Chapter 6, Verse 29
Verse textसर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।
Verse transliteration
sarva-bhūta-stham ātmānaṁ sarva-bhūtāni chātmani īkṣhate yoga-yuktātmā sarvatra sama-darśhanaḥ
Verse words
- sarva-bhūta-stham—situated in all living beings
- ātmānam—Supreme Soul
- sarva—all
- bhūtāni—living beings
- cha—and
- ātmani—in God
- īkṣhate—sees
- yoga-yukta-ātmā—one united in consciousness with God
- sarvatra—everywhere
- sama-darśhanaḥ—equal vision
Verse translations
Swami Gambirananda
One who has their mind Self-absorbed through Yoga, and who has the vision of sameness everywhere, sees this Self existing in everything, and everything in their Self.
Swami Ramsukhdas
।।6.29।। सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगा अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।
Swami Tejomayananda
।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
Swami Adidevananda
He whose mind is fixed in Yoga sees reality everywhere; he sees his Self as abiding in all beings and all beings in his Self.
Swami Sivananda
With the mind harmonized by Yoga, he sees the Self abiding in all beings and all beings in the Self; he sees the same everywhere.
Dr. S. Sankaranarayan
He who has yoked himself in Yoga and observes everything truly perceives the Self to be abiding in all beings and all beings to be abiding in the Self.
Shri Purohit Swami
He who experiences the unity of life sees his own Self in all beings, and all beings in his own Self, and looks upon everything with an impartial eye.
Verse commentaries
Sri Abhinavgupta
।।6.29।।सर्वेति। सर्वेषु भूतेषु आत्मानं ग्राहकतया (K ग्राहकरूपतया) अनुप्रविशन्तं भावयेत्। आत्मनि च ग्राह्यताज्ञानद्वारेण सर्वाणि भूतानि एकीकुर्यात्। अतश्च समदर्शनत्वं जायते ( ज्ञायते) योगश्चेति संक्षेपार्थः। विस्तरस्तु भेदवादविदारणादिप्रकरणे देवीस्तोत्रविवरणे च मयैव निर्णीत इति तत्रैवावधार्य (SK तत एवाव )।
Sri Madhusudan Saraswati
।।6.29।।तदेवं निरोधसमाधिना त्वंपदलक्ष्ये तत्पदलक्ष्ये च शुद्धे साक्षात्कृते तदैक्ययगोचरा तत्त्वमसीतिवेदान्तवाक्यजन्या निर्विकल्पकसाक्षात्काररूपा वृत्तिर्ब्रह्मविद्याभिधाना जायते। ततश्च कृत्स्नाऽविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या ब्रह्मसुखमत्यन्तमश्नुत इत्युपपादयति त्रिभिः श्लोकैः। तत्र प्रथमं त्वंपदलक्ष्योपस्थितिमाह सर्वेषु भूतेषु स्थावरजङ्गमेषु शरीरेषु भोक्तृतया स्थितमेकमेव नित्यं विभुमात्मानं प्रत्यक्चेतनं साक्षिणं परमार्थसत्यमानन्दघनं साक्ष्येभ्योऽनृतजडपरिच्छिन्नदुःखरूपेभ्यो विवेकेनेक्षते साक्षात्करोति। तस्मिंश्चात्मनि साक्षिणि सर्वाणि भूतानि साक्ष्याण्याध्यासिकेन संबन्धेन भोग्यतया कल्पितानिसाक्षिसाक्ष्ययोः संबन्धान्तरानुपपत्तेर्मिथ्याभूतानि परिच्छिन्नानि जडानि दुःखात्मकानि साक्षिणो विवेकेनेक्षते। कः। योगयुक्तात्मा योगेन निर्विचारवैशारद्यरूपेण युक्तः प्रसादं प्राप्त आत्मान्तःकरणं यस्य स तथा। तथाच प्रागेवोक्तंनिर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादःऋतंभरा तत्र प्रज्ञाश्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् इति। तथाच शब्दानुमानागोचरयथार्थविशेषवस्तुगोचरयोगजप्रत्यक्षेण ऋतंभरसंज्ञेन युगपत्सूक्ष्मं व्यहितं विप्रकृष्टं च सर्वं तुल्यमेव पश्यतीति सर्वत्र समं दर्शनं यस्येति सर्वत्र समदर्शनः सन्नात्मानमनात्मानं च योगयुक्तात्मा यथावस्थितमीक्षत इति युक्तम्। अथवा यो योगयुक्तात्मा यो वा सर्वत्र समदर्शनः स आत्मानमीक्षत इति योगिसमदर्शिनावात्मेक्षणाधिकारिणावुक्तौ। यथा हि चित्तवृत्तिनिरोधः साक्षिसाक्षात्कारहेतुस्तथा जडविवेकेन सर्वानुस्यूतचैतन्यपृथक्करणमपि नावश्यं योग एवापेक्षितः। अतएवाह वसिष्ठःद्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम्।।असाध्यः कस्यचिद्योगः कस्यचित्तत्त्वनिश्चयः। प्रकारौ द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः।। इति। चित्तनाशस्य साक्षिणः सकाशात्तदुपाधिभूतचित्तस्य पृथक्करणात्तददर्शनस्य। तस्योपायद्वयं एकोऽसंप्रज्ञातसमाधिः। संप्रज्ञातसमाधौ हि आत्मैकाकारवृत्तिप्रवाहयुक्तमन्तःकरणसत्त्वं साक्षिणानुभूयते निरुद्धसर्ववृत्तिकं तूपशान्तत्वान्नानुभूयत इति विशेषः। द्वितीयस्तु साक्षिणि कल्पितं साक्ष्यमनृतत्वान्नास्त्येव। साक्ष्येव तु परमार्थसत्यः केवलो विद्यत इति विचारः। तत्र प्रथममुपायं प्रपञ्चपरमार्थतावादिनो हैरण्यगर्भादयः प्रपेदिरे। तेषां परमार्थस्य चित्तस्यादर्शनेन साक्षिदर्शने निरोधातिरिक्तोपायासंभवात्। श्रीमच्छङ्करभगवत्पूज्यपादमतोपजीविनस्त्वौपनिषदाः प्रपञ्चानृतत्ववादिनो द्वितीयमेवोपायमुपेयुः। तेषां ह्यधिष्ठानज्ञानदार्ढ्ये सति तत्र कल्पितस्य बाधितस्य चित्तस्य तद्दृश्यस्य चादर्शनमनायासेनैवोपपद्यते। अतएव भगवत्पूज्यपादाः कुत्रापि ब्रह्मविदां योगापेक्षां न व्युत्पादयांबभूवुः। अतएव चौपनिषदाः परमहंसाः श्रौते वेदान्तवाक्यविचार एव गुरुमुपसृत्य प्रवर्तन्ते ब्रह्मसाक्षात्काराय नतु योगे विचारणैव चित्तदोषनिराकरणेन तस्यान्यथासिद्धत्वादिति कृतमधिकेन।
Sri Purushottamji
।।6.29।।ब्रह्मसंस्पर्शसुखं स्पष्टयति सर्वभूतस्थमिति। योगयुक्तात्मा भगवत्संयोगयुक्त आत्मा सर्वत्र संयोगविप्रयोगभावे समदर्शन आत्मानं भगवन्तं सर्वभूतस्थं विप्रयोगावस्थायां च पुनरात्मनि भगवत्स्वरूपे संयोगावस्थायां सर्वभूतानि सेवास्थितानि ईक्षते पश्यतीत्यर्थः। एतेन भगवत्स्वरूपज्ञानात्मसुखमुक्तमिति भावः।
Swami Sivananda
6.29 सर्वभूतस्थम् abiding in all beings? आत्मानम् the Self? सर्वभूतानि all beings? च and? आत्मनि in the Self?,ईक्षते sees? योगयुक्तात्मा one who is harmonised by Yoga? सर्वत्र everywhere? समदर्शनः one who sees the same everywhere.Commentary The Yogi beholds through the eye of intuition (JnanaChakshus or DivyaChakshus) oneness or unity of the Self everywhere. This is a sublime and magnanimous vision indeed. He feels? All indeed is Brahman. He beholds that all beings are one with Brahman and that the Self and Brahman are identical.
Sri Shankaracharya
।।6.29।। सर्वभूतस्थं सर्वेषु भूतेषु स्थितं स्वम् आत्मानं सर्वभूतानि च आत्मनि ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि च सर्वभूतानि आत्मनि एकतां गतानि ईक्षते पश्यति योगयुक्तात्मा समाहितान्तःकरणः सर्वत्र समदर्शनः सर्वेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु विषमेषु सर्वभूतेषु समं निर्विशेषं ब्रह्मात्मैकत्वविषयं दर्शनं ज्ञानं यस्य स सर्वत्र समदर्शनः।।एतस्य आत्मैकत्वदर्शनस्य फलम् उच्यते
Swami Ramsukhdas
।।6.29।। व्याख्या--'ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः'--सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। जैसे मनुष्य खाँड़से बने हुए अनेक तरहके खिलौनोंके नाम, रूप, आकृति आदि भिन्न-भिन्न होनेपर भी उनमें समानरूपसे एक खाँड़को, लोहेसे बने हुए अनेक तरहके अस्त्र-शस्त्रोंमें एक लोहेको, मिट्टीसे बने हुए अनेक तरहके बर्तनोंमें एक मिट्टीको और सोनेसे बने हुए आभूषणोंमें एक सोनेको ही देखता है, ऐसे ही ध्यानयोगी तरह-तरहकी वस्तु, व्यक्ति आदिमें समरूपसे एक अपने स्वरूपको ही देखता है।
Swami Chinmayananda
।।6.29।। विश्व के सभी धर्म महान हैं परन्तु यदि धर्म शब्द का अर्थ आत्मोन्नति का विज्ञान है तो उनमें से कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। इस श्लोक में गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा। अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है।हिन्दू धर्म में ऐसा कोई आत्मानुभवी पुरुष नहीं है जिसने दैवी करुणा से ही क्यों न होहे पापपुत्र जैसे अशोभनीय सम्बोधन द्वारा किसी को सम्बोधित किया हो। स्वामी रामतीर्थ के समान हिन्दू महात्मा पुरुष ने लोगों को हे अमृत के पुत्रों के अतिरिक्त किसी अन्य शब्द से संबोधित नहीं किया। अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है।गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नामरूपमय यह सृष्टि पारमार्थिक सत्य की अभिव्यक्ति है अथवा यह सृष्टि उस सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है।हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे ात्मस्वरूप ा साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है। मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है।इस ज्ञान को समझने से श्लोक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जिसने अनेकता में एक सत्य का दर्शन कर लिया वही आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समदृष्टि सेब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल को देख सकता है।अगले श्लोक में इस आत्मैकत्व दर्शन का फल बताते हैं
Sri Anandgiri
।।6.29।।योगमनुतिष्ठतो ब्रह्मभूतस्य सर्वानर्थनिवृत्तिनिरतिशयसुखप्राप्तिलक्षणो द्विविधो मोक्षो हेतुना केन स्यादिति शङ्कमानं प्रत्याह इदानीमिति। स्वमात्मानमीक्षत इति संबन्धः। सर्वभूतान्यपि तद्विशेषणत्वेन पश्यति चेन्न शुद्धवस्तुज्ञानमिति नाविद्यानिवृत्तिरित्याशङ्क्याह सर्वभूतानीति। उक्ते दर्शने चित्तसमाधानमुपायं दर्शयति योगेति। विषमेषूपाधिषु तदनुरोधाद्विषममेव दर्शनं तदुपदर्शितदर्शनप्रतिबन्धकं प्रत्युदस्यति सर्वत्रेति।
Sri Dhanpati
।।6.29।।इदानीं सर्वसंसारविच्छेदकारणं ब्रह्मात्मैकत्वदर्शनं योगस्य यत्फलं तद्दर्शयति। सर्वभूतस्थं सर्वेषु ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तेषु स्वमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि एकतां गतानि योगयुक्तात्मा समाहितान्तःकरण ईक्षते पश्यति। सर्वेषु ब्रह्मदिस्थावरान्तेषु गुणरुपसंस्कारवस्तुविक्रियारहितं समं निर्विशेषब्रह्मात्मैक्यविषयं दर्शनं यस्य स कर्वत्र समदर्शनः। एतेनानेन श्लोकेन त्वंपदोपस्थितेर्द्वितीयेन तत्पदोपस्थितेस्तृतीयेनाखण्डार्थोपस्थितेर्वर्णनं प्रत्युक्तम्। अखण्डार्थसाक्षात्कारं विना तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यतीतिफलानुपपत्तेः। यदपि चित्तवृत्तिनिरोधः साक्षिसाक्षात्कारहेतुः तथा जडविवेकेन सर्वानुस्यूतचैन्यपृथक्वरणमपि नावश्यं योग एवापेक्षितः। अतएवाह वसिष्ठःद्वौ क्रमौ चित्तनाशाय योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सभ्यगवेक्षणम्।।असाध्यः कस्यचिद्योगः कस्यचित्तत्वाविश्चयः। प्रकारौ द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः।। इति। तत्र प्रथमोपायं प्रपञ्चपरमार्थवादिनो हैरण्यगर्भादयः प्रेपेदिरे तेषां परमार्थस्य चित्तस्यादर्शने तिरोधानातिरिक्तोपायासंभवात्। श्रीभच्छंकरभगवत्पूज्यपादमतोपजीविनस्त्वैपनिषदाः प्रपञ्चानृतत्वादिनः द्वितीयमेवोपायमुपेयुः। तेषां ह्यधिष्ठानज्ञानदार्ढ्ये सति तत्र कल्पितस्य बाधितस्य चित्तस्य तद्दृश्यस्य चादर्शनमनायासेनैवोपपद्यते। अतएव भगवत्पूज्यपादाः कुत्रापि ब्रह्मविदां योगापेक्षां न व्युत्पदायांबभूवुः। अतएव चोपनिषदाः परमहंसाः श्रौते वेदान्तवाक्यविचारे एव गुरुमुपसृत्य प्रवर्तन्ते ब्रह्मसाक्षात्काराय नतु योगे विचारणैव चित्तदोषनिराकरणेन तस्यान्यथासिद्धत्वादिति तदप्युपेक्ष्यम्।आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः इतिश्रुत्याधिकारिविशेषणीभूतसाधनचतुष्टयान्तर्गतशमाद्युपेतसमाहितत्वोत्रभाविब्रह्मजिज्ञासायाम्अथोतो ब्रह्मजिज्ञासा िति सूत्रस्थाथशब्देन सूचितत्वाच्च। योगिसिद्य्धुत्तरं ब्रह्मदर्शनार्थं श्रुणादेरावश्यकत्वेन तथैव श्रवणादावधिकारसिद्ध्यार्थ चित्तशोधककर्मयोगवत्तन्निरोधकध्यानयोगस्याप्यावश्यकत्वेन च अथेत्यादेरसंगतत्वात्। यत्रतु श्रणादिकं विनैव तत्त्वसाक्षात्कारो दृश्यते यत्र चास्मिञ्चन्मनि ध्यानयोगस्याप्यावश्यकत्वेन च अथेत्यादेरसंगतत्वात्। यत्रतु श्रवणादिकं योगाद्यभ्यासश्च कल्प्यः। यदपि अतएवाह वसिष्ठ इत्यादि तदपि प्रकृतासंगतमेव साक्षिणि कल्पितं साक्ष्यमृतत्वान्नास्त्येव साक्ष्येव तु परमार्थसत्यः केवलो विद्यत िति विचारात्मकस्य सम्यगवेक्षणस्य चित्तैकाग्रतां विनानुपपत्तेः साधनचतुष्टसंपन्नस्यैव ब्रह्मविचारेऽधिकार इति जिज्ञासासूत्रे निर्णीतत्वात्। वाशिष्ठवचनं तु न साक्षिसाक्षात्कारे हेतुद्वयप्रतिपादनपरं किंतु चित्तानाशं चित्तैकाग्र्तोत्तरं क्रमद्वयकथनपरम्योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यववेक्षणम् इत्यनेन वृत्तिनिरोधरुपेण समाधिनां चित्तं नाशनीयमथवा सम्यग्ज्ञानेनेत्युक्त्त्वात्। एतेनतमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति श्रुतिविरुद्धमिदं वासिष्ठोक्तमिति शङ्कापि निरस्ता। श्रुत्या मोक्षं प्रति साधनान्तरनिषेधोक्तेः जीवोपाधिभूतं चित्तं चेत्यं च विषयजातमात्मनि कल्पित्वादनृतमिति विचारात्मकसम्यगवेक्षणेन वृत्तिरिनोधेन वा चित्तनाशे विषयतश्चित्ते निवृत्ते सति परात्माभेदज्ञानस्य मोक्षं प्रत्यनन्यसाधनस्योत्पत्त्या मोक्ष इत्यविरोधात्। यदि तु योगस्य मोक्षासाधनत्वं स्वात्न्त्रयेण वसिष्ठाभिप्रेतं स्यात्तर्हि उपायद्वयकथनपरं वसिष्ठवाक्यंश्रीराम उवाचसम्यग्ज्ञानविलासेन वासनाविलायोदये। जीवन्मुक्तिपदे ब्रह्मन्नूनं विश्रान्तवानहम्।।प्राणास्पन्दनिरोधेन वासनाविलयोदये। जीवन्मुक्तिपदे ब्रह्मन्वद विश्रम्यते कथम्। सुलभत्वाददुःखत्वात्कतरः शोभनोऽनयोः। येनावगतमात्रेण भूयः क्षोभो न बाधते।। इति रामचन्द्रप्रश्नानुसरणस्यावश्यकत्वात्। यदप्यतएव भगवत्पूज्यपादाः इत्यादि तत्रापि किं तत्त्वज्ञानोत्तरं योगापेक्षां न व्युत्पादयाबभूवुः उत ज्ञानसाधनत्वेन। नाद्यः। तथा जडविवेकेनेत्युपक्रमानुनरोधात्। न द्वितीयः। तस्मात्किमपि वक्तव्यं यदनन्तरं ब्रह्मजिज्ञासोपदिश्यत इति। उच्यते नित्यानित्यवस्तुविवेकः इहामुत्रार्थभोगविरागः शमदमादिसाधनसंपत् मुमुक्षुत्वं चेति। तेषु हि सत्सु प्रागपि धर्मजिज्ञासाया ऊर्ध्वं च शक्यते ब्रह्म जिज्ञासितुं ज्ञातुं च च विपर्यये इति जिज्ञासासूत्रेशान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत् इति श्रुत्युक्तशमादिपञ्चकस्यश्रद्धावित्तो भूत्वा िति श्रुत्यन्तरोक्तश्रद्धासहितस्य भाष्यकारैरुक्तत्वात्। नहि योगाभ्यासं विना शमादयः सिध्यन्ति। तदुक्तंतत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः इति। तेषां प्रकृतानां कामानां कारणं सांख्ययोगाभ्यां विवेकध्यानाभ्यामभिपन्नं प्रत्यक्तया प्राप्तं देवं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः इति। तेषां प्रकृतानां कामानां कारणं सांख्ययोगाभ्यां विवेकध्यानाभ्यामभिपन्नं प्रत्क्तया प्राप्तं देवं ज्ञात्वा सर्वपाशेरविद्यादिभिर्मुच्यत इत्यर्थः। तथाच श्वेताश्वतरोपनिषदपि ध्यानयोगस्य तत्त्वज्ञानकारणतां प्रतिपादयतित्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वनस्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि। प्राणान्प्रपीड्येहसुयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत। दुष्टाश्वयुक्तमिववाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः।।नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फुटिकशशीनाम्। एतानि रुपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे।।पृथ्वाप्यतेजोनिलखे समुत्थिते पञ्चमात्के योगगुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य पञ्चाग्निमयं शरीरम्।।लधुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरशौष्ठवं च। गन्धः शभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिंः प्रथमां वदन्ति।।यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं तेयोमयं भ्राजते तत्सुधान्तम्। तदात्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः।।यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्। अर्जे ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः।।एषो हि देवः प्रदिशोनु सर्वाः पूर्वोहि जातः स उ गर्भे यअन्तः। ए एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः।।यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश य ओषदीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमः इति। त्रिरुन्नतमित्यत्र त्रीर्ण उरेग्रीवाशिरांसि उन्नतानि यस्मिञ्शरीरं तन्त्रयुन्तम्। त्रिरुन्नतमिति तु च्छान्दसम्। ब्रह्मोडुपेन तारप्लवेन स्त्रोतांसि सुरनरतिर्यवस्थावरादिभेदभिन्नानि संसारस्त्रोतांसि अनेनोपायसंसारदुःखमहोदधिं प्रतरेदति योग्याधिकारिणं श्रुतिरनुशास्ति। नीहारदिसदृशान्येतानि योगिनोऽनुभवसिद्धानि। एतानि बुद्धे रुपाणि योगे क्रियमाणे ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि ब्रह्मभिव्यक्तिकराणि द्योतकानि निवृत्त्याख्यं तच्छाक्तीश्च साक्षात्कारेणोपास्य तेनोपासनेन तद्वशीकरणे सति अनन्तरमाप्यं तन्मण्डलं प्रतिष्ठाख्यं तच्छक्तिं चाहंत्वेनाप्सु भावयित्वा तेन तद्वशीकरणेसति अनन्तरं तेजोभूतं तन्मण्डलं विद्याख्यं तच्छक्तिं चाहंतया चिन्तयित्वा तेन तद्वशीकरणं कृत्वा एवं पृथिव्यामप्सु तेजसि वायौ खे च क्रमेण समुत्थिते ध्यानेन तत्तत्प्रयुक्तकार्ययोग्यतया वशीकृते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते पृथिव्यासप्सु तेजसि वायौ खे च क्रमेण समुत्थि ते ध्यानेन तत्तत्प्रयुक्तकार्ययोग्यतया वशीकृते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते पृथिव्यादितन्मण्डलचच्छक्तीनां उत्तरोत्तरत्रयेण पूर्वपूर्वत्रग्रं वेष्ठितं बुद्धौ तत्सर्सं स्वाभेदेन चिन्तयित्वा तेनोपासनेन पञ्चात्मके योगुगुणे प्रवृत्ते भूतपञ्चकस्य यथेष्टविनियोज्यत्वयोग्यतालक्षणे गुणे तस्य योगिनः प्रवृत्तिनिष्पादितस्य योगिनो योगो ध्यानं तदेवाग्निर्योग्निस्तेन ध्यानेन वशीकृत्य पञ्चभूतात्मकं शरीरं प्राप्तस्य तदस्मीत्यभिमातुरुक्तफलं सिध्यति यथैव बिम्बमादर्शादि मृदयोपलिप्तं मृदया भृजया शुद्धिसाधनेन भस्मादिनोपलिप्तम्। जकारस्य दकारः। तेजोमयं पूर्वमेव प्रचुरतेजस्कं सुधान्तं भस्माद्युपलेपनेन भस्मादिमलेन ह्युपलिप्तेन महापाकृतपूर्वमलं तद्दर्पणादि भ्राजते दीप्यते तद्वत् सएव प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति अनन्तसमष्टिव्यष्ट्यात्मककार्यकरणोपाधिषु एषु प्रत्यगन्तरत्वेंन जना इति शब्दाभिलाप्यो भूत्वा सएव परमात्मा तिष्ठतीति कठिनश्रुतीनामर्थः। एतदादिश्रुतीनांयोगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः इत्याद्या गीतास्मृतयः। अतएव तासां स्मृतीनां मूलभूता एतदाद्याः श्रुतय एव यथायोगमुदाहार्याः। न योगस्मृतयः। गीतास्मृतीनां वेदमूलकत्वात्। तथाच सांख्यस्मृतीनां योगस्मृतीनां तर्कस्मृतीनां च वेदविरोधनीनामेव प्रामाण्यं नेतरासाम्। तथाच प्रमाणलक्षणस्थं पारमर्षं सूत्रम्विरोधं त्वनपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम् इति।औदुम्बरीं स्पृष्ट्वोद्गायेत् इति प्रत्यक्षश्रुतिविरुद्धा सा सर्वा वेष्टयितव्येति स्मृतिर्मानं न वेति संशये मूलश्रुत्यनुमानान्मानमिति प्राप्ते राद्धान्तः क्लृप्तश्रुतिविरोधे श्रुतिप्रामाण्यमनपेक्षमपेक्षाशून्यं हेयमिति यावत्। हे यतोऽसतिविरोधे श्रुत्यनुमानं भवति। अत्रतु विरोधे सति श्रुत्यनुमानायोगान्मूलाभावात्सर्ववेष्टनस्मृतिरप्रमाणमित्यर्थः। एवंच शमादिप्रत्रिपादकश्रुतेः श्वेताश्वतरोपनिषदोऽनुरोधिन्यो योगसमृतय प्रमाणम्। तथाआत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यःततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः इत्यादिश्रुत्युपबृंहणरुपाः ससाधनसमाधिनिरुपणपराश्च स्मृतयः। नास्तिकमतमिवास्तिकमतानां सर्वांशत्यागायोगात्। तथाचएतेन योगः प्रत्युक्तः इतिसूत्रस्थं भाष्यं एतेन सांख्यस्मृतिप्रत्याख्यानेन योगस्य स्मृतिरपि प्रत्याख्यता द्रष्टव्येत्यतिदिशति। तत्रापि स्मृतिविरोधेन प्रधानं स्वतन्त्रमेव कारणं। महदादीनि च कार्याण्यलोकवेदप्रसिद्धानि कल्पयन्ते। नन्वेवंसति समानं न्याय्यत्वात्। पूर्वेणैव एतद्गतं किमर्थ पुनरतिदिश्यते। अस्ति तत्राभ्यधिकाशङ्का सम्यग्दर्शनाभ्युराो गि वेजे विहितःश्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यःइति।त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरम् इत्यादिना आसनादिकल्पनापुरःसरं बहुप्रपञ्चं योगविधानं श्वेताश्वतरोपनिषदि दृश्यते। लिङ्गानि च वैदिकानि योगविषयाणि सहस्त्रश उपलभ्यन्तेतां योगिमिति मन्यन्ते स्तिरामिन्द्रियधारणां इतिविद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्त्रम् इति चैवमादीनि। योगशास्त्रेऽपिअत तत्त्वदर्शनोपायो योगः इति सम्यग्दर्शनाभ्युपायत्नेनैव योगोऽङ्गीक्रियतेऽतः संप्रतिपन्नार्थैकदेशत्वादष्टकादिस्मृतिवद्योगस्मृतिरप्यनपवदनीया भविष्यतीति। इयमप्यधिकाशङ्कातिदेशेन निवर्त्यते। अर्थैकदेशसंप्रतिपत्तावप्यर्थैकदेशविप्रतिपत्तेः पूर्वोक्तया दर्शनात्। सतीष्वप्यध्यात्मविषयासु बह्वीषु स्मृतिषु सांख्ययोगस्मृत्योरेव निराकशे यत्नः कृतः। सांख्ययोगौ हि परमपुरुषार्थसाधनत्वेन लोके प्रख्यातौ शिष्टैश्च प्रगृहीतौ लिङ्गेनोपबृहितौ तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नंज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः इति। निराकरणं तु न सांख्यज्ञानेन वेदनिरपेक्षेण योगमार्गेण वा निःश्रेयसमधिगम्यते। श्रुतिर्हि वैदिकादात्मैकविज्ञानादन्यन्निःश्रेयससाधनं वारयति।तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽन्याय इति। द्वैतिनो हि ते सांख्ययोगाश्च नात्मैकत्वदर्शिनः। यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणसांख्ययोगाभिपन्नमिति वैदिकमेव तत्र ज्ञानं ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यासभिलप्यते प्रत्यासत्तेरित्यवगन्तव्यम्। येन त्वंशेन न विरुध्यते तेनेष्टमेव सांख्ययोगस्मृत्योः सावकाशत्वम्। तद्यथाअसङ्गो ह्ययं पुरुषः इत्येवमादिश्रुतिप्रसिद्धमेव पुरुषस्य विशुद्धत्वं निर्गुणपुरुषनिरुणेन सांख्यैरुपगम्यते। तथायोगैरपिअत परिव्राट् विवर्णवासा मुण्योऽपरिग्रह इत्येवमादिश्रुतिप्रसिद्धमेव निवृत्तिनिष्ठत्वं प्रयज्याद्युपदेशेनाभ्युपगम्यते। एतेन सर्वाणि तर्कस्मरणानि प्रतिवक्तव्यानि तान्यपि तर्कोपपत्तिभ्यां तत्त्वज्ञानायोपकुर्वन्तीतिचेदुपकुर्वन्तु नाम। तत्त्ज्ञानं तु वेदान्तवाक्येभ्य एव भवतिनावेदविन्मनुते तं बृहन्तंतं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इत्येवमादिश्रुतिभ्यः। इति तस्मादेतद्भाष्यादुदाहृतश्रुतिभ्यो गीतास्मृतिभ्यश्च औपनिषदानां परमहंसानां चित्तदोषनिरासार्थं श्रुत्यविरोधित्त्वज्ञानसाधनभूतयोगाभ्यासे प्रवृत्तेरौचित्याच्च। अतएव चौपनिषदा इत्यसंगतमित्यलं विस्तरेण।
Sri Madhavacharya
।।6.29।।ध्येयमाह सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थमात्मानं परमेश्वरम् सर्वभूतानि चात्मनि परमेश्वरे तं च परमेश्वरं चतुर्मुखब्रह्मतृणादावैश्वर्यादिना साम्येन पश्यति। तच्चोक्तम् आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम्। अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि भाग.3।24।46 इति।समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् इति च।
Sri Neelkanth
।।6.29।।द्विविधस्यापि योगस्य फलमाह सर्वेति।सोपाधिर्निरुपाधिश्च द्वेधा ब्रह्मविदुच्यते। सोपाधिकः स्यात्सर्वात्मा निरुपाख्योऽनुपाधिकः। इति वार्तिकोक्तरीत्या संप्रज्ञाते आत्मनः सार्वात्म्यमनुभवन्योगी सर्वेषु भूतेषूपादानतया स्थितमात्मानमीक्षते पश्यति। तथा असंप्रज्ञाते सर्वाणि भूतानि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तान्यात्मन्येकतां गतानि रज्ज्वामिवाध्यस्तसर्पदण्डधारादीनि तद्वत्पश्यति। योगयुक्तात्मा योगेन समाहितचित्तः। अस्यैव व्युत्थानावस्थामाह सर्वत्रेति। सर्वेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु विषमेषु भूतेषु समं निर्विशेषं ब्रह्मात्मैकत्वविषयं दर्शनं यस्य स सर्वत्र समदर्शनः। तथा च श्रुतयःयस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।सर्वस्यात्मा भवति।ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मेमे कितवा उत।इदं सर्वं यदयमात्मा इत्यादय एतमर्थं प्रतिपादयन्ति। यत्तु यो योगयुक्तात्मा यो वा सर्वत्र समदर्शनः स आत्मानमीक्षत इति योगिसमदर्शिनावात्मेक्षणाधिकारिणावुक्तौ। यथाहि चित्तवृत्तिनिरोधः साक्षिसाक्षात्कारहेतुस्तथा जडविवेकेन सर्वानुस्यूतचैतन्यपृथक्करणमपि नावश्यं योग एवापेक्षित इति। तन्न।समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यतिततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः इत्यादिश्रुतिभिः समाधिध्यानापरपर्याययोगस्यैवात्मदर्शनहेतुत्वप्रतिपादनात्।तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नं विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् इति लिङ्गाच्च ज्ञानयोगयोः समुच्चयावगमात्। न च श्रौतं यौक्तिकविवेकमात्राज्जडाजडयोर्देहात्मनोः पृथक्करणं संभवति। सोपाधिकस्य भ्रमस्योपाधिनिवृत्तिमन्तरेण निवृत्त्यसंभवात्। आदर्शाद्यनिवृत्तावपि प्रतिबिम्बादिभ्रमनिवृत्त्यापतेः। अतएवाधिष्ठानज्ञानदार्ढ्ये सति तत्र कल्पितस्य चित्तस्य तद्दृश्यस्य चादर्शनमनायासेनैवोपपद्यत इति निरस्तम्। योगं विनाधिष्ठानज्ञानस्यैवासंभवात्। यदाह दक्षःस्वसंवेद्यं हि तद्ब्रह्मकुमारी स्त्रीसुखं यथा। अयोगी नैव जानाति जात्यन्धो हि यथा घटम्। इति। यत्तूक्तं भगवत्पूज्यपादैःब्रह्मविदः कुत्रापि योगापेक्षां न व्युत्पादयांबभूवुः इति तत्अथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यत्राथशब्दसूचितमुमुक्षुविशेषणीभूतसाधनचतुष्टयान्तर्गतं शमाद्युपेयसमाधिमदृष्ट्वोक्तमिति न दोषः। द्वौ क्रमाविति वसिष्ठवाक्यतात्पर्यं तु परस्परनिरपेक्षमार्गद्वयोपगमेनान्यः पन्था इति श्रुतिबाधापत्त्याप्रतिपत्तिक्रमभेदमात्रपरतया प्रागेव वर्णितमिति दिक्। किं च योगप्रकारेण योगानपेक्षमार्गान्तरप्रतिपादनमसंगतम्। न च तत्सूचकोऽत्र कश्चिच्छब्दो वर्तते। संभवति वा उक्तयुक्तेरतो यो वा समदर्शन इति वापदाध्याहारोऽप्यसंगत इति दिक्।
Sri Vallabhacharya
।।6.29 6.30।।एतादृशस्य योगिनो ब्रह्मसुखाविर्भावो वामदेववत्सर्वात्मभावे भवतीत्याह। गुह्यः असम्प्रज्ञातसमाधिर्द्विविधः अक्षरब्रह्मविषयको भगवद्विषयकश्च तत्र पूर्वस्य फलमाह भगवान् सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थितमात्मानं पश्यति सर्वभूतानि च स्वात्मनि अवस्थानेन कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनेन वा पश्यति तथा चानन्दांशाविर्भावे भगवदात्मकत्वेन तस्य व्यापकत्वं प्रकटीभवतीत्यर्थः। द्वितीयस्याह ततोऽपि गुह्यतरम्। वासुदेवं मां योगजधर्मेण पश्यति सर्वभूतानि स्वं च मय्यवस्थानेनाभेदेन च पश्यति ऐतदात्म्यमिदं सर्वं छा.उ.अ.6खं.816वासुदेवः सर्वं 7।19अखण्डं कृष्णवत्सर्वं स आत्मा तत्त्वमसि छा.उ.अ.6खं.816योऽसौ सोऽहं योऽहं सोऽसौ इति श्रुतिस्मृतिवाक्यात्। तत्राभेदोपासना तामसी काचित्तान्त्रिकीत्यग्रे वक्ष्यतिएकत्वेन पृथक्त्वेन 9।15 इत्यादौ। अतस्ततो विभिद्याह तस्याहं न प्रणश्यामीति नादृश्यो भवामीत्याह। स ममादृश्यो न भवति आनन्दाविर्भावरूपेण चतुर्भुजादिरूपो भूत्वा प्रत्यक्षं कृपादृष्टया तमनुगृह्णामीत्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।6.29।।स्वात्मनः परेषां च भूतानां प्रकृतिवियुक्तस्वरूपाणां ज्ञानैकाकारतया साम्याद् वैषम्यस्य च प्रकृतिगतत्वाद् योगयुक्तात्मा प्रकृतिवियुक्तेषु आत्मसु सर्वत्र ज्ञानैकाकारतया समदर्शनः सर्वभूतस्थं स्वात्मानं सर्वभूतानि च स्वात्मनि ईक्षते। सर्वभूतसमानाकारं स्वात्मानं स्वात्मसमानाकाराणि च सर्वभूतानि पश्यति इत्यर्थः।एकस्मिन् आत्मनि दृष्टे सर्वस्य आत्मवस्तुनः तत्साम्यात् सर्वम् आत्मवस्तु दृष्टं भवति इत्यर्थः। सर्वत्र समदर्शनः इति वचनात्योऽयं योगस्त्वयाः प्रोक्तः साम्येन (गीता 6।33) इत्यनुभाषणाच्चनिर्दोषं हि समं ब्रह्म (गीता 5।19) इति वचनाच्च।
Sri Sridhara Swami
।।6.29।।ब्रह्मसाक्षात्कारमेव दर्शयति सर्वभूतस्थमिति। योगेनाभ्यस्यमानेन युक्तात्मा समाहितचित्तः सर्वत्र समं ब्रह्मैव पश्यतीति समदर्शनः। स्वमात्मानमविद्याकृतदेहादिपरिच्छेदशून्यं सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेष्ववस्थितं पश्यति। तानि चात्मन्यभेदेन पश्यति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।6.29।।एवं योगाभ्यासविधिः प्रपञ्चितःआत्मलाभसुखं यावत्तावद्ध्यानमुदाहृतम् इत्याद्युक्तं फलपर्यन्तत्वं चोक्तम्। अथ चतुर्धा योगी प्रतिपाद्यत इति चतुर्णां श्लोकानामर्थमाह अथेति। समदर्शित्वरूपयोगविपाकस्य पर्वक्रमेण तारतम्याच्चतुष्प्रकारत्वम्। अत्र प्रथमदशोच्यते सर्वभूतस्थम् इति श्लोकेन। समदर्शनत्वोपपत्तये स्वरूपतः साम्यं प्रकारवैषम्यस्य चौपाधिकत्वं दर्शयतिस्वात्मन इत्यादिनागतत्वादित्यन्तेन। भूतशब्दोऽत्राचिद्विशिष्टचेतनवाचकोऽपिसत्यं भूतहितं प्रोक्तम् इत्यादिष्विव चेतनांशपरः।योगयुक्तात्मा योगविनियुक्तमनाः यद्वा योगसमधिगतात्मस्वरूप इत्यर्थः। योगयुक्तात्मत्वं समदर्शनत्वे हेतुः। समदर्शनत्वस्यैव प्रतियोगिविशेषनिर्देशेन प्रपञ्चनंसर्वभूतस्थमित्यादि। आत्मशब्दस्यात्रात्मसामान्यविषयत्वपरमात्मविषयत्वव्यावर्तनेन स्वपर्यायत्वद्योतेनायस्वात्मशब्दः। नन्वन्योन्याधाराधेयभावः कथमुपपद्यते कथं चाणोः स्वात्मनः सर्वभूतस्थत्वं विप्रकीर्णदेशावस्थितानां च सर्वभूतानां कथमेकदेशस्थिते स्वात्मनि स्थितिः अतोऽयमात्मशब्दः परमात्मविषयः स्यादिति तत्राह सर्वभूतसमानाकारमिति।नन्वसौ स्वात्ममात्रानुसन्धानरूपे योगे प्रवृत्तः कथं स्वगतसाम्यप्रतियोगितया स्वप्रतियोगिकसाम्याश्रयतया च स्वव्यतिरिक्तात्मवर्गमीक्षेत इत्यत्राह एकस्मिन्निति। एकजातीयेषु पदार्थेष्वेकव्यक्तिदर्शनेनैव स्थालीपुलाकन्यायात्तज्जातीयं सर्वमपि तथात्वेनानुसंहितं हि भवतीति भावः।सर्वभूतस्थम् इत्यादेः साम्यमेव विवक्षितमिति दशयितुमेतद्ग्रन्थैकदेशं पूर्वोत्तरप्रकरणग्रन्थं चोदाहरति सर्वत्रेति। अयमभिप्रायः सर्वत्र समदर्शनः इति सर्वेषामात्मनां परस्परसाम्यदर्शनमुच्यते तदेवसर्वभूतस्थं इति प्रपञ्च्यते। अत एव च बाह्यभूतेष्वात्मतत्त्वस्य तस्मिंश्च तेषां स्थितिदर्शनमिहासङ्गतम्। न चेदं परमात्मयोगप्रकरणम् येन तथाविधपरमात्मानुसन्धानमुपदिश्येत। न च जीवात्मयोगोपयुक्तं परमात्मध्यानमिदमुच्यते समाधिदशाभेदविषयत्वात्। न च जीवानां परमात्मनश्च साम्यमिहोच्यते तस्यापियो माम्
Sri Jayatritha
।।6.29।।एवं युञ्जन्निति। योगप्रकरणस्य फलकथनेनोपसंहृतत्वात्किमुत्तरेण इत्यत आह ध्येयमिति। ननुमच्चित्तो युक्तः 6।14 इत्यादिना ध्येयमुक्तमेव सत्यम् तथाप्युत्तमाधिकारिणां ध्येयमनेनोच्यत इत्यदोषः। आत्मानं स्वात्मानमित्यादिप्रतीतिपराकरणार्थमाह सर्वेति। कुतोऽयमर्थ इत्यतः पुराणसमाख्यानादित्याह तच्चेति।सर्वत्र समदर्शनः इत्यस्योक्तार्थतां गीतासम्मत्योपपादयति सममिति।