Chapter 18, Verse 18
Verse textज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।18.18।।
Verse transliteration
jñānaṁ jñeyaṁ parijñātā tri-vidhā karma-chodanā karaṇaṁ karma karteti tri-vidhaḥ karma-saṅgrahaḥ
Verse words
- jñānam—knowledge
- jñeyam—the object of knowledge
- parijñātā—the knower
- tri-vidhā—three factors
- karma-chodanā—factors that induce action
- karaṇam—the instrumens of action
- karma—the act
- kartā—the doer
- iti—thus
- tri-vidhaḥ—threefold
- karma-saṅgrahaḥ—constituents of action
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
The instrument of knowledge, the object of knowledge, and the knowing subject—the prompting in action, consisting of these threefold elements—is the proper grasping of action with threefold elements, namely, the instrument, the object, and the agent.
Swami Ramsukhdas
।।18.18।।ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता -- इन तीनोंसे कर्मप्रेरणा होती है तथा करण, कर्म और कर्ता -- इन तीनोंसे कर्मसंग्रह होता है।
Swami Tejomayananda
।।18.18।। ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये त्रिविध कर्म प्रेरक हैं, और, करण, कर्म. कर्ता ये त्रिविध कर्म संग्रह हैं।।
Swami Adidevananda
Knowledge, the object of knowledge, and the knower are the threefold incitements to action. The instrument, the act, and the agent are the threefold constituents of action.
Swami Gambirananda
Knowledge, the object of knowledge, and the knower—these are the threefold inducements to action. The comprehension of actions comes under three heads: the instruments, the object, and the subject.
Swami Sivananda
Knowledge, the knowable, and the knower form the threefold impulse for action; the organ, the action, and the agent form the threefold basis of action.
Shri Purohit Swami
Knowledge, the knower, and the object of knowledge are the three incentives to action; and the act, the actor, and the instrument are the threefold constituents.
Verse commentaries
Sri Jayatritha
।।18.18।।यदि न जीवस्य कारणत्वं कथं तर्हि तज्ज्ञानादेरुत्तरवाक्ये कर्मणां मूलकारणत्वमुच्यते ज्ञानादित्रयं कर्मणां प्रवर्त्तकमितीत्याशङ्क्य तस्यार्थान्तरं विवक्षुस्तन्निवर्त्यामाशङ्कामाह -- एवं तर्हीति। यदि जीवो न कर्मणां कारणमित्यर्थः। विधिः श्रौतः स्मार्तश्च। न प्रवर्तेत ततश्च तद्वैयर्थ्यप्रसङ्ग इति शेषः। एवं तर्हीत्युक्तस्यैव विवरणम् -- अकर्तृत्वादिति। जीवस्य घटवदिति शेषः। ननु ज्ञानादिरूपेण कर्मचोदनायास्त्रैविध्यमयुक्तम्? अनुपयुक्तं च कथमुच्यते नियोक्तुः प्रेरणं हि विधिः? न च तज्ज्ञानादित्रयरूपम्। न चानेनोक्तशङ्कानिवृत्तिरित्यत आह -- त्रिविधेति। स्पष्टप्रतीत्यर्थोऽनुवादः। इत्यत्रेति शेषः। एतत् ज्ञानादिकम्। कर्मविधिः प्रवर्तते? जीवं प्रतीति शेषः। इतिशब्दो हेतौ। त्रिविधेत्युच्यते कर्मचोदना निमित्तकनैमित्तिकभावेनाभेदोपचार इत्यर्थः। कर्मकारणानामुक्तत्वात्किमिदं पुनरुच्यते इत्यत आह -- कारणानीति। तर्हि कर्मसङ्ग्रह इति कथं कारणसङ्ग्रहः इति वक्तव्यत्वादित्यत आह -- कर्मेति। कर्मशब्देन तत्कारणानि लक्ष्यन्त इत्यर्थः। यदि पञ्चानां कारणानामयं सङ्ग्रहस्तर्हि कस्य कुत्रान्तर्भावः इत्यत आह -- अधिष्ठानादीति। आदिपदेन दैवपदोक्तमदृष्टं गृह्यते।कांस्यपात्र्याभुङक्तेदैवेन कृतमन्यथा इत्यादिवत्साधकतमत्वेन विवक्षितत्वात्विवक्षातः कारकाणि भवन्ति इति वचनात्। न चादिपदेन चेष्टायाः सङ्ग्रहः तत्र कारकान्तर्भावस्यैवौचित्यात्? कर्मेति पृथग्ग्रहणाच्च। न च कर्मादृष्टम्कर्म चेष्टा इत्यन्यत्र व्याख्यातत्वात्।कर्तुरीप्सिततमं कर्म [अष्टा.1।4।49] इति कश्चित्। तदसत्? पञ्चसु कारणेषु तस्यागृहीतत्वात्।श्लोकार्थे श्रुतिसम्मतिं चाऽऽह -- तथा हीति। कर्मेत्यावर्तनीयम्। तत्रैकं व्यस्तम्? परं समस्तम्। ननुज्ञानं ज्ञेयं इत्यनेन कथमुक्तशङ्कानिरासः इत्यत आह -- अकर्तृत्वेऽपीति। अपराधीनकर्तृत्वाभावेऽपि जीवस्य न तं प्रति विधिवैयर्थ्यम्। कुतः इति हेतोरित्यन्वयः। विधिशब्देन तत् ज्ञानमुपलक्ष्यते इच्छेत्यनेन प्रयत्नोऽपि। उक्तकारणैरधिष्ठानादिभिः। अनेन ज्ञानं विधिविषयं चेच्छाप्रयत्नलक्षणमधिष्ठानादिलक्षणं पुरुषार्थलक्षणं च परिज्ञाता सर्वज्ञ ईश्वरश्च सर्वप्रेरको जीवे सन्निहितोऽस्ति। अतस्तं प्रति कर्मचोदनेत्यर्थः सूचितो भवति। एतदुक्तं भवति -- नापराधीनकर्तृत्वं विधिविषयत्वे प्रयोजकं येन जीवं प्रति कमविधिवैयर्थ्यं स्यात्। तथा सतीश्वरस्याऽपि विधिविषयत्वापातात्? किन्तु यस्य स्वसम्बन्धितया विधिज्ञानं कर्म तत्फलं चोद्दिश्येच्छा,तदनुगुणश्च प्रयत्नोऽधिष्ठानादिसन्निधानं कर्मसम्बन्धः फलभाक्त्वं चास्ति। तं प्रति कर्मविधयः प्रवर्तन्ते। अस्ति चेदं समस्तं परमेश्वरप्रसादायत्तं जीव इति कथं न तं प्रति कर्मविधयः स्युः एतत्सङ्ग्रहवाक्यमुत्तरवाक्यैर्विव्रीयते। नन्वीश्वरश्चेत्प्रेरको जीवशरीरेऽभ्युपगतस्तदा तत्प्रसादादेवेच्छाप्रयत्नयोरुत्पादनात्। किन्तु विधिज्ञानमङ्गीक्रियत इत्यत आह -- ईश्वरेति। इच्छति प्रयतते चेति शेषः। अनेन विधिद्वारेश्वरप्रसादादिच्छोत्पत्त्येतद्विवृतं भवति।उक्तकारणैः कर्म भवतीत्युक्तम्? तेनाधिष्ठानादीनां स्वव्यापारे स्वातन्त्र्यं प्राप्तं तन्निरासार्थमाह -- यदि चेति। ईश्वरेणैव कर्म अधिष्ठानादीनि निमित्तमात्राणि कृत्वा कारितं भवति। अत्र णिचं प्रयुञ्जानस्य स्वातन्त्र्यं चेति वक्ष्यमाणाभिप्रायः। कर्मद्वारा पुरुषार्थो भवतीति पुरुषार्थसाधने कर्मणां प्राधान्यं प्राप्तमत आह -- फलं चेति। ईश्वरेणैवेति वर्तते? यद्वायदि च इत्यादिना वाक्यद्वयेन विधिविषयतासिद्धये कर्मफलसम्बन्धस्य काकतालीयता निराक्रियते। इदं च नेश्वरमुक्तजडेषु विध्यविषयेष्वस्ति? किन्तु संसारिष्वेवेति भवति प्रयोजकम्। एवमेकं गीतोक्तं कारणमुक्त्वा भाष्यकारः कारणान्तरं चाऽऽह -- वस्तुत इति। वस्तुतः परमार्थतः। अभिमानिकमहङ्कारकारितं भ्रान्तिप्रतीतम्। तस्य जीवस्य? एवेत्यवधारणेनास्य जीवं प्रति विधिप्रवृत्तौ प्रयोजकत्वं समर्थयते। परमेश्वरकृतासु क्रियासु स्वस्य स्वातन्त्र्यं मन्यमानस्यापराधिनो विधिबन्धलक्षणो दण्ड इति भावः। प्रकारान्तरमाह -- स्वातन्त्र्यं चेति। तस्येति वर्तते। स्यादिदं विधिप्रवृत्ति(प्रवृत्तिविधि इति पाठः कृष्णाचार्याणाम्)वैयर्थ्यम्। यदि जीवस्य क्रियास्वातन्त्र्यलक्षणं कर्तृत्वं सर्वथा न स्यात्। न चैवम्? ईश्वरायत्तस्य तस्याङ्गीकारात् अपराधीनापेक्षया तदभावोक्तेः। न चैवं जडतौल्यमित्यत आह -- जडमपेक्ष्येति। अधिकमिति शेषः। जडं हि तदा परकृतेन नोदनादिना क्रियावद्भवति। न त्वागन्तुककारणमन्तरेण स्वेच्छया जीवस्त्वनादिसिद्धया परमेश्वरप्रसादायत्तया सत्तातुल्यया क्रियाशक्त्या कर्तेति युक्तस्तं प्रति कर्मविधिरिति। नन्वेतत्सर्वं कुतः प्रमाणात्प्रतिपत्तव्यं इत्यत आह -- सर्वं चेति। अनुभवेनोक्तप्रमाणैश्च विधिज्ञाने सतीच्छोत्पत्तिरित्यादिकं अनुभवसिद्धम्।ईश्वरप्रसादात् इत्यादिकं तुयथानियुक्तोऽस्मि इत्याद्युदाहृतागमसिद्धम्। पृथक् पुनः।
Swami Ramsukhdas
।।18.18।। व्याख्या -- [इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मोंके बननेमें पाँच हेतु बताये -- अधिष्ठान? कर्ता? करण? चेष्टा और दैव (संस्कार)। इन पाँचोंमें भी मूल हेतु है -- कर्ता। इसी मूल हेतुको मिटानेके लिये भगवान्ने सोलहवें श्लोकमें कर्तृत्वभाव रखनेवालेकी बड़ी निन्दा की और सत्रहवें श्लोकमें कर्तृत्वभाव न रखनेवालेकी बड़ी प्रशंसा की। कर्तृत्वभाव बिलकुल न रहे? यह साफसाफ समझानेके लिये ही अठारहवाँ श्लोक कहा गया है।]ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना -- ज्ञान? ज्ञेय और परिज्ञाता -- इन तीनोंसे कर्मप्रेरणा होती है। ज्ञान को सबसे पहले कहनेमें यह भाव है कि हरेक मनुष्यकी कोई भी प्रवृत्ति होती है तो प्रवृत्तिसे पहले ज्ञान होता है। जैसे? जल पीनेकी प्रवृत्तिसे पहले प्यासका ज्ञान होता है? फिर वह जलसे प्यास बुझाता है। जल आदि जिस विषयका ज्ञान होता है? वह ज्ञेय कहलाता है और जिसको ज्ञान होता है? वह परिज्ञाता कहलाता है। ज्ञान? ज्ञेय और परिज्ञाता -- तीनों होनेसे ही कर्म करनेकी प्रेरणा होती है। यदि इन तीनोंमेंसे एक भी न हो तो कर्म करनेकी प्रेरणा नहीं होती।परिज्ञाता उसको कहते हैं? जो परितः ज्ञाता है अर्थात् जो सब तरहकी क्रियाओंकी स्फुरणाका ज्ञाता है। वह केवल ज्ञाता मात्र है अर्थात् उसे क्रियाओंकी स्फुरणामात्रका ज्ञान होता है? उसमें अपने लिये कुछ चाहनेका अथवा उस क्रियाको करनेका अभिमान आदि बिलकुल नहीं होता।कोई भी क्रिया करनेकी स्फुरणा एक व्यक्तिविशेषमें ही होती है। इसलिये शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- इन विषयोंको लेकर सुननेवाला? स्पर्श करनेवाला? देखनेवाला? चखनेवाला और सूँघनेवाला -- इस तरह अनेक कर्ता हो सकते हैं परन्तु उन सबको जाननेवाला एक ही रहता है? उसे ही यहाँ,परिज्ञाता कहा है।करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः -- कर्मसंग्रहके तीन हेतु हैं -- करण? कर्म तथा कर्ता। इन तीनोंके,सहयोगसे कर्म पूरा होता है। जिन साधनोंसे कर्ता कर्म करता है? उन क्रिया करनेके साधनों(इन्द्रियों आदि)को करण कहते हैं। खानापीना? उठनाबैठना? चलनाफिरना? आनाजाना आदि जो चेष्टाएँ की जाती हैं? उनको कर्म कहते हैं। करण और क्रियासे अपना सम्बन्ध जोड़कर कर्म करनेवालेको कर्ता कहते हैं। इस प्रकार इन तीनोंके मिलनेसे ही कर्म बनता है।भगवान्को यहाँ खास बात यह बतानी है कि कर्मसंग्रह कैसे होता है अर्थात् कर्म बाँधनेवाला कैसे होता है कर्म बननेके तीन हेतु बताते हुए भगवान्का लक्ष्य मूल हेतु कर्ता को बतानेमें है क्योंकि कर्मसंग्रहका खास सम्बन्ध कर्तासे है। यदि कर्तापन न हो तो कर्मसंग्रह नहीं होता? केवल क्रियामात्र होती है।कर्मसंग्रहमें करण हेतु नहीं है क्योंकि करण कर्ताके अधीन होता है। कर्ता जैसा कर्म करना चाहता है? वैसा ही कर्म होता है? इसलिये कर्म भी कर्मसंग्रहमें खास हेतु नहीं है। सांख्यसिद्धान्तके अनुसार खास बाँधनेवाला है -- अहंकृतभाव और इसीसे कर्मसंग्रह होता है। अहंकृतभाव न रहनेसे कर्मसंग्रह नहीं होता अर्थात् कर्म फलजनक नहीं होता। इस मूलका ज्ञान करानेके लिये ही भगवान्ने करण और कर्मको पहले रखकर कर्ताको कर्मसंग्रहके पासमें रखा है? जिससे यह खयालमें आ जाय कि बाँधनेवाला कर्ता ही है। सम्बन्ध -- गुणातीत होनेके उद्देश्यसे अब आगेके श्लोकसे त्रिगुणात्मक पदार्थोंका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।18.18।। कर्म के स्वरूप का युक्तियुक्त विवेचन करते हुए? भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म के सम्पादन के पाँच कारणों का वर्णन किया है तथा उनसे भिन्न अकर्ता आत्मा का भी निर्देश किया है। उसी विषय का विस्तार करते हुए? अब वे कर्म के त्रिविध प्रेरक तथा जिससे कर्म संभव होता है वह त्रिविध कर्म संग्रह बताते हैं।प्रत्येक कर्म का प्रेरक है? विषय ज्ञान। इस ज्ञान की सिद्धि के लिए जिन तीन तत्त्वों की आवश्यकता होती है? वे हैं ज्ञाता? ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय तथा ज्ञान अर्थात् जानने की क्रिया से प्राप्त हुआ ज्ञान। ज्ञाता? ज्ञेय और ज्ञान इन तीनों को वेदान्त की शब्दावली में त्रिपुटी कहते हैं। इन तीनों के संबंध से ही कर्म के प्रवर्तक विषय का ज्ञान होता है।कर्म की प्रेरणा तीन प्रकार से हो सकती है (1) ज्ञाता के मन में उत्पन्न हुई इच्छा के रूप में? या (2) ज्ञेय वस्तु के प्रलोभन से? अथवा (3) पूर्वानुभूत भोग (ज्ञात सुख) की स्मृति से। इन तीनों के अतिरिक्त कर्म का प्रेरक अन्य कोई कारण नहीं है।अन्तकरण में कर्म की प्रेरणा उत्पन्न होने के पश्चात् उसको पूर्ण करने के लिए कर्ता? करण और कर्म नामक त्रिपुटी की आवश्यकता होती है? जिसे यहाँ त्रिविध कर्मसंग्रह कहा गया है। कामना से प्रेरित जीव कर्म के क्षेत्र में कर्तृत्वाभिमान (मैं कर्ता हूँ) के साथ प्रवेश करता है। यहाँ जीव कर्ता कहलाता है। यह कर्ता जीव जिस फल या लक्ष्य की कामना करता है? उसे यहाँ कर्म शब्द से इंगित किया गया है। यहाँ कर्म का तात्पर्य फल से है।कर्ता जीव को फल (कर्म) प्राप्त करने के लिए क्रिया करनी पड़ती है। क्रिया के ये साधन करण कहे जाते हैं? जिनमें ज्ञानेन्द्रियाँ? कर्मेन्द्रियाँ तथा मन बुद्धि का भी समावेश है। इस प्रकार? कर्ता? कर्म और करण ये कर्म की त्रिपुटी अथवा कर्मसंग्रह कहे जाते हैं।इन तीनों में से किसी एक के भी अभाव में कर्म संभव नहीं हो सकता।समस्त जगत् त्रिगुणात्मिका प्रकृति का कार्य है। इसलिए? ज्ञान? कर्म और कर्ता में भी त्रिगुणों के कारण त्रिविध भेद उत्पन्न होते हैं? जिनका? अब वर्णन किया जायेगा। भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।18.18।।शास्त्रार्थोपसंहारानन्तर्यमथेत्युक्तमिदानीमिति प्रवर्तकोपदेशापेक्षावस्थोक्ता। कर्मणां? येषु विदुषां नाधिकारोऽविदुषां चाधिकारस्तेषामित्यर्थः। ज्ञानशब्दस्य करणव्युत्पत्त्या ज्ञानमात्रार्थत्वमाह -- ज्ञानमिति। ज्ञेयशब्दस्यापि तद्वदेव ज्ञातव्यमात्रार्थत्वमाह -- तथेति। उपाधिलक्षणत्वं तत्प्रधानत्वमुपहितत्वं तस्यावस्तुत्वार्थमविद्याकल्पितविशेषणम्। एतदेव त्रयं सर्वकर्मप्रवर्तकमित्याह -- इत्येतदिति। सर्वकर्मणां प्रवर्तकमित्यध्याहर्तव्यम्। चोदनेति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमिति भाष्यानुसारेण चोदनाशब्दार्थमाह -- प्रवर्तिकेति। सर्वकर्मणामिति पूर्वेण संबन्धः। त्रैविध्यं ज्ञानादिना प्रागुक्तं? कर्मणां चोदनेति विग्रहः। तेषां सर्वकर्मप्रवर्तकत्वमनुभवेन साधयति -- ज्ञानादीनामिति। हानोपादानादीत्यादिपदेनोपेक्षा विवक्षिता। करणमित्यादेस्तात्पर्यमाह -- तत इति। ज्ञानादीनां प्रवर्तकत्वादित्यर्थः। उक्तेऽर्थे श्लोकभागमवतारयति -- इत्येतदिति। बाह्यमन्तःस्थं च द्विविधं करणं करणव्युत्पत्त्या कथयति -- करणमिति। उक्तलक्षणं कर्मैव स्फुटयति -- कर्तुरिति। स्वतन्त्रो हि कर्ता स्वातन्त्र्यं च कारकाप्रयोज्यस्य तत्प्रयोक्तृत्वमित्याह -- कर्तेति। कथमुक्ते त्रिविधे कर्म संगृह्यते तत्राह -- कर्मेति। कर्मणो हि प्रसिद्धं कारकाश्रयत्वमिति भावः।
Sri Dhanpati
।।18.18।।आत्मनः कर्तत्वं फलसंबन्धित्वं च नास्तीत्युक्तं तदेवोपपादयितुं कर्मणां प्रवर्तकमाह -- ज्ञानमिति। ज्ञायतेऽनेनेति करणव्युत्पत्त्याऽविशेषेण सर्वविषं ज्ञानमात्रमुच्यते। तथा ज्ञेयमपि सामान्येनैव ज्ञातव्यं सर्वमुच्यते। तथा परिज्ञाताऽविद्याकल्पितोपाधिप्रधानो भोक्तेत्येवं त्रिविधा कर्मचोदना। कर्मणां प्रवर्तकं त्रिविधमित्यर्थः। करणं क्रियतेऽनेनेति बाह्यं श्रोत्राद्याभ्यन्तरं बुद्य्धादि। कर्मेप्सततमं कर्तुः क्रियया व्याप्यमानम्। कर्ता स्वतन्त्रः स्वाचन्त्र्यं च कारकाप्रयोज्यस्य तत्प्रयोक्तृत्वं तत्प्रयोक्तृत्वं तत्प्रयोक्तृत्वं अविद्याकल्पितोपाधिप्रधानो व्यापारयति इति त्रिविधः कर्मसंग्रहः संगृह्यतेऽस्मिन्निति संग्रहः कर्मणास्त्रिषु समवेतत्वात् अयं त्रिविधः कर्मसंग्रहः। ज्ञानादीनां हि त्रयणां सन्निपाते हानोपादानोपेक्षाप्रयोजनः सर्वकर्मारम्भो भवतीति ज्ञानादिरुपा त्रिविधा कर्मचोदनोच्यते। ततश्च पञ्चभिरधिष्ठानादिभिरारब्धं वाङ्गनःकायाशयभेदेन त्रिधा राशीभूतं त्रुषु करणादिषु संगृह्यत इति करणादिरुपस्त्रिविधः कर्मसंग्रह उच्यत इति भावः। अत्र भाष्यस्यास्य सामान्यरुपत्वात्तदविरोधेन व्याख्यानान्तराण्यपि निर्दुष्टान्युपादेयानि।
Sri Madhavacharya
।।18.18।।एवं तर्हि न पुरुषमपेक्ष्य विधिः? अकर्तृत्वादित्यत आह -- ज्ञानमिति। त्रिविधा कर्मचोदना एतत् त्रिविधमपेक्ष्य कर्मविधिरिति त्रिविधेत्युच्यते। कारणानि सङ्क्षिप्याऽऽह -- करणमिति। कर्मसंग्रहः कर्मकारणसंग्रहः। अधिष्ठानादि कारण एवान्तर्भूतम्।तथा ह्यृग्वेदखिलेषु -- ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानिनं च ह्यपेक्ष्य विधिरुत्थितः। करणं चैव कर्ता च कर्मकारणसंग्रह इति। अकर्तृत्वेऽपि विधिद्वारेश्वरप्रसादादिच्छोत्पत्त्योक्तकारणैः कर्मद्वारा पुरुषार्थो भवतीति। ईश्वराधीनत्वेऽपि विधिद्वारा नियतस्तेनैव।यदि चेच्छादिर्जायते तर्हि कारितमेवेश्वरेण। फलं च नियतम्। वस्तुतोऽकर्तृत्वेऽपि आभिमानिकं कर्तृत्वं तस्यैव। स्वातन्त्र्यं च जडमपेक्ष्यैवेति न प्रवृत्तिविधिवैयर्थ्यम्। सर्वं चैतदनुभवोक्तप्रमाणसिद्धमिति न पृथक् प्रमाणमुच्यते।
Sri Neelkanth
।।18.18।।समाप्तः सात्त्विकत्यागोपपादनोपयोगी आत्मनोऽकर्तृत्वोपपादनप्रकारः। अत्राह सांख्यः -- यदुक्तं पञ्चैते? तस्य हेतव इति? यच्चोक्तं न हन्तीति तन्मृष्यामहे। नह्यपरिणामी चेतनः परिस्पन्दात्मकस्य कायिकादिभेदेन त्रिविधस्य कर्मणः कर्ता भवतीति वक्तुं युज्यते। यत्तु न निबध्यत इति भोक्तृत्वमुक्तमपि प्रत्याख्यातं तन्न मृष्यामहे। नहि कुलालादयः स्वप्रयुक्ता एव घटादीन्निर्वर्तयन्ति किंतु भोक्तृपुरुषप्रयुक्ताः। अन्यथा भोक्तृ़णामभावे व्यर्थैव तत्प्रवृत्तिरित्यापतति। एवं प्रधानमात्राभूताः कर्त्रादयः पुरुषस्य भोगापवर्गसाधनप्रयुक्ताः,सर्वाणि कर्माणि निर्वर्तयन्ति। तस्मात्पुरुषस्य भोक्तृस्वभावत्वादकर्तृत्वानुसंधानपूर्वकमपि कृतं कर्म भोक्त्राऽवश्यमेव भोक्तव्यमिति सात्त्विकत्यागेऽपि कर्मालेपवचनमसंगतमिति। अत्र प्रतिविधत्ते -- ज्ञानं ज्ञेयमिति। ज्ञानं ज्ञायते प्रकाश्यते वस्तुतत्त्वमनेनेति प्रत्यक्षादिप्रमाणजन्यो घटादिप्रकाशः स च वर्तमानोऽतीतो वा। ज्ञेयं बोधविषयो घटादिः। परिज्ञाता विषयी साभासधीरूपो यो भोक्तेत्युच्यते। एवंरूपप्रकारत्रयवती त्रिविधा कर्मणां चोदना। त्रयं समुच्चितं सत्कर्मणि प्रवर्तकमित्यर्थः। सत्यपि ज्ञेये ज्ञातरि वा ज्ञाने प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। ज्ञाने ज्ञातरि च सति देशकालव्यवहिते ज्ञेये प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। सत्यपि संस्कारात्मके ज्ञाने ज्ञेये च सन्निहिते तथापि सुषुप्तौ प्रमात्रभावात्प्रवृत्त्यदर्शनादेतत्त्रयं त्रिदण्डविष्टम्भवदन्योन्यापेक्षं सत् हानोपादानोपेक्षाबुद्धिरूपं कार्यं जनयित्वा हानाद्यनुकूले व्यापारे प्रवर्तयतीति कर्तृपदाभिधेयमित्यर्थः। चोदनेति कर्तरि नन्द्यादिल्युप्रत्ययान्तत्वे चोदनाशब्दः कर्तृवाची। लिङ्गं त्वविवक्षितम्। लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्येति वा। तथा करणमिन्द्रियम्। कर्म तेन यत्क्रियमाणं विषयग्रहणम्। कर्ता पूर्वोक्त एव परिज्ञाता। एतत्त्रयं समुदितं सत् कर्मसंग्रहः कर्मणः ईप्सिततमस्य भोग्यस्य संग्रहः संगृह्यतेऽस्मिन्निति संश्लेषस्थानं भोक्तेत्यर्थः। सत्यपि भोक्तरि करणे च क्रियां विना भोगासंभवात् क्रियायाश्चाश्रयं विना स्वरूपालाभादाश्रयस्य करणं विना भोक्तृत्वाङ्गकर्तृत्वानुपपत्तैश्चैतत्त्रयं मिलितं सत् भोक्तेत्युच्यत इत्यर्थः। तथा च श्रुतिःआत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः इति। इन्द्रियं प्रसिद्धम्। मन इत्यनेन बुद्धिरेव गृह्यते। युक्तं इन्द्रियद्वारा मतेर्भोग्येन सह संबन्धक्रिया। इन्द्रियं च मनश्च युक्तं चेति विग्रहे इन्द्रियमनोयुक्तमिति द्वन्द्वैकवद्भावः। एतत्त्रयं भोक्ता आत्मेत्याहुर्मनीषिण इति श्रुत्यर्थः। एवं हि श्रुतिस्मृत्योर्व्याख्याने तयोर्मूलमूलिभावो युज्यते नान्यथा। तथा च कर्तृवत् भोक्तुरपि अनात्मगणपतितत्वाद्भोक्तृत्वं भोगकर्तृत्वमिति निर्वचनाद्यः कर्ता स एव भोक्तेति प्रतिपादनादहमकर्ताऽभोक्तेति चानुसंधानपूर्वकं कर्माणि कुर्वतः कर्तृत्वभोक्तृत्वकृतः कर्मलेपो नास्तीति सिद्धम्। भाष्यस्य चायमेवार्थः। ये तु करणं क्रियायाः साधकतमं दशविधं बाह्यं मनोबुद्धिरूपमान्तरम्। कर्म कर्तुरीप्सिततमं क्रियया व्याप्यमानं उत्पाद्यमाप्यं विकार्यं संस्कार्यं चेति चतुर्विधम्। कर्ता कारकान्तरप्रयोजकश्चिदचिद्ग्रन्थिः। एतत्त्रयं कर्मसंग्रहः। कर्माश्रयः कर्तेत्यर्थः। तथा ज्ञानं विषयप्रकाशनशक्तिः। ज्ञेयं विषयः। परिज्ञाता ज्ञानाश्रयो भोक्ता। एतत्त्रयं कर्मणि प्रवर्तकमिति व्याचक्षते। तेषामपि आत्मा न कर्ता नापि सांख्यानामिव भोक्तृत्वेन प्रकृतेः प्रवर्तक इत्येवाशयः। तथापि क्रियया व्याप्यमानस्य वक्ष्यमाणसात्त्विकादिभेदानर्हस्य घटादिरूपस्य कर्मणः कर्तृकोटौ प्रवेशायोगः। तस्य क्रियाश्रयत्वमात्रविवक्षायां प्रकृते तत्कथनानुपयोगश्च स्पष्टः। तथा अस्माकं तु घटादिव्यापकक्रियायाः कर्मशब्दवाच्यत्वं मुख्यम्। कर्तृकोटिप्रवेशश्च क्रियाक्रियावतोर्धर्मधर्मिणोरभेदापेक्षया युज्यते। तथा ज्ञानं प्रकाशनक्रियेति मते क्रियारूपेऽस्मिन्प्रवर्तकज्ञानान्तरस्यापेक्षेति तत्र तत्रान्यस्यान्यस्यापेक्षेत्यनवस्था दुर्निवारा।
Sri Ramanujacharya
।।18.18।।ज्ञानं कर्तव्यकर्मविषयं ज्ञानम्? ज्ञेयं च कर्तव्यं कर्म? परिज्ञाता तस्य बोद्धा इति त्रिविधा कर्मचोदना बोधबोद्धव्यबोद्धृयुक्तो ज्योतिष्टोमादिकर्मविधिः इत्यर्थः। तत्र बोद्धव्यरूपं कर्म त्रिविधं संगृह्यते करणं कर्म कर्ता इति। करणं साधनभूतं द्रव्यादिकम्? कर्म यागादिकम्? कर्ता अनुष्ठाता इति।
Sri Sridhara Swami
।।18.18।।हत्वापि न हन्ति न निबध्यते इत्येतदेवोपपादयितुं कर्मचोदनायाः कर्माश्रयस्य च कर्मफलादीनां च त्रिगुणात्मकत्वान्निर्गुणस्यात्मनस्तत्संबन्धो नास्तीत्यभिप्रायेण कर्मचोदनां कर्माश्रयं चाह -- ज्ञानमिति। ज्ञानमिष्टसाधनमेतदिति बोधः। ज्ञेयमिष्टसाधनं कर्म। परिज्ञाता एवंभूतज्ञानाश्रयः। एवं त्रिविधा कर्मचोदना। चोद्यते प्रवर्त्यते येनेति चोदना। ज्ञानादित्रितयं कर्मप्रवृत्तिहेतुरित्यर्थः। यद्वा चोदनेति विधिरुच्यते। तदुक्तं भट्टैःचोदना चोपदेशश्च विधिश्चैकार्थवाचिनः इति। ततश्चायमर्थःउक्तलक्षणं त्रिगुणात्मकं ज्ञानादित्रयमवलम्ब्य कर्मविधिः प्रवर्तत इति। तदुक्तम्त्रैगुण्यविषया वेदाः इति। तथाच करणं साधतकमम्। कर्म च कर्तुरीप्सिततमम्। कर्ता क्रियानिर्वर्तकः। कर्म संगृह्यतेऽस्मिन्निति कर्मसंग्रहः। करणादित्रिविधं कारकं क्रियाश्रय इत्यर्थः। संप्रदानादिकारकत्रयं तु परंपरया क्रियानिर्वर्तकमेव केवलं नतु साक्षात्क्रियाया आश्रयः। अतः करणादित्रितयमेव क्रियाश्रय इत्युक्तम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.18।।एवं सात्त्विकत्यागो विशोधितः अथ तदर्थंनित्यसत्त्वस्थः [2।45] इत्यादिभिर्बहुधा प्राक्प्रसक्तसत्त्वोपादेयता निरवशेषं विशोध्या तत्र मध्ये कर्मचोदनाप्रकारादिकथनं कथं सङ्गच्छते इत्यत्राऽऽह -- सर्वमिति। कर्मचोदनाप्रकारोक्तिस्तदनुबन्धिषु ज्ञानादिषु गुणतस्त्रैविध्यं प्रपञ्चयितुमित्यर्थः।कर्तव्यकर्मविषयमित्यादि ज्ञानज्ञेयज्ञातृशब्दाः सामान्यविषया अपि कर्मचोदनात्रैविध्यार्थत्वाद्विशेषपरा इति भावः। एतेन ज्ञानशब्दस्यात्र शास्त्रपरत्वव्याख्या निरस्ता। प्रवर्तकवचनरूपचोदनास्वरूपविलक्षणानां ज्ञानादीनां कथं चोदनाभेदत्वोक्तिः इत्यत्राऽऽह -- बोधबोद्धव्यबोद्धृयुक्त इति। ज्ञानादीनां चोदनानुबन्धित्वमात्रेण विधाशब्दोक्तं प्रकारत्वमित्यर्थः। एवंत्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः इत्यत्र हेतुद्वयसहितस्वरूपेण त्रैविध्यम्।अनुक्तविषयत्रैविध्यान्तरोक्तिशङ्काव्युदासाय त्रिष्वन्यतमं विविच्यत इत्याह -- तत्रेति। सङ्ग्रहशब्दस्य कर्मणि व्युत्पत्तिमाह -- संगृह्यत इति। कर्मैव सङ्ग्रह इति कर्मधारयः? कर्मणो वा सङ्ग्रहः। व्रीहिभिर्यजेत [आप.श्रो.6।31।24]दध्ना जुहोति [आप.श्रौ.6।25।10] इत्यादिप्रतिपादितं क्रियाकरणमिह करणशब्देनोच्यते। फलापेक्षया तु कर्मण एव करणत्वादित्यभिप्रायेणाऽऽहसाधनभूतं द्रव्यादिकमिति। आदिशब्देन जात्यादिग्रहणम्। नन्वत्र ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं? तदेव करणमित्युच्यते ज्ञानादित्रयमेव हि करणकर्मकर्तृशब्दैर्विवृतमिति युक्तम् अत एव हिज्ञानं कर्म च कर्ता च इत्यनन्तरानुवादसङ्गतिरिति चेत् -- मैवं? शब्दस्वारस्याभावात्? उक्तमात्रस्य च शब्दान्तरेण पुनरभिधाने प्रयोजनाभावात् उक्तावान्तरविभजनस्य तु विवेकोपयुक्तत्वादिति भावः। कर्तृकरणसमभिव्याहारात्कर्मशब्दोऽपि कारकविशेषविषय इति शङ्कामपाकरोतिकर्म यागादिकमिति। क्रियास्वरूपं हि गुणतस्त्रिविधं विभजिष्यत इति भावः। नियोज्यावस्थतयापरिज्ञाता इति निर्दिष्ट एवानुष्ठात्रवस्थतया पुनः कर्मशेषतया तत्प्रकारत्वेनकर्ता इति व्यपदिश्यत इत्याह -- कर्ता अनुष्ठातेति।
Sri Abhinavgupta
।।18.18।।ज्ञानमिति। कर्मणि चोदना प्रवृत्तीच्छा। तत्समये येषाम् अबोधमात्रनिष्ठत्वात् ज्ञानज्ञेयज्ञातृश्रुतिवाच्यता ( -- वाच्यतया )? तेषामेव सम्यग्ग्रहणरूपं यत् फलाभिसंधानेन आत्मीयबुद्ध्या स्वीकरणम्? अहमेतत् भोक्ष्ये? यतो मया कृतम् इत्येवं रूपम् तत्समये तथा निर्वर्त्तनावसरे करणकर्मकर्तृशब्दाभिधेयत्वम्? आविष्टत्वात्। अतो योगिनाम् आवेशो नास्तीति तान् प्रति करणादिगिरां प्रसङ्गो नास्ति? अपि तु ज्ञानादिमात्रे ( K ज्ञानमात्र एव ) एव [ इति ] तात्पर्यम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.18।।पूर्वमधिष्ठानादिपञ्चकस्य क्रियाहेतुत्वेनात्मनः सर्वकर्मासंस्पर्शित्वमुक्तं? संप्रति तमेवार्थं ज्ञानज्ञेयादिप्रक्रियारचनया त्रैगुण्यभेदव्याख्यया च विवरीतुमुपक्रमते -- ज्ञानं ज्ञेयमिति। ज्ञानं विषयप्रकाशक्रिया। ज्ञेयं तस्य कर्म। परिज्ञाता तस्याश्रयो भोक्तान्तःकरणोपाधिपरिकल्पितः। एतेषां त्रयाणां,सन्निपाते हि हानोपादानादिसर्वकर्मारम्भः स्यादत एतत्त्रयं सर्वेषां कर्मणां प्रवर्तकं तदेतदाह त्रिविधा कर्मचोदनेति। चोदनेति प्रवर्तकमुच्यतेचोदनेति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाहुः इति शाबरे?चोदना चोपदेशश्च विधिश्चैकार्थवाचिनः इति भाट्टे च वचने क्रियाप्रवर्तकवचनत्वं यद्यपि चोदनापदशक्यतया प्रतीयते तथापि वचनत्वं विहाय प्रवर्तकमात्रमिह लक्ष्यते ज्ञानादिषु वचनत्वाभावात्। एवंच प्रेरणीयत्वं प्रेरकत्वं चानात्मन एव नात्मन इत्यभिप्रायः। तथा करणं साधकतमं बाह्यं श्रोत्राद्यन्तस्थं बुद्ध्यादि। कर्म कर्तुरीप्सिततमं क्रियया व्याप्यमानमुत्पाद्यमाप्यं विकार्यं संस्कार्यं च। कर्ता च इतरकारकाप्रयोज्यत्वे सति सकलकारकाणां प्रयोक्ता क्रियाया निर्वर्तकश्चिदचिद्ग्रन्थिरूप इति त्रिविधस्त्रिप्रकारः कर्म संगृह्यते समवैत्यत्रेति कर्मसंग्रहः कर्माश्रयश्चकारार्थादितिशब्दात्संप्रदानमपादानमधिकरणं च राशित्रयान्तर्भूतं। एवं कारकषट्कमेव त्रिविधं क्रियाया आश्रयो नतु कूटस्थ आत्मेत्यर्थः। कर्मप्रेरकस्य कर्माश्रयस्य च कारकरूपत्वात्त्रैगुण्यात्मकत्वाच्चाकारकस्वभावो गुणातीतश्चात्मा सर्वकर्मासंस्पर्शीत्यभिप्रायः। अथवा ज्ञानं प्रेरणारूपं लिङादिशब्दजन्यं? ज्ञेयं तस्य ज्ञानस्य विषयत्वेन लिङादिशब्दस्वरूपं प्रेरकं? परिज्ञाता तस्य ज्ञानस्याश्रयः प्रेरणीय इत्येवं त्रिविधा कर्मचोदना कर्म क्रिया पुरुषव्यापाररूपा भावना तद्विषया चोदना प्रेरणा विधिरूपा शाब्दीभावनेत्यर्थः। तथा करणं सेतिकर्तव्यताकं साधनं धात्वर्थः? कर्म भाव्यं स्वर्गादिफलं? कर्ता फलकामनावान्पुरुषः क्रियाया निर्वर्तक इत्येवं त्रिविधः कर्मसंग्रहः कर्मणः पुंव्यापाररूपस्यार्थभावनायाः संग्रहः संक्षेपः। तदेवमर्थभावनारूपपुंप्रयत्नस्य विधेयस्याभावाच्छब्दभावनारूपो विधिर्न शुद्धमात्मानं गोचरयति कारकाश्रयत्वाद्विधिविधेययोगः। तदुक्तंत्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन इति। कारकाणां च त्रैगुण्यरूपत्वमनन्तरमेव व्याख्यास्यत इत्यभिप्रायः। अत्र प्रसङ्गाद्विधिश्चिन्त्यते प्रवृत्तिहेतुत्वेन। प्रेरणा तावत्सर्वलोकानुभवसिद्धा। राज्ञा प्रेरितो बालेन प्रेरितो ब्राह्मणेन प्रेरितोऽहमिति हि प्रवर्तमाना वक्तारो भवन्ति। सा च प्रवर्तना प्रवर्तकराजादिनिष्ठा। तत्रोत्कृष्टस्य निकृष्टंप्रति प्रवर्तना आज्ञा प्रेषणेति चोच्यते। निकृष्टस्योत्कृष्टंप्रति प्रवर्तना याञ्चा अध्येषणेति चोच्यते। समस्य समं प्रत्युत्कर्षनिकर्षौदासीन्येन प्रवर्तना अनुज्ञाऽनुमतिरिति चोच्यते। ते चाज्ञादयो ज्ञानविशेषा इच्छाविशेषा वा चेतनधर्मा एव लोके प्रसिद्धाः? वेदे तु विधिनाहंप्रेरितः करोमीति व्यवहर्तारो भवन्ति। तत्र स्वयमचेतनत्वादपौरुषेयत्वाच्च वैदिकस्य विधेर्न चेतनधर्मेणाज्ञादिना प्रेरकता संभवत्यतः स्वधर्मेणैव साभ्युपगन्तव्या गत्यन्तरासंभवात्। स एव च धर्मश्चोदना प्रवर्तना प्रेरणा विधिरुपदेशः शब्दभावनेति चोच्यते। तत्र केचिदलौकिकमेव शब्दव्यापारं कल्पयन्ति। अन्ये तु क्लृप्तेनैवोपपत्तौ नालौकिककल्पनां सहन्ते। प्रवर्तना हि प्रवृत्तिहेतुर्व्यापारः। विधिशब्दस्य चाख्यातत्वेन दशलकारसाधारणेनोपाधिना पुरुषप्रवृत्तिरूपार्थभावनांप्रति वाचकत्वं तज्ज्ञानहेतुत्वमिति यावत्। सा च ज्ञातैवानुष्ठातुं शक्यत इति तद्धीहेतोरपि शब्दस्य तद्धेतुत्वं परंपरया भवत्येव। तत्र विधिशब्दस्य पुरुषप्रवृत्तिरूपभावनाज्ञानहेतुर्व्यापारः पुरुषप्रवृत्तिवाचकस्तद्वाचकशक्तिमत्तया विधिशब्दज्ञानं स एव च तस्य प्रवृत्तिहेतुर्व्यापार इति प्रवर्तनाभिधानीयकं लभते। ज्ञानद्वारेणैव शब्दस्य प्रवृत्तिजनकत्वात् ज्ञानजनकव्यापारातिरिक्तव्यापारकल्पने मानाभावात् ज्ञानजनकश्च व्यापारस्तस्य स्वज्ञानं शक्तिज्ञाने शक्तिविशिष्टस्वज्ञानं च। तत्राद्ययोरन्यतरस्य शब्दभावनात्वं तृतीयस्य तु तत्र करणत्वमिति विवेकः। एवं स्थिते निष्कर्षः -- विधिना स्वज्ञानं जन्यते प्रवर्तनात्वेनाभिधीयतेपीति विधिज्ञानमेव शब्दभावना तस्यां च पुरुषप्रवृत्तिरूपार्थभावनैव भाव्यतयान्वेति। करणतया च प्रवृत्तिवाचकशक्तिमद्विधिज्ञानमेव भावनासाध्यस्यापि फलावच्छिन्नां भावनां प्रति करणत्वं फलकरणत्वादेव यागस्येव स्वर्गभावनां प्रति न विरुध्यते। तथाच पुरुषः स्वप्रवृत्तिं भावयेत्। केनेत्यपेक्षायां पुरुषप्रवृत्तिवाचकशक्तिमत्तया ज्ञातेन विधिशब्देनेतिकरणांशपूरणं। कथमित्याकाङ्क्षायां अर्थवादैः स्तुत्वेतीतिकर्तव्यतांशपूरणं? इयं गौः क्रय्येति लौकिके विधौ बहुक्षीरा जीवद्वत्सा स्त्र्यपत्या समांसमीनेत्यादिलौकिकार्थवादवत्। समां समां प्रतिवर्षं प्रसूयते सा गौः। नन्वाख्यातत्वेन विधिशब्दादुपस्थिता पुरुषप्रवृत्तिर्भाव्यतयान्वेतु? करणं तु कथमनुपस्थिमन्वेति। उच्यते। विधिशब्दस्तावच्छ्रवणेनोपस्थापितस्तस्य पुरुषप्रवृत्तिवाचकशक्तिरपि स्मरणेनोपस्थापिता तदुभयवैशिष्ट्यं तन्निष्ठाज्ञातता च मनसेति वाचकशक्तिमत्तया ज्ञातो विधिशब्द उपस्थित एव। अनेन यच्छक्नुयात्तद्भावयेदिति प्रतिशब्दं स्वाध्यायविधितात्पर्याच्छब्दातिरिक्तेनोपस्थितमपि शाब्दबोधे भासत एव यथा ज्योतिष्टोमादि नामधेयं यथावा लिङ्गविनियोज्यो मन्त्रः। तदुक्तमाचार्यैरुद्भिदधिकरणेअनुपस्थितिविशेषमाविशिष्टे बुद्धिर्न भवति न त्वनभिहितविशेषणेति एवमर्थवादानामुपस्थितिः। श्रोत्रेण प्राशस्त्यस्य तु तैरेव लक्षणया तदुभयनिष्ठज्ञाततायास्तु,मनसेत्यर्थवादैः प्रशस्तत्वेन ज्ञात्वेतीतिकर्तव्यतांशान्वयोऽप्युपपन्न एव। ननु किं प्राशस्त्यम्। न तावत्फलसाधनत्वं? तस्ययागेन भावयेत्स्वर्गम् इत्यर्थभावनान्वयवशेन विधिवाक्यादेव लब्धत्वान्नान्यत्प्रवृत्तावनुपयोगात्। उच्यते। बलवदनिष्टाननुबन्धित्वं प्राशस्त्यं तच्च नेष्टहेतुत्वज्ञानाल्लभ्यते। इष्टहेतावपि कलञ्जभक्षणादावनिष्टहेतुत्वस्यापि दर्शनात्। विहितश्येनफलस्य च शत्रुवधायानिष्टानुबन्धित्वं दृष्टं? अतो यावत्साधनस्य फलस्य चानिष्टहेतुत्वं नोच्यते तावदिष्टहेतुत्वेन ज्ञातेऽपि तत्र पुरुषो न प्रवर्तते। अतएवोक्तंफलतोऽपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलप्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते इति। अतः स्वतः फलतो वानर्थाननुबन्धित्वरूपप्राशस्त्यबोधनेनार्थवादा विधिशक्तिमुत्तम्भन्ति। क उत्तम्भः स्वतः फलतो वार्थाननुबन्धित्वशङ्कायाः प्रवृत्तिप्रतिबन्धिकाया विगमः। इदमेव च विधेः प्रवृत्तिजनने साहाय्यमर्थवादैः क्रियत इति विधिरर्थवादसाकाङ्क्षः। एवमर्थवादा अप्यभिधया गौण्या वा वृत्त्या भूतमर्थं वदन्तोऽपि स्वाध्यायविध्यापादितप्रयोजनवत्त्वलाभाय विधिसाकाङ्क्षाः सोऽयं नष्टाश्वदग्धरथवत्संप्रयोगः? यथैकस्य दग्धस्य रथस्य जीवद्भिरश्वैरन्यस्य विद्यमानस्य रथस्याविद्यमानाश्वस्य संप्रयोगः परस्परस्यार्थवत्त्वाय तथार्थवादानां प्रयोजनांशो विधिना पूर्यते विधेश्च शब्दभावनाया इतिकर्तव्यतांशोऽर्थवादैरिति। तदिदमुभयोः श्रवणे पूर्णमेव वाक्यमेकस्य श्रवणे त्वन्यस्य कल्पनया पूरणीयम्। यथावसन्ताय कपिञ्जलानालभेत इति विधावर्थवादांशोऽश्रुतोऽपि कल्प्यतेप्रतितिष्ठन्ति ह वा य एता रात्रीरुपयन्ति इत्याद्यर्थवादे विध्यंशः। तथाच सूत्रंविधिना त्वेकवाक्यत्वात्स्तुत्यर्थेन विधीनां स्युः इति। विधिना स्तुतिसाकाङ्क्षेण प्रयोजनसाकाङ्क्षाणामर्थवादानामेकवाक्यत्वाद्विधीनां विधेयानां स्तुत्यर्थेन स्तुतिप्रयोजनेन स्तुतिरूपे(च्छालाक्षणिकेन)ण प्रयोजनसाकाङ्क्षेण लाक्षणिकेनार्थेन वानर्थक्याभावादर्थवादा धर्मे प्रमाणानि स्युरिति तस्यार्थः। ननु य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकास्त एव चामीषामर्था इति न्यायाद्विधिशब्दस्य लोके यत्र शक्तिर्गृहीता वेदेऽपि तदर्थकेनैव तेन भवितव्यं? लोके च प्रेषणादिपुरुषधर्मवाचित्वं क्लृप्तमिति वेदे शब्दभावनावाचित्वं कथमुपपद्यते। उच्यते। लोकवेदयोरैकरूप्यमेव। तथाहि लोके प्रेषणादिकं न तेन तेन रूपेण विधिपदवाच्यं अननुगमेन नानार्थत्वप्रसङ्गात्तद्वदेव भावनावाचित्वोपपत्तेश्च? किंतु प्रेषणाध्येषणानुज्ञास्वस्तिप्रवर्तनात्वमेकं? तच्च शब्दव्यापारेऽपि तुल्यमिति तदेव लिङादिपदवाच्यं तच्च लौकिकशब्दे नास्त्येव। तत्र राजादीनामेव प्रवर्तकत्वात्। प्रवर्तकव्यापार एव हि प्रेषणात्वेन इत्यादिना न विधिपदवाच्यं किंतु प्रवर्तनात्वेन वाच्यं। प्रवर्तना प्रवर्तकत्वं च राजादेरिव वेदस्याप्यनुभवसिद्धम्। ननु वेदेऽपि प्रवर्तनावानीश्वरः कल्प्यतां लोके राजादिवत्तदुक्तंविधिरेव तावद्गर्भ इव श्रुतिकुमार्याः पुंयोगे मानम् इति। न? वेदस्यापौरुषेयत्वात्। नहि वेदस्य कर्ता पुरुषो लोके वेदे वा प्रसिद्धः। तत्कल्पने च तज्ज्ञानप्रामाण्यापेक्षया वेदप्रामाण्ये निरपेक्षत्वेन स्थितं स्वतःप्रामाण्यं भग्नं स्यात्। बुद्धवाक्येऽपि प्रामाण्यप्रसङ्गाच्च। ईश्वरवचनत्वे समानेऽपि बुद्धवाक्यं न प्रमाणं वेदवाक्यं तु प्रमाणमिति सुभगाभिक्षुकन्यायप्रसङ्गः। महाजनानामुभयसिद्धत्वाभावेन तत्परिग्रहापरिग्रहाभ्यामपि विशेषानुपपत्तेः। ईश्वरप्रेरणायाः लोकवेदसाधारणत्वेन लोकेऽपि राजादीनां प्रेरकत्वं स्यात्। ईश्वरप्रेरणायां स्थितायामेव राजादिरप्यसाधारणतया प्रेरक इति चेत् हन्त सा तिष्ठतु न वा? किं त्विहाप्यसाधारणः प्रेरको वेद एव राजादिस्थानीय इत्यागतं मार्गे। ईश्वरप्रेरणायाः साधारणाया असाधारणप्रेरणासहकारेणैव प्रवर्तकत्वात्। किंच ईश्वरप्रेरणायां सर्वोऽपि विहितं कुर्यादेव ननु कश्चिदपि लङ्घ्येत्। निषिद्धेऽपि चेश्वरप्रेरणास्त्येव। अन्यथा न कोऽपि तत्र प्रवर्तेतेति तदपि विहितं स्यात्। तथाचोक्तंअज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा। तस्माद्राजादिरिव वेदोऽपि स्वप्रवर्तनां ज्ञापयन्निच्छोपहारमुखेन प्रवर्तयतीति सिद्धं लोकवेदयोरैकरूप्यम्। पूर्वमीमांसकानां स्वतन्त्रो वेदो? ब्रह्ममीमांसकानां तु ब्रह्मविवर्तस्तत्परतन्त्रो वेद इति यद्यपि विशेषस्तथापि श्वसिततुल्यत्वेन वेदस्यापौरुषेयत्वमुभयेषामपि समानम्। अत्र च प्रवृत्त्यनुकूलव्यापारवत्त्वं प्रवर्तनात्वं सखण्डोऽखण्डो वोपाधिस्तस्मिन् विधिपदशक्येऽपि तदाश्रयविशेषोपस्थितिर्गवादितुल्यैवानुकूलव्यापारत्वं वा शक्यं प्रवृत्त्यंशस्त्वाख्यातत्वेन शक्त्यन्तरलभ्यैव दण्डीत्यत्र संबन्धिनि मतुबर्थे प्रकृत्यर्थं दण्डांशवत् फलसाधनताबोध एव प्रेरणा तामेव कुर्वन् प्रेरको विधिरतः फलसाधनतैव प्रेरणात्वेन विधिपदशक्येति मण्डनाचार्याः। फलसाधनता चार्थभावनान्वयलभ्येत्युक्तं प्राक्। इममेव च पक्षं पार्थसारथिप्रभृतयः पण्डिताः प्रतिपन्नाः। औपनिषदानामपि केषांचिदिष्टसाधनतावादोऽनेनैव मतेनोपपादनीयः। इष्टसाधनत्वं स्वरूपेणैव लिङादिपदशक्यं न प्रेरणात्वेनेति तार्किकाः। तन्न। गौरवादन्यलभ्यत्वादन्वयायोग्यत्वाच्च,इच्छाविषयसाधनत्वापेक्षया प्रवर्तनात्वमतिलघ्विच्छातद्विषययोरप्रवेशात्। इच्छाज्ञानस्यापि प्रवृत्तिज्ञानवत् प्रवृत्तिहेतुत्वापातात् वस्तुगत्या य इच्छाविषयस्तत्साधनमितिशब्देन प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् साधनत्वमात्रस्यैव शक्यत्वे च तेनैव प्रत्ययेनोपस्थापितया प्रवृत्त्या सह श्रुत्या तदन्वयसंभवे पदान्तरोपस्थापितस्वर्गेण सहवाक्येन तदन्वयासंभवात् प्रवर्तनात्व एव पर्यवसानं श्रुत्या वाक्यस्य बाधात् प्रत्ययश्रुतेः पदश्रुतितोऽपि बलीयस्त्वेन पशुना यजेतेत्यत्र प्रकृत्यर्थं पशुं विहाय प्रत्ययार्थेन करणेन सहैवैकत्वस्यान्वयादेकं करणं पशुरिति वचनव्यक्त्या क्रत्वङ्गत्वमेकत्वस्य स्थितं किमु वक्तव्यं पदान्तरसमभिव्याहाररूपाद्वाक्याद्बलीयस्त्वमिति। वाक्यार्थान्वयलभ्यत्वाच्च नेष्टसाधनत्वं पदार्थः। तथाहि प्रवर्तनाकर्मभूता पुरुषप्रवृत्तिरूपार्थभावना किं केन कथमित्यंशत्रयवती विधिना लघुत्वेन प्रतिपाद्यत इत्युक्तं प्राक्। अपुरुषार्थकर्मिकायां च तस्यां प्रवर्तनानुपपत्तेरेकपदोपस्थापितमप्यपुरुषार्थं धात्वर्थं विहाय भिन्नपदोपात्तमन्यविशेषणमपि कथमिदमसंबन्धेन साध्यतान्वययोग्यं स्वर्गमेव पुरुषार्थं स्वाभाव्यतयालम्बते। स्वर्गं कामयते स्वर्गकाम इति कर्मण्यणि द्वितीयाया अन्तर्भूतत्वात् यजतेरकर्मकत्वेन स्वर्गमित्युक्तेनानन्वयाच्च। अतएव यत्र कामिपदं न श्रूयते तत्रापि तत्कल्प्यते यथाप्रतितिष्ठन्ति ह वा य एता रात्रीरुपयन्ति इत्यादौ प्रतिष्ठाकामा रात्रिसत्रमुपेयुरित्यादि। एवंच लब्धभाव्यायां तस्यां समानपदोपस्थापितो धात्वर्थ एव करणतयान्वेति भाव्यांशस्य कर्मिविषयेणाविरुद्धत्वात्? सुब्विभक्तियोग्ये धात्वर्थनामधेये ज्योतिष्टोमादौ तृतीयाश्रवणात्? यत्र नामधेये द्वितीया श्रूयते तत्रापि व्यत्ययानुशासनेन तृतीयाकल्पनात्। तदुक्तं महाभाष्यकारैरग्निहोत्रं जुहोतीति तृतीयार्थे द्वितीयेति। अतएव तैः प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थं सह ब्रूतस्तयोः प्रत्ययार्थः प्राधान्येन प्रकृत्यर्थो गुणत्वेनेति प्रत्ययार्थं भावनां प्रति धात्वर्थस्य गुणत्वेन करणत्वमुक्तम्? आख्यातं क्रियाप्रधानमिति वदद्भिर्निरुक्तकारैरप्येतदेवोक्तं। भावार्थाधिकरणे च तथैव स्थितम्। तेन सर्वत्र प्रत्ययार्थं प्रति धात्वर्थस्य करणत्वेनैवान्वयनियमः। अतएव गुणविशिष्टधात्वर्थविधौ धात्वर्थानुवादेन केवलगुणविधौ च मत्वर्थलक्षणाविधेर्विप्रकृष्टविषयत्वं च। यथा? सोमेन यजेतेति विशिष्टविधौ सोमवता यागेनेति? दध्ना जुहोतीति गुणविधौ दधिमता होमेनेति। नामधेयान्वये तु सामानाधिकरण्योपपत्तेर्धात्वर्थमात्रविधानाच्च न मत्वर्थलक्षणा न वा विधिविप्रकर्षः। तदेवंज्योतिष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः इत्यत्राख्यातार्थो भावयेदिति किमित्याकाङ्क्षायां कर्मिविषयं स्वर्गमिति विधिश्रुतेर्बलीयस्त्वादाकाङ्क्षाया उत्कटत्वाच्च। तथाच स्थितं षष्ठाद्ये। ततः केनेत्यपेक्षिते यागेनेति तृतीयान्तपदसमानाधिकरणत्वात् करणत्वेनैवान्वयनियमाच्च किंनाम्नेत्यपेक्षिते ज्योतिष्टोमेनेति तन्नाम्नेत्यर्थः। शब्दादनुपस्थितोऽपि ज्योतिष्टोमशब्दो भासत एव शाब्दबोधे श्रवणेनोपस्थापितस्तात्पर्यवशान्नामधेयान्वये च न विभक्त्यर्थो द्वारं नञि वाच्यार्थान्वय इव? तेन मत्वर्थलक्षणमन्तरेणैव ज्योतिष्टोमशब्दवतेत्यन्वयलाभः। तथाच कविप्रयोगः?हिमालयो नाम नगाधिराजः इति हिमालयनामवानित्यर्थः। एवमिहप्रभिन्नकमलोदरे मधूनि मधुकरः पिबती त्यादावगृहीतसङ्गतिकैकपदवति वाक्ये मधुकरादिपदं स्वरूपेणैव भासते नामधेयवन्नार्थमुपस्थापयति प्रागगृहीतसङ्गतिकत्वात्। अतएव मधुकरशब्दवाच्य इत्यपि लक्षणानन्वयः शक्यज्ञानपूर्वकत्वाल्लक्ष्यज्ञानस्य। स्वरूपतस्तु शब्दे भाते वाच्यवाचकसंबन्धः पश्चात्कल्प्यते संसर्गनिर्वाहायेति। तदयं वाक्यार्थः -- ज्योतिष्टोमनाम्ना यागेन स्वर्गमिष्टं भावयेदिति। कथमित्यपेक्षिते श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्याभिः सामवायिकारादुपकारकाङ्गग्रामपूर्त्येति? विकृतौ प्रकृतिवदित्युपबन्धेन नित्ये यथाशक्तीत्युपबन्धेन मुख्यालाभे प्रतिनिधायापीति यावन्न्यायलभ्यं तत्पूरणम्। एवंच यागस्य स्वर्गावच्छिन्नभावनाकरणत्वेन स्वर्गकारणत्वं करणत्वेन च साक्षात्कर्तृव्यापारविषयत्वरूपं कृतिसाध्यत्वं श्रुत्यर्थाभ्यां लभ्यत इति तदुभयमपि न लिङादिपदवाच्यम्।अप्राप्ते शास्त्रमर्थवत् इति न्यायादनन्वयाच्चेष्टसाधनमिति समासे गुणभूतमिष्टपदं स्वर्गकाम इति समासान्तरगुणभूतेन स्वर्गपदेन कथमन्वियादिष्टस्वर्गसाधनमिति। नहि राजपुरुषो वीरपुत्र इत्यत्र वीरपदराजपदयोरन्वयोस्ति पदार्थः पदार्थेनान्वेति नतु पदार्थैकदेशेनेति न्यायात्। करणविभक्त्यन्तज्योतिष्टोमादिनामधेयानन्वयप्रसङ्गादिदोषाश्चास्मिन्पक्षे द्रष्टव्याः। एतेनेष्टसाधनत्वमनिष्टसाधनत्वं कृतिसाध्यत्वमिति त्रयमपि विध्यर्थ इत्यपास्तमतिगौरवादर्थवादानां सर्वथा वैयर्थ्यापत्तेश्च। अतएव कृतिसाध्यत्वमात्रं विध्यर्थ इत्यपि न? भावनाकरणत्वेनार्थलभ्यत्वादित्युक्तेः। अलौकिको नियोगस्त्वलौकिकत्वादेव न विध्यर्थः। पराक्रान्तं चात्र सूरिभिः। तस्मादनन्यलभ्या लघुता च प्रेरणैव लिङादिपदवाच्येति स्थितं। प्रवर्तकं तु ज्ञानं वाक्यार्थमर्यादालभ्यमन्यदेव सर्वेषामपि वादिनां आख्यातार्थ एवंच विशेष्यतया भासते न धात्वर्थो न नामार्थः स्वर्गकामो वेति चोक्तप्रायमेव। तेन च यागानुकूलकृतिमान्स्वर्गकाम,इति तार्किकमतं पुरुषविशेष्यकवाक्यार्थज्ञानमपास्तम्। संक्षेपेण मतं भाट्टमिदमत्रोपपादितम्। यद्वक्तव्यमिहान्यत्तदनुसन्धेयमाकरात्।
Sri Purushottamji
।।18.18।।किञ्च। कर्मप्रेरणमपि त्रिगुणात्मकं? तत्फलं च त्रिगुणं त्रिगुणानामेव कर्तृ़णां भवति? निर्गुणस्य च फलाननुसन्धानेन मदाज्ञया करणात्तत्तत्फलानधिकारित्वादपि बन्धो नास्तीत्याह -- ज्ञानमिति। ज्ञानं फलस्वरूपावबोधपूर्वकात्माधीनत्वेनाऽवबोधः? ज्ञेयं फलसाधकं कर्म? परिज्ञाता ज्ञानज्ञेययोः स्वरूपज्ञस्तदाश्रयभूतो जीवः। एवं ज्ञानादित्रयमधिकृत्य कर्मचोदना कर्मप्रेरणा त्रिविधा। एवं करणं साधकं? कर्म तत्फलकक्रिया? कर्त्ता क्रियाप्रवृत्तिमान्? इति अमुना प्रकारेण कर्मसङ्ग्रहः कर्म संगृह्यतेऽस्मिन्निति कर्म सङ्ग्रहः। करणादित्रयमपि कारकं? क्रियाश्रयात्मकः सोऽपि त्रिविधः। अनेन निर्गुणानधिकारित्वं निरूपितम्।
Sri Shankaracharya
।।18.18।। --,ज्ञानं ज्ञायते अनेन इति सर्वविषयम् अविशेषेण उच्यते। तथा ज्ञेयं ज्ञातव्यम्? तदपि सामान्येनैव सर्वम् उच्यते। तथा परिज्ञाता उपाधिलक्षणः अविद्याकल्पितः भोक्ता। इति एतत् त्रयम् अविशेषेण सर्वकर्मणां प्रवर्तिका त्रिविधा त्रिप्रकारा कर्मचोदना। ज्ञानादीनां हि त्रयाणां संनिपाते हानोपादानादिप्रयोजनः सर्वकर्मारम्भः स्यात्। ततः पञ्चभिः अधिष्ठानादिभिः आरब्धं वाङ्मनःकायाश्रयभेदेन त्रिधा राशीभूतं त्रिषु करणादिषु संगृह्यते इत्येतत् उच्यते -- करणं क्रियते अनेन इति बाह्यं श्रोत्रादि? अन्तःस्थं बुद्ध्यादि? कर्म ईप्सिततमं कर्तुः क्रियया व्याप्यमानम्? कर्ता करणानां व्यापारयिता उपाधिलक्षणः? इति त्रिविधः त्रिप्रकारः कर्मसंग्रहः? संगृह्यते अस्मिन्निति संग्रहः? कर्मणः संग्रहः कर्मसंग्रहः? कर्म एषु हि त्रिषु समवैति? तेन अयं त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।अथ इदानीं क्रियाकारकफलानां सर्वेषां गुणात्मकत्वात् सत्त्वरजस्तमोगुणभेदतः त्रिविधः भेदः वक्तव्य इति आरभ्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।18.18।।ज्ञानमिति। अत उक्तमिदं सर्वं सत्त्ववृद्ध्यैव भवति सर्वस्येति सत्त्वस्योपादेयताज्ञापनाय सर्वत्र सत्त्वादिगुणकृतं वैचित्र्यं प्रपञ्चयिष्यन् कर्मचोदनाप्रकारं तावदाह -- ज्ञानमिति। ज्ञेयं साधनं कर्तव्यकर्मविषयकं? कर्त्तव्यं कर्म? परिज्ञाता एवंविधकर्मज्ञः? इति त्रिविधः कर्मविधिरुच्यते। तदुक्तं भट्टैः -- चोदना चोपदेशश्च विधिश्चैकार्थवाचिनः इति। एवं वेदे त्रिगुणमयः कर्मविधिरित्यर्थः। अतएवोक्तं -- त्रैगुण्यविषया वेदाः [2।45] इति। तत्र साधितः कर्मसंग्रहोऽपि त्रिविधः करणं कर्म कर्तेति करणं साधनभूतमिन्द्रियादिकं द्रव्यादिकं च? कर्म यागादि? कर्त्ता तदनुष्ठाता।
Swami Sivananda
18.18 ज्ञानम् knowledge? ज्ञेयम् the knowable? परिज्ञाता the knower? त्रिविधा threefold? कर्मचोदना impulse to action? करणम् the organ? कर्म the action? कर्ता the agent? इति thus? त्रिविधः threefold? कर्मसंग्रहः the basis of action.Commentary Knowledge? the knower and the thing to be known? are together the seed of this world. This is known as the Triputi or the traid. It is the conjunction of these three that impels a man to threefold action? viz.? mental? verbal and physical. This triad is the driving force of all the activities of man. He rejoices at the sight of palatable sweetmeats and delicious fruits but is terrified at the sight of a cobra or tiger. The sight of pleasant or unpleasant objects affects him and he attempts either to possess the agreeable objects or to avoid the disagreeable ones.The Antahkarana (the inner instrument) consists of the mind? intellect? subconscious mind and egoism. The ear? the skin? the tongue? the nose and the eye are the five organs of knowledge. The individual soul? propelled by these five senses? is led into activity. He does actions with the help of the five organs of action? viz.? speech? hands? feet? genitals and anus.Jnanam Any knowledge knowledge in general knowledge of worldly objects? etc.Jneyam The object to be known objects in general.Parijnata The knower? the experiencer or the enjoyer? putting on the nature of the limiting adjuncts? a creature of ignorance.This triad forms the threefold impulse to all action? to action in general. The performance of an action in order to get a thing or to avoid an object is possible only when there is the conjunction of the three? viz.? knowledge? knowable and knower.Karanam The organ That by which something is done. The actions done by the five causes of action? viz.? the body? etc.? which are grouped under the three classes according to their respective seats? viz.? mind? speech and body? are all due to the interplay of the organ? etc.Karta The agent or the doer he who sets the organs in motion or action and puts on the nature of the limiting adjunct or vehicle in which he acts. All actions inhere in these three (the organ? the doer and the action itself) and they are? therefore? said to form the basis or the threefold constituents of action.As action? the various factors of action and the fruits are all made up of the Gunas? the Lord describes them in the following verses.