Chapter 14, Verse 8
Verse textतमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।14.8।।
Verse transliteration
tamas tv ajñāna-jaṁ viddhi mohanaṁ sarva-dehinām pramādālasya-nidrābhis tan nibadhnāti bhārata
Verse words
- tamaḥ—mode of ignorance
- tu—but
- ajñāna-jam—born of ignorance
- viddhi—know
- mohanam—illusion
- sarva-dehinām—for all the embodied souls
- pramāda—negligence
- ālasya—laziness
- nidrābhiḥ—and sleep
- tat—that
- nibadhnāti—binds
- bhārata—Arjun, the son of Bharat
Verse translations
Swami Sivananda
But know thou Tamas to be born of ignorance, deluding all embodied beings; it binds fast, O Arjuna, through heedlessness, indolence, and sleep.
Dr. S. Sankaranarayan
But, you should also know that Tamas is born of ignorance and deludes all the Embodied; it binds them with negligence, laziness, and sleep, O descendant of Bharata!
Shri Purohit Swami
But Ignorance, the product of darkness, stupefies the senses of all embodied beings, binding them with chains of folly, indolence, and lethargy.
Swami Ramsukhdas
।।14.8।।हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियोंको मोहित करनेवाले तमोगुणको तुम अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्राके द्वारा देहधारियोंको बाँधता है।
Swami Tejomayananda
।।14.8।। और हे भारत ! तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न जानो; जो समस्त देहधारियों (जीवों) को मोहित करने वाला है। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा जीव को बांधता है।।
Swami Adidevananda
Know that Tamas is born of false knowledge and deludes all embodied beings. It binds, O Arjuna, with negligence, indolence, and sleep.
Swami Gambirananda
On the other hand, know tamas, which deludes all embodied beings, to be born of ignorance. O scion of the Bharata dynasty, it binds through inadvertence, laziness, and sleep.
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।14.8।। तमसो लक्षणं बन्धकत्वं चाह -- तम इति। तमस्तु अज्ञानाज्जातं आवरणशक्तिप्रधानात्प्रकृत्यंशादुद्भूतं विद्धीत्यर्थः। अतः सर्वेषां देहिनां मोहनं भ्रान्तिजनकं। अतएव प्रमादेनालस्येन निद्रया च तत्तमो देहिनं निबध्नाति। तत्र प्रमादोऽनवधानं? आलस्यमनुद्यमः? निद्रा चित्तस्यावसादो लयः।
Sri Shankaracharya
।।14.8।। --,तमः तृतीयः गुणः अज्ञानजम् अज्ञानात् जातम् अज्ञानजं विद्धि मोहनं मोहकरम् अविवेककरं सर्वदेहिनां सर्वेषां देहवताम्। प्रमादालस्यनिद्राभिः प्रमादश्च आलस्यं च निद्रा च प्रमादालस्यनिद्राः ताभिः प्रमादालस्यनिद्राभिः तत् तमः निबध्नाति भारत।।पुनः गुणानां व्यापारः संक्षेपतः उच्यते --,
Swami Ramsukhdas
।।14.8।। व्याख्या -- तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् -- सत्त्वगुण और रजोगुण -- इन दोनोंसे तमोगुणको अत्यन्त निकृष्ट बतानेके लिये यहाँ तु पदका प्रयोग हुआ है।यह तमोगुण अज्ञानसे अर्थात् बेसमझीसे? मूर्खतासे पैदा होता है और सम्पूर्ण देहधारियोंको मोहित कर देता है अर्थात् सत्असत्? कर्तव्यअकर्तव्यका ज्ञान (विवेक) नहीं होने देता। इतना ही नहीं? यह सांसारिक सुखभोग,और संग्रहमें भी नहीं लगने देता अर्थात् राजस सुखमें भी नहीं जाने देता? फिर सात्त्विक सुखकी तो बात ही क्या हैवास्तवमें तमोगुणके द्वारा मोहित होनेकी बात केवल मनुष्योंके लिये ही है क्योंकि दूसरे प्राणी तो स्वाभाविक ही तमोगुणसे मोहित हैं। फिर भी यहाँ सर्वदेहिनाम् पद देनेका तात्पर्य है कि जिन मनुष्योंमें सत्असत्? कर्तव्यअकर्तव्यका ज्ञान (विवेक) नहीं है? वे मनुष्य होते हुए भी चौरासी लाख योनियोंवाले प्राणियोंके समान ही हैं अर्थात् जैसे पशुपक्षी आदि प्राणी खापी लेते हैं और सो जाते हैं? ऐसे ही वे मनुष्य भी हैं।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत -- यह तमोगुण प्रमाद? आलस्य और निद्राके द्वारा सम्पूर्ण देहधारियोंको बाँध देता है।प्रमाद दो तरहका होता है -- (1) करनेलायक कामको न करना अर्थात् जिस कामसे अपना और दुनियाका? अभी और परिणाममें हित होता है? ऐसे कर्तव्यकर्मोंको प्रमादके कारण न करना और (2) न करनेलायक कामको करना अर्थात् जिस कामसे अपना और दुनियाका अभी और परिणाममें अहित होता है? ऐसे कर्मोंको करना।न करनेलायक काम भी दो तरहके होते हैं -- 1 -- व्यर्थ खर्च करना अर्थात् बीड़ीसिगरेट? भाँगगाँजा आदि पीनेमें और नाटकसिनेमा? खेल आदि देखनेमें धन खर्च करना और 2 -- व्यर्थ क्रिया करना अर्थात् ताशचौपड़ खेलना? खेलकूद करना? बिना किसी कारणके पशुपक्षी आदिको कष्ट देना? तंग करना? बिना किसी स्वार्थके छोटेछोटे पेड़पौधोंको नष्ट कर देना आदि व्यर्थ क्रियाएँ करना।आलस्य भी दो प्रकारका होता है -- (1) सोते रहना? निकम्मे बैठे रहना? आवश्यक काम न करना और ऐसा विचार रखना कि फिर कर लेंगे? अभी तो बैठे हैं -- इस तरहका आलस्य मनुष्यको बाँधता है और (2) निद्राके पहले शरीर भारी हो जाना? वृत्तियोंका भारी हो जाना? समझनेकी शक्ति न रहना -- इस तरहका आलस्य दोषी नहीं है क्योंकि यह आलस्य आता है? मनुष्य करता नहीं।निद्रा भी दो तरहकी होती है -- (1) आवश्यक निद्रा -- जो निद्रा शरीरके स्वास्थ्यके लिये नियमितरूपसे ली जाती है और जिससे शरीरमें हलकापन आता है? वृत्तियाँ स्वच्छ होती हैं? बुद्धिको विश्राम मिलता है? ऐसी आवश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी नहीं है। भगवान्ने भी ऐसी नियमित निद्रोको दोषी नहीं माना है? प्रत्युत योगसाधनमें सहायक माना है -- युक्तस्वप्नावबोधस्य (6। 17) और (2) अनावश्यक निद्रा -- जो निद्रा निद्राके लिये ली जाती है? जिससे बेहोशी ज्यादा आती है? नींदसे उठनेपर भी शरीर भारी रहती है? वृत्तियाँ भारी रहती हैं? पुरानी स्मृति नहीं होती? ऐसी अनावश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी है। इस अनावश्यक निद्राको भगवान्ने भी त्याज्य बताया है -- न चाति स्वप्नशीलस्य (6। 16)।इस तरह तमोगुण प्रमाद? आलस्य और निद्राके द्वारा मनुष्यको बाँध देता है अर्थात् उसकी सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति नहीं होने देता।विशेष बातसत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण मनुष्यको बाँधते हैं? पर इन तीनोंके बाँधनेके प्रकारमें फरक है। सत्त्वगुण और रजोगुण सङ्गसे बाँधते हैं अर्थात् सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे तथा रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे बाँधता है। अतः सत्त्वगुणमें सुखसङ्ग और ज्ञानसङ्ग बताया तथा रजोगुणमें,कर्मसङ्ग बताया। परन्तु तमोगुणमें सङ्ग नहीं बताया क्योंकि तमोगुण मोहनात्मक है। इसमें,किसीका सङ्ग करनेकी जरूरत नहीं पड़ती। यह तो स्वरूपसे ही बाँधनेवाला है। तात्पर्य यह हुआ कि सत्त्वगुण और रजोगुण तो सङ्ग(सुखासक्ति) से बाँधते हैं? पर तमोगुण स्वरूपसे ही बाँधनेवाला है।अगर सुखकी आसक्ति न हो और ज्ञानका अभिमान न हो तो सुख और ज्ञान बाँधनेवाले नहीं होते? प्रत्युत गुणातीत करनेवाले होते हैं। ऐसे ही कर्म और कर्मफलमें आसक्ति न हो? तो वह कर्म परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करानेवाला होता है (गीता 3। 19)।उपर्युक्त तीनों गुण प्रकृतिके कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणोंसे सर्वथा रहित है। गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण ही वह स्वयं निर्लिप्त? गुणातीत होता हुआ भी गुणोंके द्वारा बँध जाता है। अतः अपने वास्तविक स्वरूपका लक्ष्य रखनेसे ही साधक गुणोंके बन्धनसे छूट सकता है। सम्बन्ध -- बाँधनेसे पहले तीनों गुण क्या करते हैं -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।14.8।। तमोगुण अज्ञानजनित है तमोगुण के प्रभाव से सत्य और असत्य का विवेक करने की मनुष्य की बौद्धित क्षमता आच्छादित हो जाती है और फिर वह किसी संभ्रमित या मूर्ख व्यक्ति के समान व्यवहार करने लगता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह तमोगुण जीवन के सत्य और दिव्य लक्ष्य के प्रति अनेक मिथ्या धारणाओं एवं मिथ्या आग्रहों को जन्म देकर मनुष्य को निम्न स्तर का जीवन जीने को बाध्य करता है। इसके वशीभूत होकर मनुष्य प्रमाद (असावधानी) और आलस्य (कार्य को टालते रहने की प्रवृत्ति) का शिकार बन जाता है। जीवनादर्शों और दिव्य महात्वाकांक्षाओं के प्रति मानो वह सुप्त रहता है। तमोगुणी पुरुष में न लक्ष्य की स्थिरता होती है और न बुद्धि की प्रतिभा उसमें न भावनाओं की कोमलता होती है और न कर्मों की कुशलता।अब तक भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रमवार सत्त्व? रज और तमोगुण के उन लक्षणों का वर्णन किया है? जो हमारे मानसिक जीवन में देखे जाते हैं। ये हमारे मन की शान्ति को भंग कर देने वाले होते हैं। इन तीनों गुणों के कारण विभिन्न व्यक्तियों में दिव्यता की अभिव्यक्ति में भी तारतम्य होता है और ये गुण नित्य? अनन्तस्वरूप आत्मा को मानो अनित्य और परिच्छिन्न बना देते हैं।संक्षेपत?
Sri Anandgiri
।।14.8।।तमस्तर्हि किंलक्षणं कथं वा पुरुषं निबध्नाति तत्राह -- तमस्त्विति। गुणानां प्रकृतिसंभवत्वाविशेषेऽपि तमसोऽज्ञानजत्वविशेषणं तद्विपरीतस्वभावानापत्तेरिति मत्वाह -- अज्ञानादिति। मुह्यत्यनेनेति मोहनं विवेकप्रतिबन्धकमिति कार्यद्वारा तमो निर्दिशति -- मोहनमित्यादिना। लक्षणमुक्त्वा तमसो बन्धनकरत्वं दर्शयति -- प्रमादेति। कार्यान्तरासक्ततया चिकीर्षितस्य कर्तव्यस्याकरणं प्रमादः? निरीहतयोत्साहप्रतिबन्धस्त्वालस्यं? स्वापो निद्रा ताभिरात्मानमविकारमेव तमोऽपि विकारयतीत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।14.8।। तमस्तर्हि किंलक्षणं कथं वा पुरुषं निबध्नातीत्यपेक्षायां तस्य लक्षणं बन्धकत्वं चाह -- तमस्त्विति। तुशब्दो विसेषद्योतनार्थः। अज्ञानाज्जातमज्ञानजम्। यद्यपि त्रयाणामज्ञानजत्वं समानं तथापि तमसोऽज्ञानजत्वं विशेषणं तद्विपरीतस्वभावाऽनापत्तेः विद्धि विजानीहि। सर्वदेहिनां सर्वेषां देहवतां मोहनं हिताहितादिविवेकप्रतिबन्धकं कार्यान्तरासक्ततया चिकीर्षितस्य कर्तव्यस्याकरणं प्रमादः। यत्तु प्रमादो वस्तुविवेकासामर्थ्यमिति तदुपेक्ष्यम्। उक्तार्थस्य मोहनमित्यस्मिन्नन्तर्भावसंभवात्। निरीहतयोत्साहप्रतिबन्धकं त्वालस्यं। त्वापो निद्रा। प्रमादालस्यनिद्राभिस्तत्तमो निबध्नाति निर्विकारमेवात्मानं विकारयतीत्यर्थः। त्वं तु भरतवंशोद्भवत्वात्तमःकर्तृकबन्धनायोग्योसीति सूचयन्संबोधयति -- भारतेति।
Sri Madhavacharya
।।14.8।।अज्ञानं जायते यतस्तदज्ञानजम्।प्रमादमोहौ तमसः [14।17] इति वाक्यशेषात्।
Sri Neelkanth
।।14.8।।तमोगुणस्तु पूर्वाभ्यां विलक्षणः। अज्ञानं मायाया आवरणशक्तिस्तत उद्भूतं अज्ञानजं विद्धि। अतः सर्वेषां देहिनां मोहनं भ्रान्तिहेतुः। प्रमादोऽनवहितत्वं स च सत्त्वकार्यप्रकाशविरोधी। आलस्यं जडता तच्च रजःकार्यप्रवृत्तिविरोधि। उभयकार्यनिरोधिनी तमोगुणालम्बना वृत्तिर्निद्रा ताभिस्तत्तमो नितरां बध्नाति। हे भारत? देहिनमित्यनुवर्तते।
Sri Vallabhacharya
।।14.8।।तमसश्चाह -- तम इति। विरुद्धज्ञानजन्यं? अविद्याजन्यमिति वा।
Sri Ramanujacharya
।।14.8।।ज्ञानाद् अन्यद् इह अज्ञानम् अभिप्रेतम् ज्ञानं वस्तुयाथात्म्यावबोधः? तस्माद् अन्यत् तद्विपर्ययज्ञानं तमः तु वस्तुयाथात्म्यविपरीतविषयज्ञानजं मोहनं सर्वदेहिनाम् मोहो विपर्ययज्ञानम्? विपर्ययज्ञानहेतुः इत्यर्थः। तत् तमःप्रमादालस्यनिद्राहेतुतया तद्द्वारेण देहिनं निबध्नाति। प्रमादः कर्तव्यात् कर्मणः अन्यत्र प्रवृत्तिहेतुभूतम् अनवधानम्। आलस्यं कर्मसु अनारम्भस्वभावः? स्तब्धता इति यावत्। पुरुषस्य इन्द्रियप्रवर्तनश्रान्त्या सर्वेन्द्रियप्रवर्तनोपरतिः निद्रा तत्र बाह्येन्द्रियप्रवर्तनोपरमः स्वप्नः मनसः अपि उपरतिः सुषुप्तिः।सत्त्वादीनां बन्धद्वारभूतेषु प्रधानानि आह --
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।14.8।।अत्यन्तपरिहरणीयत्वलक्षणवैषम्यद्योतनायतमस्त्विति तुशब्दः। अज्ञानशब्दस्य पुण्यपापरूपे कर्मणि ज्ञानाभावादिषु च प्रयोगादिह तद्व्यावृत्तं मोहजनकत्वानुरूपं कारणविशेषमाहज्ञानादन्यदिति। सर्वज्ञानव्यतिरेकव्युदासायाहज्ञानं वस्तुयाथात्म्यावबोध इति। विपर्ययज्ञानस्य तमोजनकत्वं पापानुष्ठानादिद्वारा। तमःकार्यतया वक्ष्यमाणं धर्मवैपरीत्यज्ञानमिह मोहशब्देन विवक्षितमित्याहमोहो विपर्ययज्ञानमिति। प्रत्ययस्यात्र हेतुमात्रपरतामाहविपर्ययज्ञानहेतुरित्यर्थ इति।अनवधानमित्येतावत्प्रमादशब्दार्थः।कर्तव्यादित्यादिना प्रमादस्य बन्धहेतुत्वनिर्वहणम् अकर्तव्ये हि प्रवृत्तिः पापिष्ठजन्मादिहेतुर्भवति? एवं कर्तव्यकर्मस्वनारम्भोऽपि स्मरन्ति हिअकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः [मनुः11।44] इति। आलस्यशब्दस्यात्र सप्रयोजनेऽपि विषये प्रवृत्तिविरोधिस्वभावपरतामाह -- स्तब्धतेति। सर्वदा तमसि वर्तमानेऽपि कदाचिन्निद्रा कुतः इत्यत्राह -- इन्द्रियप्रवर्तनश्रान्त्येति। स्वप्नस्यानुक्तिशङ्कापरिहाराय स्वप्नसुषुप्त्योर्निद्राभेदत्वं दर्शयतितत्रेति। निद्राया बन्धकत्वं चोदितानुष्ठानविरुद्धादकालकरणात्काले चाकरणात्पापिष्ठस्वप्नद्वारा च द्रष्टव्यम्। उक्तं च -- युक्तस्वप्नावबोधस्य [6।17] इति।
Sri Abhinavgupta
।।14.6 -- 14.8।।क्रमेणैषां रूपमुच्यते -- तत्रेत्यादि भारतेत्यन्तम्। सत्त्वं निर्मलम्। तृष्णासंगस्य समुद्भवो यतः। दुर्लभस्यापि चिरतरसंचितपुण्यशतलब्धस्य अपवर्गप्राप्तावेककारणस्य मानुष्यकस्य वृथा अतिवाहनं प्रमादः। तथाह्युक्तम्,(?N तथाभ्युक्तम्) -- आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते।स वृथा नीयते येन स प्रमादी नराधमः।।14.इति (S in the margin? and ?N in the text itself add the followingयथा वा श्रीमद्भागवते -- निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः।दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्बभरणेन वा।।1।।देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि।तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।।2।। -- The hagavata Purana ( Gorakhpur Ed.) II? i? verse 34तथा --,किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह।वरं मुहूर्त्तं विदितं घटेत श्रेयसे यतः।।3।। -- ibid? 12.अयमेव प्रमादः तत्रैवैकादशस्कन्धे आत्महत्याशब्दवाच्यो निर्णीतो भगवता,यथा -- नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा।।4।। इति -- ibid. XI? xx? 17.)आलस्यं शुभकरणीयेषु। निःशेषेण द्राणं कुत्सिता गतिः निद्रा।
Sri Jayatritha
।।14.8।।तमस्त्वज्ञानजं इत्यस्यअज्ञानाज्जातं (शं.) इत्यपव्याख्यां प्रत्याख्यातुमाह -- अज्ञानमिति। एतच्चअन्येष्वपि दृश्यते [अष्टा.3।2।101] इति दृशिग्रहणसामर्थ्याल्लभ्यते। कुतः प्रतीत एवार्थो न इत्यत आह -- प्रमादेति। वाक्यशेषेऽज्ञानस्य तमःकार्यत्ववचनादित्यर्थः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।14.8।।तुशब्दः सत्त्वरजोपेक्षया विशेषद्योतनार्थः। अज्ञानादावरणशक्तिरूपात्तदुद्भूतमज्ञानजं तमो विद्धि। अतः सर्वेषां देहिनां मोहनं अविवेकरूपत्वेन भ्रान्तिजनकं। प्रमादेनालस्येन निद्रया च तत्तमो निबध्नाति देहिनमित्यनुषज्यते। हे भारत? प्रमादो वस्तुविवेकासामर्थ्यं सत्त्वकार्यप्रकाशविरोधी? आलस्यं प्रवृत्त्यसामर्थ्यं रजःकार्यप्रवृत्तिविरोधि? उभयविरोधिनी तमोगुणालम्बना वृत्तिर्निद्रेति विवेकः।
Sri Purushottamji
।।14.8।।तमसो लक्षणं सबन्धकमाह -- तमस्त्विति। तमः पूर्वोक्तभगवल्लीलाद्यज्ञानाज्जातं प्रलयात्मकत्वात् भगवद्विस्मारणात्मकं सर्वदेहिनां मोहनं भ्रमजनकं विद्धि। प्रमादालस्यनिद्राभिर्भगवत्सेवाप्रतिबन्धात्मकत्रयरूपाभिरन्यथाज्ञानेन तं बध्नाति। प्रमादो भगवदनवधानता। आलस्यं भगवत्सेवानुद्यमः। निद्रा चित्तस्थ ज्ञाननाशः।
Swami Sivananda
14.8 तमः inertia? तु but? अज्ञानजम् born of ignorance? विद्धि know? मोहनम् deluding? सर्वदेहिनाम् to all,embodied beings? प्रमादालस्यनिद्राभिः by heedlessness? indolence and sleep? तत् that? निबध्नाति binds fast? भारत O descendant of Bharata (Arjuna).Commentary Tamas is that binding force with a tendency to lethargy? sloth and foolish actions. It causes delusion or nondiscrimination. It binds him who associates the Self with the body. A Tamasic man acts under the compulsion of the wants of the body. He has no power of judgment. Troubled by the wants of the body he acts under pressure to keep himself alive. His actions are not guided by reason. They are on the plane of instinct. His senses are dull. He becomes infatuated and stupefied. He has no inclination to work. He yawns much. He sleeps too much. He always wants to sleep. He nevr knows when and how to act? what? to whom and how to talk. He takes delight in following the wrong path. He does not know how to behave or how to address others. He is thoughtless and ignorant. He forgets everything. He is negligent and indolent. He is just in a stage higher than lifeless matter.He who is under the grip of heedlessness (Pramada) is not able to discriminate between the eternal and the noneternal. This is an enemy of illumination? the effect of Sattva. He who is overpowered by laziness (Alasya) is not able to exert. This is an enemy of Pravritti? the effect of Rajas. Sleep (Nidra) is LayaVritti? (a state of absorption into ignorance) which is dependent on Tamas. This is the enemy of the works done by Sattva and Rajas.