Chapter 6, Verse 41
Verse textप्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।।
Verse transliteration
prāpya puṇya-kṛitāṁ lokān uṣhitvā śhāśhvatīḥ samāḥ śhuchīnāṁ śhrīmatāṁ gehe yoga-bhraṣhṭo’bhijāyate
Verse words
- prāpya—attain
- puṇya-kṛitām—of the virtuous
- lokān—abodes
- uṣhitvā—after dwelling
- śhāśhvatīḥ—many
- samāḥ—ages
- śhuchīnām—of the pious
- śhrī-matām—of the prosperous
- gehe—in the house
- yoga-bhraṣhṭaḥ—the unsuccessful yogis
- abhijāyate—take birth
Verse translations
Swami Tejomayananda
।।6.41।। योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है।।
Swami Gambirananda
Attaining the worlds of the righteous and residing there for eternal years, the man who has fallen from Yoga is born in the house of the pious and prosperous.
Swami Sivananda
Having attained to the worlds of the righteous and having dwelt there for everlasting years, he who fell from Yoga is born in a house of the pure and wealthy.
Dr. S. Sankaranarayan
Having attained the worlds of those who perform pious acts, and having resided there for years of eternity, the one who has fallen from Yoga is born again in the house of the pure and wealthy.
Shri Purohit Swami
Having reached the worlds where the righteous dwell, and having remained there for many years, he who has strayed from the path of spirituality will be born again into the family of the pure, benevolent, and prosperous.
Swami Ramsukhdas
।।6.41।। वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
Swami Adidevananda
He who has fallen away from Yoga is born again in the house of the pure and prosperous, having attained to the worlds of doers of good deeds and dwelled there for many long years.
Verse commentaries
Sri Purushottamji
।।6.41।।एवं नाशाभावमुक्त्वा तस्य गतिस्वरूपमाह प्राप्येति। स योगभ्रष्टः स्वरूपाज्ञानादभ्यासवैराग्याभावादभ्यस्यमानमार्गाद्भ्रष्टः पुण्यकृतां यज्ञादिकारिणां लोकान् श्रद्धामात्रप्रवृत्तिसाधनेन तत्फलभोगविचिकित्साजनितपूर्वप्रवृत्तमार्गस्वरूपज्ञानार्थं प्राप्य तत्र शाश्वतीः समाः बहून् संवत्सरान् उषित्वा स्थित्वा तत्फलभोगं कृत्वा तत्र विचिकित्सयाऽभावकेन मनसा पूर्वश्रद्धासाधनेनैव भवति। जन्मप्रार्थनया शुचीनां कापट्यादिदोषरहितानां श्रीमतां भगवच्छोभायुक्तानां भक्तानां गृहेऽभिजायते जन्म प्राप्नोति। उपसर्गेण स৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷.रतिपूर्वकं प्राप्तिर्ज्ञापिता।
Sri Vallabhacharya
।।6.41।।किन्तु पुण्यकृताँल्लोकान् प्राप्य यावत् कल्याणकर्मफलभोगेन शाश्वतीः समा वर्षानुषित्वा मध्ये भ्रंशात्पूर्वकृतादेव हेतोरिह योगभ्रष्टोऽभिजायते परं श्रीमतां शुचीनां सदाचाराणां गेहे जन्मवान् भवति अशुभस्याकृतत्वात्तत्फलभाक् न भवति इति भावः।
Swami Sivananda
6.41 प्राप्य having attained? पुण्यकृताम् of the righteous? लोकान् worlds? उषित्वा having dwelt? शाश्वतीः everlasting? समाः years? शुचीनाम् of the pure? श्रीमताम् of the wealty? गेहे in the house? योगभ्रष्टः one fallen from Yoga? अभिजायते is born.Commentary Yogabhrashta one who has fallen from Yoga? i.e.? one who was not able to attain perfection in Yoga? or one who climbed a certain height on the ladder of Yoga but fell down on account of lack of dispassion or slackness in the practice (by becoming a victim to Maya or his turbulent senses).The righteous Those who tread the path of truth? who do virtuous actions such as charity? Yajna? rituals? worship of the Lord? and who act in accordance with the prescribed rules of the scriptures.Everlasting years means only a considerably long period but not absolutely everlasting.The pure those who lead a pure? moral life those who have a pure heart (free from jealousy? hatred? pride? greed? etc.). (Cf.IX.20?21)
Swami Ramsukhdas
।।6.41।। व्याख्या--'प्राप्य पुण्यकृतां लोकान्'--जो लोग शास्त्रीय विधि-विधानसे यज्ञ आदि कर्मोंको साङ्गोपाङ्ग करते हैं, उन लोगोंका स्वर्गादि लोकोंपर अधिकार है, इसलिये उन लोगोंको यहाँ 'पुण्यकर्म करनेवालोंके लोक' कहा गया है। तात्पर्य है कि उन लोकोंमें पुण्यकर्म करनेवाले ही जाते हैं, पापकर्म करनेवाले नहीं। परन्तु जिन साधकोंको पुण्य-कर्मोंके फलरूप सुख भोगनेकी इच्छा नहीं है, उनको वे स्वर्गादि लोक विघ्नरूपमें और मुफ्तमें मिलते हैं! तात्पर्य है कि यज्ञादि शुभ कर्म करनेवालोंको परिश्रम करना पड़ता है, उन लोकोंकी याचना--प्रार्थना करनी पड़ती है, यज्ञादि कर्मोंको विधि-विधानसे और साङ्गोपाङ्ग करना पड़ता है, तब कहीं उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति होती है। वहाँ भी उनकी भोगोंकी वासना बनी रहती है; क्योंकि उनका उद्देश्य ही भोग भोगनेका था। परन्तु जो किसी कारणवश अन्तसमयमें साधनसे विचलितमना हो जाते हैं, उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये न तो परिश्रम करना पड़ता है, न उनकी याचना करनी पड़ती है और न उनकी प्राप्तिके लिये यज्ञादि शुभ कर्म ही करने पड़ते हैं। फिर भी उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो जाती है। वहाँ रहनेपर भी उनकी वहाँके भोगोंसे अरुचि हो जाती है; क्योंकि उनका उद्देश्य भोग भोगनेका था ही नहीं। वे तो केवल सांसारिक सूक्ष्म वासनाके कारण उन लोकोंमें जाते हैं। परन्तु उनकी वह वासना भोगी पुरुषोंकी वासनाके समान नहीं होती।जो केवल भोग भोगनेके लिये स्वर्गमें जाते हैं, वे जैसे भोगोंमें तल्लीन होते हैं, वैसे योगभ्रष्ट तल्लीन नहीं हो सकता। कारण कि भोगोंकी इच्छावाले पुरुष भोगबुद्धिसे भोगोंको स्वीकार करते हैं और योगभ्रष्टको विघ्नरूपसे भोगोंमें जाना पड़ता है।
Swami Chinmayananda
।।6.41।। परलोक की गति इहलोक में किये गये कर्मों तथा उनके प्रेरक उद्देश्यों पर निर्भर करती है। कर्म मुख्यत दो प्रकार के होते हैं पाप और पुण्य। पापकर्म का आचरण करने वालों की अधोगति होती है केवल पुण्यकर्म का आश्रय लेने वाले ही आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। हमारे शास्त्रों में इन पुण्यकर्मों को भी दो वर्गों में विभाजित किया गया है (क) सकाम कर्म अर्थात् इच्छा से प्रेरित कर्म और (ख) निष्काम कर्म अर्थात् समर्पण की भावना से ईश्वर की पूजा समझकर किया गया कर्म। कर्म का फल कर्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है इसलिए सकाम और निष्काम कर्मों के फल निश्चय ही भिन्न होते हैं। स्वाभाविक है पूर्णत्व के चरम लक्ष्य तक पहुँचने के इन पुण्यकर्मियों के मार्ग भी भिन्नभिन्न होगें। इस प्रकरण में उन्हीं मार्गों को दर्शाया गया है।जो लोग स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करने की इच्छा से ईश्वर की आराधना यज्ञयागादि तथा अन्य पुण्य कर्म करते हैं उन्हें देहत्याग के पश्चात ऐसे ही लोकों की प्राप्ति होती है जो उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अनुकूल हों। उस लोक में वास करके वे पुन इस लोक में शुद्ध आचरण करने वाले धनवान पुरुषों के घर जन्म लेते हैं। संक्षेप में यदि दृढ़ इच्छा तथा समुचित प्रयत्न किये गये हों तो मनुष्य की कोई भी इच्छा हो वह यथासमय पूर्ण होती ही है।परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्म करने वालों की क्या गति होती है भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।6.41।।योगभ्रष्टस्य लोकद्वयेऽपि नाशाभावे किं भवतीति पृच्छति किंत्विति। तत्र श्लोकेनोत्तरमाह प्राप्येति। कथं संन्यासीति विशेष्यते तत्राह सामर्थ्यादिति। कर्मणि व्यापृतस्य कर्मिणो योगमार्गप्रवृत्त्यनुपपत्तेस्तत्प्रवृत्तावपि फलाभिलाषविकलस्येश्वरे समर्पितसर्वकर्मणस्तद्भ्रंशाशङ्कानवकाशादित्यर्थः। समानां नित्यत्वं मानुषसमाविलक्षणत्वम्। वैराग्यभावविवक्षया विभूतिमतां गृहे जन्मेति विशेष्यते।
Sri Dhanpati
।।6.41।।दुर्गत्यभावमुक्त्वा सुगतिमाह प्राप्येति। योगभ्रष्टो योगमार्गे प्रवृत्तस्यत्यक्तसर्वकर्मा तत्त्वज्ञानमलब्ध्वैव मृतः पुण्यकृतामश्वमैधादिया जिनां लोकांस्तैः प्राप्यान्ब्रह्मलोकादीन्प्राप्य तत्र च शास्वती समाः असंख्यातान्तसंवत्सरानुषित्वा वासमनुभूय तद्भोगक्षये श्रीमतान्। धनदुर्मदान्धरां तेषां वारयति। शुचीनां यथोक्तेन स्वधर्माचरणएन पवित्राणआं गेहे कुले जायत उत्पद्यते।
Sri Shankaracharya
।।6.41।। योगमार्गे प्रवृत्तः संन्यासी सामर्थ्यात् प्राप्य गत्वा पुण्यकृताम् अश्वमेधादियाजिनां लोकान् तत्र च उषित्वा वासमनुभूय शाश्वतीः नित्याः समाः संवत्सरान् तद्भोगक्षये शुचीनां यथोक्तकारिणां श्रीमतां विभूतिमतां गेहे गृहे योगभ्रष्टः अभिजायते।।
Sri Neelkanth
।।6.41।।इहामुत्र च तस्य महत्त्वमेवास्तीत्याह प्राप्येति। उषित्वा वासं कृत्वा। शाश्वतीः समाः नित्यान्वत्सरान्योगभ्रष्टो रागी चेदल्पकालाभ्यस्तयोगश्चेत् श्रीमतां गेहे जायते। तत्रापि श्रीमानधो गच्छतीत्याशङ्क्य शुचीनामित्युक्तम्। शुचयो हि सत्कार्येष्वेव श्रियमुपयुञ्जानाः पूर्वापेक्षया महत्तरं स्थानमासादयन्तीत्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।6.41।।यज्जातीयभोगाभिकाङ्क्षया योगात् प्रच्युतः अयम् अतिपुण्यकृतां प्राप्यान् लोकान् प्राप्य तज्जातीयान् अतिकल्याणभोगान् ज्ञानोपाययोगमाहात्म्याद् एव भुञ्जानो यावत् तद्भोगतृष्णावसानं शाश्वतीः समाः तत्र उषित्वा तस्मिन् भोगे वितृष्णः शुचीनां श्रीमतां योगोपक्रमयोग्यानां कुले योगोपक्रमे भ्रष्टो योगमाहात्म्याद् जायते।
Sri Sridhara Swami
।।6.41।। तर्हि किमसा प्राप्नोतीत्यपेक्षायामाह प्राप्येति। पुण्यकारिणामश्वमेधादियाजिनां लोकान्प्राप्य तत्र शाश्वतीः समाः बहून्संवत्सरानुषित्वा वाससुखमनुभूय शुचीनां सदाचाराणां श्रीमतां धनिनां गेहे स योगभ्रष्टो जन्म प्राप्नोति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।6.41।।अथवेति। उभयभ्रष्टतापरिहारायोक्तमुभयान्वयं प्रपञ्चयति प्राप्य इत्यादिनापरां गतिम् 6।45 इत्यन्तेन। योगभ्रंशहेतुं पुण्यकृल्लोकप्राप्तिकृतातिशयितप्राकृतपुरुषार्थयोगे कर्माख्यसाधनरहितत्वेऽपि योगमाहात्म्यस्यैव साधनत्वं भोगावसानहेतुं वैतृष्ण्यमुत्पाद्य पुनर्योगमाहात्म्यस्यैव योगारम्भयोग्यकुलोद्भवहेतुत्वं च प्रदर्शयति येज्जातीयेति। सर्वेषां मात्रया पुण्यकृत्त्वसद्भावेऽपि केषुचित्पुण्यकृच्छब्दप्रयोगस्तेषां अतिशयितपुण्यकृत्त्वनिबन्धन इत्याह अतिपुण्यकृतामिति। तज्जातीयत्वेऽपि ततोऽतिशयितत्वायअतिकल्याणानित्युक्तम्। दृश्यते ह्येकजातीयेष्वपि रूपरसगन्धादिषु भूलोकेऽपि तारतम्यम्। एवं दिव्यादिव्यभेदः। यदि पुराकृतैः पुण्यैः पुण्यलोकावाप्तिः पापैरपि पुराकृतैः पापलोकप्राप्तिः स्यादित्यत्राह योगमाहात्म्यादेवेति। धर्मार्थसम्पादितद्रव्यस्य भोगार्थविनियोगवदिति भावः। नह्यसौ पुण्यक्षयादिव योगमाहात्म्यक्षयान्निवर्तते तस्याक्षयत्वादिति दर्शयितुंयावदित्यादिकमुक्तम्। विषमविपाकसमयकर्ममूलसत्त्वोन्मेषकृतविवेकोदयवशात् निरन्तरभोगप्रकर्षादिवशाच्च वैतृष्ण्यसम्भवः सौभरिप्रभृतिवृत्तान्तेषु भाव्यः। शुचित्वं श्रीमत्त्वं च अदृष्टद्वारा दृष्टद्वारा च योगोपकारकमित्याह योगोपक्रमयोग्यानामिति। योगभ्रष्टस्य स्वान्वयाद्योगोपक्रमानुगुणस्वभावानामित्यर्थः।अथवा योगिनामेव कुले
Sri Abhinavgupta
।।6.41।।प्राप्येति। शाश्वतस्य विष्णोः समाः वैष्णवानि त्रीणि वर्षाणि। शुचीनामिति येषां भगवदंशस्पर्शि चित्तम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।6.41।।तदेवं योगभ्रष्टस्य शुभकृत्त्वेन लोकद्वयेऽपि नाशाभावे किं भवतीत्युच्यते योगमार्गप्रवृत्तः सर्वकर्मसंन्यासी वेदान्तश्रवणादि कुर्वन्नन्तराले म्रियमाणः कश्चित्पूर्वोपचितभोगवासनाप्रादुर्भावाद्विषयेभ्यः स्पृहयति। कश्चित्तु वैराग्यभावानादार्ढ्यान्न स्पृहयति। तयोः प्रथमः प्राप्य पुण्यकृतामश्वमेधयाजिनां लोकानर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकान्। एकस्मिन्नपि भोगभूमिभेदापेक्षया बहुवचनम्। तत्र चोषित्वा वासमनुभूय शाश्वतीर्ब्रह्मपरिमाणेनाक्षयाः समाः संवत्सरान् तदन्ते शुचीनां शुद्धानां श्रीमतां विभूतिमतां महाराजचक्रवर्तिनां गेहे कुले भोगवासनाशेषसद्भावादजातशत्रुजनकादिवद्योगभ्रष्टोऽभिजायते। भोगवासनाप्राबल्याद्ब्रह्मलोकान्ते सर्वकर्मसंन्यासायोग्यो महाराजो भवतीत्यर्थः।