Chapter 3, Verse 30
Verse textमयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3.30।।
Verse transliteration
mayi sarvāṇi karmāṇi sannyasyādhyātma-chetasā nirāśhīr nirmamo bhūtvā yudhyasva vigata-jvaraḥ
Verse words
- mayi—unto me
- sarvāṇi—all
- karmāṇi—works
- sannyasya—renouncing completely
- adhyātma-chetasā—with the thoughts resting on God
- nirāśhīḥ—free from hankering for the results of the actions
- nirmamaḥ—without ownership
- bhūtvā—so being
- yudhyasva—fight
- vigata-jvaraḥ—without mental fever
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।3.30।। तू विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके कामना, ममता और संताप-रहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर।
Swami Tejomayananda
।।3.30।। सम्पूर्ण कर्मों का मुझ में संन्यास करके, आशा और ममता से रहित होकर, संतापरहित हुए तुम युद्ध करो।।
Swami Adidevananda
Surrender all your actions to Me, with a mind focused on the Self, free from desire and selfishness, and fight with the heat of excitement abated.
Swami Gambirananda
Free from the fever of the soul, dedicate all actions to Me, with your mind intent on the Self, and become free from expectations and egoism, and engage in battle.
Swami Sivananda
Renouncing all actions in Me, with the mind centered on the Self, free from hope and egoism, and from mental fever, fight thou.
Dr. S. Sankaranarayan
Renouncing all actions in Me, with a mind that concentrates on the Self; being free from the act of resting and from the sense of possession; and consequently being free from mental fever; you should fight.
Shri Purohit Swami
Therefore, surrender your actions to Me, keep your thoughts focused on the Absolute, free from selfishness and without expecting a reward, with a mind free from excitement, begin to fight.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।3.30।। मयि वासुदेवे परमेश्वरे सर्वज्ञे सर्वात्मनि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य निक्षिप्य अध्यात्मचेतसा विवेकबुद्ध्या अहं कर्ता ईश्वराय भृत्यवत् करोमि इत्यनया बुद्ध्या। किञ्च निराशीः त्यक्ताशीः निर्ममः ममभावश्च निर्गतः यस्य तव स त्वं निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः विगतसंतापः विगतशोकः सन्नित्यर्थः।।यदेतन्मम मतं कर्म कर्तव्यम् इति सप्रमाणमुक्तं तत् तथा
Swami Ramsukhdas
3.30।। व्याख्या--'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा'-- प्रायः साधकका यह विचार रहता है कि कर्मोंसे बन्धन होता है और कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं; इसलिये कर्म करनेसे तो मैं बँध जाऊँगा! अतः कर्म किस प्रकार करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धनकारक न हों, प्रत्युत मुक्तिदायक हो जायँ-- इसके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू अध्यात्मचित्त-(विवेक-विचारयुक्त अन्तःकरण-) से सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण कर दे अर्थात् इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान। कारण कि वास्तवमें संसार-मात्रकी सम्पूर्ण क्रियाओंमें केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है। शरीर, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है। इसलिये 'सब कुछ भगवान्का है और भगवान् अपने हैं'-- गम्भीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्वव्य-कर्म करेगा, तब वे कर्म तेरेको बाँधनेवाले नहीं होंगे, प्रत्युत उद्धार करनेवाले हो जायँगे। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिपर अपना कोई अधिकार नहीं चलता-- यह मनुष्यमात्रका अनुभव है। ये सब प्रकृतिके हैं-- 'प्रकृतिस्थानि' और 'स्वयं 'परमात्माका है-- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7)। अतः शरीरादि पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनको हटाकर इनको भगवान्का ही मानना (जो कि वास्तवमें है) 'अर्पण' कहलाता है। अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मोंसे मूर्खतावश माने हुए सम्बन्धका त्याग करना ही अर्पण करनेका तात्पर्य है।'अध्यात्मचेतसा' पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्गका साधक हो, उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये, लौकिक नहीं। वास्तवमें उद्देश्य या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्वकी (आध्यात्मिक) होती है और कामना सदैव अनित्यतत्त्व (उत्पत्ति विनाशशील वस्तु) की होती है। साधकमें उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं। उद्देश्यवाला अन्तःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है।दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक, किसी भी दृष्टिसे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ अपने हैं। वास्तवमें ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत केवल सदुपयोग करनेके लिये मिले हुए हैं। अपने न होनेके कारण ही इनपर किसीका आधिपत्य नहीं चलता।संसारमात्र परमात्माका है; परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धनमें पड़ जाता है। अतः विवेक-विचारके द्वारा इस भूलको मिटाकर सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंको अध्यात्मतत्त्व(परमात्मा) का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्तके द्वारा उनका अर्पण करना है।इस श्लोकमें 'अध्यात्मचेतसा' पद मुख्यरूपसे आया है। तात्पर्य यह है कि अविवेकसे ही उत्पत्ति-विनाशशील शरीर (संसार) अपना दीखता है। यदि विवेक-विचार-पूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दीखेगा। संसारको अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान है--
Swami Chinmayananda
।।3.30।। भगवान् का यह स्पष्ट मत था कि अर्जुन को युद्ध करना चाहिये। पाण्डव राजकुमार अर्जुन अभी उच्चस्तरीय ध्यान साधना के योग्य नहीं था। कर्म में वासना उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है और फिर उस वासना से कर्म में वृद्धि होती है। श्रीकृष्ण के कर्मयोग के उपदेशानुसार कर्माचरण करने पर पुरानी वासनाओं का क्षय तो होता ही है परन्तु अन्य नयी वासनायें भी उत्पन्न नहीं होतीं। अहंकार और स्वार्थ से रहित कर्म के आचरण के उस सिद्धान्त को ही यहां दूसरे शब्दों में बताया गया है।समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके जैसा कि हम देख चुके हैं यहाँ भी मुझ में शब्द से तात्पर्य शुद्ध परमात्मस्वरूप से है। श्रीकृष्ण का उपदेश है कि अर्जुन को भक्तिपूर्वक परमात्मा का स्मरण करते हुये (अध्यात्मचेतसा) समस्त कर्मों का संन्यास (अर्पण) परमात्मा में करना चाहिये। कर्मों के संन्यास का अर्थ अकर्मण्यता का जीवन नहीं समझना चाहिये। कर्मों से अहंकार और स्वार्थ का त्याग ही वास्तविक कर्मसंन्यास कहलाता है।सर्प की भयंकरता उसके विष में है। यदि उसके विषदन्त निकाल दिये जाँय तो वह भयानक सर्प किसी को हानि नहीं पहुँचा सकता। इसी प्रकार अहंकार और स्वार्थ के कारण ही कर्म बन्धन कारक होते हैं अन्यथा नहीं। यहाँ कर्मों के संन्यास से तात्पर्य उनके उत्प्रेरक दुष्प्रयोजनों के त्याग से है।आत्मस्वरूप ईश्वर के निरन्तर कीर्तिगान से उद्देश्यों की शुद्धता प्राप्त की जा सकती है। कीर्तिगान से हृदय दैवी भावनाओं से स्पन्दित हो उठता है। ऐसे व्यक्ति के कर्म सामान्य नहीं समझने चाहिये वरन् ईश्वर के संकल्प ही उस व्यक्ति के माध्यम से जगत् में व्यक्त होते हैं। परिच्छिन्न जीवभाव के स्थान पर पूर्णत्व का भाव दृढ़ होने पर वह व्यक्ति ईश्वरेच्छा को व्यक्त करने का सर्वोत्कृष्ट माध्यम बन जाता है।केवल निषिद्ध कर्मों का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। हमको उन आन्तरिक सद्गुणों का भी विकास करना चाहिये जिससे ईश्वर के संकल्पों का प्रवाह निर्वाध रूप से हमारे द्वारा प्रवाहित हो सके। इस का संकेत यहाँ निराशी और निर्मम इन शब्दों से किया गया है।इस श्लोक के सतही अध्ययन से भ्रमित होकर कोई इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि हिन्दू धर्म गतिशील जीवन का त्याग कर निराशा का जीवन जीने की शिक्षा देता है। परन्तु सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट होगा कि इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन के उच्चतर मनोवैज्ञानिक सत्य की ओर इंगित कर रहे हैं।निराशी आशा उस वस्तु या घटना की अपेक्षा है जो भविष्य काल में व्यक्त या प्राप्त होगी। आशा सदैव भविष्य के लिए होती है वर्तमान में नहीं।निर्मम अहंकार मूलक ममभाव और कुछ नहीं उन घटनाओं एवं उपलब्धियों की एक गठरी है जो भूतकाल में घटित हुई थीं। अत अहंकार भूतकाल की प्रतिच्छाया मात्र है और उसका अस्तित्त्व व्यतीत हुए काल के सन्दर्भ में ही है।आशा यदि अनुत्पन्न भविष्य का शिशु है तो अहंकार भूतकाल की हठीली स्मृति। आशा और अहंभाव में रहने का अर्थ है भविष्य और भूतकाल में ही जीना। दुख की बात यह है कि इन सबमें हम शक्तिशाली वर्तमान को खो देते हैं जबकि वर्तमान ही वह अवसर है जो कर्म करने आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्त करने के लिये हमें प्राप्त हुआ है। श्रीकृष्ण अर्जुन को आशा और ममभाव से रहित होकर कर्म करने का उपदेश देते हैं। भूत और भविष्य के विचारों में शक्ति का अपव्यय किये बिना वर्तमान का सदुपयोग करने के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचना इस श्लोक में दी गयी है।विचाराधीन यह श्लोक सभी दृष्टियों से अपने आप में पूर्ण है जिसे पढ़कर आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित रह जायेगा। यद्यपि अब तक के विवेचन को समझने से भूत और भविष्य के विचारों में होने वाले शक्ति के अपव्यय को हम रोक सकते हैं परन्तु वर्तमान में कार्य करते हुये अपनी क्षमता के क्षरण की संभावना रह सकती है। इसका कारण अनावश्यक रूप से व्याकुल और उत्तेजित होने का हमारा स्वभाव है। इस उत्तेजना को यहाँ ज्वर कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं कि समस्त कर्मों का संन्यास परमात्मा में करके आशा और ममता से रहित होकर तथा मानसिक उत्तेजना का त्याग कर अर्जुन को युद्ध करना चाहिये। गीता के इस्ा सिद्धांत की परिपूर्णता इसके समस्त अध्येताओं को स्पष्ट जाती है।यहाँ युद्ध करने से तात्पर्य जीवन संघर्षों में आने वाली समस्त परिस्थितियों का सामना करने से है। अत यह उपदेश केवल अर्जुन के लिये ही नहीं बल्कि उन सभी के लिये हैं जो बुद्धिमत्तापूर्वक पूर्ण रूप से अपना जीवन जीना चाहते हैं।कर्मयोग का सीमित अर्थ समझकर जिन्होंने वेदों का अध्ययन किया है उन्हें इस श्लोक में दिया उपदेश पारम्परिक प्रतीत होगा।अपनी पीढ़ी के द्वारा इस उपदेश के स्वीकृत होने पर उसके प्रचारार्थ भगवान् कहते हैं
Sri Madhusudan Saraswati
।।3.30।।एवं कर्मानुष्ठानसाम्येऽप्यज्ञविज्ञयोः कर्तृत्वाभिनिवेशतदभावाभ्यां विशेष उक्तः। इदानीमज्ञस्यापि मुमुक्षोरमुमुक्ष्वपेक्षया भगवदर्पणं फलाभिसंध्यभावं च विशेषं वदन्नज्ञतयार्जुनस्य कर्माधिकारं द्रढयति मयि भगवति वासुदेवे परमेश्वरे सर्वज्ञे सर्वनियन्तरि सर्वात्मनि सर्वाणि कर्माणि लौकिकानि वैदिकानि च सर्वप्रकाराणि अध्यात्मचेतसा अहं कर्तान्तर्याम्यधीनस्तस्मा एवेश्वराय राज्ञ इव भृत्यः कर्माणि करोमीत्यनया बुद्ध्या संन्यस्य समर्प्य निराशीर्निष्कामः निर्ममो देहपुत्रभ्रात्रादिषु स्वीयेषु ममताशून्यः विगतज्वरः संतापहेतुत्वाच्छोक एव ज्वरशब्देनोक्तः ऐहिकपारत्रिकदुर्यशोनरकपातादिनिमित्तशोकरहितश्च भूत्वा त्वं मुमुक्षुर्युध्यस्व विहितानि कर्माणि कुर्वित्यभिप्रायः। अत्र भगवदर्पणं निष्कामत्वं च सर्वकर्मसाधारणं मुमुक्षोः। निर्ममत्वं त्यक्तशोकत्वं च युद्धमात्रे प्रकृते इति द्रष्टव्यम्। अन्यत्र ममताशोकयोरप्रसक्तत्वात्।
Sri Anandgiri
।।3.30।।यद्यपि कर्मण्यज्ञोऽधिक्रियते तथापि मोक्ष्यमाणेन तेन कर्म त्यक्तव्यं मोक्षस्य कर्मासाध्यत्वान्नतु तेन कर्म कर्तुं शक्यं कर्मणः सापेक्षितविरोधित्वादिति शङ्कते कथमिति। श्लोकेनोत्तरमाह उच्यत इति। यथोक्ते परस्मिन्नात्मनि सर्वकर्मणां समर्पणे कारणमाह अध्यात्मेति। विवेकबुद्धिमेव व्याकरोति अहमिति। दर्शितरीत्या कर्मसु प्रवृत्तस्य कर्तव्यान्तरमाह किञ्चेति। त्यक्ताशीः फलप्रार्थनाहीनः सन्नित्यर्थः। निर्ममो भूत्वा पुत्रभ्रात्रादिष्विति शेषः। ननु युद्धे नियोगो नोपपद्यते पुत्रभ्रात्रादिहिंसात्मनस्तस्य संतापहेतोर्नियोगविषयत्वायोगादिति तत्राह विगतेति।
Sri Dhanpati
।।3.30।।ननु नाहं तत्त्ववित् किंत्वज्ञो मुमुक्षुर्मया कथं कर्म कर्तव्यमिति चेत्तत्राह मयीति। मयि परमेश्वरे सर्वाणि वैदिकानि लौकिकानि च कर्माणि अध्यात्मचेतसा विवेकबुद्य्धाऽहंकर्तेश्वराय भृत्यवत्करोमीत्यनया बुद्य्धा संन्यस्य समर्प्य निराशीः फलाभिसंधिरहितः ममत्वशून्यस्त्वं भूत्वा विगतज्वरो विगतशोकः सन् युध्यस्व। यत्त्वत्र भगवदर्पणं निष्कामत्वं च सर्वकर्मसाधारणं मुमुक्षोः निर्ममत्वं त्यक्तशोकत्वं च युद्धमात्रे प्रकृत इति द्रष्टव्यमन्यत्र ममताशोकयोप्रसक्तत्वादिति तच्चिन्त्यम्। सर्वस्मिन्कर्मणि ममेदमिति ममत्वस्य निष्फले कष्टसाध्ये वा कर्मणि ज्वरस्य च प्रसक्तत्वात्। शोकादेर्निवृत्त्यर्थमेव सिद्य्धसिद्य्धोः समो भूत्वेति भगवतोक्तत्वाच्चेति दिक्।
Sri Madhavacharya
।।3.30।।अतः सर्वाणि कर्माणि मय्येव सन्न्यस्य भ्रान्त्या जीवेऽध्यारोपितानि मय्येव विसृज्य भगवानेव सर्वाणि कर्माणि करोतीति मत्पूजेति च आत्मानं मामधिकृत्य यच्चेतस्तदध्यात्मचेतः। सन्न्यासस्तु भगवान्करोतीति। निर्ममत्वं नाहं करोमीति।
Sri Neelkanth
।।3.30।।मयीति। त्वं तु अज्ञो मुमुक्षुश्च मयि सर्वान्तर्यामिणि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य समर्प्य अध्यात्मचेतसा आत्मानमधिकृत्य प्रवृत्तं शास्त्रमध्यात्मं तत्र प्रवणेन चेतसा। शाकपार्थिवादिवन्मध्यमपदलोपी समासः। आत्मानात्मविवेकवतेत्यर्थः। ईश्वरप्रेरितोऽहं करोमीत्यनया बुद्ध्या निराशीः फलमनिच्छन् निर्ममो लब्धे ममत्वाभिमानशून्यश्च भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरो विशोकः सन्।
Sri Ramanujacharya
।।3.30।।मयि सर्वेश्वरे सर्वभूतान्तरात्मभूते सर्वाणि कर्माणि अध्यात्मचेतसा संन्यस्य निराशीः निर्ममो विगतज्वरः युद्धादिकं सर्वं चोदितं कर्म कुरुष्व। आत्मनि यत् चेतः तद् अध्यात्मचेतः आत्मस्वरूपविषयेण श्रुतिशतसिद्धेन ज्ञानेन इत्यर्थः।अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा ৷৷. अन्तः प्रविष्टं कर्तारमेतम् (तै0 आ0 3।11)य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद। यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृ0 5।7 मा0 दि0) इत्येवमाद्याः श्रुतयः परमपुरुषप्रवर्त्यं तच्छरीरभूतम् एनम् आत्मानं परमपुरुषं च प्रवर्तयितारम् आचक्षते। स्मृतयश्च प्रशासितारं सर्वेषाम् (मनु0 12।122) इत्याद्याःसर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः (गीता 15।15) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।(गीता 18।61) इति वक्ष्यते।अतो मच्छरीरतया मत्प्रवर्त्यात्मस्वरूपानुसन्धानेन सर्वाणि कर्माणि मया एव क्रियमाणानि इति मयि परमपुरुषे संन्यस्य तानि च केवलं मदाराधनानि इति कृत्वा तत्फले निराशीः तत एव तत्र कर्मणि ममतारहितो भूत्वाविगतज्वरो युद्धादिकं कुरुष्व।स्वकीयेन आत्मना कर्त्रा स्वकीयैः एव करणैः स्वाराधनैकप्रयोजनाय परमपुरुषः सर्वेश्वरः सर्वशेषी स्वयम् एव स्वकर्माणि कारयति इति अनुसन्धाय कर्मसु ममतारहितः प्राचीनेन अनादिकालप्रवृत्तानन्तपापसञ्चयेनकथम् अहं भविष्यामि इत्येवं भूतान्तर्ज्वरविनिर्मुक्तःपरमपुरुष एव कर्मभिः आराधितो बन्धात् मोचयिष्यति इति स्मरन् सुखेन कर्मयोगम् एव कुरुष्व इत्यर्थः।तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्। (श्ेवता 3।7)पतिं विश्वस्य (म0 ना0 3।1)पतिं पतीनाम् (श्वेता 6।7) इत्यादिश्रुतिसिद्धं हि सर्वेश्वरत्वं सर्वशेषित्वं च। ईश्वरत्वं नियन्तृत्वम् शेषित्वं पतित्वम्।।अयम् एव साक्षादुपनिषत्सारभूतः अर्थ इत्याह
Sri Sridhara Swami
।।3.30।।तदेवं तत्त्वविदापि कर्म कर्तव्यं त्वं तु नाद्यापि तत्त्ववित् अतः कर्मैव कुर्वित्याह मयीति। सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य समर्प्याध्यात्मचेतसान्तर्याम्यधीनोऽहं करोमीति दृष्ट्या निराशीर्निष्कामोऽतएव मत्फलसाधनं मदर्थमिदं कर्मेत्येवं ममताशून्यश्च भूत्वा विगतज्वरस्त्यक्तशोकश्च भूत्वा युध्यस्व।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।3.30।।अथ तदनन्तरस्यपरात्तु तच्छ्रुतेः ब्र.सू.2।3।41 इत्यधिकरणस्यार्थे तत्परोऽयमित्यभिप्रायेणोत्तरश्लोकमवतारयति इदानीमिति। नियाम्यतायाः स्वरूपत्वोक्तिः स्वरूपनिरूपकत्वात्।भगवतीत्यादिपदत्रयेणमयि इत्यभिप्रेतस्योक्तिः।भगवतीति नियन्तृत्वोपास्यत्वफलप्रदत्वाद्युपयुक्तकल्याणगुणजातवति हेयप्रत्यनीके चेति भावः।पुरुषोत्तम इति नियमनार्थानुप्रवेशादिनाऽप्यस्पृष्टहेयप्रसक्तौउत्तमः पुरुषस्त्वन्यः 15।17 इति वक्ष्यमाणप्रकारवैलक्षण्यवतीति भावः।सर्वात्मभूते गुणकृतं चेति त्रिगुणस्याचिद्द्रव्यस्यापि सर्वात्मभूतः स एव हि नियन्तेति भावः। एतेनअसक्त्या लोकरक्षायै गुणेष्वारोप्य कर्तृताम्। सर्वेश्वरे वा न्यस्योक्ता तृतीये कर्मकार्यता इति तृतीयाध्यायगीतार्थ7सङ्ग्रहश्लोके तुल्यविकल्पो नाभिमत इत्यपि सूचितं भवति।मयि इत्यनेनाभिप्रेते सर्वेश्वरत्वे हेतुतया सर्वभूतान्तरात्मभूतत्वोक्तिः।ईश्वरः सर्वभूतानाम् 18।61 इत्यादि वक्ष्यमाणं चानेन ख्यापितम्।सर्वाणि इति स्वकृतानि गुणकृतानि चेत्यर्थः।युध्यस्व इत्येतच्छास्त्रीयोपलक्षणमित्यभिप्रायेणोक्तंयुद्धादिकमिति।आत्मनीतिअध्यात्म इति सप्तम्यर्थे समास इत्यर्थः। अत्र चेतश्शब्दस्य श्रुतिशतसिद्धतत्त्वानुसन्धानरूपज्ञानगोचरतां व्यनक्तिआत्मस्वरूपेति।श्रुतिशतसिद्धं प्रकारं दर्शयति अन्तरिति। अन्तःप्रविष्टत्वशासितृत्वाभ्यां नृपादिगगनादिव्यावर्तकाभ्यां सर्वात्मत्वसिद्धिः।कर्तारमिति जीवव्यापारेषु प्रयोजककर्तारमित्यर्थः यद्वा प्रेरणक्रियाकर्तारमित्यर्थः तदुच्यते प्रवर्तयितारमिति। उपात्तश्रुतीनामैदम्पर्यदृढीकरणाय मन्वाद्युपबृंहणानुग्रहमाह स्मृतयश्चेति। एतस्मिन्नपि शास्त्रेऽभ्यासलिङ्गायास्यैवार्थस्य वक्ष्यमाणतामाह सर्वस्य चेति।मयि सर्वाणि इत्यस्याभिप्रायव्यञ्जनाय पार्थसारथेरीश्वरस्य प्रत्यक्पराङ्निर्देशयोरीश्वरैकविषयत्वं दर्शयितुं वचनद्वयोपादानम्।एवमर्थस्वरूपमुपपाद्य तज्ज्ञानस्य कर्तृत्वसन्न्यासहेतुतांसन्न्यस्य निराशीः निर्ममः इति त्रयाणां पदानां कर्तृत्वत्यागफलत्यागस्वकीयतासङ्गत्यागविषयतां उत्तरोत्तरस्य च पूर्वपूर्वहेतुकतां पाठक्रमसूचितां प्रकाशयति अत इति। अस्यार्थस्य श्रुतिस्मृत्यन्तरादिसिद्धत्वादित्यर्थः।मयैव क्रियमाणानीति भृत्यप्रवर्तकेन राज्ञेव सद्वारकमद्वारकं चेति भावः। ऋत्विज इव परस्य कर्तृत्वेऽपि स्वस्य फलाभिसन्धिः स्यादिति तन्निरासाय निराशीरित्युक्तमित्यभिप्रायेणाह तानि चेति।तत एवेति फलद्वारा हि कर्मणि ममतामदभिलषितसाधनत्वान्मदर्थमिदं कर्म इति कर्मण्यैश्वर्यबोधो ह्यधिकार इति भावः। ननु यदीश्वरे कर्तृत्वं सन्न्यस्तम् कथं तर्हि युद्ध्यस्वेति जीवः कर्तृतया निर्दिश्यते यदि चासौ निराशीः कथं परमपुरुषाराधनरूपेऽपि कर्मणि प्रवर्तेत यदि च निर्ममः स कथंममेदं कर्म इति बुध्यमानः कर्म कुर्यात् यदि च स्वव्यापारंनानुसन्धत्ते तदा त्यागरूपव्यापारमपि न मन्येत ततश्च विगतज्वर इत्यप्यनुपपन्नमित्याशङ्क्याह स्वकीयेनात्मना कर्त्रेति। स्वशेषभूतेन जीवेन प्रयोज्यकर्त्रेत्यर्थः।स्वकीयैश्चोपकरणैरिति। यथाऽसौ जीवः परशेषभूतः तथा तस्य स्वशेषतया प्रागभिमतं हविरादिकमपि परशेषभूतमिति भावः।स्वाराधनैकप्रयोजनायेति शेषस्य शेष्यतिशयाधानमेव प्रयोजनमिति भावः। आह च वेदार्थसङ्ग्रहे परगतातिशयाधानेच्छयोपादेयत्वमेव यस्य स्वरूपं स शेषः परः शेषी इति।स्वकीयेन इत्यादौ प्रमाणसूचनायसर्वशेषीत्याद्युक्तम्।स्वयमेवेत्यादि। आराध्यभूत एवाराधनं कारयतीति भावः। एवकारेण प्रवर्तकान्तरं च व्युदस्तम्।कारयतीति सर्वेश्वरः सन् स्वेष्टं सर्वं स्वयमेव कर्तुं शक्तोऽपि स्वशेषभूतजीवानां शास्त्रवश्यत्वतत्फलभोक्तृत्वादिसिद्ध्यर्थं तान् कर्तृ़न् कारयतीति भावः। प्राकरणिकं प्रतिषेध्यज्वरविशेषप्रसङ्गं दर्शयति प्राचीनेत्यादिना। अस्तु श्रुतिसिद्धमीश्वरत्वम् कारयितृत्वस्य किमायातं इत्यत्राह ईश्वरत्वं नियन्तृत्वमिति।शेषित्वं पतित्वमिति चेतनगतं शेषित्वं पतित्वमेवेति भावः। यद्वा श्रुतिभाष्यपठितयोः शेषित्वेश्वरत्वयोः को भेदः इति शङ्काऽपाक्रियते ईश्वरत्वं नियन्तृत्वमित्यादिना।
Sri Purushottamji
।।3.30।।ननु तेषां कर्मकारणार्थं स्वस्य कर्मकरणे यावत्कालो गच्छति तावत्कालव्यर्थीभावापराधः स्वस्य स्यादित्यत आह मयि सर्वांणीति। मयि सन्न्यस्य आधिदैविकभावेन सर्वं त्यक्त्वाऽध्यात्मचेतसा अध्यात्मभावेन मदाज्ञारूपेण सर्वाणि कर्माणि कुर्वित्यर्थः। मदाज्ञया करणे कालव्यर्थता न भविष्यतीति भावः। सर्वपदेन लौकिकार्याण्यपि कुर्वित्यर्थः। लौकिककर्मकरणमेवाह निराशीरिति। निराशीः युद्धजस्वर्गादिफलानभीप्सुः निर्ममः राज्यादिप्राप्तभावरहितः स्वीयेषु परेषु च भ्रातृगुर्वादिबुद्धिरहितो विगतज्वरो लौकिकतापरहितो मदाज्ञया युद्ध्यस्व युद्धं कुर्वित्यर्थः। त्वामुद्दिश्य तु क्षात्त्रं कर्म युद्धरूपं मयोच्यते न तु पूर्वोक्तमन्यत्कर्म। अतो युद्धमेव कुर्वित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।3.30।।स्वमतमुपदिशति मयीति। साङ्ख्यचेतसा सर्वकर्माणि मयि मुख्ये साक्षात्कर्त्तरि परदेवतायां सन्न्यस्य समर्प्यानुसन्धाय वा युद्ध्यस्व। कर्मत्यागे हि दण्डिपुरुषं त्यजेतिवत् विशेषणविषयक एव त्यागः न तु विशेष्यविषयक इति तदाह निराशीरिति। तत्फलविषयकस्त्यागः निर्मम इति ममताविषयकः विगतज्वर इति कर्तृत्वविषयक इति त्रिविधस्त्यागः कर्मणि प्रकीर्तितः। यथोक्तं निबन्धेसाङ्ख्येऽपि भगवच्चित्ते फलमेतन्न चान्यथा। समर्पणात्कर्मणां च सिद्धिर्भवति नान्यथा इति।
Swami Sivananda
3.30 मयि in Me? सर्वाणि all? कर्माणि actions? संन्यस्य renouncing? अध्यात्मचेतसा with the mind centred in the Self? निराशीः free from hope? निर्ममः free from egoism? भूत्वा having become युध्यस्व fight (thou)? विगतज्वरः free from (mental) fever.Commentary Surrender all the actions to Me with the thought? I perform all actions for the sake of the Lord.Fever means grief? sorrow. (Cf.V.10XVIII.66).
Sri Jayatritha
।।3.30।।मयि सर्वाणि इत्यस्य सङ्गतिं दर्शयति अत इति यतो विद्वत्कर्मैवंविधं त्वं च विद्वानस्यतः। ननु सन्न्यासो विसर्गः स च स्वकीयस्य भवति न च जीवस्य कर्माणि सन्तीत्युक्तं तत्कथं तेषां विसर्गो विधीयत इत्यत आह भ्रान्त्येति। कर्मणां परमेश्वरे सन्न्यासो नाम तदात्मकत्वविज्ञानमिति कश्चित् तदसत् अशाब्दत्वात् प्रमाणविरुद्धत्वाच्चेति भावेन स्वपक्षे तदभिप्रायमाह भगवानिति। इति ज्ञात्वेति शेषः। प्रकारान्तरं चाह मदिति। इति समर्पणं च कर्मणां मयि सन्न्यास इति शेषः। कर्माणि परमेश्वरात्मकत्व प्रतिपद्यन्त तत्प्राप्तये कल्प्यन्त इत्यध्यात्मचेतसेति व्याख्यानमशाब्दमिति भावेन व्याचष्टे आत्मानमिति। अनेनाव्ययीभावगर्भः कर्मधारय इत्युक्तं भवति। अस्यनिराशीः इत्यनेनान्वयः। परमात्मलाभेन निराशीराशारहित इत्युक्तं भवति। ननु निर्ममत्वं न मम कर्माणि सन्तीति ज्ञानम्। तच्चमयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य इत्यनेन गतार्थमतो द्वयोर्भेदमाह सन्न्यासस्त्विति। उभयत्रेतिशब्दात्परं ज्ञानमिति शेषः।
Sri Abhinavgupta
।।3.30।।तस्माद्युक्तः सन् जुषेत कर्माणि इत्युक्तं तत्र तत् कथमिति स्फुटयति मयीति। मयि सर्वाणि (S मयि स्थित्वा सर्वाणि) कर्माणि नाहं कर्ता इति सन्यस्य सर्वतन्त्रः परमेश्वर एव सर्वकर्ता नाहं कश्चित् इति निश्चित्य लोकानुग्रहं चिकीर्षुः लोकाचारं युद्धात्मकम् अनुतिष्ठ।