Chapter 14, Verse 26
Verse textमां च योऽव्यभिचारेण भक्ितयोगेन सेवते।स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14.26।।
Verse transliteration
māṁ cha yo ’vyabhichāreṇa bhakti-yogena sevate sa guṇān samatītyaitān brahma-bhūyāya kalpate
Verse words
- mām—me
- cha—only
- yaḥ—who
- avyabhichāreṇa—unalloyed
- bhakti-yogena—through devotion
- sevate—serve
- saḥ—they
- guṇān—the three modes of material nature
- samatītya—rise above
- etān—these
- brahma-bhūyāya—level of Brahman
- kalpate—comes to
Verse translations
Swami Gambirananda
And he who serves Me through the unswerving Yoga of Devotion, he, having gone beyond these qualities, qualifies for becoming Brahman.
Dr. S. Sankaranarayan
Whoever serves me alone with an unwavering devotion to yoga, they will transcend these strands and become Brahman.
Shri Purohit Swami
And he who serves Me alone, with unwavering devotion, shall overcome the Qualities and become one with the Eternal.
Swami Ramsukhdas
।।14.26।।जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
Swami Tejomayananda
।।14.26।। जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है।।
Swami Adidevananda
And he who, with unwavering devotion through Yoga, serves Me, he, transcending the Gunas, becomes fit for the state of Brahman.
Swami Sivananda
And he who serves Me with unwavering devotion, he, crossing beyond the dualities, is fit for becoming Brahman.
Verse commentaries
Swami Sivananda
14.26 माम् Me? च and? यः who? अव्यभिचारेण unswerving? भक्तियोगेन with devotion? सेवते serves? सः he? गुणान् Gunas? समतीत्य crossing beyond? एतान् these? ब्रह्मभूयाय for becoming Brahman? कल्पते is fit.Commentary A Sannyasi or even a Karma Yogi who serves Him (the Isvara? Narayana Who abides in the hearts of all beings) with unswerving devotion? is endowed with the knowledge of the Self. He then goes beyond the three alities and becomes fit to become Brahman? for attaining liberation or release from birth and death.He attains to the knowledge of the Self through the grace and mercy of the Lord. To these everharmonious devotees worshipping Me in love? I give the Yoga of discrimination by which they come unto Me. Out of pure compassion for them? dwelling within their Self? I destroy the ignorancorn darkness by the shining lamp of wisdom. (Chapter X. 10 and 11)Avyabhicharini Bhakti The devotee constantly meditates on the Lord. He has exclusive devotion to the Lord alone. He has no other thought save that of his Lord. His mind is filled with the thoughts of the Lord. His thoughts flow towards the Lord like the continuous flow of oil from one vessel to another. There is Sajatiya Vritti Pravaha? i.e.? unbroken flow of the one thought of God. There is total abandonment of thoughts of sensual objects. Constant thinking of God is the sure means for crossing beyond the three alities of Nature.
Swami Ramsukhdas
।।14.26।। व्याख्या -- [यद्यपि भगवान्ने इसी अध्यायके उन्नीसवेंबीसवें श्लोकोंमें गुणोंका अतिक्रमण करनेका उपाय बता दिया था? तथापि अर्जुनने इक्कीसवें श्लोकमें गुणातीत होनेका उपाय पूछ लिया। इससे यह मालूम होता है कि अर्जुन उस उपायके सिवाय गुणातीत होनेके लिये दूसरा कोई उपाय जानना चाहते हैं। अतः अर्जुनको भक्तिका अधिकारी समझकर भगवान् उनको गुणातीत होनेका उपाय भक्ति बताते हैं।]मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते -- इन पदोंमें उपासक? उपास्य और उपासना -- ये तीनों आ गये हैं अर्थात् यः पदसे उपासक? माम् पदसे उपास्य और अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते पदोंसे उपासना आ गयी है।अव्यभिचारेण पदका तात्पर्य है कि दूसरे किसीका भी सहारा न हो। सांसारिक सहारा तो दूर रहा? ज्ञानयोग? कर्मयोग आदि योगों(साधनों) का भी सहारा न हो और भक्तियोगेन पदका तात्पर्य है कि केवल भगवान्का ही सहारा हो? आश्रय हो? आशा हो? बल हो? विश्वास हो। इस तरह अव्यभिचारेण पदसे दूसरोंका आश्रय लेनेका निषेध करके भक्तियोगेन पदसे केवल भगवान्का ही आश्रय लेनेकी बात कही गयी है।सेवते पदका तात्पर्य है कि अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा भगवान्का भजन करे? उनकी उपासना करे? उनके शरण हो जाय? उनके अनुकूल चले।स गुणान्समतीत्यैतान् -- जो अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है? उसको गुणोंका अतिक्रमण करना नहीं पड़ता? प्रत्युत भगवान्की कृपासे उसके द्वारा स्वतः गुणोंका अतिक्रमण हो जाता है (गीता 12। 67)।ब्रह्मभूयाय कल्पते -- वह गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र (अधिकारी) हो जाता है। भगवान्ने जब यहाँ भक्तिकी बात बतायी है? तो फिर भगवान्को यहाँ ब्रह्मप्राप्तिकी बात न कहकर अपनी प्राप्तिकी बात बतानी चाहिये थी। परन्तु यहाँ ब्रह्मप्राप्तिकी बात बतानेका तात्पर्य यह है कि अर्जुनने गुणातीत होने(निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्ति) का उपाय पूछा था। इसलिये भगवान्ने अपनी भक्तिको? ब्रह्मप्राप्तिका उपाय बताया।दूसरी बात? शास्त्रोंमें कहा गया है कि भगवान्की उपासना करनेवालेको ज्ञानकी भूमिकाओंकी सिद्धिके लिये दूसरा कोई साधन? प्रयत्न नहीं करना पड़ता? प्रत्युत उसके लिये ज्ञानकी भूमिकाएँ अपनेआप सिद्ध हो जाती हैं। उसी बातको लक्ष्य करके भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरा सेवन करनेवालेको ब्रह्मप्राप्तिका पात्र बननेके लिये दूसरा कोई साधन नहीं करना पड़ता? प्रत्युत वह अपनेआप ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है। परन्तु वह भक्त ब्रह्मप्राप्तिमें सन्तोष नहीं करता। उसका तो यही भाव रहता है कि भगवान् कैसे प्रसन्न हों भगवान्की प्रसन्नतामें ही उसकी प्रसन्नता होती है। तात्पर्य यह निकला कि जो केवल भगवान्के ही परायण है? भगवान्में ही आकृष्ट है? उसके लिये ब्रह्मप्राप्ति स्वतःसिद्ध है। हाँ? वह ब्रह्मप्राप्तिको महत्त्व दे अथवा न दे -- यह बात दूसरी है? पर वह ब्रह्मप्राप्तिका अधिकारी स्वतः हो जाता है।तीसरी बात? जिस तत्त्वकी प्राप्ति ज्ञानयोग? कर्मयोग आदि साधनोंसे होती है? उसी तत्त्वकी प्राप्ति भक्तिसे भी होती है। साधनोंमें भेद होनेपर भी उस तत्त्वकी प्राप्तिमें कोई भेद नहीं होता। सम्बन्ध -- उपासना तो करे भगवान्की और पात्र बन जाय ब्रह्मप्राप्तिका -- यह कैसे इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Chinmayananda
।।14.26।। धर्म का व्यावहारिक शास्त्रीय ग्रंथ होने के कारण गीता में केवल सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया गया है। इसमें प्रत्येक सिद्धान्त के विवेचन के पश्चात् उस साधन का वर्णन किया गया है? जिसके अभ्यास से एक साधक सिद्धावस्था को प्राप्त हो सकता है।जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है ईश्वर से परम प्रीति भक्ति कहलाती है। प्रिय वस्तु में हमारा मन सहजता से रमता है। हमारा सम्पूर्ण स्वभाव हमारे विचारों से पोषित होता है। यथा विचार तथा मन? यह नियम है। इसलिये एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है।यह सत्य है कि परमात्मा का अखण्ड चिन्तन एक समान निष्ठा एवं प्रखरता के साथ संभव नहीं होता है। जिस स्थिति में आज हम अपने को पाते हैं? उसमें यह सार्मथ्य नहीं है कि मन को दीर्घकाल तक ध्यानाभ्यास में स्थिर कर सकें। साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् एक उपाय बताते हैं? जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण बनाये रख सकते हैं। और वह उपाय है सेवा। तृतीय अध्याय में यह वर्णन किया जा चुका है कि ईश्वरार्पण की भावना से किए गए सेवा कर्म ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा? या भजन ही पर्याप्त नहीं है। गीताचार्य की अपने भक्तों से यह अपेक्षा है कि वे अपने धर्म को केव्ाल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखें। उन्हें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन? कार्य क्षेत्र और लोगों के साथ व्यवहार में भी धर्म का अनुसरण करें।अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवासाधना मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है। तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना के योग्य बन जाता है। ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती।उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है। जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है।यह साधक स्वयं ब्रह्म कैसे बनता बनता है सुनो
Sri Anandgiri
।।14.26।।प्रश्नद्वयमेवं परिहृत्य तृतीयं प्रश्नं परिहरति -- अधुनेति। मच्छब्दस्य संसारिविषयत्वं व्यावर्तयति -- ईश्वरमिति। तत्रैव नारायणशब्दान्मूर्तिभेदो व्यावर्त्यते। तस्य ताटस्थ्यं व्यवच्छिनत्ति -- सर्वेति। मुख्यामुख्याधिकारिभेदेन विकल्पः। भक्तियोगस्य यादृच्छिकत्वं व्यवच्छेत्तुमव्यभिचारेणेत्युक्तम्। तद्व्याचष्टे -- नेति। भजनं परमप्रेमा स एव युज्यतेऽनेनेति योगः। सेवते पराक्चित्ततां विना सदानुसंदधातीत्यर्थः। स भगवदनुकृतसम्यग्धीसंपन्नो विद्वाञ्जीवन्नेवेत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।14.26।।प्रस्नद्वयं समाधायेदानीं कथमेतान् त्रीन् गुणानतिवर्तते इति तृतीयप्रश्नस्य प्रतिवचनमाह -- मामिति। चः पूर्वोक्तगुणातीतलक्षणस्य मुमुक्षुणा प्रयत्नसाध्यस्य समुच्चयार्थः। मामीश्वरं नारायणं सर्वभूतहृदयाश्रितं यो यतिः कर्मी वाऽव्यभिचारेण व्यभिचारशून्येन निष्कामेण परमप्रेमलक्षणेन भजनं भक्तिः सैव यज्यतेऽनेनेति योगः तेन भक्तियोगेन तत्त्वज्ञानोत्पादकेन सेवते विषयचिन्तां विहाय सदानुसंदधाति स भगवदनुग्रहकृतसभ्यज्ञानसंपन्नो जीवन्नेवैतान्गुणान्यथोक्तान्समतीत्य सभ्यगतिक्रम्य ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभवनाय मोक्षाय कल्पते समर्थो भवतीत्यर्थः।
Sri Madhavacharya
।।14.26।।ब्रह्मवत्प्रकृतिवद्भगवत्प्रियत्वं ब्रह्मभूयम्। न तु तावत्प्रियत्वं? किन्तु प्रियत्वमात्रम्।बद्धा वापि तु मुक्ता वा न रमावत्प्रिया हरेः इति पाद्मे। भूयाय भवाय।
Sri Neelkanth
।।14.26।।अथ कथं त्रीन्गुणानतिवर्तत इत्यस्योत्तरं विवक्षन् साधनभूतासु तिसृषु भूमिषु तृतीयां तनुमानसामाह -- मां चेति। यश्च साधको मां प्रत्यगात्मानम्। चकारस्त्वर्थे पूर्वभूमिस्थापेक्षयास्य वैलक्षण्यं द्योतयति। अव्यभिचारेण वृत्त्यन्तरानन्तरितेन भक्तियोगेन मयि भगवति तैलधारावदविच्छिन्नवृत्तिप्रवाहिमनःप्रणिधानरूपेण,योगेन सेवते ध्यायति स एवं सूक्ष्मीकृतचित्त एतान् गुणान् समतीत्य ध्यानपरिपाकान्ते सत्त्वमपि बाधित्वा ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभावाय कल्पते योग्यो भवति।भुवो भावे इति भवतेर्भावे क्यप्।
Sri Ramanujacharya
।।14.26।।नान्यं गुणेभ्यः कर्तारम् (गीता 14।।19) इत्यादिना उक्तेन प्रकृत्यात्मविवेकानुसंधानमात्रेण न गुणात्ययः संपत्स्यते? तस्य अनादिकालप्रवृत्तविपरीतवासनाबाध्यत्वसंभवात्।।मां सत्यसंकल्पं परमकारुणिकम् आश्रितवात्सल्यजलधिम् अव्यभिचारेण ऐकान्त्यविशिष्टेन भक्तियोगेन च यः सेवते? स एतान् सत्त्वादीन् गुणान् दुरत्ययान् अतीत्य ब्रह्मभूयाय ब्रह्मत्वाय कल्पते ब्रह्मभावयोग्यो भवति? यथावस्थितम् आत्मानम् अमृतम् अव्ययं प्राप्नोति इत्यर्थः।
Sri Sridhara Swami
।।14.26।।कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तत इत्यस्य प्रश्नस्योत्तरमाह -- मांचेति। चशब्दोऽवधारणार्थः। मामेव परमेश्वरं श्रीनारायणमव्यभिचारेणैकान्तभक्तियोगेन यः सेवते स एतान्गुणान्समतीत्य सम्यगतिक्रम्य ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभावाय मोक्षाय कल्पते योग्यो भवति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।14.26।।तत्रमां च इतिश्लोकेन पृथगुपायविधिशङ्काव्युदासायाह -- अथेति। गुणात्ययहेतुषु अप्रधानकथनानन्तरमित्यर्थः। अत एव हिप्रधानहेतुमाहेत्युक्तम्।नान्यमित्यादि दृष्टद्वारोपकारकाणां प्रतिबन्धकभूयस्तया केवलानां न कार्यकरत्वमिति भावः।माम् इत्यनेन वासनापर्यन्तानादिप्रतिबन्धकप्रशमनौपयिकगुणयोगविवक्षामाह -- सत्यसङ्कल्पमित्यादिना।पराभिध्यानात्तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ [ब्र.सू.3।2।5] इति सूत्रोक्तेप्रकारेण बन्धसङ्कल्पवत्तन्निवर्तनसङ्कल्पोऽपि परमात्मनो न प्रतिहन्येतेति भावः। सत्यसङ्कल्पस्यापि समत्वादौदासीन्यपरिहाराय परमकारुणिकत्वोक्तिः। सदोषेषु संसारिषु करुणायाः कोऽवकाशः इत्यत्राहआश्रितवात्सल्यजलधिमिति। एवं निग्रहानुग्रहसाधारणस्य सत्यसङ्कल्पत्वस्य अनुग्रहप्रावण्यप्रदर्शनार्थं कारुण्यवात्सल्यरूपगुणद्वयमुक्तम्। अव्यभिचारो देवतान्तरादिपरित्यागरूप इत्यभिप्रायेणाहऐकान्त्यविशिष्टेनेति। भक्तियोगेन सह तदङ्गानां पूर्वोक्तानां समुच्चयार्थश्चशब्दः। तैरपि परमात्मैव हि सेव्यते।एतान् इत्यनेन गुणानां बन्धकत्वं पूर्वोक्तं परामृश्यत इत्यभिप्रायेणाहदुरत्ययानिति। एतेनदैवी ह्येषा गुणमयी [7।14] इत्यादिश्लोकोक्तमपि स्मारितम्।कल्पते इत्यनेनाभिप्रेतमाहब्रह्मभावयोग्यो भवतीति। कोऽसौ जीवस्य ब्रह्मभावः का च तद्योग्यता इत्यत्राहयथावस्थितमिति।ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा [18।54] इत्यादिष्विव अमृतत्वाव्ययत्वादिभिर्ब्रह्मसाम्यमेव श्रुत्यादिसिद्धमिह ब्रह्मभावः तच्च ब्रह्मसमं रूपंजन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते [14।20]देहे देहिनमव्ययम् [14।5] इत्यादिभिरिहैवोक्तम्। अनन्तरश्लोके चअमृतस्याव्ययस्य च [14।27] इति विशेष्यत इति भावः। साङ्गेनैकान्तिकभक्तियोगेन सेवितोऽहमेव मुमुक्षोर्मोक्षप्रद इत्युक्तं भवति।
Sri Abhinavgupta
।।14.26।।मां चेति। अनेन मूलभूतमुपायमुपदिशति। च शब्दोऽवधारणे -- यो मामेव सेवते। अनेन फलादिसाकाङ्क्षो मामङ्गत्वेनाश्रयति? फलं प्रधानतया इति निरस्तः। अत एव न अस्याव्यभिचारिणी भक्तिः फलं प्रति ह्यसौ आस्थावान् इति। यस्तु फलं किंचिदपि अनभिलष्यन् किमेतदलीकमनुतिष्ठसि (?N किमिति तदलीक -- ) इति पर्यनुयुज्यमानोऽपि? निरन्तरभगवद्भक्तिवेधविद्रुतान्तःकरणतया कण्टकितरोमवान् (S उत्कण्टकित -- ) ? वेपमानतनुः विस्फारितनयनयुगलपरिवर्तमानसलिलसंपातः (?N विस्फारतरनयन -- ) तूष्णींभावेनैवोत्तरं प्रयच्छति? स एवाव्यभिचारिण्या भगवतो महेश्वरस्य अग्रशक्त्या (N उग्रशक्त्या) भक्त्या पवित्रीकृतो नान्य इति ज्ञेयम्।
Sri Jayatritha
।।14.26।।ब्रह्मभूयाय इत्यस्य परब्रह्मत्वायेति व्याख्यानं प्रमाणविरुद्धमिति भावेनान्यथा व्याचष्टे -- ब्रह्मवदिति। नात्र ब्रह्मशब्दं परं ब्रह्म? किन्तुमम योनिर्महद्ब्रह्म [14।3] इति प्रकृता प्रकृतिरेवब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहं [13।27] इत्युत्तरवाक्यात्। तद्भूयं च न तादात्म्यं? किन्तु तद्वद्भगवत्प्रियत्वमेव अन्यस्यान्यभावायोगादिति भावः। तत्किं यावत्प्रकृतेर्भगवत्प्रियत्वं तावद्गुणातीतस्येत्यतः सप्रमाणमाह -- न त्विति। तत्किं भूयशब्दः प्रियत्ववाची येनैवं व्याख्यायते इत्यत आह -- भूयायेति। भुवो भाव इति वचनाद्भावो भवनं भूयशब्दार्थः। ब्रह्मवद्भावो ब्रह्मभूयम्।वदः सुपि [अष्टा.3।1।106] इति सुबन्तमात्रस्योपपदस्यानुवृत्तेः। वत्यर्थस्य च वृत्तावन्तर्भावात्। मयूरव्यंसकादिवत्। वत्यर्थश्च प्रियत्वमिति तदुक्तमिति भावः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।14.26।।अधुना कथमेतान्गुणानतिवर्तत इति तृतीयप्रश्नस्य प्रतिवचनमाह -- चस्त्वर्थः। मामेवेश्वरं नारायणं सर्वभूतान्तर्यामिणं मायया क्षेत्रज्ञतामागतं परमानन्दघनं भगवन्तं वासुदेवमव्यभिचारेण परमप्रेमलक्षणेन भक्तियोगेन द्वादशाध्यायोक्तेन यः सेवते सदा चिन्तयति स मद्भक्त एतान् प्रागुक्तान् गुणान् समतीत्य,सम्यगतिक्रम्य द्वैतदर्शनेन बाधित्वा ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभवनाय मोक्षाय कल्पते समर्थो भवति। सर्वदा भगवच्चिन्तनमेव गुणातीतत्वोपाय इत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।14.26।।कथं गुणानतिवर्त्तते इत्यत्रोत्तरमाह -- मां चेति। चस्त्वर्थे। मां मदर्थे अव्यभिचारेण अनन्यात्मकेन भक्ितयोगेन यः सेवते? स एतान् गुणान् समतीत्य सम्यगतिक्रम्य ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभावाय कल्पते समर्थो भवति।
Sri Shankaracharya
।।14.26।। --,मां च ईश्वरं नारायणं सर्वभूतहृदयाश्रितं यो यतिः कर्मी वा अव्यभिचारेण न कदाचित् यो व्यभिचरति भक्तियोगेन भजनं भक्तिः सैव योगः तेन भक्तियोगेन सेवते? सः गुणान् समतीत्य एतान् यथोक्तान् ब्रह्मभूयाय? भवनं भूयः? ब्रह्मभूयाय ब्रह्मभवनाय मोक्षाय कल्पते समर्थो भवति इत्यर्थः।।कुत एतदिति उच्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।14.26।।किञ्च भक्तिमार्गीयस्य गुणातीतत्वं केवलगुणातीतभगवद्भक्त्येति तथाह -- मां चेति। मां पुरुषोत्तमं अव्यभिचारेण सर्वात्मना ऐकान्तिकेन भक्तियोगेन स्नेहयोगेन सेवते? स गुणानेतानतीत्य ब्रह्मभूयायाक्षरब्रह्मभावाय कल्पते। एतेन अव्यभिचारिभक्तिमर्यादया सेवतामपि ब्रह्मात्मप्राप्तिरुक्तानुषङ्गिकी अव्यभिचारिभक्तियोगोक्तिः। यथा च श्रुतौ -- यो वै स्वां देवतामतियजते प्रस्थायै देवतायै च्यवते न परीप्राप्नोति स पापीयान्भवति तमेवैकं जानथात्मानं अन्या वाचो विमुञ्चथ अमृतस्यैष सेतुः [मुं.उ.2।2।5] इति। अत्रात्मत्वेन ज्ञानं स्नेहभक्तिविषयत्वेन एवकारेण व्यभिचारिणीभक्तिव्यावृत्तिरनूद्यते अयमेवामृतस्य त्रिगुणात्मकरूपमोक्षस्य सेतुरित्यर्थः।