Chapter 18, Verse 66
Verse textसर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
Verse transliteration
sarva-dharmān parityajya mām ekaṁ śharaṇaṁ vraja ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo mokṣhayiṣhyāmi mā śhuchaḥ
Verse words
- sarva-dharmān—all varieties of dharmas
- parityajya—abandoning
- mām—unto me
- ekam—only
- śharaṇam—take refuge
- vraja—take
- aham—I
- tvām—you
- sarva—all
- pāpebhyaḥ—from sinful reactions
- mokṣhayiṣhyāmi—shall liberate
- mā—do not
- śhuchaḥ—fear
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
Abandon all attributes and come to Me as your only refuge; I will rescue you from all sins; do not be sorrowful.
Swami Ramsukhdas
।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
Swami Tejomayananda
।।18.66।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
Swami Adidevananda
Relinquishing all Dharmas completely, seek Me alone for refuge. I will release you from all sins; grieve not.
Swami Gambirananda
Abandon all forms of rites and duties, and take refuge in Me alone. I will free you from all sins; do not grieve.
Swami Sivananda
Abandon all duties and take refuge in Me alone; I will liberate you from all sins; do not grieve.
Shri Purohit Swami
Give up your earthly duties, surrender yourself to Me alone. Do not be anxious; I will absolve you from all your sins.
Verse commentaries
Sri Neelkanth
।।18.66।।एवं नमनयजनभजनमननक्रमेण सांख्यनिष्ठा उक्ता या पूर्वं ध्यानेनात्मनि पश्यन्तीत्यनेन श्लोकेन दर्शिता। इदानींअन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते। तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः इति केवलोपास्तिनिष्ठा योगाख्योक्ता तामाह -- सर्वेति। सर्वेषां वर्णानामाश्रमाणां देहेन्द्रियबुद्धीनां च धर्मानग्निहोत्रादीन् सुखदुःखादींश्च त्यक्त्वा मामेकं सर्वेश्वरं सर्वशक्तिं सोपाधिं निरुपाधिं वाऽखण्डैकरसमानन्दघनं परमात्मानम्। शरणं शृणाति हिनस्त्यविद्यादीन्क्लेशादीन् शरणमाश्रयः परायणं गच्छ प्राप्नुहि। मदेकशरणो भवेत्यर्थः। अत्र अन्नं भुक्त्वैव तृप्यति नतु जलमात्रं पीत्वेतिवद्धेतुत्वं क्त्वाप्रत्ययार्थः। सर्वधर्मपरित्यागेन मां शरणं व्रजेत्यर्थः। यथोक्तम्अनात्मदर्शनेनैव परात्मानमुपास्महे इति। एतस्य भगवच्छरणीकरणस्य फलमाह -- अहंत्वेति। अहं प्रत्यगात्मा सूर्याद्यन्तर्यामी नारायणः सकलपाप्मविनिर्मुक्तः सम्यग्ज्ञातः सन् त्वा त्वां सर्वपापेभ्यः संचितक्रियमाणेभ्यो गोत्रवधादिजेभ्यो मोक्षयिष्यामि। मा शुचः शोकं माकार्षीः। तथाहि। तत्त्वज्ञानफलं पापास्पर्शः शोकतरणं च सर्वश्रुतिस्मृतिप्रसिद्धम्। आदित्यान्तर्वर्तिनं नारायणं प्रकृत्य च्छान्दोग्ये श्रूयतेस एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित उदेति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेदतरति शोकमात्मवित्तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः इति। उदितः ऊर्ध्वमितो गतः पापान्युत्क्रम्य गतो,निष्पाप इति श्रुतिपदार्थः। वर्णाश्रमधर्मसंन्यासपूर्वकं षष्ठाध्यायेनोक्तेन योगेन देहादीनां धर्मांश्च त्यक्त्वा निर्विकल्पमात्मानं साक्षात्कुर्वतो न कर्मलेप इत्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।18.66।।आह च --,सर्वधर्मानिति। यदिदं युद्धकरणे प्रासङ्गिकबन्धुवधादि? तस्य सर्वस्य अहं कर्त्ता इत्यात्मधर्मतां परित्यज्य तथा आचार्यादिहननक्रियानिषेधे मम धर्मो ( ? N ममाधर्मो ) भविष्यति इति मनसा विहाय मामेवैकं सर्वकर्तारं स्वतन्त्रं ( S omits एकं -- स्वतन्त्रम् ) शरणं सर्वस्वभावाधिष्ठायकतया व्रज। अत एवाहं सर्वज्ञः सर्वेभ्यः पापेभ्यस्त्वां मोक्षयिष्यामि इति। मा शुचः? किंकर्तव्यतामोहं मा गाः ( S? मा गमः )।
Swami Ramsukhdas
।।18.66।। व्याख्या -- सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज -- भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय? धर्मके निर्णयका विचार छोड़कर अर्थात् क्या करना है और क्या नहीं करना है -- इसको छोड़कर केवल एक मेरी ही शरणमें आ जा।स्वयं भगवान्के शरणागत हो जाना -- यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है। इसमें शरणागत भक्तको अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता जैसे -- पतिव्रताका अपना कोई काम नहीं रहता। वह अपने शरीरकी सारसँभाल भी पतिके नाते? पतिके लिये ही करती है। वह घर? कुटुम्ब? वस्तु? पुत्रपुत्री और अपने कहलानेवाले शरीरको भी अपना नहीं मानती? प्रत्युत पतिदेवका ही मानती है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार पतिव्रता पतिके परायण होकर पतिके गोत्रमें ही अपना गोत्र मिला देती है और पतिके ही घरपर रहती है? उसी प्रकार शरणागत भक्त भी शरीरको लेकर माने जानेवाले गोत्र? जाति? नाम आदिको भगवान्के चरणोंमें अर्पण करके निर्भय? निःशोक? निश्चिन्त और निःशङ्क हो जाता है।गीताके अनुसार यहाँ धर्म शब्द कर्तव्यकर्मका वाचक है। कारण कि इसी अध्यायके इकतालीसवेंसे चौवालीसवें श्लोकतक स्वभावज कर्म शब्द आये हैं? फिर सैंतीलीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें स्वधर्म शब्द आया है। उसके बाद? सैंतालीसवें श्लोकके ही उत्तरार्धमें तथा (प्रकरणके अन्तमें) अड़तालीसवें श्लोकमें कर्म शब्द आया है। तात्पर्य यह हुआ कि आदि और अन्तमें कर्म शब्द आया है और बीचमें स्वधर्म शब्द आया है तो इससे स्वतः ही धर्म शब्द कर्तव्यकर्मका वाचक सिद्ध हो जाता है।अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि सर्वधर्मान्परित्यज्य पदसे क्या धर्म अर्थात् कर्तव्यकर्मका स्वरूपसे त्याग माना जाय इसका उत्तर यह है कि धर्मका स्वरूपसे त्याग करना न तो गीताके अनुसार ठीक है और न यहाँके प्रसङ्गके अनुसार ही ठीक है क्योंकि भगवान्की यह बात सुनकर अर्जुनने कर्तव्यकर्मका त्याग नहीं किया है? प्रत्युत करिष्ये वचनं तव (18। 73) कहकर भगवान्की आज्ञाके अनुसार कर्तव्यकर्मका पालन करना स्वीकार किया है। केवल स्वीकार ही नहीं किया है? प्रत्युत अपने क्षात्रधर्मके अनुसार युद्धि भी किया है। अतः उपर्युक्त पदमें धर्म अर्थात् कर्तव्यका त्याग करनेकी बात नहीं है। भगवान् भी कर्तव्यके त्यागकी बात कैसे कह सकते हैं भगवान्ने इसी अध्यायके छठे श्लोकमें कहा है कि यज्ञ? दान? तप और अपनेअपने वर्णआश्रमोंके जो कर्तव्य हैं? उनका कभी त्याग नहीं करना चाहिये? प्रत्युत उनको जरूर करना चाहिये (टिप्पणी प0 970.1)।गीताका पूरा अध्ययन करनेसे यह मालूम होता है कि मनुष्यको किसी भी हालतमें कर्तव्यकर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। अर्जुन तो युद्धरूप कर्तव्यकर्म छोड़कर भिक्षा माँगना श्रेष्ठ समझते थे (2। 5) परन्तु भगवान्ने इसका निषेध किया (2। 3138)। इससे भी यही सिद्ध होता है कि यहाँ स्वरूपसे धर्मोंका त्याग नहीं है।अब विचार यह करना है कि यहाँ सम्पूर्ण धर्मोंके त्यागसे क्या लेना चाहिये गीताके अनुसार सम्पूर्ण धर्मों अर्थात् कर्मोंको भगवान्के अर्पण करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। इसमें सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयका त्याग करना और केवल भगवान्का आश्रय लेना -- दोनों बातें सिद्ध हो जाती हैं। धर्मका आश्रय लेनेवाले बारबार जन्ममरणको प्राप्त होते हैं -- एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते (गीता 9। 21)। इसलिये धर्मका आश्रय छोड़कर भगवान्का ही आश्रय लेनेपर फिर अपने धर्मका निर्णय करनेकी जरूरत नहीं रहती। आगे अर्जुनके जीवनमें ऐसा हुआ भी है।अर्जुनका कर्णके साथ युद्ध हो रहा था। इस बीच कर्णके रथका चक्का पृथ्वीमें धँस गया। कर्ण रथसे नीचे उतरकर रथके चक्केको निकालनेका उद्योग करने लगा और अर्जुनसे बोला कि जबतक मैं यह चक्का निकाल न लूँ? तबतक तुम ठहर जाओ क्योंकि तुम रथपर हो और मैं रथसे रहित हूँ और दूसरे कार्यमें लगा हूआ हूँ। ऐसे समय रथीको उचित है कि उसपर बाण न छोड़े। तुम सहस्रार्जुनके समान शस्त्र और शास्त्रके ज्ञाता हो और धर्मको जाननेवाले हो? इसलिये मेरे ऊपर प्रहार करना उचित नहीं है। कर्णकी बात सुनकर अर्जुनने बाण नहीं चलाया। तब भगवान्ने कर्णसे कहा कितुम्हारेजैसे आततायीको किसी तरहसे मार देना धर्म ही है पाप नहीं (टिप्पणी प0 970.2) और अभीअभी तुम छः महारथियोंने मिलकर अकेले अभिमन्युको घेरकर उसे मार डाला। अतः धर्मकी दुहाई देनेसे कोई लाभ नहीं है। हाँ? यह सौभाग्यकी बात है कि इस समय तुम्हें धर्मकी बात याद आ रही है? पर जो स्वयं धर्मका पालन नहीं करता? उसे धर्मकी दुहाई देनेका कोई अधिकार नहीं है। ऐसा कहकर भगवान्ने अर्जुनको बाण चलानेकी आज्ञा दी तो अर्जुनने बाण चलाना आरम्भ कर दिया।इस प्रकार यदि अर्जुन अपनी बुद्धिसे धर्मका निर्णय करते तो भूल कर बैठते अतः उन्होंने धर्मका निर्णय भगवान्पर ही रखा और भगवान्ने धर्मका निर्णय किया भी।अर्जुनके मनमें सन्देह था कि हमलोगोंके लिये युद्ध करना श्रेष्ठ है अथवा युद्ध न करना श्रेष्ठ है (2। 6)। यदि हम युद्ध करते हैं तो अपने कुटुम्बका नाश होता है और अपने कुटुम्बका नाश करना बड़ा भारी पाप है। इससे तो अनर्थपरम्परा ही बढ़ेगी (2। 40 -- 44)। दूसरी तरफ हमलोग देखते हैं तो क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर श्रेयका कोई साधन नहीं है। अतः भगवान् कहते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है? क्या धर्म है और क्या अधर्म है? इस पचड़ेमें तू क्यों पड़ता है तू धर्मके निर्णयका भार मेरेपर छोड़ दे। यही सर्वधर्मान्परित्यज्य का तात्पर्य है।मामेकं शरणं व्रज -- इन पदोंमें एकम् पद माम् का विशेषण नहीं हो सकता माम् (भगवान्) एक ही हैं? अनेक नहीं। इसलिये एकम् पदका अर्थ अनन्य लेना ही ठीक बैठता है। दूसरी बात? अर्जुनने तदेकं वद निश्चित्य (3। 2) और यच्छ्रेय एतयोरेकम् (5। 1) पदोंमें भी एकम् पदसे सांख्य और कर्मयोगके विषयमें एक निश्चित श्रेयका साधन पूछा है। उसी एकम् पदको लेकर भगवान् यहाँ यह बताना चाहते हैं कि सांख्ययोग? कर्मयोग आदि जितने भी भगवत्प्राप्तिके साधन हैं? उन सम्पूर्ण साधनोंमें मुख्य साधन एक अनन्य शरणागति ही है।गीतामें अर्जुनने अपने कल्याणके साधनके विषयमें कई तरहके प्रश्न किये और भगवान्ने उनके उत्तर भी दिये। वे सब साधन होते हुए भी गीताके पूर्वापरको देखनेसे यह बात स्पष्ट दीखती है कि सम्पूर्ण साधनोंका सार और शिरोमणि साधन भगवान्के अनन्यशरण होना ही है।भगवान्ने गीतामें जगहजगह अनन्यभक्तिकी बहुत महिमा गायी है। जैसे? दुस्तर मायाको सुगमतासे तरनेका उपाय अनन्य शरणागति ही है (टिप्पणी प0 971.1) (7। 14) अनन्यचेताके लिये मैं सुलभ हूँ (टिप्पणी प0 971.2) (8। 14) परम पुरुषकी प्राप्ति अनन्य भक्तिसे ही होती है (8। 22) अनन्य भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (9। 22) अनन्य भक्तिसे ही भगवान्को जाना? देखा तथा प्राप्त किया जा सकता है (11। 54) अनन्य भक्तोंका मैं बहुत जल्दी उद्धार करता हूँ (12। 37) गुणातीत होनेका उपाय अनन्यभक्ति ही है (14। 26)। इस प्रकार अनन्य भक्तिकी महिमा गाकर भगवान् यहाँ पूरी गीताका सार बताते हैं -- मामेकं शरणं व्रज। तात्पर्य है कि उपाय और उपेय? साधन और साध्य मैं ही हूँ।मामेकं शरणं व्रज का तात्पर्य मनबुद्धिके द्वारा शरणागतिको स्वीकार करना नहीं है? प्रत्युत स्वयंको भगवान्की शरणमें जाना है। कारण कि स्वयंके शरण होनेपर मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदि भी उसीमें आ जाते हैं? अलग नहीं रहते।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः -- यहाँ कोई ऐसा मान सकता है कि पहले अध्यायमें अर्जुनने जो युद्धसे पाप होनेकी बातें कही थीं? उन पापोंसे छुटकारा दिलानेका प्रलोभन भगवान्ने दिया है। परन्तु यह मान्यता यक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जब अर्जुन सर्वथा भगवान्के शरण हो गये हैं? तब उनके पाप कैसे रह सकते हैं (टिप्पणी प0 971.3) और उनके लिये प्रलोभन कैसे दिया जा सकता है अर्थात् उनके लिये,प्रलोभन देना बनता ही नहीं। हाँ? पापोंसे मुक्त करनेका प्रलोभन देना हो तो वह शरणागत होनेके पहले ही दिया जा सकता है? शरणागत होनेके बाद नहीं। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा -- इसका भाव यह है कि जब तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर मेरी शरणमें आ गया और शरण होनेके बाद भी तुम्हारे भावों? वृत्तियों? आचरणों आदिमें फरक नहीं पड़ा अर्थात् उनमें सुधार नहीं हुआ भगवत्प्रेम? भगवद्दर्शन आदि नहीं हुए और अपनेमें अयोग्यता? अनधिकारिता? निर्बलता आदि मालूम होती है? तो भी उनको लेकर तुम चिन्ता या भय मत करो। कारण कि जब तुम मेरी अनन्यशरण हो गये तो वह कमी तुम्हारी कमी कैसे रही उसका सुधार करना तुम्हारा काम कैसे रहा वह कमी मेरी कमी है। अब उस कमीको दूर करना? उसका सुधार करना मेरा काम रहा। तुम्हारा तो बस? एक ही काम है वह काम है -- निर्भय? निःशोक? निश्चिन्त और निःशङ्क होकर मेरे चरणोंमें पड़े रहना (टिप्पणी प0 972.1) परन्तु अगर तेरेमें भय? चिन्ता? वहम आदि दोष आ जायँगे तो वे शरणागतिमें बाधक हो जायँगे और सब भार तेरेपर आ जायगा। शरण होकर अपनेपर भार लेना शरणागतिमें कलङ्क है।जैसे? विभीषण भगवान् रामके चरणोंकी शरण हो जाते हैं? तो फिर विभीषणके दोषको भगवान् अपना ही दोष मानते हैं। एक समय विभीषणजी समुद्रके इस पार आये। वहाँ विप्रघोष नामक गाँवमें उनसे एक अज्ञात ब्रह्महत्या हो गयी। इसपर वहाँके ब्राह्मणोंने इकट्ठे होकर विभीषणको खूब मारापीटा? पर वे मरे नहीं। फिर ब्राह्मणोंने उन्हें जंजीरोंसे बाँधकर जमीनके भीतर एक गुफामें ले जाकर बंद कर दिया। रामजीको विभीषणके कैद होनेका पता लगा तो वे पुष्पकविमानके द्वारा तत्काल विप्रघोष नामक गाँवमें पहुँच गये और वहाँ विभीषणका पता लगाकर उनके पास गये। ब्राह्मणोंने रामजीका बहुत आदरसत्कार किया और कहा कि महाराज इसने ब्रह्महत्या कर दी है। इसको हमने बहुत मारा? पर यह मरा नहीं। भगवान् रामने कहा कि हे ब्राह्मणों विभीषणको मैंने कल्पतककी आयु और राज्य दे रखा है? वह कैसे मारा जा सकता है और उसको मारनेकी जरूरत ही क्या है वह तो मेरा भक्त है। भक्तके लिये मैं स्वयं मरनेको तैयार हूँ। दासके अपराधकी जिम्मेवारी वास्तवमें उसके मालिकपर ही होती है अर्थात् मालिक ही उसके दण्डका पात्र होता है। अतः विभीषणके बदलेमें आपलोग मेरेको ही दण्ड दें (टिप्पणी प0 972.2)। भगवान्की यह शरणागतवत्सलता देखकर सब ब्राह्मण आश्यर्य करने लगे और उन सबने भगवान्की शरण ले ली।तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं -- इस अपनेपनके समान योग्यता? पात्रता?,अधिकारिता आदि कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है। छोटासा बच्चा भी अपनेपनके बलपर ही आधी रातमें सारे घरको नचाता है अर्थात् जब वह रातमें रोता है तो सारे घरवाले उठ जाते हैं और उसे राजी करते हैं। इसलिये शरणागत भक्तको अपनी योग्यता आदिकी तरफ न देखकर भगवान्के साथ अपनेपनकी तरफ ही देखते रहना चाहिये।, मा शुचः का तात्पर्य है -- (1) मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है? यह मेरे प्रति अपराध है? तेरा अभिमान है और शरणागतिमें कलङ्क है।मेरे शरण होकर भी मेरा पूरा विश्वास? भरोसा न रखना ही मेरे प्रति अपराध है। अपने दोषोंको लेकर चिन्ता करना वास्तवमें अपने बलका अभिमान है क्योंकि दोषोंको मिटानेमें अपनी सामर्थ्य मालूम देनेसे ही उनको मिटानेकी चिन्ता होती है। हाँ? अगर दोषोंको मिटानेमें चिन्ता न होकर दुःख होता है तो दुःख होना इतना दोषी नहीं है। जैसे? छोटे बालकके पास कुत्ता आता है तो वह कुत्तेको देखकर रोता है? चिन्ता नहीं करता। ऐसे ही दोषोंका न सुहाना दोष नहीं है? प्रत्युत चिन्ता करना दोष है। चिन्ता करनेका अर्थ यही होता है कि भीतरमें अपने छिपे हुए बलका आश्रय है (टिप्पणी प0 972.3) और यही तेरा अभिमान है। मेरा भक्त होकर भी तू चिन्ता करता है तो तेरी चिन्ता दूर कहाँ होगी लोग भी देखेंगे तो यही कहेंगे कि यह भगवान्का भक्त,है और चिन्ता करता है भगवान् इसकी चिन्ता नहीं मिटाते तू मेरा विश्वास न करके चिन्ता करता है तो विश्वासकी कमी तो है तेरी और कलङ्क आता है मेरेपर? मेरी शरणागतिपर। इसको तू छोड़ दे।(2) तेरे भाव? वृत्तियाँ? आचरण शुद्ध नहीं हुए हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर। इनकी चिन्ता मैं करूँगा।(3) दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुन भगवान्के शरण हो जाते हैं और फिर आठवें श्लोकमें कहते हैं कि इस भूमण्डलका धनधान्यसे सम्पन्न निष्कण्टक राज्य मिलनेपर अथवा देवताओंका आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। भगवान् मानो कह रहे हैं कि तेरा कहना ठीक ही है क्योंकि भौतिक नाशवान् पदार्थोंके सम्बन्धसे किसीका शोक कभी दूर हुआ नहीं? हो सकता नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं। परन्तु मेरे शरण होकर जो तू शोक करता है? यह तेरी बड़ी भारी गलती है। तू मेरे शरण होकर भी भार अपने सिरपर ले रहा है(4) शरणागत होनेके बाद भक्तको लोकपरलोक? सद्गतिदुर्गति आदि किसी भी बातकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। इस विषयमें किसी भक्तने कहा है --, दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक प्रकामम्। अवधीरितशारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि।। हे नरकासुरका अन्त करनेवाले प्रभो आप मेरेको चाहे स्वर्गमें रखें? चाहे भूमण्डलपर रखें और चाहे यथेच्छ नरकमें रखें अर्थात् आप जहाँ रखना चाहें? वहाँ रखें। जो कुछ करना चाहें? वह करें। इस विषयमें मेरा कुछ भी कहना नहीं है। मेरी तो एक यही माँग है कि शरद् ऋतुके कमलकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले आपके अति सुन्दर चरणोंका मृत्युजैसी भयंकर अवस्थामें भी चिन्तन करता रहूँ आपके चरणोंको भूलूँ नहीं।,शरणागतिसम्बन्धी विशेष बातशरणागत भक्त मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं इस भावको दृढ़तासे पकड़ लेता है? स्वीकार कर,लेता है तो उसके भय? शोक? चिन्ता? शङ्का आदि दोषोंकी जड़ कट जाती अर्थात् दोषोंका आधार मिट जाता है। कारण कि भक्तिकी दृष्टिसे सभी दोष भगवान्की विमुखतापर ही टिके रहते हैं।भगवान्के सम्मुख होनेपर भी संसार और शरीरके आश्रयके संस्कार रहते हैं? जो भगवान्के सम्बन्धकी दृढ़ता होनेपर मिट जाते हैं (टिप्पणी 973.1)। उनके मिटनेपर सब दोष भी मिट जाते हैं।सम्बन्धका दृढ़ होना क्या है भय? शोक? चिन्ता? शङ्का? परीक्षा ओर विपरीत भावनाका न होना ही सम्बन्धका दृढ़ होना है। अब इनपर विचार करें।(1) निर्भय होना -- आचरणोंकी कमी होनेसे भीतरसे भय पैदा होता है और साँप? बिच्छू? बाघ आदिसे बाहरसे भय पैदा होता है। शरणागत भक्तके ये दोनों ही प्रकारके भय मिट जाते हैं। इतना ही नहीं? पतञ्जलि महाराजने जिस मृत्युके भयको पाँचवाँ क्लेश माना है (टिप्पणी प0 973.2) और जो बड़ेबड़े विद्वानोंको भी होता है (टिप्पणी प0 973.3) वह भय भी सर्वथा मिट जाता है (टिप्पणी प0 973.4)।अब मेरी वृत्तियाँ खराब हो जायँगी -- ऐसा भयका भाव भी साधकको भीतरसे ही निकाल देना चाहिये क्योंकि मैं भगवान्की कृपामें तरान्तर हो गया हूँ? अब मेरेको किसी बातका भय नहीं है। इन वृत्तियोंको मेरी माननेसे ही मैं इनको शुद्ध नहीं कर सका क्योंकि इनको मेरी मानना ही मलिनता है -- ममता मल जरि जाइ (मानस 7। 117क)। अतः अब मैं कभी भी इनको मेरी नहीं मानूँगा। जब वृत्तियाँ मेरी हैं ही नहीं तो मेरेको भय किस बातका अब तो केवल भगवान्की कृपाहीकृपा है भगवान्की कृपा ही सर्वत्र परिपूर्ण हो रही है यह बड़ी खुशीकी? बड़ी प्रसन्नताकी बात है,कई ऐसी शङ्का करते हैं कि भगवान्के शरण होकर उनका भजन करनेसे तो द्वैत हो जायगा अर्थात् भगवान् और भक्त -- ये दो हो जायँगे और दूसरेसे भय होता है -- द्वितीयाद्वै भयं भवति (बृहदारण्यक0 1। 4। 2)। पर यह शङ्का निराधार है। भय द्वितीयसे तो होता है? पर आत्मीय से भय नहीं होता अर्थात भय दूसरेसे होता है? अपनेसे नहीं। प्रकृति और प्रकृतिका कार्य शरीरसंसार द्वितीय है? इसलिये इनसे सम्बन्ध रखनेपर ही भय होता है क्योंकि इनके साथ सदा सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। कारण यह है कि प्रकृति और पुरुषका स्वभाव सर्वथा भिन्नभिन्न है जैसे एक जड है और एक चेतन? एक विकारी है और एक निर्विकारी? एक परिवर्तनशील है और एक अपरिवर्तनशील? एक प्रकाश्य है और एक प्रकाशक? इत्यादि।भगवान् द्वितीय नहीं हैं। वे तो आत्मीय हैं क्योंकि जीव उनका सनातन अंश है? उनका स्वरूप है। अतः भगवान्के शरण होनेपर उनसे भय कैसे हो सकता है प्रत्युत उनके शरण होनेपर मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है। स्थूल दृष्टिसे देखा जाय तो बच्चेको माँसे दूर रहनेपर भय होता है? पर माँकी गोदमें चले जानेपर उसका भय मिट जाता है क्योंकि माँ उसकी अपनी है। भगवान्का भक्त इससे विलक्षण होता है। कारण कि बच्चे और माँमें तो भेदभाव दीखता है? पर भक्त और भगवान्में भेदभाव सम्भव ही नहीं।(2) निःशोक होना -- जो बात बीत चुकी है? उसको लेकर शोक होता है। बीती हुई बातको लेकर शोक करना बड़ी भारी भूल है क्योंकि जो हुआ है? वह अवश्यम्भावी था और जो नहीं होनेवाला है? वह कभी हो ही नहीं सकता तथा अभी जो हो रहा है? वह ठीकठीक (वास्तविक) होनेवाला ही हो रहा है? फिर उसमें शोक करनेकी कोई बात ही नहीं है (टिप्पणी प0 974.1)। प्रभुके इस मङ्गलमय विधानको जानकर शरणागत भक्त सदा निःशोक रहता है शोक उसके पास कभी आता ही नहीं।(3) निश्चिन्त होना -- जब भक्त अपनी मानी हुई वस्तुओंसहित अपनेआपको भगवान्के समर्पित कर देता है? तब उसको लौकिकपारलौकिक किञ्चिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती अर्थात् अभी जीवननिर्वाह कैसे होगा कहाँ रहना होगा मेरी क्या दशा होगी क्या गति होगी आदि चिन्ताएँ बिलकुल नहीं रहतीं (टिप्पणी प0 974.2)। भगवान्के शरण होनेपर शरणागत भक्तमें यह एक बात आती है कि अगर मेरा जीवन प्रभुके लायक सुन्दर और शुद्ध नहीं बना तो भक्तोंकी बात मेरे आचरणमें कहाँ आयी अर्थात् नहीं आयी क्योंकि मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं रहतीं। वास्तवमें मेरी वृत्तियाँ है ऐसा मानना ही दोष है? वृत्तियाँ उतनी दोषी नहीं हैं। मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदिमें जो मेरापन है -- यही गलती है क्योंकि जब मैं भगवान्के शरण हो गया और जब सब कुछ उनके अर्पण कर दिया? तो फिर मन? बुद्धि आदिकी अशुद्धिकी चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये अर्थात् मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं हैं -- ऐसा भाव कभी नहीं लाना चाहिये। किसी कारणवश अचानक ऐसी वृत्तियाँ आ भी जायँ तो आर्तभावसेहे मेरे नाथ हे मेरे प्रभो बचाओ बचाओ बचाओ ऐसे प्रभुको पुकारना चाहिये क्योंकि वे मेरे स्वामी हैं? मेरे सर्वप्रथम प्रभु हैं तो अब मैं चिन्ता क्यों करूँ और भगवान्ने भी कह दिया है कितू चिन्ता मत कर (मा शुचः)। अतः निश्चिन्त होकर मनसे भगवान्के चरणोंमें गिर जाय और भगवान्से कह दे -- हे नाथ यह सब आपके हाथकी बात है? आप जानें।सर्वप्रथम प्रभुके शरण भी हो गये और चिन्ता भी करें -- ये दोनों बातें बड़ी विरोधी हैं क्योंकि शरण हो गये तो चिन्ता कैसी और चिन्ता होती है तो शरणागति कैसी इसलिये शरणागतको ऐसा सोचना चाहिये कि जब,भगवान् यह कहते हैं किमैं सम्पूर्ण पापोंसे छुड़ा दूँगा? तो क्या ऐसी वृत्तियोंसे छूटनेके लिये मेरेको कुछ करना पड़ेगा मैं तो बस? आपका हूँ। हे भगवन् मेरेमें वृत्तियोंको अपना माननेका भाव कभी आये ही नहीं। हे नाथ शरीर? इन्द्रियाँ? प्राण? मन? बुद्धि -- ये कभी मेरे दीखें ही नहीं परन्तु हे नाथ सब कुछ आपको देनेपर भी ये शरीर आदि कभीकभी मेरे दीख जाते हैं अब इस अपराधसे मेरेको आप ही छुड़ाइये -- ऐसा कहकर निश्चिन्त हो जाय।(4) निःशङ्क होना -- भगवान्के सम्बन्धमें कभी यह सन्देह न करे कि मैं भगवान्का हुआ या नहीं भगवान्ने मुझे स्वीकार किया या नहीं प्रत्युत इस बातको देखे किमैं तो अनादिकालसे भगवान्का ही रहूँगा। मैंने ही अपनी मूर्खतासे अपनेको भगवान्से अलग -- विमुख मान लिया था। परन्तु मैं अपनेको भगवान्से कितना ही अलग मान लूँ तो भी उनसे अलग हो सकता ही नहीं और होना सम्भव भी नहीं। अगर मैं भगवान्से अलग होना भी चाहूँ? तो भी अलग कैसे हो सकता हूँ क्योंकि भगवान्ने कहा है कि यह जीव मेरा ही अंश है -- मम एव अंशः (गीता 15। 7)। इस प्रकारमैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं -- इस वास्तविकताकी स्मृति आते ही शङ्काएँ -- सन्देह मिट जाते हैं? शङ्काओं -- सन्देहोंके लिये किञ्चिन्मात्र भी गुंजाइश नहीं रहती।(5) परीक्षा न करना -- भगवान्के शरण होकर ऐसी परीक्षा न करे किजब मैं भगवान्के शरण हो गया हूँ तो मेरेमें ऐसेऐसे लक्षण घटने चाहिये। यदि ऐसेऐसे लक्षण मेरेमें नहीं हैं तो मैं भगवान्के शरण कहाँ हुआ प्रत्युतअद्वेष्टा आदि (गीता 12। 13 -- 19) गुणोंकी अपनेमें कमी दीखे तो आश्चर्य करे कि मेरेमें यह कमी कैसे रह गयी। (टिप्पणी प0 975) ऐसा भाव आते ही यह कमी नहीं रहेगी? मिट जायगी। कारण कि यह उसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पहले अद्वेष्टा आदि गुण जितने कम थे? उतने कम अब नहीं हैं। शरणागत होनेपर भक्तोंके जितने भी लक्षण हैं? वे सब बिना प्रयत्न किये जाते हैं।(6) विपरीत धारणा न करना -- भगवान्के शरणागत भक्तमें यह विपरीत धारणा भी कैसे हो सकती है किमैं भगवान्का नहीं हूँ क्योंकि यह मेरे मानने अथवा न माननेपर निर्भर नहीं है। भगवान्का और मेरा परस्पर जो सम्बन्ध है? वह अटूट है? अखण्ड है? नित्य है। मैंने इस सम्बन्धकी तरफ खयाल नहीं किया? यह मेरी गलती थी। अब वह गलती मिट गयी? तो फिर विपरीत धारणा हो ही कैसे सकती हैजो मनुष्य सच्चे हृदयसे प्रभुकी शरणागतिको स्वीकार कर लेता है? उसमें भय? शोक? चिन्ता आदि दोष नहीं रहते। उसका शरणभाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है जैसेविवाह होनेके बाद कन्याका अपने पिताके घरसे सम्बन्धविच्छेद और पतिके घरसे सम्बन्ध स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है। वह सम्बन्ध यहाँतक दृढ़ हो जाता है कि जब वह कन्या दादीपरदादी बन जाती है? तब उसको स्वप्नमें भी यह भाव नहीं आता कि मैं यहाँकी नहीं हूँ। उसके मनमें यह भाव दृढ़ हो जाता है कि मैं तो यहाँकी ही हूँ और ये सब मेरे ही हैं। जब उसके पौत्रकी स्त्री आती है और घरमें उद्दण्डता करती है? खटपट मचाती है तो वह (दादी) कहती है कि इस परायी जायी छोकरीने मेरा घर बिगाड़ दिया पर उस बूढ़ी दादीको यह बात याद ही नहीं आती कि मैं भी तो परायी जायी (पराये घरमें जन्मी) हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि जब बनावटी सम्बन्धमें भी इतनी दृढ़ता हो सकती है? तब भगवान्के ही अंश इस प्राणीका भगवान्के साथ जो नित्य सम्बन्ध है? वह दृढ़ हो जाय -- इसमें आश्चर्य ही क्या है वास्तवमें भगवान्के सम्बन्धकी दृढ़ताके लिये केवल संसारके माने हुए सम्बन्धों का त्याग करनेकी ही आवश्यकता है।सच्चे हृदयसे प्रभुके चरणोंकी शरण होनेपर उस शरणागत भक्तमें यदि किसी भाव? आचरण आदिकी किञ्चित कमी रह जाय? कभी विपरीत वृत्ति पैदा हो जाय अथवा किसी परिस्थितिमें पड़कर (परवशतासे) कभी किञ्चित् कोई दुष्कर्म हो जाय? तो उसके हृदयमें जलन पैदा हो जायगी। इसलिये उसके लिये अन्य कोई प्रायश्चित्त करनेकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् कृपा करके उसके उस पापको सर्वथा नष्ट कर देते हैं (टिप्पणी प0 976.1)।भगवान् भक्तके अपनेपनको ही देखते हैं? गुणों और अवगुणोंको नहीं (टिप्पणी प0 976.2) अर्थात् भगवान्को भक्तके दोष दीखते ही नहीं? उनको तो केवल भक्तके साथ जो अपनापन है? वही दीखता है। कारण कि स्वरूपसे भक्त सदासे ही भगवान्का है। दोष आगन्तुक होनेसे आतेजाते रहते हैं और वह नित्य निरन्तर ज्योंकात्यों ही रहता है। इसलिये भगवान्की दृष्टि सदा इस वास्तविकतापर ही जमी रहती है। जैसे? कीचड़ आदिसे सना हुआ बच्चा जब माँके सामने आता है? तब माँकी दृष्टि केवल अपने बच्चेकी तरफ जाती है बच्चेकी मैलेकी तरफ नहीं जाती। बच्चेकी दृष्टि भी मैलेकी तरफ नहीं जाती। माँ साफ करे या न करे? पर बच्चेकी दृष्टिमें तो मैला है ही नहीं? उसकी दृष्टिमें तो केवल माँ ही है। द्रौपदीके मनमें कितना द्वेष और क्रोध भरा हुआ था कि जब दुःशासनके खूनसे अपने केश धोऊँगी? तभी केशोंको बाँधूँगी परन्तु द्रौपदी जब भी भगवान्को पुकारती है? भगवान् चट आ चाते हैं क्योंकि भगवान्के साथ द्रौपदीका गाढ़ अपनापन था।भगवान्के साथ अपनापन होनेमें दो भाव रहते हैं -- (1) भगवान् मेरे हैं और (2) मैं भगवान् का हूँ। इन दोनोंमें भगवान्का सम्बन्ध समान रीतिसे रहते हुए भीभगवान् मेरे हैं -- इस भावमें भगवान्से अपनी अनुकूलताकी इच्छा है किभगवान् मेरे हैं तो मेरी इच्छाकी पूर्ति क्यों नहीं करते परन्तुमैं भगवान्का हूँ इस भावमें भगवान्से अपनी अनुकूलता की इच्छा नहीं हो सकती क्योंकिमैं भगवान्का हूँ तो भगवान् मेरे लिये जैसा ठीक समझें? वैसा ही निःसंकोच होकर करें। इसलिये साधकको चाहिये कि वह भगवान्की ही मरजीमें सर्वथा अपनी मरजी मिला दे? भगवान्पर अपना किञ्चित भी आधिपत्य न माने? प्रत्युत अपनेपर उनका पूरा आधिपत्य माने। कहीँ भी भगवान् हमारे मनकी करें तो उसमें संकोच हो कि मेरे लिये भगवान्को ऐसा करना पड़ा यदि अपने मनकी बात पूरी होनेसे संकोच नहीं होता? प्रत्युत संतोष होता है तो यह शरणागति नहीं है। शरणागत भक्त शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धिके प्रतिकूल परिस्थितिमें भी भगवान्की मरजी समझकर प्रसन्न रहता है।शरणागत भक्तको अपने लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी कुछ करना शेष नहीं रहता क्योंकि उसने सम्पूर्ण ममतावाली वस्तुओंसहित अपनेआपको भगवान्के समर्पित कर दिया जो वास्तवमें प्रभुका ही था। अब करने? कराने आदिका सब काम भगवान्का ही रह गया। ऐसी अवस्थामें वह कठिनसेकठिन और भयंकरसेभंयकर घटना? परिस्थितिमें भी अपनेपर प्रभुकी महान् कृपा देखकर सदा प्रसन्न रहता है मस्त रहता है। जैसे? गरुडजीके पूछनेपर काकभुशुण्डिजीने अपने पूर्वजन्मके ब्राह्मणशरीरकी कथा सुनायी? जिसमें लोमश ऋषिने शाप देकर उन्हें (ब्राह्मणको) पक्षियोंमें नीच चाण्डाल पक्षी (कौआ) बना दिया परन्तु काकभुशुण्डिजीके मनमें न कुछ भय हुआ और न कुछ दीनता ही आयी। उन्होंने उसमें भगवान्का शुद्ध विधान ही समझा। केवल समझा ही नहीं? प्रत्युत मनहीमन बोल उठे -- उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन (मानस 7। 113। 1)। ऐसा भयंकर शाप मिलनेपर भी जब काकभुशुण्डिजीकी प्रसन्नतामें कोई कमी नहीं आयी? तब लोमश ऋषिने उनको भगवान्का प्यारा भक्त समझकर अपने पास बुलाया और बालक रामजीका ध्यान बताया। फिर भगवान्की कथा सुनायी और अत्यन्त प्रसन्न होकर काकभुशुण्डिजीके सिरपर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया -- मेरी कृपासे तुम्हारे हृदयमें अबाध? अखण्ड रामभक्ति रहेगी। तुम रामजीके प्यारे हो जाओगे। तुम सम्पूर्ण गुणोंकी खान बन जाओगे। जिस रूपकी इच्छा करोगे? वह रूप धारण कर लोगे। जिस स्थानपर तुम रहोगे? उसमें एक योजनापर्यन्त मायाका कण्टक किञ्चिन्मात्र भी नहीं आयेगा आदिआदि। इस प्रकार बहुतसे आशीर्वाद देते ही आकाशवाणी हुई किहे ऋषे तुमने जो कुछ कहा? वह सब सच्चा होगा? यह मन? वाणी? कर्मसे मेरा भक्त है। इन्हीं बातोंको लेकर भगवान्के विधानमें सदा प्रसन्न रहनेवाले काकभुशुण्डिजीने कहा है --, भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महा रिषि साप। मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।। (मानस 7। 114 ख)यहाँभजन प्रताप शब्दोंका अर्थ है -- भगवान्के विधानमें हर समय प्रसन्न रहना। विपरीतसेविपरीत अवस्थामें भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिकसेअधिक बढ़ती रहती है क्योंकि प्रेमका स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है।यह नियम है कि जो चीज अपनी होती है? सदा ही अपनेको प्यारी लगती है। भगवान् सम्पूर्ण जीवोंको अपना प्रिय मानते हैं -- सब मम प्रिय सब मम उपजाए (मानस 7। 86। 2) और इस जीवको भी प्रभु स्वतः ही प्रिय लगते हैं। हाँ? यह बात दूसरी है कि यह जीव परिवर्तनशील संसार और शरीरको भूलसे अपना मानकर अपने प्यारे प्रभुसे विमुख हो जाता है। इसके विमुख होनेपर भी भगवान्ने अपनी तरफसे किसी भी जीवका त्याग नहीं किया है और न कभी त्याग कर ही सकते हैं। कारण कि जीव सदासे साक्षात् भगवान्का ही अंश है। इसलिये सम्पूर्ण जीवोंके साथ भगवान्की आत्मीयता अक्षुण्ण? अखणडितरूपसे स्वाभाविक ही बनी हुई है। इसीसे वे मात्र जीवोंपर कृपा करनेके लिये अर्थात् भक्तोंकी रक्षा? दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापना -- इन तीन बातोंके लिये समयसमयपर अवतार लेते हैं (गीता 4। 8)। इन तीनों बातोंमें केवल भगवान्की आत्मीयता ही टपक रही है? नहीं तो भक्तोंकी रक्षा? दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापनासे भगवान्का क्या प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भगवान् तो ये तीनों ही काम केवल प्राणिमात्रके कल्याणके लिये ही करते हैं। इससे भी प्राणिमात्रके साथ भगवान्की स्वाभाविक आत्मीयता? कृपालुता? प्रियता? हितैषिता? सुहृत्ता और निरपेक्ष उदारता ही सिद्ध होती है? और यहाँ भी इसी दृष्टिसे अर्जुनसे कहते हैं -- मद्भक्तो भव? मन्मना भव? मद्याजी भव? मां नमस्कुरु। इन चारों बातोंमें भगवान्का तात्पर्य केवल जीवको अपने सम्मुख करानेमें ही है? जिससे सम्पूर्ण जीव असत् पदार्थोंसे विमुख हो जायँ क्योंकि दुःख? संताप? बारबार जन्मनामरना? मात्र विपत्ति आदिमें मुख्य हेतु भगवान्से विमुख होना ही है।भगवान् जो कुछ भी विधान करते हैं? वह संसारमात्रके सम्पूर्ण जीवोंके कल्याणके लिये ही करते हैं -- बस? भगवान्की इस कृपाकी तरफ जीवकी दृष्टि हो जाय? तो फिर उसके लिये क्या करना बाकी रहा जीवोंके हितके लिये भगवान्के हृदयमें एक तड़पन है? इसीलिये भगवान् सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज वाली अत्यन्त गोपनीय बात कह देते हैं। कारण कि भगवान् जीवमात्रको अपना मित्र मानते हैं -- सुहृदं सर्वभूतानाम् (5। 29) और उन्हें यह स्वतन्त्रता देते हैं कि वे कर्मयोग? ज्ञानयोग? भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं? उनमेंसे किसी भी साधनके द्वारा सुगमतापूर्वक मेरी प्राप्ति कर सकते हैं और दुःख? संताप,आदिको सदाके लिये समूल नष्ट कर सकते हैं।वास्तवमें जीवका उद्धार केवल भगवत्कृपासे ही होता है। कर्मयोग? ज्ञानयोग? भक्तियोग? अष्टाङ्गयोग? लययोग? हठयोग? राजयोग? मन्त्रयोग आदि जितने भी साधन हैं? वे सबकेसब भगवान्के द्वारा और भगवत्तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा ही प्रकट किये गये हैं (टिप्पणी प0 977.1)। अतः इन सब साधनोंमें भगवत्कृपा ही ओतप्रोत है। साधन करनेमें तो साधक निमित्तमात्र होता है? पर साधनकी सिद्धिमें भगवत्कृपा ही मुख्य है।शरणागत भक्तको तो ऐसी चिन्ता भी कभी नहीं करनी चाहिये कि अभी भगवान्के दर्शन नहीं हुए? भगवान्के चरणोंमें प्रेम नहीं हुआ? अभी वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईँ? आदि। इस प्रकारकी चिन्ताएँ करना मानो बँदरीका बच्चा बनना है। बँदरीका बच्चा स्वयं ही बँदरीको पकड़े रहता है। बँदरी कूदेफाँदे? किधर भी जाय? बच्चा स्वयं बँदरीसे चिपका रहता है।भक्तको तो अपनी सब चिन्ताएँ भगवान्पर ही छोड़ देनी चाहिये अर्थात् भगवान् दर्शन दें या न दें? प्रेम दें या न दें? वृत्तियोंको ठीक करें या न करें? हमें शुद्ध बनायें या न बनायें -- यह सब भगवान्की मरजीपर छोड़ देना चाहिये। उसे तो बिल्लीका बच्चा बनना चाहिये। बिल्लीका बच्चा अपनी माँपर निर्भर रहता है। बिल्ली चाहे जहाँ रखे? चाहे जहाँ ले जाय। बिल्ली अपनी मरजीसे बच्चेको उठाकर ले जाती है तो वह पैर समेट लेता है। ऐसे ही शरणागत भक्त संसारकी तरफसे अपने हाथपैर समेटकर (टिप्पणी प0 977.2) केवल भगवान्का चिन्तन? नामजप आदि करते हुए भगवान्की तरफ ही देखता रहता है। भगवान्का जो विधान है? उसमें परम प्रसन्न रहता है? अपने मनकी कुछ भी नहीं लगाता।जैसे? कुम्हार पहले मिट्टीको सिरपर उठाकर लाता है तो कुम्हारकी मरजी? फिर उस मिट्टीको गीला करके उसे रौंदता है तो कुम्हारकी मरजी? फिर चक्केपर चढ़ाकर घुमाता है तो कुम्हारकी मरजी। मिट्टी कभी कुछ नहीं कहती कि तुम घड़ा बनाओ? सकोरा? मटकी बनाओ। कुम्हार चाहे जो बनाये? उसकी मरजी है। ऐसे ही शरणागत भक्त अपनी कुछ भी मरजी? मनकी बात नहीं रखता। वह जितना अधिक निश्चिन्त और निर्भय होता है? भगवत्कृपा उसको अपनेआप उतना ही अधिक अपने अनुकूल बना लेती है और जितनी वह चिन्ता करता है? अपना बल मानता है? उतना ही वह आती हुई भगवत्कृपामें बाधा लगाता है अर्थात् शरणागत होनेपर भगवान्की ओरसे जो विलक्षण? विचित्र? अखण्ड? अटूट कृपा आती है? अपनी चिन्ता करनेसे उस कृपामें बाधा लग जाती है।जैसे धीवर (मछुआ) मछलियोंको पकड़नेके लिये नदीमें जाल डालता है तो जालके भीतर आनेवाली सब मछलियाँ पकड़ी जाती हैं परन्तु जो मछली जाल डालनेवाले मछुएके चरणोंके पास आ जाती है? वह नहीं पकड़ी जाती। ऐसे ही भगवान्की माया(संसार) में ममता करके जीव फँस जाते हैं और जन्मतेमरते रहते हैं परन्तु जो जीव मायापति भगवान्के चरणोंकी शरण हो जाते हैं? वे मायाको तर जाते हैं -- मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते (गीता 7। 14)। इस दृष्टान्तका एक ही अंश ग्रहण करना चाहिये क्योंकि धीवरका तो मछलियोंको जालमें फँसानेका भाव होता है परन्तु भगवान्का जीवोंको मायामें फँसानेका किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं होता। भगवान्का भाव तो जीवोंको मायाजालसे मुक्त करके अपने शरण लेनेका होता है? तभी तो वे कहते हैं -- मामेकं शरणं व्रज। जीव संयोगजन्य सुखकी लोलुपतासे खुद ही मायासे फँस जाते हैं।जैसे चलती हुई चक्कीके भीतर आनेवाले सभी दाने पिस जाते हैं (टिप्पणी प0 978) परन्तु जिसके आधारपर चक्की चलती है? उस कीलके आसपास रहनेवाले दाने ज्योंकेत्यों साबूत रह जाते हैं। ऐसे ही जन्ममरणरूप संसारकी चलती हुई चक्कीमें पड़े हुए सबकेसब जीव पिस जाते हैं अर्थात् दुःख पाते हैं,परन्तु जिसके आधारपर संसारचक्र चलता है? उन भगवान्के चरणोंका सहारा लेनेवाला जीव पिसनेसे बच जाता है -- कोई हरिजन ऊबरे? कील माकड़ी पास। परन्तु यह दृष्टान्त भी पूरा नहीं घटता क्योंकि दाने तो स्वाभाविक ही कीलके पास रह जाते हैं। वे बचनेका कोई उपाय नहीं करते। परन्तु भगवान्के भक्त संसारसे विमुख होकर प्रभुके चरणोंका आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भगवान्का अंश होकर भी संसारको अपना मानता है अथवा संसारसे कुछ चाहता है? वही जन्ममरणरूप चक्रमें पड़कर दुःख भोगता है।संसार और भगवान् -- इन दोनोंका सम्बन्ध दो तरहका होता है। संसारका सम्बन्ध केवल माना हुआ है और भगवान्का सम्बन्ध वास्तविक है। संसारका सम्बन्ध तो मनुष्यको पराधीन बनाता है? गुलाम बनाता है? पर भगवान्का सम्बन्ध मनुष्यको स्वाधीन बनाता है? चिन्मय बनाता है और बनाता है भगवान्का भी मालिककिसी बातको लेकर अपनेमें कुछ भी विशेषता दीखती है? यही वास्तवमें पराधीनता है। यदि मनुष्य विद्या? बुद्धि? धनसम्पत्ति? त्याग? वैराग्य आदि किसी बातको लेकर अपनी विशेषता मानता है तो यह उस विद्या आदिकी पराधीनता? दासता ही है। जैसे? कोई धनको लेकर अपनेमें विशेषता मानता है तो यह विशेषता वास्तवमें धनकी ही हुई? खुदकी नहीं। वह अपनेको धनका मालिक मानता है? पर वास्तवमें वह धनका गुलाम है।संसारका यह कायदा है कि सांसारिक पदार्थोंको लेकर जो अपनेमें कुछ विशेषता मानता है? उसको ये सांसारिक पदार्थ तुच्छ बना देते हैं? पददलित कर देते हैं। परन्तु जो भगवान्के आश्रित होकर सदा भगवान्पर ही निर्भर रहता है? उसको अपनी कुछ विशेषता दीखती ही नहीं? प्रत्युत भगवान्की ही अलौकिकता? विलक्षणता? विचित्रता दीखती है। भगवान् चाहे उसको अपना मुकुटमणि बना लें और चाहे अपना मालिक बना लें? तो भी उसको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती। प्रभुका यह कायदा है कि जिस भक्तको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती? अपनेमें किसी बातका अभिमान नहीं होता? उस भक्तमें भगवान्की विलक्षणता उतर आती है। किसीकिसीमें यहाँ तक विलक्षणता उतर आती है कि उसके शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थ भी चिन्मय बन जाते हैं। उनमें जडताका अत्यन्त अभाव हो जाता है। ऐसे भगवान्के कई प्रेमी भक्त भगवान्में ही समा गये? अन्तमें उनके शरीर नहीं मिले। जैसे मीराबाई शरीरसहित भगवान्के श्रीविग्रहमें लीन हो गयीं। केवल पहचानके लिये उनकी साड़ीका छोटासा छोर श्रीविग्रहके मुखमें रह गया और कुछ नहीं बचा। ऐसे ही सन्त श्रीतुकारामजी शरीरसहित वैकुण्ठ चले गये।ज्ञानमार्गमें शरीर चिन्मय नहीं होता क्योंकि ज्ञानी असत्से सम्बन्धविच्छेद करके? असत्से अलग होकर स्वयं चिन्मय तत्त्वमें स्थित हो जाता है। परन्तु जब भक्त भगवान्के सम्मुख होता है? तब उसके शरीर? इन्द्रियाँ? मन? प्राण आदि सभी भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जिनकी दृष्टि केवल चिन्मय तत्त्वपर ही है अर्थात् जिनकी दृष्टिमें चिन्मय तत्त्वसे भिन्न जडताकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं होती? तो वह चिन्मयता उनके शरीर आदिमें भी उतर आती है और वे शरीर आदि चिन्मय हो जाते हैं। हाँ? लोगोंकी दृष्टिमें तो उनके शरीरमें जडता दीखती है? पर वास्तवमें उनके शरीर चिन्मय ही होते हैं।भगवान्के सर्वथा शरण हो जानेपर शरणागतके लिये भगवान्की कृपा तो विशेषतासे प्रकट होती ही है? पर मात्र संसारका स्नेहपूर्वक पालन करनेवाली और भगवान्से अभिन्न रहनेवाली वात्सल्यमयी माता लक्ष्मीका प्रभुशरणागतपर कितना अधिक स्नेह होता है वे कितना अधिक प्यार करती हैं? इसका कोई भी वर्णन नहीं कर सकता। लौकिक व्यवहारमें भी देखनेमें आता है कि पतिव्रता स्त्रीको पितृभक्त पुत्र बहुत प्यारा लगता है।दूसरी बात? प्रेमभावसे परिपूरित प्रभु जब अपने भक्तको देखनेके लिये गरुडपर बैठकर पधारते हैं? तब माता लक्ष्मी भी प्रभुके साथ गरुडपर बैठकर आती हैं? जिस गरुडकी पाँखोंसे सामवेदके मन्त्रोंका गान होता रहता,है परन्तु कोई भगवान्को न चाहकर केवल माता लक्ष्मीको ही चाहता है? तो उसके स्नेहके कारण माता लक्ष्मी आ तो जाती हैं? पर उनका वाहन दिवान्ध उल्लू होता है। ऐसे वाहनवाली लक्ष्मीको प्राप्त करके मनुष्य भी मदान्ध हो जाता है। अगर उस माँको कोई भोग्या समझ लेता है तो उनका बड़ा भारी पतन हो जाता है क्योंकि वह तो अपनी माँको ही कुदृष्टिसे देखता है? इसलिये वह महान् अधम है।तीसरी बात? जहाँ केवल भगवान्का प्रेम होता है? वहाँ तो भगवान्से अभिन्न रहनेवाली लक्ष्मी भगवान्के साथ आ ही जाती हैं? पर जहाँ केवल लक्ष्मीकी चाहना है? वहाँ लक्ष्मीके साथ भगवान् भी आ जायँ -- यह नियम नहीं है।शरणागतिके विषयमें एक कथा आती है। सीताजी? रामजी और हनुमान्जी जंगलमें एक वृक्षके नीचे बैठे थे। उस वृक्षकी शाखाओं और टहनियोंपर एक लता छायी हुई थी। लताके कोमलकोमल तन्तु फैल रहे थे। उन तन्तुओंमें कहींपर नयीनयी कोपलें निकल रही थीं और कहींपर ताम्रवर्णके पत्ते निकल रहे थे। पुष्प और पत्तोंसे लता छायी हुई थी। उससे वृक्षकी सुन्दर शोभा हो रही थी। वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था। उस वृक्षकी शोभाको देखकर भगवान् श्रीराम हनुमान्जीसे बोले -- देखो हनुमान् यह लता कितनी सुन्दर है वृक्षके चारों ओर कैसी छायी हुई है यह लता अपने सुन्दरसुन्दर फल? सुगन्धित फूल और हरीभरी पत्तियोंसे इस वृक्षकी कैसी शोभा बढ़ा रही है इससे जंगलके अन्य सब वृक्षोंसे यह वृक्ष कितना सुन्दर दीख,रहा है इतना ही नहीं? इस वृक्षके कारण ही सारे जंगलकी शोभा हो रही है। इस लताके कारण ही पशुपक्षी इस वृक्षका आश्रय लेते हैं। धन्य है यह लताभगवान् श्रीरामके मुखसे लताकी प्रसंशा सुनकर सीताजी हनुमान्जीसे बोलीं -- देखो बेटा हनुमान् तुमने खयाल किया कि नहीं देखो? इस लताका ऊपर चढ़ जाना? फूलपत्तोंसे छा जाना? तन्तुओंका फैल जाना -- ये सब वृक्षके आश्रित हैं? वृक्षके कारण ही हैं। इस लताकी शोभा भी वृक्षके ही कारण हैं। इसलिये मूलमें महिमा तो वृक्षकी ही है। आधार तो वृक्ष ही है। वृक्षके सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है कैसे छा सकती है अब बोलो हनुमान् तुम्हीं बातओ? महिमा वृक्षकी ही हुई न रामजीने कहा -- क्यों हनुमान् यह महिमा तो लताकी ही हुई न, हनुमान्जी बोले -- हमें तीसरी ही बात सूझती है। सीताजीने पूछा -- वह क्या है बेटा हनुमान्जीने कहा -- माँ वृक्ष और लताकी छाया बड़ी सुन्दर है। इसलिये हमें तो इन दोनोंकी छायामें रहना ही अच्छा लगता है अर्थात् हमें तो आप दोनोंकी छाया(चरणोंके आश्रय) में रहना ही अच्छा लगता हैसेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।। (मानस 4। 3। 2)ऐसे ही भगवान् और उनकी दिव्य आह्लादिनी शक्ति -- दोनों ही एकदूसरेकी शोभा बढ़ाते हैं। परन्तु कोई तो उन दोनोंको श्रेष्ठ बताता है? कोई केवल भगवान्को श्रेष्ठ बताता है और कोई केवल उनकी आह्लादिनी शक्तिको श्रेष्ठ बताता है। शरणागत भक्तके लिये तो प्रभु और उनकी आह्लादिनी शक्ति -- दोनोंका आश्रय ही श्रेष्ठ है।एक बार एक प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन) संत हाथमें लाठी पकड़े हुए यमुनाके किनारेकिनारे चले जा रहे थे। नदीमें बाढ़ आयी हुई थी। उससे एक जगह यमुनाका किनारा पानीमें गिर पड़ा तो बाबाजी भी पानीमे गिर पड़े।,हाथसे लाठी छूट गयी थी। दीखता तो था ही नहीं? अब तैरें तो किधर तैरें भगवान्की शरणागतिकी बात याद आते ही प्रयासरहित होकर शरीरको ढीला छोड़ दिया तो उनको ऐसा लगा कि किसीने हाथ पकड़कर किनारेपर डाल दिया। वहाँ दूसरी कोई लाठी हाथमें आ गयी और उसके सहारे वे चले पड़े। तात्पर्य यह है कि जो भगवान्के शरण होकर भगवान्पर निर्भर रहता है? उसको अपने लिये करना कुछ नहीं रहता। भगवान्के विधानसे जो हो जाय? उसीमें वह प्रसन्न रहता है।बहुतसी भेड़बकरियाँ जंगलमें चरने गयीं। उनमेंसे एक बकरी चरतेचरते एक लतामें उलझ गयी। उसको उस लतामें निकलनेमें बहुत देर लगी? तबतक अन्य सब भेड़बकरियाँ अपने घर पहुँच गयीं। अँधेरा भी हो रहा था। वह बकरी घूमतेघूमते एक सरोवरके किनारे पहुँची। वहाँ किनारेकी गीली जमीनपर सिंहका एक चरणचिन्ह अङ्कित था। वह उस चरणचिन्हके शरण होकर उसके पास बैठ गयी। रातमें जंगली सियार? भेड़िया? बाघ आदि प्राणी बकरीको खानेके लिये पासमें आये तो उस बकरीने बता दिया किपहले देख लेना कि मैं किसके शरणमें हूँ? तब मुझे खाना वे चिन्हको देखकर कहने लगे -- अरे? यह तो सिंहके चरणचिन्हके शरण है? जल्दी भागो यहाँसे सिंह आ जायगा तो हमको मार डालेगा। इस प्रकार सभी प्राणी भयभीत होकर भाग गये। अन्तमें जिसका चरणचिन्ह था? वह सिंह स्वयं आया और बकरीसे बोला -- तू जंगलमें अकेली कैसे बैठी है बकरीने कहा -- यह चरणचिन्ह देख लेना? फिर बात करना। जिसका यह चरणचिन्ह है? उसीके मैं शरण हुए बैठी हूँ। सिंहने देखा किओह यह तो मेरा ही चरण चिन्ह है? यह,बकरी तो मेरे ही शरण हुई सिंहने बकरीको आश्वासन दिया कि अब तुम डरो मत? निर्भय होकर रहो।रातमें जब जल पीनेके लिये हाथी आया तो सिंहने हाथीसे कहा -- तू इस बकरीको पीठपर चढ़ा ले इसको जंगलमें चराकर लाया कर और हरदम अपनी पीठपर ही रखा कर? नहीं तो तू जानता नहीं कि मैं कौन हूँ मार डालूँगा सिंहकी बात सुनकर हाथी थरथर काँपने लगा उसने अपनी सूँडसे झट बकरीको पीठपर चढ़ा लिया। अब वह बकरी निर्भय होकर हाथीकी पीठपर बैठेबैठे ही वृक्षोंकी ऊपरकी कोंपलें खाया करती और मस्त रहती। खोज पकड़ सैंठे रहो? धणी मिलेंगे आय। अजया गज मस्तक चढ़े? निर्भय कोंपल खाय।।ऐसे ही जब मनुष्य भगवान्के शरण हो जाता है? उनके चरणोंका सहारा ले लेता है? तब वह सम्पूर्ण प्राणियोंसे? विघ्नबाधाओंसे निर्भय हो जाता है। उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता? उसका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जो जाको शरणो गहै? ताकहँ ताकी लाज। उलटे जल मछली चले? बह्यो जात गजराज।।भगवान्के साथ काम? भय? द्वेष? क्रोध? स्नेह आदिसे भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय? वह भी जीवका कल्याण करनेवाला ही होता है (टिप्पणी प0 980)। तात्पर्य यह हुआ कि काम? भय? द्वेष आदि किसी तरहसे भी जिनका भगवान्के साथ सम्बन्ध जुड़ गया? उनका तो उद्धार हो ही गया? पर जिन्होंने किसी तरहसे भी भगवान्के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा? उदासीन ही रहे? वे भगवत्प्राप्तिसे वञ्चित रह गये भगवान्के अनन्य भक्तोंके लिये नारदजीने कहा --, नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः। (नारदभक्तिसूत्र 72)उन भक्तोंमें जाति? विद्या? रूप? कुल? धन? क्रिया आदिका भेद नहीं है।तात्पर्य यह है कि स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरको लेकर सांसारिक जितने भी जाति? विद्या आदि भेद हो सकते हैं? वे सब उनपर लागू नहीं होते जो सर्वथा भगवान्के अर्पित हो गये हैं (टिप्पणी प0 981.1)। कारण कि वे अच्युत भगवान्के ही हैं -- यतस्तदीयाः (नारदभक्तिसूत्र 73)? संसारके नहीं। अच्युत भगवान्के होनेसे वेअच्युत गोत्र के ही कहलाते हैं (टिप्पणी प0 981.2)।शरणागतिका रहस्यशरणागतिका रहस्य क्या है -- इसको वास्तवमें भगवान् ही जानते हैं। फिर भी अपनी समझमें आयी बात कहनेकी चेष्टा की जाती है क्योंकि हरेक आदमी जो बात कहता है? उससे वह अपनी बुद्धिका ही परिचय देता है। पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे यहाँ आयी बातोंका उलटा अर्थ न निकालें क्योंकि प्रायः लोग किसी तात्त्विक रहस्यवाली बातको गहराईसे समझे बिना उसका उलटा अर्थ जल्दी निकाल लेते हैं? इसलिये ऐसी बातको कहनेसुननेके पात्र बहुत कम होते हैं।भगवान्ने गीतामें शरणागतिके विषयमें दो बातें बतायी हैं --, (1) मामेकं शरणं व्रज (18। 66)अनन्यभावसे केवल मेरी शरणमें आ जा। (2) स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत (15। 19)वह सर्वज्ञ पुरुष सर्वभावसे मेरा भजन करता है? तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत (18। 62)तू सर्वभावसे उस परमात्माकी शरणमें जा।हम भगवान्के शरण कैसे हो जायँ केवल एक भगवान्के शरण हो जायँ अर्थात् भगवान्के गुण? ऐश्वर्य आदिकी तरफ दृष्टि न रखें और सर्वभावसे भगवान्के शरण हो जायँ अर्थात् साथमें अपनी कोई सांसारिक कामना न रखें।केवल एक भगवान्के शरण होनेका रहस्य यह है कि भगवान्के अनन्त गुण हैं? प्रभाव हैं? तत्त्व हैं? रहस्य हैं? महिमा है? लीलाएँ हैं? नाम हैं? धाम हैं भगवान्का अनन्त ऐश्वर्य है? माधुर्य है? सौन्दर्य है -- इन विभूतियोंकी तरफ शरणागत भक्त देखता ही नहीं। उसका यही एक भाव रहता है किमैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं। अगर वह गुण? प्रभाव आदिकी तरफ देखकर भगवान्की शरण लेता है? तो वास्तवमें वह गुण? प्रभाव आदिके ही शरण हुआ? भगवान्के शरण नहीं हुआ। परन्तु इन बातोंका उलटा अर्थ न लगा लें।उलटा अर्थ लगाना क्या है भगवान्के गुण? प्रभाव? नाम? धाम? ऐश्वर्य? माधुर्य? सौन्दर्य आदिको मानना ही नहीं है? इनकी तरफ जाना ही नहीं है। अब कुछ करना है ही नहीं? न भजन करना है? न भगवान्के गुण? प्रभाव? लीला आदि सुननी है? न भगवान्के धाममें जाना है -- यह उलटा अर्थ लगाना है। इनका ऐसा अर्थ लगाना महान् अनर्थ करना है।केवल एक भगवान्के शरण होनेका तात्पर्य है -- केवल भगवान् मेरे हैं। अब वे ऐश्वर्यसम्पन्न हैं तो बड़ी अच्छी बात और उनमें कुछ भी ऐश्वर्य नहीं है तो बड़ी अच्छी बात। वे बड़े दयालु हैं तो बड़ी अच्छी बात और इतने निष्ठुर? कठोर हैं कि उनके समान दुनियामें कोई कठोर है ही नहीं? तो बड़ी अच्छी बात। उनका बड़ा भारी प्रभाव है तो बड़ी अच्छी बात और उनमें कोई प्रभाव नहीं है तो बड़ी अच्छी बात। शरणागतमें इन बातोंकी कोई परवाह नहीं होती। उसका तो एक ही भाव रहता है कि भगवान् जैसे भी हैं? मेरे हैं (टिप्पणी प0 982.1)। भगवान् की इन बातोंकी परवाह न होनेसे भगवान्का ऐश्वर्य? माधुर्य? सौन्दर्य? गुण? प्रभाव आदि चले जायँगे? ऐसी बात नहीं है। पर हम उनकी परवाह नहीं करेंगे? तो हमारी असली शरणागति होगी।जहाँ गुण? प्रभाव आदिको लेकर भगवान्के शरण होते हैं? वहाँ केवल भगवान्के शरण नहीं होते? प्रत्युत गुण? प्रभाव आदिके ही शरण होते हैं जैसे -- कोई रुपयोंवाले आदमीका आदर करे तो वास्तवमें वह आदर उस आदमीका नहीं? रुपयोंका है। किसी मिनिस्टरका कितना ही आदर किया जाय तो वह आदर उसका नहीं? मिनिस्टरी(पद) का है। किसी बलवान् व्यक्तिका आदर किया जाय तो वह उसके बलका आदर है? उसका खुदका आदर नहीं है। परन्तु अगर कोई केवल व्यक्ति(धनी आदि) का आदर करे तो इससे धनीका धन या मिनिस्टरकी मिनिस्टरी चली जायगी -- यह बात नहीं है। वह तो रहेगी ही। ऐसे ही केवल भगवान्के शरण होनेसे भगवान्के गुण? प्रभाव आदि चले जायँगे -- ऐसी बात नहीं है। परन्तु हमारी दृष्टि तो केवल भगवान्पर ही रहनी चाहिये? उनके गुणों आदिपर नहीं।सप्तर्षियोंने जब पार्वतीजीके सामने शिवजीके अनेक अवगुणोंका और विष्णुके अनेक सद्गुणोंका वर्णन करते हुए उनको शिवजीका त्याग करनेके लिये कहा? तब पार्वतीजीने उनको यही उत्तर दिया -- महादेव अवगुन भवन विष्नु सकल गुन धाम। जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।। (मानस 1। 80)ऐसी ही बात गोपियोंने भी उद्धवजीसे कही थी --, ऊधौ मन माने की बात। दाख छोहारा छाड़ि अमृतफल? बिषकीरा बिष खात।। जो चकोर को दै कपूर कोउ?, तजि अंगार अघात। मधुप करत घर कोरे काठमें?, बँधत कमल के पात।। ज्यों पतंग हित जान आपनो?, दीपक सों लपटात। सूरदास जाको मन जासों? ताको सोइ सुहात।।भगवान्के प्रभाव आदिकी तरफ देखनेवालेको? उससे प्रेम करनेवालेको मुक्ति? ऐश्वर्य आदि तो मिल सकता है? पर भगवान् नहीं मिल सकते। भगवान्के प्रभावकी तरफ न देखनेवाला भगवत्प्रेमी भक्त ही भगवान्को पा सकता है। इतना ही नहीं? वह प्रेमीभक्त भगवान्को बाँध भी सकता है? उनकी बिक्री भी कर सकता है भगवान् देखते हैं कि वह मेरेसे प्रेम करता है? मेरे प्रभावकी तरफ देखतातक नहीं? तो भगवान्के मनमें उसका बड़ा आदर होता है।प्रभावकी तरफ देखना यह सिद्ध करता है कि हमारेमें कुछ पानेकी कामना है। हमारे मनमें उन कामनावाले पदार्थका आदर है। जबतक हमारे मनमें उस कामनावाले पदार्थका आदर है। जबतक हमारे मनमें कामना है? तबतक हम प्रभावको देखते हैं। अगर हमारे मनमें कोई कामना न रहे तो भगवान्के प्रभाव? ऐश्वर्यकी तरफ हमारी दृष्टि नहीं जायगी। केवल भगवान्की तरफ दृष्टि होगी तो हम भगवान्के शरण हो जायँगे? भगवान्के अपने हो जायँगे।पूतना राक्षसीने जहर लगाकर स्तन मुखमें दिया तो उसको भगवान्ने माताकी गति दे दी (टिप्पणी प0 982.2) अर्थात् जो मुक्ति यशोदा मैयाको मिले? वह मुक्ति पूतनाको मिल गयी। जो मुखमें जहर देती है? उसे,तो भगवान्ने मुक्ति दे दी। अब जो रोजाना दूध पिलाती है? उस मैयाको भगवान् क्या दें तो अनन्त जीवोंको मुक्ति देनेवाले भगवान् मैयाके अधीन हो गये? उन्हें अपनेआपको ही दे दिया मैयाके इतने वशीभूत हो गये कि मैया छड़ी दिखाती है तो वे डरकर रोने रग जाते हैं कारण कि मैयाकी भगवान्के प्रभाव? ऐश्वर्यकी तरफ दृष्टि ही नहीं है। इस प्रकार जो भगवान्से मुक्ति चाहता है? उसे भगवान् मुक्ति दे देते हैं? पर जो कुछ भी नहीं चाहता? उसे भगवान् अपनेआपको ही दे देते हैं।सर्वभावसे भगवान्के शरण होनेका रहस्य यह है कि हमारा शरीर अच्छा है? इन्द्रियाँ वशमें हैं? मन शुद्धनिर्मल है? बुद्धिसे हम ठीक जानते हैं? हम पढ़ेलिखे हैं? हम यशस्वी हैं? हमारा संसारमें मान है -- इस प्रकारहम भी कुछ हैं ऐसा मानकर भगवान्के शरण होना शरणागति नहीं है। भगवान्के शरण होनेके बाद शरणागतको ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिये कि हमारा शरीर ऐसा होना चाहिये हमारी बुद्धि ऐसी होनी चाहिये हमारा मन ऐसा होना चाहिये हमारा ऐसा ध्यान लगना चाहिये हमारी ऐसी भावना होनी चाहिये हमारे जीवनमें ऐसे लक्षण आने चाहिये हमारे ऐसे आचरण होने चाहिये हमारेमें ऐसा प्रेम होना चाहिये कि कथाकीर्तन सुननेपर आँसू बहने लगें? कण्ठ गद्गद हो जाय पर ऐसा हमारे जीवनमें हुआ ही नहीं तो हम भगवान्के शरण कैसे हुए आदिआदि। ये बातें अनन्य शरणागतिकी कसौटी नहीं हैं। जो अनन्य शरण हो जाता है? वह यह देखता ही नहीं कि शरीर बीमार है कि स्वस्थ है मन चञ्चल है कि स्थिर है बुद्धिमें जानकारी है कि अनजानपना है अपनेमें मूर्खता है कि विद्वत्ता है योग्यता है कि अयोग्यता है आदि। इन सबकी तरफ वह स्वप्नमें भी नहीं देखता क्योंकि उसकी दृष्टिमें ये सब चीजें कूड़ाकरकट हैं? जिन्हें अपने साथ नहीं लेना है। यदि इन चीजोंकी तरफ देखेगा तो अभिमान ही बढ़ेगा कि मैं भगवान्का शरणागत भक्त हूँ अथवा निराश होना पड़ेगा कि मैं भगवान्के शरण तो हो गया? पर भक्तोंके गुण (गीता 12। 13 -- 19) तो मेरेमें आये ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि अगर अपनेमें भक्तोंके गुण दिखायी देंगे तो उनका अभिमान हो जायगा और अगर नहीं दिखायी देंगे तो निराशा हो जायगी। इसलिये यही अच्छा है कि भगवान्के शरण होनेके बाद इन गुणोंकी तरफ भूलकर भी नहीं देखें। इसका यह उलटा अर्थ न लगा लें कि हम चाहे वैरविरोध करें? चाहे द्वेष करें? चाहे ममता करें? चाहे जो कुछ करें यह अर्थ बिलकुल नहीं है। तात्पर्य है कि इन गुणोंकी तरफ खयाल ही नहीं होना चाहिये। भगवान्के शरण होनेवाले भक्तमें ये सबकेसब गुण अपनेआप ही आयेंगे? पर इनके आने या न आनेसे उसको कोई मतलब नहीं रखना चाहिये। अपनेमें ऐसी कसौटी नहीं लगानी चाहिये कि अपनेमें ये गुण या लक्षण हैं या नहीं।सच्चा शरणागत भक्त तो भगवान्के गुणोंकी तरफ भी नहीं देखता और अपने गुणोंकी तरफ भी नहीं देखता। वह भगवान्के ऊँचेऊँचे प्रेमियोंकी तरफ भी नहीं देखता कि ऊँचे प्रेमी ऐसेऐसे होते हैं? तत्त्वको जाननेवाले जीवन्मुक्त ऐसेऐसे होते हैं।प्रायः लोग ऐसी कसौटी लगाते हैं कि यह भगवान्का भजन करता है तो बीमार कैसे हो गया भगवान्का भक्त हो गया तो उसको बुखार क्यों आ गया उसपर दुःख क्यों आ गया उसका बेटा क्यों मर गया उसका धन क्यों चला गया उसका संसारमें अपयश क्यों हो गया उसका निरादर क्यों हो गया आदिआदि। ऐसी कसौटी लगाना बिलकुल फालतू बात है? बड़े नीचे दर्जेकी बात है। ऐसे लोगोंको क्या समझायें वे सत्सङ्गके नजदीक ही नहीं आये? इसीलिये उनको इस बातका पता ही नहीं है कि भक्ति क्या होती है शरणागति क्या होती है वे इन बातोंको समझ ही नहीं सकते। परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि भगवान्का भक्त दरिद्र होता ही है? उसका संसारमें अपमान होती ही है? उसकी निन्दा होती ही है। शरणागत भक्तको तो निन्दाप्रशंसा? रोगनिरोगअवस्था आदिसे कोई मतलब ही नहीं होता। इनकी तरफ वह देखता ही नहीं। वह यही देखता है कि मैं हूँ और भगवान् हैं? बस। अब संसारमें क्या है? क्या नहीं है? त्रिलोकीमें क्या है? क्या नहीं है? प्रभु ऐसे हैं? वे उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय करनेवाले हैं -- इन बातोंकी तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं।किसीने एक सन्त से पूछा -- आप किस भगवान्के भक्त हैं जो उत्पत्ति? स्थिति? प्रलय करते हैं? उनके भक्त हैं क्या तो उस सन्तने उत्तर दिया -- हमारे भगवान्का तो उत्पत्ति? स्थिति? प्रलयके साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं। यह तो हमारे प्रभुका ऐश्वर्य है। यह कोई विशेष बात नहीं है। शरणागत भक्तको ऐसा होना चाहिये। ऐश्वर्य आदिकी तरफ उसकी दृष्टि ही नहीं होनी चाहिये।ऋषिकेशमें गङ्गाजीके किनारे शामको सत्सङ्ग हो रहा था। गरमी पड़ रही थी। उधरसे गङ्गाजीकी ठण्डी हवाकी लहर आयी तो एक सज्जनने कहा -- कैसी ठण्डी हवाकी लहर आ रही है पास बैठे दूसरे सज्जनने उनसे कहा -- हवाको देखनेके लिये तुम्हें समय कैसे मिल गया यह ठण्डी हवा आयी? यह गरम हवा आयी -- इस तरफ तुम्हारा खयाल कैसे चला गया भगवान्के भजनमें लगे हो तो हवा ठण्डा आयी या गरम आयी? सुख आया या दुःख आया -- इस तरफ जब तक खयाल है? तबतक भगवान्की तरफ खयाल कहाँ इसी विषयमें हमने एक कहानी सुनी है। कहानी तो नीचे दर्जेकी है पर उसका निष्कर्ष बड़ा अच्छा है।एक कुलटा स्त्री थी। उसको किसी पुरुषसे संकेत मिला कि इस समय अमुक स्थानपर तुम आ जाना। अतः वह समयपर अपने प्रेमीके पास जा रही थी। रास्तेमें एक मस्जिद पड़ती थी। मस्जिदकी दीवारें छोटीछोटी थीं। दीवारके पास ही वहाँका मौलवी झुककर नमाज पढ़ रहा था। वह कुलटा अनजानेमें उसके ऊपर पैर,रखकर निकल गयी। मौलवीको बड़ा गुस्सा आया कि कैसी औरत है यह इसने मेरेपर जूतीसहित पैर रखकर मेरेको नापाक (अशुद्ध) बना दिया वह वहीं बैठकर उसको देखता रहा कि कब आयेगी। जब वह कुलटा पीछे लौटकर आयी? तब मौलवीने उसको धमकाया किकैसी बेअक्ल हो तुम हम परवरदिगारकी बंदगीमें बैठे थे? नमाज पढ़ रहे थे और तुम हमारेपर पैर रखकर चली गयी तब वह बोली -- मैं नरराची ना लखी? तुम कस लख्यो सुजान। पढ़ि कुरान बौरा भया? राच्यो नहिं रहमान।।अर्थात् एक पुरुषके ध्यानमें रहनेके कारण मेरेको इसका पता ही नहीं लगा कि सामने दीवार है या कोई मनुष्य है? पर तू तो भगवान्के ध्यानमें था? फिर तूने मेरेको कैसे पहचान लिया कि वह यही थी तू केवल कुरान पढ़पढ़कर बावला हो गया है। अगर तू भगवान्के ध्यानमें रचा हुआ होता तो क्या मुझे पहचान लेता कौन आया? कैसे आया? मनुष्य था कि पशुपक्षी था? क्या था? क्या नहीं था? कौन ऊपर आया? कौन नीचे आया? किसने पैर रखा -- इधर तेरा खयाल ही क्यों जाता तात्पर्य है कि एक भगवान्को छोड़कर किसीकी तरफ ध्यान ही कैसे जाय दूसरी बातोंका पता ही कैसे लगे जबतक दूसरी बातोंका पता लगता है? तबतक वह शरण कहाँ हुआकौरवपाण्डव जब बालक थे? तब वे अस्त्रशस्त्र सीख रहे थे। सीखकर जब तैयार हो गये? तब उनकी परीक्षा ली गयी। एक वृक्षपर एक बनावटी चिड़िया बैठा दी गयी और सबसे कहा गया कि उस चिड़ियाके कण्ठपर तीर मारकर दिखाओ। एकएक करके सभी आने लगे। गुरुजी पहले सबसे अलगअलग पूछते कि बताओ? तुम्हें वहाँ क्या दीख रहा है कोई कहता कि हमें तो वृक्ष दीखता है? कोई कहता कि हमें तो टहनी दीखती है? कोई कहता है हमें तो चिड़िया दीखती है? चोंच भी दीखती है? पंख भी दीखते हैं। ऐसा कहनेवालोंको वहाँसे हटा दिया गया। जब अर्जुनकी बारी आयी? तब उनसे पूछा गया कि तुमको क्या दीखता है? तो अर्जुनने कहा कि मेरेको तो केवल कण्ठ ही दीखता है और कुछ भी नहीं दीखता। तब अर्जुनसे बाण मारनेके लिये कहा गया। अर्जुनने अपने बाणसे उस चिड़ियाका कण्ठ वेध दिया क्योंकि उनकी लक्ष्यपर दृष्टि ठीक थी। अगर चिड़िया दीखती है? वृक्ष? टहनी आदि दीखते हैं तो लक्ष्य कहाँ सधा है अभी तो दृष्टि फैली हुई है। लक्ष्य होनेपर तो वही दीखेगा? जो लक्ष्य होगा। लक्ष्यके सिवाय दूसरा कुछ दीखेगा ही नहीं। इसी प्रकार जबतक मनुष्यका लक्ष्य एक नहीं हुआ है? तबतक वह अनन्य कैसे हुआ अव्यभीचारीअनन्ययोग होना चाहिये -- मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी (गीता 13। 10)।अन्ययोग,नहीं होना चाहिये अर्थात् शरीर? मन? बुद्धि? अहम् आदिकी सहायता नहीं होनी चाहिये। वहाँ तो केवल एक भगवान् ही होने चाहिये।गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजसे किसीने कहा -- आप जिन रामललाकी भक्ति करते हैं? वे तो बारह कलाके अवतार हैं? पर सूरदासजी जिन भगवान् कृष्णकी भक्ति करते हैं? सोलह कलाके अवतार हैं। यह सुनते ही गोस्वामीजी महाराज उसके चरणोंमें गिर पड़े और बोले -- ओह आपने बड़ी भारी कृपा कर दी मैं तो रामको दशरथजीके लाड़ले कुँवर समझकर ही भक्ति करता था। अब पता लगा कि वे बारह कलाके अवतार हैं इतने बड़े हैं वे आपने आज नयी बात बताकर बड़ा उपकार किया। अब कृष्ण सोलह कलाके अवतार हैं -- यह बात उन्होंने सुनी ही नहीं? इस तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया।भगवान्के प्रति भक्तोंके अलगअलग भाव होते हैं। कोई कहता है कि दशरथजीकी गोदमें खेलनेवाले जो रामलला हैं? वे ही हमारे इष्ट हैं -- इष्टदेव मम बालक रामा (मानस 7। 75। 3) राजाधिराज रामचन्द्रजी नहीं? छोटासा रामलला। कोई भक्त कहता है कि हमारे इष्ट तो लड्डूगोपाल हैं? नन्दके लाला हैं। वे भक्त अपने रामललाको? नन्दललाको सन्तोंसे आशीर्वाद दिलाते हैं? तो भगवान्को वह बहुत प्यारा लगता है।,तात्पर्य है कि भक्तोंकी दृष्टि भगवान्के ऐश्वर्यकी तरफ जाती ही नहीं। या ब्रजरज की परस से? मुकति मिलत है चार। वा रज को नित गोपिका? डारत डगर बुहार।।आँगनकी जिस रजमें कन्हैया खेलते हैं? वह रज कोई ले ले तो उसको चारों प्रकारकी मुक्ति मिल जाय। पर यशोदा मैया उसी रजको बुहारकर बाहर फेंक देती हैं। मैयाके लिये तो वह कूड़ाकरकट है। अब मुक्ति किसको चाहिये मैयाकी केवल कन्हैयाकी तरफ ही दृष्टि है। न तो कन्हैयाके ऐश्वर्यकी तरफ दृष्टि है और न योग्यताकी तरफ ही दृष्टि है।सन्तोंने कहा है कि अगर भगवान्से मिलना हो तो साथमें साथी भी नहीं होना चाहिये और सामान भी नहीं होना चाहिये अर्थात् साथी और सामानके बिना उनसे मिलो। जब साथी? सहारा साथमें है? तो तुम क्या मिले भगवान्से और मन? बुद्धि? विद्या? धन आदि सामान साथमें बँधा रहेगा तो उसका परदा (व्यवधान) रहेगा। परदेमें मिलन थोड़े ही होता है वहाँ तो कपड़ेका भी व्यवधान होता है। कपड़ा ही नहीं? माला भी आड़में आ जाय तो मिलन क्या हुआ इसलिये साथमें कोई साथी और सामान न हो फिर भगवान्से जो मिलन होगा? वह बड़ा विलक्षण और दिव्य होगा।एक महात्माजीको खेतमें काम करनेवाला एक व्रजवासी ग्वाला मिल गया। वह भगवान्का भक्त था। महात्माजीने उससे पूछा -- तुम क्या करते हो उसने कहा -- हम तो अपने लाला कन्हैयाका काम करते हैं। महात्माजीने कहा -- हम भगवान्के अनन्य भक्त हैं? तुम क्या हो उसने कहा -- हम फनन्य भक्त हैं। महात्माजीने पूछा -- फनन्य भक्त क्या होता है तो उसने भी पूछा -- अनन्य भक्त क्या होता है महात्माजीने कहा -- अनन्य भक्त वह होता है जो सूर्य? शक्ति? गणेश? ब्रह्मा आदि किसीको भी न माने? केवल हमारे कन्हैयाको ही माने। उसने कहा -- बाबाजी? हम तो इन ससुरोंका नाम भी नहीं जानते कि ये क्या होते हैं? क्या नहीं होते हमें इनका पता ही नहीं है तो हम फनन्य हो गये कि नहीं इस प्रकार ब्रह्म क्या होता है आत्मा क्या होती है सगुण और निर्गुण क्या होता है साकार और निराकार क्या होता है आदि बातोंकी तरफ शरणागत भक्तकी दृष्टि ही नहीं जानी चाहिये।व्रजकी एक बात है। एक सन्त कुएँपर किसीसे बात कर रहे थे कि ब्रह्म है? परमात्मा है? जीवात्मा है आदि। वहाँ एक गोपी जल भरने आयी। उसने कान लगाया कि बाबाजी क्या बात कर रहे हैं। जब वह गोपी दूसरी,गोपीसे मिली तो उससे पूछा -- अरी सखी यह ब्रह्म क्या होता है उसने कहा -- हमारे लालाका ही कोई अड़ोसीपड़ोसी? सगासम्बन्धी होगा हमलोग तो जानती नहीं सखी ये लोग उसीकी धुनमें लगे हैं न इसलिये सब जानते हैं। हमारे तो एक नन्दके लाला ही हैं। कोई काम हो तो नन्दबाबासे कह देंगी? गिरिराजसे कह देंगी कि महाराज आप कृपा करो। कन्हैया तो भोलाभाला है? वह क्या समझेगा और क्या करेगा कन्हैयासे क्या मिलेगा अरी सखी वह कन्हैया हमारा है? और क्या मिलेगा हम भी अकेली हैं और वह कन्हैया भी अकेला है। हमारे पास भी कुछ समान नहीं? और उसके पास भी कुछ सामान नहीं? बिलकुल नंगधड़ंग बाबा -- नगन मूरतिबाल गुपालकी? कतरनी बरनी जगजालकी। अब ऐसे कन्हैयासे क्या मिलेगायशोदा मैया दाऊजीसे कहती हैं -- देख दाऊ यह कन्हैया बहुत भोलाभाला है? तू इसका खयाल रखा कर कि कहीं यह जंगलमें दूर न चला जाय। जंगलमें मेले साथ चलतेचलते कोई साँपका बिन देखता है तो उसमें हाथ डाल देता है? अब इसे कोई साँप काट ले तो मैया कहती है -- बेटा अभी वह छोटासा अबोध बालक है? तू बड़ा है? इसलिये इसकी निगाह रखा कर। ग्वालबालोंसे कोई कहे कि कन्हैया तो सब दुनियाका पालन करता है? तो वे यही कहेंगे कि तुम्हारा ऐसा भगवान् होगा? जो सब दुनियाका पालन करता होगा। हमारा तो ऐसा नहीं है। हमारा छोटासा कन्हैया दुनियाका क्या पालन करेगाएक बाबाजीकी गोपियोंसे बातचीत चली। वे बाबाजी बात करतेकरते कहने लगे कि कृष्ण इतने ऐश्वर्यशाली हैं? उनका इतना माधुर्य है? उनके पास ऐश्वर्यका इतना खजाना है? आदि। तो गोपियाँ कहने लगीं -- महाराज उस खजानेकी चाबी तो हमारे पास है कन्हैयाके पास क्या है उसके पास तो कुछ भी नहीं है। कोई उससे माँगेगा तो वह कहाँसे देगा इसलिये किसीको कुछ चाहिये तो वह कन्हैया पास न जाये। कन्हैयाके पास? उसकी शरणमें तो वही जाये? जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये। किसी भी अवस्थामें कुछ भी चाहनेका भाव न हो अर्थात् विपत्ति? मौत आदिकी अवस्थामें भीमेरी थोड़ी सहायता कर दो? रक्षा कर दोऐसा भाव भी नहीं होभगवान् श्रीरामसे वाल्मीकिजी कहते हैं --, जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।। (मानस 2। 131)कुछ भी चाहनेका भाव न होनेसे भगवान् स्वाभाविक ही प्यारे लगते हैं? मीठे लगते हैं -- तुम्ह सन सहज सनेहु। जिसमें चाह नहीं है? वह भगवान्का खास घर है -- सो राउर निज गेहु। यदि चाहना भी साथमें रखें और भगवान्को भी साथमें रखें तो वह भगवान्का खास घर नहीं है। भगवान्के साथसहज स्नेह हो? स्नेहमें कोई मिलावट न हो अर्थात् कुछ भी चाहना न हो। वहाँ तो आसक्ति? वासना? मोह? ममता ही होते हैं। इसलिये गोपियाँ सावधान करती हुई कहती हैं --, मा यात पान्थाः पथिभीमरथ्यां दिगम्बरः कोऽपि तमालनीलः। विन्यस्तहस्तोऽपि नितम्बबिम्बे धूतः समाकर्षति चित्तवित्तम्।।अरे पथिको उस गलीसे मत जाना? वह बड़ी भयावनी है। वहाँ अपने नितम्बविम्बपर दोनों हाथ रखे जो तमालके समान नीले रंग का एक नंगधड़ंग बालक खड़ा है? वह केवल देखनेमात्रका अवधूत है। वास्तवमें तो वह अपने पासमें होकर निकलनेवाले किसी भी पथिकके चित्तरूपी धनको लूटे बिना नहीं रहता।वह जो कालाकाला नंगधड़ंग बालक खड़ा है न उससे तुम लुट जाओगे? रीते रह जाओगे वह ऐसा चोर है कि सब खत्म कर देगा। उधर जाना ही मत? पहले ही खयाल रखना। अगर चले गये तो फिर सदाके,लिये ही चले गये इसलिये कोई अच्छी तरहसे जीना चाहे तो उधर मत जाय। उसका नाम कृष्ण है न कृष्ण कहते हैं खींचनेवालेको। एक बार खींच ले तो फिर छोड़े ही नहीं। उससे पहचान न हो? तबतक तो ठीक है। अगर उससे पहचान हो गयी तो फिर मामला खत्म। फिर किसी कामको नहीं रहोगे? त्रिलोकीभरमें निकम्मे हो जाओगे नारायन बौरी भई डोलै? रही न काहू काम की।। जाहि लगन लगी घनस्याम की।हाँ? जो किसी कामका नहीं होता? वह सबके लिये सब कामका होता है। परन्तु उनको उसी कामसे कोई मतलब नहीं होता।शरणागत भक्तको भजन भी करना नहीं पड़ता। उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भजन होता है। भगवान्का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा? प्यारा लगता है। अगर कोई पूछे कि तुम श्वास क्यों लेते हो यह हवाको भीतरबाहर करनेका क्या धंधा शुरू कर रखा है तो यही कहेंगे कि भाई यह धंधा नहीं है? इसके बिना हम जी ही नहीं सकते। ऐसे ही शरणागत भक्त भजनके बिना रह ही नहीं सकता। जिसको सब कुछ अर्पण कर दिया? उसके विस्मरणमें परम व्याकुलता? महान् छटपटाहट होने लगती है -- तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति (नारदभक्तिसूत्र 19)। ऐसे भक्तसे अगर कोई कहे कि आधे क्षणके लिये भगवान्को भूल जानेसे त्रिलोकीका राज्य मिलेगा? तो वह इसे भी ठुकरा देगा। भागवतमें आया है -- त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्। न चलति भगवत्पदारविन्दा ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।। (श्रीमद्भा0 11। 2। 53)तीनों लोकोंके समस्त ऐश्वर्यके लिये भी उन देवदुर्लभ भगवच्चारणकमलोंका जो आधे निमेषके लिये भी त्याग नहीं कर सकते? वे ही श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्। न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यार्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत्।। (श्रीमद्भा0 11। 14। 14)भगवान् कहते हैं किस्वयंको मेरे अर्पित करनेवाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्माका पद? इन्द्रका पद? सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य? पातालादि लोकोंका राज्य? योगकी समस्त सिद्धियाँ और मोक्षको भी नहीं चाहता।भरतजी कहते हैं -- अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान। जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।। (मानस 2। 204) सम्बन्ध -- अब पूर्वश्लोकमें कहे अत्यन्त गोपनीय वचनको अनाधिकारियोंके सामने कहनेका निषेध करत हैं।
Swami Chinmayananda
।।18.66।। भगवद्गीता के समस्त श्लोकों में यह श्लोक सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी अत्यधिक विवादास्पद बन गया है। इस श्लोक की व्याख्या करने में सभी अनुवादकों? भाष्यकारों समीक्षकों और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता एवं मौलिकता की पूँजी लगा दी है। व्यापक आशय के इस महान् श्लोक के माध्यम से प्रत्येक दार्शनिक ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है।धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की।हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है? अन्यथा नहीं? वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है? उष्णता के अभाव में नहीं? इसलिए? अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है मधुरता चीनी का धर्म है? कटु चीनी मिथ्या हैजगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है? परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है? जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है।इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से क्या धर्म है उसकी त्वचा का वर्ण? असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार? उसका स्वभाव (संस्कार)? उसके शरीर? मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए? मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।यद्यपि नैतिकता? सदाचार? जीवन के समस्त कर्तव्य? श्रद्धा? दान? विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। सदाचार आदि को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार? सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए? हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक? मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गयी है? जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं।इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कतिपय श्लोकों में? भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे। उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में? अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं।ध्यानयोग के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं (1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा सब धर्मों का त्याग? (2) मेरी (ईश्वर की) ही शरण में आना? और? (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है। गीता एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है? मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है।सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है? और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त धर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं अथवा? क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण मनुष्य अपने शरीर? मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न? र्मत्य जीव का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा? मन्ता? ज्ञाता? कर्ता? भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है। वह शरीरादि उपाधियों के जन्ममरणादि धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु? वस्तुत? ये हमारे शुद्ध स्वरूप के धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है।इसलिए? समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर? मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है? उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं।मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है? जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं।साधना के केवल निषेधात्मक पक्ष को ही बताने से भारतीय दार्शनिकों को सन्तोष नहीं होता है निषेधात्मक आदेशों की अपेक्षा विधेयात्मक उपदेशों में वे अधिक विश्वास रखते हैं। भारतीय दर्शन की स्वभावगत विशेषता है? उसकी व्यावहारिकता। और इस श्लोक में हमें यही विशेषता देखने को मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं? तुम मेरी शरण में आओ? मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा।मा शुच (तुम शोक मत करो) उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से? आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। चिन्ता का स्पर्श पाकर एक स्वाप्निक सेतु के समान यह शान्ति लुप्त हो जाती है। बाह्य विषयों तथा शरीरादि उपाधियों से मन के ध्यान को निवृत्त करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित कर लेने पर साधक को साक्षात्कार की उत्कण्ठा का भी त्याग कर देना चाहिए। ऐसी उत्कण्ठा भी चरम उपलब्धि में बाधक बन सकती है।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है? वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं? क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में? कर्म मनुष्य के अन्तकरण में वासनाओं को अंकित करते जाते हैं? जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार कर्म में प्रवृत्त होता है।शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं? तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं। वृत्ति रूप मन है? अत जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है? तब तक मन का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है। इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है? और यही मनोनाश भी है। मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है।जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है? उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है। इस नवप्राप्त अनुभव में? वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अत? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं? तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। मन को विचलित करने वाली? कर्मों की प्रेरक? इच्छा और विक्षेपों को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।यह श्लोक महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं? जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा अपना योगदान देने को उत्सुक है। साधनाकाल में? यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है? तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है।इसके विपरीत? जिस साधक का मन नैराश्य और रुदन? विषाद और अवसाद से भरा रहता है वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर सकता है और? स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूरदूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है।इस अध्याय में सम्पूर्ण गीताशास्त्र के तत्त्वज्ञान का उपसंहार किया गया है। शास्त्रसिद्धांत पर विशेष बल देने के प्रयोजन से? इस श्लोक में पुन संक्षेप में उसका वर्णन करने के पश्चात्? अब शास्त्रसम्प्रदाय की विधि का वर्णन करते हैं।
Sri Anandgiri
।।18.66।।वृत्तमनूद्यानन्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- कर्मयोगेति। धर्मविशेषणादधर्मानुज्ञां वारयति -- धर्मेति। ज्ञाननिष्ठेन मुमुक्षुणा धर्माधर्मयोस्त्याज्यत्वे श्रुतिस्मृती उदाहरति -- नाविरत इति। मामेकमित्यादेस्तात्पर्यमाह -- न मत्तोऽन्यदिति। अर्जुनस्य क्षत्रियत्वादुक्तसंन्यासद्वारा ज्ञाननिष्ठायां मुख्यानधिकारेऽपि तं पुरस्कृत्याधिकारिभ्यस्तस्योपदिदिक्षितत्वादविरोधमभिप्रेत्याह -- अहं त्वेति। उक्तेऽर्थे दाशमिकं वाक्यमनुकूलयति -- उक्तंचेति। ईश्वरस्य त्वदीयबन्धननिरसनद्वारा त्वत्पालयितृत्वान्न ते शोकावकाशोऽस्तीत्याह -- अत इति।
Sri Dhanpati
।।18.66।।परमेश्वरयजनात्मकं कर्मयोगं तन्निष्ठायाः परमरहस्यं ईश्वरशरणतालक्षणं भक्तियोगं चोपसंहृत्याथेदानीमुभयफलभूतं सम्यग्दर्शनं सर्ववेदान्तप्रतिपादितं तत्रतत्र विस्तरेम प्रोक्तमुपसंहरति -- सर्वधर्मान् सर्वे च ते धर्माश्च सर्वधर्माः तान्। धर्मशब्देनात्राधर्मोऽपि गृह्यते। नैष्कर्म्यस्य विवक्षिकत्वात्नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि पज्ञानेनैनमाप्नुयात्त्यज धर्ममधर्मं च इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः सर्वधर्मान् सर्वाणि कर्माणि परित्यज्य संन्यस्य मामेकं सर्वात्मानं समं सर्वभूतस्थमीश्वरमच्युतं गर्भजन्मजरावर्जितमहमेवैतादृशः परमात्मैत्येवमेकं शरणं व्रज। न मत्तोऽन्यदस्तीत्यवधारयेत्यर्थः। अहं त्वामेवं निश्चितबुद्धिं सर्वपापेभ्यः सर्वेभ्यो धर्माधर्मबन्धनरुपेभ्यो मोक्षयिष्यामि स्वात्मभावप्रकाशकरणेन। उक्तंच दशमेनाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानादीपेन भास्वता इति। अतो मा शुचः शोकं माकार्षीरित्यर्थः। यत्तु कश्चित्प्रललापस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः इत्यत्र कर्मनिष्ठा कर्मसंन्यासपर्यन्तोपसंहृताततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् इत्यत्र,संन्यासपूर्वकश्रवणादिपरिपाकसहितज्ञाननिष्ठोपसंहृता। अधुना तुईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठतितमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन इति यदुक्तं तद्विवृण्वन् भगवद्भक्तिनिष्ठामुभयसाधनत्वादुभयफलभूतत्वाच्चान्ते उपसंहरति -- सर्वधर्मोनिति। सर्वान्वर्णाश्रमादिधर्मानविद्यमानान् विद्यमानान्वा परित्यज्य शरणत्वेनानादृत्य मामीश्वरमेकमद्वितीयं सर्वधर्माणामधिष्ठातारं फलदातारं च शरणं व्रज। धर्माः सन्तु न सन्तु वा कुं तैरन्यमापेक्षैः। भगवदनुग्रहादेव अन्यनिरपेक्षादहं कृतार्थो भविष्यामिति निश्चयेन परमानन्दधनमूर्तिमनन्तं श्रीवासुदेवमेव भगवन्तमनुक्षणभावनया भजस्व। इदमेव परमं तत्त्वं नातोऽधिकमस्तीति विचारपूर्वकेण प्रेमप्रकर्षेण सर्वानात्मचिन्ताशून्यया मनोवृत्त्या तैलधारावदनविच्छिन्नया सततं चिन्तयेत्यर्थः। अत्र मामेकं शरणं व्रजेति सर्वशरणतापरित्यागे लब्धे सर्वधर्मान्परित्यज्येति निषेधानुवादस्तत्कार्यकारितालाभाव। यज्ञायज्ञीये साम्निऐरं कृत्वाद्गेयम् इत्यत्रन गिरागिरेति ब्रूयात् इचिवत् तथाच ममैव सर्वधर्मकारित्वान्मदेकशरणस्य नास्ति धर्मापेक्षेत्यर्थः। एतेनेदमपास्तम्। सर्वधर्मान्परित्यज्येत्युक्तेनाधर्माणां परित्यागो न लभ्यतेऽतो धर्मपदं कर्मपरमिति। न ह्यत्र कर्मत्यागो विधीयतेऽपितु विद्यमानेऽपि कर्मणि तत्रानादरेण भगवदेकशरणतामात्रं ब्रह्मचारिगृहस्थावानप्रस्थभिक्षूणां साधारण्येन विधीयते। तत्र सर्वधर्मान्परित्यज्येति तेषां स्वधर्मादरसंभवेन तन्निवारणार्थे अधर्मे चानर्थफले कस्याप्यादरामावात् त्यागवचनमनर्थकमेव शास्त्रान्तरप्राप्तत्वाच्च तस्मात्सर्वधर्मान्परित्यज्येत्यनुवादएव सर्वेषां तच्छास्त्राणां परमरहस्यमीश्वरशरणतैवेति तत्रैव परिसमाप्तिर्भगवता कृता। तामन्तरेण संन्यासस्यापि स्वफलापर्यवसायित्वात् अर्जुनं च क्षत्रियं संन्यासनधिकारिणंप्रति संन्यासोपदेशायोगात्। अर्जुनव्याजेनान्यस्योपदेशे तु वक्ष्यामि ते हितं त्वा मोक्षयिष्यासि सर्वपापेभ्यस्त्वं माशुचः इत्युपक्रमोपसंहारौ न स्याताम्। तस्मात्संन्यासधर्मेष्वप्यनादरेण भगवदेकशरणतामात्रे तात्पर्यं भगवतः। यस्मात्त्वं मदेकशरणः। सर्वधर्मानादरेणातोऽहं सर्वकार्यकारित्वात्त्वां सर्वपापेभ्यो बन्धुवधादिनिमित्तेभ्यः संसारहेतुभ्यो मोक्षयिष्यामि प्रायश्चित्तं विनैवधर्मेण पापमपनुदति इतिश्रुतेर्धर्मस्थानीयत्वाच्च मम। अतो माशुचः युद्धे प्रवृत्तस्य मम बन्धुवधादिनिमित्तप्रत्यवायात्कथं निस्तारः स्यादिति शोकं माकार्षीरित्यादि तन्नादर्तव्यम्। श्रीमतां सर्वज्ञानां भगवदात्मत्वात्? भगवदभिप्रायविदां भगवतां भाष्यकृतामभिप्रायापरिज्ञानविजृम्भितत्वात्। तथाहि सप्तदशाध्यायान्तगीताशास्त्रार्थोपसंहारत्मकेऽस्मिन्नध्याये प्रतिपादितेन कर्मादिना एतदध्यायन्तसमस्तशास्त्रोपसंहारो नोपपद्यते। नहिस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः इत्यत्र कर्मनिष्टानिरुपणस्य समाप्तिर्द्दश्यतेसर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्य्वपाश्रयः। चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः इत्युक्तत्वात्तस्मात्तत्रतत्र प्रतिपादितं कर्मयोगं भक्तियोगं ज्ञानं चास्मिन्नध्याये संग्रहेणोपपाद्य सर्वशास्त्रन्त उपसंहरतीत्येवयुक्तम्। अन्यथाबुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः मततं भव। मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तारिष्यसि इत्यत्र भक्तियोग उपसंहृत इत्यपि कुतो न स्यात्। तस्मात्कर्मयोगादिप्रतिपादनपरिसमाप्तावेव यथासंभवं उपसंहारवर्णनं युक्तं नतु यत्रकुत्रचित्।तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। तदामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते। नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।इदं तु ते गुह्यतमंनैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्यासंनाधिगच्छति इत्यादिना प्रतिपादितायाः समस्तवेदान्ततात्पर्यभूतायाः कर्मयोगभक्तियोगफलभूतायाः संन्यासपूर्वकायाः ज्ञाननिष्ठाया उपसंहारस्य शास्त्रान्ते कर्तव्यत्वावश्यकत्वेन सर्वधर्मान्परित्यज्येत्यनेन सर्वकर्मसंन्यासस्य स्पष्टतया प्रतीयमानत्वेन च तादृशज्ञाननिष्ठोपसंहारस्य युक्ततामभिप्रतेयाचार्यैः सैवास्मिन्श्लोक उपसंहृता। ईश्वराभिप्राय ईश्वरेणैव ज्ञायते नतु वराकैरस्मदादिभि। विष्णुशिवयोरेकात्मत्वं परमात्मत्वं च श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणादिसिद्धम्। तमेव शरणं गच्छेत्यस्य विवरणमनेन क्रियत इत्यपि न। असंदिग्धार्थस्य संदिग्धार्थेन विवरणायोगात्। सर्वधर्मान्परित्यजयेति तु तत्रतत्रार्जुनं निमित्तीकृत्य संन्यासपूर्वकज्ञाननिष्ठाप्रतिपादनमिवार्जनस्य क्षत्रियत्वादुक्तसंन्यासद्वारा ज्ञाननिष्ठायामनधिकारेऽपि तु तत्रतत्रार्जुनं निमित्तीकृत्य संन्यासपूर्वकज्ञाननिष्ठाप्रतिपादनमिवार्जनस्य क्षत्रियत्वादुक्तसंन्यासद्वारा ज्ञाननिष्ठायामनाधिकारेऽपि तं पुरस्कृत्याधिकारिभ्यस्तस्योपदिदिक्षितत्वान्न विरुध्यतेऽर्जुनं निमित्तीकृत्य लोकोपकाराय भगवतः प्रवृत्तिरिति संमतम्। अन्यथा क्षत्रियस्यार्जुनस्य श्रोतुर्यस्मिन्नधिकारस्तस्यैव वक्तव्यत्वे संन्यासपूर्विकायाः ज्ञाननिष्ठायाः वर्णनमनर्थकं स्यात्। वस्तुतोऽर्जुनस्य स्वविग्रहस्य सर्वज्ञत्वोनोपदेशानर्थक्यं च भवेत्। अपिच तं प्रति सर्वधर्मपरितायगकथनं भगवतः पूर्वापरविरुद्धम्।कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयःन कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्रुतेस्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरःस्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणुस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवःश्रेयान्तस्वधर्मो विगुणःसहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्य्वपाश्रयःस्वभावजेन कौन्तेय इत्यादिना तत्रतत्र कर्मापरित्यागमत्याग्रहेण प्रतिपाद्यत्रैवं कथने परस्परविरोधस्य स्पष्टत्वात्। एतेन सर्वधर्मान्परित्यज्य शरणत्वेनानादृत्य धर्माः सन्तु न सन्तु वा किंतौरित्यादिवर्णनमपास्तम्।यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणांमत्कर्मकृन्मत्परमःस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य इत्यादिवचनानां विरोधस्यास्मिन्नश्रुतकल्पनेऽपि तुल्यत्वात्। कर्माधिकृतेनाज्ञेन वेदविहितं धर्ममनादृत्य मद्रूपोपासनं कार्यमिति सर्वस्मिन्गीताशास्त्रे क्वाप्यनुक्तत्वेन तदुपसंहारवर्णनस्यानुचितत्वाच्च।अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायांरताःमामनुस्मर युध्य चश्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे ते,उल्लङ्घन प्रवर्तते। आज्ञानङ्गो मम द्रोहो मद्भक्तोऽपि न वैष्णवः।।र्णआश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान्। विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्तत्तोषकारणम्। तस्मात्सदाचारवता पुरुषेण जनार्दनः। आराध्याते स्ववर्णोक्तधर्मानुष्ठानकारिणा इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः कर्मसमुच्चितोपासनायां वैशिष्ट्यबोधनाच्च। यत्र तु कर्मणो निन्दा पुराणादिषु श्रुयते न सा भगवदाराधनलक्षणस्य निष्कामकर्मणो वेदविहितस्य नियतस्यापितु भगवत्पराङ्गुस्वेनानुष्ठानस्य सकामस्य। तस्मादर्जुनेन सर्वकर्मत्यागाः कर्तव्य इति भगवतो नाभिप्रेतम् किंतु त्यागाधिकारिभिः कर्ममात्रं संन्यस्याहमेव भगवान्स वासुदेवः नतु मत्तोऽन्योस्तीति ज्ञाननिष्ठा सम्यक् संपादनीयेति वक्ष्यामि ते हितं त्वां मोक्षयिष्यामि सर्वपापेभ्यस्त्वं माशुच इति चोपक्रमोपसंहारात्।तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्षयन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः इत्यादिवत् अर्जुनव्याजेनान्यस्ंयोपदेशेति न विरुध्यते। यदपि सर्वपापेभ्यः बन्धुवादिनिमित्तेभ्य इत्यादि तदपि साहसमात्रम्।धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादो अग्नीषोमीयपशुहिंसावद्युद्धे सत्रुहननरुपाया विहिताया हिंसायाः पापजनकत्वाभावस्यात्याग्रहेण स्वेनैव स्थापित्वात्। यदप्यत्रेत्यादि तदपि बालविमोहनमात्रम्। उक्तयुक्त्या मामेकं शरणं व्रजेत्यत्राचार्योक्तार्थस्यैव विवक्षितत्वात्। मामेकं शरणं व्रज स्वधर्माचरणादिना मामेवाराधय नतु देवतान्तरमित्यर्थस्यापि संभवेन सर्वधर्मत्यागस्य लाभायोगाच्च। यदप्येते नेदमपास्तमित्यादि तदपि तुच्छमेव।नाविरतो दुश्चरितात्त्यज धर्मधर्में च इति भाष्योदाहृतश्रुतिस्मृत्यनवलोकनविजृम्भितत्वात्। तथाच सर्वस्याप्यज्ञस्य कामिनो विषयरागावशादधर्माचरणं दृश्यते शरीरस्थतिमात्रविषयकामनया तदाचरणं संन्यासाधिकारिणोऽपि संभाव्य तत्परित्यागवचनस्य श्रुतिस्मृत्यनुरोधेन सार्थक्यम्। अधर्मेऽनर्थफले कस्याप्यादरो नास्तीति वक्तुमशक्यं लोके तदादरस्योपलभ्यमानत्वादन्यथा न सुरां पिबेत् न कलञ्जं भजयेदित्यादि निषेधवाक्यानां वैयर्थ्यं स्यात्। तस्मादत्रार्जुनं निमित्तीकृत्याधिकारिभ्यो वेदविहितकर्मत्यागो गीताशास्त्रे उपपाद्य तदन्ते उपसंह्नियते। भगवदेकशरणतायाः तमेव शरणं गच्छेत्यनेनोक्तत्वात्।मन्मना भव भद्भक्तो मद्याजी त्यनेन भक्तियोगस्य कर्मयोगस्य चोपसंहृतत्वात्। यत्तु संन्यासशास्त्रेण प्रतिषिद्धशास्त्रेण च लब्धत्वान्नात्र सर्वधर्मत्यागो विधीयते इति तत्र विधिनिषेधरुपेण वेदेन प्राप्तत्वात्। तदर्थप्रतिपादकस्मृतीतिहासपुराणानां वैयर्थ्यप्रसङ्गदित्यास्तां तावत्। एवमन्येषामपि कुकल्पना भाष्यविरुद्धाः सभ्यग्विचार्य नराकर्तव्याः।गोभाराहरणार्थिना सुविहता वेदार्थनाशे रता येऽनाद्यं जगतां निदानममलं शास्त्रस्य योनिं विभुम्। यत्कारुण्यकटाक्षतोऽभिलषितं पूर्णं ममाप्यद्भूतं तं वन्दे परमामृतं शिवमहं कृष्णं गुरुणां गुरुम्।
Sri Madhavacharya
।।18.66।।धर्मत्यागः फलत्यागः। कथमन्यथा युद्धविधिः।यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते [18।11] इति चोक्तम्।
Sri Ramanujacharya
।।18.66।।कर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगरूपान् सर्वान् धर्मान् परमनिःश्रेयससाधनभूतान् मदाराधनत्वेन अतिमात्रप्रीत्या यथाधिकारं कुर्वाण एव उक्तरीत्या फलकर्मकर्तृत्वादिपरित्यागेन परित्यज्य माम् एकम् एव कर्तारम् आराध्यं प्राप्यम् उपायं च अनुसंधत्स्व।एष एव सर्वधर्माणां शास्त्रीयपरित्यागः इतिनिश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम। त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।। (गीता 18।4) इत्यारभ्यसङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः। (गीता 18।9)न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।। (गीता 18।11) इति अध्यायादौ सुदृढम् उपपादितम्।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि एवं वर्तमानं त्वां मत्प्राप्तिविरोधिभ्यः अनादिकालसंचितानन्ताकृत्यकरणकृत्याकरणरूपेभ्यः सर्वेभ्यः पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः शोकं मा कृथाः।अथवा सर्वपापविनिर्मुक्तात्यर्थभगवत्प्रियपुरुषनिर्वर्त्यत्वाद् भक्तियोगस्य तदारम्भविरोधिपापानाम् आनन्त्यात् च तत्प्रायश्चित्तरूपैः धर्मैः अपरिमितकालकृतैः तेषां दुस्तरतया आत्मनो भक्तियोगारम्भानर्हताम् आलोच्य शोचतः अर्जुनस्य शोकम् अपनुदन् श्रीभगवान् उवाच -- सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकं शरणं व्रज इति।भक्तियोगारम्भविरोध्यनादिकालसंचितनानाविधानन्तपापानुगुणान् तत्प्रायाश्चित्तरूपान् कृच्छ्रचान्द्रायणकूष्माण्डवैश्वानरप्राजापत्यव्रातपतिपवित्रेष्टित्रिवृदग्निष्टोमादिकान् नानाविधानन्तान् त्वया परिमितकालवर्तिना दुरनुष्ठान् सर्वधर्मान् परित्यज्य भक्तियोगारम्भसिद्धये माम् एकं परमकारुणिकम् अनालोचितविशेषशेषलोकशरण्यम् आश्रितवात्सल्यजलधिं शरणं प्रपद्यस्व। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो यथोदितस्वरूपभक्त्यारम्भविरोधिभ्यः सर्वेभ्यः पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि? मा शुचः।
Sri Sridhara Swami
।।18.66।।ततोऽपि गुह्यतममाह -- सर्वेति। मद्भक्त्यैव सर्वं भविष्यतीति दृढविश्वासेन विधिकैकर्यं त्यक्त्वा मदेकशरणो भव। एवंवर्तमानः कर्मत्यागनिमित्तं पापं स्यादीति मा शुचः शोकं माकार्षीः। यतस्त्वा त्वां मदेकशरणं सर्वपापेभ्योऽहं मोक्षयिष्यामि।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.66।।एवं विस्तरेण सङ्ग्रहेण चोक्तानां कर्मयोगादीनां त्रयाणां साधारणं सारतमानुसन्धानविशेषमुद्धृत्य तत एवमामेवैष्यसि [18।65] इत्युक्तेष्टप्राप्तेः प्रतिबन्धकीभूतानिष्टानां निवृत्तिरुच्यते -- सर्वधर्मान् इति श्लोकेन। तदाह -- कर्मयोगेत्यादिना। सर्वशब्देन प्रकृतत्रिकमविशेषाद्गृह्यते। कर्मयोगादीनां धृतिसाधनत्वलक्षणधर्मशब्दवाच्यत्वमाह -- परमनिश्श्रेयससाधनभूतानिति। यथायोगं परम्परया साक्षाच्चेति शेषः। तत्साधकत्वप्रयोजकमाह -- मदाराधनत्वेनेति। त्रिवर्गवैमुख्यहेतुमाह -- अतिमात्रप्रीत्येति।यथेच्छसि तथा कुरु [18।63] इति पूर्वोक्तोपजीवनेनाऽऽह -- यथाधिकारं कुर्वाण इति। क्रमात्सर्वं ह्यस्यानुष्ठेयं स्यादिति च भावः।कुर्वाण एवेत्यनेन स्वरूपत्यागादिपक्षास्तामसत्वादिभिर्निन्दिता इति स्मारितम्। परित्यागशब्दविवक्षितमाह -- उक्तरीत्येति। अध्यायारम्भविशोधितप्रकारेणेत्यर्थः।फलकर्मकर्तृत्वादिपरित्यागेनेति कर्मत्यागः स्वकीयताभिमानत्यागः। भक्तियोगेऽपि ऐश्वर्यादिफलान्तरं त्याज्यमेव मोक्षाख्यफलस्यापि हि सर्वशेषिभगवच्छेषत्वधिया स्वशेषताधीः परिहार्या। आदिशब्देन कञ्चुकभूतेन्द्रादीनामाराध्यत्वाभिमानः संगृहीतः। कर्मणि कर्तृत्वं स्वकीयताबुद्धिरादिशब्देन संगृह्यते।परित्यागेन परित्यज्येति विशेषेण सामान्यावच्छेदः। अन्यत्र स्वात्मनि कर्तृत्वं? ततोऽन्यस्मिन्निन्द्रादावुपास्यत्वं? तदुभयान्यस्मिन् स्वर्गादौ प्राप्यत्वं? तेभ्यो व्यतिरिक्ते कर्मणि उपायत्वं चाभिमत्य ह्यनधीतवेदान्ताः प्रवर्तन्ते न तथा त्वयाऽनुसन्धेयम् एतत्सर्वमेकस्मिन्मय्यनुसन्धत्स्वेतिमामेकं शरणं व्रज इत्यस्याभिप्रायः तदाह -- मामेकमेवेत्यादिना। अत्र कर्तृत्वादिषु चतुर्षु प्रत्येकं समुदायतः एकोपाधिना शरणशब्दवाच्यत्वासम्भवात्कर्तृत्वादिकंमामेकम् इत्यनेनाभिप्रेतमनूदितम्।उपायम् इति तु शरणशब्दार्थोक्तिः।कर्तारं कर्तुः प्रयोजकतयाऽन्तर्यामित्वेन? अनुमन्तृतया च अवस्थितमित्यर्थः। तदनुसन्धानात्स्वकर्तृत्वाभिमानत्यागः। कर्मणां देवतान्तरशेषत्वस्वशेषत्वधीत्यागार्थमाह -- आराध्यमिति।अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च [9।24]स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य [18।46] इत्यादिकं ह्युक्तम्।प्राप्यम् साक्षात्परम्परया चेति शेषः। ते स्वर्गादिफलत्यागः। त्रिविधत्यागार्थमनूदितमाकारत्रयमुक्तम् अत्र शरणशब्देन विधित्सितमाह -- उपायमिति। स हि सर्वेषु शास्त्रेषु प्रीतः फलं ददातीति प्रागेव निर्णीतम्। स्वसाध्यनश्वरयज्ञोपासनधात्वर्थेषु कालान्तरभाविफलसाधनत्वबुद्धिं परित्यज्य सिद्धे स्थायिनि सर्वज्ञे सत्यसङ्कल्पत्वमहोदारत्वादिगुणशालिनि सकलशास्त्रार्थसमाराध्ये फलप्रदत्वमनुसन्धत्स्वेति स्वरूपत्यागादिपक्षे प्रकरणवैघट्यमाह -- एष एवेति।सुदृढमुपपादितमिति -- अयमभिप्रायः -- एतच्छ्लोकापातप्रतीत्या कूटयुक्तिभिश्च यथा वर्णाश्रमधर्मस्वरूपत्यागादिपक्षो नोदेति? तथोपपादितम् -- इति।अहम् उक्तप्रकारेणाराधितः फलप्रदानौपयिकसार्वज्ञसर्वशक्तित्वपरमकारुणिकत्वादिगुणगणविशिष्ट इति भावः। अनुष्ठितोपायावस्थाविशेषविषयोऽत्रत्वा इति निर्देश इत्याह -- एवं वर्तमानमिति। अव्यवहितोपायस्यापि सर्वधर्मशब्देनोपादानात्मामेवैष्यसि [18।65] इत्यनन्तरोक्तत्वाच्चमत्प्राप्तिविरोधिभ्य इत्युक्तम्। अत्र प्रतिबन्धनिवृत्तिरेवोपायसाध्या? भगवत्प्राप्तिस्तु स्वरूपाविर्भावलक्षणा स्वत एव स्यादित्यभिप्रायः। अत्र सर्वशब्दविवक्षितमाहअनादिकालेत्यादिना। ननु त्रिष्वपि योगेषु निगदितेषु सर्वगुह्यतमे च शास्त्रसारार्थे पुनर्विविच्य प्रदर्शिते ततोऽप्युपरि त्रयाणां साधारणानुसन्धानस्य प्राक्प्रपञ्चितस्यैवात्र पुनः प्रतिपादने किं प्रयोजनं नचायमर्थान्तरपरः श्लोकः? अप्रतीतेः? सङ्ग्रहादिषु तथानुक्तेश्च। शास्त्रादावप्युक्तम्। भाष्येऽपि -- तमुवाच [2।10] इतिश्लोके परमात्मयाथात्म्यतत्प्राप्त्युपायभूतकर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगगोचरंनत्वेवाहं जातु नासम् [2।12] इत्यारभ्यअहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः इत्येतदन्तं वच उवाचेत्यर्थः -- इति। अपिचात्रमा शुचः इत्येतन्न प्रथमोत्पन्नास्थानस्नेहादिमूलशोकप्रतिक्षेपार्थं? तस्य पूर्वमेव निश्शेषक्षालितत्वात् अतो यथामा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि [5।16] इत्यत्राव्यवहितप्रस्तुतोपाधिकशोकापनोदनार्थत्वं? तथाऽत्रापीति युक्तम्। न तु सूक्ष्मधियः क्षत्ित्रयस्य धार्मिकाग्रेसरस्यार्जुनस्य सर्वज्ञप्रदर्शितेषूपायेष्वज्ञानादनर्हत्वात्प्रधानांशानिश्चयाद्वा शोकोऽयम्। फलसंशयोऽपिमामेवैष्यसि इत्यादिना निश्शेषनिर्मूलितः।अतः परिशेषाद्दीर्घकालनैरन्तर्यादरसेवनीयोपायदौष्कर्यात् फलविलम्बाद्वा शोकोऽयं सम्भवेदिति तथाविधशोकप्रशमनपरेणानेन श्लोकेन भवितव्यमित्युक्तार्थान्तरारुचेरुचितं स्वारसिकत्यागशब्दार्थमर्थान्तरमाह -- अथवेति। अत्रसर्वपापविनिर्मुक्तेत्युपायविरोधिसर्वविषयम्। पापनिर्मोक्षादत्यर्थभगवत्प्रियत्वम्।नराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते [पां.गी.40] इति ह्युच्यते।विघ्नायुतेन गोविन्दे नृणां भक्तिर्निवार्यते इत्याद्यनुसन्धानेनाऽऽह -- तदारम्भविरोधिपापानामानन्त्यादिति।जन्मान्तरसहस्रेषु [पां.गी.40] इत्याद्यनुसारेणपरिमितकालकृतैरिति पाठे विलम्बाक्षमत्वं सूचितम्।अपरिमितकालकृतैरिति पाठे तु अपिशब्दोऽध्याहर्तव्यः। तेनोपायस्य दुस्सम्पादत्वव्यञ्जनम्।शोकमपनुदन्निति शोकापनोदनायेत्यर्थः।मन्मना भव मद्भक्तः [18।65] इति पूर्वश्लोके भक्तियोगस्य प्रकृतत्वात्तदारम्भविरोधित्वेन शोकनिमित्तपापविषयोऽत्र सर्वपापशब्दः। तत्तन्निराकरणायोक्तधर्मवर्गविषयः सर्वधर्मशब्दः यस्यैतत्सङ्ग्रहशासनं धर्मेण पापमपनुदति [महाना.17।6] इति। बहुवचनेन सर्वशब्देन च वैविध्यमानन्त्यं च पापेषु धर्मेषु च व्यज्यते।तदिदमाह -- भक्तियोगारम्भविरोधीत्यादिना।कृच्छ्रचान्द्रायणेत्यादिना सम्प्रतिपन्नपापनिर्बहणोदाहरणम्। अग्निष्टोमादयोऽपि विनियोगपृथक्त्वेन अनेकफलसाधका इति प्रागेवोक्तम्। आदिशब्देन कर्मयोगावान्तरभेदतयादैवमेवापरे यज्ञम् [4।25] इत्यादिभिः प्राक्प्रपञ्चितानामनुक्तानां च ग्रहणम्। एवं ज्ञानयोगोऽप्यादिशब्देन सङ्गृहीतः? तस्यापि भक्तियोगारम्भविरोधिपापनिबर्हणत्वेन प्रागेव प्रपञ्चनात्।परिमितकालवर्तिनेत्येकशरीराभिप्रायः। अतिदुष्करानुष्ठानमूलानेकजन्मसंसिद्धि साध्यत्वनिश्चयादेव ह्यस्य शोकः।सर्वधर्मान्परित्यज्य इति स्वरूपत्याग एवास्यां योजनायाम्। न च तावता नित्यनैमित्तिकलोपपप्रसङ्गः? दुरनुष्ठानप्रायश्चित्तादिविषयत्वोक्तेः। तुल्यन्यायतया तु नित्यनैमित्तिकेष्वपि यानि दुरनुष्ठानानि? तत्रैवं स्यात्? शक्तमधिकृत्यैव शास्त्रप्रवृत्तेः? अशक्तस्याकरणे दोषाभावात् अनुकल्पमात्रशक्तौ च तस्यैवानुष्ठेयत्वात्? इह च मुख्याशक्तस्य सर्वप्रकारमुख्यानुकल्पतया एकस्यैव भगवत्प्रपदनस्य विधानाच्छक्ताशक्ताधिकारिभेदाच्च मुख्यानुकल्पयोः सर्वत्र फलाविशेषोपपत्तेः। अत एव गुरुलघुविकल्पानुपपत्तिप्रसङ्गाभावः यथाप्रणवं वा त्रिरभ्यसेत्स्मरेद्वा विष्णुमव्ययम् इति। यथा चमान्त्रं भौमं तथाऽऽग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च। वारुणं मानसं चेति स्नानं सप्तविधं स्मृतम् इति विष्णुचिन्तनमेवावगाहनादिष्वसमर्थस्यापि तत्फलसाधकतया विधीयते? तथेहापीति न कश्चिद्दोष इति। अत्र दुष्करतया चिरकालसाध्यतया चाल्पशक्तिना परिमितकालवर्तिना च दुरनुष्ठानानां धर्माणामर्थसिद्ध एव त्यागो भगवदेकोपायतावरणविधेरुपकारित्वेन विधिच्छाययाऽनूद्यते यथा निदिध्यासनोपकारितया रागप्राप्ते श्रवणमनने श्रोतव्यो मन्तव्यः [बृ.उ.2।4।54।5।6] इति। तदेकोपायतावरणविधानं च तदन्योपायपरित्यागविशिष्टविषयम् तेन तत्फलसाधनत्वेन चोदितानामन्यदेवताविषयाणां भगवति च धर्मान्तराणां त्यागः सङ्गृह्यते। अर्थसिद्धे च देवतान्तरधर्मनिषेधे तत्सिद्ध्यर्थं नात्र व्यधिकरणसमासः समाश्रयणीय इत्यभिप्रायेणसर्वान् धर्मानिति दर्शितम्।ननु शक्तमधिकृत्य निषेधे शास्त्रवैयर्थ्यम्? अशक्तं प्रति तु न विध्यपेक्षेति चेत्? न अशक्तं प्रत्येव ब्रह्मास्त्रबन्धादाविवोपायान्तरपरिग्रहस्य तद्विरोधित्वज्ञापनेनापेक्षितत्वात्। यद्वा यदर्थं शरणव्रज्याऽनुष्ठिता? तदर्थोपायान्तरशक्तेः पश्चात्कुतश्चिद्धेतुवशात्सम्भवेऽपि तदर्थं तदुपादानस्याकर्तव्यताज्ञापनेन सार्थम्। अत्रअहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः इति फलस्य भगवदेकाधीनतया तदेकप्रपदनमेकं फलतयाऽनुष्ठेयं शिष्टं? सर्वधर्मपरित्यागस्य तु वाक्यात्तच्छेषत्वं सिद्धम्? फलवत्सन्निधौ चाफलं तदङ्गम्। तत्र पूर्वसिद्धाकारपरामर्शे अधिकारकोटौ निवेशः अन्यथा तु लिङ्गात्तदेकशरणव्रज्योपयोगिरूपे विश्रान्तिः। तदेकोपायताध्यवसायो हि तदन्योपायपरिग्रहेण विरुद्धः। अतस्त्यागस्यावहन्तेः शेष्यपेक्षिततण्डुलोपयोगिरूपे पर्यवसानवत्तदेकप्रपदनविरोधिधर्मत्यागे पर्यवसानादतत्फलार्था नामविरोधिनां नित्यादीनां त्यागोऽस्य नापेक्षित इति वर्णाश्रमाद्यनुबन्धिस्वतन्त्रविधिप्राप्तास्तद्वदेवावतिष्ठन्ते। न च तेऽपि प्रपदनस्याङ्गान्यङ्गिनो वा? तथा नियोगाभावात्? अशक्तं प्रति दुष्करकर्माङ्गकप्रपदनविधानासम्भवात्? अतदङ्गस्यापि यज्ञादेरन्यार्थमाश्रमाद्यर्थं चानुष्ठानोपपत्तेः। सर्वशब्दनिर्दिष्टप्रत्यनीकतया वामामेकम् इत्येकशब्दः। ततश्च भगवत्प्रपदनमेकमेव सर्वप्रायश्चित्तं स्यादित्युक्तं भवति। शरणागतिस्वभावात्तु तदन्योपायपरित्यागः सिद्ध्येत्। यथा लक्षयन्ति -- अनन्यसाध्ये स्वाभीष्टे महाविश्वासपूर्वकम्। तदेकोपायतायाच्ञा प्रपत्तिः शरणागतिः इति। शरणशब्दोऽत्रोपायपर्यायः। यथोक्तं प्रपत्तिप्रकरणेउपाये गृहरक्षित्रोः शब्दः शरणमित्ययम्। वर्तते साम्प्रतं त्वेष उपायार्थैकवाचकः [अहि.सं.36।33] इति। पठन्ति च -- शरणं गृहरक्षित्रोरुपाये च निगद्यते इति। उपायत्वं च कारुण्यादिगुणविशिष्टस्योपायस्थानेऽवस्थाय तत्कार्यकरणादित्यभिप्रायेण परमकारुणिकत्वादिगुणोक्तिः।एकम् इति नैरपेक्ष्यपरं वा। तत्सिद्ध्यर्थमपिमाम् इत्यनेनाभिप्रेततया कारुण्यादिग्रहणम्।परमकारुणिकमिति -- वधार्हमपि काकुत्स्थः कृपया पर्यपालयत् [ ] इत्यादिभिः कृपायाः पारम्यं? ततः शरण्यत्वं च सिद्धम्। तस्यासङ्कोचमाह -- अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्यमिति। सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत् (बृहत्) [श्वे.उ.3।17] इति श्रुतिः।सर्वलोकशरण्याय [वा.रा.6।17।15] इति रावणावरजवाक्यम्। स्ववाक्यं चविभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम् [वा.रा.6।18।34] इति। विशेषशब्दोऽत्र जातिवर्णविद्यावृत्तगुणसंस्कारभूतभाव्युपकारादिपरः। उक्तगुणाविनाभूतं गुणान्तरमाह -- आश्रितवात्सल्यजलधिमिति।विदितः स हि धर्म(सर्व)ज्ञः शरणागतवत्सलः [वा.रा.5।21।19] इति ह्युक्तम्।दोषो यद्यपि तस्य स्यात् [वा.रा.6।18।3] इत्यादिप्रक्रियया दोषानादराय वात्सल्योक्तिः। गत्यर्थानां बुद्ध्यर्थतया प्रयोगाद्व्रजतिधातुः पूर्वयोजनायामनुसन्धानमात्रपरतया व्याख्यातः। इह तु रक्षिष्यतीति महाविश्वासपूर्वकविशिष्टाध्यवसायलक्षणबुद्धिविशेषनिरूढपदेन व्याचष्टे -- प्रपद्यस्वेति।अहं त्वेति -- सर्वज्ञः सर्वशक्तिरहम् अल्पज्ञमल्पशक्तिं च त्वामित्यर्थः।मा शुचः -- एकेन सुकरेणाविलम्बेनाशेषपापनिवृत्तिसिद्धेरनन्तैर्दुष्करैर्विलम्ब्यकारिभिः प्रत्येकपापनिबर्हणैरिदानीं भक्तियोगारम्भार्हतासम्पादनस्याशक्यतानिमित्तशोकं मा कृथा इत्यर्थः। एवं सकलाभिमतसाधनतया भगवच्छास्त्रादिषु प्रसिद्धं भगवत्प्रपदनमिह प्रकृतभक्तियोगारम्भविरोधिपापनिबर्हणरूपोदाहरणविशेषे प्रदर्शितम्।सुदुष्करेण शोचेद्यो येन येनेष्टहेतुना। स स तस्याहमेवेति चरमश्लोकसङ्ग्रहः। अतएवात्रत्यभाष्यग्रन्थस्य गद्यस्तुतेश्चाविरोध इति। यदिहशङ्करेणोक्तं -- मन्मना भव इति श्लोकेन सर्वकर्मयोगनिष्ठायाः परमं रहस्यमीश्वरशरणतामुपसंहृत्याथेदानीं कर्मयोगनिष्ठाफलं सम्यग्दर्शनं सर्ववेदान्तसारं विहितं वक्तव्यमित्याह -- सर्वधर्मानिति इति। अयमपिसर्वार्थान् विपरीतांश्च [18।32] इत्यस्योदाहरणविशेषः? कर्मयोगनिष्ठायाः पृथक्त्वेन भक्तियोगनिष्ठायाः प्रदर्शितत्वादत्रैवशरणं व्रज इति कण्ठोक्तिदर्शनेन पूर्वत्र तदुपसंहारवाचोयुक्तेरसङ्गतत्वात्।यच्चात्रमामेकं सर्वात्मानं समं सर्वभूतस्थमीश्वरमहमेवेत्येवमेकं शरणं व्रज न मत्तोऽन्यदस्तीत्यवधारय इत्युक्तम् अत्र तावन्न शब्दस्यैवं शक्तिः न च तदुपरोधेन लाक्षणिकार्थस्वीकारे हेतुं पश्यामः? प्रत्युतअहं त्वा सर्वापापेभ्यो मोक्षयिष्यामि इत्यादिस्वारस्याद्राघवविभीषणादिवच्छरण्यशरणागतयोर्गोप्तृत्वरक्षितव्यत्वलक्षणो भेदः प्रतीयते। शास्त्रान्तराणि चैतदविरोधेन पूर्वमेव स्थापितानि। यच्चात्रसर्वधर्मान् परित्यज्य इत्यनेन सर्वकर्मस्वरूपसन्न्यासविधिः इति? इदमप्यध्यायारम्भोक्ततामसत्यागस्वीकरणम्। एतन्निराकरणायैव सात्त्विकस्त्यागोऽत्र भाष्ये (रा.) दर्शितः। ननु कर्माधिकृतेष्वेवायं सात्त्विकराजसतामसरूपस्त्यागविकल्पः? सर्वकर्मसन्न्यासिनां तत्त्वविदां मोहदुःखमूलत्यागासम्भवात् सात्त्विकत्यागोऽपि कर्मनिष्ठमधिकृत्यैवोच्यत इति तत्रैवास्माभिर्वाख्यातमिति चेत्? तदसत् सामान्यतस्त्यागसन्न्यासरूपविषयत्वात्प्रश्नस्योत्तरस्यापि सामान्यविषयत्वं प्रतीयते? ज्ञाननिष्ठानामपि नित्यनैमित्तिककर्मस्वरूपपरित्यागस्य प्रागेव दूषितत्वाच्च। यच्चानुगीतायामुच्यते -- नैव धर्मी न चाधर्मी न चापि हि शुभाशुभी। यः स्यादेकासने लीनस्तूष्णीं किञ्चिदचिन्तयन् [4।7म.भा.13.प.] इति?ज्ञानं सन्न्यासलक्षणम् (सन्न्यासमित्येके) [34।12] इत्यादि च।यच्च श्रीमतिभागवते पुराणे -- तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्। प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च।।मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्। याहि सर्वात्मभावेन यास्यसि ह्यकुतोभयम् (मयाऽस्या ह्यकुतोभयः) [11।12।1415] इति। यच्चान्यत्रत्यज धर्ममधर्मं च त्यज सत्यानृते अपि। उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज [म.भा.12।329।40सन्न्यासो.2।12] इति। एवमीदृशानि वचनानि सात्त्विकत्यागोक्तप्रक्रिययैव नेतव्यानि। समाधिदशातत्परेषु तु वचनेषु न कश्चिद्विरोधः।त्यज धर्ममसङ्कल्पादधर्मं चाप्यहिंसया। उभे सत्यानृते बुद्ध्या बुद्धिं परमनिश्चयात् [म.भा.12।329।40] इत्यादिषु च सात्त्विक एव धर्मत्यागस्तत्तद्वचनोक्त इति सुव्यक्तम्।मामेकम् इत्यत्र च निर्विशेषचिन्मात्रैक्यादिविवक्षां श्रृण्वन्तो बाला अपि परिहसेयुः। भाष्योक्तस्त्वेकशब्दार्थो वचनस्वारस्यपूर्वापरशास्त्रान्तरसङ्गतः। एकशब्दश्चात्यन्तपृथग्भूतेष्वपि दृश्यते।अपेत्याहमिमां हित्वा संश्रयिष्ये निरामयम्। क्षमं मम सहानेन नैकत्वमनया सह [ ] इति। तथाक्व ते रामेण संसर्गः कथं जानासि लक्ष्मणम्। वानराणां नराणां च कथमासीत्समागमः [वा.रा.5।35।2] इति प्रश्नेरामसुग्रीवयोरैक्यं देव्येवं समजायत [वा.रा.5।35।51] इत्यादिषु। या तुसर्वधर्मान्परित्यज्य इत्यत्र विरोधिधर्ममात्रत्यागविषयत्वेन यादवप्रकाशादीनां योजना न तत्रार्थविवादः। सर्वधर्मानवश्यकरणीयानपि परित्यज्येति स्तुतिरूपयोजना तु,अपिशब्दाध्याहारादिभिरयुक्ता। अनियतधर्मपरित्यागोऽत्र विवक्षित इतिनारायणार्यव्याख्यायामपि नानुष्ठानविरोधः।अपिचात्रादितः प्रभृति सम्मृशामः -- प्रथमे तावदध्यायेऽर्जुनस्यास्थानस्नेहकारुण्यादिभिः शास्त्रोल्लङ्घनप्रसङ्गेप्सुनोपक्षिप्तपूर्वपक्षबुद्धिप्रशमनाय द्वितीयेनाध्यात्मशास्त्रमवतारितमित्येतावति सर्वेषामविवादः।द्वितीयाध्यायोक्तस्य योगादेरपि भगवानेवाराध्य इत्यत्रापि न विप्रतिपत्तिः। व्रीह्यादिविषयैः प्रोक्षणावघातादिशास्त्रार्थैरपि हि स एवाराध्यते। स तु तत्र न साक्षाद्विषय इति प्रकरणादिबलात्? साक्षाद्भगवद्योगिनश्चयोगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना [6।47] इत्यादि प्रस्तुत्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च समर्थितम्।तृतीये योगाख्योपायांशभूतयोः क्रियायोगबुद्धियोगयोः विमर्श इत्येतदपिज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् [3।3] इत्यधिकारिभेदवर्णनेन निरस्तम्। न चदूरेण ह्यवरं कर्म [2।49] इति प्रतिपादनात्तुल्यकक्ष्यत्वानुपपत्तिरिति वाच्यं? तस्य तत्प्रकरणनिन्द्यकाम्यकर्मविषयत्वस्थापनात्।यस्त्वात्मरतिरेव स्यात् [3।17] इत्यादिश्लोकद्वये दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य परमात्मैकरतेः पुरुषस्य कृत्यानुष्ठाने प्रयोजनाभावोऽकृत्यकरणे प्रत्यवायाभावश्च प्रतिपाद्यत इति यदुच्यते? तदप्ययुक्तं? नाविरतो दुश्चरितात् [कठो.2।23] इत्यादिविरोधोपपादनात्? तत एवहत्वाऽपि स इमाँल्लोकान् [18।17] इत्यादेरपि वक्ष्यमाणस्यात्रोदाहृतस्यान्यविषयत्वस्थापनात्। अथ चेत्समाधिदशायां कर्तव्यान्तराभावोऽस्मिन् श्लोकद्वये विवक्षित इत्यभिप्रायः? तदा तु मुक्तदशायामिव विरोधाभावादभ्यनुजानीमः। उक्तं च समाधिदशाविषयत्वं षष्ठे तैरेव। तथाहि -- यं सन्न्यास इति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव [6।2] इति श्लोकेसमाधिवेलायामेव कर्मसन्न्यासः कार्यः? नान्यथेति यावत् इत्युक्तम्।आरुरुक्षोर्मुनेर्योगम् [6।3] इत्यत्र चैवं व्यञ्जितं -- यस्य वशिनो योगेन सकलकर्मकालो व्याप्तः? तस्य कर्मपरित्यागो युक्तः? नान्यस्य इति। एतदेव तृतीयचतुर्थपञ्चमेष्वपि भगवता प्रतिपादितमित्यनुसन्धातव्यम्। तृतीये तावत्यस्त्वात्मरतिरेव स्यात् इत्यत्र? चतुर्थेऽपियोगसन्न्यस्तकर्माणम् [4।41] इत्यत्र? पञ्चमे चसर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते [5।13] इत्यत्र? तेनात्मरतीनां वशिनां योगारूढानामेव कर्मसन्न्यासो युक्तः तेषामपि लोकविख्यातानां सर्वलोकादर्शभूतानां विदुषामात्मानुग्रहाभावेऽपि लोकानुग्रहार्थं कर्मयोग एव युक्त इति भगवदभिप्रायो ग्राह्य इति निगमितम्। यत्पुनर्निषिद्धानुष्ठाने प्रत्यवायाभावात्तदकरणे प्रयोजनं नास्तीति? एतत्तु तस्यामवस्थायाम् अप्रसक्तोपन्यासः।यत्तुकर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः [3।20] इत्यत्र राज्ञामुपन्यासस्तद्वृत्तान्तानामेव लोके प्रसिद्धत्वादिति? अत्रायमेव भाव उचितः। यत्त्वनन्तरं पक्षान्तरमुक्तम्एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः [4।2] इति लिङ्गाद्राज्ञामेवायं योगिनां कर्मापरित्यागोपदेशः? नान्येषाम् इति? तन्मन्दम्? अन्येषामपि कर्मस्वरूपापरित्यागस्य सर्वत्र सुस्पष्टत्वात् अत एव हि चतुर्थे स्वयमेवोक्तम्। इह केचित्राजर्षयो विदुः इत्यभिधानात्पूर्वस्मिन्नध्याये निदर्शनार्थं जनकोपन्यासात्? नवमेऽध्यायेराजविद्या राजगुह्यम् [9।2] इति वक्ष्यमाणत्वाच्च राज्ञामेवास्मिन् भगवदुपदिष्टे योगेऽधिकारः? नान्येषामिति मन्यन्ते तदयुक्तं? नवमेऽध्यायेस्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् [9।32] इति सर्वाधिकारस्य वक्ष्यमाणत्वात्। तस्मात्प्रदर्शनार्थं राज्ञां प्रवृत्तिविशेषाद्युपन्यासः? नान्यथेत्यभ्युपगन्तव्यमिति।यत्तु पञ्चमेसन्न्यासः कर्मयोगश्च निश्श्रेयसकरावुभौ [5।2] इत्युक्तसन्न्यासकर्मयोगाभ्यामनन्तरंसाङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः [5।4] इत्याद्युक्तसाङ्ख्ययोगयोरर्थान्तरत्वोपपादनं? तदपि मन्दं?ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् [3।3] इति प्रागुक्तप्रत्यभिज्ञानात्। न च प्रसिद्धिविरोधः? अस्मिन् शास्त्रे तयोरेवमेव प्रसिद्धेः। न चनिश्श्रेयसकरावुभौ इत्युक्तेन पुनरुक्तिः? सङ्ग्रहविस्तररूपत्वादिना तत्परिहारात्? सर्वत्र चैवं सर्वैरभ्युपगमात्। यदपिपण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यत्र सर्वत्राहिंस्यताबुद्धिरनुग्राह्यताबुद्धिः सर्वेषां,भूतानामीश्वरानुग्राह्यताबुद्धिरीश्वरविभूतित्वबुद्धिश्च समदर्शनमभिप्रेतमिति? तावति न विवादः। यत्तु तत्रानन्तरमुक्तंन पुनर्हिंसानुग्रहेषु फलसाम्यबुद्धिः ब्राह्मण्यादिविशेषतिरस्कारो वा। कुत एतत् शास्त्रान्तरानुसारात्प्रमाणान्तरानुसाराच्च इति? अयमप्यात्मव्यतिरिक्तमिथ्यात्वादिवादिनां मतस्योपालम्भः? न पुनः स्वतः परस्परसमानानां आत्मनामौपाधिकसत्यवैषम्यवादिमतस्य? विषमदेहानामपि स्वरूपसाम्यदर्शने शास्त्रान्तरप्रमाणान्तरविरोधाभावात्? प्रत्युत तत्संवादाच्चेति।षष्ठोक्तयोगस्य विषयविशेषादिकं तत्रैव सुस्पष्टमुपपादितम्। दुरपह्नवं च तैरपि योगिनां वैविध्यम्। अत एव हियोगिनामपि सर्वेषाम् [6।47] इति श्लोके व्याचख्युःयोगिनश्चित्तालम्बनवैचित्र्याद्बहुविधाः। तेषु मय्यर्पितचित्तो मामेव श्रद्धया भजते? स मे युक्ततमो मत इति ह्याह इति। योऽस्माभिरिह सङ्क्षेपविस्तराभ्यामुपन्यस्तो योगः? स सर्वेभ्यो योगेभ्यः श्रेष्ठतमो मत इति च।शब्दब्रह्मातिवर्तते [6।44] इत्येतदपि त्रिवर्गातिलङ्घनविषयमेवाभ्युपगन्तव्यम्। अत्र वेदद्वारा तत्फलविवक्षायां लक्षितलक्षणासङ्कोचादिर्महान् क्लेशः। भाष्योक्तप्रक्रिया तु श्रृङ्गग्राहिकया विवक्षितं वक्तीति विशेषः।तपस्विभ्योऽधिको योगी [6।46] इति श्लोके यदुक्तम् -- अत्र तपश्शब्देन वानप्रस्थधर्माणां परिग्रहः ज्ञानशब्देन ब्रह्मचारिधर्माणां? कर्मशब्देन गृहस्थधर्माणाम् इति? अयं विभागो निर्मूलः सर्वेष्वाश्रमेषु स्वाश्रमाविरोधिनां तपोज्ञानकर्मणां सम्भवाद्यथाश्रुतविरोधाभावाद्वानप्रस्थादिलक्षणायाः प्रयोजनाभावाच्च।सप्तमोक्तचेतनाचेतनरूपप्रकृतिद्वयस्यापि ब्रह्मस्वरूपादत्यन्तभेदोऽस्माभिस्तत्रतत्र समर्थितः। अपरप्रकृतेरष्टधाविभागश्च यथाश्रुत एवोपपन्न इति स्थापितम्। यच्चरसोऽहमप्सु [7।8] इत्यादिसामानाधिकरण्यनिर्वाहायोक्तंसमस्तकल्याणगुणसमष्टिविग्रहोऽहम्? अतो मदंशाः सर्वे सर्वत्र कल्याणगुणा इत्यभिप्रायेणाऽऽह इति तत्र तावद्रासिदकल्याणगुणसमष्टिर्न भगवत्स्वरूपं? नचाप्राकृतस्य विग्रहस्य प्राकृतरसादिमयत्वम् अतः परिशेषाद्रसादीनामेव विग्रहत्वमुक्तं स्यात् तत्र समष्टिव्यष्टिभावेनांशत्वोक्तिर्निष्फला। तस्मात्तदुत्पत्तितादधीन्यादिभिरेव सामानाधिकरण्यगमनिका समीचीना। भेदाभेदनयेन कल्याणगुणतादात्म्यविवक्षायामकल्याणैरपि सर्वात्मनस्तस्य तादात्म्यात् समस्तहेयास्पदत्वादिदोषप्रसङ्गः। एवमुत्तरेष्वपि सामानाधिकरण्येषु भाव्यम्।अष्टमे चकिं तद्ब्रह्म [8।1] इत्यादिप्रश्नानामेकाधिकारिवेद्यविषयत्वं तत्रैवास्माभिर्निराकृतम्। ब्रह्मायुर्दिवसकल्पना पौरुषाहोरात्रकल्पनामूलमहाकल्पप्रक्रियोपन्यासश्च स्मृत्यन्तरानुसारेणास्माभिरप्यभ्युपगमाद्धिरण्यगर्भदिवसावसाने महाप्रलयवादिनामयमुपालम्भः।यद्गत्वा (यं प्राप्य) न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम [15।6] इत्यस्य परमव्योमविषयतायां सिद्धान्तविरोधाभावेऽप्यत्र परिशुद्धात्मविषयत्वे युक्तयस्तत्रैवावस्थापिताः। यत्पुनःअग्निर्ज्योतिः [8।24]धूमो रात्रिः [8।25] इत्यत्राग्निधूमशब्दाभ्यामहोरात्रैकदेशभूतः कालविशेषो लक्ष्यत इति तदसत्? तत्तच्छब्दैरत्र देवयानपितृयानाख्यगतिद्वयप्रत्यभिज्ञानात्?नैते सृती [8।27] इति निगमनात्?यत्र काले [8।23] इत्युपक्रमस्थकालशब्दस्य कालाभिमानिदेवतातिवाहिकभूयस्त्वविवक्षया स्थापितत्वाच्च। अतःउदगयनपूर्वपक्षाहःपूर्वाह्णसन्निपाते ब्रह्मविद्भिर्योगिभिरपुनरावृत्तये प्रयातव्यम् इति नियमनमशक्यम्। दक्षिणायनापरपक्षापराह्णरात्रिषु प्रयातानां योगिनां चान्द्रमसज्योतिः प्राप्य पुनरावृत्तिप्रतिपादनमुत्तरेण श्लोकेन कृतमित्यप्यसत्निशि नेति चेन्न सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद्दर्शयति च [ब्र.सू.4।2।19]अतश्चायनेऽपि दक्षिणे [ब्र.सू.4।2।20] इत्यधिकरणाभ्यां दक्षिणायनरात्रिमृतस्यापि योगिनस्तैत्तिरीयोक्तप्रक्रियया चन्द्रसायुज्यपूर्वकं परब्रह्मप्राप्त्यपुनरावृत्त्योः समर्थितत्वेनास्य श्लोकस्य साक्षात् योगिव्यतिरिक्तधूमादिमार्गोचिताधिकारिविषयत्वव्यवस्थापनात्। यच्च कथं पुनरग्निज्योतिर्धूमशब्दयोर्यथोक्तकालविशेषपरत्वमवगम्यते इति परिचोदनापूर्वकमुक्तं? श्रुतिषु च स्मृतिषु च समस्तासूदगयनपूर्वपक्षाहःपूर्वाह्णानां सामान्यतो दैवकर्माङ्गत्वोपदेशात्प्रयाणकालानुस्मरणस्यापि दैवत्वाविशेषात् शास्त्रान्तरेष्वनयोर्दैवकर्मत्वेन दक्षिणायनादिषु वर्जनप्रसङ्गात् इति।यत्पुनःअसमाहितचित्तानामपि सुकरं सुखावगमं क्षिप्रं फलं प्रति भगवत्प्रपत्तिप्रकारं वक्तुं भगवानुवाच इति नवमारम्भे व्याख्यातम्? तदपि पूर्वोक्तज्ञानिसाध्यानन्यभजनस्यैव प्रपञ्चनपरत्वप्रतीतेरपाकृतम्। यच्चज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये [9।15] इति श्लोके प्रकल्पितंसाङ्ख्ययोगाभ्यां समुच्चिताभ्यामुपासनमेकत्वेन उपासनं? विकल्पिताभ्यामुपासनं पृथक्त्वेनोपासनं? बुद्धियोगो वाऽत्र ज्ञानशब्देन विवक्षितः तत्राप्ययमर्थःकेचित्कर्मयोगबुद्धियोगाभ्यां समुच्चिताभ्यामुपासते केचित्केवलेन कर्मयोगेन अपरे केवलेन बुद्धियोगेनेत्येवं बहुधोपासते इति। अत्र साङ्ख्ययोगादिप्रसञ्जकं न किञ्चिद्दृश्यते।अहं क्रतुः [9।16] इत्याद्यनन्तरविवरणग्रन्थानुसारेण एकत्वपृथक्त्वयोरुपास्यविषयत्वं सुस्पष्टम्।अनन्याश्चिन्तयन्तो माम् [9।22] इत्यादौ तु नचावश्यम्भाविने योगक्षेमायापि मद्भक्तैरेकान्तिभिर्देवतान्तराणि धर्मान्तराणि वापेक्षणीयानीत्यादिकं सर्वमङ्गीकृतमस्माभिः।दशमे चविस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च [18] इत्यत्र योगशब्दस्य भगवत्कर्मयोगविषयतया व्याख्यानमयुक्तम्?पश्य मे योगमैश्वरम् [11।8]एतां विभूतिं योगं च [10।7] इत्यादिप्रत्यभिज्ञाविरोधात्? अनन्तरमस्मिन्नध्याये तद्विस्तरादर्शनाच्च।मत्कर्मकृत् [55] इत्याद्येकादशाध्यायान्तिमश्लोकस्तदुत्तरमित्यपि दूरव्यवधानात्तत्रापि विस्तरादर्शनाच्च निरस्तम्। विभूतिविशेषाणां कृत्स्नस्य च जगतः स्वरूपैकदेशत्वेनांशतया सामानाधिकरण्यवर्णनमपि प्रागुक्तसदोषत्वादिप्रसङ्गप्रक्रियया परास्तम्। एवं श्रीविश्वरूपविग्रहस्यावयवत्वेन विश्वस्य वर्णनमपि प्राकृताप्राकृतविभागादवधूतम्।द्वादशोक्तस्याक्षरोपासनस्य भगवदुपासनाद्भेदः स्ववाक्यस्वारस्यपुरुषोत्तमत्वादिप्रकरणान्तरैकरस्यादिभिः साधितः। यत्पुनः -- भेदव्यपदेशास्तु कथञ्चिदवस्थाभेदमाश्रित्य नेतव्याः अवस्थाभेदश्चात्र निर्विशेषनिखिलवस्तुमात्ररूपता? आविर्भूतसमस्तकल्याणगुणसमष्टिरूपता च विवक्षिता -- इति तदेतदनेकविषयव्याघातविसंस्थूलमाकुमारमपहास्यम्। अन्यत्र च दूषणप्रपञ्चनादिहोपरम्यते।त्रयोदशे क्षेत्रज्ञविषये वक्तव्यं सर्वं पूर्वमेवोक्तम्।यतश्च तत् [13।4] इति पाठोऽप्रसिद्धः। तथापाठेऽपि ज्ञानपरामर्शोऽस्वरसः। क्षेत्रस्य नित्यत्वेनाहेतुकत्वाद्धेतुर्न निर्दिष्ट इत्युक्तमिति चेत्? सत्यमुक्तं? दुरुक्तं तु तत्?महाभूतान्यहङ्कारः [13।6] इत्यादिना वक्ष्यमाणस्य क्षेत्रस्याव्यक्तव्यतिरिक्तस्य समस्तस्यानित्यत्वसम्प्रतिपत्तेः?तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम। अव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन्निष्कले सम्प्रलीयते [वि.पु.] इत्यादिभिर्नित्यस्याप्यव्यक्तस्थ परब्रह्मण्येकीभावपृथग्भाववचनाच्च। यच्चब्रह्मसूत्रपदैश्चैव [13।5] इत्यत्रोक्तं -- क्षेत्रादितत्त्वव्यवस्थापनपराणि पञ्चशिखादिप्रणीतानि सूत्रपदानि इति? तदप्यनादेशिकं? पञ्चशिखादिग्रन्थे ब्रह्मसूत्रप्रसिद्ध्यभावात्। यत्तुमद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते [13।19] इति निगमनाद्भगवानेवज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि [13।13] इत्यत्र ज्ञेयत्वेनोक्त इति तन्न?इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः [13।19] इति निगमितानां त्रयाणामेतच्छब्देनानुवादात्? तत्र क्षेत्रज्ञज्ञानवत्कर्मवश्यक्षेत्रज्ञज्ञानस्यापि मोक्षोपयोगित्वोपपत्तेः? क्षेत्रादिज्ञानरूपस्यापि शास्त्रार्थस्य सर्वप्रशासितुर्भगवतः समाराधनरूपत्वेनमदभक्त एतद्विज्ञाय [13।19] इत्यनेन विरोधाभावाच्च।यदपि चतुर्दशेमम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम् [14।3] इत्यत्र परावरप्रकृत्योर्जीवाव्यक्तसंज्ञयोरंशोमिलितो गर्भ इत्युक्तं? तत्र ब्रह्मशब्देनाव्यक्तस्य निर्दिष्टत्वात्तत्र तदंशाधानवचनस्य प्रयोजनाभावात्?क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् [13।27] इत्युक्तस्य चात्र प्रत्यभिज्ञानात्? गर्भशब्देन चेतनविवक्षैव युक्ता।सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते। ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत [14।11] इति श्लोके प्रकाशज्ञानशब्दयोः बाह्यान्तरेन्द्रियवृत्तिविषयतया व्यवस्थापनमशक्यं? विपरिवर्तेऽपि विरोधभावाद्वक्ष्यमाणराजसतामसज्ञानव्यवच्छेदार्थं प्रकाशशब्दप्रयोगोपपत्तेश्च। रजःकार्यश्लोके लोभप्रवृत्तिर्लोभोद्भव इति समस्ततया व्याख्यानमयुक्तं? तथाऽनध्ययनात्?अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च [14।13] इति तमःकार्यश्लोके सत्त्वकार्यप्रकाशनिषेधवद्रजःकार्यप्रवृत्तिनिषेधस्यापि पृथगुपन्यासात्तत्प्रतियोगितया प्रवृत्तेरिह पृथङ्निर्देशोपपत्तेः?आरम्भः कर्मणाम् [14।12] इत्यस्य तु गोबलीवर्दन्यायेन निर्वाहात्।पञ्चदशेऽपिप्रपद्येयतः प्रवृत्तिः [15।4] इति पाठोऽप्रसिद्धः। यदपिममैवांशो प्रवृत्तिः [15।4] इति पाठोऽप्रसिद्धः। यदपिमैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः [15।7] इत्यत्र संसारिव्यतिरिक्तः सर्वेश्वरस्यैव कश्चिदंशो जीवशब्दार्थतया प्रथमं व्याख्यायि तत्र यद्यपि अर्थविरोधो नास्ति? तथापि विभूतिप्रकरणमध्यपाठादन्तर्यामिणस्तुसर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः [15।15] इत्यनन्तरमेव वक्ष्यमाणत्वात्? परमात्मांशविशेषे च जीवशब्दस्य प्रसिद्धिप्रकर्षाभावात् मानवादिशास्त्रान्तरप्रसिद्धेरपिजीवभूतां महाबाहो [7।5] इति स्वशास्त्रप्रसिद्धेर्बलवत्त्वेन स्वीकर्तुमुचितत्वात्विषयानुपसेवते [15।9] इत्यत्र च प्रतिकूलोदासीनभोगेभ्यः सङ्कोचस्य क्लिष्टत्वादुत्क्रमणाद्युक्तेः? हृदयव्याप्तेरन्तर्यामिणः स्वारस्यादिन्द्रियाधिष्ठानेश्वरशब्दादेश्च तत्तन्नियन्तरि संसारिण्यप्युपपत्तेः?आत्मन्यवस्थितम् [15।11] इत्यत्र चात्मशब्दस्य नानार्थस्य प्रकरणोचितार्थपरिग्रहोपपत्तेः? भवदुक्ता द्वितीयैव योजना भाष्यकृदभिमता समीचीनेति मन्यामहे।वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः [15।15] इत्यादौ वेदवेदान्तशब्दयोर्वक्तव्यं प्रागेवोक्तम्।कूटस्थोऽक्षरः [15।16] इत्यस्य जीवभूतपरप्रकृतिव्यतिरिक्ते मुक्ते वृत्तिश्च साधुतरा।यत्तु षोडशे प्रोक्तं -- प्रकारान्तरेणार्जुनस्य शोकमपनेतुं देवप्रकृतीनां रूपं तेषां परमकल्याणप्रत्यासक्तेरर्जुनस्य दैवप्रकृतित्वमासुरप्रकृतीनां रूपं? तन्निमित्तता च सकलस्यानर्थजातस्योक्तम् -- इति। तदयुक्तं? शास्त्रारम्भेऽर्जुनस्य स्वप्रकृत्यनिर्धारणमूलशोकप्रसङ्गाभावात्? अत्र तत्प्रसङ्गे तदपनोदनस्यापि प्रासङ्गिकस्य युक्तत्वात् अतःतस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ [16।24] इति निगमनानुसारेण भगवद्यामुनेयोक्तप्रक्रियया शास्त्रवश्यतैवाध्यायप्रधानार्थः।सप्तदशे श्रद्धात्रैविध्यं शास्त्रीयेतरविषयमित्ययुक्तम् अनन्तरम्?अशास्त्रविहितम् [17।5] इति पृथगभिधानात्। न च तत्र श्रद्धात्रैविध्यमपि समुच्चेतुं शक्यं? तदनुक्तेस्तत्क्लृप्त्यनुपपत्तेश्च। तत्सदिति निर्देशः [17।23] इत्यत्र मुमुक्षूणां यज्ञादिषु किञ्चिदङ्गं तेषां वीर्यातिशयार्थमुपदिश्यत इत्ययुक्तम्? अमुमुक्षूणामपि तदविरोधाद्विशेषकाभावाच्च। अतोलक्षणं शास्त्रसिद्धस्य त्रिधा [गी.सं.21] इत्ययमेवार्थ उचितः। अष्टादशे त्यागस्वरूपादिविवेके नातीव विरोधः? चरमश्लोके वक्तव्यं तु सर्वं सक्तमस्माभिः। एवमन्येष्वपि भूतेषु भविष्यत्सु च श्रीमद्गीताभाष्येषु भगवद्यामुनाचार्यभाष्यकारमतानुसारेण दिङ्मोहः प्रशमयितव्यः। क्षुद्रस्खलितेष्वदूरविप्रकृष्टयोजनाभेदेषु चोदासितव्यमित्यलमतिप्रसङ्गेन।पिशाचरन्तिदेवगुप्तशङ्करयादवप्रकाशभास्करनारायणार्ययज्ञस्वामिप्रभृतिभिः स्वं स्वं मतमास्थितैः परश्शतैर्भाष्यकृद्भिः अस्मत्सिद्धान्ततीर्थकरैश्च भगवद्यामुनाचार्यभाष्यकारादिभिरविगीतपरिगृहीतोऽयमत्र सारार्थः -- भगवानेव परं तत्त्वम्? अनन्यशरणैर्यथाधिकारं तदेकाश्रयणं परमधर्मः इति।
Sri Jayatritha
।।18.66।।सर्वधर्मान् परित्यज्येति वर्णाश्रमविहितानामपि सर्वधर्माणां परित्यागो विधीयत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- धर्मेति। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- कथमिति। अस्मिञ्छास्त्रे क्रियत इति शेषः। अशाब्दोऽऽयमर्थ इति चेत्? न धर्मशब्दस्य स्वकार्यफलोपलक्षणत्वात्। एवमेव भगवता व्याख्यातत्वाच्चेत्याह -- यस्त्विति।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.66।।अधुना तु ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे तिष्ठति तमेव सर्वभावेन शरणं गच्छेति यदुक्तं तद्विवृणोति -- सर्वधर्मान्प्ररित्यज्येति। केचिद्वर्णधर्माः केचिदाश्रमधर्माः केचित्सामान्यधर्मा इत्येवं सर्वानपि धर्मान्परित्यज्य विद्यमानानविद्यमानान्वा शरणत्वेनानादृत्य मामीश्वरमेकमद्वितीयं सर्वधर्माणामधिष्ठातारं फलदातारं च शरणं व्रज। धर्माः सन्तु न सन्तु वा किं तैरन्यसापेक्षैः। भगवदनुग्रहादेव त्वन्यनिरपेक्षादहं कृतार्थो भविष्यामीति निश्चयेन परमानन्दघनमूर्तिमनन्तं श्रीवासुदेवमेव भगवन्तमनुक्षणं भावनया भजस्व। इदमेव परमं तत्त्वं नातोऽधिकमस्तीति विचारपूर्वकेण प्रेमप्रकर्षेण सर्वानात्मचिन्ताशून्यया मनोवृत्त्या तैलधारावदविच्छिन्नया सततं चिन्तयेत्यर्थः। अत्र मामेकं शरणं ब्रजेत्यनेनैव सर्वधर्मशरणतापरित्यागे लब्धे सर्वधर्मान्परित्यज्येति निषेधानुवादस्तु कार्यकारितालाभाययज्ञायज्ञीये साम्नि ऐरं कृत्वोद्भेयमित्यत्र न गिरा गिरेतिब्रूयात् इतिवत्। तथाच ममेव सर्वधर्मकार्यकारित्वान्मदेकशरणस्य नास्ति धर्मापेक्षेत्यर्थः। एतेनेदमपास्तं सर्वधर्मान्परित्यज्येत्युक्ते नाधर्माणां परित्यागो लभ्यते अतो धर्मपदं कर्ममात्रपरमिति। नह्यत्र कर्मत्यागो विधीयते अपितु विद्यमानेऽपि कर्मणि तत्रानादरेण भगवदेकशरणतामात्रं ब्रह्मचारिगृहस्थवानप्रस्थभिक्षूणां साधारण्येन विधीयते। तत्र सर्वधर्मान्परित्यज्येति तेषां स्वधर्मादरसंभवेन तन्निवारणार्थम्। अधर्मे चानर्थफले कस्याप्यादराभावात्तत्परित्यागवचनमनर्थकमेव? शास्त्रान्तरप्राप्तत्वाच्च।,तस्माद्वर्णाश्रमधर्माणामभ्युदयहेतुत्वप्रसिद्धेर्मोक्षहेतुत्वमपि स्यादिति शङ्कानिराकरणार्थमेवैतद्वच इति न्याय्यम्। नच सर्वधर्माधर्मपरित्यागोऽत्र विधीयते संन्यासशास्त्रेण प्रतिषेधशास्त्रेण च लब्धत्वादेव। नचेदमपि संन्यासशास्त्रं भगवदेकशरणतया विधित्सितत्वात्। तस्मात्सर्वधर्मान्परित्यज्येत्यनुवाद एव। सर्वेषां तु शास्त्राणां परमं रहस्यमीश्वरशरणतैवेति तत्रैव शास्त्रपरिसमाप्तिर्भगवता कृता। तामन्तरेण संन्यासस्यापि स्वफलापर्यवसायित्वात्। अर्जुनं च क्षत्रियं संन्यासानधिकारिणं प्रति संन्यासोपदेशायोगात्। अर्जुनव्याजेनान्यस्योपदेशे तुवक्ष्यामि ते हितं त्वा मोक्षयिष्यामि सर्वपापेभ्यस्त्वं? मा शुचः इति चोपक्रमोपसंहारौ न स्याताम्। तस्मात्संन्यासधर्मेष्वप्यनादरेण भगवदेकशरणतामात्रे तात्पर्यं भगवतः। यस्मात्त्वं मदेकशरणः सर्वधर्मानादरेण? अतोऽहं सर्वधर्मकार्यकारित्वात्त्वां सर्वपापेभ्यो बन्धुवधादिनिमित्तेभ्यः संसारहेतुभ्यो मोक्षयिष्यामि प्रायश्चित्तं विनैव।धर्मेण पापमपनुदति इति श्रुतेर्धर्मस्थानीयत्वाच्च मम। अतो मा शुचः युद्धे प्रवृत्तस्य मम बन्धुवधादिनिमित्तप्रत्यवायात्कथं निस्तारः स्यादिति शोकं माकार्षीः।।भाष्यकारैर्निरस्तानि दुर्मतानीह विस्तरात्। ग्रन्थव्याख्यानमात्रार्थी न तदर्थमहं यते।।तस्यैवाहं ममैवासौ स एवाहमिति त्रिधा। भगवच्छरणत्वं स्यात्साधनाभ्यासपाकतः।।विशेषो वर्णितोऽस्माभिः सर्वो भक्तिरसायने। ग्रन्थविस्तरभीरुत्वाद्दिङ्मात्रमिह कथ्यते।।तत्राद्यं मृदु यथासत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः।। द्वितीयं मध्यं यथाहस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्। हृदयाद्यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते।। तृतीयमवधिमात्रं यथासकलमिदमहं च वासुदेवः परमपुमान्परमेश्वरः स एकः। इति मतिरचला भवत्यनन्ते हृदयगते व्रज तान्विहाय दूरात्।। इति दूतं प्रति यमवचनम्। अम्बरीषप्रह्लादगोपीप्रभृतयश्चास्यां भूमिकायामुदाहर्तव्याः। अस्मिन् हि गीताशास्त्रे निष्ठात्रयं साध्यसाधनभावापन्नं विवक्षितमुक्तं च बहुधा। तत्र कर्मनिष्ठा सर्वकर्मसंन्यासपर्यन्तोपसंहृतास्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः इत्यत्र। संन्यासपूर्वकश्रवणादिपरिपाकसहिता ज्ञाननिष्ठोपसंहृताततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् इत्यत्र। भगवद्भक्तिनिष्ठा तूभयसाधनभूतोभयफलभूता च भवतीत्यन्त उपसंहृतासर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इत्यत्र। भाष्यकृतस्तु सर्वधर्मान्परित्यज्येति सर्वकर्मसंन्यासानुवादेन मामेकं शरणं व्रजेति ज्ञाननिष्ठोपसंहृतेत्याहुः। भगवदभिप्रायवर्णने के वयं वराकाःवचो यद्गीताख्यं परमपुरुषस्यागमगिरां रहस्यं तद्व्याख्यामनतिनिपुणः को वितनुताम्। अहं त्वेतद्बाल्यं यदिह कृतवानस्मि कथमप्यहेतुस्नेहानां तदपि कुतकायैव महताम्।
Sri Purushottamji
।।18.66।।नन्वेतत्कथं सिद्ध्येत् इत्याशङ्क्याऽऽह -- सर्वधर्मानिति। सर्वधर्मान् चोदनालक्षणान् परित्यज्य कर्त्तव्योत्तमत्वलक्षणज्ञानाभावेन त्यक्त्वा मामेकं मुख्यं पुरुषोत्तमं शरणं व्रज इत्यर्थः।धर्मान् इति बहुवचनेनमामेकं इत्येकवचनेन च तत्रायाससाध्यत्वं साङ्गानुष्ठेयत्वम्? अत्र सुखसेव्यत्वं सर्वफलदानसामर्थ्यं च,ज्ञापितम्। सर्वधर्मपदेन लौकिकालौकिकधर्मत्यागयुक्तो भवेत्यसङ्कुचितवृत्त्या। विशेषेणास्यार्थस्तुश्रीमद्विठ्ठलेश्वरैरस्मत्प्रभुचरणैर्निरूपित इति नात्र प्रपञ्च्यते। एवं सर्वधर्मत्यागेन शरणागतौ पूर्वोक्तं सिद्ध्यतीत्यर्थः। ननु पूर्वजन्मसञ्चितपापप्रतिबन्धकतया कथं सर्वधर्मत्यागः शरणागतिर्वा सेत्स्यति इत्यत आह -- अहमिति। अहं त्वां पूर्वोक्तस्वेष्टत्वात् सर्वपापेभ्यः प्रतिबन्धकरूपेभ्यो मोक्षयिष्यामि मोचयिष्यामि? प्रतिबन्धकपापादिस्मरणेन मा शुचः शोकं माकार्षीः।
Sri Shankaracharya
।।18.66।। -- सर्वधर्मान् सर्वे च ते धर्माश्च सर्वधर्माः तान् -- धर्मशब्देन अत्र अधर्मोऽपि गृह्यते? नैष्कर्म्यस्य विवक्षितत्वात्? नाविरतो दुश्चरितात् (क0 उ0 1।2।24) त्यज धर्ममधर्मं च (महा0 शान्ति0 329।40) इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः -- सर्वधर्मान् परित्यज्य संन्यस्य सर्वकर्माणि इत्येतत्। माम् एकं सर्वात्मानं समं सर्वभूतस्थितम् ईश्वरम् अच्युतं गर्भजन्मजरामरणवर्जितम् अहमेव इत्येवं शरणं व्रज? न मत्तः अन्यत् अस्ति इति अवधारय इत्यर्थः। अहं त्वा त्वाम् एवं निश्चितबुद्धिं सर्वपापेभ्यः सर्वधर्माधर्मबन्धनरूपेभ्यः मोक्षयिष्यामि स्वात्मभावप्रकाशीकरणेन। उक्तं च नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता (गीता 10।11) इति। अतः मा शुचः शोकं मा कार्षीः इत्यर्थः।।अस्मिन्गीताशास्त्रे परमनिःश्रेयससाधनं निश्चितं किं ज्ञानम्? कर्म वा? आहोस्वित् उभयम् इति। कुतः संशयः यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते (गीता 13।12) ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् (गीता 18।55) इत्यादीनि वाक्यानि केवलाज्ज्ञानात् निःश्रेयसप्राप्तिं दर्शयन्ति। कर्मण्येवाधिकारस्ते (गीता 2।47) कुरु कर्मैव (गीता 4।15) इत्येवमादीनि,कर्मणामवश्यकर्तव्यतां दर्शयन्ति। एवं ज्ञानकर्मणोः कर्तव्यत्वोपदेशात् समुच्चितयोरपि निःश्रेयसहेतुत्वं स्यात् इति भवेत् संशयः कस्यचित्। किं पुनरत्र मीमांसाफलम् ननु एतदेव -- एषामन्यतमस्य परमनिःश्रेयससाधनत्वावधारणम् अतः विस्तीर्णतरं मीमांस्यम् एतत्।।आत्मज्ञानस्य तु केवल्य निःश्रेयसहेतुत्वम्? भेदप्रत्ययंनिवर्तकत्वेन कैवल्यफलावसानत्वात्। क्रियाकारकफलभेदबुद्धिः अविद्यया आत्मनि नित्यप्रवृत्ता -- मम कर्म? अहं कर्तामुष्मै फलायेदं कर्म करिष्यामि इति इयम् अविद्या अनादिकालप्रवृत्ता। अस्या अविद्यायाः निवर्तकम्? अयमहमस्मि केवलोऽकर्ता अक्रियोऽफलः न मत्तोऽन्योऽस्ति कश्चित् इत्येवंरूपम् आत्मविषयं ज्ञानम् उत्पद्यमानम्? कर्मप्रवृत्तिहेतुभूतायाः भेदबुद्धेः निवर्तकत्वात्। तुशब्दः पक्षव्यावृत्त्यर्थः -- न केवलेभ्यः कर्मभ्यः? न च ज्ञानकर्मभ्यां समुच्चिताभ्यां निःश्रेयसप्राप्तिः इति पक्षद्वयं निवर्तयति। अकार्यत्वाच्च निःश्रेयसस्य कर्मसाधनत्वानुपपत्तिः। न हि नित्यं वस्तु कर्मणा ज्ञानेन वा क्रियते। केवलं ज्ञानमपि अनर्थकं तर्हि न? अविद्यानिवर्तकत्वे सति दृष्टकैवल्यफलावसानत्वात्। अविद्यातमोनिवर्तकस्य ज्ञानस्य दृष्टं कैवल्यफलावसानत्वम्। रज्ज्वादिविषये सर्पाद्यज्ञानतमोनिवर्तकप्रदीपप्रकाशफलवत्। विनिवृत्तसर्पादिविकल्परज्जुकैवल्यावसानं हि प्रकाशफलम् तथा ज्ञानम्। दृष्टार्थानां च च्छिदिक्रियाग्निमन्थनादीनां व्यापृतकर्त्रादिकारकाणां द्वैधीभावाग्निदर्शनादिफलात् अन्यफले कर्मान्तरे वा व्यापारानुपपत्तिः यथा? तथा दृष्टार्थायां ज्ञाननिष्ठाक्रियायां व्यापृतस्य ज्ञात्रादिकारकस्य आत्मकैवल्यफलात् कर्मान्तरे प्रवृत्तिः अनुपपन्ना इति न ज्ञाननिष्ठा कर्मसहिता उपपद्यते। भुज्यग्निहोत्रादिक्रियावत्स्यात् इति चेत्? न कैवल्यफले ज्ञाने क्रियाफलार्थित्वानुपपत्तेः। कैवल्यफले हि ज्ञाने प्राप्ते? सर्वतःसंप्लुतोदकफले कूपतटाकादिक्रियाफलार्थित्वाभाववत्? फलान्तरे तत्साधनभूतायां वा क्रियायाम् अर्थित्वानुपपत्तिः। न हि राज्यप्राप्तिफले कर्मणि व्यापृतस्य क्षेत्रमात्रप्राप्तिफले व्यापारः उपपद्यते? तद्विषयं वा अर्थित्वम्। तस्मात् न कर्मणोऽस्ति निःश्रेयससाधनत्वम्। न च ज्ञानकर्मणोः समुच्चितयोः। नापि ज्ञानस्य कैवल्यफलस्य कर्मसाहाय्यापेक्षा? अविद्यानिवर्तकत्वेन विरोधात्। न हि तमः तमसः निवर्तकम्। अतः केवलमेव ज्ञानं निःश्रेयससाधनम् इति। न नित्याकरणे प्रत्यवायप्राप्तेः? कैवल्यस्य च नित्यत्वात्। यत् तावत् केवलाज्ज्ञानात् कैवल्यप्राप्तिः इत्येतत्? तत् असत् यतः नित्यानां कर्मणां श्रुत्युक्तानाम् अकरणे प्रत्यवायः नरकादिप्राप्तिलक्षणः स्यात्। ननु एवं तर्हि कर्मभ्यो मोक्षो नास्ति इति अनिर्मोक्ष एव। नैष दोषः नित्यत्वात् मोक्षस्य। नित्यानां कर्मणाम् अनुष्ठानात् प्रत्यवायस्य अप्राप्तिः? प्रतिषिद्धस्य च अकरणात् अनिष्टशरीरानुपपत्तिः? काम्यानां च वर्जनात् इष्टशरीरानुपपत्तिः? वर्तमानशरीरारम्भकस्य च कर्मणः फलोपभोगक्षये पतिते अस्मिन् शरीरे देहान्तरोत्पत्तौ च कारणाभावात् आत्मनः रागादीनां च अकरणे स्वरूपावस्थानमेव कैवल्यमिति अयत्नसिद्धं कैवल्यम् इति। अतिक्रान्तानेकजन्मान्तरकृतस्य स्वर्गनरकादिप्राप्तिफलस्य अनारब्धकार्यस्य उपभोगानुपपत्तेः क्षयाभावः इति चेत्? न नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखोपभोगस्य तत्फलोपभोगत्वोपपत्तेः। प्रायश्चित्तवद्वा पूर्वोपात्तदुरितक्षयार्थं नित्यं कर्म। आरब्धानां च कर्मणाम् उपभोगेनैव क्षीणत्वात् अपूर्वाणां च कर्मणाम् अनारम्भे अयत्नसिद्धं कैवल्यमिति। न तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे0 उ0 3।8) इति विद्याया अन्यः पन्थाः मोक्षाय न विद्यते इति श्रुतेः? चर्मवदाकाशवेष्टनासंभववत् अविदुषः मोक्षासंभवश्रुतेः? ज्ञानात्कैवल्यमाप्नोति इति च पुराणस्मृतेः अनारब्धफलानां पुण्यानां कर्मणां क्षयानुपपत्तेश्च। यथा पूर्वोपात्तानां दुरितानाम् अनारब्धफलानां संभवः? तथा पुण्यानाम् अनारब्धफलानां स्यात्संभवः। तेषां च देहान्तरम् अकृत्वा क्षयानुपपत्तौ मोक्षानुपपत्तिः। धर्माधर्महेतूनां च रागद्वेषमोहानाम् अन्यत्र आत्मज्ञानात् उच्छेदानुपपत्तेः धर्माधर्मोच्छेदानुपपत्तिः। नित्यानां च कर्मणां पुण्यफलत्वश्रुतेः? वर्णा आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः (आ0 स्मृ0 2।2।2।3) इत्यादिस्मृतेश्च कर्मक्षयानुपपत्तिः।।ये तु आहुः -- नित्यानि कर्माणि दुःखरूपत्वात् पूर्वकृतदुरितकर्मणां फलमेव? न तु तेषां स्वरूपव्यतिरेकेण अन्यत् फलम् अस्ति? अश्रुतत्वात्? जीवनादिनिमित्ते च विधानात् इति। न? अप्रवृत्तानां कर्मणां फलदानासंभवात् दुःखफलविशेषानुपपत्तिश्च स्यात्। यदुक्तं पूर्वजन्मकृतदुरितानां कर्मणां फलं नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखं भुज्यत इति? तदसत्। न हि मरणकाले फलदानाय अनङ्कुरीभूतस्य कर्मणः फलम् अन्यकर्मारब्धे जन्मनि उपभुज्यते इति उपपत्तिः। अन्यथा स्वर्गफलोपभोगाय अग्निहोत्रादिकर्मारब्धे जन्मनि नरककर्मफलोपभोगानुपपत्तिः न स्यात्। तस्य दुरितस्य दुःखविशेषफलत्वानुपपत्तेश्च -- अनेकेषु हि दुरितेषु संभवत्सु भिन्नदुःखसाधनफलेषु नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमात्रफलेषु कल्प्यमानेषु द्वन्द्वरोगादिबाधनं निर्निमित्तं न हि शक्यते कल्पयितुम्? नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमेव पूर्वोपात्तदुरितफलं न शिरसा पाषाणवहनादिदुःखमिति। अप्रकृतं च इदम् उच्यते -- नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखं पूर्वकृतदुरितकर्मफलम् इति। कथम् अप्रसूतफलस्य हि पूर्वकृतदुरितस्य क्षयः न उपपद्यत इति प्रकृतम्। तत्र प्रसूतफलस्य कर्मणः फलं नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखम् आह भवान्? न अप्रसूतफलस्येति। अथ सर्वमेव पूर्वकृतं दुरितं प्रसूतफलमेव इति मन्यते भवान्? ततः नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखमेव फलम् इति विशेषणम् अयुक्तम्। नित्यकर्मविध्यानर्थक्यप्रसङ्गश्च? उपभोगेनैव प्रसूतफलस्य दुरितकर्मणः क्षयोपपत्तेः। किं च? श्रुतस्य नित्यस्य कर्मणः दुःखं चेत् फलम्? नित्यकर्मानुष्ठानायासादेव तत् दृश्यते व्यायामादिवत् तत् अन्यस्य इति कल्पनानुपपत्तिः। जीवनादिनिमित्ते च विधानात्? नित्यानां कर्मणां प्रायश्चित्तवत्? पूर्वकृतदुरितफलत्वानुपपत्तिः। यस्मिन् पापकर्मणि निमित्ते यत् विहितं प्रायश्चित्तम् न तु तस्य पापस्य तत् फलम्। अथ तस्यैव पापस्य निमित्तस्य प्रायश्चित्तदुःखं फलम्? जीवनादिनिमित्तेऽपि नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखं जीवनादिनिमित्तस्यैव फलं प्रसज्येत? नित्यप्रायश्चित्तयोः नैमित्तिकत्वाविशेषात्। किं च अन्यत -- नित्यस्य काम्यस्य च अग्निहोत्रादेः अनुष्ठानायासदुःखस्य तुल्यत्वात् नित्यानुष्ठानायासदुःखमेव पूर्वकृतदुरितस्य फलम्? न तु काम्यानुष्ठानायासदुःखम् इति विशेषो नास्तीति तदपि पूर्वकृतदुरितफलं प्रसज्येत। तथा च सति नित्यानां फलाश्रवणात् तद्विधानान्यथानुपपत्तेश्च नित्यानुष्ठानायासदुःखं पूर्वकृतदुरितफलम् इति अर्थापत्तिकल्पना च अनुपपन्ना? एवं विधानान्यथानुपपत्तेः अनुष्ठानायासदुःखव्यतिरिक्तफलत्वानुमानाच्च नित्यानाम्। विरोधाच्च विरुद्धं च इदम् उच्यते -- नित्यकर्मणि अनुष्ठीयमाने अन्यस्य कर्मणः फलं भुज्यते इति अभ्युपगम्यमाने स एव उपभोगः नित्यस्य कर्मणः फलम् इति? नित्यस्य कर्मणः फलाभाव इति च विरुद्धम् उच्यते। किं च? काम्याग्निहोत्रादौ अनुष्ठीयमाने नित्यमपि अग्निहोत्रादि तन्त्रेणैव अनुष्ठितं भवतीति तदायासदुःखेनैव काम्याग्निहोत्रादिफलम् उपक्षीणं स्यात्? तत्तन्त्रत्वात्। अथ काम्याग्निहोत्रादिफलम् अन्यदेव स्वर्गादि? तदनुष्ठानायासदुःखमपि भिन्नं प्रसज्येत। न च तदस्ति? दृष्टविरोधात् न हि काम्यानुष्ठानायासदुःखात् केवलनित्यानुष्ठानायासदुःखं भिन्नं दृश्यते। किं च अन्यत् -- अविहितमप्रतिषिद्धं च कर्म तत्कालफलम्? न तु शास्त्रचोदितं प्रतिषिद्धं वा तत्कालफलं भवेत्। तदा स्वर्गादिष्वपि अदृष्टफलाशासने उद्यमो न स्यात् -- अग्निहोत्रादीनामेव कर्मस्वरूपाविशेषे अनुष्ठानायासदुःखमात्रेण उपक्षयः नित्यानाम् स्वर्गादिमहाफलत्वं काम्यानाम्? अङ्गेतिकर्तव्यताद्याधिक्ये तु असति? फलकामित्वमात्रेणेति न शक्यं कव्यापितुं। तस्माच्च न नित्यानां कर्मणाम् अदृष्टफलाभावः कदाचिदपि उपपद्यते। अतश्च अविद्यापूर्वकस्य कर्मणः विद्यैव शुभस्य अशुभस्य वा क्षयकारणम् अशेषतः? न नित्यकर्मानुष्ठानम्। अविद्याकामबीजं हि सर्वमेव कर्म। तथा च उपपादितमविद्वद्विषयं कर्म? विद्वद्विषया च सर्वकर्मसंन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा -- उभौ तौ न विजानीतः (गीता 2।19) वेदाविनाशिनं नित्यम् (गीता 2।21) ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् (गीता 3।3) अज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् (गीता 3।26) तत्त्ववित्तु महाबाहो৷৷৷৷ गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते (गीता 3।28) सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते (गीता 5।13) नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ? अर्थात् अज्ञः करोमि इति आरुरुक्षोः कर्म कारणम्? आरूढस्य योगस्थस्य शम एव कारणम् उदाराः त्रयोऽपि अज्ञाः? ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता 7।18) अज्ञाः कर्मिणः गतागतं कामकामाः लभन्ते अनन्याश्चिन्तयन्तो मां नित्ययुक्ताः यथोक्तम् आत्मानम् आकाशकल्पम् उपासते ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते (गीता 10।10)? अर्थात् न कर्मिणः अज्ञाः उपयान्ति। भगवत्कर्मकारिणः ये युक्ततमा अपि कर्मिणः अज्ञाः? ते उत्तरोत्तरहीनफलत्यागावसानसाधनाः अनिर्देश्याक्षरोपासकास्तु अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् (गीता 12।13) इति आध्यायपरिसमाप्ति उक्तसाधनाः क्षेत्राध्यायाद्यध्यायत्रयोक्तज्ञानसाधनाश्च। अधिष्ठानादिपञ्चकहेतुकसर्वकर्मसंन्यासिनां आत्मैकत्वाकर्तृत्वज्ञानवतां परस्यां ज्ञाननिष्ठायां वर्तमानानां भगवत्तत्त्वविदाम्अनिष्टादिकर्मफलत्रयं परमहंसपरिव्राजकानामेव लब्धभगवत्स्वरूपात्मैकत्वशरणानां न भवति भवत्येव अन्येषामज्ञानां कर्मिणामसंन्यासिनाम् इत्येषः गीताशास्त्रोक्तकर्तव्यार्थस्य विभागः।।अविद्यापूर्वकत्वं सर्वस्य कर्मणः असिद्धमिति चेत्? न ब्रह्महत्यादिवत्। यद्यपि शास्त्रावगतं नित्यं कर्म? तथापि अविद्यावत एव भवति। यथा प्रतिषेधशास्त्रावगतमपि ब्रह्महत्यादिलक्षणं कर्म अनर्थकारणम् अविद्याकामादिदोषवतः भवति? अन्यथा प्रवृत्त्यनुपपत्तेः? तथा नित्यनैमित्तिककाम्यान्यपीति। देहव्यतिरिक्तात्मनि अज्ञाते प्रवृत्तिः नित्यादिकर्मसु अनुपपन्ना इति चेत्? न चलनात्मकस्य कर्मणः अनात्मकर्तृकस्य अहं करोमि इति प्रवृत्तिदर्शनात्। देहादिसंघाते अहंप्रत्ययः गौणः? न मिथ्या इति चेत्? न तत्कार्येष्वपि गौणत्वोपपत्तेः। आत्मीये देहादिसंघाते अहंप्रत्ययः गौणः यथा आत्मीये पुत्रे आत्मा वै पुत्रनामासि (तै0 सं0 2।11) इति? लोके च मम प्राण एव अयं गौः इति? तद्वत्। नैवायं मिथ्याप्रत्ययः। मिथ्याप्रत्ययस्तु स्थाणुपुरुषयोः अगृह्यमाणविशेषयोः। न गौणप्रत्ययस्य मुख्यकार्यार्थता? अधिकरणस्तुत्यर्थत्वात् लुप्तोपमाशब्देन। यथा सिंहो देवदत्तः अग्निर्माणवकः इति सिंह इव अग्निरिव क्रौर्यपैङ्गल्यादिसामान्यवत्त्वात् देवदत्तमाणवकाधिकरणस्तुत्यर्थमेव? न तु सिंहकार्यम् अग्निकार्यं वा गौणशब्दप्रत्ययनिमित्तं किञ्चित्साध्यते मिथ्याप्रत्ययकार्यं तु अनर्थमनुभवति इति। गौणप्रत्ययविषयं जानाति नैष सिंहः देवदत्तः? तथा नायमग्निर्माणवकः इति। तथा गौणेन देहादिसंघातेन आत्मना कृतं कर्म न मुख्येन अहंप्रत्ययविषयेण आत्मना कृतं स्यात्। न हि गौणसिंहाग्निभ्यां कृतं कर्म मुख्यसिंहाग्निभ्यां कृतं स्यात्। न च क्रौर्येण पैङ्गल्येन वा मुख्यसिंहाग्न्योः कार्यं किञ्चित् क्रियते? स्तुत्यर्थत्वेन उपक्षीणत्वात्। स्तूयमानौ च जानीतः न अहं सिंहः न अहम् अग्निः इति न हि सिंहस्य कर्म मम अग्नेश्च इति। तथा न संघातस्य कर्म मम मुख्यस्य आत्मनः इति प्रत्ययः युक्ततरः स्यात् न पुनः अहं कर्ता मम कर्म इति। यच्च आहुः आत्मीयैः स्मृतीच्छाप्रयत्नैः कर्महेतुभिरात्मा कर्म करोति इति? न तेषां मिथ्याप्रत्ययपूर्वकत्वात्। मिथ्याप्रत्ययनिमित्तेष्टानिष्टानुभूतक्रियाफलजनितसंस्कारपूर्वकाः हि स्मृतीच्छाप्रयत्नादयः। यथा अस्मिन् जन्मनि देहादिसंघाताभिमानरागद्वेषादिकृतौ धर्माधर्मौ तत्फलानुभवश्च? तथा अतीते अतीततरेऽपि जन्मनि इति अनादिरविद्याकृतः संसारः अतीतोऽनागतश्च अनुमेयः। ततश्च सर्वकर्मसंन्याससहितज्ञाननिष्ठायाम् आत्यन्तिकः संसारोपरम इति सिद्धम्। अविद्यात्मकत्वाच्च देहाभिमानस्य? तन्निवृत्तौ देहानुपपत्तेः संसारानुपपत्तिः। देहादिसंघाते आत्माभिमानः अविद्यात्मकः। न हि लोके गवादिभ्योऽन्योऽहम्? मत्तश्चान्ये गवादयः इति जानन् तान् अहम् इति मन्यते कश्चित्। अजानंस्तु स्थाणौ पुरुषविज्ञानवत् अविवेकतः देहादिसंघाते कुर्यात् अहम् इति प्रत्ययम्? न विवेकतः जानन्। यस्तु आत्मा वै पुत्र नामासि (तै. सं. 2।11) इति पुत्रे अहंप्रत्ययः? स तु जन्यजनकसंबन्धनिमित्तः गौणः। गौणेन च आत्मना भोजनादिवत् परमार्थकार्यं न शक्यते कर्तुम्? गौणसिंहाग्निभ्यां मुख्यसिंहाग्निकार्यवत्।।अदृष्टविषयचोदनाप्रामाण्यात् आत्मकर्तव्यं गौणैः देहेन्द्रियात्मभिः क्रियत एव इति चेत्? न अविद्याकृतात्मत्वात्तेषाम्। न च गौणाः आत्मानः देहन्द्रियादयः किं तर्हि मिथ्या प्रत्ययेनैव अनात्मानः सन्तः आत्मत्वमापाद्यन्ते? तद्भावे भावात्? तदभावे च अभावात्। अविवेकिनां हि अज्ञानकाले बालानां दृश्यते दीर्घोऽहम् गौरोऽहम् इति देहादिसंघाते अहंप्रत्ययः। न तु विवेकिनाम् अन्योऽहं देहादिसंघातात् इति जानतां तत्काले देहादिसंघाते अहंप्रत्ययः भवति। तस्मात् मिथ्याप्रत्ययाभावे अभावात् तत्कृत एव? न गौणः। पृथग्गृह्यमाणविशेषसामान्ययोर्हि सिंहदेवदत्तयोः अग्निमाणवकयोर्वा गौणः प्रत्ययः शब्दप्रयोगो वा स्यात्? न अगृह्यमाणविशेषसामान्ययोः। यत्तु उक्तम् श्रुतिप्रामाण्यात् इति? तत् न तत्प्रामाण्यस्य अदृष्टविषयत्वात्। प्रत्यक्षादिप्रमाणानुपलब्धे हि विषये अग्निहोत्रादिसाध्यसाधनसंबन्धे श्रुतेः प्रामाण्यम्? न प्रत्यक्षादिविषये? अदृष्टदर्शनार्थविषयत्वात् प्रामाण्यस्य। तस्मात् न दृष्टमिथ्याज्ञाननिमित्तस्य अहंप्रत्ययस्य देहादिसंघाते गौणत्वं कल्पयितुं शक्यम्। न हि श्रुतिशतमपि शीतोऽग्निरप्रकाशो वा इति ब्रुवत् प्रामाण्यमुपैति। यदि ब्रूयात् शीतोऽग्निरप्रकाशो वा इति? तथापि अर्थान्तरं श्रुतेः विवक्षितं,कल्प्यम्? प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेः? न तु प्रमाणान्तरविरुद्धं स्ववचनविरुद्धं वा। कर्मणः मिथ्याप्रत्ययवत्कर्तृकत्वात् कर्तुरभावे श्रुतेरप्रामाण्यमिति चेत्? न ब्रह्मविद्यायामर्थवत्त्वोपपत्तेः।।कर्मविधिश्रुतिवत् ब्रह्मविद्याविधिश्रुतेरपि अप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेत्? न बाधकप्रत्ययानुपपत्तेः। यथा ब्रह्मविद्याविधिश्रुत्या आत्मनि अवगते देहादिसंघाते अहंप्रत्ययः बाध्यते? तथा आत्मन्येव आत्मावगतिः न कदाचित् केनचित् कथंचिदपि बाधितुं शक्या? फलाव्यतिरेकादवगतेः? यथा अग्निः उष्णः प्रकाशश्च इति। न च एवं कर्मविधिश्रुतेरप्रामाण्यम्? पूर्वपूर्वप्रवृत्तिनिरोधेन उत्तरोत्तरापूर्वप्रवृत्तिजननस्य प्रत्यगात्माभिमुख्येन प्रवृत्त्युत्पादनार्थत्वात्। मिथ्यात्वेऽपि उपायस्य उपेयसत्यतया सत्यत्वमेव स्यात्? यथा अर्थवादानां विधिशेषाणाम् लोकेऽपि बालोन्मत्तादीनां पयआदौ पाययितव्ये चूडावर्धनादिवचनम्। प्रकारान्तरस्थानां च साक्षादेव वा प्रामाण्यं सिद्धम्? प्रागात्मज्ञानात् देहाभिमाननिमित्तप्रत्यक्षादिप्रामाण्यवत्। यत्तु मन्यसे -- स्वयमव्याप्रियमाणोऽपि आत्मा संनिधिमात्रेण करोति? तदेव मुख्यं कर्तृत्वमात्मनः यथा राजा युध्यमानेषु योधेषु युध्यत इति प्रसिद्धं स्वयमयुध्यमानोऽपि संनिधानादेव जितः पराजितश्चेति? तथा सेनापतिः वाचैव करोति क्रियाफलसंबन्धश्च राज्ञः सेनापतेश्च दृष्टः। यथा च ऋत्विक्कर्म यजमानस्य? तथा देहादीनां कर्म आत्मकृतं स्यात्? फलस्य आत्मगामित्वात्। यथा च भ्रामकस्य लोहभ्रामयितृत्वात् अव्यापृतस्यैव मुख्यमेव कर्तृत्वम्? तथा च आत्मनः इति। तत् असत् अकुर्वतः कारकत्वप्रसङ्गात्। कारकमनेकप्रकारमिति चेत्? न राजप्रभृतीनां मुख्यस्यापि कर्तृत्वस्य दर्शनात्। राजा तावत् स्वव्यापारेणापि युध्यते योधानां च योधयितृत्वे धनदाने च मुख्यमेव कर्तृत्वम्? तथा जयपराजयफलोपभोगे। यजमानस्यापि प्रधानत्यागे दक्षिणादाने च मुख्यमेव कर्तृत्वम्। तस्मात् अव्यापृतस्य कर्तृत्वोपचारो यः? सः गौणः इति अवगम्यते। यदि मुख्यं कर्तृत्वं स्वव्यापारलक्षणं नोपलभ्यते राजयजमानप्रभृतीनाम्? तदा संनिधिमात्रेणापि कर्तृत्वं मुख्यं परिकल्प्येत यथा भ्रामकस्य लोहभ्रामणेन? न तथा राजयजमानादीनां स्वव्यापार नोपलभ्यते। तस्मात् संनिधिमात्रेण कर्तृत्वं गौणमेव। तथा च सति तत्फलसंबन्धोऽपि गौण एव स्यात्। न गौणेन मुख्यं कार्यं निर्वर्त्यते। तस्मात् असदेव एतत् गीयते देहादीनां व्यापारेण अव्यापृतः आत्मा कर्ता भोक्ता च स्यात् इति। भ्रान्तिनिमित्तं तु सर्वम् उपपद्यते? यथा स्वप्ने मायायां च एवम्। न च देहाद्यात्मप्रत्ययभ्रान्तिसंतानविच्छेदेषु सुषुप्तिसमाध्यादिषु कर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यनर्थः उपलभ्यते। तस्मात् भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्तः एव अयं संसारभ्रमः? न तु परमार्थः इति सम्यग्दर्शनात् अत्यन्त एवोपरम इति सिद्धम्।।सर्वं गीताशास्त्रार्थमुपसंहृत्य अस्मिन्नध्याये? विशेषतश्च अन्ते? इह शास्त्रार्थदार्ढ्याय संक्षेपतः उपसंहारं कृत्वा? अथ इदानीं शास्त्रसंप्रदायविधिमाह --,
Sri Vallabhacharya
।।18.66।।अथैतदप्यशक्तोऽसि मुख्यं कर्तुमिह चेत्तर्हि तुभ्यं तदनुकल्पमेवाहमुपदिशन्नेवाऽऽह (अत इदानीं तव तु मयि मुख्यकर्तरि परदेवतायां परमात्मनि धर्मकर्मभारं सन्न्यस्य मदेकशरणतया मदुक्तकारित्वमुचितं एवं च मोक्षोऽपीत्याह) -- सर्वधर्मान्परित्यज्येति। अत्र सर्वधर्मपरित्यागमनूद्य शरणगमनं विधीयते तेन सर्वपदेन शरणमार्गीयविरोधिधर्मा उच्यन्ते? तेषां परित्यागस्तदविरोधिनां विधानं सूच्यतेमन्मनाः इत्यनेन सङ्गतिसम्भवात्। यद्वा मयि धर्मिणि गृहीते धर्माः पुनर्नोपादेयाःस्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्र -- इति न्यायात्। अथवामय्येव मन आधत्स्व इत्यत्रैवकारेणेतरभजनं वार्यते? तेनात्रापीतरभजनरूपान्सर्वधर्मान् परित्यज्य इति मर्यादामार्गीयस्यार्जुनस्येतरभजननिरतस्य पुष्टौ निवेशनार्थमितरभजनरूपधर्मपरित्याग उच्यते,भगवता। अतएव तथाभूतस्य तस्य तत्त्यागे पापसम्भावनाऽपि भवति। तत्र पुष्टिपुरुषोत्तमस्वरूपभावमाविष्कुर्वन्नाहअहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः इति सर्वनिरोधार्थावतारत्वादित्याशयः।एतच्च सर्वं न्यासादेशेषु धर्मत्यजनवचनतोऽकिञ्चनाधिक्रियोक्तेति वेदान्ताचार्यपद्ये निरूपितम्। तथाहि अष्टादशाध्याये भगवदुक्तेषु न्यासादेशेषुसर्वधर्मान्परित्यज्य इति धर्मत्यजनवचनतोऽकिञ्चनाधिक्रियोक्ता सर्वधर्मपरित्यागतः? न किञ्चन परमात्मातिरिक्तं येषां किन्तु हरिरेव परमात्मा सर्वं तेषामधिकार उक्तो न्यासादेशेष्वित्यर्थः। कार्पण्यं वा साधनबलराहित्याद्दैन्यम्। दीना हिबहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्तो धर्मादिसाधनबलाशारहिता गोपिका इव भगवदेकशरणा भवन्ति इति कार्पण्यं न्यासादेशेष्वङ्गमुक्तम्। मदितरभजनापेक्षणं वेति। अनन्या हि कक्षीवदादय इव मदितरभजनधर्मापेक्षणं व्यपोह्य मदाज्ञप्तकारिण इति दुस्साध्येच्छोद्यमौ वा दुःसाध्या द्रोणभीष्मादिमारणपापप्रायश्चित्तरूपा धर्मास्तेषु इच्छोद्यमौ व्यपोढुं त्याजयितुं तत्त्याग उक्त इति। अत्र विशेषस्तु श्रीविठ्ठलेश्वरप्रभुचरणकृतितोऽवगन्तव्यः। प्रकृतेमोचयिष्यामि इति वक्तव्येमोक्षयिष्यामि इत्युक्त्या सकलधर्ममर्यादाभिनिविष्टचेतसेऽर्जुनाय स्वाश्रितजनपोषकेणाक्लिष्टकर्मणा भगवता निरतिशयानुग्रहरूपारणस्वीकाररूपोऽन्यतो मोक्षो दत्त इति ज्ञायते।अयमेव हि सन्न्यासः साङ्ख्ये योगे च भक्तितः। उक्तो भगवदर्थेन हरिं गृह्णीत कर्मणा।।1।।एवं च गायमानं मामापन्नः शरणं भवान्। करोतु मन्निगमितं निजधर्ममहैतुकम्।।2।।इति श्रीकृष्णवाक्येषु सत्यं तत्त्वं प्रतीयते। मर्यादापुष्टिमार्गाधिष्ठाता यत्पुरुषोत्तमः।।3।।
Swami Sivananda
18.66 सर्वधर्मान् all duties? परित्यज्य having abandoned? माम् to Me? एकम् alone? शरणम् refuge? व्रज take? अहम् I? त्वा thee? सर्वपापेभ्यः from all sins? मोक्षयिष्यामि will liberate? मा dont? शुचः grieve.Commentary This is the answer given by the Lord to the estion put by Arjuna in chapter II? verse 7 I ask Thee which may be the better tell me that decidedly. I am Thy disciple? suppliant to Thee teach me.All Dharmas Righteous deeds? including Adharma all actions? righteous or unrighteous? as absolute freedom from all actions is intended to be taught here.Taking refuge in Me alone implies the knowledge of unity without any thought of duality knowing that there is nothing else except Me? the Self of all? dwelling the same in all. If thou art established in this faith? I shall liberate thee from all sins? from all bonds of Dharma and Adharma by manifesting Myself as thy own Self.To behold forms is the Dharma of the eye. The support or substratum of all forms is Brahman. When you look at an object behold Brahman Which is the one essence and abandon the form as it is illusory and unreal. Have the same attitude towards the other objects which pertain to the other senses.Give up the JivaDharma (the notions I am the doer o actions? I enjoy. I am a Brahmana. I am a Brahmachari. I am endowed with a little knowledge and power? etc. and get yourself established in BrahmaBhavana (the understanding or knowledge I am Brahman). This is what is meant by taking refuge in Lord Krishna? according to the Vedantins.Work ceaselessly for the Lord but surrender the fruits of all actions to the Lord. Take the Lord as your sole refuge. Live for Him. Work for Him. Serve Him in all forms. Think of Him only. Meditate on Him alone. See Him in all forms. Think of Him only. Meditate on Him alone. See Him everywhere. Worship Him in your heart. Consecrate your life? all actions? feelings and thoughts to the Lord. You will rest in Him. You will attain union with Him. You will attain immortal supreme peace and eternal bliss. This is the view of another school of thought.Sri Sankara very strongly refutes the idea that knowledge in conjunction with Karma (action) produces or leads to liberation. He says that Karma and knowledge may not go together in the same man? that karma helps the man to get purification of the heart? and that right knowledge of the Self alone will give him absolute freedom from Samsara. He says that work and knowledge are like darkness and light? that action is possible only in this universe of illusory phenomena which is the projection of ignorance and knowledge dispels this ignorance. (Cf.III.30IX.22)