Chapter 18, Verse 65
Verse textमन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।
Verse transliteration
man-manā bhava mad-bhakto mad-yājī māṁ namaskuru mām evaiṣhyasi satyaṁ te pratijāne priyo ‘si me
Verse words
- mat-manāḥ—thinking of me
- bhava—be
- mat-bhaktaḥ—my devotee
- mat-yājī—worship me
- mām—to me
- namaskuru—offer obeisance
- mām—to me
- eva—certainly
- eṣhyasi—you will come
- satyam—truly
- te—to you
- pratijāne—I promise
- priyaḥ—dear
- asi—you are
- me—to me
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
Fix your mind on Me; be devoted to Me; offer oblations to Me and bow down to Me; you will come to Me alone. I promise you this truly, for you are dear to Me.
Swami Ramsukhdas
।।18.65।।तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर। ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त हो जायगा -- यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
Swami Tejomayananda
।।18.65।। तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो।।
Swami Adidevananda
Fix: Focus your mind on Me. Be My devotee. Worship Me. Prostrate before Me. You will come to Me alone. I promise you truly; for you are dear to Me.
Swami Gambirananda
Fix your mind on Me, be devoted to Me, offer sacrifices to Me, and bow down to Me. Thus, you will come to Me alone. I promise you this truth, for you are dear to Me.
Swami Sivananda
Fix your mind on Me, be devoted to Me, sacrifice to Me, bow down to Me. You will come to Me; I truly promise you this, for you are dear to Me.
Shri Purohit Swami
Dedicate yourself to Me, worship Me, sacrifice all for Me, prostrate yourself before Me, and you will surely come to Me. I truly pledge to you; you are My beloved.
Verse commentaries
Sri Ramanujacharya
।।18.65।।वेदान्तेषु -- वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। (श्वे0 उ0 3।8)तमेवं विद्वानमृत इह भवति।नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे0 उ0 3।8) इत्यादिषु विहितं वेदनध्यानोपासनादिशब्दवाच्यं दर्शनसमानाकारं स्मृतिसंसन्तानम् अत्यर्थप्रियम् इहमन्मना भव इति विधीयते।मद्भक्तः अत्यर्थं मत्प्रियः अत्यर्थमत्प्रियत्वेन च निरतिशयप्रियां स्मृतिसंततिं कुरुष्व इत्यर्थः। मद्याजी तत्रापि मद्भक्त इति अनुषज्यते। यजनं पूजनम्? अत्यर्थप्रियमदाराधनपरो भव। आराधनं हि परिपूर्णशेषवृत्तिः।मां नमस्कुरु नमो नमनं मयि अतिमात्रप्रह्वीभावम् अत्यर्थप्रियं कुरु इत्यर्थः। एवं वर्तमानो माम् एव एष्यसि इति एतत् सत्यं ते प्रतिजाने तव प्रतिज्ञां करोमि? न उपच्छन्दमात्रं यतः त्वं प्रियः असि मेप्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः (गीता 7।17) इति पूर्वम् एव उक्तम्। यस्य मयि अतिमात्रप्रीतिः वर्तते मम अपि तस्मिन् अतिमात्रप्रीतिः भवति इति तद्वियोगम् असहमानः अहं तं मां प्रापयामि? अतः सत्यम् एव प्रतिज्ञातं माम् एव एष्यसि इति।
Swami Sivananda
18.65 मन्मनाः with mind fixed on Me? भव be? मद्भक्तः devoted to Me? मद्याजी sacrifice to Me? माम् to Me? नमस्कुरु bow down? माम् to Me? एव even? एष्यसि (thou) shalt come? सत्यम् truth? ते to thee? प्रतिजाने (I) promise? प्रियः dear? असि (thou) art? मे of Me.Commentary Develop onepointedness of mind. Fix thy thought on Me. If the mind wanders bring it again and again to the centre or point or object of meditation? through constant practice. Offer all thy actions to Me. Let thy tongue utter My name. Let thy hands work for Me. Let thy feet move for Me. Let all thy actions be for Me. Give up hatred towards any living creature. Bow down to Me. Then thou wilt attain Me.The Lord gives Arjuna His definite word of promise or solemn declaration. Having received My grace thou wilt gain complete knowledge of Me and that in itself will indeed lead to thy absorption into My Being.O Arjuna? looking up to Me alone as thy aim and the sole refuge? thou shalt assuredly come to,Me.Have faith in the words of the Lord and make a solemn promise. Take the Lord as your sole refuge. You will attain final emancipation.The secret of devotion is to take the Lord as your sole refuge. In the next verse the Lord proceeds to speak of the gist of selfsurrender. (Cf.IX.34XII.8)
Sri Vallabhacharya
।।18.65।।तथाहि -- मन्मना इति। हे पार्थ निस्सन्दिग्धतया सर्ववेदान्तवेद्ये स्वाश्रितवात्सल्यजलधौ त्वत्सारथ्यकर्मणि स्थितेमय्येव मन आधत्स्व [12।8] इति पूर्ववाक्यैकार्थतामनुसन्दधानः मन्मना एव? मद्भक्त एव? मद्याजी एवेति त्रिकाण्डार्थभूतमत्परायण एव भव। एवकारोऽप्यत्र प्रत्येकमभिसम्बन्ध्यः? स चान्यभजनादिवारणार्थः पूर्ववदनुषज्जते। एवं सति मामेवैष्यसीत्यहं प्रतिजाने सत्यं यतस्त्वं मे प्रियोऽसि। नहि प्रीतिविषयस्याग्रे वञ्चनमुचितमिति मुख्यभक्तिमार्ग उपदिष्टः पूर्ववत्।
Sri Shankaracharya
।।18.65।। --,मन्मनाः भव मच्चित्तः भव। मद्भक्तः भव मद्भजनो भव। मद्याजी मद्यजनशीलो भव। मां नमस्कुरु नमस्कारम् अपि ममैव कुरु। तत्र एवं वर्तमानः वासुदेवे एव समर्पितसाध्यसाधनप्रयोजनः मामेव एष्यसि आगमिष्यसि। सत्यं ते तव प्रतिजाने? सत्यां प्रतिज्ञां करोमि एतस्मिन् वस्तुनि इत्यर्थः यतः प्रियः असि मे। एवं भगवतः सत्यप्रतिज्ञत्वं बुद्ध्वा भगवद्भक्तेः अवश्यंभावि मोक्षफलम् अवधार्य भगवच्छरणैकपरायणः भवेत् इति वाक्यार्थः।।कर्मयोगनिष्ठायाः परमरहस्यम् ईश्वरशरणताम् उपसंहृत्य? अथ इदानीं कर्मयोगनिष्ठाफलं सम्यग्दर्शनं सर्ववेदान्तसारविहितं वक्तव्यमिति आह --,
Sri Purushottamji
।।18.65।।एवं प्रतिज्ञाय तत्स्वरूपमाह -- मन्मना इति। मन्मनाः मय्येव मनो यस्य तादृशो भव? मद्भक्तः मयि स्नेहयुक्तो भव? मद्याजी मत्पूजनशीलो भव? मां नमस्कुरु मयि सर्वाधिक्यज्ञानवान् भवेत्यर्थः। एवम्भूतः सन् सत्यं सत्यरूपं मामेव एष्यसि प्राप्स्यसि? नात्र सन्देहः कर्त्तव्यः यतो मे मम प्रियोऽसि अतस्ते तुभ्यं प्रतिजाने प्रतिज्ञां करोमि।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.65।।तदेवाह -- मन्मना भवेति। मयि भगवति वासुदेवे मनो यस्य स मन्मना भव सदा मां चिन्तय। द्वेषेण कंसशिशुपालादिरपि तथात आह। मद्भक्तः प्रेम्णा मय्यनुरक्तो मद्विषयेणानुरागेण सदा मद्विषयं मनः कुर्विति विधीयते। त्वद्विषयोऽनुराग एव केन स्यादित्यत आह। मद्याजी मां यष्टुं पूजयितुं शीलं यस्य स सदा मत्पूजापरो भव। पूजोपकरणाभावे तु मां नमस्कुरु कायेन वाचा मनसा च प्रह्वीभवनेनाराधय। इदं चार्चनवन्दनाद्यन्येषामपि भागवतधर्माणामुपलक्षणम्। तथाचोक्तं श्रीभागवतेश्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा। क्रियते भगवत्यद्वा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।। इति। एतच्च भक्तिरसायने व्याख्यातं विस्तरेण। एवं सदा भागवतधर्मानुष्ठानेन मय्यनुरागोत्पत्त्या मन्मनाः सन् मां भगवन्तं वासुदेवमेव एष्यसि प्राप्स्यसि वेदान्तवाक्यजनितेन मद्बोधेन। त्वंचात्र संशयं माकार्षीः। सत्यं यथार्थं तुभ्यं प्रतिजाने सत्यामेव प्रतिज्ञां करोम्यस्मिन्नर्थे। यतः प्रियोऽसि मे। प्रियस्य प्रतारणा नोचितैवेति भावः। सत्यं ते प्रारब्धकर्मणोऽन्ते सति मामेष्यसीति वा। अनुवादापेक्षया विश्वासदार्ढ्यप्रयोजनं प्रथमं व्याख्यातमेव श्रेयः। अनेन यत्पूर्वमुक्तंयतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः। इति तद्व्याख्यातं मच्छब्देनेश्वरत्वप्रकटनात्।
Sri Abhinavgupta
।।18.64 -- 65।।तच्च तात्पर्यं यथावसरम् अस्माभिः श्रृङ्गग्राहिकयैव प्रकाशितं यद्यपि तथापि स्फुटम् अशेषविमर्शनं प्रदर्श्यते। उपादेयतमं ह्यदः। नास्मिन् निरूप्यमाणे श्रूयमाणे वा मतिस्तृप्यति। गुह्यतमं यदत्र निश्चितं तज्ज्ञानमिदानीं श्रृणु इत्याहि -- सर्वेति। मन्मना इति। मन्मना भव इत्यादिना शास्त्रे ब्रह्मापर्णे एव सर्वथा प्राधान्यम् इति निश्चितम् ब्रह्मार्पणकारिणः शास्त्रमिदमर्थवत् इत्युक्तम्।
Swami Ramsukhdas
।।18.65।। व्याख्या -- मद्भक्तः -- साधकको सबसे पहले मैं भगवान्का हूँ इस प्रकार अपनी अहंता(मैंपन) को बदल देना चाहिये। कारण कि बिना अहंताके बदले साधन सुगमतासे नहीं होता।,अहंताके बदलनेपर साधन सुगमतासे? स्वाभाविक ही होने लगता है। अतः साधकको सबसे पहले मद्भक्तः होना चाहिये।किसीका शिष्य बननेपर व्यक्ति अपनी अहंताको बदल देता है कि मैं तो गुरु महाराजका ही हूँ। विवाह हो जानेपर कन्या अपनी अहंताको बदल देती है कि मैं तो ससुरालकी ही हूँ ? और पिताके कुलका सम्बन्ध बिलकुल छूट जाता है। ऐसे ही साधकको अपनी अहंता बदल देनी चाहिये कि मैं तो भगवान्का ही हूँ और भगवान् ही मेरे हैं मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है। [अहंताके बदलनेपर ममता भी अपनेआप बदल जाती है।]मन्मना भव -- उपर्युक्त प्रकारसे अपनेको भगवान्का मान लेनेपर भगवान्में स्वाभाविक ही मन लगने लगता है। कारण कि जो अपना होता है? वह स्वाभाविक ही प्रिय लगता है और जहाँ प्रियता होती है? वहाँ स्वाभाविक ही मन लगता है। अतः भगवान्को अपना माननेसे भगवान् स्वाभाविक ही प्रिय लगते हैं। फिर मनसे स्वाभाविक ही भगवान्के नाम? गुण? प्रभाव? लीला आदिका चिन्तन होता है। भगवान्के नामका जप और स्वरूपका ध्यान बड़ी तत्परतासे और लगनपूर्वक होता है।मद्याजी -- अहंता बदल जानेपर अर्थात् अपनेआपको भगवान्का मान लेनेपर संसारका सब काम भगवान्की सेवाके रूपमें बदल जाता है अर्थात् साधक पहले जो संसारका काम करता था? वही काम अब भगवान्का,काम हो जाता है। भगवान्का सम्बन्ध ज्योंज्यों दृढ़ होता जाता है? त्योंहीत्यों उसका सेवाभाव पूजाभावमें परिणत होता जाता है। फिर वह चाहे संसारका काम करे? चाहे घरका काम करे? चाहे शरीरका काम करे? चाहे ऊँचानीचा कोई भी काम करे? उसमें भगवान्की पूजाका ही भाव बना रहता है। उसकी यह दृढ़ धारणा हो जाती है कि भगवान्की पूजाके सिवाय मेरा कुछ भी काम नहीं है।मां नमस्कुरु -- भगवान्के चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम करके सर्वथा भगवान्के समर्पित हो जाय। मैं प्रभुके चरणोंमें ही पड़ा हुआ हूँ -- ऐसा मनमें भाव रखते हुए जो कुछ अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति सामने आ जाय? उसमें भगवान्का मङ्गलमय विधान मानकर परम प्रसन्न रहे।भगवान्के द्वारा मेरे लिये जो कुछ भी विधान होगा? वह मङ्गलमय ही होगा। पूरी परिस्थिति मेरी समझमें आये या न आये -- यह बात दूसरी है? पर भगवान्का विधान तो मेरे लिये कल्याणकारी ही है? इसमें कोई सन्देह नहीं। अतः जो कुछ होता है? वह मेरे कर्मोंका फल नहीं है? प्रत्युत भगवान्के द्वारा कृपा करके केवल मेरे हितके लिये भेजा हुआ विधान है। कारण कि भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद होनेसे जो कुछ विधान करते हैं? वह जीवोंके कल्याणके लिये ही करते हैं। इसलिये भगवान् अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भेजकर प्राणियोंके पुण्यपापोंका नाश करके? उन्हें परम शुद्ध बनाकर अपने चरणोंमें खींच रहे हैं -- इस प्रकार दृढ़तासे भाव होना ही भगवान्के चरणोंमें नमस्कार करना है।मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे -- भगवान् कहते हैं कि इस प्रकार मेरा भक्त होनेसे? मेरेमें मनवाला होनेसे? मेरा पूजन करनेवाला होनेसे और मुझे नमस्कार करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त होगा अर्थात् मेरेमें ही निवास करेगा (टिप्पणी प0 969) -- ऐसी मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा प्यारा है।प्रियोऽसि मे कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का जीवमात्रपर अत्यधिक स्नेह है। अपना ही अंश होनेसे कोई भी जीव भगवान्को अप्रिय नहीं है। भगवान् जीवोंको चाहे चौरासी लाख योनियोंमें भेंजें? चाहे नरकोंमें भेजें? उनका उद्देश्य जीवोंको पवित्र करनेका ही होता है। जीवोंके प्रति भगवान्का जो यह कृपापूर्ण विधान है? यह भगवान्के प्यारका ही द्योतक है। इसी बातको प्रकट करनेके लिये भगवान् अर्जुनको जीवमात्रका प्रतिनिधि बनाकर प्रियोऽसि मे वचन कहते हैं।जीवमात्र भगवान्को अत्यन्त प्रिय है। केवल जीव ही भगवान्से विमुख होकर प्रतिक्षण वियुक्त होनेवाले संसार(धनसम्पत्ति? कुटुम्बी? शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि? प्राण आदि) को अपना मानने लगता है? जबकि संसारने कभी जीवको अपना नहीं माना है। जीव ही अपनी तरफसे संसारसे सम्बन्ध जोड़ता है। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और जीव नित्य अपरिवर्तनशील है। जीवसे यही गलती होती है कि वह प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारके सम्बन्धको नित्य मान लेता है। यही कारण है कि सम्बन्धीके न रहनेपर भी उससे माना हुआ सम्बन्ध रहता है। यह मान हुआ सम्बन्ध ही अनर्थका हेतु है। इस सम्बन्धको मानने अथवा न माननेमें सभी स्वतन्त्र हैं। अतः इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करके? जिनसे हमारा वास्तविक और नित्यसम्बन्ध है? उन भगवान्की शरणमें चले जाना चाहिये। सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें अर्जुनको आश्वासन देकर अब भगवान् आगेके श्लोकमें अपने उपदेशकी अत्यन्त गोपनीय सार बात बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।18.65।। भगवत्प्राप्ति के लिए आवश्यक चार गुणों को बताकर? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं? तुम मुझे प्राप्त होगे। जब कभी तत्त्वज्ञान के सिद्धांत को संक्षेप में ही कहा जाता है? तब वह इतना सरल प्रतीत होता है कि सामान्य विद्यार्थीगण उसे गम्भीरता से समझने का प्रयत्न नहीं करते अथवा उसकी सर्वथा उपेक्षा कर देते हैं। इस प्रकार की त्रुटि का परिहार करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण पुन विशेष बल देकर कहते हैं? मैं तुम्हें सत्य वचन देता हूँ।बारम्बार उपदेश देने का कारण यह है कि तुम मेरे प्रिय हो। आध्यात्मिक उपदेश देने में प्रेम की भावना ही समीचीन उद्देश्य है। शिष्य के प्रति प्रेम न होने पर? गुरु के उपदेश में न प्रेरणा होती है और न आनन्द। एक व्यावसायिक अध्यापक तो केवल वेतनभोगी होता है। ऐसा अध्यापक न अपने विद्यार्थी वर्ग को न प्रेरणा दे सकता है और न स्वयं अपने हृदय में कृतार्थता का आनन्द अनुभव कर सकता है? जो कि अध्यापन का वास्तविक पुरस्कार है।किंचित परिवर्तन के साथ यह श्लोक इसके पूर्व भी एक अध्याय में आ चुका है। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि वे विशुद्ध सत्य का ही प्रतिपादन कर रहे हैं।मन्मना भव मन का कार्य संकल्प करना है। अत इसका अर्थ है तुम अपने मन के द्वारा मेरी प्राप्ति का ही संकल्प करो।मद्भक्त ईश्वर की प्राप्ति का संकल्प केवल संकल्प की अवस्था में ही नहीं रह जाना चाहिए। इस संकल्प को निश्चयात्मक भक्ति में परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है अत तुम मेरे भक्त बनो।मद्याजी भक्ति प्रेमस्वरूप है। और जहाँ प्रेम होता है वहाँ पूजा का होना स्वाभाविक है। ईश्वर जगत् का कारण होने से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है। इसलिए ईश्वर की पूजा का अर्थ है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करना। भगवान् श्रीकृष्ण यही उपदेश देते हुए कहते हैं? तुम मद्याजी अर्थात् मेरे,पूजक बनो।मां नमस्कुरु गर्व और अभिमान से युक्त पुरुष किसी को विनम्र भाव से प्रणाम नहीं कर सकता है। मुझे नमस्कार करो इस उपदेश का अभिप्राय कर्तृत्वादि अहंकार का त्याग करने से है।परमात्मा के गुणों को सम्पादित करने के लिए साधक में नम्रता? श्रद्धा? भक्ति जैसे गुणों का प्रचुरता होनी चाहिए। जल के समान ही ज्ञान का प्रवाह ऊंची सतह से नीची सतह की ओर बढ़ता है। इस श्लोक में वर्णित भक्ति से सम्पन्न कोई भी साधक भगवत्प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है।तुम मुझे प्राप्त होगे यह भगवान् श्रीकृष्ण का सत्य आश्वासन है। श्री शंकराचार्य जी कहते हैं? कर्मयोग की साधना का परम रहस्य ईश्वरार्पण बुद्धि है। उस साधना के विषय का उपसंहार करने के पश्चात्? अब कर्मयोग के फलभूत आत्मदर्शन का वर्णन करना शेष है? जो समस्त उपनिषदों का सार है? अत भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।18.65।।तदेव प्रश्नद्वारा विवृणोति -- किं तदित्यादिना। उत्तरार्धं व्याचष्टे -- तत्रेति। एवमुक्तया रीत्या वर्तमानस्त्वं तस्मिन्नेव वासुदेवे भगवत्यर्पितसर्वभावो मामेवागमिष्यसीति संबन्धः। सत्यप्रतिज्ञाकरणे हेतुमाह -- यत इति। इदानीं वाक्यार्थं श्रेयोऽर्थिनां प्रवृत्त्युपयोगित्वेन संगृह्णाति -- एवमिति।
Sri Dhanpati
।।18.65।।किं तदित्यपेक्षायामाह -- मन्मना मयि भवति वासुदेवे मनो यस्य स मच्चित्तो भव सर्वदा मामेव चिन्तय। मद्भक्तो मच्छ्रवणकीर्तनादिमद्भजनो भव। मद्याजी मद्यजनशीलो भव। मां नमस्कुरु नमस्कारमपि मामेव कुरु। तत्रैव वर्तमानो मयि वासुदेव एव समर्पितसाध्यसाधनप्रयोजनो मामेवैष्यसि आगमिष्यसि मदभेदज्ञानं प्राप्यस्यसि। अस्मिन्नर्थे सत्यं ते तव प्रतिजाने सत्यां प्रतिज्ञां करोमि। यतः प्रियोऽसि मे। तथाच मम भगवतः सत्यप्रतिज्ञत्वं बुद्ध्वा मद्भक्तेरवश्भावि मत्प्राप्तिफलत्वमवधार्य मच्छरणैकपरायणो भवेति वाक्यार्थः।
Sri Neelkanth
।।18.65।।तदेव गुह्यतमं हितमाह -- मन्मना इति। अहं प्रत्यगात्मानन्दैकघनः परिपूर्णस्तदाकारं मनो यस्य स मन्मनाः भव। एतेन ब्राह्मात्माभेदोऽपि साक्षात्करणीय इत्युत्तरषट्कार्थ उक्तः। कथमेवंविधा ज्ञाननिष्ठा लभ्यतेऽत आह -- मद्भक्तो भव। एतेन भगवदुपासनात्मको मध्यमषट्कार्थ उक्तः। कथमल्पपुण्यस्य भक्तिरुदेष्यतीत्यत आह -- मद्याजी भगवदर्थकर्मकरणशीलो भव। एतेन कर्मप्रधान आद्यषट्कार्थो विवृतः। ननु यस्य भगवद्याजित्वं न संभवति दारिर्द्यात्स्त्र्याद्यभावाद्वा तस्य भगवद्भक्तिदौर्लभ्याद्ब्रह्माकारा चेतोवृत्तिदुर्लभतरेत्याशङ्क्याह -- मां नमस्कुरु प्राकृतभक्त्यैव प्रतिमादौ भगवन्तं सर्वोपचारसमर्पणेन नमस्कारादिना सम्यगाराधयेत्यर्थः। तथाचाश्वलायनो नमस्कारस्यैव यज्ञत्वमुदाहरतियो नमसा स्वध्वरः इति यज्ञो वै नम इति हि ब्राह्मणं भवति इति च। एवमुक्तस्य सोपानत्रयारूढस्य फलमाह -- मामिति। मामेव तत्पदार्थं सर्वजगत्कारणं सर्वेश्वरं सर्वशक्तिमखण्डैकरसं त्वं एष्यसि प्राप्स्यसि बिम्ब इव प्रतिबिम्बं? घटाकाश इव महाकाशम्। अस्मिन्नर्थे शपथं करोति। ते तव पुरः सत्यं अबाधितार्थभूतं प्रतिजाने प्रतिज्ञां करोमि मामेवैष्यसीति। प्रियोऽसि मे यतस्त्वं मे मम प्रियोऽसि अतः प्रतारणानर्हे त्वयि सत्यमेवाहं ब्रवीमीत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.65।।मन्मना भव इत्यस्याव्यवहितफलसाधनतया गुह्यतमाङ्गिस्वरूपपरत्वं दर्शयितुं तत्स्वरूपं तावत्प्रमाणतः शिक्षयतिवेदान्तेष्विति।वेदाहम् इत्यादिपुरुषसूक्तवाक्योपादानमुपनिषदन्तराणां तदनुवर्तित्वज्ञापनार्थम्?नान्यः पन्थाः इति हि तत्साध्योपायान्तरव्यवधानशङ्कानिरासार्थम्। अत्र चअतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः [15।18] इति वक्तुश्च वासुदेवस्य तत्प्रतिपाद्यत्वात्मन्मना भव इति विहितस्य महापुरुषोपासनत्वज्ञापनार्थं च। वेदनं ह्यत्रोक्तम्? न तु भक्तिरित्यत्राऽऽह -- ध्यानोपासनादिशब्दवाच्यमिति। आदिशब्देन तत्तत्स्मृत्युक्तभक्तिसेवादिशब्दग्रहणम्। समानप्रकरणस्थाभ्यां ध्यानोपासनशब्दाभ्यां वेदनं हि विशेष्यते। अन्यथा गुरुलघुविकल्पाद्यनुपपत्त्या ध्यानादिविधिवैयर्थ्यप्रसङ्ग इति भावः। विद्युपास्योर्व्यतिकरेणोपक्रमोपसंहारदर्शनाच्च वेदनमुपासनं इत्येव व्यक्तमुपपादितं शारीरकभाष्यादिषु।किञ्च द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः [बृ.उ.2।4।54।5।6] इत्युक्त्वा तान्येव दर्शनादीन्यनुवदन्ती श्रुतिः विज्ञानशब्देन निदिध्यासनमनुवदति -- आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेन [बृ.उ.2।4।5] इति। एवं तस्मिन् दृष्टे परावरे [मुं.उ.2।2।8] इति वाक्यैर्दर्शनं न साक्षात्प्रत्यक्षरूपं?,गुरुलघुविकल्पाद्यनुपपत्तेरेव। न चाधिकारिभेदेन तत्सम्भवः? व्यवस्थापकाभावात्। न च द्वारिद्वारभावकल्पना शक्या? ध्रुवानुस्मृतेर्दर्शनस्य चाविशेषेणाव्यवहितसाधनत्वश्रुतेः। अत ऐकार्थ्येऽत्यवश्यम्भाविन्यन्यतरस्यौपचरिकत्वमन्तरेण तदसम्भवात्? निष्प्रयोजनस्योपचारस्यायोगात्? स्मृतिशब्देन च प्रत्यक्षस्योपचारेऽतिशयासिद्धेः? विपर्यये तु दर्शनसमानाकारत्वलक्षणवैशद्यविधानेन सप्रयोजनत्वाच्च।स्वप्नधीगम्यम् इत्याद्युपबृंहणाभिप्रेतवैशद्यविशिष्ट स्मृतिरेव तस्मिन् दृष्टे निचाय्य तं [कठो.1।3।15] द्रष्टव्यः [बृ.उ.2।4।54।5।6] इत्यादिभिर्विधीयतं इत्यभिप्रायेणाऽऽहदर्शनसमानाकारमिति।स्मृतिसन्तानमिति -- तेन स्मृतिः सन्तन्यते यत्रेति वा स्मृतेः सन्तानो यत्रेति वा व्युत्पत्त्या नपुंसकत्वमत्र ज्ञातव्यम्। ततश्चित्तैकाग्र्यशब्दार्थः। तेन तन्मूलज्ञानलक्षणया तैलधारावदविच्छिन्नत्वं सूचितम्। वेदनं वा सामान्यरूपमत्रान्यपदार्थः। तत्रवेदनम् इति पाठे तदेव विशेष्यम्। वेदनध्यानोपासनादि इति पाठे तु स्मृतिसन्तानस्य विशेष्यत्वात्तस्यैव भक्तिरूपत्वायाऽऽह -- अत्यर्थप्रियमिति। इह अव्यवहितमोक्षोपायोपदेशदशायामित्यर्थः। वेदान्तविहितस्यापि अर्जुनेनाविदितत्वात्तं प्रतिमन्मना भव इति विधिरेवेत्याह -- विधीयत इति।मद्भक्तशब्दार्थमाह -- अत्यर्थमत्प्रिय इति। अत्यर्थमहं प्रीतिविषयभूतो यस्य सोऽत्रात्यर्थमत्प्रियः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहम् [7।17] इति ह्युक्तम्। विधेयस्य कर्तव्यस्य वैशिष्ट्याभिप्रायेण कर्तरि विशेषणमित्याह -- अत्यर्थमत्प्रियत्वेन निरतिशयप्रियामिति।मद्याजी मां नमस्कुरु इत्युभाभ्यां अङ्गिकोटिनिर्देशेनान्तरङ्गपरिकरयोग उपलक्ष्यत इति दर्शयितुमाह -- तत्रापीति। यजिनाऽत्राविवक्षितज्योतिष्टोमादिप्रतीतिव्युदासाय धातुशक्तिं स्मारयति -- यजनं पूजनमिति। फलितमाह -- अत्यर्थप्रियेति। भक्त्यनुप्रवेशेन स्वरूपानुरूपत्वद्योतनाय? सारतमत्वसिद्ध्यै सारार्थग्राहकभगवच्छास्त्रादिचोदितां प्रक्रियां स्मारयति -- आराधनं हीति। अन्तःकरणवृत्तिविशेषपर्यवसानायाऽऽहनमो नमनमिति। एतेन प्रणिपातमात्रपरत्वव्युदासः। त्रिविधा हि प्रणतिः शास्त्रेषु शिष्यते। मद्भक्तपदानुषङ्गविशेषितं तदभिप्रेतमाह -- मयीति। आत्मात्मीयं सर्वं भगवत एवेत्यनुसन्धानादतिमात्रप्रह्वीभावः।एवं वर्तमान इति -- एतेनात्यर्थप्रियत्वाद्यनुवादमात्रत्वं विवक्षितं? न तद्व्यतिरेकेण स्वात्माधारत्वम्? अवधारणेनाव्यवधानं विवक्षितम्।सत्यम् इति प्रतिज्ञाविशेषणं? न तु प्रतिज्ञातस्योक्तिरित्याह -- एतदिति।वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान् [ऋक्सं.5।4।21।1] इत्यादिष्विवोपसर्गस्य गत्यभावविषयमविवक्षितार्थत्वं निराकरोति -- प्रतिज्ञां करोमीति।द्यौः पतेत्पृथिवी शीर्येद्धिमवाञ्छकलीभवेत्। शुष्येत्तोयनिधिः कृष्णे न मे मोघं वचो भवेत् इत्यादिभगवद्वाक्यानुसारेणाभिप्रेतमाहनोपच्छन्दनमात्रमिति। अत्र प्रियवचनेन प्ररोचनरूपार्थवादत्वं त्वया न शङ्कनीयमित्यर्थः। एवं वर्तमानस्य स्वप्राप्तौ स्वप्रीतिलक्षणद्वारमुपक्षिप्योपच्छन्दनशङ्काऽपाक्रियतेप्रियोऽसि मे इत्यनेनेत्याह -- यतस्त्वमिति। साध्यमपि ज्ञानित्वं सिद्धवत्कृत्वाप्रियोऽसि इति तत्फलोक्तिरित्यभिप्रायेणप्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् [7।17] इति सामान्येन प्रागुक्तप्रयोजकग्रहणम्। एतेन भूयश्शब्दस्योक्तार्थपरत्वं दर्शितम्। उक्तासम्भवशङ्कापरिहाराय लोकदृष्टमीश्वराभिप्रायं चानुसृत्योपात्तवचनार्थमाह -- यस्येति। तत्फलितमाह -- इति तद्वियोगमिति। हेतुवाक्यार्थं साध्येन सङ्गमयति -- अतः सत्यमिति।प्रतिज्ञातमिति भावे निष्ठा।
Sri Sridhara Swami
।।18.65।।तदेवाह -- मन्मना इति। मन्मना भव? मच्चित्तो भव? ममैव भक्तो भव? मद्याजी मद्यजनशीलो भव? मामेव नमस्कुरु एवं वर्तमानस्त्वं मत्प्रसादाल्लब्धज्ञानेन मामेवैष्यसि प्राप्स्यसि अत्र च संशयं माकार्षीः। त्वं हि मे प्रियोऽसि अतः सत्यं यथाभवत्येवं तुभ्यमहं प्रतिजाने प्रतिज्ञां करोमि।