Chapter 18, Verse 30
Verse textप्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।
Verse transliteration
pravṛittiṁ cha nivṛittiṁ cha kāryākārye bhayābhaye bandhaṁ mokṣhaṁ cha yā vetti buddhiḥ sā pārtha sāttvikī
Verse words
- pravṛittim—activities
- cha—and
- nivṛittim—renuncation from action
- cha—and
- kārya—proper action
- akārye—improper action
- bhaya—fear
- abhaye—without fear
- bandham—what is binding
- mokṣham—what is liberating
- cha—and
- yā—which
- vetti—understands
- buddhiḥ—intellect
- sā—that
- pārtha—son of Pritha
- sāttvikī—in the nature of goodness
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
The intellect which knows the activity and the cessation from activity, the proper and improper actions, the fear and non-fear, and the bondage and emancipation—that intellect is considered to be of the Sattva (Strand).
Shri Purohit Swami
That intellect which understands the creation and dissolution of life, what actions should be done and what not, which discriminates between fear and fearlessness, bondage and deliverance, is Pure.
Swami Tejomayananda
।।18.30।। हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्य और अकार्य, भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।।
Swami Adidevananda
That Buddhi, O Arjuna, which knows activity and renunciation, what should be done and what should not be done, fear and fearlessness, bondage and release—that Buddhi is Sattvika.
Swami Gambirananda
O Partha, that intellect is born of sattva which understands action and withdrawal, duty and what is not duty, the sources of fear and fearlessness, as well as bondage and freedom.
Swami Ramsukhdas
।।18.30।।हे पृथानन्दन ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको, कर्तव्य और अकर्तव्यको, भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है।
Swami Sivananda
The intellect which knows the path of work and renunciation, what should be done and what should not be done, fear and fearlessness, bondage and liberation—that intellect is Sattvic (pure), O Arjuna.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।18.30।। --,प्रवृत्तिं च प्रवृत्तिः प्रवर्तनं बन्धहेतुः कर्ममार्गः शास्त्रविहितविषयः? निवृत्तिं च निर्वृत्तिः मोक्षहेतुः संन्यासमार्गः -- बन्धमोक्षसमानवाक्यत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्ती कर्मसंन्यासमार्गौ इति अवगम्यते -- कार्याकार्ये विहितप्रतिषिद्धे लौकिके वैदिके वा शास्त्रबुद्धेः कर्तव्याकर्तव्ये करणाकरणे इत्येतत् कस्य देशकालाद्यपेक्षया दृष्टादृष्टार्थानां कर्मणाम्। भयाभये बिभेति अस्मादिति भयं चोरव्याघ्रादि? न भयं अभयम्? भयं च अभयं च भयाभये? दृष्टादृष्टविषययोः भयाभययोः कारणे इत्यर्थः। बन्धं सहेतुकं मोक्षं च सहेतुकं या वेत्ति विजानाति बुद्धिः? सा पार्थ सात्त्विकी। तत्र ज्ञानं बुद्धेः वृत्तिः बुद्धिस्तु वृत्तिमती। धृतिरपि वृत्तिविशेषः एव बुद्धेः।।
Swami Sivananda
18.30 प्रवृत्तिम् action? the path of work? च and? निवृत्तिम् the path of renunciation? च and? कार्याकार्ये what ought to be done and what ought not to be done? भयाभये fear and fearlessness? बन्धम् bondage? मोक्षम् liberation? च and? या which? वेत्ति knows? बुद्धिः intellect? सा that? पार्थ O Arjuna? सात्त्विकी Sattvic.Commentary The threefold nature of knowledge has been described already (verse 22 above). Now the threefold nature of the intellect is described. Knowledge is different from the intellect.Pravritti Action The cause of bondage the path of action. Nivritti Inaction The cause of liberation the path of renunciation the path of Sannyasa.Karyakarye The pure intellect knows what ought to be done and what ought not to be done at,particular places and times it knows the actions that produce visible or invisible results? that are enjoined or prohibited by the scriptures. It guides a man who relies on the scriptural ordinances for his daily conduct of life.Bhayabhaye Fear and fearlessness The cause of fear and fearlessness either visible or invisible.Bandham moksham Bondage and liberation together with their causes.Knowledge is a Vritti (function or state) of the intellect whereas intellect is what functions or undergoes the change of state. Even firmness is only a particular Vritti (modification or state) of the intellect. (Cf.XVIII.20)
Sri Neelkanth
।।18.30।।प्रवृत्तिनिवृत्ती शास्त्रविहितप्रतिषिद्धविषयेयजेत स्वर्गकामः?न सुरां पिबेत् इत्यादिरूपे। कार्यं कृतिसाध्यं स्वर्गादि। अकार्यं नित्यसिद्धं तेन नित्यानित्यवस्तुनी उक्ते। भयाभये कार्याकार्यनिमित्ते। बन्धं मोक्षं च या वेत्ति यया वेत्तीति पूर्ववत्करणे कर्तृत्वोपचारः। बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।
Swami Ramsukhdas
।।18.30।। व्याख्या -- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च -- साधकमात्रकी प्रवृत्ति और निवृत्ति -- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कभी वह संसारका कामधंधा करता है? तो यह प्रवृत्तिअवस्था है और कभी संसारका कामधंधा छोड़कर एकान्तमें भजनध्यान करता है? तो यह निवृत्तिअवस्था है। परन्तु इन दोनोंमें सांसारिक कामनासहित प्रवृत्ति और वासनासहित निवृत्ति (टिप्पणी प0 912) -- ये दोनों ही अवस्थाएँ प्रवृत्ति हैं अर्थात् संसारमें लगानेवाली हैं? तथा सांसारिक कामनारहित प्रवृत्ति और वासनारहित निवृत्ति -- ये दोनों ही अवस्थाएँ निवृत्ति हैं अर्थात् परमात्माकी तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिये साधक इनको ठीकठीक जानकर,कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्तिको ही ग्रहण करें।वास्तवमें गहरी दृष्टिसे देखा जाय तो कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति भी यदि अपने सुख? आराम आदिके लिये की जायँ तो वे दोनों ही प्रवृत्ति हैं क्योंकि वे दोनों ही बाँधनेवाली हैं अर्थात् उनसे अपना व्यक्तित्व नहीं मिटता। परन्तु यदि कामनावासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनों केवल दूसरोंके सुख? आराम और हितके लिये ही की जायँ? तो वे दोनों ही निवृत्ति हैं क्योंकि उन दोनोंसे ही अपना व्यक्तित्व नहीं रहता। वह अव्यक्तित्व कब नहीं रहता जब प्रवृत्ति और निवृत्ति जिसके प्रकाशसे प्रकाशित होती हैं तथा जो प्रवृत्ति और निवृत्तिसे रहित है? उस प्रकाशक अर्थात् तत्त्वकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति की जाय। प्रवृत्ति तो की जाय प्राणिमात्रकी सेवाके लिये और निवृत्ति की जाय परम विश्राम अर्थात् स्वरूपस्थितिके लिये।कार्याकार्ये -- शास्त्र? वर्ण? आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जो काम किया जाता है? वह कार्य है और शास्त्र आदिकी मर्यादासे विरुद्ध जो काम किया जाता है वह अकार्य है।जिसको हम कर सकते हैं? जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करनेसे जीवका जरूर कल्याण होता है? वह कार्य अर्थात् कर्तव्य कहलाता है और जिसको हमें नहीं करना चाहिये तथा जिससे जीवका बन्धन होता है? वह अकार्य अर्थात् अकर्तव्य कहलाता है। जिसको हम नहीं कर सकते? वह अकर्तव्य नहीं कहलाता? वह तो अपनी असामर्थ्य है।भयाभये -- भय और अभयके कारणको देखना चाहिये। जिस कर्मसे अभी और परिणाममें अपना और दुनियाका अनिष्ट होनेकी सम्भावना है? वह कर्म भय अर्थात् भयदायक है और जिस कर्मसे अभी और परिणाममें अपना और दुनियाका हित होनेकी सम्भावनना है? वह कर्म अभय अर्थात् सबको अभय करनेवाला है।मनुष्य जब करनेलायक कार्यसे च्युत होकर अकार्यमें प्रवृत्त होता है? तब उसके मनमें अपनी मनबड़ाईकी हानि और निन्दाअपमान होनेकी आशङ्कासे भय पैदा होता है। परन्तु जो अपनी मर्यादासे कभी विचलित नहीं होता? अपने मनसे किसीका भी अनिष्ट नहीं चाहता और केवल परमात्मामें ही लगा रहता है? उसके मनमें सदा अभय बना रहता है। यह अभय ही मनुष्यको सर्वथा अभयपद -- परमात्माको प्राप्त करा देता है।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति -- जो बाहरसे तो यज्ञ? दान? तीर्थ? व्रत आदि उत्तमसेउत्तम कार्य करता है परन्तु भीतरसे असत् जड? नाशवान् पदार्थोंको और स्वर्ग आदि लोकोंको चाहता है? उसके लिये वे सभी कर्म बन्ध अर्थात् बन्धनकारक ही हैं। केवल परमात्मासे ही सम्बन्ध रखना? परमात्माके सिवाय कभी किसी अवस्थामें असत् संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध न रखना मोक्ष अर्थात् मोक्षदायक है।अपनेको जो वस्तुएँ नहीं मिली हैं? उनकी कामना होनेसे मनुष्य उनके अभावका अनुभव करता है। वह अपनेको उन वस्तुओंके परतन्त्र मानता है और वस्तुओंके मिलनेपर अपनेको स्वतन्त्र मानता है। वह समझता तो यह है कि मेरे पास वस्तुएँ होनेसे मैं स्वतन्त्र हो गया हूँ? पर हो जाता है उन वस्तुओंके परतन्त्र वस्तुओंके अभाव और वस्तुओंके भाव -- इन दोनोंकी परतन्त्रतामें इतना ही फरक पड़ता है कि वस्तुओंके अभावमें परतन्त्रता दीखती है? खटकती है और वस्तुओंके होनेपर वस्तुओंकी परतन्त्रता परतन्त्रताके रूपमें दीखती ही नहीं क्योंकि उस समय मनुष्य अन्धा हो जाता है। परन्तु हैं ये दोनों ही परतन्त्रता? और परतन्त्रता ही बन्धन है। अभावकी परतन्त्रता प्रकट विष है और भावकी परतन्त्रता छिपा हुआ मीठा विष है? पर हैं दोनों ही विष। विष तो मारनेवाला ही होता है।निष्कर्ष यह निकला कि सांसारिक वस्तुओंकी कामनासे ही बन्धन होता है और परमात्माके सिवाय किसी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? देश? काल आदिकी कामना न होनेसे मुक्ति होती है (टिप्पणी प0 913)। यदि मनमें कामना है तो वस्तु पासमें हो तो बन्धन और पासमें न हो तो बन्धन यदि मनमें कामना नहीं है तो वस्तु पासमें हो तो मुक्त और पासमें न हो तो मुक्तिबुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी -- इस प्रकार जो प्रवृत्तिनिवृत्ति? कार्यअकार्य? भयअभय और बन्धमोक्षके वास्तविक तत्त्वको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।इनके वास्तविक तत्त्वको जानना क्या है प्रवृत्तिनिवृत्ति? कार्यअकार्य? भयअभय और बन्धमोक्ष -- इनको गहरी रीतिसे समझकर? जिसके साथ वास्तवमें हमारा सम्बन्ध नहीं है? उस संसारके साथ सम्बन्ध न मानना और जिसके साथ हमारा स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है? ऐसे (प्रवृत्तिनिवृत्ति आदिके आश्रय तथा प्रकाशक) परमात्माको तत्त्वसे ठीकठीक जानना -- यही सात्त्विकी बुद्धिके द्वारा वास्तविक तत्त्वको ठीकठीक जानना है। सम्बन्ध -- अब राजसी बुद्धिके लक्षण बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।18.30।। वह बुद्धि सर्वोच्च मानी जाती है? जो अपने कार्यक्षेत्र की वस्तुओं? व्यक्तियों एवं घटनाओं को यथार्थ रूप में तत्परता से समझ सकती है। बुद्धि के अनेक कार्य हैं? जैसे निरीक्षण? विश्लेषण? वर्गीकरण? संकल्पना? कामना? स्मरण करना इत्यादि तथापि इन सब में जिस क्षमता की आवश्यकता होती है? वह है विवेक की क्षमता। विवेक के बिना यथार्थ निरीक्षण? निर्णय आदि असंभव हैं। अत बुद्धि का मुख्य कार्य है? विवेक।प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो शब्दों के परिभाषिक अर्थ क्रमश कर्ममार्ग और संन्यास मार्ग हैं। एक साधक को इन दोनों के वास्तविक स्वरूप को समझकर स्वयं की अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार किसी एक मार्ग का यथायोग्य अनुरक्षण करना चाहिये। अन्यथा कोई साधक कर्म में ही आसक्त होकर रह जायेगा? तो अन्य साधक संन्यास के नाम पर केवल पलायन ही करेगंे।कार्य और अकार्य सत्य और मिथ्या का विवेक करने वाली बुद्धि का प्रयोजन? कार्य और अकार्य अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक करना भी है। मनुष्य को यह जानना आवश्यक होता है कि कौन से कर्म कर्तव्य और उचित हैं तथा कौन से कर्म निषिद्ध और अनुचित हैं। इस विवेक के न होने पर मनुष्य कभीकभी क्रोधावेश या मिथ्या अभिमान के कारण अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है? जिसका उसे कालान्तर में पश्चाताप होता है। अर्जुन ने भी मानसिक उन्माद की स्थिति में इस विवेक को खो दिया था? जिसका मुख्य कारण उसका मित्र? बन्धु? परिवार से अत्याधिक स्नेह ही था।भय और अभय मूढ़ लोग अत्याधिक विषयासक्ति के कारण अवैध? अनैतिक और अधार्मिक कार्य करने से भयभीत नहीं होते परन्तु शास्त्रों का अध्ययन और आत्मानुसंधान जैसे श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त होने में उन्हें भय प्रतीत होता है। संन्यास और वैराग्य जैसे शब्दों से भी उन्हें डर लगता है। अत वह बुद्धि सात्त्विक है? जो भय और अभय के कारणों का सम्यक् प्रकार से विवेक कर सकती है।बन्ध और मोक्ष अपने सच्चिदानन्दस्वरूप के अज्ञान से ही हम विषयों से सुख प्राप्ति की कामना करके कर्म में प्रवृत्त होते हैं। कर्मफल के उपभोग से वासनाएं उत्पन्न होती हैं? जो पुन हमें कर्म में प्रवृत्त करती रहती हैं। ये अज्ञानजनित वासनाएं ही हमारे बन्धन को दृढ़ करती हैं। अत आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान के नाश से ही हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जो बुद्धि बन्धन के कारण और मोक्ष के साधन को तत्त्वत जानती है? वही सात्त्विक बुद्धि है।सारांशत? प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्याकार्य? भयाभय और बन्धमोक्ष के स्वरूप को यथावत् पहचानने वाली बुद्धि सात्त्विक है।सात्त्विक बुद्धि मरुस्थल में भी सुन्दर उपवन की रचना कर सकती है और विफलता की प्रत्येक आशंका से सफलता का सम्पादन कर सकती है। बुद्धि और धृति के बिना जीवन में प्राप्त होने वाले सुअवसर भी विपत्ति के कारण बन जाते हैं अथवा धूलि में मिल जाते हैं। सात्त्विक बुद्धि घोरतम त्रासदियों को श्रेष्ठतम सुख समृद्धियों में परिवर्तित कर सकती है।राजसी बुद्धि क्या है सुनो
Sri Anandgiri
।।18.30।।तत्रादौ सात्त्विकीं बुद्धिं निर्दिशति -- प्रवृत्तिं चेति। प्रवृत्तिराचरणमात्रम्? अनाचरणमात्रं च निवृत्तिरिति किं नेष्यते तत्राह -- बन्धेति। यस्मिन्वाक्ये बन्धमोक्षावुच्येते तस्मिन्नेव प्रवृत्तिनिवृत्त्योरुक्तत्वात् कर्ममार्गस्य बन्धहेतुत्वान्मोक्षहेतुत्वाच्च संन्यासमार्गस्य तावेवात्र ग्राह्यावित्यर्थः।,करणाकरणयोर्निर्विषयत्वायोगाद्विषयापेक्षामवतार्य योग्यं विषयं निर्दिशति -- कस्येति। अनिष्टसाधनं भयमिष्टसाधनमभयमिति विभजते -- भयेति। बन्धादिमात्रज्ञानस्य बुद्ध्यन्तरेऽपि संभवाद्विशेषणम्। ननु बुद्धिशब्दितस्य ज्ञानस्य प्रागेव त्रैविध्यप्रतिपादनात्किमिति बुद्धेरिदानीं त्रैविध्यं प्रतिज्ञाय व्युत्पाद्यते तत्राह -- ज्ञानमिति। तर्हि ज्ञानेन गतत्वान्न पुनर्धृतिर्व्युत्पादनीयेत्याशङ्क्याह -- धृतिरपीति। विशेषशब्देन ज्ञानाद्व्यावृत्तिरिष्टा।
Sri Dhanpati
।।18.30।।तत्र बुद्धेस्त्रैविध्यं विभजन्नादौ सात्त्विकीं बुद्धिमुदाहरति -- प्रवृत्तिं च निवृत्तिं चेति। यस्मिन्वाक्ये बन्धमोक्षावुच्येते तस्मिन्नेव प्रवृत्तिनिवृत्त्योरुक्तत्वात्। कर्ममार्गस्य बन्धहेतुत्वात् निवृत्तिमार्गस्य मोक्षहेतुत्वाच्च प्रवृत्तिनिवृत्ती कर्मसंन्यासमार्गावित्यवगम्यते। तथाच प्रवृत्तिः प्रवर्तनं बन्धहेतुः कर्ममार्गः? निवृत्तिः संन्यासहेतुर्मोक्षमार्गः? प्रवृत्तिं शास्त्रविहितविषयां? निवृत्तिं तत्प्रतिषिद्धविषयामित्यपि बोध्यम्। कार्याकार्ये कर्तव्याकर्तव्ये देशकालाद्यपेक्षया दृष्टादृष्टार्थानां कर्मणां करणाकरणे। विमेत्यस्मादीति भयं भयकारणं तद्विपरीतमभयमभयकारणं भयं चाभयं च भयाभये। भयं दुःखमभयं सुखमिति तु सात्त्विक्या बुद्धेर्दुःखानुभवस्यायोग्यत्वं? भयं प्रवृत्तिमार्गे अभयं निवृत्तिमार्गे इति विवक्षायामध्याहारदोषं चाभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातम्। बन्धं सहेतुकं मोक्षं च सहेतुकं या वेत्ति सा बुद्धिः सात्त्विकी। करणे कर्तत्वोपचारात्प्रथमा। सात्त्विक्या बुद्य्धा युक्तायाः पृथायाः पुत्रस्त्वमपि तथैव भवितुं योग्योऽसीति सूचनार्थं पार्थेति संबोधनम्।
Sri Ramanujacharya
।।18.30।।प्रवृत्तिः अभ्युदयसाधनभूतो धर्मः? निवृत्तिः मोक्षसाधनभूतो धर्मः? तौ उभौ यथावस्थितौ या बुद्धिः वेत्ति कार्याकार्ये सर्ववर्णानां प्रवृत्तिनिवृत्तिधर्मयोः? अन्यतरनिष्ठानां देशकालावस्थाविशेषेषुइदं कार्यम् इदम् अकार्यम् इति च या वेत्ति भयाभये शास्त्रात् निवृत्तिः भयस्थानं तद्नुवृत्तिः अभयस्थानं बन्धं मोक्षं च संसारयाथात्म्यं तद्विगमयाथात्म्यं च या वेत्ति? सा सात्त्विकी बुद्धिः।
Sri Sridhara Swami
।।18.30।।तत्र बुद्धेस्त्रैविध्यमाह -- प्रवृत्तिं चेति त्रिभिः। प्रवृत्तिं च धर्मे निवृत्तिं चाधमें। यस्मिन् देशे काले च यत्कार्यमकार्यं च भयाभये कार्याकार्यनिमित्तावर्थानर्थौ कथं बन्धः कथं वा मोक्ष इति या बुद्धिरन्तःकरणं वेत्ति सा सात्त्विकी। यया पुमान् वेत्तीति वक्तव्ये करणे कर्तृत्वोपचारः काष्ठानि पचन्तीतिवत्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।18.30।।कार्याकार्यशब्दाभ्यां पुनरुक्तिशङ्कापरिहारायप्रवृत्तिलक्षणं धर्मं प्रजापतिरथाब्रवीत्। निवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत् [म.भा.12।217।23] इत्याद्यनुसारेण प्रवृत्तिनिवृत्तिशब्दयोः प्रधानकर्मविषयत्वमाह -- अभ्युदयसाधनभूत इत्यादिना। राजसतामसबुद्ध्योःअयथावत् इत्यादिविशेषणादिहार्थतस्तन्निवृत्तेर्विवक्षितत्वज्ञापनाय यथावस्थितत्वोक्तिः। कार्याकार्यशब्दयोरिह प्रकृतप्रधानकर्मेतिकर्तव्यताभूतदृष्टादृष्टव्यापारपरत्वमाह -- सर्ववर्णानामित्यादिना। तत्र सूक्ष्मधीवेद्यत्वायदेशकालावस्थाविशेषेष्विति विशेषितम्। स्मर्यते हि -- शरीरं बलमायुश्च वयः कालं च कर्म च। समीक्ष्य धर्मविद्बुद्ध्या प्रायश्चित्तानि निर्दिशेत् इतिदेशं कालं तथाऽऽत्मानं इत्यादि च। अत्र शक्याशक्ययोरपि कार्याकार्यशब्दाभ्यामेव ग्रहणम्। भयाभययोः स्वरूपज्ञानस्य सर्वसाधारणत्वादिह तन्निमित्तज्ञानं विवक्षितम् तच्च प्राकरणिकविशेषविषयमाह -- शास्त्रान्निवृत्तिर्भयस्थानमिति। बिभेत्यस्मादिति भयम् सर्वप्रशासितुरीश्वरादेव हि तत्त्वविदां भयमभयं च नहि तत्प्रेरणमन्तरेण केनचिद्बाधितुमबाधितुं वा शक्यम्। ततस्तदाज्ञानुवृत्त्यतिवृत्ती एव भयाभयनिमित्तमिति भावः। बन्धमोक्षसद्भावज्ञानस्यापि साधारण्याद्बन्धस्य मिथ्यात्वादिवादो मोक्षस्य पाषाणवद्भावादिमतं च याथात्म्यशब्देन व्युदस्तम्।वेत्तीति कर्तृत्वोपचारः स्वाच्छन्द्येन विषयीकरोतीत्यर्थः।,
Sri Abhinavgupta
।।18.30 -- 18.32।।प्रवृत्तिमित्त्यादि तामसी मतेत्यन्तम्। अयथावत् -- असम्यक्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।18.30।।तत्र बुद्धेस्त्रैविध्यमाह त्रिभिः -- प्रवृत्तिं चेति। प्रवृत्तिं कर्ममार्गं? निवृत्तिं संन्यासमार्गं? कार्यं प्रवृत्तिमार्गे कर्मणां करणम्। अकार्यं निवृत्तिमार्गे कर्मणामकरणम्? भयं प्रवृत्तिमार्गे गर्भवासादिदुःखं? अभयं निवृत्तिमार्गे तदभावं? बन्धं प्रवृत्तिमार्गे मिथ्याज्ञानकृतं कर्तृत्वाद्यभिमानम्? मोक्षं निवृत्तिमार्गे तत्त्वज्ञानकृतमज्ञानतत्कार्याभावं च यो वेत्ति। करणे कर्तृत्वोपचारात् यया वेत्ति कर्ता बुद्धिः सा प्रमाणजनितनिश्चयवती हे पार्थ? सात्त्विकी। बन्धमोक्षयोरन्ते कीर्तनात्तद्विषयमेव प्रवृत्त्यादि व्याख्यातम्।
Sri Purushottamji
।।18.30।।एवं सावधानं कृत्वा बुद्धित्रैविध्यमाह -- प्रवृत्तिमिति त्रयेण। प्रवृत्तिं भगवदिङ्गितधर्मे? निवृत्तिं तदभावरूपे अधर्मे। कार्याकार्ये सत्परिपन्थ्यभावे देशे भजनं कार्यम्? अतथाभूते वा भजनातिरिक्तं सर्वमेवाकार्यम्। तथा भगवत्सम्बन्धरहितसम्बन्धे भयं भगवद्विस्मरणात्मकमृत्युरूपं? तत्सम्बन्धिन्यभयं भयाभावं? बन्धं भगवत्सेवाङ्गाभावकर्मणि? मोक्षं सेवादिकर्मणि? इति या बुद्धिर्वेत्ति जानाति? हे पार्थ तथाज्ञानयोग्य सा बुद्धिः सात्त्विकी सत्त्वसम्बन्धिनी? ज्ञातव्येति शेषः।
Sri Vallabhacharya
।।18.30।।तथा हि प्रवृत्तिं चेति त्रिभिः। प्रवृत्तिरभ्युदयसाधनभूतो धर्मः? निवृत्तिर्मोक्षसाधनभूतो धर्मः? ताबुभौ यथास्थितौ बुद्धिर्वेत्ति या सा सात्विको। अत्रमनसस्तु परा बुद्धिः [3।42] इत्युक्त्या बुद्धेः परत्वाभिप्रायेण रथो गच्छतीतिवद्वा वेत्तृत्वमुच्यते।