Chapter 3, Verse 5
Verse textन हि कश्िचत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
Verse transliteration
na hi kaśhchit kṣhaṇam api jātu tiṣhṭhatyakarma-kṛit kāryate hyavaśhaḥ karma sarvaḥ prakṛiti-jair guṇaiḥ
Verse words
- na—not
- hi—certainly
- kaśhchit—anyone
- kṣhaṇam—a moment
- api—even
- jātu—ever
- tiṣhṭhati—can remain
- akarma-kṛit—without action
- kāryate—are performed
- hi—certainly
- avaśhaḥ—helpless
- karma—work
- sarvaḥ—all
- prakṛiti-jaiḥ—born of material nature
- guṇaiḥ—by the qualities
Verse translations
Swami Gambirananda
For no one ever remains even for a moment without doing work, for all are made to work under compulsion by the gunas born of Nature.
Swami Ramsukhdas
।।3.5।। कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृतिके) परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.5।। कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है।।
Swami Adidevananda
No one can remain still for even a moment without doing work; for everyone is compelled to act, despite themselves, by the Gunas born of Nature.
Swami Sivananda
Verily, no one can remain for even a moment without performing action; for everyone is made to act helplessly, indeed, by the qualities born of Nature.
Dr. S. Sankaranarayan
For, no one can ever remain, even for a moment, as a non-performer of action; because everyone, not being master of themselves, is forced to perform action by the strands born of the Prakriti (Material cause).
Shri Purohit Swami
He cannot remain inactive even for a moment, for the qualities of Nature will compel him to act, whether he wills it or not.
Verse commentaries
Sri Abhinavgupta
।।3.4 3.5।।तथा हि न कर्मणामिति। न हीति। ज्ञानं कर्मणा रहितं न भवति कर्म च कौशलोपेतं ज्ञानरहितं न भवति इत्येकमेव वस्तु ज्ञानकर्मणी। तथाचोक्तम्।न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।ज्ञानक्रियाविनिष्पन्न आचार्यः पशुपाशहा।। इति तस्मात् ज्ञानान्तर्वर्ति कर्म अपरिहार्यम्। यतः परवश एव कायवाङ्मनसां परिस्पन्दात्मकत्वात् अवश्यं किञ्चित्करोति।
Swami Chinmayananda
।।3.5।। प्रकृति के सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में मनुष्य सदैव रहता है। क्षणमात्र भी पूर्णरूप से निष्क्रिय होकर वह नहीं रह सकता। निष्क्रियता जड़ पदार्थ का धर्म है। शरीर से कोई कर्म न करने पर भी हम मन और बुद्धि से क्रियाशील रहते ही हैं। विचार क्रिया केवल निद्रावस्था में लीन हो जाती है। जब तक हम इन गुणों के प्रभाव में रहते हैं तब तक कर्म करने के लिए हम विवश होते हैं।इसलिए कर्म का सर्वथा त्याग करना प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण असम्भव है। शारीरिक कर्म न करने पर भी मनुष्य व्यर्थ के विचारों में मन की शक्ति को गँवाता है। अत गीता का उपदेश है कि मनुष्य शरीर से तो कर्म करे परन्तु समर्पण की भावना से इससे शक्ति के अपव्यय से बचाव होने के साथसाथ उसके व्यक्तित्व का भी विकास होता है।आत्मस्वरूप को नहीं जानने वाले पुरुष के लिए कर्तव्य का त्याग उचित नहीं है।भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
3.5।। व्याख्या-- 'न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्'-- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग--किसी भी मार्गमें साधक कर्म किये बिना नहीं रह सकता। यहाँ 'कश्चित् क्षणम्' और 'जातु'--ये तीनों विलक्षण पद हैं। इनमें 'कश्चित्' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रहता, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी। यद्यपि ज्ञानीका अपने कहलानेवाले शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता, तथापि उसके कहलानेवाले शरीरसे भी हरदम क्रिया होती रहती है। 'क्षणम्'पदका प्रयोग करके भगवान् यह कहते हैं कि यद्यपि मनुष्य 'मैं हरदम कर्म करता हूँ' ऐसा नहीं मानता, तथापि जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह एक क्षणके लिये भी कर्म किये बिना नहीं रहता। 'जातु' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि जाग्रत्, स्वप्न्, सुषुप्ति, मूर्च्छा आदि किसी भी अवस्थामें मनुष्य कर्म किये बिना यह नहीं रह सकता। इसका कारण भगवान् इसी श्लोकके उत्तरार्धमें 'अवशः' पदसे बताते हैं कि प्रकृतिके परवश होनेके कारण उसे कर्म करने ही पड़ते हैं। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है। साधकको अपने लियेकुछ नहीं करना है। जो विहित कर्म सामने आ जाय, उसे केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे कर देना है। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे साधक निषिद्ध-कर्म तो कर ही नहीं सकता।बहुत-से मनुष्य केवल स्थूलशरीरकी क्रियाओंको कर्म मानते हैं, पर गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है। गीताने शारीरिक, वाचिक और मानसिक रूपसे की गयी मात्र क्रियाओंको कर्म माना है-- 'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (गीता 18। 15)। जिस शारीरिक अथवा मानसिक क्रियाओंके साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है, वे ही सब क्रियाएँ 'कर्म' बनकर उसे बाँधनेवाली होती हैं, अन्य क्रियाएँ नहीं।मनुष्योंकी एक ऐसी धारणा बनी हुई है, जिसके अनुसार वे बच्चोंका पालन-पोषण तथा आजीविका-व्यापार, नौकरी, अध्यापन आदिको ही कर्म मानते हैं और इनके अतिरिक्त खाना-पीना, सोना, बैठना, चिन्तन करना आदिको कर्म नहीं मानते। इसी कारण कई मनुष्य व्यापार आदि कर्मोंको छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा हूँ। परन्तु यह उनकी भारी भूल है। शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी स्थूलशरीरकी क्रियाएँ; नींद, चिन्तन आदि सूक्ष्म-शरीरकी क्रियाएँ और समाधि आदि कारण-शरीरकी क्रियाएँ ये सब कर्म ही हैं। जबतक शरीरमें अहंता-ममता है तबतक शरीरसे होनेवाली मात्र क्रियाएँ कर्म हैं। कारण कि शरीर प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति कभी अक्रिय नहीं होती। अतः शरीरमें अहंताममता रहते हुए कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, चाहे वह अवस्था प्रवृत्तिकी हो या निवृत्तिकी। 'कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः'-- प्रकृतिजन्य गुण (प्रकृतिके) परवश हुए प्राणियोंसे कर्म कराते हैं। परवश होनेपर प्रकृतिके गुणोंद्वारा कर्म कराये जाते हैं; क्योंकि प्रकृति एवं उसके गुण निरन्तर क्रियाशील हैं (गाता 3। 27 13। 29)। यद्यपि आत्मा स्वयं अक्रिय, असंग, अविनाशी, निर्विकार तथा निर्लिप्त है, तथापि जबतक वह प्रकृति एवं उसके कार्य--स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरमें किसी भी शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानकर उससे सुख चाहता है, तबतक वह प्रकृतिके परवश रहता है (गीता 14। 5)। इसी परवशताको यहाँ 'अवशः' पदसे कहा गया है। नवें अध्यायके आठवें श्लोकमें और आठवें अध्यायके उन्नीसवेँ श्लोकमें भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे परवश हुए जीवके द्वारा कर्म करनेकी बात कही गयी है।स्वभाव बनता है वृत्तियोंसे, वृत्तियाँ बनती हैं गुणोंसे और गुण पैदा होते हैं प्रकृतिसे। अतः चाहे स्वभावके परवश कहो, चाहे गुणोंके परवश कहो और चाहे प्रकृतिके परवश कहो, एक ही बात है। वास्तवमें सबके मूलमें प्रकृति-जन्य पदार्थोंकी परवशता ही है। इसी परवशतासे सभी परवशताएँ पैदा होती हैं। अतः प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशताको ही कहीं कालकी, कहीं स्वभावकी, कहीं कर्मकी और कहीं गुणोंकी परवशता कह दिया है। तात्पर्य यह है कि यह जीव जबतक प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत नहीं होता, परमात्माकी प्राप्ति नहीं कर लेता, तबतक यह गुण, काल, स्वभाव आदिके अवश (परवश) ही रहता है अर्थात् यह जीव जबतक प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, प्रकृतिमें स्थित रहता है, तबतक यह कभी गुणोंके, कभी कालके, कभी भोगोंके और कभी स्वभावके परवश होता रहता है कभी स्ववश (स्वतन्त्र) नहीं रहता। इनके सिवाय यह परिस्थिति, व्यक्ति, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदिके भी परवश होता रहता है। परन्तु जब यह गुणोंसे अतीत अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है, तो फिर इसकी यह परवशता नहीं रहती और यह स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताको प्राप्त हो जाता है।
Sri Anandgiri
।।3.5।।उक्तेऽर्थे बुभुत्सितं हेतुं वक्तुमुत्तरश्लोकमुत्थापयति कस्मादिति। कस्मान्न कर्मसंन्यासादेव सिद्धिमधिगच्छतीति पूर्वेण संबन्धः। कदाचित्क्षणमात्रमपि न कश्चिदकर्मकृत्तिष्ठतीत्यत्र हेतुत्वेनोत्तरार्धं व्याचष्टे कस्मादिति। सर्वशब्दाञ्ज्ञानवानपि गुणैरवशः सन् कर्म कार्यते ततश्च ज्ञानवतः संन्यासवचनमनवकाशं स्यादित्याशङ्क्याह अज्ञ इतीति। तमेव वाक्यशेषं वाक्यशेषावष्टम्भेन स्पष्टयति यत इति। आत्मज्ञानवतो गुणैरविचाल्यतया गुणातीतत्ववचनादज्ञस्यैव सत्त्वादिगुणैरिच्छाभेदेन कार्यकरणसंघातं प्रवर्तयितुमशक्तस्याजितकार्यकरणसंघातस्य क्रियासु प्रवर्तमानत्वमित्यर्थः। ज्ञानयोगेनेत्यादिनोक्तन्यायाच्च वाक्यशेषोपपत्तिरित्याह सांख्यानामिति। ज्ञानिनां गुणप्रयुक्तचलनाभावेऽपि स्वाभाविकचलनबलात्कर्मयोगो भविष्यतीत्याशङ्क्याह ज्ञानिनां त्विति। प्रत्यगात्मनि स्वारसिकचलनासंभवे प्रागुक्तं न्यायं स्मारयति तथाचेति।
Sri Dhanpati
।।3.5।। तत्र हेतुवाकाङ्क्षायामाह नहीति। हि यस्मात्कश्चि दज्ञोऽशुद्धचित्तः क्षणमपि कालं जातु कदाचिदपि कस्यांचिदप्यवस्थायां अकर्मकृत्सन्न तिष्ठति। हि यस्मादस्वतन्त्र एव सर्वोऽज्ञलोकः प्रकृतितो जातैः सत्वरजस्तमोभिर्गुणैः कर्म कार्यते। एतेन कर्मणां च संन्यासस्तेष्वनासक्तिमात्रं नतु स्वरुपेणाशक्यत्वादित्याह नहीति। कश्चिदपि ज्ञानी वाऽज्ञो वेति परास्तम्। अस्य पक्षस्य युक्तिशतेन भगवत्पादैर्निराकृतत्वात्गुणैर्यो न विचाल्यते इति वक्ष्यमाणविरोधस्यात्रैवाचार्यैरुक्तत्वाच्च। अतोऽज्ञं कर्मत्यागिनं निन्दति कर्मेन्द्रियाणीति स्वपरग्रन्थविरोधाच्च।
Sri Madhavacharya
।।3.5।।न तु कर्माणि सर्वात्मना त्यक्तुं शक्यानीत्याह न हीति।
Sri Neelkanth
।।3.5।।एतदेव प्रपञ्चयति नहीति। अवशः कर्मजशुद्ध्यभावादजितचित्तः कश्चिदपि जातु कदाचित्समाधिकालेऽपि क्षणमप्यकर्मकृत् कर्माणि दुर्मनोरथादीन्यकुर्वन् हि प्रसिद्धं न तिष्ठति। हि यस्मात्सर्वोऽपि लोकः प्रकृतिजैर्गुणैः सत्त्वरजस्तमोभिः स्वभावप्रभवैः रागद्वेषादिभिर्वा कर्म कायिकं वाचिकं मानसिकं वा कार्यतेऽवश्यं तत्र प्रवर्त्यते।
Sri Ramanujacharya
।।3.5।।न हि अस्मिन् लोके वर्तमानः पुरुषः कश्चित् कदाचित् अपि कर्म अकुर्वाणः तिष्ठति।न किञ्चित्करोमि इति व्यवसितः अपि सर्वः पुरुषः प्रकृतिसमुद्भवैः सत्त्वरजस्तमोभिः प्राक्तनकर्मानुगुणं प्रवृद्धैः गुणैः स्वोचितं कर्म प्रति अवशः कार्यते प्रवर्त्यते। अत उक्तलक्षणेन कर्मयोगेन प्राचीनं पापसञ्चयं नाशयित्वा गुणांश्च सत्त्वादीन् वशे कृत्वा निर्मलान्तःकरणेन संपाद्यो ज्ञानयोगः।अन्यथा ज्ञानयोगाय प्रवृत्तः अपि मिथ्याचारो भवति इति आह
Sri Sridhara Swami
।।3.5।। कर्मणां च संन्यासस्तेष्वनासक्तिमात्रं न तु स्वरुपेणा शक्यत्वादित्याह नहीति। जातु कास्यांचिदवस्थायां क्षणमात्रमपि कश्चिदपि ज्ञानी वाऽज्ञो वा अकर्मकृत्कर्माण्यकुर्वाणो न तिष्ठति। तत्र हेतुः प्रकृतिजैः स्वाभावप्रभवै राग्द्वेषादिगुणैः सर्वोऽपि जनः कर्म कार्यते कर्मणि प्रवर्तते अवशोऽस्वतन्त्रः सन्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।3.5।।अनन्वयवशङ्कां परिहरन्ननन्तरश्लोकमवतारयति एतदेवेति। परमपुरुषाराधनवेषस्य कर्मणस्त्यागे ज्ञाननिष्ठाया दुस्सम्पादत्वमेवेत्यर्थः। प्रथमो हिशब्दः पूर्वश्लोकार्थोपपादनद्योतकः। द्वितीयस्त्वेतच्छ्लोकपूर्वार्धोक्तोपपादनार्थः। प्रकरणारम्भेलोकेऽस्मिन् 3।3 इत्युक्ताधिकारिवैचित्र्यमपिकश्चित्सर्वः इत्याभ्यामभिप्रेतमिति ज्ञापनायअस्मिन् लोके इत्युक्तम्।जातुशब्दो दिवसादिस्थूलकालपरः। क्षणशब्दस्त्वत्रक्षणो व्यापारवैकल्ये कालभेदाल्पकालयोः इत्यनेकार्थपाठात्तदन्तर्गताल्पकालविषय इत्यपौनरुक्त्यम्। तदुभयसङ्ग्रहेणकदाचिदपीत्युक्तम्। प्रलयादिदशाव्यतिरिक्ते सर्वस्मिन् काल इत्यर्थः। स्वपतोऽपि हि स्वापाख्यं कर्म अत एव हि तत्र देशकालादिनियमेनानुज्ञाप्रतिषेधौ भवतः।अकर्मकृत् इत्यत्राकर्मणः कर्ता न विवक्षितः किन्तु कर्मणोऽकर्तेति व्यञ्जनायकर्माकुर्वाण इत्युक्तम्। सर्वशब्दाभिप्रेतमाह न किञ्चित्करोमीति व्यवसितोऽपीति। अयं चार्थःकर्मेन्द्रियाणि संयम्य इत्युत्तरश्लोके व्यक्तो भविष्यति। प्रकृतिजत्वेन विशेषणात् सत्त्वरजस्तमोभिरिति विशेषलाभः। प्रकृतौ नित्यं विद्यमानानां कथं प्रकृतिजत्वमित्यत्रोक्तंप्राचीनेत्यादि। तदा चाहुः कर्मवश्या गुणा ह्येते सत्त्वाद्याः पृथिवीपते वि.पु.2।13।70 इति। एतेन कर्मयोगतनूकृतगुणकज्ञाननिष्ठव्यवच्छेदः। स्वोचितशब्देन तृतीयषट्के वक्ष्यमाणः प्रकारो दर्शितः। स्वशब्दोऽत्र गुणपरःअवशः सर्वः इत्युद्देश्यविशेषणत्वभ्रमव्युदासायअवशः कार्यते इत्युक्तम्।कार्यते इत्यस्य प्रयोज्यकर्मपरत्वव्युदासेन प्रयोज्यकर्तृविषयत्वव्यक्त्यर्थंप्रवर्त्यत इत्युक्तम्। व्याख्यातश्लोकद्वयतात्पर्यमाह अत इति।अतः गुणपरतन्त्रतया कर्मयोगमन्तरेण ज्ञानयोगस्य दुस्सम्पादत्वादित्यर्थः। पापनाशाद्गुणवशीकरणम् तच्च मोक्षार्थप्रवृत्त्यनुकूलत्वम्। रजस्तमःप्राचुर्यनिवृत्तिर्वा तत्कार्यरागद्वेषाद्यभावो वा निर्मलत्वमिहाभिप्रेतम्।
Sri Jayatritha
।।3.5।।ज्ञानरहितात् कर्मत्यागरूपाद्यत्याश्रमात्सिद्धिं न समधिगच्छति 3।4 इति किल पूर्वमुक्तम् तत्रहेत्वाकाङ्क्षायां न हि कश्चिदित्युच्यते इति व्याख्यानमसदिति भावेन श्लोकतात्पर्यमाह न त्विति। न ह्यत्र ज्ञानस्यावश्यकत्वे किञ्चिदुच्यते। नापि यज्ञादिकर्माकरणस्यासम्भवोऽभिधीयते येन प्रकृतसङ्गतिः स्यात् किन्तु शरीरयात्राद्यर्थानां कर्मणामपरिहार्यत्वम्। अतो नेदं व्याख्यानं अपि तर्हिकर्मणा बध्यते जन्तुः म.भा.12।241।7 इति स्मृतिमाश्रित्य यस्तृतीयः पक्षस्तमाशङ्क्ययज्ञार्थात् 3।9 इति स्मृतेरर्थसङ्कोचं वक्ष्यति तत्र कुतः स्मृतेरर्थसङ्कोचः इत्याकाङ्क्षा स्यात् तामपाकर्तुमुपोद्धातन्यायेन कर्मशब्दस्तावदसङ्कुचितार्थः परेणाप्यङ्गीकर्तुमशक्य इति प्रतिपादयितुं कर्माणि सर्वात्मना त्यक्तुं नैव शक्यानीत्यनेनाहेति भावः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।3.5।।ततः कर्मजन्यशुद्ध्यभावे बहिर्मुखः हि यस्मात्क्षणमपि कालं जातु कदाचित्कश्चिदप्यजितेन्द्रियोऽकर्मकृत्सन्न तिष्ठति अपितु लौकिकवैदिककर्मानुष्ठानव्यग्र एव तिष्ठति। तस्मादशुद्धचित्तस्य संन्यासो न संभवतीत्यर्थः। कस्मात्पुनरविद्वान्कर्माण्यकुर्वाणो न तिष्ठति। हि यस्मात्सर्वः प्राणी चित्तशुद्धिरहितोऽवशोऽस्वतन्त्रएव सन् प्रकृतिजैः प्रकृतितो जातैरभिव्यक्तैः कार्याकारेण सत्त्वरजस्तमोभिः स्वभावप्रभवैर्वा रागद्वेषादिभिर्गुणैः कर्म लौकिकं वैदिकं वा कार्यते। अतः कर्माण्यकुर्वाणो न कश्चिदपि तिष्ठतीत्यर्थः। यतः स्वाभाविका गुणाश्चालकाः अतः परवशतया सर्वदा कर्माणि कुर्वतोऽशुद्धबुद्धेः सर्वकर्मसंन्यासो न संभवतीति न संन्यासनिबन्धना ज्ञाननिष्ठा संभवतीत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।3.5।।अज्ञात्वा कर्मकरणे तत्त्यागोऽपि न भवति ज्ञात्वाऽज्ञात्वा वा कर्म तु करोत्येवेत्याह न हीति। कश्चित् जातु कदाचित् क्षणमपि अकर्मकृत् कर्माण्यकुर्वन् न तिष्ठति। कुतः इत्यत आह सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः सात्त्विकादिभिः कर्म कार्यते कर्मणि प्रवर्त्यते। तत्र कारणमाह ह्यवश इति। हीति निश्चयेन। अवशः न मद्वशो भक्त इत्यर्थः। अतस्तदारम्भात् स्वरूपज्ञानानन्तरं प्राकृतकार्यतां तेषु ज्ञात्वा मद्वशो भूत्वा त्यजेदिति भावः।
Sri Shankaracharya
।।3.5।। न हि यस्मात् क्षणमपि कालं जातु कदाचित् कश्चित् तिष्ठति अकर्मकृत् सन्। कस्मात् कार्यते प्रवर्त्यते हि यस्मात् अवश एव अस्वतन्त्र एव कर्म सर्वः प्राणी प्रकृतिजैः प्रकृतितो जातैः सत्त्वरजस्तमोभिः गुणैः। अज्ञ इति वाक्यशेषः यतो वक्ष्यतिगुणैर्यो न विचाल्यते इति। सांख्यानां पृथक्करणात् अज्ञानामेव हि कर्मयोगः न ज्ञानिनाम्। ज्ञानिनां तु गुणैरचाल्यमानानां स्वतश्चलनाभावात् कर्मयोगो नोपपद्यते। तथा च व्याख्यातम् वेदाविनाशिनम् इत्यत्र।।यत्त्वनात्मज्ञः चोदितं कर्म नारभते इति तदसदेवेत्याह
Sri Vallabhacharya
।।3.5।।अतोऽवशः सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैर्वा कर्म कार्यत एव।
Swami Sivananda
3.5 नहि not? कश्चित् anyone? क्षणम् a moment? अपि even? जातु verily? तिष्ठति remains? अकर्मकृत् without performing action? कार्यते is made to do? हि for? अवशः helpless? कर्म action? सर्वः all? प्रकृतिजैः born of Prakriti? गुणैः by the alities.Commentary The Gunas (alities of Nature) are three? viz.? Sattva? Rajas and Tamas. Sattva is harmony or light or purity Rajas is passion or motion Tamas is inertia or darkness. Sattvic actions help a man to attain to Moksha. Rajasic and Tamasic actions bind a man to Samsara.These alities cannot affect a man who has knowledge of the Self. He has crossed over these alities. He has become a Gunatita (one who has transcended the alities of Nature). The ignorant man who has no knowledge of the Self and who is swayed by Avidya or nescience is driven helplessly to action by the Gunas. (Cf.IV.16?XVIII.11).