Chapter 18, Verse 43
Verse textशौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।
Verse transliteration
śhauryaṁ tejo dhṛitir dākṣhyaṁ yuddhe chāpy apalāyanam dānam īśhvara-bhāvaśh cha kṣhātraṁ karma svabhāva-jam
Verse words
- śhauryam—valor
- tejaḥ—strength
- dhṛitiḥ—fortitude
- dākṣhyam yuddhe—skill in weaponry
- cha—and
- api—also
- apalāyanam—not fleeing
- dānam—large-heartedness
- īśhvara—leadership
- bhāvaḥ—qualities
- cha—and
- kṣhātram—of the warrior and administrative class
- karma—work
- svabhāva-jam—born of one’s intrinsic qualities
Verse translations
Swami Sivananda
Prowess, splendor, firmness, dexterity, and not fleeing from battle, generosity, and lordliness are the duties of the Kshatriyas, born of their own nature.
Shri Purohit Swami
Valor, glory, firmness, skill, generosity, steadiness in battle, and the ability to rule—these constitute the duty of a soldier. They flow from his own nature.
Swami Ramsukhdas
।।18.43।।शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजाके संचालन आदिकी विशेष चतुरता, युद्धमें कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करनेका भाव -- ये सबकेसब क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.43।। शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) - ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।।
Swami Adidevananda
Valor, invincibility, steadiness, dexterity, and not fleeing in battle, generosity, and regality are the duties of a Kshatriya, born of his inherent nature.
Swami Gambirananda
The natural duties of the Ksatriyas are heroism, boldness, fortitude, capability, and not retreating from battle, generosity, and lordliness.
Dr. S. Sankaranarayan
Heroic deeds, fiery energy, firmness, dexterity, and also non-attachment form the duties of the Ksatriyas, born of their nature, in battle, giving gifts, and overlordship.
Verse commentaries
Sri Dhanpati
।।18.43।।ब्राह्मणस्य कर्मोदाहृत्य क्षत्रियस्य तदाह। शौर्य शूरस्य भावो विक्रमो बलवत्तरानपि प्रहर्तुं प्रवृत्तिः। तेजः प्रागल्भ्यं परैरधर्षणीयत्वम्। धृतिः धारणं यया धृत्यात्मिकया चित्तवृत्त्या सर्वावस्थासु देहेन्द्रियसंघातस्यानवसादो भवति। दक्षस्य भावो दाक्ष्यं सहसा प्रत्युपस्थितेषु कार्येषु अव्यामोहेन बोधकौशल्यम्। युद्धेचाप्यपलायनं शत्रुभ्योऽपराङ्गुखत्वं चकारात्पराङगुखस्याहननम्। दानं देयेषु वस्तुषु मुक्तहस्तता। ईश्वरभावश्च ईश्वरस्य भाव ईशितव्यान प्रति प्रभुशक्तिप्रकटीकरणम्। अनुक्तसमुच्चयार्थश्चः। क्षात्रं क्षत्रियजातेर्विहितं करम स्वभावजं स्वभावप्रभवेन सत्त्वोपसर्जनरजोगुणेन प्रविभक्तमित्यर्थः।
Swami Chinmayananda
।।18.43।। क्षत्रिय पुरुष में रजोगुण की प्रधानता होती है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण? किसी क्षत्रिय कुल में जन्मे व्यक्ति को ही क्षत्रिय नहीं कहते हैं। एक सच्चे क्षत्रिय पुरुष में जो गुण होते हैं? उनकी ही यहाँ गणना की गयी है। गीता में वर्णों का विभाजन मनुष्य के आन्तरिक स्वभाव एवं बाह्य आचरण के आधार पर किया गया है।शौर्य तेज से सम्पन्न व्यक्ति ही प्रजा का पालन एवं शासन करने में समर्थ होता है।धृति अपने लक्ष्य को दृढ़ता से धारण करना धृति है। मार्ग में कितने ही विघ्नों के आने पर भी अपने पथ से विचलित न होने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है? जिसे ही धृति कहते हैं।दाक्ष्य अर्थात् दक्षता। सैनिक प्रशिक्षण की भाषा में इसे सावधान का आदेश कहा जाता है। दक्षता का अर्थ है प्राप्त परिस्थिति का तत्काल और यथार्थ मल्यांकन करने की क्षमता। इसमें निर्णय के अनुसार तत्काल उसे कार्यान्वित करने की क्षमता का भी समावेश है। एक सच्चे क्षत्रिय की दक्षता अन्य लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय बन जाती है।युद्ध से अपलायन उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न पुरुष जीवन संघर्षों में सहज ही अपनी पराजय स्वीकार नहीं कर लेता। यहाँ युद्ध शब्द का वाच्यार्थ ही नहीं लेना चाहिए। जीवन में जो भी कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं? उन सबका साहस के साथ सामना करना यहाँ अभिप्रेत है। न्याय्य लक्ष्य के विरुद्ध खड़ी होने वाली परिस्थितियों से पलायन न करना क्षत्रिय का धर्म है।दान कोई भी शासन या राजा तभी लोकप्रिय बनता है? जब वह मुक्तहस्त से दान करता है। वर्तमान समय में भी सभी प्रजातान्त्रिक राज्यों की सरकारें अपने बजट में कुछ धन की मात्रा सुरक्षित रखती हैं? जिस पर किसी प्रकार का विवाद या मतदान नहीं होता। क्षत्रिय पुरुष के कृपण होने पर उसे अपने कार्य में सफलता नहीं मिल सकती? क्योंकि उसकी सफलता उसके मित्रों एवं समर्थकों की संख्या पर निर्भर करती है। एक न्यायप्रिय क्षत्रिय को दयापूर्वक असहाय लोगों की मुक्तहस्त से सहायता करनी चाहिए।ईश्वरभाव अपनी सार्मथ्य पर दृढ़विश्वास के बिना कोई भी पुरुष शासन नहीं कर सकता। प्रजा के नेता में इतना दृढ़ आत्मविश्वास होना चाहिए कि उसके विश्वास से अन्य दुर्बल हृदय के लोगों का भी आत्मविश्वास जागृत हो उठे। इस प्रकार का ईश्वर भाव एक क्षत्रिय के लिए आवश्यक गुण है। उसकी शक्तिशाली उपस्थिति से ही आसपास के वातावरण में विद्युत् शक्ति कासा संचार हो जाना चाहिए। मात्र मुकुट या राजवस्त्रों से ही कोई पुरुष राजा नहीं बन सकता। राजमुकुट? राजवस्त्र एवं राजसिंहासन को अपने योग्य शासन का चयन कर सकने की अद्भुत कला प्राप्त है। ईश्वरभाव क्षत्रिय का सबसे प्रमुख लक्षण है।उपर्युक्त आठ गुणों को क्षात्र कर्म कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि एक क्षत्रिय पुरुष को इन गुणों को सम्पादित करके इन्हें धारण करना चाहिए। लौकिक सत्ता के धारक नेता अध्यात्म के पथ प्रदर्शक नहीं बन सकते। परन्तु एक सच्चे शासक में यह सूक्ष्म क्षमता होनी चाहिए कि वह आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को अपनी शासन प्रणाली में सम्मिलित कर सके और राष्ट्र के विविध कार्यक्षेत्रों में उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान कर सके।अगले श्लोक में वैश्य और शूद्र के कर्म बताते हैं
Swami Ramsukhdas
।।18.43।। व्याख्या -- शौर्यम् -- मनमें अपने धर्मका पालन करनेकी तत्परता हो? धर्ममय युद्ध (टिप्पणी प0 928) प्राप्त होनेपर युद्धमें चोट लगने? अङ्ग कट जाने? मर जाने आदिका किञ्चिन्मात्र भी भय न हो? घाव होनेपर भी मनमें प्रसन्नता और उत्साह रहे तथा सिर कटनेपर भी पहलेजैसे ही अस्त्रशस्त्र चलाता रहे? इसका नाम शौर्य है।तेजः -- जिस प्रभाव या शक्तिके सामने पापीदुराचारी मनुष्य भी पाप? दुराचार करनेमें हिचकते हैं? जिसके सामने लोगोंकी मर्यादाविरुद्ध चलनेकी हिम्मत नहीं होती अर्थात् लोग स्वाभाविक ही मर्यादामें चलते हैं? उसका नाम तेज है।धृतिः -- विपरीतसेविपरीत अवस्थामें भी अपने धर्मसे विचलित न होने और शत्रुओंके द्वारा धर्म तथा नीतिसे विरुद्ध अनुचित व्यवहारसे सताये जानेपर भी धर्म तथा नीतिविरुद्ध कार्य न करके धैर्यपूर्वक उसी मर्यादामें चलनेका नाम धृति है।दाक्ष्यम् -- प्रजापर शासन करनेकी? प्रजाको यथायोग्य व्यवस्थित रखनेकी और उसका संचालन करनेकी विशेष योग्यता? चतुराईका नाम दाक्ष्य है।युद्धे चाप्यपलायनम् -- युद्धमें कभी पीठ न दिखाना? मनमें कभी हार स्वीकार न करना? युद्ध छोड़कर कभी,न भागना -- यह युद्धमें अपलायन है।दानम् -- क्षत्रियलोग दान करते हैं तो देनेमें कमी नहीं रखते? बड़ी उदारतापूर्वक देते हैं। वर्तमानमें दानपुण्य करनेका स्वभाव वैश्योंमें देखनेमें आता है परन्तु वैश्य लोग देनेमें कसाकसी करते हैं अर्थात् इतनेसे ही काम चल जाय तो अधिक क्यों दिया जाय -- ऐसा द्रव्यका लोभ उनमें रहता है। द्रव्यका लोभ रहनेसे धर्मका पालन करनेमें बाधा आ जाती है? कमी आ जाती है? जिससे सात्त्विक दान (गीता 17। 20) देनेमें कठिनता पड़ती है। परन्तु क्षत्रियोंमें दानवीरता होती है। इसलिये यहाँ दान शब्द क्षत्रियोंके स्वभावमें आया है।ईश्वरभावश्च -- क्षत्रियोंमें स्वाभाविक ही शासन करनेकी प्रवृत्ति होती है। लोगोंके नीति? धर्म और मर्यादाविरुद्ध आचरण देखनेपर उनके मनमें स्वाभाविक ही ऐसी बात आती है कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहें हैं और उनको नीति? धर्मके अनुसार चलानेकी इच्छा होती है। अपने शासनद्वारा सबको अपनीअपनी मर्यादाके अनुसार चलानेका भाव रहता है। इस ईश्वरभावमें अभिमान नहीं होता क्योंकि क्षत्रियजातिमें नम्रता? सरलता आदि गुण देखनेमें आते हैं। क्षात्रं कर्म स्वभावजम् -- जो मात्र प्रजाकी दुःखोंसे रक्षा करे? उसका नाम क्षत्रिय है -- क्षतात् त्रायत इति क्षत्रियः। उस क्षत्रियके जो स्वाभाविक कर्म हैं? वे क्षात्रकर्म कहलाते हैं। सम्बन्ध -- अब वैश्य और शूद्रके स्वाभाविक कर्म बताते हैं।
Sri Neelkanth
।।18.43।।शौर्यं पराक्रमः। तेजः प्रागल्भ्यम्। धृतिर्धैर्यं। दाक्ष्यं युद्धे कौशलमुत्साहो वा। दानमौदार्यम्। ईश्वरभावः उन्मार्गवर्तिनां नियमनशक्तिः। एतत्क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।
Sri Ramanujacharya
।।18.43।।शौर्यं युद्धे निर्भयप्रवेशसामर्थ्यम्। तेजः परैः अनभिभवनीयता। धृतिः आरब्धे कर्मणि विघ्नोपनिपाते अपि तत्समापनसामर्थ्यम्। दाक्ष्यं सर्वक्रियानिवृत्तिसामर्थ्यम्। युद्धे च अपि अपलायनं युद्धे च आत्ममरणनिश्चये अपि अनिवर्तनम् दानम् आत्मीयस्य द्रव्यस्य परस्वत्वापादानपर्यन्तः त्यागः? ईश्वरभावः स्वव्यतिरिक्तसकलजननियमनसामर्थ्यम्? एतत् क्षत्रियस्य स्वभावजं कर्म।
Sri Sridhara Swami
।।18.43।।क्षत्रियस्य स्वाभाविकानि कर्माण्याह -- शौर्यमिति। शौर्यं पराक्रमः? तेजः प्रागल्भ्यम्? धृतिर्धैर्यम्? दाक्ष्यं कौशलं? युद्धे चाप्यपलायनपराङ्मुखता? दानमौदार्यम्? ईश्वरभावो नियमनशक्तिः? एतत्क्षत्रियस्य स्वभावजं कर्म।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.43।।शूरं भीरुं कविं जडम् इति भीरुप्रतियोगिनि शूरशब्द इत्यभिप्रायेणाऽऽह -- निर्भयप्रवेशसामर्थ्यमिति। मानसशारीरसंवलनमिदम्। प्रविष्टस्य परैः परिभवे प्रवेशोऽपि दोषः स्यात्? अतस्तत्परिहाराय तेज इहोक्तमित्याहपरैरनभिभवनीयतेति। दाक्ष्याद्धृतेर्विशेषोविघ्नोपनिपातेऽपीति दर्शितः। प्रवृत्तिसामर्थ्यात्प्रवृत्तापरित्यागो ह्यन्य एव।युद्धे चापि इत्यत्रापिशब्दद्योतितं तीव्रं पलायननिमित्तमाहआत्ममरणनिश्चयेऽपीति। अत्रेश्वरभावशब्देन दुष्टनिग्रहशिष्टानुग्रहशक्तिर्विवक्षितेत्यभिप्रायेणाऽऽह -- स्वव्यतिरिक्तेति।सकलजनेति स्वराष्ट्राद्यवच्छिन्नविषयम्।
Sri Abhinavgupta
।।18.41 -- 18.60।।एवमियता षण्णां प्रत्येकं त्रिस्वरूपत्वं धृत्यादीनां च प्रतिपादितम्। तन्मध्यात् सात्त्विके राशौ वर्तमानो दैवीं संपदं प्राप्त इह ज्ञाने योग्यः? त्वं च तथाविधः इत्यर्जुनः प्रोत्साहितः।अधुना तु इदमुच्यते -- यदि तावदनया ज्ञानबुद्ध्या कर्मणि भवान् प्रवर्तते तदा स्वधर्मप्रवृत्त्या विज्ञानपूततया च न कर्मसंबन्धस्तव। अथैतन्नानुमन्यसे? तदवश्यं तव प्रवृत्त्या तावत् भाव्यम् जातेरेव तथाभावे स्थितत्वात्। यतः सर्वः स्वभावनियतः ( S??N स्वस्वभावनियतः ) कुतश्चिद्दोषात् तिरोहिततत्स्वभावः ( S??N -- हिततत्तत्स्वभावः ) कंचित्कालं भूत्वापि? तत्तिरोधायकविगमे स्वभावं व्यक्त्यापन्नं लभत एव। तथाहि एवंविधो वर्णनां स्वभावः। एवमवश्यंभाविन्यां प्रवृत्तौ ततः फलविभागिता भवेत्।।तदाह -- ब्राह्मणेत्यादि अवशोऽपि तत् इत्यन्तम्। ब्राह्मणादीनां कर्मप्रविभागनिरूपणस्य स्वभावोऽश्यं नातिक्रामति,( S? ? N omit न and read अतिक्रामति ) इति क्षत्रियस्वभावस्य भवतोऽनिच्छतोऽपि प्रकृतिः स्वभावाख्या नियोक्तृताम् अव्यभिचारेण भजते। केवलं तया नियुक्तस्य पुण्यपापसंबन्धः। अतः,मदभिहितविज्ञानप्रमाणपुरःसरीकारेण कर्माण्यनुतिष्ठ। तथा सति बन्धो निवर्त्स्यति। इत्यस्यार्थस्य परिकरघटनतात्पर्यं ( S? ? N -- करबन्धघटन -- ) महावाक्यार्थस्य। अवान्तरवाक्यानां स्पष्टा ( ष्टोऽ ) र्थः।समासेन ( S omits समासेन ) ( श्लो. 50 ) संक्षेपेण। ज्ञानस्य? प्रागुक्तस्य। निष्ठां ( ष्ठा ) वाग्जालपरिहारेण निश्चितामाह। बुद्ध्या विशुद्धया इत्यादि सर्वमेतत् व्याख्यातप्रायमिति न पुनरायस्यते,( N -- रारभ्यते )।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.43।।क्षत्रियस्य गुणस्वभावकृतानि कर्माण्याह -- शौर्यमिति। शौर्यं विक्रमो बलवत्तरानपि प्रहर्तुं प्रवृत्तिः। तेजः प्रागल्भ्यं परैरधर्षणीयत्वम्। धृतिर्महत्यामपि विपदि देहेन्द्रियसंघातस्यानवसादः। दाक्ष्यं दक्षभावः सहसा प्रत्युत्पन्नेषु कार्येष्वव्यामोहेन प्रवृत्तिः। युद्धे चाप्यपलायनमपराङ्मुखीभावः। दानमसंकोचेन वित्तेषु स्वस्वत्वपरित्यागेन परस्वत्वापादनम्। ईश्वरभावः प्रजापालनार्थमीशितव्येष्वर्थेषु प्रभुशक्तिप्रकटीकरणं च क्षत्रकर्म क्षत्रियजातेर्विहितं कर्म स्वभावजं सत्त्वोपसर्जनरजोगुणस्वभावजम्।
Sri Purushottamji
।।18.43।।क्षत्ित्रयस्याऽऽह -- शौर्यमिति। शौर्यं पराक्रमः? तेजः प्रगल्भता? धृतिर्धैर्यं? दाक्ष्यं सर्वकर्मकौशलं? युद्धे चापि अपलायनं अपराङ्मुखता। अपिशब्देन सर्वत्राऽपलायनत्वं? चकारेण द्यूतादपीति। दानं दानशीलता? च पुनः ईश्वरभावः नियमनैकस्वभावत्वम्? एतत् क्षात्त्रं कर्म क्षत्ित्रयस्य स्वभावजं स्वस्वभावाज्जातं कर्म।
Sri Shankaracharya
।।18.43।। --,शौर्यं शूरस्य भावः? तेजः प्रागल्भ्यम्? धृतिः धारणम्? सर्वावस्थासु अनवसादः भवति यया धृत्या उत्तम्भितस्य? दाक्ष्यं दक्षस्य भावः? सहसा प्रत्युत्पन्नेषु कार्येषु अव्यामोहेन प्रवृत्तिः? युद्धे चापि अपलायनम् अपराङ्मुखीभावः शत्रुभ्यः? दानं देयद्रव्येषु मुक्तहस्तता? ईश्वरभावश्च ईश्वरस्य भावः? प्रभुशक्तिप्रकटीकरणम् ईशितव्यान् प्रति? क्षात्रं कर्म क्षत्रियजातेः विहितं कर्म क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
Sri Vallabhacharya
।।18.43।।क्षत्ित्रयस्य तदाह -- शौर्यमिति। धृतिर्धैर्यमक्लैब्यमिति यावत्। युद्धे दाक्ष्यम्। ईश्वरभाव ऐश्वर्यम्।
Swami Sivananda
18.43 शौर्यम् prowess? तेजः splendour? धृतः firmness? दाक्ष्यम् dexterity? युद्धे in battle? च and? अपि also? अपलायनम् not fleeing? दानम् generosity? ईश्वरभावः lordliness? च and? क्षात्रम् of Kshatriyas? कर्म action? स्वभावजम् born of nature.Commentary It is the first duty of Kshatriya (man of the warrior class or of royal blood) to be brave and chivalrous. Bravery is that sublime virtue through which one is naturally strong? vigorous and courageous. In the face of the most terrible calamity the mind will not be in the least perturbed. The Kshatriya is firm under any unfavourable or trying conditions or circumstances. He does not get the least depression of spirit even when he is in adverse circumstances. It is the skill by which the reason finds out its path amidst all untoward circumstances and eventually attains its goal. This is firmness? fortitude or courage.Dakshya Promptness He is able to decide rightly on the spot in matters that deman prompt attention doing without confusion? of duties which present themselves all of a sudden and demand prompt action.As the sunflower always turns its face towards the sun so does he always face his enemies. He will ever avoid turning his back to them on the field of battle. He is absolutely fearless. Just as a tree gives away its flowers and fruits freely to whoever desires them? as the jasmine sends out its sweet fragrace in every direction? so will a Kshatriya generously give to another whatever may be asked of him. His charity is boundless.Lordliness A Kshatriya king enjoys sovereignty over his subjects owing to the sure protection he grants them? exercises ruling power over his subjects who are to be ruled? and raises the rod of chastisement to punish the unrighteous or the wicked.
Sri Anandgiri
।।18.43।।शूरस्य भावो विक्रमो बलवत्तरानपि प्रहर्तुं प्रवृत्तिः? प्रागल्भ्यं परैरधर्षणीयत्वम्। महत्यामपि विपदि देहेन्द्रियोत्तम्भनी चित्तवृत्तिर्धृतिरिति व्याचष्टे -- सर्वावस्थास्विति। दक्षस्य भावमेव विभजते -- सहसेति। स्वभावस्तु पूर्ववत्।