Chapter 5, Verse 5
Verse textयत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।
Verse transliteration
yat sānkhyaiḥ prāpyate sthānaṁ tad yogair api gamyate ekaṁ sānkhyaṁ cha yogaṁ cha yaḥ paśhyati sa paśhyati
Verse words
- yat—what
- sānkhyaiḥ—by means of karm sanyās
- prāpyate—is attained
- sthānam—place
- tat—that
- yogaiḥ—by working in devotion
- api—also
- gamyate—is attained
- ekam—one
- sānkhyam—renunciation of actions
- cha—and
- yogam—karm yog
- cha—and
- yaḥ—who
- paśhyati—sees
- saḥ—that person
- paśhyati—actually sees
Verse translations
Shri Purohit Swami
The level which is attained through wisdom is also reached through right action. He who perceives that the two are one, knows the truth.
Swami Ramsukhdas
।।5.5।। सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है, वही ठीक देखता है।
Swami Tejomayananda
।।5.5।। जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
Swami Adidevananda
That state which is reached by the Sankhyans, the same is also attained by the Yogins; that is, the same state is achieved by those who are Karma Yogins. He alone is wise who perceives that the Sankhya and the Yoga are one and the same, due to their having the same result.
Swami Gambirananda
The state that is reached by the Sankhyas, and that is also reached by the yogis, is seen by one who sees Sankhya and yoga as one.
Swami Sivananda
That place which is reached by the Sankhyas or the Jnanis is also reached by the Yogis (Karma Yogis). He who sees knowledge and the performance of action (Karma Yoga) as one, sees truly.
Dr. S. Sankaranarayan
Those who are knowledgeable reach the same state as those who practice Yoga; so whoever sees the knowledge-path and the Yoga as one, sees correctly.
Verse commentaries
Swami Chinmayananda
।।5.5।। यहाँ भगवान् का स्पष्ट वचन है कि सांख्य और योग दोनों का लक्ष्य एक ही है इसलिए एक के अनुष्ठान से दोनों के फल को प्राप्त होने की बात कही गयी है। इस प्रकार इन दोनों को फलरूप से एक समझने वाले पुरुष ही यथार्थ में वेदों में प्रतिपादित सत्य के ज्ञाता है।पश्यन्ति अर्थात् देखते हैं इस शब्द का प्रयोग उसके शास्त्रीय अर्थ में किया गया है जिसके कारण नेत्र इन्द्रिय के द्वारा किसी बाह्य वस्तु का दर्शन यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धांतानुसार आत्मा के स्वयं द्रष्टा होने से उसका दृश्यरूप में दर्शन कभी नहीं हो सकता। द्रष्टा के द्वारा द्रष्टा का ही यह अनुभव है। देखते हैं शब्द का प्रयोग मात्र यह दर्शाने के लिए है कि इस आत्मतत्त्व का अनुभव उतना ही स्पष्ट और सन्देहरहित हो सकता है जितना कि बाह्य स्थूल पदार्थ का दर्शन।इस प्रकार इन दोनों के संश्लेषण करने का अर्थ यह नहीं है कि इनका मिश्रण किया गया हो। क्रम से योग तथा सांख्य का अनुष्ठान अपेक्षित है। इन दोनों को हम एक ही मान सकते हैं क्योंकि कर्मयोग से चित्तशुद्धि प्राप्त होकर सांख्य अर्थात् ध्यान के द्वारा हम परम तत्त्व का साक्षात् अनुभव कर सकते हैं। सभी साधकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि योग और सांख्य का अनुष्ठान क्रम से करना है न कि युगपत्।कर्मयोग का लक्ष्य संन्यास किस प्रकार है सुनो
Sri Anandgiri
।।5.5।।प्रश्नपूर्वकं श्लोकान्तरमवतारयति एकस्यापीति। केचिदेव तयोरेकफलत्वं पश्यन्तीत्याशङ्क्य तेषामेव सम्यग्दर्शित्वं नेतरेषामित्याह एकमिति। तिष्ठत्यस्मिन्न च्यवते पुनरिति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह मोक्षाख्यमिति। योगशब्दार्थमाह ज्ञानप्राप्तीति। ये हि जिज्ञासवः सर्वाणि कर्माणि भगवत्प्रीत्यर्थत्वेन तेषां फलाभिलाषमकृत्वा ज्ञानप्राप्तौ बुद्धिशुद्धिद्वारेणोपायत्वेनानुतिष्ठन्ति तेऽत्र योगा विवक्ष्यन्ते। अच्प्रत्ययस्य मत्वर्थत्वं गृहीत्वोक्तं योगिन इति। सर्वोऽपि द्वैतप्रपञ्चो न वस्तुभूतो मायाविलासत्वादात्मा त्वविक्रियोऽद्वितीयो वस्तुसन्निति प्रयोजकज्ञानं परमार्थज्ञानं तत्पूर्वकसंन्यासद्वारेण कर्मिभिरपि तदेव स्थानं प्राप्यमित्येकफलत्वं संन्यासकर्मयोगयोरविरुद्धमित्याह तैरपीति। फलैकत्वे फलितमाह अत इति।
Swami Ramsukhdas
5.5।। व्याख्या--'यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते'--पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें भगवान्ने कहा था कि एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनोंके फलरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। उसी बातकी पुष्टि भगवान् उपर्युक्त पदोंमें दूसरे ढंगसे कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्तकरते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं।संसारमें जो यह मान्यता है कि कर्मयोगसे कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोगसे ही होता है--इस मान्यताको दूर करनेके लिये यहाँ 'अपि' अव्ययका प्रयोग किया गया है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी--दोनोंका ही अन्तमें कर्मोंसे अर्थात् क्रियाशील प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधन-कालमें भी सांख्ययोगका विवेक (जड़-चेतनका सम्बन्ध-विच्छेद) कर्मयोगीको अपनाना पड़ता है और कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कर्म न करनेकी पद्धति) सांख्ययोगीको अपनानी पड़ती है। सांख्ययोगका विवेक प्रकृति-पुरुषका सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये होता है और कर्मयोगका कर्म संसारकी सेवाके लिये होता है। सिद्ध होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी--दोनोंकी एक स्थिति होती है क्योंकि दोनों ही साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं (गीता 3। 3)।संसार विषम है। घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सांसारिक सम्बन्धमें भी विषमता रहती है। परन्तु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्माकी प्राप्ति संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होती है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये दो योगमार्ग हैं--ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्-स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना-आसक्ति अभावमें ही पैदा होती है--ऐसा समझकर असङ्ग हो जाय--यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओंमें साधकका राग है, उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें खर्च कर दे और जिन व्यक्तियोंमें राग है, उनकी निःस्वार्थभावसे सेवा कर दे--यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा और कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।'एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति'--पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने व्यतिरेक रीतिसे कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोगको बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देनेवाले कहते हैं। उसी बातको अब अन्वय रीतिसे कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनोंको फल-दृष्टिसे एक देखता है, वही यथार्थरूपमें देखता है।इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोकका सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोग--दोनोंको स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनोंका फल एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकताको न जाननेवाले मनुष्यको भगवान् बेसमझ कहते हैं और इस जाननेवालेको भगवान् यथार्थ जाननेवाला (बुद्धिमान्) कहते हैं।
Sri Dhanpati
।।5.5।।एकस्यापि सभ्यगनुष्ठानात्कथमुभयोः फलं लभन्त इत्यत आह यदिति। सांख्यैः ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिः विशुद्धान्तःकरणैर्यन्मोक्षाख्यं स्थानं च्युतिवर्जितं प्राप्यते तत्त्वसाक्षात्कारमात्रेण लभ्यत इति विस्मृतग्रैवेयकलाभवल्लब्धस्यैव लाभः। तद्यौगैर्ज्ञानप्राप्त्युपायभूतानि ईश्वराराधनार्थानि फलाभिसंधिरहितानि शास्त्रीयाणि कर्माणि योगशब्दवाच्यानि तद्वद्भिः। अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः। तदेव स्थानं परमार्थज्ञानं संन्यासप्राप्तिद्वारेण गम्यते प्राप्यत इत्यर्थः। आयुर्घृतमितिवत्साध्यसाधनयोरभेदाभिप्रायेण परमार्थज्ञानस्य मोक्षाभिन्नत्वात् मोक्षस्य तदभिन्नत्वाच्चैवमुक्तमित्यविरोधः। एतेन ननूभयोरेकं मोक्षाख्यं फलमस्तु नाम तत्साधनयोस्तु परस्परसापेक्षत्वं न युक्तं प्राप्यग्रामस्यैकत्वेऽपि मार्गाणामिवेत्याशङ्क्याह यत्सांख्यैरिति। अत्रेदं विकल्पनीयम्। किं व्यक्तिभेदमात्रेण सन्यासकर्मयोगयोरन्योन्यनिरपेक्षतां ब्रूषे किंवा अपेक्षणीयान्तरा भावात्। नाद्य इत्याह। बहुवचनेन यत्सांख्यैरिति संन्यासैस्तत्तत्कर्मत्यागरुपैरपि यथाऽन्योन्यसापेक्षैरेव फलं साध्यते तथा भिन्नाभ्यामेव संन्यासकर्मयोगाभ्यामन्योन्यसापेक्षाभ्यां भविष्यतीति भावः। नान्त्य इत्याह। यत्स्थानं प्राप्यत इति स्थानशब्देनात्र सोचकज्ञानमुच्यत इति प्रत्युक्तम्। पूर्वश्लोके परस्परसापेक्षत्वाप्रतिपादनात् कर्मयोगादिसाध्यात् ज्ञानान्निरपेक्षात्केवलान्मोक्ष इतिवत् शमदमादिविशिष्टस्य सन्यासस्य कर्मसाध्यत्वेऽपि तेन ज्ञाने जननीये कर्मापेक्षाया अभावादन्योन्यसापेक्षत्वासिद्धेः एकमित्यादेः स्थाने सांख्यं योगं च परस्परसापेक्षमिति वक्तव्यत्वापत्तेश्च। अतः साक्षात्परम्परया वा एकफलजनकत्वात् एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स सभ्यक्पश्यतीत्यर्थ एव रम्यः।
Sri Madhavacharya
।।5.5।।एकप्नपि 5।4 इत्यस्याभिप्रायमाह यत्साङ्ख्यैरिति। योगिभिरपि ज्ञानद्वारा ज्ञानफलं प्राप्यत इत्यर्थः।
Sri Neelkanth
।।5.5।।योगैर्योगिभिः। अर्शआद्यच्प्रत्ययान्तोऽयं योगशब्दः। स्थानं मोक्षाख्यम्। एकमभिन्नम्। स्पष्टा योजना श्लोकद्वयस्य।
Sri Ramanujacharya
।।5.5।।सांख्यैः ज्ञाननिष्ठैः यद् आत्मावलोकनरूपफलं प्राप्यते तद् एव कर्मयोगनिष्ठैः अपि प्राप्यते। एवम् एकफलत्वेन एकं वैकल्पिकं सांख्यं योगं च यः पश्यति स पश्यति स एव पण्डित इत्यर्थः।इयान् विशेष इत्याह
Sri Sridhara Swami
।।5.5।।एतदेव स्फुटयति यत्सांख्यैरिति। सांख्यैर्ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिर्यत्स्थानं मोक्षाख्यं प्रकर्षेण साक्षादवाप्यते। योगैरित्यत्र अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययो द्रष्टव्यः। तेन कर्मयोगिभिरपि तदेव ज्ञानद्वारेण गम्यते। अवाप्यत इत्यर्थः। अतः सांख्यं च योगं चैकफलत्वेनैकं यः पश्यति स एव सम्यक्पश्यति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।5.5।।भिन्नफलत्वेन पृथक्त्वाभिधायिनां निन्दा कृता अथैकफलत्वेन ऐक्याभिधायिनां प्रशंसनं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह एतदेव विवृणोतीति।साङ्ख्यैः इत्यत्र सिद्धान्तविशेषनिष्ठभ्रमव्युदासायाह ज्ञाननिष्ठैरिति। साङ्ख्यमात्मज्ञानशास्त्रं तद्वेदिन इह साङ्ख्याः यद्वा सङ्ख्या बुद्धिर्ज्ञानयोगः तन्निष्ठाः साङ्ख्याः अथवा साङ्ख्य आत्मा तद्वेदिनोऽपि साङ्ख्याः। स्थानशब्दोऽत्रविन्दते फलम् 5।4 इतिवत्फलविषयः न तु देशविशेषविषयः ज्ञानयोगादिमात्रप्राप्यदेशविशेषाभावात्। तच्च फलं पूर्वोत्तरानुवृत्तमात्मावलोकनमित्यभिप्रायेणयदात्मावलोकनरूपं फलमित्युक्तम्। अत्रयदेवं साङ्ख्याः पश्यन्ति इतियादवप्रकाशोक्तः पाठोऽप्रसिद्धत्वादनादृतः।योगैः इत्येतल्लक्षणया वा प्रत्ययविशेषाद्वा तन्निष्ठविषयमिति व्यञ्जनायकर्मयोगनिष्ठैरित्युक्तम्। अत्र साङ्ख्ययोगशब्दौ नोपायपरौ बहुवचनानौचित्यादिति भावः।एकम् इत्युक्ते एकशास्त्रार्थत्वादिभ्रमव्युदासायाहएवमेकफलत्वेनेति। अङ्गाङ्गिभावेतरेतरयोगरहितयोरुपाययोरेकफलत्वलक्षणं ह्यैक्यमनुष्ठाने विकल्पाय स्यात्। तथा च सूत्रंविकल्पोऽविशिष्टफलत्वात् ब्र.सू.3।3।59 इति। तदाह वैकल्पिकमिति।स पश्यति इत्येतत्न पण्डिताः 5।4 इत्येतत्प्रतिरूपं दर्शयति स एव पण्डित इति।
Sri Abhinavgupta
।।5.4 5.5।।साँख्ययोगाविति। यत्सांख्यैरिति। इदं सांख्यं (S सांख्यज्ञानम्) अयं च योगः इति न भेदः। एतौ हि नित्यसंबद्धौ। ज्ञानं न योगेन विना योगोऽपि न तेन विनेति। अत एकत्वमनयोः।
Sri Jayatritha
।।5.5।।योगस्य ज्ञानसाधनत्वे प्रमिते भवेदेतत् तदेव कथं इत्यत उक्तमेकमपीति तदनुपपन्नम् उभयोर्मध्ये सम्यगेकमप्यास्थितः फलं विन्दत इति योजनायां द्वयोः साफल्यमात्रमुच्यते। एकमपि सम्यगास्थितः उभयोः फलं विन्दत इति पक्षे तु द्वयं किञ्चित्फलं प्रति स्वतन्त्रं साधनमुच्यते। पक्षद्वयेऽपि न प्रकृतोपयोग इत्यत आह एकमपीति। एवमनुपयोगेऽपि भगवानेव स्ववाक्याभिप्रायमाह स ग्राह्य इत्यर्थः। अनेनापि योगस्य ज्ञानसाधनत्वे किं प्रमाणमुक्तं इत्यतो व्याचष्टे योगिभिरपीति। तरति शोकमात्मवित् छां.उ.7।1।3 इत्यादिना यज्ज्ञानफलं मोक्षाख्यं प्रमितं तत्तावद्योगिभिरपि प्राप्यत इत्युच्यते अपाम सोमम् ऋक्.6।4।11 इत्यादिना। तत्र विचार्यम् किं द्वयमपि स्वतन्त्रमुक्तिसाधनम् उत समुच्चितम् अथवैकं साक्षान्मोक्षसाधनम् अपरं तत्साधनत्वेनेति न प्रथमद्वितीयौ। नान्यः पन्थाः श्वे.उ.6।15 इत्यादिविरोधात्। तृतीयेऽपि चिन्त्यं किं कस्य साधनमिति। तत्र न तावज्ज्ञानं कर्मसाधनत्वेन मोक्षहेतुःन किञ्चिदन्तराधाय इत्यादिविरोधात्। अतः परिशेषाद्योगिभिरपि ज्ञानद्वारा ज्ञानफलं प्राप्यत इति सिद्ध्यति। तथा च योगस्य ज्ञानसाधनत्वं सिद्धमित्यर्थः। अत्रयोगिभिः इति वदता योगशब्दो धर्मिणामुपलक्षकोऽयं आद्यजन्तो वेति सूचितम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।5.5।।एकस्यानुष्ठानात्कथमुभयोः फलं विन्दते तत्राह सांख्यैर्ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिरैहिककर्मानुष्ठाशून्यत्वेऽपि प्राग्भवीयकर्मभिरेव संस्कृतान्तःकरणैः श्रवणादिपूर्विकया ज्ञाननिष्ठया यत्प्रसिद्धं स्थानं तिष्ठत्येवास्मिन्नतु कदापि च्यवत इति व्युत्पत्त्या मोक्षाख्यं प्राप्यते आवरणाभावमात्रेण लभ्यत इव नित्यप्राप्तत्वात्। योगैरपि भगवदर्पणबुद्ध्या फलाभिसंधिराहित्येन कृतानि कर्माणि शास्त्रीयाणि योगास्ते येषां सन्ति तेऽपि योगाः। अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः। तैर्योगिभिरपि सत्त्वशुद्ध्या संन्यासपूर्वकश्रवणादिपुरःसरया ज्ञाननिष्ठया वर्तमाने भविष्यति वा जन्मनि संपत्स्यमानया तत्स्थानं गम्यते। अत एकफलत्वादेकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स एव सभ्यक् पश्यति नान्यः। अयं भावः येषां संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा दृश्यते तेषां तयैव लिङ्गेन प्राग्जन्मसु भगवदर्पितकर्मनिष्ठानुमीयते। कारणमन्तरेण कार्योत्पत्त्ययोगात्। तदुक्तम्यान्यतोऽन्यानि जन्मानि तेषु नूनं कृतं भवेत्। यत्कृत्यं पुरुषेणेह नान्यथा ब्रह्मणि स्थितिः।। इति। एवं येषां भगवदर्पितकर्मनिष्ठा दृश्यते तेषां तयैव लिङ्गेन भाविनी संन्यासपूर्वकज्ञाननिष्ठाऽनुमीयते सामग्र्याः कार्याव्यभिचारित्वात्। तस्मादज्ञेन मुमुक्षुणान्तःकरणशुद्धये प्रथमं कर्मयोगोऽनुष्ठेयो नतु संन्यासः। सतु वैराग्यतीव्रतायां स्वयमेव भविष्यतीति।
Sri Purushottamji
।।5.5।।एकफलत्वमेव विवेचयति यत्साङ्ख्यैरिति। यत्स्थानं मत्सामीप्यं साङ्ख्यैः साङ्ख्यनिष्ठैः प्राप्यते तत्स्थानं योगैरपि योगानुष्ठातृभिरपि गम्यते प्राप्यते। तथा चायं भावः उभयोः कुण्डलरूपत्वाद्यथास्थितस्वरूपज्ञानेनोभयनिष्ठानामपि भगवन्मुखसामीप्यमेव भविष्यति यतस्तयोरेकमेव स्थानम् अतो यः साङ्ख्यं योगं चैकं कुण्डलात्मकं पश्यति स मां पश्यतीत्यर्थः।
Sri Shankaracharya
।।5.5।। यत् सांख्यैः ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिः प्राप्यते स्थानं मोक्षाख्यम् तत् योगैरपि ज्ञानप्राप्त्युपायत्वेन ईश्वरे समर्प्य कर्माणि आत्मनः फलम् अनभिसंधाय अनुतिष्ठन्ति ये ते योगाः योगिनः तैरपि परमार्थज्ञानसंन्यासप्राप्तिद्वारेण गम्यते इत्यभिप्रायः। अतः एकं साख्यं च योगं च यः पश्यति फलैकत्वात् स सम्यक् पश्यतीत्यर्थः।।एवं तर्हि योगात् संन्यास एव विशिष्यते कथं तर्हि इदमुक्तम् तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते (गीता 5.2) इति श्रृणु तत्र कारणम् त्वया पृष्टं केवलं कर्मसंन्यासं कर्मयोगं च अभिप्रेत्य तयोः अन्यतरः कः श्रेयान् इति। तदनुरूपं प्रतिवचनं मया उक्तं कर्मसंन्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते इति ज्ञानम् अनपेक्ष्य। ज्ञानापेक्षस्तु संन्यासः सांख्यमिति मया अभिप्रेतः। परमार्थयोगश्च स एव। यस्तु कर्मयोगः वैदिकः स च तादर्थ्यात् योगः संन्यास इति च उपचर्यते। कथं तादर्थ्यम् इति उच्यते
Sri Vallabhacharya
।।5.5।।एतदेव स्फुटयति यत्साङ्ख्यैरिति यन्मुक्तिस्थानं साङ्ख्यनिष्ठैः प्राप्यते तदेव योगैरित्यत्रार्श आदित्वेन मत्वर्थीयोऽच्। योगनिष्ठयाऽपि कर्म कुर्वद्भिरपि तत्प्राप्यते स्वातन्त्र्येण फलदत्वात्तयोरेकविषयत्वात्। अतः साङ्ख्ययोगं चैकफलत्वेनैकं यः पश्यति स सम्यग्दर्शनः।
Swami Sivananda
5.5 यत् which? सांख्यैः by the Sankhyas? प्राप्यते is reached? स्थानम् place? तत् that? योगैः by the Yogis (Karma Yogis)? अपि also? गम्यते is reached? एकम् one? सांख्यम् the Sankhya (knowledge)? च and? योगम् Yoga (performance of action)? च and? यः who? पश्यति sees? सः he? पश्यति sees.Commentary Those who have renounced the world and are treading the path of Jnana Yoga or Vedanta are the Sankhyas. Through Sravana (hearing of the Srutis or Vedantic texts)? Manana (reflection on what is heard) and Nididhyasana (constant and profound meditation) they attain to Moksha or Kaivalya directly. Karma Yogis who do selfless service? who perform their duties without expectation of the fruits and who dedicate their actions as offerings unto the Lord also reach the same state as is attained by Sankhyas indirectly through the purification of their heart and renunciation and the conseent dawn of the knowledge of the Self. That man who sees that Sankhya and Yoga are one? as leading to the same result? sees rightly. (Cf.XIII.24?25V.2)