Chapter 6, Verse 18
Verse textयदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते। निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।6.18।।
Verse transliteration
yadā viniyataṁ chittam ātmanyevāvatiṣhṭhate niḥspṛihaḥ sarva-kāmebhyo yukta ityuchyate tadā
Verse words
- yadā—when
- viniyatam—fully controlled
- chittam—the mind
- ātmani—of the self
- eva—certainly
- avatiṣhṭhate—stays
- nispṛihaḥ—free from cravings: sarva
- kāmebhyaḥ—for yearning of the senses
- yuktaḥ—situated in perfect Yog
- iti—thus
- uchyate—is said
- tadā—then
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।6.18।। वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी है - ऐसा कहा जाता है।
Swami Tejomayananda
।।6.18।। वश में किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरुपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थों नि: स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी कहा जाता है।
Swami Adidevananda
When the subdued mind rests solely on the Self, then, free from all yearning for objects of desire, one is said to be fit for Yoga.
Swami Gambirananda
A person who has become free from hankering for all desirable objects is said to be Self-absorbed when the controlled mind rests solely in the Self.
Swami Sivananda
When the perfectly controlled mind rests in the Self alone, free from longing for any of the objects of desire, then it is said, 'He is united'.
Dr. S. Sankaranarayan
When his mind, well-controlled, is established in nothing but the Self, and he is free from craving for any desired object—at that time he is called a master of Yoga.
Shri Purohit Swami
When the mind is completely controlled, centered in the Self, and free from all earthly desires, then the man is truly spiritual.
Verse commentaries
Sri Neelkanth
।।6.18।।निर्वाणपरमां शान्तिं प्राप्तस्य लक्षणान्याह यदेत्यादिभिः षड्भिः। विनियतं विशेषेण एकाग्रताभूमेरपि निरुद्धमात्मनि प्रत्यगात्मन्येवावतिष्ठते नत्वस्मितादिरूपेणोद्रिच्यते तदा योगी सर्वेभ्यो जाग्रत्स्वप्नसबीजसमाधिषूपस्थितेभ्यः। ल्यब्लोपे पञ्चमी। सार्वात्म्यप्राप्त्यैव तान् प्राप्य तेषु निःस्पृहो भवति तदा युक्तो निर्विकल्पक इत्युच्यते।
Sri Ramanujacharya
।।6.18।।यदा प्रयोजनविषयं चित्तम् आत्मनि एव विनियतं विशेषेण नियतं निरतिशयप्रयोजनतया तत्रैव नियतंनिश्चलम् अवतिष्ठते तदा सर्वकामेभ्यो निःस्पृहः सन् युक्त इति उच्यते योगार्ह इति उच्यते।
Sri Sridhara Swami
।।6.18।। कदा निष्पन्नयोगः पुरुषो भवतीत्यपेक्षायामाह यदेति। विनियतं विशेषेण निरुद्धं सच्चित्तमात्मन्येव यदा निश्चलं तिष्ठति। किंच सर्वकामेभ्य ऐहिकामुष्मिकभोगेभ्यो विगततृष्णो भवति तदा प्राप्तयोग इत्युच्यते।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।6.18।।एवं परिकरोक्तिसमनन्तरं योगदशां प्रदर्शयितुं ततः पूर्वा प्रागुक्तैव योगयोग्यदशा परामृश्यते यदा विनियतं इति श्लोकेन।आत्मन्येव इत्येवकारव्यवच्छेद्यक्षुद्रप्रयोजनान्तरज्ञापनाय सामान्यतःप्रयोजनविषयमित्युक्तम्। प्रयोजनान्तरेषु सत्सु क्वचित् विशेषेण नियतत्वे को हेतुः इत्यत्राहनिरतिशयेति।युक्तः इत्येतावतोऽत्र विधेयत्वात्निस्स्पृहः इत्यस्याप्युद्देश्यकोट्यनुप्रवेशायनिस्स्पृहः सन्नित्युक्तम् सर्वकामेभ्यो निर्गता स्पृहा यस्य स तथोक्तः सर्वकामेषु निस्स्पृह इत्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।6.18।।यदेति। अस्य च योगिनश्चिह्नम् आत्मन्येव नियतमना न किंचिदपि स्पृहयते।
Sri Madhusudan Saraswati
।।6.18।।एवमेकाग्रभूमौ संप्रज्ञातं समाधिमभिधाय निरोधभूमावसंप्रज्ञातं समाधिं वक्तुमुपक्रमते यदा यस्मिन्काले परवैराग्यवशाद्विनियतं विशेषेण नियतं सर्वशून्यतामापादितं चित्तं विगतरजस्तमस्कमन्तःकरणसत्त्वं स्वच्छत्वात्सर्वविषयाकारग्रहणसमर्थमपि सर्वतोनिरुद्धवृत्तिकत्वादात्मन्येव प्रत्यक्िचति अनात्मानुपरक्ते वृत्तिराहित्येऽपि स्वतःसिद्धस्यात्माकारस्य वारयितुमशक्यत्वाच्चितेरेव प्राधान्यान्न्यग्भूतं सदवतिष्ठते निश्चलं भवति तदा तस्मिन्सर्ववृत्तिनिरोधकाले युक्तः समाहित इत्युच्यते। कः। यः सर्वकामेभ्यो निःस्पृहः निर्गता दोषदर्शनेन सर्वेभ्यो दृष्टादृष्टविषयेभ्यः कामेभ्यः स्पृहा तृष्णा यस्येति परं वैराग्यमसंप्रज्ञातसमाधेरन्तरङ्गं साधनमुक्तम्। तथाच व्याख्यातं प्राक्।
Sri Purushottamji
।।6.18।।नन्वेवं प्रवृत्तस्य भगवद्योगसिद्धिः कदा स्यात् इत्याकाङ्क्षायामाह यदेति। यदा यस्मिन् समये भगवत्सम्बन्धलक्षणभद्रकाले विनियतं वशीभूतं चित्तमात्मन्येव भावात्मकस्वरूप एव अवतिष्ठते स्थिरं भवति सर्वकामेभ्यो लौकिकेभ्यो निस्स्पृहो विगतेच्छो भवति तदा युक्त इत्युच्यते। सिद्धयोग उच्यत इत्यर्थः।
Sri Shankaracharya
।।6.18।। यदा विनियतं चित्तं विशेषेण नियतं संयतम् एकाग्रतामापन्नं चित्तं हित्वा बाह्यार्थचिन्ताम् आत्मन्येव केवले अवतिष्ठते स्वात्मनि स्थितिं लभते इत्यर्थः। निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः निर्गता दृष्टादृष्टविषयेभ्यः स्पृहा तृष्णा यस्य योगिनः सः युक्तः समाहितः इत्युच्यते तदा तस्मिन्काले।।तस्य योगिनः समाहितं यत् चित्तं तस्योपमा उच्यते
Sri Vallabhacharya
।।6.18।।कदा सिद्धयोगी पुरुषो भवतीत्यपेक्षायां निर्बीजयोगमसम्प्रज्ञातसमाधिमाह यदेति। आत्मन्येव चित्तं विनियतं संयतं तिष्ठति यस्य सोऽपि योगकाले सम्प्राप्ते तेभ्यो योगैश्वर्याष्टसिद्धिरूपेभ्योऽशेषकामेभ्यो निस्स्पृहो भवेत् तदा युक्तः सिद्धयोगी दृढतरयोगीत्युच्यतेऽसम्प्रज्ञातसमाधिनिष्ठः।
Swami Sivananda
6.18 यदा when? विनियतम् perfectly controlled? चित्तम् mind? आत्मनि in the Self? एव only? अवतिष्ठते rests? निःस्पृहः free from longing? सर्वकामेभ्यः from all (objects of) desires? युक्तः united? इति thus? उच्यते is said? तदा then.Commentary Perfectly controlled mind The mind with onepointedness.When all desires for the objects of pleasure seen or unseen die? the mind becomes very peaceful and rests steadily in the Supreme Self within. As the Yogi is perfectly harmonised? as he has attained to oneness with the Self and as he has become identical with Brahman? sense phenomena and bodily affections do not disturb him. He is conscious of his immortal? imperishable and invincible nature.Yukta means united (with the Self) or harmonised or balanced. Without union with the Self neither harmony nor balance nor Samadhi is possible. (Cf.V.23VI.8)
Sri Jayatritha
।।6.18।।आत्मान्येवावतिष्ठते इत्यत्र स्वस्मिन्नेवेति प्रतीतिनिरासायाह आत्मनीति। अन्यथा ज्ञात्वा मामित्यादिविरोधः।
Swami Ramsukhdas
।।6.18।। व्याख्या--[इस अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्लोकतक सभी ध्यानयोगी साधकोंके लिये बिछाने और बैठनेवाले आसनोंकी विधि बतायी। चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकमें सगुणसाकारके ध्यानका फलसहितवर्णन किया। फिर सोलहवेंसत्रहवें श्लोकोंमें सभी साधकोंके लिये उपयोगी नियम बताये। अब इस (अठारहवें) श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोकतक स्वरूपके ध्यानका फलसहित वर्णन करते हैं।] 'यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते'--अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ चित्त (टिप्पणी प0 350) अर्थात् संसारके चिन्तनसे रहित चित्त जब अपने स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित हो जाता है। तात्पर्य है कि जब यह सब कुछ नहीं था, तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी जो रहेगा तथा सबके उत्पन्न होनेके पहले भी जो था, सबका लय होनेके बाद भी जो रहेगा और अभी भी जो ज्यों-का-त्यों है, उस अपने स्वरूपमें चित्त स्थित हो जाता है। अपने स्वरूपमें जो रस है, आनन्द है, वह इस मनको कहीं भी और कभी भी नहीं मिला है। अतः वह रस, आनन्द मिलते ही मन उसमें तल्लीन हो जाता है।
Swami Chinmayananda
।।6.18।। इस श्लोक से लेकर अगले पाँच श्लोकों में योग के फल पर विचार किया गया है तथा पूर्ण योगी का आत्मसाक्षात्कार के समय और तदुपरान्त जीवन में जीते हुये क्या अनुभव होता है इसे भी स्पष्ट किया गया है।सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण ने युक्त शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर किया है तथा साधक के युक्त बनने पर विशेष बल दिया है तथापि इस शब्द की सम्पूर्ण परिभाषा अब तक नहीं बतायी गई यद्यपि यत्रतत्र उसका संकेत अवश्य किया गया है। विचाराधीन श्लोक में हमें युक्त शब्द की विस्तृत परिभाषा मिलती है।पूर्णतया संयमित किया हुआ मन आत्मा में ही स्थित होता है। इस कथन पर विचार करने से इसका सत्यत्व स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगा। असंयमित मन का लक्षण है विषयों में सुख की खोज करना। जैसा कि पहले बताया जा चुका है मन की इस बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अवरुद्ध करने का सर्वोत्तम उपाय उसके प्रकाशक चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुसंधान करना है। उस ध्यान का स्थिति में स्वाभाविक ही विषयों से परावृत्त हुआ मन आत्मस्वरूप में स्थिर होकर रहेगा।उपर्युक्त विवेचन की पुष्टि श्लोक की दूसरी पंक्ति में होती है जिसमें मन के स्थिरीकरण का उपाय बताया गया है सब कामनाओं से निस्पृहता। दुर्भाग्य से अनेक व्याख्याकारों ने कामनाओं के त्याग पर अत्याधिक बल देकर उसे हिन्दू धर्म का प्रमुख गुण घोषित किया है। कामना और विषयों की स्पृहा में धरतीआकाश का अन्तर है। कामना या इच्छा का होना अनुचित नहीं है और न ही वह स्वयं हमें किसी प्रकार का दुख पहुँचा सकती है। किन्तु इच्छापूर्ति के प्रति हमारे मन में जो अत्याधिक लालसा या स्पृहा होती है वही जीवन में हमारे कष्टों का कारण होती है।उदाहरणार्थ धनार्जन की इच्छा अनुचित नहीं क्योंकि वह मनुष्य को कर्म करने लक्ष्य को प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने में प्रोत्साहित करती है परन्तु यदि वह पुरुष धनार्जन की उस इच्छा के वशीभूत होकर आसक्ति के कारण उन्माद के रोगी के समान व्यवहार करने लगे तो वह अपने लक्ष्य को पाने में असमर्थ हो जायेगा। उसकी असफलता का कारण है स्पृहा। अत गीता हमें केवल विषयों की स्पृहा त्यागने का उपदेश देती है।विषयों की उपयोगिता का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करने से मन विषयों से परावृत्त होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है। परिच्छिन्न विषय मन को क्षुब्ध करते हैं। जबकि अनन्त स्वरूप आत्मा उसे आनन्द से परिपूर्ण कर देता है। मन का विषयों से निवृत्त होकर आत्मा में स्थिर होना ही युक्तता का लक्षण है। उक्त लक्षण सम्पन्न व्यक्ति ही युक्त कहलाता है।ऐसे योगी के समाहित चित्त का वर्णन वे इस प्रकार करते हैं
Sri Anandgiri
।।6.18।।सफलस्य साङ्गस्य योगस्योक्त्यनन्तरं यदा हीत्यादावुक्तकालानुवादेन युक्तं लक्षयितुमनन्तरश्लोकप्रवृत्तिं दर्शयति अथाधुनेति। विशेषेण संयतत्वमेव संक्षिपति एकाग्रतामिति। आत्मन्येवेत्येवकारार्थं कथयति हित्वेति। केवलत्वमद्वितीयत्वम्। तस्यात्मस्थितिं विवृणोति स्वात्मनीति। चित्तस्य हि कल्पितस्यात्मैव तत्त्वं तत्पुनरन्यतः सर्वतो निवारितमधिष्ठाने निमग्नं तिष्ठतीति भावः। तस्यामवस्थायां सर्वेभ्यो विषयेभ्यो व्यावृत्ततृष्णो युक्तो व्यवह्रियत इत्याह निःस्पृह इति।
Sri Dhanpati
।।6.18।।एतादृशयोगयुक्तः कदा भवतीति तत्राह। यस्मिन्काले विशेषेण नियतं चित्तं संयतमेकाग्रतामापन्नं निरुद्धं चित्तं बाह्यविषयचिन्तां विहायात्मन्येव प्रत्यगभिन्ने केवलेऽवतिष्ठते। स्थितं लभत इत्यर्थः। सर्वकामेभ्यो दृष्टादृष्टविषयेभ्यः निर्गता निवृत्ता स्पृहा तृष्णा यस्य स तदा तस्मिन्काले युक्त इत्युच्यते।
Sri Madhavacharya
।।6.18।।आत्मनि भवति।