Chapter 5, Verse 7
Verse textयोगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।।
Verse transliteration
yoga-yukto viśhuddhātmā vijitātmā jitendriyaḥ sarva-bhūtātma-bhūtātmā kurvann api na lipyate
Verse words
- yoga-yuktaḥ—united in consciousness with God
- viśhuddha-ātmā—one with purified intellect
- vijita-ātmā—one who has conquered the mind
- jita-indriyaḥ—having conquered the senses
- sarva-bhūta-ātma-bhūta-ātmā—one who sees the Soul of all souls in every living being
- kurvan—performing
- api—although
- na—never
- lipyate—entangled
Verse translations
Swami Gambirananda
Endowed with yoga, pure in mind, controlled in body, a conqueror of the organs, the Self of the selves of all beings—he does not become tainted even while performing actions. When this person resorts to nitya and naimittika rites and duties as a means to the achievement of full illumination, and thus becomes fully enlightened, then, even when he acts through the apparent functions of the mind, organs, etc., he does not become affected.
Swami Ramsukhdas
।।5.7।। जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं, जिसका अन्तःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
Swami Tejomayananda
।।5.7।। जो पुरुष योगयुक्त, विशुद्ध अन्तकरण वाला, शरीर को वश में किये हुए, जितेन्द्रिय तथा भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।।
Swami Adidevananda
He who follows the Yoga and is pure in mind, who has subdued his self and has conquered his senses, and whose self has become the self of all beings, even while he is acting, remains untainted.
Swami Sivananda
He who is devoted to the path of action, whose mind is pure, who has conquered the self, who has subdued his senses, and who realizes his Self as the Self in all beings, though acting, is not tainted.
Dr. S. Sankaranarayan
A master of yoga, whose self (mind and intellect) is very pure, the sense-organs are controlled, and the soul is realized to be the soul of all beings—he is not stained, even though he is a performer of actions.
Shri Purohit Swami
He who is spiritual, pure, has overcome his senses and his personal self, and has realized his highest Self as the Self of all—even though he acts, he is not bound by his actions.
Verse commentaries
Swami Ramsukhdas
5.7।। व्याख्या--'जितेन्द्रियः' इन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य है--इन्द्रियोंका राग-द्वेषसे रहित होना। राग-द्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती (टिप्पणी प0 287.1)। साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है।कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे--'यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य' (3। 7) ;'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य' (3। 41)। कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है; इसलिये इन्द्रियाँ वशमें न होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है। कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।
Sri Sridhara Swami
।।5.7।।कर्मयोगादिक्रमेण ब्रह्माधिगमे सत्यपि तदुपरितनेन कर्मणा बन्धः स्यादेवेत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। योगेन युक्तोऽतो विशुद्ध आत्मा चित्तं यस्यातएव विजित आत्मा शरीरं येन। अतएव विजितानीन्द्रियाणि येन। ततश्च सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्य सः। लोकसंग्रहार्थं स्वाभाविकं वा कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते तैर्न बध्यते।
Sri Vallabhacharya
।।5.7।।स्वमतस्फोरणार्थं तद्योगिनं लक्षयति त्रिभिः। त्रिगुणातीतत्वात्तस्येतिभावेन योगयुक्त इति।
Sri Ramanujacharya
।।5.7।।कर्मयोगयुक्तः तु शास्त्रीये परमपुरुषाराधनरूपे विशुद्धे कर्मणि वर्तमानः तेन विशुद्धमनाः विजितात्मा स्वाभ्यस्ते कर्मणि व्याप्तमनस्त्वेन सुखेन विजितमनाः तत एवं जितेन्द्रियः कर्तुः आत्मनोयाथात्म्यानुसन्धाननिष्ठतया सर्वभूतात्मभूतात्मा।सर्वेषां देवादिभूतानाम् आत्मभूत आत्मा यस्य असौ सर्वभूतात्मभूतात्मा आत्मयाथात्म्यम् अनुसन्दधानस्य हि देवादीनां स्वस्य च एकाकार आत्मा देवादिभेदानां प्रकृतिपरिणामविशेषरूपतया आत्माकारत्वासंभवात्।प्रकृतिवियुक्तः सर्वत्र देवादिदेहेषु ज्ञानैकाकारतया समानाकार इतिनिर्दोषं हि समं ब्रह्म (गीता 5।19) इति अनन्तरमेव वक्ष्यते। स एवंभूतः कर्म कुर्वन् अपि अनात्मनि आत्माभिमानेन न लिप्यते न संबध्यते अतः अचिरेण आत्मानम् आप्नोति इत्यर्थः।यतः सौकर्यात् शैघ्र्याच्च कर्मयोग एव श्रेयान् अतः तदपेक्षितं श्रृणु
Swami Chinmayananda
।।5.7।। पूर्व श्लोक में संक्षेप में वर्णन है कि कर्मयोग पालन करने पर चित्तशुद्धि प्राप्त होकर साधक ध्यानाभ्यास की सहायता से ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। वर्तमान की परिच्छिन्नता एवं बन्धनों को तोड़कर अनन्तस्वरूप की प्राप्ति के प्रयत्न में जो आन्तरिक परिवर्तन साधक में होता है उसका युक्तियुक्त विस्तृत विवेचन इस श्लोक में किया गया है।कर्मयोग से युक्त पुरुष अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त करता है जिसका अर्थ है अधिकसेअधिक मन की आन्तरिक शान्ति। मन का कमसेकम क्षुब्ध होना उसकी शुद्धि का द्योतक है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहते हैं वासनाओं का क्षीण होना। विक्षेप की कारणरूप वासनाओं का क्षय होने पर स्वाभाविक रूप से वह पुरुष संतुलित बन जाता है।ऐसे शुद्धान्तकरण सम्पन्न कर्मयोगी के लिए इन्द्रियों पर संयम रखना बच्चों का खेल बन जाता है। वह स्वेच्छा से इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कर सकता है और निवृत्त भी। जिस साधक को अपने शरीर मन एवं बुद्धि पर पूर्ण संयम है वह ध्यान की सर्वोच्च साधना के लिए योग्यतम है। निदिध्यासन में आने वाले मुख्य विघ्न ये ही हैं वैषयिक प्रवृत्ति मन के विक्षेप एवं अतृप्त इच्छाएं। एक बार इन शृंखलाओं को तोड़ देने पर ध्यान सहज और सुलभ बन जाता है फिर साधक को आत्मा का साक्षात् अनुभव तत्काल और उसकी सम्पूर्णता में होता है।आत्मानुभूति आंशिक रूप में नहीं हो सकती। यदि साधक केवल स्वयं को दिव्य और शुद्ध स्वरूप अनुभव करे और अन्यों को नहीं तो उसका अनुभव वास्तविक और प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। सम्यक् दर्शन को प्राप्त हुये पुरुष के लिए तो शुद्ध आत्मा सर्वत्र एवं समस्त कालों में व्याप्त है। इस आध्यात्मिक दृष्टि से जगत् को देखने पर उसे सर्वत्र सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य आत्मा का ही दर्शन होता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष को ही यहाँ सर्वभूतात्मभूतात्मा कहा गया है जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसकी आत्मा ही सर्वभूतों की आत्मा है।जब एक तरंग अपने वास्तविक समुद्र स्वरूप को पहचान लेती है तब ज्ञान में स्थित उस तरंग के लिए कोई भी अन्य तरंग समुद्र से भिन्न नहीं हो सकती।आत्मानुभूति में स्थित हुआ पुरुष जब जगत् में कर्म करता है तब वे कर्म वासना के रूप में प्रतिफल उत्पन्न नहीं करते। कर्मफलों का बन्धन केवल अहंकार को ही हो सकता है और ज्ञानी पुरुष में उसी का अभाव होने के कारण कर्म उसे किस प्रकार लिप्त कर सकते हैं प्रवाहित जल पर लिखने के समान ही ज्ञानी पुरुष के कर्म उसके चित्त पर वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग के सिद्धान्त का पुनपुन प्रतिपादन करते हैं। इस श्लोक से भी स्पष्ट होता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्मं ही वासना उत्पन्न करके बुद्धि की विवेकशक्ति को धूमिल कर देते हैं जिसके कारण मनुष्य को अपने स्वयंसिद्ध शुद्ध दिव्य स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता।सर्वव्यापी परमात्मा के अनुभव में स्थित सिद्ध पुरुष का जीवन की ओर देखने का क्या दृष्टिकोण होगा भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।5.7।।ननु पारिव्राज्यं परिगृह्य श्रवणादिसाधनमसकृदनुतिष्ठतो लब्धसम्यग्बोधस्यापि यथापूर्वं कर्माण्युपलभ्यन्ते तानि च बन्धहेतवो भविष्यन्तीत्याशङ्क्य श्लोकान्तरमवतारयति यदा पुनरिति। सम्यग्दर्शनप्राप्त्युपायत्वेन यदा पुनरयं पुरुषो योगयुक्तत्वादिविशेषणः सम्यग्दर्शी संपद्यते तदा प्रातिभासिकीं प्रवृत्तिमनुसृत्य कुर्वन्नपि न लिप्यत इति योजना। योगेन नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानेनेति यावत्। आदौनित्याद्यनुष्ठानवतो रजस्तमोमलाभ्यामकलुषितं सत्त्वं सिध्यतीत्याह विशुद्धेति। बुद्धिशुद्धौ कार्यकरणसंघातस्यापि स्वाधीनत्वं भवतीत्याह विजितेति। तस्य यथोक्तविशेषणवतो जायते सम्यग्दर्शित्वमित्याह सर्वभूतेति। सम्यग्दर्शिनस्तर्हि कर्मानुष्ठानं कुतस्त्यं तदनुष्ठाने वा कुतो बन्धविश्लेषसिद्धिरित्याशङ्क्याह स तत्रेति। सम्यग्दर्शनं सप्तम्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।5.7।।कस्यचिच्चित्तशुद्य्धा श्रवणादिना कृतसाक्षात्कारस्य प्रारब्धवशात्कर्मणि स्थितस्य यथापूर्वमुपलभ्यमानानि कर्माणि बन्धकानि न भवन्तीत्यत आह योगयुक्त इति। योगेन पूर्वोक्तेन युक्तः अतएव विशुद्धान्तःकरणः एतए विजतदेहः अतएव विजितानि वागादीनि इन्द्रियाणि येन सः। एवंभूतोऽधिकारी लक्षणसंपन्नः सर्वेषां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां भूतानामात्मभूत आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य सः। अखण्डात्मसाक्षात्कारवानित्यर्थः। यत्तु कैश्चिद्भाष्योक्तं विग्रहं सर्वभूतात्मेत्येतावतैवार्थलाभादात्मभूतेत्यधिकं स्यादित्यापत्त्या दूषयित्वा सर्वभूतो जडभूत आत्मभूतोऽजडभूतश्च आत्मा यस्येति च विग्रहः प्रदर्शितस्तत्प्रामादिकम्। कृत्स्त्रवाचिनः सर्वपदादेव जडाजडग्रहे सर्वभूतात्मेत्येतावतैवेष्टमाभे आधिक्यस्य तुल्यत्वात्। सर्वमचेतनमात्मानश्चेतनास्तद्भूत आत्मा यस्येति विगृह्य सर्वात्मभूतात्मेत्येतावतैवेष्टार्थे सिद्धे प्रथमभूतपदवैयर्थ्य प्रसङ्गाच्च। किंच भाष्यमते ब्रह्मादीनां प्रत्यगात्मभूत आत्मा यस्येति श्रुत्यैवात्मपरमात्मनोरैक्यमुच्यते। तव मते तु उपादानत्वलिङ्गेन जडसाधारण्येनात्मनः परमात्माभेदो गम्यत इत्यत आचार्योक्तमेव रमणीयम्। स लोकंसग्रहार्थं कुर्वन्नपि न लिप्यते। योगयुक्तो न कर्मभिर्बध्यत इत्यर्थः। युत्तु ननु योगयुक्तस्य सत्त्वशुद्धौ जातायामपि सर्वकर्मसंन्यासे कृते नित्याकरणजनितप्रत्यवायलक्षणो लेप आपद्येतेत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। अकुर्वन्नापि न लिप्यते। नित्याकरणोत्थेन दोषेणन स्पृश्यत इत्यर्थः। तत्र हेतुमाह। सर्वेषां ब्रह्मादिस्थावरान्तानां भूतानां योऽनुस्यूत आत्माऽसंङ्गोदासीनचिद्रूपस्तं भूतः प्राप्तस्तदैक्यज्ञानवानात्भान्तःकरणै यस्येति तदुपेक्ष्यम्।कतमसतः सज्जायत इति श्रुतिमनुरुध्याकरणादभावरुपाद्भावरुपस्य प्रत्यवायस्यानुत्पत्तेराचार्यैरसकृदुक्तत्वात्सर्वेत्यादेरार्जवेन भाष्योक्तमार्गेणोक्तार्थलाभे संभवति क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्। योगेन निर्विकल्पसमाधिना युक्त इत्याद्युपेक्ष्यं प्रकरणविरोधस्योक्तत्वात्।
Sri Madhavacharya
।।5.7।।एतदेव प्रपञ्चयति योगयुक्त इति। सर्वभूतात्मभूतः परमेश्वरः। यच्चाप्नोतीत्यादेः। स आत्मभूतः स्वसमीपं प्रत्यादानादिकर्ता यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा।
Sri Neelkanth
।।5.7।।योगेति। योगेन निर्विकल्पसमाधिना युक्तो योगयुक्तः। अत एव विशुद्धात्मा वृत्तिसारूप्यदोषेण हीनः आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य। निर्विकल्पावस्थायां केवल एव चेतनोऽस्ति नान्यदेत्युक्तं तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं वृत्तिसारूप्यमितरत्रेति तदा वृत्त्यभावे इतरत्र वृत्तिकाले इति सौत्रपदद्वयार्थः। अत्र हेतुः। यतोऽयं विजितात्मा विजितचित्तो जितेन्द्रियश्च। एवं शुद्धस्त्वंपदार्थ उक्तस्तस्य तत्पदार्थाभेदमाह सर्वभूतात्मेति। सर्वेषां भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां वियदादीनां च चेतनाचेतनानामात्मभूतः उपादानत्वेन स्वरूपभूतः कनकमिव कुण्डलादीनां स्वरूपभूतम्। कारणानन्यत्वात्कार्यस्य। सर्वभूतात्मभूत आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा। यत्तु सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्येति भाष्यं सर्वभूतात्मेत्येतावतैवार्थलाभादात्मभूत इत्यधिकमिति दूषितम्। स्वयं च सर्वभूत आत्मभूतश्चात्मा यस्येति विग्रहो दर्शितः तत्र संकोचे कारणाभावात्सर्वपदेनैव चिज्जडयोर्ग्रहे परस्याप्यात्मभूतेत्यधिकमेव। सर्वभूतश्चेतनाचेतनप्रपञ्चभूत आत्मा यस्येति तत्रापीष्टार्थलाभात् सर्वं च आत्मानश्च तद्भूत आत्मा यस्येति विगृह्य सर्वात्मभूतात्मेत्येतावतैव सिद्धे प्रथमभूतपदस्य वैयर्थ्यं च भाष्यमते ब्रह्मादीनां प्रत्यग्भूत आत्मा यस्येति श्रुत्यैव जीवेशाभेद उच्यते। परस्य तूपादानत्वलिङ्गेन जडसाधारण्येन जीवस्य ब्रह्माभेदोऽवगम्यत इति विद्वद्भिरविनयः क्षन्तव्यः। यतोऽयं सर्वेषां प्रत्यगात्मा अतोऽहमिव सोऽपि कुर्वन्नपि न लिप्यते असङ्गात्मज्ञानात्कर्त्रादेर्बाधितत्वाच्च। व्युत्थाने तत्प्रतीतावप्युत्खातदंष्ट्रोरगवदबाधकत्वाच्चेत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।5.7।।कर्मयोगस्य सुखसाध्यत्वे शीघ्रफलाधिगमे च हेतुरुच्यते योगयुक्तः इति श्लोकेन। पूर्वावात्मशब्दौ मनोविषयौ जितेन्द्रियसमभिव्याहारात्।योगयुक्तः इत्यनेनैव सिद्धो विशुद्धमनस्त्वे हेतुःशास्त्रीय इत्यादिनोच्यते। विशुद्धिरत्र रजस्तमोनिवृत्तिस्तन्मूलरागद्वेषादिकषायनिवृत्तिश्च। प्राक्समर्थितं स्मारयतिस्वाभ्यस्ते कर्मणीति। प्रधानस्य मनोनिग्रहस्य वक्तुमुचितत्वात्विजितदेहः इति परव्याख्यानं मन्दमिति भावः। सर्वेन्द्रियकूटस्थे मनसि जिते बाह्यानीन्द्रियान्तराणि जितानि भवन्तीत्यभिप्रायेणतत एवेत्युक्तम्। सर्वभूतेत्याद्युपपादनायकर्तुरित्युक्तम्। प्रथमस्य भूतशब्दस्यात्र देवादिदेहमात्रविषयतां द्वितीयस्य क्रियात्मतां विग्रहं च दर्शयतिसर्वेषामिति। भिन्नानामैक्यं हि विरुद्धमित्यत्राहआत्मयाथात्म्यमिति।अयमभिप्रायः सत्यं न स्वरूपैक्यं विधीयते तस्य प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वापरविरुद्धत्वात् किन्त्वेकाकारत्वं यथा सर्वस्मिन् गृहे वर्तमानो व्रीहिरयमेवेत्युक्ते तज्जातीत्यत्वमुक्तं भवति तद्वदत्रापि सर्वस्मिन् देहे वर्तमानोअयमेवात्मा इति प्रयोगेऽपि देहान्तरवर्तिनामस्य चात्मनः समानत्वमुक्तं भवति। ननु समानत्वमपि प्रत्यक्षादिविरुद्धम्देवतिर्यग्ब्राह्मणक्षत्ित्रयब्रह्मचारिगृहस्थपण्डितापण्डितशक्ताशक्तधनिकदरिद्रस्थविरतरुणादिनिरवधिकवैषम्यनिर्भरत्वादात्मनाम् अन्यथाबाह्मणो यजेत श.ब्रा.5।1।5।2 इत्याद्यात्मपर्यन्तशास्त्रीयप्रयोगोऽपि भज्येतेत्यत्राहदेवादिभेदानामिति। अयं भावः सत्यं देवादिवैषम्यं प्रामाणिकमेव तत्तु न स्वरूपप्रयुक्तम् तस्य कर्मोपाधिकप्रकृतिपरिणामभेदनिबन्धनत्वात् शुद्धाकारविवक्षया तु समानत्वमिहोच्यते इति। साम्यस्यात्र विवक्षितत्वे संवादकमनन्तरमेव साम्याभिधानं दर्शयतिप्रकृतिवियुक्त इति।कुर्वन्नपि न लिप्यते इत्यत्र न तावन्निषिद्धं कुर्वन्नपि न दुष्टो भवतीत्युच्यते तथा सति बहुव्याकोपप्रसङ्गात् न च कर्मयोगं कुर्वन्नपि तेनैव न लिप्यत इति तथा च सति निष्फलप्रयासत्वेन तस्याननुष्ठानप्रसङ्गात्। अतोऽत्र न केवलं ज्ञानयोगनिष्ठः अपितु कर्मयोगं कुर्वन्नप्यात्मसाक्षात्काराख्यफलविरोधिना केनचिन्न लिप्यत इत्येवार्थ इत्यभिप्रायेणअनात्मन्यात्माभिमानेनेत्याद्युक्तम्।नैव किञ्चित्करोमि
Sri Abhinavgupta
।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्य कृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।
Sri Jayatritha
।।5.7।।प्रकृतप्रमेयस्य समाप्तत्वादुत्तरस्य वैयर्थ्यमाशङ्क्याह एतदेवेति। योगयुक्तस्य सन्न्यासस्य महाफलत्वमेव। प्रपञ्चनं चयो न द्वेष्टि 5।3 इत्यत्रोक्तद्वेषादिवर्जनकारणोपन्यासेनब्रह्माधिगच्छति 5।6 इत्यत्रोक्तब्रह्मज्ञानावान्तरफलोपन्यासेन चेति ज्ञातव्यम्।सर्वभूतात्मभूतात्मा इत्यनेन जीवस्य परमात्मस्वरूपत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह सर्वेति। सर्वभूतानामात्मभूतः कथं इत्यत उक्तं यच्चेति। एतन्निर्वचनमाश्रित्य न स्वरूपत्वमित्यर्थः। स आत्मभूत इति सर्वभूतात्मभूत इत्युक्तस्यानुवादः।स्वसमीपंइत्यादिद्वितीयात्मशब्दस्यार्थः। एवं जानन्नत्र विवक्षितः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।5.7।।ननु कर्मणो बन्धहेतुत्वाद्योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्माधिगच्छतीत्यनुपपन्नमित्यत आह भगवदर्पणफलाभिसंधिराहित्यादिगुणयुक्तं शास्त्रीयं कर्म योग इत्युच्यते। तेन योगेन युक्तः पुरुषः प्रथमं विशुद्धात्मा विशुद्धो रजस्तमोभ्यामकलुषित आत्मान्तःकरणरूपं सत्त्वं यस्य स तथा। निर्मलान्तःकरणः सन् विजितात्मा स्ववशीकृतदेहः। ततो जितेन्द्रियः स्ववशीकृतसर्वबाह्येन्द्रियः। एतेन मनूक्तस्त्रिदण्डी कथितःवाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव च। यस्यैते नियता दण्डाः स त्रिदण्डीति कथ्यते।। इति। वागिति बाह्येन्द्रियोपलक्षणम्। एतादृशस्य तत्त्वज्ञानमवश्यं भवतीत्याह सर्वभूतात्मभूतात्मा सर्वभूत आत्मभूतश्चात्मा स्वरूपं यस्य स तथा। जडाजडात्मकं सर्वमात्ममात्रं पश्यन्नित्यर्थः। सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्येति व्याख्याने तु सर्वभूतात्मेत्येतावतैवार्थलाभादात्मभूतेत्यधिकं स्यात्। सर्वात्मपदयोर्जडाजडपरत्वे तु समञ्जसम्। एतादृशः परमार्थदर्शी कुर्वन्नपि कर्माणि परदृष्ट्या न लिप्यते तैः कर्मभिः। स्वदृष्ट्या तदभावादित्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।5.7।।ननु ब्रह्मप्राप्तिरेवोत्तमा तदा भक्त्यैव तत्सिद्धिरिति नियतस्वफलभोगकारककर्मकरणं किम्प्रयोजनकं इत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। योगयुक्तो मत्संयोगात्मवान्। विशुद्धात्मा विशेषेण शुद्ध आत्मा अन्तःकरणं कामादिभावरहितं यस्य। विजितात्मा विजितो वशीकृत आत्मा भगवत्स्वरूपं येन। जितेन्द्रियः जितानि इन्द्रियाणि स्वभोगादिरूपाणि येन। सर्वभूतात्मा सर्वभूतात्मरूपो भगवान् स एवात्मा स्वरूपं यस्य तादृशोमदाज्ञया लोकसङ्ग्रहार्थ कर्म कुर्वन्न लिप्यते तत्फलभोगेन न बध्यते।
Sri Shankaracharya
।।5.7।। योगेन युक्तः योगयुक्तः विशुद्धात्मा विशुद्धसत्त्वः विजितात्मा विजितदेहः जितेन्द्रियश्च सर्वभूतात्मभूतात्मा सर्वेषां ब्रह्मादीनां स्तम्बपर्यन्तानां भूतानाम् आत्मभूतः आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य सः सर्वभूतात्मभूतात्मा सम्यग्दर्शीत्यर्थः स तत्रैवं वर्तमानः लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते न कर्मभिः बध्यते इत्यर्थः।।न च असौ परमार्थतः करोतीत्यतः
Swami Sivananda
5.7 योगयुक्तः devoted to the path of action? विशुद्धात्मा a man of purified mind? विजितात्मा one who has conered the self? जितेन्द्रियः one who has subdued his senses? सर्वभूतात्मभूतात्मा one who realises his Self as the Self in all beings? कुर्वन् acting? अपि even? न not? लिप्यते is tainted.Commentary He who is harmonised by Yoga? i.e.? he who has purified his mind by devotion to the performance of action? who has conered the body and who has subjugated the senses? whose Self is the Self of all beings? he will not be bound by actions although he performs actions for the wellbeing or protection of the masses in orer to set an example to them. (Cf.XVIII.17)