Chapter 9, Verse 11
Verse textअवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।।
Verse transliteration
avajānanti māṁ mūḍhā mānuṣhīṁ tanum āśhritam paraṁ bhāvam ajānanto mama bhūta-maheśhvaram
Verse words
- avajānanti—disregard
- mām—me
- mūḍhāḥ—dim-witted
- mānuṣhīm—human
- tanum—form
- āśhritam—take on
- param—divine
- bhāvam—personality
- ajānantaḥ—not knowing
- mama—my
- bhūta—all beings
- mahā-īśhvaram—the Supreme Lord
Verse translations
Swami Sivananda
Fools disregard Me, clad in human form, not knowing My higher Being as the great Lord of all beings.
Swami Ramsukhdas
।।9.11।। मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।
Shri Purohit Swami
Fools disregard Me, seeing Me clad in human form. They do not know that in My higher nature, I am the Lord-God of all.
Dr. S. Sankaranarayan
Unaware of My immutable, highest Absolute Supreme nature, the deluded ones disregard Me, dwelling in the human body.
Swami Gambirananda
Not knowing My supreme nature as the Lord of all beings, foolish people disregard Me, who have taken a human form.
Swami Tejomayananda
।।9.11।। समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।।
Swami Adidevananda
Fools disregard Me, dwelling in a human form, not knowing My higher nature as the Supreme Lord of all beings.
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।9.11।।नन्वेवंभूतं परमेश्वरं त्वां किमिति केचिन्नाद्रियन्ते तत्राह -- अवजानन्तीति द्वाभ्याम्। सर्वभूतमहेश्वररूपं मदीयं परं भावं तत्त्वमजानन्तो मूढा मूर्खा मामवजानन्त्यवमन्यन्ते। अवज्ञाने हेतुः शुद्धसत्वमयीमपि तनुं भक्तेच्छावशान्मनुष्याकारामाश्रितवन्तम्।
Swami Sivananda
9.11 अवजानन्ति disregard? माम् Me? मूढाः fools? मानुषीम् human? तनुम् form? आश्रितम् assumed? परम् higher? भावम् state or nature? अजानन्तः not knowing? मम My? भूतमहेश्वरम् the Great Lord of beings.Commentary Fools only find fault with My pure nature? just as a man with jaundiced eyes finds all objects to be yellow. The man who is suffering from fever finds even milk as bitter as the essence of neem. Those who wish to behold Me by means of the physical eyes cannot know Me. If anyone takes the mirage for the Ganga? can he find any water thereFools who do not have discrimination and right understanding despise Me? dwelling in the human form. I have taken this body to bless My devotees. These fools have no knowledge of My higher Being. They do not know that I am the great Lord? the Supreme SElf? the luminous? omniscient? pure? ever free? immortal? wise? the Self of all. These fools take Me for an ordinary mortal and despise Me always. The wise know both My transcendental nature and the glory of My manifestation.I pervade? permeate and interpenetrate the universe. I am the support of this world? body? mind? lifeforce and the senses and yet there are some miserable fools? who say that I do not exist. There is thus not a place anywhere where I am not? and yet these people are not able to see Me. Look at the misfortune of these people. Pitiable is their lot (Cf.IV.6VII.24)
Sri Vallabhacharya
।।9.11।।नन्वेवंविधमहिमानं त्वां किमिति केचिन्नान्द्रियन्ते इत्यत्राह द्वाभ्यां -- अवजानन्तीति। मां सर्वभूतनियन्तारं सर्वज्ञं सत्यसङ्कल्पं अचिन्त्यमहिमानं योगेश्वरेश्वरं निखिलजगदेककारणं परमकारुणिकतया सर्वेषामाश्रयणीयत्वाय मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यत्वसमाश्रयणेन इतरसमजातीयं मत्वा मूढा आसुरादयो जनास्तिरस्कुर्वन्ति इत्यर्थः। तत्र हेतुः परं भावं अचिन्त्यमाहात्म्यस्वरूपमानन्दमात्रलक्षणं तत्त्वमजानन्त इति। अत्र तु तनुं स्वरूपात्मिकामानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिरूपां मानुषाकारामाश्रितमित्येव व्याख्येयम् अन्यथा भेदः स्यात्। वस्तुतस्तत्र देहदेहिविभाग एव नास्ति? एक एवआन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः सर्वत्र च स्वगतभेदविवर्जितात्मा। निर्दोषपूर्णविग्रह आत्मतन्त्रो निश्चेतनात्मकशरीरगुणैर्विहीनः इति स्मर्यते। तथाविधाकार एव प्राकृताकाररहित इति श्रौतानुभवश्च आवृत्तचक्षुः [कठो.4।1] आत्मानमैक्षत आनन्दं ब्रह्मणो रूपं इत्यत्र सर्वं निरूपितं श्रीमद्बिद्वन्मण्डनभाष्यकृद्भिस्तत एव सर्वमवसेयम्।
Sri Shankaracharya
।।9.11।। --,अवजानन्ति अवज्ञां परिभवं कुर्वन्ति मां मूढाः अविवेकिनः मानुषीं मनुष्यसंबन्धिनीं तनुं देहम् आश्रितम्? मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तमित्येतत्? परं प्रकृष्टं भावं परमात्मतत्त्वम् आकाशकल्पम् आकाशादपि अन्तरतमम् अजानन्तो मम भूतमहेश्वरं सर्वभूतानां महान्तम् ईश्वरं स्वात्मानम्। ततश्च तस्य मम अवज्ञानभावनेन आहताः ते वराकाः।।कथम् --,
Sri Purushottamji
।।9.11।।नन्विदं स्वरूपं सर्वाधिष्ठातृ सर्वे कथं न जानन्ति इत्यत आह -- अवजानन्तीति द्वयेन। मूढा असुराः केवलमिच्छयैव सृष्टाः? मम भूतमहेश्वरं सर्वाधिष्ठातृ सर्वाधिदैविकरूपं परं भावं पुरुषोत्तमात्मकं अजानन्तो मानुषीं तनुं मायिनं स्वाज्ञानेन मां ज्ञात्वा अवजानन्ति अवमन्यन्ते।अत्रायं भावः -- पुरुषोत्तमोऽयं येन स्वरूपेण वदति तदेव स्वरूपं ब्रह्मरूपमानन्दमयम्? तमेव मानुर्षी तनुमाश्रितं जानन्ति अज्ञत्वात्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।9.11।।एवं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वजन्तूनामात्मानमानन्दघनमनन्तमपि सन्तं अवजानन्ति मां साक्षादीश्वरोऽयमिति नाद्रियन्ते निन्दन्ति वा मूढा अविवेकिनो जनास्तेषामवज्ञाहेतुं भ्रमं सूचयति। मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यतया प्रतीयमानां मूर्तिमात्मेच्छया भक्तानुग्रहार्थं गृहीतवन्तम्। मनुष्यतया प्रतीयमानेन देहेन व्यवहरन्तमिति यावत्। ततश्च मनुष्योऽयमिति भ्रान्त्या आच्छादितान्तःकरणा मम परं भावं प्रकृष्टं पारमार्थिकं तत्त्वं सर्वभूतानां महान्तमीश्वरमजानन्तो यन्नाद्रियन्ते निन्दन्ति वा तदनुरूपमेव मूढत्वस्य।
Sri Jayatritha
।।9.11।।उत्तरवाक्यस्य सङ्गत्यप्रतीतेस्तामाह -- तर्हीति। यदि त्वमेव जगतः सृष्टिस्थितिसंहाराणां कर्ता? कैश्चिदवज्ञानात् तेषां चानर्थाभावादुक्तमसदिति शङ्काभिप्रायः।मानुषीं तनुमाश्रितं इत्येतदन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे -- मानुषीमिति। भ्रान्त्यनुवाद एवायमिति भावः। कुतो न इत्यत आह -- उक्तं चेति। चो हेतौ। शरीराणि हि भौतिकानि भवन्ति। भूतानि चेश्वरस्य बुद्धिजानि? तत्कथं तानि बध्नीत्युरित्यर्थः। अत्रैवईश्वरो हि इत्यादिनाऽन्ये हेतवोऽभिधीयन्ते। विराट् नित्याभिव्यक्तरूपः। वरदो मोक्षप्रदः। सगुणः स्वातन्त्र्यादिगुणवान्। भूतानि प्रलीयन्ते यस्मिंस्तदव्यक्तम्? तदभिमानिनी देवता तस्य शुश्रूषुः। लिङ्गव्यत्ययश्छान्दसः। अस्त्वेतन्मूलरूपविषयम्? अवतारस्य तु कृष्णस्य मानुषत्वं भवत्वित्यत आह -- अवतारेति।यत्तद्ददृशिवान् ब्रह्मा रूपं हयशिरोधरम् [म.भा.12।] इति ह्वयग्रीवावतारप्रसङ्गे। अस्तु हयग्रीवस्यैवम्। कृष्णस्तु मानुषशरीर एव किं न स्यात् इति चेत्? न युक्तिसाम्यात् विशेषप्रमाणाच्चेत्याह -- रूपाणीति। असृजद्व्यभजत्। प्रादुर्भावभवायोत्तरत्र। स नारायणः। मानुषं कृष्णादिकम्। तत्रैव मोक्षधर्म एव? प्रथमसर्गकाल एव? मानुषादिजात्युत्पत्तेः प्रागेवेत्यर्थः। उपसंहरति -- अत इति। तेषामवताराणाम्। उत्तरपदविरोधश्चान्यथेति भावेन तद्व्याचष्टे -- भूतमिति। भूतं सर्वदा विद्यमानमिति कालानन्त्यमाचष्टे -- महदिति देशानन्त्यम्? ईश्वरमिति गुणानन्त्यम्। भावं याथार्थ्यमिति व्याख्यानपेक्षया नपुंसकम्। अत्र श्रुतिं पठति, -- तथा हीति। ईशं वराणामितीश्वरम्। षष्ठ्याः परनिपातः। देवाः वीर्यं पुत्रा यस्यासौ तथोक्तः।महतो भूतस्य इति देशकालानन्त्यमुच्यते। वराणां देवानामीशत्वे ब्रह्मेति मोक्षधर्मवाक्यं प्रमाणं पुरोहितादिदेवनिकायास्त्वदधीना इत्यर्थः। ब्रह्मेति द्विरुक्तिरादरार्था।
Swami Ramsukhdas
।।9.11।। व्याख्या--परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्--जिसकी सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रचना करती है, चरअचर, स्थावर-जङ्गम प्राणियोंको पैदा करती है; जो प्रकृति और उसके कार्यमात्रका संचालक, प्रवर्तक, शासक और संरक्षक है जिसकी इच्छाके बिना वृक्षका पत्ता भी नहीं हिलता प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिनजिन लोकोंमें जाते हैं, उन-उन लोकोंमें प्राणियोंपर शासन करने-वाले जितने देवता हैं, उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जाननेवाला है-- ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वररूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है। 'परं भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभावको अर्थात् करनेमें, न करनेमें और उलट-फेर करनेमें जो सर्वथा स्वतन्त्र है; जो कर्म, क्लेश, विपाक आदि किसी भी विकारसे कभी आबद्ध नहीं है; जो क्षरसे अतीत और अक्षरसे भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है (गीता 15। 18) -- ऐसे मेरे परमभावको मूढ़लोग नहीं जानते, इसीसे वे मेरेको मनुष्य-जैसा मानकर मेरी अविज्ञा करते हैं।'मानुषी तनुमाश्रितम्'-- भगवान्को मनुष्य मानना क्या है? जैसे साधारण मनुष्य अपनेको शरीर, कुटुम्ब-परिवार, धन-सम्पत्ति, पद-अधिकार आदिके आश्रित मानते हैं अर्थात् शरीर, कुटुम्ब आदिकी इज्जत-प्रतिष्ठाको अपनी इज्जतप्रतिष्ठा मानते हैं; उन पदार्थोंके मिलनेसे अपनेको बड़ा मानते हैं; और उनके न मिलनेसे अपनेको छोटा मानते हैं और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे, बीचमें प्रकट हो जाते हैं तथा अन्तमें पुनः अप्रकट हो जाते हैं (गीता 2। 28), ऐसे ही वे मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरेको मनुष्यशरीरके परवश मानते हैं अर्थात् जैसे साधारण मनुष्य होते हैं? ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं --ऐसा मानते हैं।
Swami Chinmayananda
।।9.11।। सातवें अध्याय में ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने यह घोषित किया था कि मूढ़ लोग? मेरे अव्यय और परम भाव को नहीं जानते हैं और परमार्थत अव्यक्तस्वरूप मुझको व्यक्त मानते हैं।इस अध्याय में स्वयं को सबकी आत्मा बताते हुए श्रीकृष्ण पुन उसी कठोर शब्द मूढ़ का प्रयोग उन लोगों की निन्दा के लिए करते हैं? जो तत्त्व को छोड़कर केवल रूप को ही पकड़े रहते हैं। मेरे परम स्वरूप को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मुझे किसी देह विशेष में ही स्थित मानते हैं प्रतिमा को ही भगवान् मानना या गुरु के शरीर को ही अनन्त परमात्मा समझना उसी प्रकार की त्रुटि या विपरीत ज्ञान है? जैसे घट को ही उसमें निहित वस्तु मान लेना है। मूर्ति तो उस इन्द्रिय अगोचर सूक्ष्म सत्य का मात्र प्रतीक है। भूखे या प्यासे होने पर केवल दूध की बोतल से खेलने से ही ताजगी अनुभव नहीं होती वास्तव में भूखे होने पर थाली पर चम्मच बजाने से कोई सन्तोष नहीं मिलता। प्रतीक को ही ध्येय समझने का अर्थ है साधन को ही साध्य मानने की गलती करना। ऐसी विपरीत धारणायें धार्मिक कट्टरता एवं असहिष्णुता को जन्म देती हैं जो लोगों में शत्रुता और ईर्ष्या के बीज बोती हैं। इन बीजों से? समय आने पर? केवल विपत्ति और नाश की फसल ही प्राप्त होती है यह सब कुछ विभिन्न धर्मावलम्बियों के अपनेअपने पाषाण के देवता? काष्ठ के बने प्रतीक और पीपल के बने भगवान् के नाम पर होता है खादी का तिरंगा कपड़ा राष्ट्रध्वज हो सकता है? परन्तु वह स्वयं मेरी मातृभूमि नहीं है परन्तु जब ध्वजारोहण के समय मैं अपना शीश झुकाता हूँ तो राष्ट्र के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता हूँ वह ध्वज मेरे राष्ट्र की संस्कृति एवं महत्वाकांक्षाओं का पवित्र प्रतीक है।इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर वह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। भगवान् कहते हैं कि साधारण भक्तजन मुझे भूतमात्र के महेश्वर के रूप में नहीं जानते हैं और मनुष्य शरीर धारण करने पर मेरा अनादर करते हैं।क्यों ये मूढ़ लोग आत्मा का सम्यक् परिचय प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं उत्तर में कहते हैं --
Sri Abhinavgupta
।।9.11।।अवजानन्तीति। सोऽहं सर्वजनान्तःशायी (S omits सर्व -- ?N omit -- जन -- ) ? सर्वस्यात्मरूपतया (S?K -- त्मपररू -- ) अवज्ञास्पदम् यत् मानुषादिचतुर्दशविध ( omits -- विध -- ) सर्गव्यतिरिक्त ईश्वरो नोपलभ्यते? स कथमस्ति इति।
Sri Anandgiri
।।9.11।।सर्वाध्यक्षः सर्वभूताधिवासो नित्यमुक्तश्चेत्त्वं तर्हि किमिति त्वामेवात्मत्वेन भेदेन वा सर्वे न भजन्ते तत्राह -- एवमिति। विपर्यस्तबुद्धित्वं भगवदवज्ञायां कारणमित्याह -- मूढा इति। भगवतो मनुष्यदेहसंबन्धात्तस्मिन्विपर्यासः संभवतीत्याह -- मानुषीमिति। अस्मदादिवद्देहतादात्म्याभिमानं भगवतो व्यावर्तयति -- मनुष्येति। भगवन्तमवजानतामविवेकमूलाज्ञानं हेतुमाह -- परमिति। ईश्वरावज्ञानात्किं भवतीत्यपेक्षायां तदवज्ञानप्रतिबद्धबुद्धयः शोच्या भवन्तीत्याह -- ततश्चेति। भगवदवज्ञानादेव हेतोरवजानन्तस्ते जन्तवो वराकाः शोच्याः सर्वपुरुषार्थबाह्याः स्युरिति संबन्धः। तत्र हेतुं सूचयति -- तस्येति। प्रकृतस्य भगवतोऽवज्ञानमनादरणं निन्दनं वा तस्य भावनं पौनःपुन्यं तेनाहतास्तज्जनितदुरितप्रभावात् प्रतिबद्धबुद्धय इत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।9.11।। नन्वेवंभूतं शुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वजन्ततूनामात्मानं त्वां किमति सर्वे आत्मत्वेन भेदेन वा न प्रतिपद्यन्ते प्रत्युतावजनन्ततीतेचेत्तत्राह -- अवजानन्तीति। एवंभूतमपि मां अवजान्ति अवज्ञां परिभवं अपरोक्षं च तिरस्कारं निन्दां च कुर्वन्तीति यावत्। भगवदवज्ञायां कारणमाह -- मूढा इति। विपरीतज्ञानाः। विपरीतज्ञाने निमित्तमाह। मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यसंबन्धिनं देहमाश्रितं मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तमितियावत्। तथाच मनुष्यवद्देहाभिमाशून्ये साधकानुग्रहार्थं गृहीतमायामयलीलाविग्रहे मयि परब्रह्मणिदेहसंबन्धदर्शनं विपर्ययबुद्धौ निमित्तमिति भावः। देहादिसंबन्धशून्ये परमात्मनि देहादिसंसर्गावलोकने हेतुमाह -- परमिति। मम सर्वभूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां महान्तमीश्वरं परं सर्वोत्कृष्टं भावं परमात्मतत्त्वभाकाशवत्सर्वसङ्गविवर्जितमाकाशस्यापि मूलकारणभूतं स्वात्मस्वरुपमजानन्त इत्यर्थः। तथाच मम,वास्तवस्वरुपाज्ञानमेव तत्र हेतुरित्याशयः।
Sri Madhavacharya
।।9.11।।तर्हि केचित्कथं त्वामवजानन्ति का च तेषां गतिः इत्यत आह -- अवजानन्तीत्यादिना। मानुषीं तनुं? मूढानां मानुषवत्प्रतीतां तनुं? न तु मनुष्यरूपाम्। उक्तं च मोक्षधर्मेयत्किञ्चिदिह लोकेऽस्मिन्देहबद्धं विशाम्पते। सर्वं पञ्चभिराविष्टं भूतैरीश्वरबुद्धिजैः। ईश्वरो हि जगत्स्रष्टा प्रभुर्नारायणो विराट्। भूतान्तरात्मा वग्दः सगुणो निर्गुणोऽपि च। भूतप्रलयमव्यक्तं शुश्रूषु(शुणुष्व) -- र्नृपसत्तम [म.भा.12।347।1113] इति। अवतारप्रसङ्गे चैतदुक्तम्। अतो नावताराः पृथक् शङ्क्याः।रूपाण्यनेकान्यसृजत्प्रादुर्भावभवाय सः। वाराहं नारसिंहं च वामनं मानुषं तथा [म.भा.12।349।37] इति। तत्रैव प्रथमसर्गकाल एवावताररूपविभक्त्युक्तेः। अतो न तेषां मानुषत्वादिर्विना भ्रान्तिम्। भूतं महदीश्वरं चेति भूतमहेश्वरम्। तथा हि (सामवेदे) बाभ्रव्यशाखायाम् -- अनाद्यनन्तं परिपूर्णरूपमीशं वराणामपि देववीर्यम् इति। अस्य महतो भूतस्य निश्श्वसितम् [बृ.उ.2।4।10] इति च।ब्रह्मपुरोहित ब्रह्मकायिक राजिक महाराजिकं -- इति च मोक्षधर्मे [म.भा.12।338नाम4043]।
Sri Neelkanth
।।9.11।।एवंभूतं मां सन्तं मूढाः अवजानन्ति। यतो मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तम्। मम परं प्रकृष्टं भावं तत्त्वमजानन्तः भूतानां महेश्वरं मामवजानन्तीति संबन्धः।
Sri Ramanujacharya
।।9.11।।एवं मां भूतमहेश्वरं सर्वज्ञं सत्यसंकल्पं निखिलजगदेककारणं परमकारुणिकतया सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मानुषीं तनुम् आश्रितं स्वकृतैः पापकर्मभिः मूढा अवजानन्ति -- प्राकृतमनुष्यसमं मन्यन्ते।भूतमहेश्वरस्य मम अपारकारुण्यौदार्यसौशील्यवात्सल्यादिनिबन्धनं मनुष्यत्वसमाश्रयणलक्षणम् इमं परं भावम् अजानन्तो मनुष्यत्वसमाश्रयणमात्रेण माम् इतरसजातीयं मत्वा तिरस्कुर्वन्ति इत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।9.11।।महात्मनां विशेषं वक्तुं मूढानां स्वभाव उच्यतेअवजानन्ति इति श्लोकद्वयेन। प्रकृतसङ्गत्यर्थमेवंशब्दः।भूतमहेश्वरम् इत्यस्य भावविशेषणत्वायोगाव्यवहितेनापिमाम् इत्यनेनान्वयः। भूतमहेश्वरादिशब्देनाभिप्रेतप्रदर्शनंसर्वज्ञमित्यादि।मानुषीं मनुष्यसम्बन्धिनीम् मनुष्यसजातीयसन्निवेशवतीमित्यर्थः। यथा हिरण्मयमृण्मयघटयोर्द्रव्यवैजात्येऽपि संस्थानसाम्यं? तद्वदत्रापि। इदं च मत्स्यादितन्वाश्रयणस्याप्युपलक्षणम्। मौढ्यस्यापीश्वराधीनत्वेन तद्दोषव्युदासायस्वकृतैः पापकर्मभिरित्युक्तम्। अवज्ञाकारणं दर्शयतिप्राकृतेति।परं भावमजानन्तः इत्यनेन भ्रमहेतोर्भेदाग्रहस्य कथनम्मानुषीं तनुमाश्रितम् इति तु सादृश्यस्य ताभ्यां प्राकृतमनुष्यसजातीयताभ्रमः ततश्च यथाकथञ्चित्प्रतीयमानोत्कर्षापह्नवेन निकर्षापादानरूपावज्ञा तदेतदखिलं विशदयतिभूतमहेश्वरस्येति।मनुष्यत्वसमाश्रयणलक्षणमिति अजहत्स्वस्वभावस्य अनितरसाधारणमेवंविधमनुष्यत्वाश्रयणमपि वस्तुतः परत्वानुप्रविष्टमिति भावः।