Chapter 5, Verse 6
Verse textसंन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।।
Verse transliteration
sannyāsas tu mahā-bāho duḥkham āptum ayogataḥ yoga-yukto munir brahma na chireṇādhigachchhati
Verse words
- sanyāsaḥ—renunciation
- tu—but
- mahā-bāho—mighty-armed one
- duḥkham—distress
- āptum—attains
- ayogataḥ—without karm yog
- yoga-yuktaḥ—one who is adept in karm yog
- muniḥ—a sage
- brahma—Brahman
- na chireṇa—quickly
- adhigachchhati—goes
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
O mighty-armed Arjuna! Renunciation is indeed hard to attain, except through Yoga; the sage who is the master of Yoga quickly attains the Brahman.
Swami Ramsukhdas
।।5.6।। परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।
Swami Tejomayananda
।।5.6।। परन्तु, हे महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है; योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होता है।।
Swami Adidevananda
But, O mighty-armed one, renunciation is hard to attain without practicing Yoga. The sage who contemplates and follows Yoga soon reaches the Brahman (the self or Atman).
Swami Gambirananda
But, O mighty-armed one, renunciation is hard to attain without (Karma-) yoga. The meditative man equipped with yoga attains Brahman without delay.
Swami Sivananda
But, O mighty-armed Arjuna, renunciation is hard to attain without Yoga; the sage who is in harmony with Yoga quickly goes to Brahman.
Shri Purohit Swami
Without concentration, O Mighty One, renunciation is difficult. But the sage who is always meditating on the Divine, shall soon attain the Absolute.
Verse commentaries
Swami Ramsukhdas
5.6।। व्याख्या--'संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः'--सांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्य-योगकी सिद्धि कठिनतासे होती है। परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ 'तु' पदसे प्रकट किया गया है।सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है। परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन हैराग मिटानेका सुगम उपाय है--कर्मयोगका अनुष्ठान करना। कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है। दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है।
Sri Abhinavgupta
।।5.6।।संन्यासस्त्विति। तु शब्दः अवधारणे भिन्नक्रमः। योगरहितस्य संन्यासमाप्तुं दुःखमेव प्राङ्नीत्या कर्मणां दुःखसंन्यासत्वात् (S N दुःसंन्यासत्वात्)। योगिभिस्तु सुलभमेवैतत् इत्युक्तं प्राक्।
Swami Chinmayananda
।।5.6।। आत्मज्ञान की साधना में कर्म के स्थान के विषय में प्राचीन ऋषिगण जिस निष्कर्ष पर पहुँचे थे भगवान् यहाँ उसका ही दृढ़ता से विशेष बल देकर प्रतिपादन कर रहे हैं। कर्मपालन के बिना वास्तविक कर्मसंन्यास असंभव है। किसी वस्तु को प्राप्त किये बिना उसका त्याग कैसे संभव होगा इच्छाओं के अतृप्त रहने से और महत्त्वाकांक्षाओं के धूलि में मिल जाने के कारण जो पुरुष सांसारिक जीवन का त्याग करता है उसका संन्यास वास्तविक नहीं कहा जा सकता।किसी धातु विशेष के बने पात्र पर मैल जम जाने पर उसे स्वच्छ एवं चमकीला बनाने के लिए एक विशेष रासायनिक घोल का प्रयोग किया जाता है। जंग (आक्साइड) की जो एक पर्त उस पात्र पर जमी होती है वह उस घोल में मिल जाती है। कुछ समय पश्चात् जब कपड़े से उसे स्वच्छ किया जाता है तब उस घोल के साथसाथ मैली पर्त भी दूर हो जाती है और फिर वहाँ स्वच्छ चमकीला और आकर्षक पात्र दिखाई देता है। मन के शुद्धिकरण की प्रक्रिया भी इसी प्रकार की है।कर्मयोग के पालन से जन्मजन्मान्तरों में अर्जित वासनाओं का कल्मष दूर हो जाता है और तब शुद्ध हुए मन द्वारा निदिध्यासन के अभ्यास से अकर्म आत्मा का अनुभव होता है और यही वास्तविक कर्मसंन्यास है। ध्यान के लिए आवश्यक इस पूर्व तैयारी के बिना यदि हम कर्मों का संन्यास करें तो शारीरिक दृष्टि से तो हम क्रियाहीन हो जायेंगे लेकिन मन की क्रियाशीलता बनी रहेगी। आंतरिक शुद्धि के लिए मन की बहिर्मुखता अनुकूल नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो यह बहिर्मुखता ही वह कल्मष है जो हमारे दैवी सौंदर्य एवं सार्मथ्य को आच्छादित किये रहता है। प्राचीन काल के हिन्दू मनीषियों की आध्यात्मिक उन्नति के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी खोज है।जहाँ भगवान् ने यह कहा कि कर्मयोग की भावना से कर्म किये बिना ध्यान की योग्यता अर्थात् चित्तशुद्धि नहीं प्राप्त होती वहीं वे यह आश्वासन भी देते हैं कि साधकगण उचित प्रयत्नों के द्वारा ध्यान के अनुकूल इस मनस्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।योगयुक्त जो पुरुष सदा निरहंकार और निस्वार्थ भाव से कर्म करने में रत होता हैं उसे मन की समता तथा एकाग्रता प्राप्त होती है। साधक को ध्यानाभ्यास की योग्यता प्राप्त होने पर कर्म का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। ऐसे योग्यता सम्पन्न मुनि को आत्मानुभूति शीघ्र ही होती है।परमात्मा का अनुभव कब होगा इस विषय में कोई कालमर्यादा निश्चित नहीं की जा सकती। अचिरेण शब्द के प्रयोग से यही बात दर्शायी गई है।उपर्युक्त विवेचन से कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्म के आचरण को श्रेष्ठ कहने का कारण स्पष्ट हो जाता है।जब साधक पुरुष सम्यक् दर्शन के साधनभूत योग का आश्रय लेता है तब
Swami Sivananda
5.6 संन्यासः renunciation? तु but? महाबाहो O mightyarmed? दुःखम् hard? आप्तुम् to attain? अयोगतः without Yoga? योगयुक्तः Yogaharmonised? मुनिः Muni? ब्रह्म to Brahman? नचिरेण ickly? अधिगच्छति goes.Commentary Muni is one who does Manana (meditation or reflection). Yoga is performance of action without selfish motive as an offering unto the Lord.Brahman here signifies renunciation or Sannyasa because renunciation consists in the knowledge of the Self. A Muni? the sage of meditation? the Yogaharmonised? i.e.? purified by the performance of action? ickly attains Brahman? the true renunciation which is devotion to the knowledge of the Self. Therefore Karma Yoga is better. It is easy for a beginner. It prepares him for the higher Yoga by purifying his mind.
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।5.6।।ननुकर्मयोगो विशिष्यते 5।2 इति वचनं अत्र वैकल्पिकत्ववचनं च कथमुपपद्यते अत्यन्ततुल्यत्वे हि विकल्प इति शङ्कायां सौकर्यशैघ्र्याभ्यां वैशिष्ट्यम् फलस्यात्यन्ततुल्यतया च विकल्पः अधिकारिभेदप्रतिनियतत्वाच्च न दुष्करविलम्बितोपायनैरर्थक्यमित्यभिप्रायेण वैषम्यमुच्यत इत्याह इयान्विशेष इत्याहेति। तुशब्दोऽन्योन्यवैषम्यपरःअयोगतः इत्यनेन कर्मयोगमन्तरेण ज्ञानयोगस्वरूपमेव न सिद्ध्यतीत्यभिप्रेतम् तदाह कर्मयोगादृत इति।शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः वा.रा.4।28।8 इत्यादिवद्दुःखशब्दस्यात्र नपुंसकत्वम्। मुनिशब्दे प्रकृतापेक्षितप्रकृतिप्रत्ययार्थविवरणंमननशील इति। तत्राकर्तृत्वानुसन्धानप्रकरणबलान्मननप्यात्मविषयत्वोक्तिःस्वयमेव ज्ञानयोगमन्तरेणेत्यर्थः।दुःखमाप्तुमयोगतः इत्येतद्व्यतिरेकानुसन्धानात्सुखेन कर्मयोगं साधयित्वेत्युक्तम्।नचिरेण इति नञः क्रियान्वये चिरेणाप्यधिगमो न स्यादिति भ्रमः स्यात् तद्व्युदासायनचिरेणेत्युक्तम्। नैकादिवत् नचिरेण इति समस्तप्रयोगः। ब्रह्मशब्दोऽत्र परिशुद्धात्मस्वरूपलक्षणकर्मयोगाव्यवहितफलविषय इति व्यञ्जनायआत्मानं प्राप्नोतीत्युक्तम्। प्राप्तिरिह साक्षात्कारः। एवमव्यवहितात्मप्राप्तिसाधनत्वं वदता प्रकृतः सन्न्यासो ब्रह्मशब्देनोच्यत इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। तद्व्यतिरेकेण पूर्वोक्तं पूरयति ज्ञानयोगयुक्त इति। दुःखसाध्यत्वाद्विलम्बितफलो ज्ञानयोगः कर्मयोगस्तु सुखसाध्यत्वादविलम्बितफल इति वैषम्यमनेन श्लोकेनोक्तं भवति।
Sri Sridhara Swami
।।5.6।।यदि कर्मयोगिनोऽप्यन्ततः संन्यासेनैव ज्ञाननिष्ठास्तर्ह्यादित एव संन्यासः कर्तुं युक्त इति मन्वानं प्रत्याह संन्यास इति। अयोगतः कर्मयोगं विना संन्यासः प्राप्तुं दुःखहेतुः। अशक्य इत्यर्थः। चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञाननिष्ठाया असंभवात्। योगयुक्तस्तु शुद्धचित्ततया मुनिः संन्यासी भूत्वाऽचिरेणैव ब्रह्माधिगच्छत्यपरोक्षं जानाति। अतश्चित्तशुद्धेः प्राक्कर्मयोग एव संन्यासाद्विशिष्यत इति पूर्वोक्तं सिद्धम्। तदुक्तं वार्तिककृद्भिः प्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः। संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः इति।
Sri Ramanujacharya
।।5.6।।संन्यासः ज्ञानयोगः तु अयोगतः कर्मयोगाद् ऋते प्राप्तुम् अशक्यः। योगयुक्तः कर्मयोगयुक्तः स्वयम् एव मुनिः आत्ममननशीलः सुखेन कर्मयोगं साधयित्वा न चिरेण एव अल्पकालेन एव ब्रह्म अधिगच्छति आत्मानं प्राप्नोति। ज्ञानयोगयुक्तः तु महता दुःखेन ज्ञानयोगं साधयति दुःखसाध्यत्वाद् दुःखप्राप्यत्वाद् आत्मानं चिरेण प्राप्नोति इत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।5.6।।ननूभयोरेकफलत्वे उभयरूपता किं इत्याशङ्कायामाह सन्न्यासस्त्विति। हे महाबाहो सन्न्यासस्तु अयोगतः योगं विना आप्तुं प्राप्तुं दुःखं दुःखरूपमित्यर्थः।अत्रायं भावः सन्न्यासस्य साङ्ख्यात्मकस्य विग्रयोगरूपत्वात् योगस्य संयोगात्मकत्वात् विप्रयोगस्य संयोगपूर्वत्वाद्योगं विना न तत्सिद्धिः स्यादत उभयरूपत्वेन कथनमित्यर्थः। किञ्च भगवतो रसरूपत्वाद्रसस्य च द्विरूपत्वादेकरूपत्वेनाकथनेऽपूर्ण एव स स्यादित्यर्थः। यतः संयोगं विना न द्वितीयसिद्धिरतो योगयुक्तः संयोगयुक्तो भूत्वा मुनिः विप्रयोगे मौनैकशरणो भूत्वा अचिरेण शीघ्रमेव ब्रह्म सर्वलीलाव्यापकमधिगच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।5.6।।किञ्च साङ्ख्यऽभिप्रेतं कर्म सन्न्यासं विनाऽपि योगेनेह हि सिद्धिर्भवति न तु योगं विना सन्न्यासिनो भवतीत्याशयेनाह सन्न्यासस्त्विति। हे महाबाहो कर्मसन्न्यासस्तु योगव्यतिरेकेणाप्तुं दुःखरूपः। समत्वं हि योगः तन्निष्ठया करणव्यतिरेकेण कस्य सन्न्यासः नह्यकृतस्य त्यागो युज्यते सिद्धत्वात्। साङ्खयीयो मुनिरपि योगयुक्तोऽचिरेण ब्रह्माधिगच्छति नान्यथेति मम मतम्।
Sri Shankaracharya
।।5.6।। संन्यासस्तु पारमार्थिकः हे महाबाहो दुःखम् आप्तुं प्राप्तुम् अयोगतः योगेन विना। योगयुक्तः वैदिकेन कर्मयोगेन ईश्वरसमर्पितरूपेण फलनिरपेक्षेण युक्तः मुनिः मननात् ईश्वरस्वरूपस्य मुनिः ब्रह्म परमात्मज्ञाननिष्ठालक्षणत्वात् प्रकृतः संन्यासः ब्रह्म उच्यते न्यास इति ब्रह्मा ब्रह्मा हि परः (ना0 उ0 2.78) इति श्रुतेः ब्रह्म परमार्थसंन्यासं परमार्थज्ञाननिष्ठालक्षणं न चिरेण क्षिप्रमेव अधिगच्छति प्राप्नोति। अतः मया उक्तम् कर्मयोगो विशिष्यते इति।।यदा पुनः अयं सम्यग्ज्ञानप्राप्त्युपायत्वेन
Sri Madhusudan Saraswati
।।5.6।।अशुद्धान्तःकरणेनापि संन्यास एव प्रथमं कुतो न क्रियते ज्ञाननिष्ठाहेतुत्वेन तस्यावश्यकत्वादिति चेत्तत्राह अयोगतो योगमन्तःकरणशोधकं शास्त्रीयं कर्मान्तरेण हठादेव यः कृतः संन्यासः स तु दुःखमाप्तुमेव भवति। अशुद्धान्तःकरणत्वेन तत्फलस्य ज्ञाननिष्ठाया असंभवात् शोधके च कर्मण्यनधिकारात्कर्मब्रह्मोभयभ्रष्टत्वेन परमसंकटापत्तेः। कर्मयोगयुक्तस्तु शुद्धान्तःकरणत्वान्मुनिर्मननशीलः संन्यासी भूत्वा ब्रह्म सत्यज्ञानादिलक्षणमात्मानं नचिरेण शीघ्रमेवाधिगच्छति साक्षात्करोति प्रतिबन्धकाभावात्। एतच्चोक्तं प्रागेवन कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। नच संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति इति। अत एकफलत्वेऽपिकर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते इति यत्प्रागुक्तं तदुपपन्नम्।
Sri Jayatritha
।।5.6।।सन्न्यासस्त्वित्यस्य सङ्गतिमाह इतश्चेति। ननु प्राक् सन्न्यासाद्योगस्य वरत्वे न कोऽपि हेतुरुक्तः तत्कथमेवमुच्यते मैवम् सन्न्यासस्य योगावरत्वे बाधकं परिहृतम्। साधकमिदानीमुच्यते। बाधकाभावसहितमेव साधकं वस्तुनो व्यवस्थापकम्। तस्मादितश्चेति युक्तम्। पूर्वं सन्न्यासस्य निश्श्रेयसकरत्वमुक्तम् इदानीं कथं दुःखहेतुत्वमुच्यते किं वाऽनेन साधकमुक्तं इत्यतो व्याचष्टे योगेति। विष्ण्वर्पणबुद्ध्या करणाभावसन्न्यासमात्रेणेति शेषः। आदिपदेन ज्ञानं गृह्यते। तस्य केवलसन्न्यासिनः। योगाभावे सन्न्यासो निष्फल एवेत्येतन्न युज्यते मोक्षाद्यभावेऽपि तात्कालिकापमानादिदुःखाभावादेर्भावादित्यत आह मोक्षादीति। अत्र पुराणसम्मतिमाह तच्चेति। ननु मोक्षफलाभावेऽपि धान्यादिनैव कृष्यादिकं सफलमित्युच्यते। तत्कथमेवमभिहितमित्यत उक्तं विवृणोति यत्त्विति। महाफलं साधयितुं योग्यमित्यर्थः। मोक्षादिग्रहणं प्रकृतापेक्षयैव कृतमिति भावः। ननु सन्न्यासात् योगस्य वरत्वमनेन साधितं तत्किमुत्तराधन इत्यत आह महाफलश्चेति। महत्फलं यस्मात्स तथोक्तः। योगाङ्गत्वेन ततोऽवरत्वं सन्न्यासस्य सिसाधयिषितम्। तच्चान्वयव्यतिरेकाभ्यां सिद्ध्यति। तत्र पूर्वार्धेन व्यतिरेकमुक्त्वाऽनेनान्वयमाचष्टे इत्यर्थः। ननु योगोऽप्येवमेवेति चेत् सत्यम् तथापि चरमभावित्वेन विशेषः। नन्वत्र सन्न्यासवाचकं न श्रूयते तत्कथमेवमुच्यते इत्यत आह मुनिरिति। मुनिशब्दस्य कामवर्जनलक्षणसन्न्यासवचनत्वं कुतः इत्यत आह तच्चेति।
Sri Anandgiri
।।5.6।।यदि यथोक्तज्ञानपूर्वकसंन्यासद्वारा कर्मिणामपि श्रेयोवाप्तिरिष्टा तर्हि संन्यासस्यैव श्रेयस्त्वं प्राप्तमिति चोदयति एवं तर्हीति। संन्यासस्य श्रेष्ठत्वे कर्मयोगस्य प्रशस्यत्ववचनमनुचितमित्याह कथं तर्हीति। पूर्वोक्तमेवाभिप्रायं स्मारयन्परिहरति शृण्विति। कर्मयोगस्य विशिष्टत्ववचनं तत्रेति परामृष्टम्। तदेव कारणं कथयति त्वयेत्यादिना। केवलं विज्ञानरहितमिति यावत्। तयोरन्यतरः कः श्रेयानितीतिशब्दोऽध्याहर्तव्यः। त्वदीयं प्रश्नमनुसृत्य तदनुगुणं प्रतिवचनं ज्ञानमनपेक्ष्य तद्रहितात्केवलादेव संन्यासाद्योगस्य विशिष्टत्वमिति यथोक्तमित्याह तदनुरूपमिति। ज्ञानापेक्षः संन्यासस्तर्हि कीदृगित्याशङ्क्याह ज्ञानेति। तर्हि कर्मयोगे कथं योगशब्दः संन्यासशब्दो वा प्रयुज्यते तत्राह यस्त्विति। तादर्थ्यात्परमार्थज्ञानशेषत्वादिति यावत्। तदेव तादर्थ्यं प्रश्नपूर्वकं प्रसाधयति कथमित्यादिना। कर्मानुष्ठानाभावे बुद्धिशुद्ध्यभावात्परमार्थसंन्यासस्य सम्यग्ज्ञानात्मनो न प्राप्तिरिति व्यतिरेकमुपन्यस्यान्वयमुपन्यस्यति योगेति। पारमार्थिकः सम्यग्ज्ञानात्मकः। सामग्र्यभावे कार्यप्राप्तिरयुक्तेति मत्वाह दुःखमिति। योगयुक्तत्वं व्याचष्टे वैदिकेनेति। ईश्वरस्वरूपस्य सविशेषस्येति शेषः। ब्रह्मेति व्याख्येयं पदमुपादाय व्याचष्टे प्रकृत इति। तत्र ब्रह्मशब्दप्रयोगे हेतुमाह परमात्मेति। लक्षणशब्दो गमकविषयः। संन्यासे ब्रह्मशब्दप्रयोगे तैत्तिरीयकश्रुतिं प्रमाणयति न्यास इति। कथं संन्यासे हिरण्यगर्भवाची ब्रह्मशब्दः प्रयुज्यते द्वयोरपि परत्वाविशेषादित्याह ब्रह्म हीति। ब्रह्मशब्दस्य संन्यासविषयत्वे फलितं वाक्यार्थमाह ब्रह्मेत्यादिना। नद्याः स्रोतांसीव निम्नप्रवणानि कर्मभिरतितरां परिपक्वकषायस्य करणानि सर्वतो व्यापृतानि निरस्ताशेषकूटस्थप्रत्यगात्मान्वेषणप्रवणानि भवन्तीति। कर्मयोगस्य परमार्थसंन्यासप्राप्त्युपायत्वे फलितमाह अत इति।
Sri Dhanpati
।।5.6।।एवं तर्हि कर्मयोगात्संन्यास एव विशिष्यते कथमुक्तं तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते इत्याशङ्क्य ज्ञाननिष्ठारहितादशुद्धचित्तेन कृतात्केवलात्संन्यासात्कर्मत्यागाच्छुद्धिकरस्य सन्यासद्वारा ज्ञानप्राप्त्या मोक्षसंपादकस्य कर्मयोगस्य श्रैष्ठ्यं मया प्रतिपादितं नतु ज्ञाननिष्ठासहितात्सांख्यशब्दोदिताद्विशुद्धान्तःकरणेन कृतात्। तस्मात्तं प्रति साधनत्वात्कर्मयोगस्येत्याशयेनाह संन्यास इति। संन्यासस्तु ज्ञाननिष्ठासहितस्तु परमार्थसंन्यासः। अयोगतः योगेन विनाप्तुं प्राप्तुं दुःखं दुर्घटमित्यर्थः। योगेन वैदिकेन कर्मयोगेनेश्वरसमर्पितरुपेण निष्कामेन युक्तः मुनिः सगुणेश्वरस्वरुपमननशीलः ब्रह्म परमार्थसंन्यास परमात्मज्ञाननिष्ठालक्षणं नचिरेण क्षिप्रमेवाधिगच्छति प्राप्नोति। परमार्थज्ञानलक्षणत्वात्प्रकृतः संन्यासो ब्रह्मोच्यतेन्यास इति ब्रह्म। ब्रह्म हि परः इति श्रुतेः। अशुद्धचित्तेनापि संन्यास एव प्रथमं कुतो न क्रियते ज्ञाननिष्ठाहेतुत्वेन तस्यावश्यकत्वादितिचेत्तत्राह संन्यासस्त्विति। योगमन्तरेण हठादेव यः कृतः संन्यासः स तु दुःखमाप्तुमेव भवति। अशुद्धान्तःकरणत्वेन तत्फलस्य ज्ञाननिष्ठाया असंभवात्। शोधके च कर्मण्यनधिकारात् कर्मब्रह्मोभयभ्रष्टत्वेन परमसंकटापत्तेः। यद्वाऽयोगत इति सप्तम्यर्थे तसिः। अयोगे तु संन्यासो दुःखमाप्तुमिति अयोगे योगाभावे प्रसिद्धसंन्यासाद्विलक्षणःप्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः। संन्याससिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः।। इतिवार्तिककारोक्तः संन्यासः। दुखं नरकात्मकमाप्तुं भवतीति शेषः। नरकफलको नत्वनर्थनिवृत्त्यविनाभूतनिरतिशयानन्दरुपतापादक इति भावः। ननु तर्ह्यवश्याप्रेक्षिताद्योगादेवास्तु फलं नेत्याह। योगयुक्तः सत्त्वशुद्य्धा मुनिर्मननशीलः संन्यासी भूत्वा ब्रह्म सत्यज्ञानादिलक्षणं नचिरेणं शीघ्रमेवाधिगच्छति प्रतिबन्धकाभावात्। साक्षात्करोतीति तु सुगमत्वाद्भाष्यकारैरुपेक्षितम्। माहबाहो इति संबोधयन् महाबाहुसाध्ये युद्धरुपे कर्मण्येव तवाधिकारो न संन्यासे इति सूचयति।
Sri Madhavacharya
।।5.6।।इतश्च सन्न्यासाद्योगो वर इत्याह सन्न्यासस्त्विति। योगाभावे मोक्षादिफलं न भवति अतः कामजयादिदुःखमेव तस्य मोक्षाद्येव हि फलम्। अन्यत्तत्फलमल्पत्वादफलमेवेत्याशयः। तच्चोक्तम् विना मोक्षफलं यत्तु न तत्फलमुदीर्यते इति पाद्मे। यत्तु महाफलयोग्यं तस्याल्पं फलमेव न भवति यथा पद्मरागस्य तण्डुलमुष्टिः। महाफलश्च योगयुक्तश्चेत्सन्न्यास इत्याहयोगयुक्त इति। मुनिः सन्न्यासी। तच्चोक्तम् स हि लोके मुनिर्नाम यः कामक्रोधवर्जितः इति।
Sri Neelkanth
।।5.6।।नन्वेवं निर्विकल्पस्थानप्राप्तये द्वौ भागावुक्तौ स्यातां तच्चनान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति श्रुतिविरुद्धमित्याशङ्क्याह संन्यासस्त्विति। संन्यासो नैष्कर्म्यम्। अयोगतो योगिंविना अवाप्तुं दुःखं हे महाबाहो। अयमर्थः निर्विकल्पकसमाधिरपि तत्त्वमसीत्येतद्वाक्यार्थप्रतिपत्त्युपायभूत एव न स्वतः पुरुषार्थ इति द्वितीयमार्गस्याभावान्नोदाहृतश्रुतिविरोधः।शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति इति श्रुत्यैव शमादिवत्समाधेरप्यात्मदर्शनार्थत्वस्य दर्शितत्वात्। तथा च समाहितपदं वार्तिककारैर्व्याख्यातम्।स्वातन्त्र्यं येषु कर्तुः स्यात्करणाकरणंप्रति। तान्येव तु निषिद्धानि कर्माणीह शमादिभिः। शमादिश्रुत्याअस्वातन्त्र्यं तु येषु स्यात्करणाकरणंप्रति। समाहितोक्याथेदानीं तन्निरोधो विधीयते। अस्वातन्त्र्यं गुरूपदेशापेक्षत्वम्। येषु मानमेयव्यवहारनिरोधेषु।पिण्डीकृत्येन्द्रियग्रामं बुद्धावारोप्य निश्चलम्। विषयांस्तत्स्मृतीस्त्यक्त्वा तिष्ठेच्चिदनुरोधतः। एषोऽभ्युपायः सर्वत्र वेदान्तेषु प्रतिष्ठितः। तत्त्वमस्यादिवाक्यार्थज्ञानोत्पत्त्यर्थमादरात्। इति। एवं व्यतिरेकमुक्त्वान्वयमाह योगयुक्त इति। मुनिः संन्यासी नचिरेण शीघ्रमेव ब्रह्माधिगच्छति वाक्यश्रवणमात्रेण नतु केवलसंन्यासी। यथोक्तंन च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति। इति।