Chapter 5, Verse 12
Verse textयुक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्। अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5.12।।
Verse transliteration
yuktaḥ karma-phalaṁ tyaktvā śhāntim āpnoti naiṣhṭhikīm ayuktaḥ kāma-kāreṇa phale sakto nibadhyate
Verse words
- yuktaḥ—one who is united in consciousness with God
- karma-phalam—the results of all activities
- tyaktvā—giving up
- śhāntim—peace
- āpnoti—attains
- naiṣhṭhikīm—everlasting
- ayuktaḥ—one who is not united with God in consciousness
- kāma-kāreṇa—impelled by desires
- phale—in the result
- saktaḥ—attached
- nibadhyate—becomes entangled
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।5.12।। कर्मयोगी कर्मफलका त्याग करके नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है। परन्तु सकाम मनुष्य कामनाके कारण फलमें आसक्त होकर बँध जाता है।
Swami Tejomayananda
।।5.12।। युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है; और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है।।
Swami Adidevananda
A yogi, renouncing the fruits of their actions, attains lasting peace. But the unsteady person who is attached to the fruits of their actions, being driven by desire, is bound.
Swami Gambirananda
Giving up the results of work by becoming resolute in faith, one attains peace arising from steadfastness. One who is lacking in resolute faith, being attached to the results under the impulse of desire, becomes bound.
Swami Sivananda
The one who is united (the well-poised or harmonized) having abandoned the fruit of action attains eternal peace; whereas the one who is not united (the unsteady or unbalanced), impelled by desire and attached to the fruit, is bound.
Dr. S. Sankaranarayan
Having abandoned attachment to the fruit of actions, the master of Yoga attains the highest Peace. But, one who is not a master of Yoga and is attached to the fruit of action, is bound by their actions born of desire.
Shri Purohit Swami
Having abandoned the fruit of action, he wins eternal peace. Others, unacquainted with spirituality, led by desire and clinging to the benefit they think will follow their actions, become entangled in them.
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।5.12।।ननु तेनैव कर्मणा कश्चिन्मुच्यते कश्चिद्बध्यत इति व्यवस्था कथमत आह युक्त इति। युक्तः परमेश्वरैकनिष्ठः सन्कर्मणां फलं त्यक्त्वा कर्माणि कुर्वन्नात्यन्तिकीं शान्तिं मोक्षं प्राप्नोति। अयुक्तस्तु बहिर्मुखः कामकारेण कामतः प्रवृत्त्या फले आसक्तो नितरां बन्धं प्राप्नोति।
Sri Vallabhacharya
।।5.12।।एवं च योगेन कर्मकरणे मोक्षं विपरीते बन्धनं चाह युक्त इति। शान्तिः फलं तत्र च बन्धः।
Swami Sivananda
5.12 युक्तः the united one (the well poised)? कर्मफलम् fruit of action? त्यक्त्वा having abandoned? शान्तिम् peace? आप्नोति attains? नैष्ठिकीम् final? अयुक्तः the nonunited one? कामकारेण impelled by desire? फले in the fruit (of action)? सक्तः attached? निबध्यते is bound.Commentary Santim naishthikim is interpreted as peace born of devotion of steadfastness. The harmonious man who does actions for the sake of the Lord without expectation of the fruit and who says? I do actions for my Lord only? not for my personal gain or profit? attains to the peace born of devotion? through the following four stages? viz.? purity of mind? the attainment of knowledge? renunciation of actions? and steadiness in wisdom. But the unbalanced or the unharmonised man who is led by desire and who is attached to the fruits of the actions and who says? I have done such and such an action I will get such and such a fruit? is firmly bound.
Swami Ramsukhdas
5.12।। व्याख्या--'युक्तः'--इस पदका अर्थ प्रसङ्गके अनुसार लिया जाता है; जैसे--इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें अपनेको अकर्ता माननेवाले सांख्ययोगीके लिये 'युक्तः' पद आया है, ऐसे ही यहाँ कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीके लिये 'युक्तः' पद आया है।जिनका उद्देश्य 'समता' है वे सभी पुरुष युक्त अर्थात् योगी हैं। यहाँ कर्मयोगीका प्रकरण चल रहा है, इसलिये यहाँ 'युक्तः' पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है, जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होनेसे जिसमें सांसारिक कामनाओंका अभाव हो गया है।
Swami Chinmayananda
।।5.12।। कर्मफल की प्राप्ति की चिन्ताओं से मुक्त होकर सम्यक् प्रकार से कर्माचरण के द्वारा कर्मयोगी को अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है। यह शान्ति आर्थिक अथवा राजनैतिक परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली कोई वस्तु नहीं है। संविधान बनाने वाली संस्थाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के द्वारा भी इस शान्ति को स्थापित नहीं किया जा सकता। यह तो मनुष्य के मन की वह स्थिति है जबकि उसका आन्तरिक संसार विक्षुब्ध करने वाले विचारों के मदोन्मत्त तूफानों से विचलित नहीं होता। शान्ति एक अखण्डानुभूति एवं एक संगठित व्यक्तित्व को सुरभि है। यज्ञ भावना से कर्म करते हुए इस शान्ति को प्राप्त करना ही यहां प्रतिपादित क्रांतिकारी सिद्धांत है। जब साधक कर्तृत्व के अभिमान और फल की आसक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्य कर्म करता है तब उसे कर्मयोग निष्ठा की शान्ति शीघ्र ही प्राप्त होती है।इसी बात पर अधिक बल देने के लिये भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगी के विपरीत जो अयुक्त पुरुष है वह अभिमान तथा फलासक्ति के कारण अपने ही कर्मों से बँधता है। जो औषधि कम मात्रा में उपचार का कार्य करती है उसी का अधिक मात्रा में सेवन मृत्यु का कारण बन सकता है जैसे नींद की गोलियाँ। जो शस्त्र आत्मरक्षण का साधन है वही आत्महनन का भी कारण बन सकता है।इसी प्रकार जगत् में अविवेक से कार्य करने पर संतोष और आनन्द के आलोक के मिलन के स्थान पर दृढ़तर बन्धन और अथाह अन्धकारमय जीवन प्राप्त होता है। इसका एकमात्र कारण है हमारी किसी फलविशेष के लिए कामना। भविष्य मे अपने मन के अनुकूल स्थिति को चाहने का नाम है कामना अथवा इच्छा। यदि एक मेंढक अपना विस्तार करता हुआ बैल के आकार का बनने का प्रयत्न करे तो उसका अन्त दुखपूर्ण ही होगा। एक परिच्छिन्न सार्मथ्य का जीव स्वयं के अनुकूल और इष्ट परिस्थिति का निर्माण करने में सर्वथा असमर्थ है। उसका प्रयत्न उस मेढक के समान ही होने के कारण अविवेकपूर्ण है। उसको यह समझना चाहिए कि कर्म करने में वह स्वतन्त्र है परन्तु कर्मफल अनेक नियमों के अनुसार प्राप्त होने के कारण फल प्राप्ति में वह परवश है। इसलिए किसी फलविशेष में आसक्त होकर उसका आग्रह रखना केवल अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं।परन्तु जो परमार्थदर्शी हैं उसके विषय में कहते हैं
Sri Anandgiri
।।5.12।।इतश्च सङ्गं त्यक्त्वा कर्मानुष्ठानं त्वया कर्तव्यमित्याह यस्माच्चेति। युक्तः सन्फलं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्मोक्षाख्यां शान्तिं यस्मादाप्नोति तस्माच्च त्वया सङ्गं त्यक्त्वा कर्म कर्तव्यमिति योजना। विपक्षे दोषमाह अयुक्त इति। युक्तत्वं व्याकरोति ईश्वरायेति। फलं परित्यज्य कर्म कुर्वन्निति शेषः। नैष्ठिकी शान्तिरित्येतदेव विशदयति सत्त्वेति। द्वितीयमर्धं विभजते यस्त्विति। असमाधाने दोषादर्जुनस्य नियोगं दर्शयति अतस्त्वमिति।
Sri Dhanpati
।।5.12।।न केवलं सत्त्वशुद्य्धर्थमेव कर्माण्यनुष्ठेयान्यपितु परंपरया मोक्षायापीत्याह युक्त इति। युक्तः परमेश्वराय कर्माणि न मम फलायेत्येवं समाहितः सन् फर्मफलं परित्यज्य शान्तिं मोक्षाख्यां नैष्ठिकीं निष्ठायां भवां सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिसर्वकर्मसंन्यासज्ञाननिष्ठाक्रमेण प्राप्नोति। विपक्षे दोषमाह। यस्तु पुनरयुक्तोऽसमाहितः कामकारेण कामप्रेरणया फलार्थमिदं कर्म करोमीत्येवं फले सक्तः स निबध्यतेऽतस्त्वं युक्तः सन् कर्माणि कुर्वित्यभिप्रायः।
Sri Madhavacharya
।।5.12।।पुनर्युक्त्यादिनियमनार्थं युक्तायुक्तफलमाह युक्त इति। युक्तो योगयुक्तः।
Sri Neelkanth
।।5.12।।किंच युक्त इति। युक्तो ब्रह्मण्याधाय कर्माणीत्यादिनोक्तलक्षणः कर्मणां फलं त्यक्त्वा ईश्वरे समर्प्य शान्तिं कैवल्यं नैष्ठिकीं सत्वशुद्ध्यादिक्रमप्राप्तब्रह्मनिष्ठाफलभूतां प्राप्नोति। अयुक्तस्तद्विपरीतः कामकारेण स्वैरवृत्त्या फले सक्तः सन् नितरां बध्यते।
Sri Ramanujacharya
।।5.12।।युक्तः आत्मव्यतिरिक्तफलेषु अचपलः आत्मैकप्रवणः कर्मफलं त्यक्त्वा केवलात्मशुद्धये कर्मानुष्ठाय नैष्ठिकीं शान्तिम् आप्नोति स्थिराम् आत्मानुभवरूपां निर्वृतिम् आप्नोति। अयुक्तः आत्मव्यतिरिक्तफलेषु चपलः आत्मावलोकनविमुखः कामकारेण फले सक्तः कर्माणि कुर्वन् नित्यं कर्मभिः बध्यते नित्यसंसारी भवति। अतः फलसङ्गरहित इन्द्रियाकारेण परिणतायां प्रकृतौ कर्माणि संन्यस्य आत्मनो बन्धमोचनाय एव कर्माणि कुर्वीत इति उक्तं भवति।अथ देहाकारपरिणतायां प्रकृतौ कर्तृत्वसंन्यास उच्यते
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।5.12।।एकस्यैव कर्मणो बन्धहेतुत्वं मोक्षहेतुत्वं च फलसङ्गतदभावादिरूपसहकारिविशेषाद्युज्यत इतीममर्थं विशदयति युक्तः इति श्लोकेन। अत्र युक्तशब्देन समाहितचेतस्त्वमुच्यते। तच्चात्र फलान्तरविरक्तिपूर्वकमात्मप्रावण्यमेवेति व्यञ्जनाय आत्मव्यतिरिक्तेत्याद्युक्तम्।कर्मफलं त्यक्त्वेति वचनात्कर्मस्वरूपानुष्ठानं पूर्वोक्तमिहार्थसिद्धं दर्शितम्।नैष्ठिकीं शान्तिमित्यनेन साक्षान्मोक्षप्रतीतिः स्यात्। तद्व्युदासायाह स्थिरामिति। प्रकरणलब्धोऽयं विशेषः। निष्ठायां भवतीति नैष्ठिकी।कामकारेण इति न स्वैराचारो विवक्षितः तस्य दूरनिरस्तत्वात्। अतः कामकर्तृकंप्रेरणं कामकारः तेन यथाभिमतफलसङ्गमात्रं विवक्षितमित्याह कामकारेण फले सक्त इति। निबध्यत इत्यत्रोपसर्गेण नितरां बन्धो विवक्षित इति दर्शयतिनित्यसंसारी भवतीति। वर्तमानव्यपदेशाद्वा तथा विवक्षा।
Sri Abhinavgupta
।।5.12।।युक्त इति। नैष्ठिकीम् अपुनरावर्तिनीम्।
Sri Jayatritha
।।5.12।।तथापि युक्त इत्येतत् पुनरुक्तमित्यत आह पुनरिति। युक्तिर्योगः। आदिपदेन सन्न्यासः। युक्तायुक्तेत्युपलक्षणम्। सन्न्यास्यसन्न्यासीत्यपि ग्राह्यम्। प्राक् सन्न्यासयोगौ मिलितावेव फलं साधयतो नान्यतरपरित्यागेनान्यतर इति नियमज्ञापनार्थं तयोः फलमुक्तम्। इदानीं तु तावेव मोक्षसाधनम् न तु तदुभयत्यागेनान्यदिति नियमज्ञापनाय योगसन्न्यासवतस्तदुभयाभाववतश्च मुक्तिसंसारविस्तारलक्षणं फलमाहेत्यर्थः। युक्तशब्दस्य सहिताद्यर्थनिवारणायार्थमाह युक्त इति।
Sri Madhusudan Saraswati
।।5.12।।कर्तृत्वाभिमानसाम्येऽपि तेनैव कर्मणा कश्चिन्मुच्यते कश्चित्तु बध्यत इति वैषम्ये को हेतुरिति तत्राह युक्तः ईश्वरायैवैतानि कर्माणि न मभ फलायेत्येवमभिप्रायवान्कर्मफलं त्यक्त्वा कर्माणि कुर्वन् शान्तिं मोक्षाख्यामाप्नोति। नैष्ठिकीं सत्त्वशुद्धिं नित्यानित्यवस्तुविवेकसंन्यासज्ञाननिष्ठाक्रमेण जातामिति यावत्। यस्तु पुनरयुक्त ईश्वरायैवैतानि कर्माणि न मम फलायेत्यभिप्रायशून्यः स कामकारेण कामतः प्रवृत्त्या मम फलायैवेदं कर्म करोमीति फले सक्तो निबध्यते कर्मभिर्नितरां संसारबन्धं प्राप्नोति। यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि युक्तः सन्कर्माणि कुर्विति वाक्यशेषः।
Sri Purushottamji
।।5.12।।ननु साधनदशायां फलत्यागेन कर्मकरणं किम्प्रयोजनकं इत्याशङ्क्याह युक्त इति। युक्तो भगवद्भजनैकनिष्ठः सन् कर्मफलं त्यक्त्वा भगवदाज्ञारूपत्वेन कर्म करोति स नैष्ठिकीं भगवत्तोपरूपां शान्तिं भगवदाज्ञाकरणाभावं तापरहितभगवदाज्ञाकरणतोपरूपां प्राप्नोतीत्यर्थः। अतः साधनदशायामपि भगवदाज्ञात्वेन कर्मकरणमुत्तममिति भावः। अभगवदीयस्तु फलाशया कर्मकरणेन बद्धो भवतीत्याह अयुक्त इति। अयुक्तः अभगवदीयः कामकारेण कामनया प्रवृत्तः फले सक्तः सन्निबध्यते नितरां बद्धो भवति। न भगवत्सम्बन्धं प्राप्नोतीत्यर्थः।
Sri Shankaracharya
।।5.12।। युक्तः ईश्वराय कर्माणि करोमि न मम फलाय इत्येवं समाहितः सन् कर्मफलं त्यक्त्वा परित्यज्य शान्तिं मोक्षाख्याम् आप्नोति नैष्ठिकीं निष्ठायां भवां सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिसर्वकर्मसंन्यासज्ञाननिष्ठाक्रमेणेति वाक्यशेषः। यस्तु पुनः अयुक्तः असमाहितः कामकारेण करणं कारः कामस्य कारः कामकारः तेन कामकारेण कामप्रेरिततयेत्यर्थः मम फलाय इदं करोमि कर्म इत्येवं फले सक्तः निबध्यते। अतः त्वं युक्तो भव इत्यर्थः।।यस्तु परमार्थदर्शी सः