Chapter 15, Verse 4
Verse textततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।
Verse transliteration
tataḥ padaṁ tat parimārgitavyaṁ yasmin gatā na nivartanti bhūyaḥ tam eva chādyaṁ puruṣhaṁ prapadye yataḥ pravṛittiḥ prasṛitā purāṇī
Verse words
- tataḥ—then
- padam—place
- tat—that
- parimārgitavyam—one must search out
- yasmin—where
- gatāḥ—having gone
- na—not
- nivartanti—return
- bhūyaḥ—again
- tam—to him
- eva—certainly
- cha—and
- ādyam—original
- puruṣham—the Supreme Lord
- prapadye—take refuge
- yataḥ—whence
- pravṛittiḥ—the activity
- prasṛitā—streamed forth
- purāṇi—very old
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
Then, that Abode must be sought, having reached which one would not return. The Yogin would attain nothing but that Primal Person, from Whom the old activity (world creation) commences.
Shri Purohit Swami
Beyond lies the path, from which, once found, there is no return. This is the Primal God from whom this ancient creation has sprung.
Swami Ramsukhdas
।।15.4।।उसके बाद उस परमपद-(परमात्मा-) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होनेपर मनुष्य फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिससे अनादिकालसे चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तारको प्राप्त हुई है, उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ।
Swami Tejomayananda
।।15.4।। (तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"।।
Swami Adidevananda
Then, one should seek that goal, attaining which one never returns. One should seek refuge with that Primal Person from whom this ancient activity streamed forth.
Swami Gambirananda
Thereafter, that state must be sought, going where they do not return again: I take refuge in that Primeval Person Himself, from whom the eternal Manifestation has ensued.
Swami Sivananda
Then, that goal should be sought for, to which, having gone, none returns again. I seek refuge in that Primeval Purusha, from whence streamed forth the ancient activity or energy.
Verse commentaries
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।। 15.4 ननु सर्वप्रत्यक्षसम्मतेऽस्मिन् संसारेयस्तं वेद इति कस्यचित्तद्वेदनेन प्रशंसनमयुक्तमित्यत्रोच्यतेन रूपमस्येति। नात्र रूपानुपलम्भवचनस्य रूपाभावे तात्पर्यं? निर्दिष्टरूपविरोधादित्यभिप्रायेणाह -- अस्य वृक्षस्येति। सर्वेषां संसारोपलम्भे सत्यपि प्रकृताकारेण नोपलम्भ इति तथाशब्दाभिप्रेतं विवृणोति -- चतुर्मुखादित्वेनेत्यादिना।संसारिभिरिति -- अपवर्गोपयुक्तज्ञानरहितैरिति भावः। संसारिष्वेव यस्तथा वेद? स मुक्तप्राय इति वा। कूटस्थपितृपुत्रादिरूपेण लोकेऽपि मूलशाखापल्लवादिकं दृश्यत इत्यत्राह -- मनुष्योऽहमिति। तेषां हेयस्यापि संसारस्योपादानोपयुक्तं ज्ञानमस्ति न तु हानार्थमिति भावः।नान्तः इत्यादावपि तथाशब्दस्यानुषङ्गमाह -- तथाऽस्येति। समभिव्याहृतासङ्गशस्त्रच्छेद्यत्वानुगुणमन्तशब्दार्थमाहविनाश इति। आत्यन्तिकप्रलय इहासङ्गनिष्पादितान्तशब्देन विवक्षितः तस्य च स्वरूपतः कारणतश्चानुपलम्भः नित्यप्रलयमात्रं हि संसारिभिर्दृश्यत इत्यभिप्रायेणाह -- गुणमयभोगेष्वसङ्गकृत इति। भोगशब्दोऽत्र भोग्यपरः। प्रमाणसिद्धस्यान्तस्यादेः प्रतिष्ठायाश्च स्वरूपनिषेधभ्रमव्युदासायउपलभ्यते इतिपदमनुषञ्जितम्। गर्भादिरूपस्यावान्तरादेरुपलम्भात्प्रधानभूत आदिरिह विवक्षित इत्याह -- गुणसङ्ग एवेति। अत्र प्रतिष्ठाशब्देन परोक्तं परमात्माभिधानमयुक्तं? निस्सङ्गानां सङ्गविषयस्य तस्यासङ्गशस्त्रच्छेद्यवृक्षप्रतिष्ठात्वनिर्देशानौचित्यात् अत आदिभूतस्य सङ्गस्यापि निदानं क्षेत्रादिस्थानीयमज्ञानमिह अर्थौचित्यात्प्रतिष्ठोच्यत इत्याह -- अनात्मन्यात्माभिमानरूपमिति। एतेन सम्प्रतिष्ठा मध्यमिति व्याख्याऽपि निरस्ता। अज्ञाने कथं प्रतिष्ठाशब्दवृत्तिः इत्यत्राह -- प्रतितिष्ठतीति।अयं भावः -- मूलस्थितिभूमिः वृक्षस्य प्रतिष्ठा कर्म च संसारवृक्षस्य मूलत्वेनोक्तम् तच्चअविद्यासञ्चितं कर्म [वि.पु.2।13।70] इति वचनादज्ञाने स्थितं? तदधीनत्वात्तदनुष्ठानस्य? ममकारस्यापि कर्महेतोरहङ्कार एव कन्द इति स इह संसारवृक्षप्रतिष्ठेति।एनम् इति सङ्गास्पदप्रकृतिवैचित्र्यपरामर्श इत्याह -- उक्तप्रकारमिति। सुष्ठुत्वं दृढनिरूढवासनत्वेनान्यैः छेत्तुमशक्यत्वम्। विविधत्वं प्रायश्चित्तादिभिरेकैकस्य कर्माख्यमूलस्य च्छेदेऽप्यनादिकालं मनोवाक्कायैर्बुद्धिपूर्वकमबुद्धिपूर्वकं च विधिनिषेधविषयविचित्रकर्मणामनन्तप्रकारसम्भृतत्वम्। असङ्गोऽपि कदाचित्तादात्विकव्याध्यादिक्लेशादपि भवति स तु न दृढः अतःसम्यग्ज्ञानमूलेनेत्युक्तम्। विषयत्यागदशायामिव आत्मान्वेषणदशायामप्यसङ्गोऽनुवर्तनीय इति ज्ञापनायततश्शब्दः। अत एवततः परम् इति परशब्दाध्याहारेण व्याख्यान्तरमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- ततो विषयासङ्गाद्धेतोरिति।आत्मानमन्विच्छेत् [जा.उ.6] इत्यादिसूचनायाह -- अन्वेषणीयमिति। छन्दोनुरोधाय च्छान्दसंनिवर्तन्ति इति परस्मैपदमित्यभिप्रायेण स्वयमात्मनेपदं प्रायुङ्क्त।ननु दृढस्यासङ्गशस्त्रस्य लाभे हि तेन च्छिद्येत तदेव तु संसारिभिर्दुर्लभतरमिति शङ्कयोत्तरग्रन्थं सङ्गमयति -- कथमिति।निर्मानमोहाः
Swami Ramsukhdas
।।15.4।। व्याख्या -- ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् -- भगवान्ने पूर्वश्लोकमें छित्त्वा पदसे संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेकी बात कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्माकी खोज करनेसे पहले संसारसे सम्बन्धविच्छेद करना बहुत आवश्यक है। कारण कि परमात्मा तो सम्पूर्ण देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें ज्योंकेत्यों विद्यमान हैं? केवल संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवमें बाधा लग रही है। संसारसे सम्बन्ध बना रहनेसे परमात्माकी खोज करनेमें ढिलाई आती है और जप? कीर्तन? स्वाध्याय आदि सब कुछ करनेपर भी विशेष लाभ नहीं दीखता। इसलिये साधकको पहले संसारसे सम्बन्धविच्छेद करनेको ही मुख्यता देनी चाहिये।जीव परमात्माका ही अंश है। संसारसे सम्बन्ध मान लेनेके कारण ही वह अपने अंशी(परमात्मा) के नित्यसम्बन्धको भूल गया है। अतः भूल मिटनेपर मैं भगवान्का ही हूँ -- इस वास्तविकताकी स्मृति प्राप्त हो जाती है। इसी बातपर भगवान् कहते हैं कि उस परमपद(परमात्मा) से नित्यसम्बन्ध पहलेसे ही विद्यमान है। केवल उसकी खोज करनी है।संसारको अपना माननेसे नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त दीखने लग जाता है और अप्राप्त संसार प्राप्त दीखने लग जाता है। इसलिये परमपद(परमात्मा) को तत् पदसे लक्ष्य करके भगवान् कहते हैं कि जो परमात्मा नित्यप्राप्त है? उसीकी पूरी तरह खोज करनी है।खोज उसीकी होती है? जिसका अस्तित्व पहलेसे ही होता है। परमात्मा अनादि और सर्वत्र परिपूर्ण हैं। अतः यहाँ खोज करनेका मतलब यह नहीं है कि किसी साधनविशेषके द्वारा परमात्माको ढूँढ़ना है। जो संसार (शरीर? परिवार? धनादि) कभी अपना था नहीं? है नहीं? होगा नहीं उसका आश्रय न लेकर? जो परमात्मा,सदासे ही अपने हैं? अपनेमें हैं और अभी हैं? उनका आश्रय लेना ही उनकी खोज करना है।साधकको साधनभजन करना तो बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके समान कोई उत्तम काम नहीं है किंतु,परमात्मतत्त्वको साधनभजनके द्वारा प्राप्त कर लेंगे -- ऐसा मानना ठीक नहीं क्योंकि ऐसा माननेसे अभिमान बढ़ता है? जो परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। परमात्मा कृपासे मिलते हैं। उनको किसी साधनसे खरीदा नहीं जा सकता। साधनसे केवल असाधन(संसारसे तादात्म्य? ममता और कामनाका सम्बन्ध अथवा परमात्मासे विमुखता) का नाश होता है? जो अपने द्वारा ही किया हुआ है। अतः साधनका महत्त्व असाधनको मिटानेमें ही समझना चाहिये। असाधनको मिटानेकी सच्ची लगन हो? तो असाधनको मिटानेका बल भी परमत्माकी कृपासे मिलता है।साधकोंके अन्तःकरणमें प्रायः एक दृढ़ धारणा बनी हुई है कि जैसे उद्योग करनेसे संसारके पदार्थ प्राप्त होते हैं? ऐसे ही साधन करतेकरते (अन्तःकरण शुद्ध होनेपर) ही परमात्माकी प्राप्ति होती है। परन्तु वास्तवमें यह बात नहीं है क्योंकि परमात्मप्राप्ति किसी भी कर्म (साधन? तपस्यादि) का फल नहीं है? चाहे वह कर्म कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो। कारण कि श्रेष्ठसेश्रेष्ठ कर्मका भी आरम्भ और अन्त होता है अतः उस कर्मका फल नित्य कैसे होगा कर्मका फल भी आदि और अन्तवाला होता है। इसलिये नित्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति किसी कर्मसे नहीं होती। वास्तवमें त्याग? तपस्या आदिसे जडता(संसार और शरीर) से सम्बन्धविच्छेद ही होता है? जो भूलसे माना हुआ है। सम्बन्धविच्छेद होते ही जो तत्त्व सर्वत्र है? सदा है? नित्यप्राप्त है? उसकी अनुभूति हो जाती है -- उसकी स्मृति जाग्रत् हो जाती है।अर्जुन भी पूरा उपदेश सुननेके बाद अन्तमें कहते हैं -- स्मृतिर्लब्धा (18। 73) मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। यद्यपि विस्मृति भी अनादि है? तथापि वह अन्त होनेवाली है। संसारकी स्मृति और परमात्माकी स्मृतिमें बहुत अन्तर है। संसारकी स्मृतिके बाद विस्मृतिका होना सम्भव है जैसे -- पक्षाघात (लकवा) होनेपर पढ़ी हुई विद्याकी विस्मृति होना सम्भव है। इसके विपरीत परमात्माकी स्मृति एक बार हो जानेपर फिर कभी विस्मृति नहीं होती (गीता 2। 72? 4। 35) जैसे -- पक्षाघात होनेपर अपनी सत्ता (मैं हूँ) की विस्मृति नहीं होती। कारण यह है कि संसारके साथ कभी सम्बन्ध होता नहीं और परमात्मासे कभी सम्बन्ध छूटता नहीं।शरीर? संसारसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है -- इस तत्त्वका अनुभव करना ही संसारवृक्षका छेदन करना है और मैं परमात्माका अंश हूँ -- इस वास्तविकतामें हरदम स्थित रहना ही परमात्माकी खोज करना है। वास्तवमें संसारसे सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो जाती है।यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः -- जिसे पहले श्लोकमें ऊर्ध्वमूलम् पदसे तथा इस श्लोकमें आद्यम् पुरुषम् पदोंसे कहा गया है और आगे छठे श्लोकमें जिसका विस्तारसे वर्णन हुआ है? उसी परमात्मतत्त्वका निर्देश यहाँ यस्मिन् पदसे किया गया है।जैसे जलकी बूँदे समुद्रमें मिल जानेके बाद पुनः समुद्रसे अलग नहीं हो सकती? ऐसे ही परमात्माका अंश (जीवात्मा) परमात्माको प्राप्त हो जानेके बाद फिर परमात्मासे अलग नहीं हो सकता अर्थात् पुनः लौटकर संसारमें नहीं आ सकता। ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण प्रकृति अथवा उसके कार्य गुणोंका सङ्ग ही है (गीता 13। 21)। अतः जब साधक असङ्गशस्त्रके द्वारा गुणोंके सङ्गका सर्वथा छेदन (असत्के सम्बन्धका सर्वथा त्याग) कर देता है? तब उसका पुनः कहीं जन्म लेनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता।यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी -- सम्पूर्ण सृष्टिके रचयिता एक परमात्मा ही हैं। वे ही इस संसारके आश्रय और प्रकाशक हैं। मनुष्य भ्रमवश सांसारिक पदार्थोंमें सुखोंको देखकर संसारकी तरफ आकर्षित हो जाता है और संसारके रचयिता(परमात्मा)को भूल जाता है। परमात्माका रचा हुआ संसार भी जब इतना प्रिय लगता है? तब (संसारके रचयिता) परमात्मा कितने प्रिय लगने चाहिये यद्यपि रची हुई वस्तुमें आकर्षणका होना एक प्रकारसे रचयिताका ही आकर्षण है (गीता 10। 41)? तथापि मनुष्य अज्ञानवश उस आकर्षणमें परमात्माको कारण न मानकर संसारको ही कारण मान लेता है और उसीमें फँस जाता है।प्राणिमात्रका यह स्वभाव है कि वह उसीका आश्रय लेना चाहता है और उसीकी प्राप्तिमें जीवन लगा देना चाहता है? जिसको वह सबसे बढ़कर मानता है अथवा जिससे उसे कुछ प्राप्त होनेकी आशा रहती है। जैसे संसारमें लोग रुपयोंको प्राप्त करनेमें और उनका संग्रह करनेमें बड़ी तत्परतासे लगते हैं? क्योंकि उनको रुपयोंसे सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओंके मिलनेकी आशा रहती है। वे सोचते हैं -- शरीरके निर्वाहकी वस्तुएँ तो रुपयोंसे मिलती ही हैं? अनेक तरहके भोग? ऐशआरामके साधन भी रुपयोंसे प्राप्त होते हैं। इसलिये रुपये मिलनेपर मैं सुखी हो जाऊँगा तथा लोग मुझे धनी मानकर मेरा बहुत मानआदर करेंगे। इस प्रकार रुपयोंको सर्वोपरि मान लेनपर वे लोभके कारण अन्याय? पापकी भी परवाह नहीं करते। यहाँतक कि वे शरीरके आरामकी भी उपेक्षा करके रुपये कमाने तथा संग्रह करनेमें ही तत्पर रहते हैं। उनकी दृष्टिमें रुपयोंसे बढ़कर कुछ नहीं रहता। इसी प्रकार जब साधकको यह ज्ञात हो जाता है कि परमात्मासे बढ़कर कुछ भी नहीं है और उनकी प्राप्तिमें ऐसा आनन्द है? जहाँ संसारके सब सुख फीके पड़ जाते हैं (गीता 6। 22)? तब वह परमात्माको ही प्राप्त करनेके लिये तत्परतासे लग जाता है (गीता 15। 19)।तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये -- जिसका कोई आदि नहीं है किन्तु जो सबका आदि है (गीता 10। 2)? उस आदिपुरुष परमात्माका ही आश्रय (सहारा) लेना चाहिये। परमात्माके सिवाय अन्य कोई भी आश्रय टिकनेवाला नहीं है। अन्यका आश्रय वास्तवमें आश्रय ही नहीं है? प्रत्युत वह आश्रय लेनेवालेका ही नाश (पतन) करनेवाला है जैसे -- समुद्रमें डूबते हुए व्यक्तिके लिये मगरमच्छका आश्रय इस मृत्युसंसारसागरके सभी आश्रय मगरमच्छके आश्रयकी तरह ही हैं। अतः मनुष्यको विनाशी संसारका आश्रय न लेकर अविनाशी परमात्माका ही आश्रय लेना चाहिये।जब साधक अपना पूरा बल लगानेपर भी दोषोंको दूर करनेमें सफल नहीं होता? तब वह अपने बलसे स्वतः निराश हो जाता है। ठीक ऐसे समयपर यदि वह (अपने बलसे सर्वथा निराश होकर) एकमात्र भगवान्का आश्रय ले लेता है? तो भगवान्की कृपाशक्तिसे उसके दोष निश्चितरूपसे नष्ट हो जाते हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है (टिप्पणी प0 752)। इसलिये साधकको भगवत्प्राप्तिसे कभी निराश नहीं होना चाहिये। भगवान्की शरण लेकर निर्भय और निश्चिन्त हो जाना चाहिये। भगवान्के शरण होनेपर उनकी कृपासे विघ्नोंका नाश और भगवत्प्राप्ति -- दोनोंकी सिद्धि हो जाती है (गीता 18। 58? 62)।साधकको जैसे संसारके सङ्गका त्याग करना है? ऐसे ही असङ्गता के सङ्गका भी त्याग करना है। कारण कि असङ्ग होनेके बाद भी साधकमें मैं असङ्ग हूँ -- ऐसा सूक्ष्म अहंभाव (परिच्छिन्नता) रह सकता है? जो परमात्माके शरण होनेपर ही सुगमतापूर्वक मिट सकता है। परमात्माके शरण होनेका तात्पर्य है -- अपने कहलानेवाले शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि? अहम् (मैंपन)? धन? परिवार? मकान आदि सबकेसब पदार्थोंको परमात्माके अर्पण कर देना अर्थात् उन पदार्थोंसे अपनापन सर्वथा हटा लेनाशरणागत भक्तमें दो भाव रहते हैं -- मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं। इन दोनोंमें भी मैं भगवान्का हूँ और भगवान्के लिये हूँ -- यह भाव ज्यादा उत्तम है। कारण कि भगवान् मेरे हैं और मेरे लिये हैं -- इस भावमें अपने लिये भगवान्से कुछ चाह रहती है अतः साधक भगवान्से अपनी मनचाही कराना चाहेगा। परन्तु मैं भगवान्का हूँ और भगवान्के लिये हूँ -- इस भावमें केवल भगवान्की मनचाही होगी। इस प्रकार साधकमें अपने लिये कुछ भी करने और पानेका भाव न रहना ही वास्तवमें अनन्य शरणागति है। इस अनन्य शरणागतिसे उसका भगवान्के प्रति वह अनिर्वचनीय और अलौकिक प्रेम जाग्रत् हो,जाता है जो क्षति? पूर्ति और निवृत्तिसे रहित है जिसमें अपने प्रियके मिलनेपर भी तृप्ति नहीं होती और वियोगमें भी अभाव नहीं होता जो प्रतिक्षण बढ़ता रहता है जिसमें असीमअपार आनन्द है? जिससे आनन्ददाता भगवान्को भी आनन्द मिलता है। तत्त्वज्ञान होनेके बाद जो प्रेम प्राप्त होता है? वही प्रेम अनन्य शरणागतिसे भी प्राप्त हो जाता है।एव पदका तात्पर्य है कि दूसरे सब आश्रयोंका त्याग करके एकमात्र भगवान्का ही आश्रय ले। यही भाव गीतामें मामेव ये प्रपद्यन्ते (7। 14)? तमेव शरणं गच्छ (18। 62) और मामेकं शरणं व्रज (18। 66) पदोंमें भी आया है।प्रपद्ये कहनेका अर्थ है -- मैं शरण हूँ। यहाँ शङ्का हो सकती है कि भगवान् कैसे कहते हैं कि मैं शरण हूँ क्या भगवान् भी किसीके शरण होते हैं यदि शरण होते हैं तो किसके शरण होते हैं इसका समाधान यह है कि भगवान् किसीके शरण नहीं होते क्योंकि वे सर्वोपरि हैं। केवल लोकशिक्षाके लिये भगवान् साधककी भाषामें बोलकर साधकको यह बताते हैं कि वह मैं शरण हूँ ऐसी भावना करे।परमात्मा है और मैं (स्वयं) हूँ -- इन दोनोंमें है के रूपमें एक ही परमात्मसत्ता विद्यमान है। मैं के साथ होनेसे ही है का हूँ में परिवर्तन हुआ है। यदि मैंरूप एकदेशीय स्थितिको सर्वदेशीय,है में विलीन कर दें? तो है ही रह जायगा? हूँ नहीं रहेगा। जबतक स्वयंके साथ बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ? शरीर आदिका सम्बन्ध मानते हुए हूँ बना हुआ है? तबतक व्यभिचारदोष होनेके कारण अनन्य शरणागति नहीं है।परमात्माका अंश होनेके कारण जीव वास्तवमें सदा परमात्माके ही आश्रित रहता है परन्तु परमात्मासे विमुख होनेके बाद (आश्रय लेनेका स्वभाव न छूटनेके कारण) वह भूलसे नाशवान् संसारका आश्रय लेने लगता है? जो कभी टिकता नहीं। अतः वह दुःख पाता रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह परमात्मासे अपने वास्तविक सम्बन्धको पहचनाकर एकमात्र परमात्माके शरण हो जाय। सम्बन्ध -- जो महापुरुष आदिपुरुष परमात्माके शरण होकर परमपदको प्राप्त होते हैं? उनके लक्षणोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।15.4।। कहीं ऐसा न हो कि कोई विद्यार्थी इस रूपक के वास्तविक अभिप्राय को न समझकर उसे कोई लौकिक वृक्ष ही समझ लें? गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसा वर्णन किया गया है? वैसा वृक्ष यहाँ उपलब्ध नहीं होता। पूर्व श्लोक में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष इस व्यक्त हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रतीक है। सूक्ष्म चैतन्य आत्मा विविध रूपों और विभिन्न स्तरों पर विविधत व्यक्त होता है जैसे शरीर? मन और बुद्धि में क्रमश विषय? भावनाओं और विचारों के प्रकाशक के रूप में और कारण शरीर में वह अज्ञान को प्रकाशित करता है। आत्मअज्ञान या वासनाओं को ही कारण शरीर कहते हैं। ये समस्त उपाधियाँ तथा उनके अनुभव अपनी सम्पूर्णता में अश्वत्थवृक्ष के द्वारा निर्देशित किये गये हैं। अत यह कोई परिच्छिन्न वृक्ष न होने के कारण कोई इसे एक दृष्टिक्षेप से देखकर समझ नहीं सकता है।कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि या अन्त या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष परम सत्य के अज्ञान से उत्पन्न होता है। जब तक वासनाओं का प्रभाव बना रहता है तब तक इसका अस्तित्व भी रहता है? किन्तु आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। बहुसंख्यक लोगों द्वारा इन आध्यात्मिक आशयों को न देखा जाता है और न पहचाना या समझा ही जाता है।इस संसार वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र है असंग अर्थात् वैराग्य। भौतिक जगत् जड़? अचेतन है। इसके द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया जाता है? वह चैतन्य के सम्बन्ध के कारण ही संभव होता है। जब तक कार के चक्रों का सम्बन्ध मशीन से बना रहता है तब तक उनमें गति रहती है। यदि प्रवाहित होने वाली शक्ति को रोक दिया जाये? तो वे चक्र स्वत ही गतिशून्य स्थिति में आ जायेंगे। इसी प्रकार यदि हम अपना ध्यान शरीर? मन और बुद्धि से निवृत्त करें? तो तादात्म्य के अभाव में विषय? भावनाओं तथा विचारों का ग्रहण स्वत अवरुद्ध हो जायेगा। तादात्म्य की निवृत्ति को ही वैराग्य कहते हैं। यहाँ उसे असंग शस्त्र कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन्ा को उपदेश देते हैं कि उसको इस असंगशस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष को काटना चाहिये।हमारी वर्तमान स्थिति की दृष्टि से उपर्युक्त अवस्था का अर्थ है शून्य? जहाँ न कोई विषय हैं और न भावनाएं हैं न कोई विचार ही हैं। अत हम ऐसे उपदेश को सहसा स्वीकार नहीं करेंगे। भगवान् हमारी मनोदशा को समझते हुये उसी क्रम में कहते हैं? तत्पश्चात् उस पद का अन्वेषण करना चाहिये? जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुन लौटते नहीं हैं।उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन का निष्कर्ष यह निकलता है कि निदिध्यासन के अभ्यास के शान्त क्षणों में साधक को अपना ध्यान जगत् एवं उपाधियों से निवृत्त कर उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिये? जहाँ से इस संसार की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यदि इस उपदेश को केवल यहीं तक छोड़ दिया गया होता? तो अधिक से अधिक वह एक सुन्दर काव्यात्मक कल्पना ही बन कर रह जाता। आध्यात्मिक मूल्यों को अपने व्यावहारिक जीवन में जीने की कला सिखाने वाली निर्देशिका के रूप में? गीता को यह भी बताना आवश्यक था कि किस प्रकार एक साधक इस उपदेश का पालन कर सकता है। इनका एक व्यावहारिक उपाय है? प्रार्थना। जिसका निर्देश इस श्लोक के अन्त में इन शब्दों में किया है? मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ? जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यह श्लोक दर्शाता है कि जब हमारी बहिर्मुखी प्रवृत्ति बहुत कुछ मात्रा में क्षीण हो जाती है? तब हमें अपनी बुद्धि को सजगतापूर्वक संसार के आदिस्रोत सच्चिदानन्द परमात्मा में भक्ति और समर्पण के भाव के साथ समाहित करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस आदि पुरुष का स्वरूप तथा उसके अनुभव के उपाय को बताना इस अध्याय का विषय है।किन गुणों से सम्पन्न साधक उस पद को प्राप्त होते हैं सुनो
Sri Anandgiri
।।15.4।।उद्धृत्य किं कर्तव्यं तदाह -- तत इति। पश्चादश्वत्थादूर्ध्वं व्यवस्थितमित्यर्थः। किं तत्पदं यदन्विष्य ज्ञातव्यं तदाह -- यस्मिन्निति। येन सर्वं पूर्णं पूर्षु वा शयानं पुरुषं प्रपद्ये शरणं गतोऽस्मीत्यर्थः। विवर्तवादानुरोधिनं दृष्टान्तमाह -- ऐन्द्रेति।
Sri Dhanpati
।।15.4।।No commentary.
Sri Madhavacharya
।।15.4।।तदर्थं च तमेव प्रपद्ये प्रपद्येत। तच्चोक्तं तत्रैव तं वै प्रपद्येत यं वै प्रपद्य न शोचति न हृष्यति न जायते न म्रियते तद्ब्रह्म मूलं तच्छित्सुः इति।नारायणेन दृष्टश्च प्रतिबुद्धो भवेत्पुमान् इति च मोक्षधर्मे। छेदनोपायो ह्यत्राकाङ्क्षितः न च भगवतोऽन्यः शरण्योऽस्ति।
Sri Neelkanth
।।15.4।।तमिममश्वत्थं छित्त्वा किं कर्तव्यमत आह -- तत इति। न केवलं निर्विकल्पसमाधिना तदसंङ्गमात्रेण कृतार्थता किं तर्हि ततोऽसङ्गान्तरं तत् श्रुतिप्रसिद्धं पदनीयं ब्रह्म परिमार्गितव्यं श्रुतियुक्तिबलेनाहमेव ब्रह्मास्मीति ज्ञातव्यम्। यस्मिन्पदे निर्विकल्पे गताः प्राप्ताः सन्तो न निवर्तन्ति न पुनर्निवर्तन्ते। तमेव प्रत्यगानन्दमाद्यं पुरुषं पुरि शरीरे शयानमहमपि प्रपद्ये शरणागतोऽस्मीति भावयेत्। भगवत एव वा इदं वचनं लोकशिक्षार्थं वर्त एव च कर्मणीतिवत्। कोऽसौ पुरुषः यतः पुराणी आद्या प्रवृत्तिःसोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय इत्येवंरूपा प्रसृता अस्मास्वपि प्रवृत्ता। यतो वयमपि इदानीं कामयामहे,धनादिना वयं भूयांसः स्याम प्रजया प्रजायेमहीति चेति। येनेयं प्रवृत्तिर्दर्शिता तत्प्रणामेनैव सा निवर्तिष्यत इत्यर्थः।
Sri Sridhara Swami
।।15.4।। तत इति। ततस्तस्य मूलभूतं तत्पदं वस्तु वैष्णवं पदं परिमार्गितव्यमन्वेष्टव्यम्। कीदृशम्। यस्मिन्गता यत्पदं प्राप्ताः सन्तो भूयो न निवर्तन्ति। नावर्तन्त इत्यर्थः। अन्वेषणप्रकारमाह। यत एषा पुराणी चिरंतनी संसारप्रवृत्तिः प्रसृता विस्तृता तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये शरणं व्रजामीत्येवमेकान्तभक्त्यान्वेष्टव्यमित्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।15.4।।अस्य वृक्षस्य चतुर्मुखादित्वेन ऊर्ध्वमूलत्वं तत्संतानपरम्परया मनुष्याग्रत्वेन अधःशाखत्वं मनुष्यत्वे कृतैः कर्ममिः मूलभूतैः पुनः अपि अधः च ऊर्ध्वं च प्रसृतशाखत्वम् इति यथा इदं रूपं निर्दिष्टं न तथा,संसारिभिः उपलभ्यते।मनुष्यः अहं देवदत्तस्य पुत्रो यज्ञदत्तस्य पिता तदनुरूपपरिग्रहः च इति एतावन्मात्रम् उपलभ्यते।तथा अस्य वृक्षस्य अन्तो विनाशः अपि गुणमयभोगेषु असङ्गकृतः इति न उपलभ्यते तथा अस्य गुणसङ्ग एव आदिः इति न उपलभ्यते। तस्य प्रतिष्ठा च अनात्मनि आत्माभिमानरूपम् अज्ञानम् इति न उपलभ्यतेप्रतितिष्ठति अस्मिन् एव इति हि अज्ञानम् एव अस्य प्रतिष्ठा।एनम् उक्तप्रकारं सुविरूढमूलं सुष्ठु विविधं रूढमूलम् अश्वत्थं सम्यग्ज्ञानमूलेन दृढेन गुणमयभोगासङ्गाख्येन शस्त्रेण छित्त्वा ततः विषयासङ्गाद् हेतोः तत् पदं परिमार्गितव्यम् अन्वेषणीयाम् यस्मिन् गता भूयः न निवर्तन्ते।कथम् अनादिकालप्रवृत्तो गुणमयभोगसङ्गः तन्मूलं च विपरीतज्ञानं निवर्तते इति अत्र आह --,अज्ञानादिनिवृत्तये तम् एव च आद्यं कृत्स्नस्य आदिभूतम्।मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। (गीता 9।10)अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।। (गीता 10।8)मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। (गीता 7।7) इत्यादिषु उक्तम् आद्यं पुरुषम् एव शरणं प्रपद्ये तम् एव शरणं प्रपद्येत। यतः यस्मात् कृत्स्नस्य स्रष्टुः इयं गुणमयभोगसङ्गप्रवृत्तिः पुराणी पुरातनी प्रसृता। उक्तं हि मया एव पूर्वम् एतत् -- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (गीता 7।14) इति।प्रपद्य इयतः प्रवृत्तिः इति वा पाठः। तम् एव च आद्यं पुरुषं प्रपद्य शरणमुपगम्य इयतः अज्ञाननिवृत्त्यादेःकृत्स्नस्य एतस्य साधनभूता प्रवृत्तिः पुराणी पुरातनी प्रसृता। पुरातनानां मुमुक्षूणां प्रवृत्तिः पुराणी पुरातना हि मुमुक्षवो माम् एव शरणम् उपगम्य निर्मुक्तबन्धाः संजाता इत्यर्थः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।15.4।।तत इति। ततो गुरुमुपसृत्य ततोऽश्वत्थादूर्ध्वं व्यवस्थितं तद्वैष्णवं पदं वेदान्तवाक्यविचारेण परिमार्गितव्यं मार्गयितव्यमन्वेष्टव्यम्।सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः इति श्रुतेः तत्पदं श्रवणादिनां ज्ञातव्यमित्यर्थः। किं तत्पदम्। यस्मिन्पदे गताः प्रविष्टा ज्ञानेन न निवर्तन्ति नावर्तन्ते भूयः पुनः संसाराय। कथं तत् परिमार्गितव्यमित्याह -- तमेवेति। यः पदशब्देनोक्तस्तमेव चाद्यमादौ भवं पुरुषं येनेदं सर्वं पूर्णं तं पुरिषु पूर्षु वा शयानं प्रपद्ये शरणं गतोऽस्मीत्येवं तदेकशरणतया तदन्वेष्टव्यमित्यर्थः। तं कं पुरुषम्। यतो यस्मात्पुरुषात्प्रवृत्तिर्मायामयसंसारवृक्षप्रवृत्तिः पुराणी चिरंतन्यनादिरेषा प्रसृता निःसृतैन्द्रजालिकादिव मायाहस्त्यादि तं पुरुषं प्रपद्य इत्यन्वयः।
Sri Jayatritha
।।15.4।।वाक्यार्थस्य समाप्तत्वात्तमेव चाद्यं इति व्यर्थमित्यतः सङ्गतिं सूचयन्नाह -- तदर्थं चेति विमर्शार्थं च। विश्वविमर्शाद्ब्रह्मज्ञानं भवतु स विमर्श एव कथं स्यात् इत्याकाङ्क्षां तदर्थमित्यनेन सूचयति। तर्हि चिच्छिदिषुं प्रति तदुपायो विधेयः? न तु प्रपद्य इति वचनं सङ्गतमित्यतःव्यत्ययो बहुलम् [अष्टा.3।1।85] इति वचनमाश्रित्याह -- प्रपद्येतेति। कुतो व्यत्ययः इत्यतः श्रुतिस्मृतिसंवादादित्याह -- तच्चेति। तद्विश्वं च्छित्सुः। अभ्यासलोप इडभावश्च च्छान्दसः। चिच्छिदिषुः। विश्वविमर्शार्थी यद्ब्रह्म विश्वस्य मूलं तमेव पुरुषं प्रपद्येतेत्यर्थः। प्रपत्त्या प्रसन्नेन नारायणेन दृष्टः पुमान्प्रतिबुद्धो विश्वविमर्शक्षमो भवेदित्यर्थः। इतश्च पुरुषव्यत्ययोऽत्र व्याख्येय इत्याह -- छेदनेति। अतस्तदुपायविधानमेव सङ्गतमिति शेषः। न केवलमुत्तमपुरुषोऽत्रानुपयुक्तः किन्त्वयुक्तश्चेत्याह -- न चेति। तमेव प्रपद्य इत्येवं परिमार्गितव्यमिति सम्बन्धस्त्वयुक्तः? अस्य परिमार्गणत्वाभावात्।
Sri Purushottamji
।।15.4।।ततः पदमिति। ततस्तदनन्तरं तत्पदं अलौकिकस्य तस्य मूलभूतं परिमार्गितव्यं परितो विचारपूर्वकमालोचनरीत्या मार्गितव्यमन्वेषणीयम्। अन्वेषणे प्रयोजनमाह -- यस्मिन्निति। यस्मिन् पदे गताः प्राप्ता भूयो न निवर्तन्ते? संसारे नागच्छन्तीत्यर्थः। कथमन्वेषणीयं इत्यत आह -- तमेवेति। यतः पुरुषोत्तमात् पुराणी सनातनी नित्या प्रवृत्तिर्भक्त्यात्मिका भगवदनुप्रवृत्तिः प्रसृता विस्तृता प्रकटिता तमेव आद्यं च पुनः पुरुषं भावात्मतया पुरुषरूपं शरणं प्रपद्ये व्रजामीति भावः।
Sri Shankaracharya
।।15.4।। --,ततः पश्चात् यत् पदं वैष्णवं तत् परिमार्गितव्यम्? परिमार्गणम् अन्वेषणं ज्ञातव्यमित्यर्थः। यस्मिन् पदे गताः प्रविष्टाः न निवर्तन्ति न आवर्तन्ते भूयः पुनः संसाराय। कथं परिमार्गितव्यमिति आह -- तमेव च यः पदशब्देन उक्तः आद्यम् आदौ भवम् आद्यं पुरुषं प्रपद्ये इत्येवं परिमार्गितव्यं तच्छरणतया इत्यर्थः। कः असौ पुरुषः इति? उच्यते -- यतः यस्मात् पुरुषात् संसारमायावृक्षप्रवृत्तिः प्रसृता निःसृता? ऐन्द्रजालिकादिव माया? पुराणी चिरंतनी।।कथंभूताः तत् पदं गच्छन्तीति? उच्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।15.4।।तद्विशिनष्टि -- यस्मिन्निति। यत्र गता ज्ञानिनो भूयो न निवर्त्तन्ते। तत्र मुख्यं साधनं भक्तिमाह -- तमेव चाद्यं प्रपद्य इति। यतः पुराणी कृत्स्नस्य जगतः कर्मसु प्रवृत्तिरुत्पत्तिः प्रसृता भवति। तं प्रपद्य इति वा पाठः।
Sri Abhinavgupta
।।15.3 -- 15.5।।न रूपमित्यादि अव्ययं तदित्यन्तम्। तं छित्त्वेति। विशेष्ये क्रियाऽभिधीयमाना सामर्थ्यादत्र विशेषणपदमुपादत्ते दण्डी प्रैष्याननुब्रूयात् इति विधिवत्। तेन अधोरूढानि मूलानि अस्य छिन्द्यादिति। तत् पदं प्रशान्तम् अव्ययं पदं तदेव।
Swami Sivananda
15.4 ततः then? पदम् goal? तत् That? परिमार्गितव्यम् should be sought for? यस्मिन् whither? गताः gone? न not? निवर्तन्ति return? भूयः again? तम् that? एव even? च and? आद्यम् primeval? पुरुषम् Purusha? प्रपद्ये I seek refuge? यतः whence? प्रवृत्तिः activity or energy? प्रसृता streamed forth? पुराणी ancient.Commentary That which fills the whole world with the form of ExistenceKnowledgeBliss is Purusha. Or? that which sleeps in this Puri (city) of the body is the Purusha.Singleminded devotion which consists of ceaselessly thinking of or meditating on the Supreme Being is the sure means of attaining Selfrealisation. Taking sole refuge in the Primeval Purusha is the means to know or realise that supreme goal goind whither the wise do not return again to this world of death.The aspirant should know the abode of Vishnu. He should struggle hard to reach it. He should seek it by taking refuge in the Primeval Purusha. If he reaches this immortal abode of Vishnu or the imperishable Brahmic seat of ineffable splendour and glory he will never return to this mortal world.The Primeval Purusha or the pure? Supreme Being Who is ExistenceKnowledgeBliss Absolute is the goal or the supreme abode or the abode of Vishnu. Just as illusory objects like elephants? horses? etc.? come forth through the jugglery of the magician? so also this ancient energy or the original divine power or emanation of this tree or illusory Samsara has streamed forth from that Primeval Purusha.What sort of persons reach that goal eternal Listen.