Chapter 18, Verse 39
Verse textयदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।18.39।।
Verse transliteration
yad agre chānubandhe cha sukhaṁ mohanam ātmanaḥ nidrālasya-pramādotthaṁ tat tāmasam udāhṛitam
Verse words
- yat—which
- agre—from beginning
- cha—and
- anubandhe—to end
- cha—and
- sukham—happiness
- mohanam—illusory
- ātmanaḥ—of the self
- nidrā—sleep
- ālasya—indolence
- pramāda—negligence
- uttham—derived from
- tat—that
- tāmasam—in the mode of ignorance
- udāhṛitam—is said to be
Verse translations
Swami Sivananda
That happiness which at first, as well as in the end, deludes the self, and which arises from sleep, indolence, and heedlessness—that is declared to be Tamasic.
Shri Purohit Swami
While the pleasure that drugs the senses from start to finish, which springs from indolence, lethargy, and folly—that pleasure flows from Ignorance.
Swami Tejomayananda
।।18.39।। जो सुख प्रारम्भ में और परिणाम (अनुबन्ध) में भी आत्मा (मनुष्य) को मोहित करने वाला होता है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा जाता है।।
Swami Ramsukhdas
।।18.39।।निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न होनेवाला जो सुख आरम्भमें और परिणाममें अपनेको मोहित करनेवाला है, वह सुख तामस कहा गया है।
Swami Adidevananda
That pleasure which, at the beginning and end, deludes the self, through sleep, sloth, and error, is declared to be tamasic.
Swami Gambirananda
That joy is said to be born of tamas, which, both in the beginning and in the end, is delusive to oneself and arises from sleep, laziness, and inadvertence.
Dr. S. Sankaranarayan
The happiness that, both initially and subsequently, is of the nature of deluding the Self; and which results from sleep, indolence, and heedlessness—that is stated to be of the Tamas (Strand).
Verse commentaries
Swami Ramsukhdas
।।18.39।। व्याख्या -- निद्रालस्यप्रमादोत्थम् -- जब राग अत्यधिक बढ़ जाता है? तब वह तमोगुणका रूप धारण कर लेता है। इसीको मोह कहते हैं। इस मोह(मूढता)के कारण मनुष्यको अधिक सोना अच्छा लगता है। अधिक सोनेवाले मनुष्यको गाढ़ नींद नहीं आती। गाढ़ नींद न आनेसे तन्द्रा ज्यादा आती है और स्वप्न भी ज्यादा आते हैं। तन्द्रा और स्वप्नमें तामस मनुष्यका बहुत समय बरबाद हो जाता है। परन्तु तामस मनुष्यको इसीसे ही सुख मिलता है? इसलिये इस सुखको निद्रासे उत्पन्न बताया है।जब तमोगुण अधिक बढ़ जाता है? तब मनुष्यकी वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर वह आलस्यमें समय बरबाद कर देता है। आवश्यक काम सामने आनेपर वह कह देता है कि फिर कर लेंगे? अभी तो आराम कर रहे हैं। इस प्रकार आलस्यअवस्थामें उसको सुख मालूम देता है। परन्तु निकम्मा रहनेके कारण उसकी इन्द्रियों और अन्तःकरणमें शिथिलता आ जाती है? मनमें संसारका फालतू चिन्तन होता रहता है और मनमें अशान्ति? शोक? विषाद? चिन्ता? दुःख होते रहते हैं।जब इससे भी अधिक तमोगुण बढ़ जाता है? तब मनुष्य प्रमाद करने लग जाता है। वह प्रमाद दो तरहका होता है -- अक्रिय प्रमाद और सक्रिय प्रमाद। घर? परिवार? शरीर आदिके आवश्यक कामोंको न करना और निठल्ले बैठे रहना अक्रिय प्रमाद (टिप्पणी प0 922) है। व्यर्थ क्रियाएँ (देखना? सुनना? सोचना आदि) करना बीड़ी? सिगरेट? शराब? भाँग? तम्बाकू? खेलतमाशा आदि दुर्व्यसनोंमें लगना और चोरी? डकैती? झूठ? कपट? बेईमानी? व्यभिचार? अभक्ष्यभक्षण आदि दुराचारोंमें लगना सक्रिय प्रमाद है।प्रमादके कारण तामस पुरुषोंको निरर्थक समय बरबाद करनेमें तथा झूठ? कपट? बेईमानी आदि करनेमें सुख मिलता है। जैसे कामधंधा करनेवाले पैसे (मजदूरी या वेतन) तो पूरे ले लेते हैं? पर काम पूरा और ठीक ढंगसे नहीं करते। चिकित्सकलोग रोगियोंका ठीक ढंगसे इलाज नहीं करते? जिससे रोगीलोग बारबार आते रहें और पैसे देते रहें। दूध बेचनेवाले पैंसोंके लोभमें दूधमें पानी मिलाकर बेचते हैं। पैसे अधिक देनेपर भी वे पानी मिलाना नहीं छोड़ते। ऐसे पापरूप प्रमादसे उनको घोर नरकोंकी प्राप्ति होती है।जब तमोगुणी प्रमादवृत्ति आती है? तब वह सत्त्वगुणके विवेकज्ञानको ढक देती है और जब तमोगुणी निद्राआलस्यवृत्ति आती है? तब वह सत्त्वगुणके प्रकाशको ढक देती है। विवेकज्ञानके ढकनेपर प्रमाद होता है तथा प्रकाशके ढकनेपर आलस्य और निद्रा आती है। तामस पुरुषको निद्रा? आलस्य और प्रमाद -- तीनोंसे सुख मिलता है? इसलिये तामस सुखको इन तीनोंसे उत्पन्न बताया गया है।विशेष बातनिद्रा दो प्रकारकी होती है -- युक्तनिद्रा और अतिनिद्रा।,(1) युक्तनिद्रा -- निद्रामें एक विश्राम मिलता है। विश्रामसे शरीर? मन? बुद्धि? अन्तःकरणमें नीरोगता? स्फूर्ति? स्वच्छता? निर्मलता और ताजगी आती है। ताजगी आनेसे साधनभजन करनेमें और सांसारिक काम करनेमें भी शक्ति मिलती है और उत्साह रहता है। इसलिये युक्तनिद्रा दोषी नहीं है? प्रत्युत सबके लिये आवश्यक है। भगवान्ने भी युक्तनिद्राको आवश्यक बताया है -- युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा (गीता 6। 17)।ताजगीमात्रके लिये निद्रा साधकके लिये आवश्यक है। जिस साधकके रागपूर्वक सांसारिक संकल्प नहीं होते? उसको नींद बहुत जल्दी आ जाती है और जो ज्यादा संकल्पशील है? उसको नींद जल्दी नहीं आती। इससे यह सिद्ध हुआ कि संसारका जो सम्बन्ध है? वह निद्राका सुख भी नहीं लेने देता। निद्रा आवश्यक क्यों है कारण कि निद्रामें जो स्थिर तत्त्व है? वह साधकको साधनमें प्रवृत्त करनेमें और सांसारिक कार्य करनेमें बल देता है? इसलिये निद्रा आवश्यक है।यद्यपि नींद तामसी है? तथापि नींदका जो बेहोशीपना है? वह त्याज्य है और जो विश्रामपना है? वह ग्राह्य है। परन्तु हरेक आदमी बेहोशीके बिना विश्रामपना ग्रहण नहीं कर सकता अतः उनके लिये नींदका बेहोशीभाग भी ग्राह्य है। हाँ? जो साधना करके ऊँचे उठ गये हैं? उनको नींदके बेहोशीभागके बिना भी जाग्रत्सुषुप्तिमें विश्राम मिल जाता है। कारण कि जाग्रत्अवस्थामें संसारके चिन्तनका सर्वथा त्याग होकर परमात्मतत्त्वमें स्थिति हो जाती है तो महान् विश्राम? सुख मिलता है इस स्थितिसे भी असङ्ग होनेपर वास्तविक तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।जो साधक हैं? उनको विश्रामके लिये नहीं सोना चाहिये। उनका तो यही भाव होना चाहिये कि पहले कामधंधा करते हुए भगवान्का भजन करते थे? अब लेटेलेटे भजन करना है।(2) अतिनिद्रा -- समयपर सोना और समयपर जागना युक्तनिद्रा है और अधिक सोना अतिनिद्रा है। अतिनिद्राके आदि और अन्तमें शरीरमें आलस्य भरा रहता है। शरीरमें भारीपन रहता है। अधिक नींद लेनेका स्वभाव होनेसे हरेक कार्यमें नींद आती रहती है।चौदहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें भगवान्ने पहले प्रमादको? दूसरे नम्बरमें आलस्यको और तीसरे नम्बरमें निद्राको रखा है -- प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत। परन्तु यहाँ पहले निद्राको? दूसरे नम्बरमें आलस्यको और तीसरे नम्बरमें प्रमादको रखा है -- निद्रालस्यप्रमादोत्थम्। इस व्यतिक्रमका कारण यह है कि वहाँ इन तीनोंके द्वारा मनुष्यको बाँधनेका प्रसङ्ग है और यहाँ मनुष्यका पतन करनेका प्रसङ्ग है। बाँधनेके विषयमें प्रमाद सबसे अधिक बन्धनकारक है अतः इसको सबसे पहले रखा है। कारण कि प्रमाद निषिद्ध आचरणोंमें प्रवृत्त करता है? जिससे अधोगति होती है। आलस्य केवल अच्छी प्रवृत्तिको रोकनेवाला होनेसे इसको दो नम्बरमें रखा है। निद्रा आवश्यक होनेसे बन्धनकारक नहीं है? प्रत्युत अतिनिद्रा ही बन्धनकारक है अतः इसको तीसरे नम्बरमें रखा है। यहाँ उससे उलटा क्रम रखनेका अभिप्राय है कि सबके लिये आवश्यक होनेसे निद्रा इतना पतन करनेवाली नहीं है। निद्रासे अधिक आलस्य पतन करता है और आलस्यसे भी अधिक प्रमाद पतन करता है। कारण कि मनुष्य ज्यादा नींद लेगा तो वृक्ष आदि मूढ़ योनियोंकी प्राप्ति होगी परन्तु आलस्य और प्रमाद करेगा तो कर्तव्यच्युत होकर दुराचार करनेसे नरकमें जाना पड़ेगा (टिप्पणी प0 923.1)।यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः -- निद्रा? आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न हुआ सुख आरम्भमें और परिणाममें अपनेको मोहित करनेवाला है। इस सुखमें न तो आरम्भमें विवेक रहता है और न परिणाममें विवेक रहता है अर्थात् यह सुख विवेकको जाग्रत् नहीं होने देता। पशुपक्षी? कीटपतंग आदिमें भी विवेकशक्ति जाग्रत् न रहनेसे वे क्रियाके आरम्भ और परिणामको सोच नहीं पाते। ऐसे ही जिस सुखके कारण मनुष्य यह सोच ही नहीं सकता कि इस निद्रा आदिसे उत्पन्न हुए सुखका परिणाम हमारे लिये क्या होगा उससे क्या लाभ होगा क्या हानि होगी क्या हित होगा क्या अहित होगा उस सुखको तामस कहा गया है -- ,तत्तामसमुदाहृतम्।विशेष बात(1) प्रकृति और पुरुष -- दोनों अनादि हैं? और ये दो हैं इस प्रकार इनकी पृथक्ताका विवेक भी अनादि है। यह विवेक पुरुषमें ही रहता है? प्रकृतिमें नहीं। जब यह पुरुष इस विवेकका अनादर करके अविवेकके कारण प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है? तब इस सम्बन्धके कारण पुरुषमें राग पैदा हो जाता है (टिप्पणी प0 923.2)।जब राग बहुत सूक्ष्म रहता है? तब विवेक प्रबल रहता है। जब राग बढ़ जाता है? तब विवेक दब जाता है? मिटता नहीं। पर विवेक ठीक तरहसे जाग्रत् हो जाय तो फिर राग टिकता नहीं अर्थात् रागका अभाव हो जाता है और उस समय पुरुष मुक्त कहलाता है।उस रागके कारण मनुष्यकी प्रकृतिजन्य सुखमें आसक्ति हो जाती है। उस आसक्तिके रहते हुए जब मनुष्य किसी कारणवश सात्त्विक सुखको प्राप्त करना चाहता है? तब राजस और तामस सुखका त्याग करनेमें उसे कठिनता मालूम देती है -- यत्तदग्रे विषमिव। परन्तु जब राग मिट जाता है? तब वह सुख अमृतकी तरह हो जाता है -- परिणामेऽमृतोऽपमम्।रागके कारण ही रजोगुणी सुख आरम्भमें अमृतकी तरह दीखता है। पर वह सुख परिणाममें प्राणीके लिये जहरकी तरह अनिष्टकारक अर्थात् महान् दुःखरूप हो जाता है। प्रकृतिजन्य सुखकी आसक्ति होनेपर दुःखी परम्पराका कोई अन्त नहीं आता।जब वही राग तमोगुणका रूप धारण कर लेता है? तब मनुष्यकी वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर मनुष्य नींद और आलस्यमें समय बरबाद कर देता है तथा आवश्यक कर्तव्यसे विमुख होकर अकर्तव्यमें लग जाता है। परन्तु तामस पुरुषको इन्हींमें सुख मालूम देता है। इसलिये यह तामस सुख आदि और अन्तमें मोहित करनेवाला है।(2) जो प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है? वह वास्तवमें नहीं है। पर जो नहीं को प्रकाशित करनेवाला तथा उसका आधार है? वह वास्तवमें है तत्त्व है। उसी तत्त्वको सच्चिदानन्द कहते हैं। निरन्तर सत्तारूपसे रहनेके कारण उसे सत् कहते हैं? ज्ञानस्वरूप होनेके कारण उसे चित् कहते हैं और आनन्दस्वरूप होनेके कारण उसे आनन्द कहते हैं। उस सच्चिदानन्द परमात्माका ही अंश होनेसे यह प्राणी भी सच्चिदानन्दस्वरूप है। परन्तु जब प्राणी असत् वस्तुकी इच्छा करता है कि अमुक वस्तु मुझे मिले? तब उस इच्छासे स्वतःस्वाभाविक आनन्द -- सुख ढक जाता है। जब असत् वस्तुकी इच्छा मिट जाती है? तब उस इच्छाके मिटते ही वह स्वतःस्वाभाविक सुख प्रकट हो जाता है।नित्यनिरन्तर रहनेवाला जो सुखरूप तत्त्व है? उसमें जब सात्त्विकी बुद्धि तल्लीन हो जाती है? तब बुद्धिमें स्वच्छता? निर्मलता आ जाती है। उस स्वच्छ और निर्मल बुद्धिसे अनुभवमें आनेवाला यह स्वाभाविक सुख ही सात्त्विक कहलाता है। बुद्धिसे भी जब सम्बन्ध छूट जाता है? तब वास्तविक सुख रह जाता है। सात्त्विकी बुद्धिके सम्बन्धसे ही उस सुखकी सात्त्विक संज्ञा होती है। बुद्धिसे सम्बन्ध छूटते ही उसकी सात्त्विक संज्ञा नहीं रहती।मनमें जब किसी वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है? तब वह वस्तु मनमें बस जाती है अर्थात् मन और बुद्धिका उसके साथ सम्बन्ध हो जाता है। जब वह मनोवाञ्छित वस्तु मिल जाती है? तब वह वस्तु मनसे,निकल जाती है अर्थात् वस्तुका मनमें जो खिंचाव था? वह निकल जाता है। उसके निकलते ही अर्थात् वस्तुसे सम्बन्धविच्छेद होते ही वस्तुके अभावका जो दुःख था? वह निवृत्त हो जाता है और नित्य रहनेवाले स्वतःसिद्ध सुखका तात्कालिक अनुभव हो जाता है। वास्तवमें यह सुख वस्तुके मिलनेसे नहीं हुआ है? प्रत्युत रागके तात्कालिक मिटनेसे हुआ है? पर राजस पुरुष भूलसे उस सुखको वस्तुके मिलनेसे होनेवाला मान लेता है। वास्तवमें देखा जाय तो वस्तुका संयोग बाहरसे होता है और प्रसन्नता भीतरसे होती है। भीतरसे जो प्रसन्नता होती है? वह बाहरके संयोगसे पैदा नहीं होती? प्रत्युत भीतर (मनमें) बसी हुई वस्तुके साथ जो सम्बन्ध था? उस वस्तुसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर पैदा होती है। तात्पर्य यह है कि वस्तुके मिलते ही अर्थात् बाहरसे वस्तुका संयोग होते ही भीतरसे उस वस्तुसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्य रहनेवाले स्वाभाविक सुखका आभास हो जाता है।जब नींदमें बुद्धि तमोगुणमें लीन हो जाती है? तब बुद्धिकी स्थिरताको लेकर वह सुख प्रकट हो जाता है। कारण कि तमोगुणके प्रभावसे नींदमें जाग्रत् और स्वप्नके पदार्थोंकी विस्मृति हो जाती है। पदार्थोंकी स्मृति दुःखोंका कारण है। पदार्थोंकी विस्मृति होनेसे निद्रावस्थामें पदार्थोंका वियोग हो जाता है तो उस वियोगके कारण स्वाभाविक सुखका आभास होता है? इसीको निद्राका सुख कहते हैं। परन्तु बुद्धिकी मलिनतासे वह स्वाभाविक सुख जैसा है? वैसा अनुभवमें नहीं आता। तात्पर्य है कि बुद्धिके तमोगुणी होनेसे बुद्धिमें स्वच्छता नहीं रहती और स्वच्छता न रहनेसे वह सुख स्पष्ट अनुभवमें नहीं आता। इसलिये निद्राके सुखको तामस कहा गया है (टिप्पणी प0 924)।इन सबका तात्पर्य यह है कि सात्त्विक मनुष्यको संसारसे विमुख होकर तत्त्वमें बुद्धिके तल्लीन होनेसे सुख होता है राजस मनुष्यको रागके कारण अन्तःकरणमें बसी हुई वस्तुके बाहर निकलनेसे सुख होता है और तामस मनुष्यको वस्तुओंके लिये किये जानेवाले कर्तव्यकर्मोंकी विस्मृतिसे और निरर्थक क्रियाओंमें लगनेसे सुख होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो नित्यनिरन्तर रहनेवाला सुखरूप तत्त्व है? वह असत्के सम्बन्धसे आच्छादित रहता है। विवेकपूर्वक असत्से सम्बन्धविच्छेद हो जानेपर? रागवाली वस्तुओंके मनसे निकल जानेपर और बुद्धिके तमोगुणमें लीन हो जानेपर जो सुख होता है? वह उसी सुखका आभास है। तात्पर्य यह हुआ कि संसारसे विवेकपूर्वक विमुख होनेपर सात्त्विक सुख? भीतरसे वस्तुओंके निकलनेपर राजस सुख और मूढ़तासे निद्राआलस्यमें संसारको भूलनेपर तामस सुख होता है परन्तु वास्तविक सुख तो प्रकृतिजन्य पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेदसे ही होता है। इन सुखोंमें जो प्रियता? आकर्षण और (सुखका) भोग है? वही पारमार्थिक उन्नतिमें बाधा देनेवाला और पतन करनेवाला है। इसलिये पारमार्थिक उन्नति चाहनेवाले साधकोंको इन तीनों सुखोंसे सम्बन्धविच्छेद करना अत्यन्त आवश्यक है। सम्बन्ध -- बीसवेंसे उन्तालीसवें श्लोकतक भगवान्ने गुणोंकी मुख्यताको लेकर ज्ञान? कर्म आदिके तीनतीन भेद बताये। अब इनके सिवाय गुणोंको लेकर सृष्टिकी सम्पूर्ण वस्तुओंके भी तीनतीन भेद होते हैं -- इसका लक्ष्य कराते हुए भगवान् आगेके श्लोकमें प्रकरणका उपसंहार करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।18.39।। जो सुख मनुष्य को मोहित करने वाला होता है और जो उसकी संस्कृति को विकृति में परिवर्तित कर देता है वह तामस सुख माना गया है। मोह का अर्थ है आत्मा और अनात्मा के भेद का अभाव।तामस सुख के स्रोत हैं? निद्रा? आलस्य और प्रमाद। निद्रा का अर्थ सर्वविदित निद्रावस्था तो है ही? किन्तु वेदान्त दर्शन के अनुसार स्वस्वरूप के अज्ञान की अवस्था भी निद्रा कहलाती है। इस आत्म अज्ञान के कारण ही मनुष्य विषय भोगों में सुख की खोज करता है और उसमें ही आसक्त हो जाता है।आलस्य क्रियाशीलता रजोगुण का धर्म है और उसके विपरीत आलस्य तमोगुण का धर्म है। तामसी पुरुष की कर्म को टालने की प्रवृत्ति होती है और इस प्रकार आलस्य में ही वह अपने समय को व्यतीत कर देता है। यही उसका सुख है। ऐसा पुरुष विचार करने में भी आलसी होता है। इसलिए वह जीवन में यथार्थ निर्णय नहीं ले पाता।प्रमाद यह सत्त्वगुण के लक्षण सजगता और विवेक के सर्वथा विपरीत लक्षण है। प्रमादशील मनुष्य अपने हृदय के उच्च गुणों के आह्वान की अवहेलना और उपेक्षा करके निम्न स्तर के भोगों में रमता है। फलत वह दिन प्रतिदिन पशु के स्तर तक गिरता जाता है।निद्रा? आलस्य और प्रमाद से प्राप्त होने वाला सुख प्रारम्भ और अन्त में मनुष्य को मोहित करने वाला होता है और ऐसा सुख तामस माना गया है।प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं
Sri Anandgiri
।।18.39।।तामसं सुखं त्यागार्थमेवोदाहरति -- यदग्रे चेति। अनुबन्धशब्दार्थमाह -- अवसानेति। मोहनं मोहकरम्। तदुत्पत्तिहेतुमाह -- निद्रेति।
Sri Dhanpati
।।18.39।।राजसं सुखमुक्त्वा तामसं तदुदाहरति। यत्सुखमग्रे च प्रथमे क्षणेऽनुबन्धे चावसानोत्तरकाले। चाभ्यां प्रथमक्षणादुत्तरावस्थासु अनुबन्धात्पूर्वावस्थासु चात्मनो मोहकरं निद्रालस्यप्रमादेभ्यः समुत्तिष्ठतीति निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्सुखं हेयं तामसमुदाहृतम्।
Sri Neelkanth
।।18.39।।अग्रे आरम्भे अनुबन्धे परिणामे। मोहनं मोहकरम्। आत्मनो बुद्धेः। यतो निद्रादिजम्।
Sri Ramanujacharya
।।18.39।।यत् सुखम् अग्रे च अनुबन्धे च अनुभववेलायां विपाके च आत्मनो मोहनं मोहहेतुः भवति मोहः अत्र,यथावस्थितवस्त्वप्रकाशः अभिप्रेतः। निद्रालस्यप्रमादोत्थं निद्रालस्यप्रमादजनितम् निद्रादयो हि अनुभववेलायाम् अपि मोहहेतवः।निद्राया मोहहेतुत्वं स्पष्टम् आलस्यम् इन्द्रियव्यापारमान्द्यम् इन्द्रियव्यापारमान्द्ये च ज्ञानमान्द्यं भवति एव प्रमादः कृत्यानवधानरूप इति तत्त अपि ज्ञानमान्द्यं भवति ततः च तयोः अपि मोहहेतुत्वम् तत् सुखं तामसम् उदाहृतम् अतो मुमुक्षुणा रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वम् एव उपादेयम् इति उक्तं भवति।
Sri Sridhara Swami
।।18.39।।तामसं सुखमाह -- यदिति। अग्रे प्रथमक्षणेऽनुबन्धे च पश्चादपि यत्सुखमात्मनो मोहकरम्। तदेवाह। निद्रा चालस्यं च प्रमादश्च कर्तव्यार्थावधानराहित्येन मनोराज्यमेतेभ्य उत्तिष्ठति यत्सुखं तत्तामसमुदाहृतम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.39।।अनुबध्यत इत्यनुबन्धो विपाकः? मोहनशब्दस्यात्र भावार्थानन्वयात्करर्णार्थत्वमाह -- मोहहेतुरिति। निद्रादिजन्यसुखस्य विपरीतज्ञानहेतुत्वाभावात्मोहोऽत्र यथावस्थितवस्त्वप्रकाश इत्युक्तम्। राजससुखस्य विपाके मोहहेतुत्वं? तामससुखस्य तु तदानीमपीति लोकसिद्धमित्यभिप्रायेणोक्तं विवृणोति -- निद्रादयो हीति।स्पष्टमिति -- न युक्त्यागमसापेक्षमित्यर्थः। अलसस्य प्रवृत्त्यभावमात्रं दृश्यते? न ज्ञानाभाव इत्यत्राऽऽह -- आलस्यमिन्द्रियव्यापारमान्द्यमिति। ततः किं इत्यत्राऽऽह -- इन्द्रियेति। करणव्यापारतारतम्यानुगुणं हि कार्यतारतम्यम्। ज्ञानस्य मान्द्यं चाल्पविषयत्वम्। तच्च विषयान्तरप्रकाशाभावगर्भमिति भावः। प्रमादस्य स्वरूपेणैवापेक्षिताज्ञानरूपतामाहकृत्यानवधानरूप इति। एवमालस्यप्रमादयोरज्ञानानुविद्धत्वं दर्शितं तद्धेतुत्वं तु कथमित्यत्राऽऽह -- ततश्चेति। ज्ञानस्यापटुत्वं हि क्रमादत्यन्ताज्ञाने विश्राम्यतीति भावः। निद्रायाः सुखहेतुत्वमायासविश्रमहेतुत्वादिभिः? विच्छेदकेषु रोषाच्च लोकसिद्धम्? इन्द्रियव्यापारमान्द्यस्याप्यङ्गसङ्क्षोभादिनिवृत्तिद्वारा अनवधानस्य तु बुद्धेरेकाग्रताकल्पनरूपप्रयासनिवृत्त्येति। सुखाभासप्रसङ्गेनाकालनिद्रादिकं नोपादेयमित्युक्तं भवति। स्मरन्ति च -- यामद्वयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पते इत्यादि। आहुश्चायुर्वेदविदः -- अकालेऽतिप्रसङ्गाच्च न च निद्रा निषेविता। सुखायुषी पराकुर्यात्कालरात्रिरिवापरा इति। गुणकृतविभागप्रकरणतात्पर्यमनुष्ठानपर्यवसानरूपप्रयोजनेनोपसंहरति -- अत इति।
Sri Abhinavgupta
।।18.36 -- 18.39।।सुखमित्यादि तामसमुदाहृतमित्यन्तम्। तदात्वे? अभ्यासकाले। विषमिव? जन्मशताभ्यस्तविषयसङ्गस्य दुष्परिहारत्वात्। उक्तं च श्रुतौ -- क्षुरस्य धारा विषमा दुरत्यया इत्यादि।आत्मप्रसादात् बुद्धिप्रसादो जायते? अन्यस्यापेक्ष्यमाणस्याभावात्। विषयेन्द्रियाणां परस्परसंयोगज़ं,( S? -- संप्रयोगजम् ) सुखम्? चक्षुष इव रूपसंबन्धात्। निद्रातः आलस्येन प्रमादेन ( S? ? N आलस्येन शठतया प्रमादेन ) पूर्वं व्याख्यातेन यत् सुखं तत्तामसम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.39।।यदग्रे चेति। अग्रे प्रथमारम्भे चानुबन्धे परिणामे च यत्सुखमात्मनो मोहकरं निद्रालस्ये प्रसिद्धे? प्रमादः कर्तव्यार्थावधानमन्तरेण मनोराज्यमात्रं तेभ्य एवोत्तिष्ठति नतु सात्त्विकमिव बुद्धिप्रसादजं न वा राजसमिव विषयेन्द्रियसंयोगजं तन्निद्रालस्यप्रमादोत्थं तामसं सुखमुदाहृतम्।
Sri Purushottamji
।।18.39।।तामसमाह -- यदग्रे इति। यत् अग्रे प्रथमं च पुनः अनुबन्धे पश्चात् परिणामदशायां च निद्रालस्यप्रमादोत्थं निद्रा इन्द्रियापटुत्वेन सुखदुःखाभावात्मकानन्ददशात्मिका? आलस्यं क्रियाकरणेन शैथिल्येन स्थितिः? सुखाभिमानः प्रमादः कर्त्तव्यपूजाध्ययनकर्मानवधाने तूष्णींस्थितिरूपाज्ञानस्यानन्दभ्रमः? एतेभ्य उत्थितम्? आत्मनो जीवस्य मोहनं मोहकारकं भगवद्विस्मरणकारकं सुखं तामसं निष्फलं समुदाहृतं सम्यक्प्रकारेण उदाहृतम् ज्ञानिभिरिति शेषः।
Sri Shankaracharya
।।18.39।। --,यत् अग्रे च अनुबन्धे च अवसानोत्तरकाले च सुखं मोहनं मोहकरम् आत्मनः निद्रालस्यप्रमादोत्थं निद्रा च आलस्यं च प्रमादश्च तेभ्यः समुत्तिष्ठतीति निद्रालस्यप्रमादोत्थम्? तत् तामसम् उदाहृतम्।।अथ इदानीं प्रकरणोपसंहारार्थः श्लोकः आरभ्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।18.39।।यदग्रे चानुबन्धेऽनुभवान्तकाले आत्मनो मोहनं तत्तामसं? अतो मुमुक्षुणा सर्वथा रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वमेवोपादेयमिति तत्त्वम्।
Swami Sivananda
18.39 यत् which? अग्रे at first? च and? अनुबन्धे in the seel? च and? सुखम् pleasure? मोहनम् delusive? आत्मनः of the self? निद्रालस्यप्रमादोत्थम् arising from sleep? indolence and heedlessness? तत् that? तामसम् Tamasic? उदाहृतम् is declared.Commentary Anubandhe In the conseence after the termination. The pleasure that is begotten by evil habits like drinking liors and eating worthless things is delusive of the self. The man becomes oblivious of the path he ought to tread. Such pleasure is verily of the nature of darkness.