Chapter 3, Verse 13
Verse textयज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।
Verse transliteration
yajña-śhiṣhṭāśhinaḥ santo muchyante sarva-kilbiṣhaiḥ bhuñjate te tvaghaṁ pāpā ye pachantyātma-kāraṇāt
Verse words
- yajña-śhiṣhṭa—of remnants of food offered in sacrifice
- aśhinaḥ—eaters
- santaḥ—saintly persons
- muchyante—are released
- sarva—all kinds of
- kilbiṣhaiḥ—from sins
- bhuñjate—enjoy
- te—they
- tu—but
- agham—sins
- pāpāḥ—sinners
- ye—who
- pachanti—cook (food)
- ātma-kāraṇāt—for their own sake
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।3.13।। यज्ञशेष- (योग-) का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.13।। यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं।।
Swami Adidevananda
Pious people who eat the remnants of sacrifices are freed from all sins, whereas those who are sinful and cook only for their own sake will only incur sin.
Swami Gambirananda
By partaking in the remnants of sacrifices, they become freed from all sins. But those who are unholy and cook for themselves incur sin.
Swami Sivananda
The righteous who eat the remnants of the sacrifice are freed from all sins; but those sinful ones who cook food solely for their own sake indeed consume sin.
Dr. S. Sankaranarayan
The righteous persons, who eat the remnants of the actions to be performed necessarily, are freed from all sins. But those who cook, intending for their own selves, are sinners and consume sin.
Shri Purohit Swami
The sages who enjoy the food that remains after the sacrifice is made are freed from all sins; whereas, the selfish who spread their feast only for themselves feed on sin alone.
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।3.13।।अतश्च यजन्त एव श्रेष्ठा नेतरा इत्याह यज्ञशिष्टाशिन इति। वैश्वदेवादियज्ञावशिष्टं येऽश्नन्ति ते पञ्चसूनाकृतैः सर्वैः किल्बिषैर्मुच्यन्ते। पञ्चसूनाश्च समृतावुक्ताः कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य ताभिः स्वर्गं न विन्दति इति। ये त्वात्मनो भोजनार्थमेवान्नं पचन्ति न तु वैश्वदेवाद्यर्थ ते पापा दुराचारा अघमेव भुञ्जते।
Swami Sivananda
3.13 यज्ञशिष्टाशिनः who eat the remnants of the sacrifice? सन्तः the righteous? मुच्यन्ते are freed? सर्वकिल्बिषैः from all sins? भुञ्जते eat? ते those? तु indeed? अघम् sin? पापाः sinful ones? ये who? पचन्ति cook? आत्मकारणात् for their own sake.Commentary Those who? after performing the five great sacrifices? eat the remnants of the food are freed from all the sins committed by these five agents of insect slaughter? viz.? (1) the pestle and mortar? (2) the grinding stone? (3) the fireplace? (4) the place where the waterpot is kept? and (5) the broom. These are the five places where injury to life is daily committed. The sins are washed away by the performance of the five MahaYajnas or great sacrifices which every Dvija(twicorn or the people belonging to the first three castes in Hindu society? especially the Brahmin) ought to perform1. DevaYajna Offering sacrifices to the gods which will satisfy them?2. BrahmaYajna or RishiYajna Teaching and reciting the scriptures which will satisfy Brahman and the Rishis?3. PitriYajna Offering libations of water to ones ancestors which will satisfy the manes?4. NriYajna The feeding of the hungry and the guests? and?5. BhutaYajna The feeding of the subhuman species? such as animals? birds? etc.
Sri Vallabhacharya
।।3.13।।यज्ञशिष्टाशिन इति। पञ्चविधयज्ञो भगवत्स्वरूपस्तच्छिष्टाशिनः सर्वेऽपि मुच्यन्ते गृहिणः।
Sri Shankaracharya
।।3.13।। देवयज्ञादीन् निर्वर्त्य तच्छिष्टम् अशनम् अमृताख्यम् अशितुं शीलं येषां ते यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः सर्वपापैः चुल्ल्यादिपञ्चसूनाकृतैः प्रमादकृतहिंसादिजनितैश्च अन्यैः। ये तु आत्मंभरयः भुञ्जते ते तु अघं पापं स्वयमपि पापाः ये पचन्ति पाकं निर्वर्तयन्ति आत्मकारणात् आत्महेतोः।।इतश्च अधिकृतेन कर्म कर्तव्यम् जगच्चक्रप्रवृत्तिहेतुर्हि कर्म। कथमिति उच्यते
Sri Purushottamji
।।3.13।।ननु पूर्वं यजनव्यतिरेकेण यथा दत्तं तथैवाऽग्रेऽपि दास्यन्त एव अतः किं यजनेन इत्यत आह यज्ञशिष्टाशिन इति। सन्तः पूर्वदत्तस्वरूपाभिज्ञाः यज्ञशिष्टाशिनो भूत्वा सर्वकिल्बिषैर्मुच्यन्ते। अत्रायं भावः वृष्ट्यादिना पूर्वमन्नादिरसोत्पत्तिस्तु भगवद्भोगार्थं तेन स्वभोगकरणं पापरूपम्। अतो ये सन्तो भक्तास्तदुत्पत्तिप्रयोजनज्ञातारो भगवदर्थं पाकादिकं कृत्वा भगवते तत्सर्वं समर्प्य तदुपभुक्तावशिष्टभोजिनस्तेसर्वपापैः सेवाप्रतिबन्धरूपैर्मुच्यन्ते। ये तु पापाः पापरूपा आत्मकारणात् पचन्ति पाकादिक्रियां कुर्वन्ति ते तु अघं पापमेव भुञ्जते।
Sri Madhusudan Saraswati
।।3.13।।ये तु वैश्वदेवादियज्ञावशिष्टममृतं येऽश्नन्ति ते सन्तः शिष्टा वेदोक्तकारित्वेन देवाद्यृणापाकरणात्। अतस्ते मुच्यन्ते। सर्वैर्विहिताकरणनिमित्तैः पूर्वकृतैश्च पञ्चसूनानिमित्तैः किल्बिषैः। भूतभाविपातकासंसर्गिणस्ते भवन्तीत्यर्थः। एवमन्वये भूतभाविपापाभावमुक्त्वा व्यतिरेके दोषमाह भुञ्जते इति। ते वैश्वदेवाद्यकारिणोऽघं पापमेव। तुशब्दोऽवधारणे। ये पापाः पञ्चसूनानिमित्तं प्रमादकृतहिंसानिमित्तं च कृतपापाः सन्तः आत्मकारणादेव पचन्ति नतु वैश्वदेवाद्यर्थम्। तथाच पञ्चसूनादिकृतपापे विद्यमानएव वैश्वदेवादिनित्यकर्माकरणनिमित्तमपरं पापमाप्नुवन्तीति भुञ्जते ते त्वघं पापा इत्युक्तम्। तथाच स्मृतिःकण्डणी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य ताभिः स्वर्गं न विन्दति इति।पञ्चसूनाकृतं पापं पञ्चयज्ञैर्व्यपोहति। इति च। श्रुतिश्चइदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते स य एतदुपास्ते न स पाप्मनो व्यावर्तते मिश्रं ह्येतत् इति। मन्त्रवर्णोऽपिमोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य। नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी इति। इदं चोपलक्षणं पञ्चमहायज्ञानां स्मार्तानां श्रौतानां च नित्यकर्मणाम्। अधिकृतेन नित्यानि कर्माण्यवश्यमनुष्ठेयानीति प्रजापतिवनार्थः।
Sri Abhinavgupta
।।3.13।।यज्ञशिष्टेति। अवश्यकर्तव्यतारूपशासनमहिमायातान् भोगान् येऽश्नन्ति अवान्तरव्यापारमात्रतया अत एव च पृथक्फलत्वाभावाङ्गतया अथ च इन्द्रियात्मकदेवगणतर्पणलक्षणयज्ञादवशिष्टम् अन्तःसारस्वात्मस्थित्यानन्दलक्षणविघसं येऽश्नन्ति तत्रारूढा ( तत्रामूढाः) भवन्ति तदुपादेयोपायतया(S तत्रोपादे ) तु विषयभोगं वाञ्छन्ति ते सर्वाकल्बिषैः शुभाशुभैः मुच्यन्ते। ये त्वात्मकारणादिति अविद्यावशात् स्थूलमेव विषयभोगं परत्वेन (S भोगपरत्वेन) मन्वानाः आत्मार्थमिदं वयं कुर्म इति कुर्वते त एवाघं शुभाशुभात्मकं लभन्ते।
Swami Ramsukhdas
3.13।। व्याख्या--'यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः'--कर्तव्यकर्मोंका निष्कामभावसे विधिपूर्वक पालन करनेपर (यज्ञशेषके रूपमें) योग अथवा समता ही शेष रहती है। कर्मयोगमें यह खास बात है कि संसारसे प्राप्त सामग्रीके द्वारा ही कर्म होता है। अतः संसारकी सेवामें लगा देनेपर ही वह कर्म 'यज्ञ' सिद्ध होता है। यज्ञकी सिद्धिके बाद स्वतः अवशिष्ट रहनेवाला 'योग' अपने लिये होता है। यह योग (समता) ही यज्ञशेष है, जिसको भगवान्ने चौथे अध्यायमें 'अमृत' कहा है 'यज्ञशिष्टामृतभुजः' (4। 31)। 'मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः'-- यहाँ 'किल्बिषैः' पद बहुवचनान्त है, जिसका अर्थ है--सम्पूर्ण पापोंसे अर्थात् बन्धनोंसे। परन्तु भगवान्ने इस पदके साथ 'सर्व' पद भी दिया है ,जिसका विशेष तात्पर्य यह हो जाता है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेपर मनुष्यमें किसी भी प्रकारका बन्धन नहीं रहता। उसके सम्पूर्ण (सञ्चित, प्रारब्ध और क्रियमाण) कर्म विलीन हो जाते हैं (टिप्पणी प0 135) (गीता 4। 23)। सम्पूर्ण कर्मोंके विलीन हो जानेपर उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 4। 31)। इसी अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने यज्ञार्थ कर्मसे अन्यत्र कर्मको बन्धनकारक बताया और चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें यज्ञार्थ कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन होनेकी बात कही। इन दोनों श्लोकों (3। 9 तथा 4। 23) में जो बात आयी है, वही बात यहाँ 'सर्वकिल्बिषैः' पदसे कही गयी है। तात्पर्य है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनरूप कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं। पाप-कर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं, सकामभावसे किये गये पुण्यकर्म भी (फलजनक होनेसे) बन्धनकारक होते हैं। यज्ञशेष-(समता-) का अनुभव करनेपर पाप और पुण्य--दोनों ही नहीं रहते--'बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते' (गीता 2। 50)। अब विचार करें कि बन्धनका वास्तविक कारण क्या है? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये--इस कामनासे ही बन्धन होता है। यह कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है (गीता 3। 37)। अतः कामनाका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।वास्तवमें कामनाकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। कामना अभावसे उत्पन्न होती है और 'स्वयं' (सत्स्वरूप) में किसी प्रकारका अभाव है ही नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये 'स्वयं' में कामना है ही नहीं। केवल भूलसे शरीरादि असत् पदार्थोंके साथ अपनी एकता मानकर मनुष्य असत् पदार्थोंके अभावसे अपनेमें अभाव मानने लगता है और उस अभावकी पूर्तिके लिये असत् पदार्थोंकी कामना करने लगता है। साधकको इस बातकी तरफ खयाल करना चाहिये कि आरम्भ और समाप्त होनेवाली क्रियाओंसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ ही तो मिलेंगे। ऐसे उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे मनुष्यके अभावकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। जब इन पदार्थोंसे अभावकी पूर्ति होनेका प्रश्न ही नहीं है, तो फिर इन पदार्थोंकी कामना करना भी भूल ही है। ऐसा ठीक-ठीक विचार करनेसे कामनाकी निवृत्ति सहज हो सकती है।हाँ, अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थोंको कभी भी अपना तथा अपने लिये न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगानेसे इन पदार्थोंसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, जिससे तत्काल अपने सत्स्वरूपका बोध हो जाता है। फिर कोई अभाव शेष नहीं रहता। जिसके मनमें किसी प्रकारके अभावकी मान्यता (कामना) नहीं रहती, वह मनुष्य जीते-जी ही संसारसे मुक्त है।
Swami Chinmayananda
।।3.13।। उत्पादन किये बिना समाज के धन पर जीने वाले अपराधी व्यक्तियों स सर्वथा भिन्न लोगों के विषय में इस श्लोक में वर्णन है। श्रेष्ठ पुरुष यज्ञ भावना से कर्म करने के पश्चात् प्राप्त फल में अपने भाग को ही ग्रहण करते हैं और इस प्रकार सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।पूर्व काल में किये गये पाप वर्तमान में पीड़ा के कारण हैं तो वर्तमान के पाप भविष्य में दुखों के कारण बनेंगे। अत समाज में दुखों को समाप्त करने का एक मात्र उपाय है समाज के जागरूक पुरुषों का यज्ञभावना से सामूहिक कर्म करके अवशिष्ट फल को ग्रहण कर सन्तुष्ट रहना।इसके विपरीत जो केवल अपने लिये ही पकाते हैं वे पाप को ही खाते हैं। इस श्लोक से प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण वैयक्तिक सम्पत्ति के सर्वथा विरुद्ध हैं परन्तु एक साम्यवादी व्यक्ति के अर्थ में नहीं। समाज के धन को अपना ही समझ कर उसके परिग्रह के सिद्धांत का भगवान् विरोध करते हैं। जो मनुष्य धन के लोभ से केवल अपने भोग के लिए समाज के दरिद्र और अभागे लोगों के कष्ट की ओर ध्यान दिये बिना धन संग्रह करता है उसे ही यहाँ पाप को खाने वाला कहा गया है।निम्नलिखित कारणों से भी मनुष्य को कर्म करने चाहिये क्योंकि कर्म से ही विश्वचक्र चलता है। कैसे इसका उत्तर है
Sri Anandgiri
।।3.13।।देवादिभ्यः संविभागमकृत्वा भुञ्जानानां प्रत्यवायित्वमुक्त्वा तदन्येषां सर्वदोषराहित्यं दर्शयति ये पुनरिति। यज्ञशिष्टाशिनो ये पुनस्ते तादृशाः सन्तः सर्वकिल्बिषैर्मुच्यन्त इति योजना। तैर्दत्तानित्यादिनोक्तं निगमयति भुञ्जत इति। देवयज्ञादीनित्यादिशब्देन पितृयज्ञो मनुष्ययज्ञो भूतयज्ञो ब्रह्मयज्ञश्चेति चत्वारो यज्ञा गृह्यन्ते चुल्लीशब्देन पिठरधारणाद्यर्थक्रियां कुर्वन्तो विन्यासविशेषवन्तस्त्रयो ग्रावाणो विवक्ष्यन्ते। आदिशब्देन कण्डनी पेषणी मार्जन्युदककुम्भश्चेत्येते हिंसाहेतवो गृहीतास्तान्येतानि पञ्च प्राणिनां सूनास्थानानि हिंसाकारणानि तत्प्रयुक्तैः सर्वैरपि बुद्ध्यबुद्धिपूर्वकैर्दुरितैर्मुच्यन्त इति संबन्धः। प्रमादो विचारव्यतिरेकेणाबुद्धिपूर्वकमुपनतं पादपातादिकर्म तेन प्राणिनां हिंसा संभाव्यते। आदिशब्देनाशुचिसंस्पर्शादि गृहीतं तदुत्थैश्च पापैर्महायज्ञकारिणो मुच्यन्ते। उक्तंहिकण्डनं पेषणं चुल्ली उदकुम्भश्च मार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति इति।पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्यवस्करः। कण्डनी चैव कुम्भश्च बध्यन्ते यांस्तु वाहयन् इति च। अस्यायमर्थः या यथोक्ताः पञ्चसंख्याका गृहस्थस्य सूनास्ता यो वाहयन्नापादयन् वर्तते तेन प्राणिनो बुद्धिपूर्वकमबुद्धिपूर्वकं च बध्यन्ते तत्प्रयुक्तं सर्वमपि पापं महायज्ञानुष्ठानात्प्रणश्यतीति महायज्ञानुष्ठानस्तुत्यर्थम्। तदनुष्ठानविमुखान्निन्दति ये त्विति। आत्मंभरित्वमेव स्फोरयति ये पचन्तीति। स्वदेहेन्द्रियपोषणार्थमेव पाकं कुर्वतां देवयज्ञादिपराङ्मुखानां पापभूयस्त्वं दर्शयति भुञ्जत इति। पाठक्रमस्त्वर्थक्रमादपबाधनीयः।
Sri Dhanpati
।।3.13।। ये पुनर्यज्ञान्ब्रह्मयज्ञो देवयज्ञः पितृयज्ञस्तथैवच। भूतयज्ञो नृयज्ञश्च पञ्चयज्ञाः प्रकीर्तिताः।। अध्यापनमध्ययनं चाद्यः होमो द्वितीयः तर्पणं श्राद्धं च तृतीयः भूतेभ्यो बलिप्रदानं चतुर्थः अतिथिपूजनं पञ्चमः इत्युक्तान्कृत्वा तच्छिष्टममृतमशितुं शीलं येषां ते सन्तः सर्वपापैःकण्डणी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य वर्तन्तेऽहरहः सदा इतिस्मृत्युक्तैः पञ्चसूनाकृतैरन्यैश्च मुच्यन्ते। ये त्वन्ये आत्मकारणात्स्वोदरपूरर्णार्थे नतु वैश्वदेवाद्यर्थं पाकं कुर्वन्ति ते तु पापं भुञ्जते। तुशब्दः पूर्वेभ्यो वैलक्षण्यार्थः। अवधारणां तुसर्वं वाक्यं सावधारणम् इति न्यायलब्धम्। एतेन तुशब्दोऽवधारण इत्याचार्यविरुद्धोक्तिः प्रत्युक्ता।
Sri Neelkanth
।।3.13।।ये तु यज्ञशिष्टाशिनः वैश्वदेवाविशेषान्नभोजनशीलाः सन्तः ऋणापाकरणात् ते मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः प्रमादकृतैर्विहिताकरणनिमित्तैः पञ्चसूनानिमित्तैर्वा। ये त्वात्मकारणात्स्वार्थमेव पचन्ति न तु पञ्चमहायज्ञार्थं ते पापाः स्वयं पापरूपा एव सन्तः पापमेव भुञ्जते। तथा च स्मृतिःकण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य ताभिः स्वर्गं न विन्दति। इतिपञ्चसूनाकृतं पापं पञ्चयज्ञैर्व्यपोहति इति च। श्रुतिश्चइदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते स य एतदुपासते न स पाप्मनो व्यावर्तते मिश्रं ह्येतत् इति। मन्त्रवर्णोऽपिमोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य। नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी इति।
Sri Ramanujacharya
।।3.13।।इन्द्राद्यात्मना अवस्थितपरमपुरुषाराधनार्थतया एव द्रव्याणि उपादाय विपच्य तैः यथावस्थितं परमपुरुषम् आराध्य तच्छिष्टाशनेन ये शरीरयात्रां कुर्वते ते तु अनादिकालोपार्जि तैः किल्बिषैः आत्मयाथात्म्यावलोकनविरोधिभिः सर्वैः विमुच्यन्ते।ये तु परमपुरुषेण इन्द्राद्यात्मना स्वाराधनाय दत्तानाम् आत्मार्थतया उपादाय विपच्य अश्नन्ति ते पापात्मानः अघम् एव भुञ्जते। अघपरिणामित्वाद् अघम् इति उच्यते। आत्मावलोकनविमुखा नरकाय एव पच्यन्ते।पुनरपि लोकदृष्ट्या शास्त्रदृष्ट्या च सर्वस्य यज्ञमूलत्वं दर्शयित्वा यज्ञानुवर्तनस्य अवश्यकार्यताम् अननुवर्तने च दोषं च आह
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।3.13।।पुनरुक्तिपरिहारायार्थान्तरपरत्वव्युदासाय चाह तदेव विवृणोतीति। तत्र पूर्वार्धंश्रेयः परमवाप्स्यथ 3।11 इत्यस्य प्रकारकथनम् उत्तरार्धं तुतैर्दत्तान् इत्याद्युक्तचोरत्वप्रपञ्चनरूपम्। यज्ञाकृष्टयष्टव्याद्याकारविशेषकथनम् इन्द्राद्यात्मनेत्यादि। अवधारणेन केवलेन्द्राद्यर्थत्वस्वार्थत्वयोर्व्यवच्छेदः। द्रव्योपादानपचनदशयोरपि परमपुरुषाराधनार्थत्वबुद्धिः कार्येति ज्ञापनायद्रव्याण्युपादायेत्याद्युक्तम्। एतच्चये पचन्ति इत्येतद्व्यतिरेकलब्धम्। केवलेन्द्राद्याराधनस्यापि वस्तुतः परमपुरुषाराधनरूपत्वादत्र तद्व्यच्छेदाय तत्तद्देवतायजनस्य परमपुरुषपर्यन्तत्वसिद्धये चयथावस्थितमित्युक्तम्। यज्ञशिष्टममृताख्यमशितुं शीलं येषां ते यज्ञशिष्टाशिनः। रागप्राप्तशरीरयात्रा यज्ञशिष्टेनैव कार्येति नियमः।सन्तः यज्ञशिष्टाशिन एव वर्तमाना इत्यर्थः। तदेतदुच्यते शरीरयात्रां कुर्वते इति। यद्वासन्तः इति पदमुत्तरार्धस्थपापशब्दप्रतिस्थानीयत्वात् साधुविषयम्। उत्तरार्धवदत्रापि साध्यसाधनांशविभागद्योतनाय यत्तच्छब्दाभ्यां वाक्यभेदकरणम्। तुशब्देन सद्भ्यः पापानां विशेषे बोधिते तेभ्योऽपि सतां विशेषोऽर्थात्सिद्ध इति द्योतनायाहते त्वनादीति। अत्र चुल्ल्यादिपञ्चसूनाकृतपापमात्रस्य व्यवच्छेदार्थं सर्वशब्दबहुवचनाभ्यां प्रदर्शितं किल्बिषानन्त्यं समर्थयितुंअनादिकालोपार्जितैरित्युक्तम्। द्विविधानि किल्बिषाणि प्राप्तिविरोधीनि उपायविरोधीनि चेति। तत्र प्राप्तिविरोधीनि भक्तियोगैकनिवर्त्यानि। तेभ्योऽत्र सर्वशब्दसङ्कोचमभिप्रेत्योक्तंआत्मयाथात्म्यावलोकनविरोधिभिरिति। स्मरन्ति चज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि म.भा.12।204।8 इति। एतेन विरोधित्वाविशेषात् सांसारिकपुण्यान्यप्यत्र किल्बिषशब्देनोच्यन्ते इत्यपि सूचितम्। पूर्वोत्तराघविघातिनो भक्तियोगाद्विशेषसूचनायउपार्जितेत्युक्तम्।आत्मकारणात् इत्यत्र कारणशब्दः प्रयोजनरूपहेतुत्वपर इति ज्ञापनायोक्तंआत्मार्थतयेति। पचनमात्रस्याघभोजनत्वेन निन्दानुपपत्तेःआत्मकारणात्पचन्ति इत्यनेनार्थसिद्धमुक्तंअश्नन्तीति। पुल्लिङ्गोऽत्र पापशब्दस्तद्गुणसारन्यायात् पापविशिष्टविषय इत्यभिप्रायेणोक्तंपापात्मान इति पापस्वभावा इत्यर्थः। अघशब्दस्यभोज्यनिन्दार्थमौपचारिकत्वद्योतनायाघमेवेत्येवकार उक्तः। उपचारनिमित्तं सम्बन्धमाह अघपरिणामित्वादिति अघहेतुत्वादित्यर्थः। फलितमनिष्टद्वयमाह आत्मावलोकनविमुखा इति। आत्मार्थं पचमानस्य पूर्वकिल्बिषनिवृत्त्यभावादात्मावलोकनवैमुख्यम् उत्तरोत्तरकिल्विषहेतुत्वाच्च पुनर्नरकप्राप्तिरिति केवलाघो भवति केवलादी ऋक्सं.8।6।23।6तै.सं.2।8 इतिवचनाभिप्रेतमाहनरकायैवेति। न पुनरैहिकायोमुष्मिकाय वा सुखायेति भावः।