Chapter 6, Verse 8
Verse textज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।6.8।।
Verse transliteration
jñāna-vijñāna-tṛiptātmā kūṭa-stho vijitendriyaḥ yukta ityuchyate yogī sama-loṣhṭāśhma-kāñchanaḥ
Verse words
- jñāna—knowledge
- vijñāna—realized knowledge, wisdom from within
- tṛipta ātmā—one fully satisfied
- kūṭa-sthaḥ—undisturbed
- vijita-indriyaḥ—one who has conquered the senses
- yuktaḥ—one who is in constant communion with the Supreme
- iti—thus
- uchyate—is said
- yogī—a yogi
- sama—looks equally
- loṣhṭra—pebbles
- aśhma—stone
- kāñchanaḥ—gold
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
He whose self is satisfied with knowledge and with what consists of varied thoughts; who remains peak-like and has completely subdued his senses; and to whom a clod, a stone, and a piece of gold are the same—that man of Yoga is called a master of Yoga.
Shri Purohit Swami
He who desires nothing but wisdom and spiritual insight, who has conquered his senses, and who looks upon a lump of earth, a stone, and fine gold with the same eye, is a real saint.
Swami Ramsukhdas
।।6.8।। जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है -- ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।
Swami Tejomayananda
।।6.8।। जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
Swami Adidevananda
The yogin whose mind is content with knowledge of the self and also with knowledge of the difference between the self and Prakrti, who is established in the self, whose senses are subdued, and to whom earth, stone, and gold all seem alike, is called integrated.
Swami Gambirananda
One whose mind is satisfied with knowledge and realization, who is unmoved, who has his organs under control, is said to be Self-absorbed. The yogi treats all alike, a lump of earth, a stone, and gold.
Swami Sivananda
The Yogi who is satisfied with the knowledge and wisdom of the Self, who has conquered the senses, and to whom a clod of earth, a piece of stone, and gold are all the same, is said to have attained Nirvikalpa Samadhi.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।6.8 6.9।।योगारूढस्य स्वरूपं श्रैष्ठ्यं चोपपादयति द्वाभ्यां ज्ञानविज्ञानेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवः ताभ्यां तृप्त आत्मा यस्य कूटे स्थितोऽपि युक्त इत्युच्यते स योगी सुहृदादिषु तद्विपरीतेषु च समबुद्धिरधिकतरो भवतीति विशिष्यते।
Swami Ramsukhdas
।।6.8।। व्याख्या--'ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा'--यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है; अतः यहाँ कर्म करनेकी जानकारीका नाम 'ज्ञान' है और कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहनेका नाम 'विज्ञान' है।स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली समाधि--इन तीनोंको अपने लिये करना 'ज्ञान' नहीं है। कारण कि क्रिया, चिन्तन, समाधि आदि मात्र कर्मोंका आरम्भ और समाप्ति होती है तथा उन कर्मोंसे मिलनेवाले फलका भी आदि और अन्त होता है। परन्तु स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य रहता है। अतः अनित्य कर्म और फलसे इस नित्य रहनेवालेको क्या तृप्ति मिलेगी? जडके द्वारा चेतनको क्या तृप्ति मिलेगी? ऐसा ठीक अनुभव हो जाय कि कर्मोंके द्वारा मेरेको कुछ भी नहीं मिल सकता, तो यह कर्मोंको करनेका 'ज्ञान' है। ऐसा ज्ञान होनेपर वह कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें और पदार्थोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहेगा--यह 'विज्ञान' है। इस ज्ञान और विज्ञानसे वह स्वयं तृप्त हो जाता है। फिर उसके लिये करना, जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। 'कूटस्थः'(टिप्पणी प0 338)--कूट (अहरन) एक लौह-पिण्ड होता है, जिसपर लोहा, सोना, चाँदी आदि अनेक रूपोंमें गढ़े जाते हैं, पर वह एकरूप ही रहता है। ऐसे ही सिद्ध महापुरुषके सामने तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आती हैं, पर वह कूटकी तरह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है।
Swami Chinmayananda
।।6.8।। शास्त्रोपदेश से ज्ञात आत्मा का जो निरन्तर ध्यान करता है ऐसा आत्मसंयमी पुरुष शीघ्र ही दिव्य तृप्ति और आनन्द का अनुभव पाकर पूर्णयोगी बन जाता है। उसकी तृप्ति शास्त्रों के पाण्डित्य की नहीं वरन् दिव्य आत्मानुभूति की होती है जो शास्त्राध्ययन के सन्तोष से कहीं अधिक उत्कृष्ट होती है।श्री शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान का अर्थ है शास्त्रोक्त पदार्थों का परिज्ञान और विज्ञान शास्त्र से ज्ञात तत्त्व का स्वानुभवकरण है। ज्ञान और विज्ञान के प्राप्त होने पर पुरुष का हृदय अलौकिक तृप्ति का अनुभव करता है।अविचल (कूटस्थ) वेदान्त में आत्मा को कूटस्थ कहा गया है। कूट का अर्थ है निहाई। लुहार तप्त लौहखण्ड को निहाई पर रखकर हथौड़े से उस पर चोट करके लौहखण्ड को विभिन्न आकार देता है। हथौड़े की चोट का प्रभाव लौहखण्ड पर तो पड़ता है परन्तु निहाई पर नहीं। वह स्वयं अविचल रहते हुये लोहे को अनेक आकार देने के लिये आश्रय देती है। इस प्रकार कूटस्थ का अर्थ हुआ जो कूट के समान अविचल अविकारी रहता है।ज्ञानविज्ञान से सन्तुष्ट पुरुष कूटस्थ आत्मा को जानकर स्वयं भी सभी परिस्थितियों में कूटस्थ बनकर रहता है। वह समदर्शी बन जाता है। उसके लिए मिट्टी पाषाण और सुवर्ण सब समान होते हैं अर्थात् वह इन सबके प्रति समान भाव से रहता है। सामान्य जन इसमें रागद्वेषादि रखकर प्रियअप्रिय की प्राप्ति या हानि में सुखी या दुखी होते हैं। ज्ञान का मापदण्ड यही है कि इन वस्तुओं के प्राप्त होने पर पुरुष एक समान रहता है।स्वप्नावस्था में कोई पुरुष कितना ही धन अर्जित करे अथवा सम्पत्ति को खो दे परन्तु जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्न में देखे हुये धन के लाभ या हानि का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी प्रकार उपाधियाँ के द्वारा अनुभूत जगत के परे परमपूर्ण स्वरूप में स्थित पुरुष के लिए मिट्टी पाषाण और स्वर्ण का कोई अर्थ नहीं रह जाता वे उसके आनन्द में न वृद्धि कर सकते हैं न क्षय। वह परमानन्द का एकमात्र स्वामी बन जाता है। स्वर्ग के कोषाधिपति कुबेर के लिए पृथ्वी का राज्य कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कि वे हर्षोल्लास में झूम उठें।
Sri Anandgiri
।।6.8।।चित्तसमाधानमेव विशिष्टफलं चेदिष्टं तर्हि कथंभूतः समाहितो व्यवह्रियते तत्राह ज्ञानेति। परोक्षापरोक्षाभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्यां संजातालंप्रत्ययो यस्मिन्नन्तःकरणे सोऽविक्रियो हर्षविषादकामक्रोधादिरहितो योगी युक्तः समाहित इति व्यवहारभागी भवतीति पादत्रयव्याख्यानेन दर्शयति ज्ञानमित्यादिना। स च योगी परमहंसपरिव्राजकः सर्वत्रोपेक्षाबुद्धिरनतिशयवैराग्यभागीति कथयति स योगीति।
Sri Dhanpati
।।6.8।।शीतादिषु समो भवतीत्युक्त तत्कुंत इत्यत आह ज्ञानेति। ज्ञानं शास्त्रोक्तानां धर्मादिरुपाणां पदार्थानां तत्त्वज्ञानं विज्ञानं शास्त्रतो ज्ञातानां वेदोक्तो यादृशो धर्मादितादृश एव तथा तत्त्वमसीति श्रुत्यर्थानुसारेणाहं ब्रह्मास्मीत्यनुभवस्ताभ्यां तृप्त आत्मान्तःकरणं यस्य सः। अतः कुटस्थोऽप्रकम्प्यः केनापि शीतादिना चालयितुमशक्यो भवतीत्यर्थः। नन्वन्तःकरणस्य ज्ञानविज्ञानतृप्तेत्वनाप्रकम्प्योऽपीन्द्रियाणामतृप्तत्वाद्विषयैरिन्द्रियद्वारा प्रकम्प्यो भविष्यतीति तत्राह विजितेन्द्रियः। अन्तःकरणस्येन्द्रियस्वामिनो जयादिन्द्रियाणामपि जय इति भावः। अतएव समलोष्टाश्मकाञ्चनः। अत्राश्मशब्देन पाषाणसामान्यवाचिना तद्विशेषा वज्रवैदूर्यादयोऽपि गृह्यन्ते। समानि लोष्टादीनि यस्य सः य ईदृशो योगी स युक्तः यथार्थयोगयुक्तः योगारुढ इत्युच्यत इत्यर्थः।
Sri Madhavacharya
।।6.7 6.8।।जितात्मनः फलमाह जितात्मन इति। जितात्मा हि प्रशान्तो भवति। न तस्य मनः प्रायो विषयेषु गच्छति। तदा च परमात्मा सम्यगाहितः हृदि सन्निहितो भवति अपरोक्षज्ञानी भवतीत्यर्थः। अपरोक्षज्ञानिनो लक्षणं स्पष्टयति शीतोष्णेत्यादिना। शीतोष्णादिषु कूटस्थः ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा विजितेन्द्रिय इति कूटस्थत्वे हेतुः। विज्ञानं विशेषज्ञानं अपरोक्षज्ञानं वा। तच्चोक्तं सामान्यैर्ये त्वविज्ञेया विशेषा मम गोचराः। देवादीनां तु तज्ज्ञानं विज्ञानमिति कीर्तितम्। इति।श्रवणान्मननाच्चैव यज्ज्ञानमुपजायते। तज्ज्ञानं दर्शनं विष्णोर्विज्ञानं शम्भुरब्रवीत्। विज्ञानं ज्ञानमङ्गादेर्विशिष्टं दर्शनं तथा इत्यादि। कूटस्थो निर्विकारः कूटवत्स्थित इति व्युत्पत्तेः। कूटमाकाशःकूटं खं विदलं व्योम सन्धिराकाशउच्यते। इत्यभिधानात्। योगी योगं कुर्वन्। युक्तो योगसम्पूर्णः। एवम्भूतो योगानुष्ठाता योगसम्पूर्ण उच्यत इत्यर्थः।
Sri Neelkanth
।।6.8।।समाधिसिद्धेरपि किं फलमत आह ज्ञानेति। ज्ञानं शास्त्रोपदेशजा बुद्धिः। विज्ञानं शास्त्रार्थध्यानजः प्रमारूपोऽनुभवस्ताभ्यां तृप्तः संजातालंप्रत्यय आत्मा चित्तं यस्य स ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा। यतस्तृप्तात्माऽतः कूटस्थोऽप्रकम्प्यः संसारतापानास्कन्दितो भवतीति समाधिफलम्। अस्य लोकप्रसिद्धं लक्षणमाह विजितेन्द्रिय इति। समलोष्टाश्मकाञ्चन इति एवंविधो योगी स युक्तः प्राप्तयोग इत्युच्यते विद्वद्भिः।
Sri Ramanujacharya
।।6.8।।ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा आत्मस्वरूपविषयेण ज्ञानेन तस्य च प्रकृतिविसजातीयाकारविषयेण विज्ञानेन च तृप्तमनाः कूटस्थः देवाद्यवस्थासु अनुवर्तमानः सर्वसाधारणज्ञानैकाकारात्मनि स्थितः तत्र एव विजितेन्द्रियः समलोष्टाश्मकाञ्चनः प्रकृतिविविक्तस्वरूपनिष्ठतया प्राकृतवस्तुविशेषेषु भोग्यत्वाभावात् लोष्टाश्मकाञ्चनेषु समप्रयोजनो यः कर्मयोगी स युक्त इति उच्यते आत्मावलोकनरूपयोगाभ्यासार्ह उच्यते।तथा च
Sri Sridhara Swami
।।6.8।।योगारूढस्य लक्षणं श्रैष्ठ्यं चोक्तमुपपाद्योपसंहरति ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवस्ताभ्यां तृप्तो निराकाङ्क्ष आत्मा चित्तं यस्य। अतः कूटस्थो निर्विकारः अतएव विजितानीन्द्रियाणि येन अतएव समानि लोष्टादीनि यस्य मृत्खण्डपाषाणसुवर्णेषु हेयोपादेयबुद्धिशून्यः स युक्तो योगारूढ इत्युच्यते।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।6.8।।इन्द्रियविजयो द्वन्द्वसहत्वं चोक्तम् अथ तयोहेतुरुच्यते ज्ञान इति श्लोकेन। ज्ञानविज्ञानशब्दयोः पौनरुक्त्यव्युदासायोपसर्गद्योतितं विषयविशेषं व्यञ्जयतिआत्मस्वरूपेत्यादिना। पारलौकिकसमस्तकर्मापेक्षितदेहादिव्यतिरिक्तत्वधीरिहज्ञानम्। मोक्षाधिकारिणो विशेषतोऽपेक्षितनित्यत्वनिरतिशयानन्दत्वादिधीस्तुविज्ञानं न पुनरुपासनरूपज्ञानम्। तत्सामग्रीपरत्वाद्वाक्यस्येति भावः। कूटे तिष्ठतीति कूटस्थः। कूटशब्दश्च परिशुद्धात्मन्यौपचारिकः। कूटस्य ह्यागन्तुकविनश्वरायःपिण्डादिसंश्लेषविश्लेषरूपावस्थाप्रवाहे वर्तमानेऽपि स्वस्वरूपे न शैथिल्यादिरूपो विकारः तद्वदत्रापि देवादिशरीरसंश्लेषविश्लेषरूपावस्थाप्रवाहेऽपिन जायते म्रियते 2।20 इत्यादिनोक्तप्रकारेण निर्विकारत्वं सिद्धमिति कूटशब्देनोपचारो युज्यत इत्यभिप्रायेणाह देवादीति। शिखरपर्यायकूटविवक्षया वोपचारः। कूटस्थ इव वा साधारणतयानुसन्धानादसौ कूटस्थ इत्यभिप्रायेणाह देवाद्यवस्थास्विति। देवशब्दोऽत्र भावप्रधानः। अनुवर्तमानत्वात् सर्वसाधारणत्वमित्यपौनरुक्त्यम्। यद्वा सर्वात्मसाधारणेत्यर्थः। पूर्वश्लोकोक्तजितेन्द्रियत्वादौ हेतुरयमुक्त इत्याह तत एवेति। स्वरूपकार्यकारणादिभिरत्यन्तविषमाणां लोष्टादीनां समत्वं कथमिति शङ्कानिराकरणायप्रकृतीत्यादिसमप्रयोजन इत्यन्तमुक्तम्। लोष्टाश्मभेदवदश्मकाञ्चनादिभेदेऽपीत्यनेकदृष्टान्ताभिप्रायः। अत्रोद्देश्योपादेयांशौ विभजते य इत्यादिना। युक्तशब्द एवात्र योग्यपर्यायः प्रकरणवशात्तु योगाभ्यासविषयत्वं सिद्धम्। यद्वा प्रकृतिप्रत्यययोरर्थभेदविवक्षयायोगाभ्यासार्ह इत्युक्तम्।
Sri Abhinavgupta
।।6.8।।ज्ञानेति। ज्ञानम् अभ्रान्ता बुद्धिः। विविधं ज्ञानं यत्र तत् विज्ञानम् प्रग्युक्त्युदितं कर्म।
Sri Jayatritha
।।6.7 6.8।।योगो विहितः तत्किं जितात्मन इत्यनेन इत्यत आह जितात्मन इति। उपकारी हि बन्धुरुच्यते। तत्र जितं मनः कमुपकारं करोति येन बन्धुः स्यात् आत्मोद्धारं करोतीति चेत् स एव च कः इत्याशङ्क्येति शेषः। जितात्मनः फले वक्तव्ये प्रशान्तस्येत्यनुवादः किमर्थः इत्यत आह जितात्मा हीति। वाक्यभेदेनेदमेव फलकथनमिति भावः। ननु जितात्मत्वमेव प्रशान्तत्वं तत्कथं तत्फलं स्यात् इत्यत आह नेति। तस्य जितात्मनः स्वत एवेति शेषः। तर्हि निराकाङ्क्षत्वादुत्तरं वाक्यं व्यर्थमित्यतः परमफलं दर्शयितुं तदिति भावेन न्यूनमध्याहारेण पूरयन्व्याचष्टे तदा चेति। प्रशान्तत्वे सति परमात्मा सर्वेषां हृदि सन्निहित एव तत्कुतः प्रशान्तस्य विशेषः इत्यतः सम्यक्पदसूचितार्थं विवृणोति अपरोक्षेति। योगारूढ इत्यर्थः।यदा हि 6।5 इति योगारूढस्य लक्षणमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह अपरोक्षेति। सार्धश्लोकद्वयग्रहणायादिपदं अत्र सप्तम्या अन्वयो न दृश्यतेऽत आह शीतेति। अत्र भास्करोऽन्वयमपश्यन्परमात्मा समाहितः इति सम्प्रदायागतं पाठं विसृज्यपरात्मसु समा मतिः इति पाठान्तरं प्रकल्प्यसमा मतिः इति तु आवर्त्य सप्तम्या अन्वयमुक्त्वा पूर्वपाठेऽन्वयाभाव इत्यवादीत् तदनेन नापहसितं भवति। कृत्रिमेऽपि पाठेसुहृत् इत्यादिकंआत्मौपम्येन 6।32 इत्यादिकं च पुनरुक्तं स्यात्। ननु यः शीतोष्णादिषु कूटस्थः तस्य ज्ञानविज्ञानतृप्तमनस्त्वं विजितेन्द्रियत्वं चार्थात्सिद्धमेव तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह ज्ञानेति। प्रत्येकमन्वयादेकवचनम्। ननु शिल्पादिविषया बुद्धिर्विज्ञानम्मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः अमरः1।5।6 इत्यभिधानात् तत्कथं विज्ञानेन तृप्तात्माऽयं स्यात् इत्यत आह विज्ञानमिति। अनेन सामान्यज्ञानं परोक्षज्ञानं वा ज्ञानमिति सूचितम्। कुत एतत् इत्यत आह तच्चेति। प्रसिद्धाभिधानार्थोऽप्यङ्गीक्रियत इति चशब्दः। सामान्यैः साधारणैः पुरुषैः। सामान्यविषयं तु ज्ञानमित्यपि द्रष्टव्यम्। तदेव ज्ञानमिति सम्बन्धः। अङ्गादेर्व्याकरणादेः शिल्पस्य च। विशिष्टं दर्शनं वैष्णवशास्त्रम्। कूटस्थशब्दो नित्यादिपर्यायः तेन कथमन्वयः सप्तम्याः इत्यत आह कूटस्थ इति। तत्कथं इत्यत आह कूटवदिति।सुपि स्थः अष्टा.3।2।4 कूटशब्दोऽनृतवाद्यादिवाची तत्परिग्रहे निर्विकारत्वं न लभ्यत इत्यत आह कूटमिति। एतैः शब्दैराकाश उच्यत इत्यर्थः।युक्तो योगी इति पुनरुक्तिरिति मन्दाशङ्कानिरासार्थमाह योगीति। इनेरस्त्यर्थत्वात् कुर्वन्नित्युक्तम्। निष्ठाया भूतार्थत्वात् सम्पूर्ण इति। वक्ष्यमाणान्वयापेक्षया क्रमोल्लङ्घनम्। तर्हि विरुद्धार्थयोः कथं सामानाधिकरण्यं इत्यत आह एवम्भूत इति।धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः इति ह्युक्तम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।6.8।।किंच ज्ञानं शास्त्रोक्तानां पदार्थानामौपदेशिकं ज्ञानं विज्ञानं तदप्रामाण्यशङ्कानिराकरणफलेन विचारेण तथैव तेषां स्वानुभवेनापरोक्षीकरणं ताभ्यां तृप्तः संजातालंप्रत्यय आत्मा चित्तं यस्य स तथा। कूटस्थो विषयसंनिधावपि विकारशून्यः। अतएव विजितानि रागद्वेषपूर्वकाद्विषयग्रहणाद्व्यावर्तितानीन्द्रियाणि येन सः। अतएव हेयोपादेयबुद्धिशून्यत्वेन समानि मृत्पिण्डपाषाणकाञ्चनानि यस्य सः। योगी परमहंसपरिव्राजकः परवैराग्ययुक्तो योगारूढ इत्युच्यते।
Sri Purushottamji
।।6.8।।ननु परमात्मा हृदयस्थोऽस्तीति कथं ज्ञातव्यः इत्याकाङ्क्षायामाह ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मेति। ज्ञाने शास्त्ररीत्या भगवत्स्वरूपज्ञाने विज्ञाने भावात्मकत्वरूपानुभवे तृप्तः संशयकोटिरहित आत्मा अन्तःकरणं यस्य कूटस्थः निर्विकारः भगवच्चरणस्वरूपैकनिष्टः विजितेन्द्रियः स्वभोगेच्छारहितः युक्तो योगारूढ इत्युच्यते। समलोष्टाश्मकाञ्चनः मृत्पाषाणसुवर्णेषु समो भगवदीयभावरूपवान् योगी मत्संयोगवानुच्यते मयेति शेषः। अत्रायं भावः मृत्तिकायां भगवदङ्गसौगन्ध्यस्मरणेन सेवौपायिकशरीराप्तितापभाववान् पाषाणे भगवद्विप्रयोगजडतास्मरणेन स्वस्य तदभावतापात्तत्र स्निग्धभाववान् सौवर्णे चालौकिककान्तिदर्शनेन रसभाववांस्तथोच्यत इति भावः।
Sri Shankaracharya
।।6.8।। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा ज्ञानं शास्त्रोक्तपदार्थानां परिज्ञानम् विज्ञानं तु शास्त्रतो ज्ञातानां तथैव स्वानुभवकरणम् ताभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्यां तृप्तः संजातालंप्रत्ययः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः अप्रकम्प्यः भवति इत्यर्थः विजितेन्द्रियश्च। य ईदृशः युक्तः समाहितः इति स उच्यते कथ्यते। स योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः लोष्टाश्मकाञ्चनानि समानि यस्य सः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।किञ्च
Swami Sivananda
6.8 ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा one who is satisfied with knowledge and wisdom (Selfrealisation)? कूटस्थः unshaken? विजितेन्द्रियः who has conered the senses? युक्तः united or harmonised? इति thus? उच्यते is said? योगी Yogi? समलोष्टाश्मकाञ्चनः one to whom a lump of earth? a stone and gold are the same.Commentary Jnana is ParokshaJnana or theoretical knowledge from the study of the scriptures. Vijnana is Visesha Jnana or Aparoksha Jnana? i.e.? direct knowledge of the Self through Selfrealisation (spiritual experience or Anubhava).Kutastha means changeless like the anvil. Various kinds of iron pieces are hammered and shaped on the anvil? but the anvil remains unchanged. Even so the Yogi remains unshaken or unchanged or unaffected though he comes in contact with the senseobjects. So he is called Kutastha. Kutastha is another name of Brahman? the silent witness of the mind. (Cf.V.18VI.18)