Chapter 18, Verse 64
Verse textसर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।18.64।।
Verse transliteration
sarva-guhyatamaṁ bhūyaḥ śhṛiṇu me paramaṁ vachaḥ iṣhṭo ‘si me dṛiḍham iti tato vakṣhyāmi te hitam
Verse words
- sarva-guhya-tamam—the most confidential of all
- bhūyaḥ—again
- śhṛiṇu—hear
- me—by me
- paramam—supreme
- vachaḥ—instruction
- iṣhṭaḥ asi—you are dear
- me—to me
- dṛiḍham—very
- iti—thus
- tataḥ—because
- vakṣhyāmi—I am speaking
- te—for your
- hitam—benefit
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
Yet again, you must listen to My ultimate, supreme message—the highest secret of all. You are My dear one and have a firm intellect, so I shall tell you what is good for you.
Swami Ramsukhdas
।।18.64।।सबसे अत्यन्त गोपनीय वचन तू फिर मेरेसे सुन। तू मेरा अत्यन्त प्रिय है, इसलिये मैं तेरे हितकी बात कहूँगा।
Swami Tejomayananda
।।18.64।। पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा।।
Swami Adidevananda
Hear again My supreme word, the most secret of all; as I am exceedingly fond of you, I am telling you what is good for you.
Swami Gambirananda
Listen again to My highest utterance, which is the most profound of all. Since you are ever dear to Me, I shall speak what is beneficial to you.
Swami Sivananda
Hear again My supreme word, most secret of all; for you are dearly beloved of Me, I will tell you what is good.
Shri Purohit Swami
Listen to My last word once more, the deepest secret of all; you are My beloved, you are My friend, and I speak for your welfare.
Verse commentaries
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.64।।अविशेषेण त्रिविधेऽपि हि निगमिते त्रयाणामप्यन्यापेक्षया गुह्यतरत्वे चोक्ते त्रिष्वेतेषु व्यवहिताव्यवहितोपायविभागेन गुह्यतमाध्यवसायार्थं? पुनः प्राधान्यात्तत्रैव शास्त्रतात्पर्यातिशयद्योतनायसर्वगुह्यतमम् इत्यादिश्लोकद्वयेन भक्तियोगरूपशास्त्रसारार्थः प्रतिसन्धाप्यते। तदभिप्रायेण हिशास्त्रसारार्थ उच्यते [गी.सं.22] इति संगृहीतम्। विवृतं चाध्यायादौ। अत्रसारार्थशेषतया सारतमं प्रपदनं चरमश्लोकेन प्रतिपाद्यते इति सोऽपिशास्त्रसारार्थः इत्यनेनैव क्रोडीकृतः।सर्वगुह्यतमम् इत्यत्र योगविभागवतासप्तमी शौण्डैः [अष्टा.2।1।40] इत्यनेन समासमभिप्रेत्यसर्वेष्वेतेष्विति सप्तमीनिर्देशः। गुह्यतमशब्दप्रत्यभिज्ञानाद्भूयश्शब्दस्वारस्यात्मन्मना भव इति श्लोकस्य चाल्पान्तरस्य पूर्वोक्तस्यैव पाठात्स एव भक्तियोग इह शास्त्रान्ते शास्त्रसारत्वज्ञापनायोद्ध्रियते? नत्वर्थान्तरमित्यभिप्रायेणाऽऽहगुह्यतमम् इतिपूर्वमेवोक्तमिति। अत्र वाच्यस्य गुह्यतमत्वमेव वचस्युपचरितमित्याहभूयोऽपि तद्विषयमिति। श्रवणमात्रावृत्तेःश्रृणु इत्यनेनैव साध्यत्वाच्छुतार्थविषयत्वपरोऽत्र भूयश्शब्दः। व्यवधाननैरपेक्ष्येण गुह्यतमनिष्कर्षार्थतया पुनर्वचनं सार्थमिति भावः। वचसः परमत्वोक्तिः नातःपरं वक्तव्यमस्ति इति निगमनाभिप्राया। यद्वा वाच्यस्य परमत्वात्तद्वचसोऽपि तदुच्यतेयस्माद्धर्मात्परो धर्मो विद्यते नेह कश्चन इति भगवद्योगश्च सर्वेभ्यो यज्ञादिभ्यः परमः? परान्तर रहितश्चोच्यते तथाइज्याचारदमाहिंसादानस्वाध्यायकर्मणाम्। अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् [या.स्मृ.1।1।8] इति। आत्मा ह्यत्र सर्वान्तरात्मा। उपच्छन्दनस्तुत्यादिशङ्कापरिहारायइष्टोऽसि इत्यादिकम्। इष्टः प्रीतिविषय इत्यर्थःप्रियोऽसि [18।65] इत्यनन्तरवत्। दृढमिष्टः अत्यर्थं प्रियः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः [7।17] इत्यादिभिः प्रागुक्तज्ञानिवदतिदृढमिष्टोऽसि यथा गुह्यतमं प्रकाशनीयं? तथा प्रीतिविषयोऽसीत्यर्थः। इष्ट इति यतः? ततस्ते हितं वक्ष्यामीति वा।,
Sri Abhinavgupta
।।18.64 -- 65।।तच्च तात्पर्यं यथावसरम् अस्माभिः श्रृङ्गग्राहिकयैव प्रकाशितं यद्यपि तथापि स्फुटम् अशेषविमर्शनं प्रदर्श्यते। उपादेयतमं ह्यदः। नास्मिन् निरूप्यमाणे श्रूयमाणे वा मतिस्तृप्यति। गुह्यतमं यदत्र निश्चितं तज्ज्ञानमिदानीं श्रृणु इत्याहि -- सर्वेति। मन्मना इति। मन्मना भव इत्यादिना शास्त्रे ब्रह्मापर्णे एव सर्वथा प्राधान्यम् इति निश्चितम् ब्रह्मार्पणकारिणः शास्त्रमिदमर्थवत् इत्युक्तम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.64।।अतिगम्भीरस्य गीताशास्त्रस्याशेषतः पर्यालोचनंविना क्लेशनिवृत्तेरभावात्तथाविधक्लेशनिवृत्तये कृपया स्वयमेव तस्य सारं संक्षिप्य कथयति -- सर्वगुह्यतममिति। पूर्वं हि गुह्यात्कर्मयोगात् गुह्यतरं ज्ञानमाख्यातम्? अधुना तु कर्मयोगात्तत्फलभूतज्ञानाच्च सर्वस्मादतिशयेन गुह्यं रहस्यं गुह्यतमं परमं सर्वतः प्रकृष्टं मे मम वचो वाक्यं भूयस्तत्रतत्रोक्तमपि त्वदनुग्रहार्थं पुनर्वक्ष्यमाणं शृणु। न लाभपूजाख्यात्याद्यर्थं त्वां ब्रवीमि तु इष्टः प्रियोसि मे मम दृढमतिशयेन इति यतस्ततस्तेनैवेष्टत्वेन वक्ष्यामि कथयिष्याम्यपृष्टोऽपि सन्नहं ते तव हितं परमं श्रेयः।
Sri Purushottamji
।।18.64।।विमृश्यकारित्वमीश्वरोक्तावसम्भावितमिति विचारेण शोचन्तमर्जुनं कृपया तद्द्वारा च लोकानुद्दिधीर्षुर्निश्चितार्थं स्वयमेवाह -- सर्वगुह्येति। सर्वगुह्येऽतिगुह्यं गोप्यं गुह्यतमं मे परमं फलरूपं वचो भूयः पूर्वमुक्तमपि तत्प्रकरणेषु इदानीमेकीकृत्य पुनर्वक्ष्यमाणं शृणु। एवं सारभूतमेकीकृत्याकथने हेतुमाह -- इष्टोऽसीति। मे मम दृढमत्यन्तम् अप्रियकरणेऽपि अन्यथाभावरहितः इष्टः प्रियोऽसि? ततः कारणात्ते हितं वक्ष्यामि कथयामि।
Sri Shankaracharya
।।18.64।। --,सर्वगुह्यतमं सर्वेभ्यः गुह्येभ्यः अत्यन्तगुह्यतमम् अत्यन्तरहस्यम्? उक्तमपि असकृत् भूयः पुनः श्रृणु मे मम परमं प्रकृष्टं वचः वाक्यम्। न भयात् नापि अर्थकारणाद्वा वक्ष्याभि किं तर्हि इष्टः प्रियः असि मे मम दृढम् अव्यभिचारेण इति कृत्वा ततः तेन कारणेन वक्ष्यामि कथयिष्यामि ते तव हितं परमं ज्ञानप्राप्तिसाधनम्? तद्धि सर्वहितानां हिततमम्।।किं तत् इति? आह --,
Sri Vallabhacharya
।।18.64।।एतस्याशेषतो दुर्ज्ञेयत्वात् स्वयमेवातिमात्रमनुगृह्णन् स्वीयाय स्वतत्त्वमुपदिशति -- सर्वगुह्यतममिति। अत्रभूयः इति पदमिदं गुह्यतममिति गुह्यतमं शास्त्रं इत्यादौ स्वस्यैव मूलपुरुषोत्तमतायामुक्तायामप्यस्य मयि नरादिबुद्ध्यापादनपूर्वकमन्य एव कश्चन पुरुषोत्तमोऽन्तर्यामिरूपो निर्गुण एतद्वचसाऽऽज्ञाय भजनीय इति सन्देहवारणायोक्तम्। स्पष्टमन्यत्।
Swami Sivananda
18.64 सर्वगुह्यतमम् the most secret of all? भूयः again? श्रृणु hear? मे My? परमम् supreme? वचः word? इष्टः beloved? असि (thou) art? मे of Me? दृढम् dearly? इति thus? ततः therefore? वक्ष्यामि (I) will speak? ते thy? हितम् what is good.Commentary Now listen once more with rapt attention to My words. Thou art very dear to Me. Thou art a sincere aspirant. Therefore I am telling thee this most mysterious truth. Hear from Me this mystery of all mysteries. I shall tell it to you again to make a deep impression on your mind? although it has been declared more than once. I do not hope to get any reward from thee. Thou art My most beloved friend and disciple. Therefore I will speak what is good for thee? the means of attaining Selfrealisation. This is the supreme good or the highest of all kinds of good for thee.
Sri Ramanujacharya
।।18.64।।सर्वेषु एतेषु गुह्येषु भक्तियोगस्य श्रेष्ठत्वाद् गुह्यतमम् इति पूर्वम् एव उक्तम्इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। (गीता 9।1) इत्यादौ। भूयः अपि तद्विषयं परमं मे वचः श्रृणु इष्टः असि मे दृढम् इति ततः ते हितं वक्ष्यामि।
Swami Ramsukhdas
।।18.64।। व्याख्या -- सर्वगुह्यतमं भूयः श्रुणु मे परमं वचः -- पहले तिरसठवें श्लोकमें भगवान्ने गुह्य (कर्मयोगकी) और गुह्यतर (अन्तर्यामी निराकारकी शरणागतिकी) बात कही और इदं तु ते गुह्यतमम् (9। 1) तथा इति गुह्यतमं शास्त्रम् (15। 20) -- इन पदोंसे गुह्यतम (अपने प्रभावकी) बात कह दी? पर सर्वगुह्यतम बात गीतामें पहले कहीं नहीं कही। अब यहाँ अर्जुनकी घबराहटको देखकर भगवान् कहते हैं कि मैं सर्वगुह्यतम अर्थात् सबसे अत्यन्त गोपनीय बात फिर कहूँगा? तू मेरे परम? सर्वश्रेष्ठ वचनोंको सुन।इस श्लोकमें सर्वगुह्यतमम् पदसे भगवान्ने बताया कि यह हरेकके सामने प्रकट करनेकी बात नहीं है और सड़सठवें श्लोकमें इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन पदसे भगवान्ने बताया कि इस बातको असहिष्णु और अभक्तसे कभी मत कहना। इस प्रकार दोनों तरफसे निषेध करके बीचमें (छियासठवें श्लोकमें) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज -- इस सर्वगुह्यतम बातको रखा है। दोनों तरफसे निषेध करनेका तात्पर्य है कि यह गीताभरमें अत्यन्त रहस्यमय खास उपदेश है। (टिप्पणी प0 966)दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें धर्मसम्मूढचेताः कहकर अर्जुन अपनेको धर्मका निर्णय करनेमें अयोग्य समझते हुए भगवान्से पूछते हैं? उसके शिष्य बनते हैं और शिक्षा देनेके लिये कहते हैं। अतः भगवान् यहाँ (18। 66 में) कहते हैं कि तू धर्मके निर्णयका भार अपने ऊपर मत ले? वह भार मेरेपर छोड़ दे -- मेरे ही अर्पण कर दे और अनन्यभावसे केवल मेरी शरणमें आ जा। फिर तेरेको जो पाप आदिका डर है? उन सब पापोंसे मैं तुझे मुक्त कर दूँगा। तू सब चिन्ताओंको छोड़ दे। यही भगवान्का सर्वगुह्यतम परम वचन है।भूयः श्रृणु का तात्पर्य है कि मैंने यही बात दूसरे शब्दोंमें पहले भी कही थी? पर तुमने ध्यान नहीं दिया। अतः मैं फिर वही बात कहता हूँ। अब इस बातपर तुम विशेषरूपसे ध्यान दो।यह सर्वगुह्यतमवाली बात भगवान्ने पहले मत्परः ৷৷. मच्चित्तः सततं भव (18। 57) और मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादत्तरिष्यसि (18। 58) पदोंसे कह दी थी परन्तु सर्वगुह्यतमम् पद पहले नहीं कहा? और अर्जुनका भी उस बातपर लक्ष्य नहीं गया। इसलिये अब फिर उस बातपर अर्जुनका लक्ष्य करानेके लिये और,उस बातका महत्त्व बतानेके लिये भगवान् यहाँ सर्वगुह्यतमम् पद देते हैं।इष्टोऽसि मे दृढमिति -- इससे पहले भगवान्ने कहा था कि जैसी मरजी आये? वैसा कर। जो अनुयायी है? आज्ञापालक है? शरणागत है? उसके लिये ऐसी बात कहनेके समान दूसरा क्या दण्ड दिया जा सकता है अतः इस बातको सुनकर अर्जुनके मनमें भय पैदा हो गया कि भगवान् मेरा त्याग कर रहे हैं। उस भयको दूर करनेके लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो (टिप्पणी प0 967.1)।यदि अर्जुनके मनमें भय या संदेह न होता? तो भगवान्कोतुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो -- यह कहकर सफाई देनेकी क्या जरूरत थी सफाई देना तभी बनता है? जब दूसरेके मनमें भय हो? सन्देह हो? हलचल हो। इष्टः कहनेका दूसरा भाव यह है कि भगवान् अपने शरणागत भक्तको अपना ईष्टदेव मान लेते हैं। भक्त सब कुछ छोड़कर केवल भगवान्को अपना इष्ट मानता है? तो भगवान् भी उसको अपना इष्ट मान लेते हैं क्योंकि भक्तिके विषयमें भगवान्का यह कानून है -- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11) अर्थात् जो भक्त जैसे मेरे शरण होते हैं? मैं भी उनको वैसे ही आश्रय देता हूँ। भगवान्की दृष्टिमें भक्तके समान और कोई श्रेष्ठ नहीं है। भागवतमें भगवान् उद्धवजीसे कहते हैं -- तुम्हारेजैसे प्रेमी भक्त मुझे जितने प्यारे हैं? उतने प्यारे न ब्रह्माजी हैं? न शंकरजी हैं? न बलरामजी हैं और तो क्या? मेरे शरीरमें निवास करनेवाली लक्ष्मीजी और मेरी आत्मा भी उतनी प्यारी नहीं है (टिप्पणी प0 967.2)।दृढम् कहनेका तात्पर्य है कि जब तुमने एक बार कह दिया कि मैं आपके शरण हूँ (2। 7) तो अब तुम्हें बिलकुल भी भय नहीं करना चाहिये। कारण कि जो मेरी शरणमें आकर एक बार भी सच्चे हृदयसे कह देता है कि मैं आपका ही हूँ ? उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय (सुरक्षित) कर देता हूँ -- यह मेरा व्रत है (टिप्पणी प0 967.3)। ततो वक्ष्यामि ते हितम् -- तू मेरा अत्यन्त प्यारा मित्र है? इसलिये अपने हृदयकी अत्यन्त गोपनीय और अपने दरबारकी श्रेष्ठसेश्रेष्ठ बात तुझे कहूँगा। दूसरी बात? मैं जो आगे शरणागतिकी बात कहूँगा? उसका यह तात्पर्य नहीं है कि मेरी शरणमें आनेसे मुझे कोई लाभ हो जायगा? प्रत्युत इसमें केवल तेरा ही हित होगा। इससे सिद्ध होता है कि प्राणिमात्रका हित केवल इसी बातमें है कि वह किसी दूसरेका सहारा न लेकर केवल भगवान्की ही शरण ले।भगवान्की शरण होनेके सिवाय जीवका कहीं भी? किञ्चन्मात्र भी हित नहीं है। कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है। इसलिये वह परमात्माको छोड़कर किसीका भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं। जब संसारकी कोई भी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? अवस्था आदि स्थिर नहीं है? तो फिर उनका सहारा कैसे स्थिर रह सकता है उनका सहारा तो रहेगा नहीं? पर चिन्ता? शोक? दुःख आदि रह जायँगे जैसे? अग्निसे अङ्गार दूर हो जाता है तो वह काला कोयला बन जाता है -- कोयला होय नहीं उजला? सौ मन साबुन लगाय। पर वही कोयला जब पुनः अग्निसे मिल जाता है? तब वह अङ्गार (अग्निरूप) बन जाता है और चमक उठता है। ऐसे ही यह जीव भगवान्से विमुख हो जाता है तो बारबार जन्मतामरता और दुःख पाता रहता है? पर जब यह भगवान्के सम्मुख हो जाता है अर्थात् अनन्यभावसे भगवान्की शरणमें हो जाता है? तब यह भगवत्स्वरूप बन जाता है और चमक उठता है? तथा संसारमात्रका कल्याण करनेवाला हो जाता है।
Swami Chinmayananda
।।18.64।। सम्भवत? जब भगवान् ने यह देखा कि अर्जुन अभी तक कुछ निश्चित निर्णय नहीं ले पा रहा है? तब स्नेहवश वे पुन अपने उपदेश के मुख्य सिद्धांत को दोहराने का वचन देते हैं। इस पुनरुक्ति का प्रमुख कारण केवल मित्रप्रेम और अर्जुन के हित की कामना ही है।वह गुह्यतम उपदेश क्या है
Sri Anandgiri
।।18.64।।गीताशास्त्रस्य पौर्वापर्येण विमर्शनद्वारा तात्पर्यार्थं प्रतिपत्तुमसमर्थं प्रत्याह -- भूयोऽपीति। किमर्थमिच्छन्पुनःपुनरभिदधासीत्याशङ्क्याह -- न भयादिति। हितमिति साधारणनिर्देशे कथं परममित्यादिविशेषणमित्याशङ्क्याह -- तद्धीति।
Sri Dhanpati
।।18.64।।अतिगम्भीरस्य गीताशास्त्रस्य पौर्वापर्येण विमर्शनद्वारा प्रतिपत्तुमसमर्थं प्रति स्वयमेव करुणानिधिः श्रीभगवान्वासुदेवस्तस्य सारं संगृह्य कथयति। तथा भूयोपि मयोच्यमानं सर्वगुह्यतमं सर्वगुह्येभ्योऽन्तरहस्यमुक्तमप्यसकृद् भूयः पुनः मे मम परमं प्रकृष्टं वचो वाक्यं श्रुणु। यत्तु पर्वं गह्यात्मकर्मयोगादगुह्यतरं ज्ञानमाख्यातं अधुना तु कर्मयोगात् तत्फलभूतज्ञानायोगाच्च सर्वस्मादतिशयेन गह्यतमिति तु नार्दतव्यम्। पूर्वस्मिन्शलोके ज्ञानं करणव्युत्पत्त्या गीताशास्त्रपरमिति व्याख्यातत्वात्।इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे इत्यादौ ज्ञानस्य गुह्यतमत्वाभिधानायाऽत्र ज्ञानादपि गुह्यतममन्यदित्यभिधानस्यानुचितत्वाच्च किमर्थं पुनः पुनः श्रावयसीतिचेन्न भयान्नाप्यर्थकारणाद्वा वक्ष्यामि? किंतु दृढमव्यभिचारेणात्यन्तं मे मम इष्टः प्रियोऽसि तत्तस्मात्कारणाद्वक्ष्यामि कथयिष्यामि ते तव हितं परं ज्ञानप्राप्तिसाधनं तद्धि सर्वहितानां हिततमम्।
Sri Neelkanth
।।18.64।।एवं यथेष्टकरणमभ्यनुज्ञायापि अतिवात्सल्याच्छ्लोकद्वयेनैव कृत्स्नं शास्त्रार्थमुपदेक्ष्यंस्तद्ग्रहणे ऐकाग्र्यमस्य संपादयितुमाह -- सर्वेति। सर्वेभ्यो गुह्येभ्यः अतिशयितं गुह्यं सर्वगुह्यतमं भूयः पुनरसकृदुक्तमपि मे मम वचनं शृणु। परमं परमार्थविषयत्वात्। न लोभान्नापि भयात्त्वां वक्ष्यामि। किं तर्हि मे मम इष्टोऽसि,परमाप्तोऽसि इति हेतोः द़ृढं अतिशयितं ते तव हितं यतस्ततो वक्ष्यामि। तव इष्टत्वात् विद्यायाश्च हितत्वात् तद्वचनं आप्ते त्वयि अवश्यं वक्तव्यमिति भावः।
Sri Sridhara Swami
।।18.64।।अतिगम्भीरं गीताशास्त्रमशेषतः पर्यालोचयितुमशक्नुवतः कृपया स्वयमेव तस्य सारं संगृह्य कथयति -- सर्वगुह्यतममितित्रिभिः। सर्वेभ्योऽपि गुह्येभ्यो गुह्यतमं मे वचः तत्रतत्रोक्तमपि भूयः पुनः पुनरपि वक्ष्यमाणं श्रृणु। पुनः पुनः कथने हेतुमाह -- दृढमत्यन्तं मे मम त्वमिष्टः प्रियोऽसीति मत्वा। तत एव हेतोस्ते हितं वक्ष्यामि। यद्वा त्वं ममेष्टोऽसि मया वक्ष्यमाणं च दृढं सर्वप्रमाणोपेतमिति निश्चित्य ततस्ते वक्ष्यामीत्यर्थः। दृढमतिरिति केचित्पठन्ति।