं विशेषणानामन्यत्वसाधनसामर्थ्यात् तदर्थस्थितिमात्रविवक्षायामत्रानपेक्षितोक्त्या पदान्तरवैयर्थ्यादित्यभिप्रायेणाह -- इतश्चेति।अत्रावेशभरणेश्वरत्वानां कर्मकर्तृभावेन अन्यत्वोपस्थापकत्वम्? अव्ययत्वस्य तु साक्षात्स्वभावविरोधादित्यभिप्रायेणाऽऽह -- अव्ययस्वभावो हीति। एवमवान्तरवैषम्यं दर्शयिष्यतिअव्ययस्वभावतया व्यापनभरणैश्वर्यादियोगेन च [रा.भा.15।19] इति।तत्सम्बन्धेन तदनुसारिण इति -- तदधीनजन्मविनाशादिक्लेशभाज इत्यर्थः। तद्वज्ज्ञानसङ्कोचविकासलक्षणविकारयोगिन इति वा। योग्यता नाम सहकारिसन्निधौ कुर्वत्स्वभावत्वं? सहकार्यभावप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वं वा। सा च मुक्तस्याप्यस्तीति स्वभावविरोधस्तत्राप्यविशिष्ट इत्याह -- अचित्सम्बन्धयोग्यतया पूर्वसम्बन्धिन इति। अनवच्छिन्नात्मव्ययत्वं मुक्तस्यापि नास्तीति भावः। ईश्वरशब्दोऽत्र नानुपयुक्तसंज्ञामात्ररूप इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- तथैतस्येति। अत्रात्मलक्षणान्तर्गतानुप्रवेशधारणनियमनानां कण्ठोक्तौ स्वार्थधारणादिवशादेव शेषित्वमपि सिध्यतीत्यभिप्रायेण संग्रहश्लोके स्वाम्योक्तिः। तथाच तत्र नियन्तृत्वमुपलक्षणीयम्। एवंअव्ययत्वव्यापनभरणस्वाम्यैः [रा.भा.16।1] इत्यनन्तराध्यायारम्भभाष्येऽपि द्रष्टव्यम्। यद्वा केवलनियन्तृत्वादिविशिष्टेष्वपीश्वरशब्दस्य प्रयुक्तचरत्वाभावात् स्वाम्योपश्लिष्टनियमनवेषे च निरूढप्रयोगत्वादीश्वरशब्देनैव शेषित्वमप्युपस्थापितम्। अपि चात्रयः इति व्याप्त्याद्यानुवादेमयि सर्वमिदं प्रोतम् [7।7] इत्यादिपुरोवादपरामर्शात्तत्प्रकरणेभूमिरापः [7।4] इत्यादिनोक्तं शेषित्वमप्याकृष्यत इति पतिं विश्वस्यात्मेश्वरम् [महाना.1।6] इति पतिशब्दस्थाने चेश्वरशब्दः प्रयुक्त इति,भावः।
Sri Abhinavgupta
।।15.16 -- 15.18।।द्वावित्यादि पुरुषोत्तम इत्यन्तम्। द्वाविमौ पुरुषौ इति ग्रन्थेनेदमुच्यते -- लोके तावदप्रबुद्धस्वभावोऽपि सर्वः पृथिव्यादिभूतारब्धशरीरम् आत्मानं चेतनं क्षररूपं जानाति इति लोकस्य मूढत्वात् द्वैतधीर्न निवर्तते। अहं तु सकलानुग्राही द्वैतग्रन्थिं विभिद्य सकललोकव्यापकतया वेद्य इति। क्षरमतीतः? भूतानां जडत्वात्। अक्षरमतीतः? आत्मनोऽप्रबुद्धत्वे सर्वव्यापकत्वखण्डनात्। पुरुषोत्तमो लोके वेदेऽपि सः उत्तमः पुरुषः इत्यादिभिर्वाक्यैः स एव परमात्मा अद्वयः एवमुच्यते।
Sri Madhusudan Saraswati
।।15.17।।आभ्यां क्षराक्षराभ्यां विलक्षणः क्षराक्षरोपाधिद्वयदोषेणास्पृष्टो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव -- उत्तम इति। उत्तम उत्कृष्टतमः पुरुषस्त्वन्यः अन्य एवात्यन्तविलक्षण आभ्यां क्षराक्षराभ्यां जडराशिभ्यामुभयभासकस्तृतीयश्चेतनराशिरित्यर्थः। परमात्मेत्युदाहृतः अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयेभ्यः पञ्चभ्योऽविद्याकल्पितात्मभ्यः परमप्रकृष्टोऽकल्पितोब्रह्मपुच्छं प्रतिष्ठा इत्युक्त आत्मा च सर्वभूतानां प्रत्यक्चेतन इत्यतः परमात्मेत्युक्तो वेदान्तेषु यः परमात्मा। लोकत्रयं भूर्भुवःस्वराख्यं सर्वं जगदिति यावत्? आविश्य स्वकीयया मायाशक्त्याऽधिष्ठाय बिभर्ति सत्तास्फूर्तिप्रदानेन धारयति पोषयति च। कीदृशः? अव्ययः सर्वविकारशून्य ईश्वरः सर्वस्य नियन्ता नारायणः स उत्तमः पुरुषः परमात्मेत्युदाहृत इत्यन्वयः।स उत्तमः पुरुषः इति श्रुतेः।
Sri Purushottamji
।।15.17।।पुरुषोत्तमज्ञानार्थमेतौ निरूपिताविति तदाह -- उत्तम इति। तुशब्द एव तत्समत्वव्यावर्तनार्थः। उत्तमः पुरुषः अन्यः सर्वाज्ञातः सर्वव्यतिरिक्त इत्यर्थः। कीदृशः इत्याकाङ्क्षायामाह -- परमात्मेत्युदाहृतः परमश्चासावात्मेति परमः सर्वोत्कृष्ट आत्मा अविकृतः इति अमुना प्रकारेण श्रुत्यादिभिरुदाहृतः कथितः? यो लोकत्रयं तत्तद्रसानुभवार्थमाविर्भवति धारयति पोषयति च। एवं चेन्नयूनाधिक्यं भविष्यतीत्याशङ्क्याऽऽह -- अव्यय इति। निर्विकार इत्यर्थः। तर्हि धारणमनुपपन्नमित्यत आह -- ईश्वर इति। कर्तुमन्यथाकर्तुं च समर्थः। अतस्तथेत्यर्थः।