Chapter 6, Verse 47
Verse textयोगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।
Verse transliteration
yoginām api sarveṣhāṁ mad-gatenāntar-ātmanā śhraddhāvān bhajate yo māṁ sa me yuktatamo mataḥ
Verse words
- yoginām—of all yogis
- api—however
- sarveṣhām—all types of
- mat-gatena—absorbed in me (God)
- antaḥ—inner
- ātmanā—with the mind
- śhraddhā-vān—with great faith
- bhajate—engage in devotion
- yaḥ—who
- mām—to me
- saḥ—he
- me—by me
- yukta-tamaḥ—the highest yogi
- mataḥ—is considered
Verse translations
Shri Purohit Swami
I look upon him as the best of mystics, who, full of faith, worships Me and abides in Me.
Swami Ramsukhdas
।।6.47।। सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।
Swami Tejomayananda
।।6.47।। समस्त योगियों में जो भी श्रद्धावान् योगी मुझ में युक्त हुये अन्तरात्मा से (अर्थात् एकत्व भाव से मुझे भजता है, वह मुझे युक्ततम (सर्वश्रेष्ठ) मान्य है।।
Swami Adidevananda
He who, with faith, worships Me, and whose innermost self is fixed in Me, I consider him to be the greatest of the Yogins.
Swami Gambirananda
Even among all the yogis, he who adores Me with his mind fixed on Me and with faith is considered by Me to be the best of the yogis.
Swami Sivananda
And among all the Yogis, he who, full of faith and with his inner self merged in Me, worships Me is deemed by Me to be the most devoted.
Dr. S. Sankaranarayan
He who has faith and serves Me with his inner self devoted to Me, is considered by Me to be the best of all yogis.
Verse commentaries
Sri Ramanujacharya
।।6.47।। योगिनाम् इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी। सर्वभूतस्थम् इत्यादिना चतुर्विधायोगिनः प्रतिपादिताः तेषुअनन्तर्गतत्वाद् वक्ष्यमाणस्य योगिनः न निर्धारणे षष्ठी संभवति।अपि सर्वेषाम् इति सर्वशब्दनिर्दिष्टाः तपस्विप्रभृतयः तत्र अपि उक्तेन न्यायेन पञ्चम्यर्थो ग्रहीतव्यः योगिभ्यः अपि सर्वेभ्यो वक्ष्यमाणो योगी युक्ततमः तदपेक्षया अवरत्वे तपस्विप्रभृतीनां योगिनां च न कश्चिद् विशेष इत्यर्थः। मेर्वपेक्षया सर्षपाणाम् इव यद्यपि सर्षपेषु अन्योन्यन्यूनाधिकभावो विद्यते तथापि मेर्वपेक्षया अवरत्वनिर्देशः समानः।मत्प्रियत्वातिरेकेण अनन्यसाधारणस्वभावतया मद्गतेन अन्तरात्मना मनसा बाह्याभ्यन्तरसकलवृत्तिविशेषाश्रयभूतं मनो हि अन्तरात्मा अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मया विना स्वधारणालाभात् मद्गतेन मनसा श्रद्धावान् अत्यर्थमत्प्रियत्वेन क्षणमात्रवियोगासहतयामप्राप्तिप्रवृत्तौ त्वरावान् यो मां भजतेमां विचित्रानन्तभोग्यभोक्तृवर्गभोगोपकरणभोगस्थानपरिपूर्णनिखिलजगदुदयविभवलयलीलम् अस्पृष्टाशेषदोषानवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजःप्रभृत्यसंख्येयकल्याणगुणगणनिधिं स्वाभिमतानुरूपैकरूपाचिन्त्यदिव्याद्भुतनित्यनिरवद्यनिरतिशयौज्ज्वल्यसौन्दर्यसौगन्ध्यसौकुमार्यलावण्ययौवनाद्यनन्तगुण निधिदिव्यरूपं वाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावम् अपारकारुण्यसौशील्यवात्सल्यौदार्यैश्वर्यमहोदधिम् अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्यं प्रणतार्तिहरम् आश्रितवात्सल्यैकजलधिम् अखिलमनुजनयनविषयतां गतम् अजहत्स्वस्वभावं वसुदेवगृहे अवतीर्णम् अनवधिकातिशयतेजसा निखिलं जगद् भासयन्तम् आत्मकान्त्या विश्वम् आप्यायन्तं भजते सेवते उपासते इत्यर्थः। स मे युक्ततमो मतः स सर्वेभ्यः श्रेष्ठतम इति सर्वं सर्वदा यथावस्थितं स्वत एव साक्षात्कुर्वन् अहं मन्ये।
Swami Ramsukhdas
।।6.47।। व्याख्या--'योगिनामपि सर्वेषाम्'--जिनमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी मुख्यता है, जो कर्मयोग, सांख्ययोग, हठयोग, मन्त्रयोग, लययोग आदि साधनोंके द्वारा अपने स्वरूपकी प्राप्ति-(अनुभव-) में ही लगे हुए हैं, वे योगी सकाम तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे श्रेष्ठ हैं। परन्तु उन सम्पूर्ण योगियोंमें भी केवल मेरे साथ सम्बन्ध जोड़नेवाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है।
Swami Chinmayananda
।।6.47।। पूर्व श्लोक में आध्यात्मिक साधनाओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करके ध्यानयोग को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया गया है। अब इस श्लोक में समस्त योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ योगी कौन है इसे स्पष्ट किया गया है। ध्यानाभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को प्रयत्नपूर्वक ध्येय विषयक वृत्ति बनाये रखनी पड़ती है और मन को बारम्बार विजातीय वृत्ति से परावृत्त करना पड़ता है। स्वाभाविक ही है कि प्रारम्भ में ध्यान प्रयत्नपूर्वक ही होगा सहज नहीं। ध्येय (ध्यान का विषय) के स्वरूप तथा मन को स्थिर करने की विधि के आधार पर ध्यान साधना का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है।इस दृष्टि से हमारी परम्परा में प्रतीकोपासना ईश्वर के सगुण साकार रूप का ध्यान गुरु की उपासना कुण्डलिनी पर ध्यान अथवा मन्त्र के जपरूप ध्यान आदि का उपदेश दिया गया है। इसी आधार पर कहा जाता है कि योगी भी अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ भगवान् स्पष्ट करते हैं कि उपर्युक्त योगियों में श्रेष्ठ और सफल योगी कौन है।जो श्रद्धावान् योगी मुझ से एकरूप हो गया है तथा मुझे भजता है वह युक्ततम है। यह श्लोक सम्पूर्ण योगशास्त्र का सार है और इस कारण इसके गूढ़ अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की जा सकती है। यही कारण है कि भगवान् आगामी सम्पूर्ण अध्याय में इस मन्त्र रूप श्लोक की व्याख्या करते हैं।इस अध्याय को समझने की दृष्टि से इस स्थान पर इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि ध्यानाभ्यास का प्रयोजन मन को संगठित करने में उतना नहीं है जितना कि अन्तकरण को आत्मस्वरूप में लीन करके शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करने में है। यह कार्य वही पुरुष सफलतापूर्वक कर सकता है जो श्रद्धायुक्त होकर मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ही भजन करता है।भजन शब्द के साथ अनेक अनावश्यक अर्थ जुड़ गये हैं और आजकल इसका अर्थ होता है कर्मकाण्ड अथवा पौराणिक पूजा का विशाल आडम्बर। ऐसी पूजा का न पुजारी के लिए विशेष अर्थ होता है और न उन भक्तों को जो पूजा कर्म को देखते हुए खड़े रहते हैं। कभीकभी भजन का अर्थ होता है वाद्यों के साथ उच्च स्वर में कीर्तन करना जिसमें भावुक प्रवृति के लोगों को बड़ा रस आता है और वे भावावेश में उत्तेजित होकर अन्त में थक जाते हैं। यदा कदा ही उन्हें आत्मानन्द का अस्पष्टसा भान होता होगा। वेदान्त शास्त्र में भजन का अर्थ है जीव का समर्पण भाव से किया गया सेवा कर्म। भक्तिपूर्ण समर्पण से उस साधक को मन से परे आत्मतत्त्व का साक्षात् अनुभव होता है। इस प्रकार जो योगी आत्मानुसंधान रूप भजन करता है वह परमात्मस्वरूप में एक हो जाता है। ऐसे ही योगी को यहां सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।वेदान्त की भाषा में कहा जायेगा कि जिस योगी ने अनात्म जड़उपाधियों से तादात्म्य दूर करके आत्मस्वरूप को पहचान लिया है वह श्रेष्ठतम योगी है।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ध्यानयोग नामक छठवां अध्याय समाप्त होता है।
Sri Abhinavgupta
।।6.47।।न च निरीश्वरं कष्टयोगमात्रं संसिद्धिदं इति उच्यते योगिनामपीति। सर्वयोगिमध्ये य एवं मामन्तःकरणे निवेश्य भक्तिश्रद्धातत्परो गुरुचरणसेवालब्धसंप्रदायक्रमेण मामेव नान्यत् (N नान्यम्) भजते विमृशति (SN omit विमृशति K substitutes विमृश्यते) स मे युक्ततमः परमेश्वरसमाविष्टः (S omits परमेश्वरसमाविष्टः)। इति सेश्वरस्य ज्ञानस्य सर्वप्राधान्यमुक्तम् इति।
Swami Sivananda
6.47 योगिनाम् of Yogis? अपि even? सर्वेषाम् of all? मद्गतेन merged in Me? अन्तरात्मना with inner Self? श्रद्धावान् endowed with faith? भजते worships? यः who? माम् Me? सः he? मे to Me? युक्ततमः most devout? मतः is deemed.Commentary Among all Yogis He who worships Me? the Absolute? is superior to those who worship the lesser gods such as the Vasus? Rudra? Aditya? etc.The inner self merged in Me The mind absorbed in Me? (Cf.VI.32)?(This chapter is known by the names Atmasamyama Yoga and Adhyatma Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the sixth discourse entitledThe Yoga of Meditation.
Sri Anandgiri
।।6.47।।नन्वादित्यो विराडात्मा सूत्रं कारणमक्षरमित्येतेषामुपासका भूयांसो योगिनो गम्यन्ते तेषां कतमः श्रेयानिष्यते तत्राह योगिनामिति। यो भगवन्तं सगुणं निर्गुणं वा यथोक्तेन चेतसा श्रद्दधानः सन्ननवरतमनुसंधत्ते स युक्तानां मध्येऽतिशयेन युक्तः श्रेयानीश्वरस्याभिप्रेतो नहि तदीयोऽभिप्रायोऽन्यथा भवितुमर्हतीत्यर्थः। तदनेनाध्यायेन कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादां दर्शयता साङ्गं च योगं विवृण्वता मनोनिग्रहोपायोपदेशेन योगभ्रष्टस्यात्यन्तिकनाशशङ्कावकाशं शिथिलयता त्वंपदार्थाभिज्ञस्य ज्ञाननिष्ठत्वोक्त्या वाक्यार्थज्ञानान्मुक्तिरिति साधितम्।इत्यानन्दगिरिकृतगीताभाष्यटीकायां षष्ठोऽध्यायः।।6।।
Sri Dhanpati
।।6.47।।योगिनामन्यदेवताध्यानयुक्तानामपि सर्वेषां मध्ये मद्गतेन मयि वासुदेवे समाहितेनान्तरात्मनान्तःकरणेन श्रद्धावान्वासुदेवान्न परं किंचिदिति श्रद्दधानः सन् यो मां भजते सेवते स मेऽतिशयेन यक्तो युक्ततमः सर्वोत्तमो ध्यानयोगी मतोऽभिप्रेतः। अतस्त्वमेतादृशो ध्यानयोगी भवेत्याशयः। तदनेने षष्ठाध्यायेन कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादारुपं साङ्ग ध्यानयोगं मनोनिग्रहोपायं योगभ्रष्टस्य दुर्गत्यभावेन सुगत्या मोक्षाप्तिं वासुदेवभजनस्य श्रैष्ठ्यं च दर्शयताऽनेन साधनेन शुद्धत्वंपदार्थोभिज्ञस्य वाक्यार्थज्ञानान्मोक्ष िति प्रसाधितम्।।ईशाराधनतत्परेण मनसा कर्मादिसंतन्वता कर्तृत्वादिविवर्जितेन निगमैर्लब्धा विशुद्धात्मता। येनाप्तं परमैकतां सुखधनां स्वं नौमि तं शाश्वतं प्रत्यञ्चं परमार्थतो भ्रमवशाज्जीवं स्वरुपाच्च्युतम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसुनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां षष्ठोऽध्यायः समाप्तः।।6।।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।6.47।।एवं सर्वस्मादाधिक्ये जीवात्मयोगिनः प्रतिपादिते ततः परमपुरुषार्थो नास्तीति श्रोता चरितार्थबुद्धिः स्यादिति शङ्कमानो भूमविद्यायामिव स्वयमेव ततोऽप्यतिशयितपुरुषार्थसाधकं तदङ्गिनः स्वविषयभक्तियोगं मध्यमषट्केन प्रतिपादयितुं स्वयमेव प्रस्तौतीत्याह तदेवमिति। उक्तैः प्रमाणतकरुपपादितप्रकारेणेत्यर्थः। सङ्गत्यर्थं प्रथमषट्कस्य मध्यमषट्कशेषत्वमाह परविद्याङ्गभूतमिति। तत्र प्रमाणद्योतनं प्रजापतिवाक्योदितमिति। प्रागेवेदं प्रपञ्चितम्। एतेन परिशुद्धप्रत्यगात्मदर्शनमात्रस्य परमयोगत्वादिकं वदन्तोऽन्तिमयुगवेदान्तिप्रभृतयो निरस्ताः।परविद्यां परां विद्यामित्यर्थः। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते मुं.उ.1।1।5 इत्यादिवत्। यद्वा परमात्मनो विद्यामित्यर्थः।प्रस्तौति प्रस्तावमात्रमिदं प्रपञ्चो ह्यनन्तरं भविष्यतीति भावः।तपस्विभ्योऽधिकः 6।46 इत्यादिप्रकरणादत्रापियोगिभ्यः इत्यर्थोऽभिप्रेत इति मन्वान आह योगिनामिति।पञ्चम्यर्थे षष्ठीति सम्बन्धसामान्यषष्ठ्याः सम्बन्धविशेषे विवक्षावशात्पर्यवसानमिति भावः। नन्वेवं किमर्थं परिक्लिश्यते निर्धारणे षष्ठ्यत्र सम्भवति। तथाहि प्रागुक्तेषु चतुर्षु योगेषुसर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः 6।31 इति योगी कश्चिदुक्तः अत्रापिश्रद्धावान् भजते यो माम् इति स एव प्रत्यभिज्ञायते अतस्तन्निर्धारणेनयुक्ततमः इति प्रशंसाऽत्र क्रियते।युक्ततमः इत्यत्र प्रत्ययश्च निर्धारणार्थत्वसूचकः तस्मान्नासौ पञ्चम्यर्थे षष्ठीति तत्राह सर्वभूतस्थमिति। एतेन पूर्वश्लोकेयोगी इत्येकवचननिर्देशेऽप्यत्र बहुवचनेन नानुवादस्य विषयोऽपि दर्शितः ततः किमित्यत्राह तेष्विति।अयमभिप्रायः परमात्मोपासको हि योगी मध्यमषट्केन वक्ष्यते तस्य च प्रस्तावोऽत्र क्रियते नचासौ प्रागुक्तःसर्वभूतस्थितं यो माम् 6।31 इत्यादेश्च साम्यानुसन्धानविषयत्वं प्रागेव प्रतिपादितं ततो न तस्यात्र प्रत्यभिज्ञा किञ्चआत्मौपम्येन 6।32 इति श्लोकेसर्वभूतस्थितम् इत्याद्युक्तयोगिनोऽपि परतरो योगी प्रागुक्तः ततश्चसर्वभूतस्थितम् इत्यादिनोक्तयोगिनोऽत्र सर्वस्मादाधिक्यप्रतिपादने पूर्वेण विरोधः स्यात् अतोऽस्य योगिनस्तेष्वन्यतमत्वायोगान्न निर्धारणे षष्ठीयम् तदिदमुक्तंतेष्वनन्तर्गतत्वादिति। ननु पूर्वोक्तान्वक्ष्यमाणं च योगिनं सामान्येन संगृह्य तेष्वन्यतमस्य वक्ष्यमाणस्य निर्धारणं किं न स्यात् मैवं प्रतिपन्नेषु केषुचित्प्रतिपन्न एव हि कश्चिन्निर्धार्यः अन्यथाऽतिशयविधानार्थमनुवादायोगात्। नच वक्ष्यमाणो योगीश्रोतुरर्जुनस्य इतः पूर्वं प्रतिपन्नः इदमपिवक्ष्यमाणस्येतिपदेन सूचितम्। अतः प्रागुक्तेभ्यो योगिभ्योऽधिकस्य वक्ष्यमाणस्य योगिनः प्रस्ताव एवायं भवितुमर्हति ततश्च पञ्चम्यर्थत्वे विवक्षणीये न निर्धारणे षष्ठी सम्भवतीतियोगिनामपि सर्वेषाम् इति सामानाधिकरण्येन योजनायामपिशब्दस्य मन्दप्रयोजनत्वं स्यात् योगिनां हि प्रशंसा तदा सूचिता स्यात् सा च प्रागेव प्रतिपन्नत्वादत्र न सूचनमपेक्षते। समुद्रादपि विपुलोऽयमित्यादिव्यवहारेष्विव विपरीतप्रतीतिश्च स्यात् अपिशब्दस्य समुच्चयार्थत्वं प्रसिद्धिप्रकर्षवदत्रापि सम्भवदपरित्याज्यम्योगिनामपि इत्यनेनैव गतार्थत्वेन सर्वशब्दश्चनात्यन्तापेक्षितः यदि चापेः समुच्चयार्थत्वं सर्वशब्दस्य च समुच्चेतव्यार्थान्तरपरत्वं सम्भवति अतस्तदेवोपादातुमुचितम्। सम्भवन्ति चात्र सर्वशब्दार्थतया तपस्विप्रभृतयः प्रसक्ताः ते च न योगिशब्देन संगृहीताः मुख्ये सम्भवति च तेन तल्लक्षणा न युक्ता। योगिभ्यो न्यूनानामपि तेषामुपादानं दृष्टान्तार्थतयाऽत्यन्तोचितमेव। योगिनां तपस्विप्रभृतीनां च समुच्चयोऽवरत्वसाम्यप्रतिपादनौपयिकत्वादत्यन्तापेक्षितः। तदेतत्सर्वमभिप्रयन्नाह अपि सर्वेषामिति।उक्तेन न्यायेनेति। प्रकरणवशात्तेष्वनन्तर्गतत्वादन्तर्भावयितुमशक्यत्वाच्चेति भावः।तपस्व्यादिसङ्ग्रहाभिप्रायं वक्तुं फलितमन्वयमाह योगिभ्य इति।युक्ततम इति अधिक इत्यर्थः। यद्वा योगिनां तपस्विप्रभृतीनां च यथास्वमुपाययुक्तत्वात्तेभ्यः सर्वेभ्योऽयमतिशयितोपाययुक्त इत्यर्थः। अथवा योग्यतम इत्यर्थः। एतदखिलमभिप्रेत्यश्रेष्ठतमः इति वक्ष्यति। योगिभ्योऽपि न्यूनतमास्तपस्विप्रभृतयः किमर्थमत्र संगृह्यन्त इत्यत्र दृष्टान्तार्थतां विशदयतितदपेक्षयेति। लौकिकोदाहरणेन द्रढयतिमेर्वपेक्षयेति। नन्ववरत्वे न कश्चिद्विशेष इत्ययुक्तम् तथासति तपस्विप्रभृतीनां योगिनां चात्यन्तसमत्वप्रसङ्गात् अस्ति च विशेषो मेर्वपेक्षयापि सर्षपाणां मात्रया न्यूनाधिकभावेनावरत्वावरतरत्वरूपः तत्राह यद्यपीति। नेदानीं मिथस्तारतम्यं निषिध्यते किन्तु मिथस्तारतम्यवतामप्यत्यन्तातिशयितापेक्षया न्यूनत्वमात्रमविशिष्टं तावतैव चावरत्वव्यवहारोऽप्यविशिष्टो जायत इति भावः।मत्प्रियत्वातिरेकेणेति अहं प्रियः प्रीतिविषयो यस्य स मत्प्रियः तस्य भावस्तत्त्वं भक्त्यतिरेकेणेत्यर्थः।अनन्यसाधारणस्वभावतयेति स्वाभिमतभोग्यमेव हि धारकमिति भावः। बाह्येन्द्रियशरीराद्यपेक्षयाऽत्र मनसोऽन्तरात्मशब्दवाच्यत्वम्। भक्तिकाष्ठादशायां श्रद्धाशब्दस्येच्छादिमात्रविषयत्वमनुचितम् अत इच्छाकार्यत्वराविषयतामिच्छायाश्च त्वराहेतुं तीव्रदशापत्तिं दर्शयति अत्यर्थेत्यादिना। भजनीयतया निर्दिष्टस्य श्रुतिस्मृत्यादिशतैः वक्ष्यमाणषट्कद्वयेन चोक्तानुपासनोपयुक्ताकारान्मामित्यनेन विवक्षितान् दर्शयतिविचित्रेत्यादिना आप्याययन्तमित्यन्तेन। तत्रापिवाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावम् इत्यन्तानि विशेषणानि परत्वौपयिकानि। ततः पराणि तु सौलभ्यौपयिकानीति विवेकः। तदुभयाभिधानं च अतिसुलभस्य तृणादेः अतिदुर्लभस्य मेर्वादेश्चान्यतरवैकल्येनानुपादेयत्वात्। कारणवाक्यस्थानां सद्ब्रह्मात्मादिसामान्यशब्दानामनन्यथासिद्धविशेषोपस्थापकनारायणपदार्थपर्यवसानमभिप्रयन्जन्माद्यस्य यतः ब्र.सू.1।1।2 इति सूत्रनिरूपितार्थेन यतो वा इमानि तै.उ.3।1 इत्यादिवाक्येन प्रतिपादितं जिज्ञास्यस्य ब्रह्मणो लक्षणं दर्शयित्यमाणजगत्कारणत्ववैश्वरूप्यादिवैभवे धनञ्जयसारथौ दर्शयति विचित्रेति। कारणत्वमुखेन लीलाविभूतियोगः प्रतिपादितः अथ कारणत्वशङ्कितदोषवत्त्वगुणवैकल्यशङ्कानिवृत्त्यर्थं शोधकवाक्यादिसिद्धमुभयलिङ्गत्वं दर्शयति अस्पृष्टेति।अस्पृष्टाशेषदोषेत्यस्य गुणविशेषणत्वे दोषसामानाधिकरण्याभावो विवक्षितः गुणिविशेषणत्वे दोषात्यन्ताभावः।अथ शुभाश्रयाप्राकृतविग्रहविशिष्टत्वप्रतिपादनमुखेन दिव्याभरणायुधमहिषीपरिजनस्थानादियोगमुपलक्षयन् नित्यविभूतियोगं सूचयति स्वाभिमतेति। एवमुभयविभूतियोगादुभयलिङ्गत्वाच्च फलितं केवलपरत्वे वाङ्मनसापरिच्छेद्यतयोपासनायोग्यत्वमपि सूचयितुं परत्वातिशयमाह वाङ्मनसेति। स्वरूपमीश्वरत्वादिकम् आनन्दत्वादिकं वा। स्वभावस्तु निरूपितस्वरूपविशेषका धर्माः। उक्तं परत्वमेव स्वरूपम् वक्ष्यमाणं सौलभ्यं तु स्वभाव इत्येके। अवतारसौलभ्यहेतूनाह अपारेत्यादिना। प्रत्येकमेषां महोदधिंस्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः 9।32सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्ब्रह्मतं मम वा.रा.6।18।33सर्वलोकशरण्याय वा.रा.6।17।17यदि वा रावणः स्वयम् वा.रा.6।18।34 इत्यादिभिः सिद्धं दर्शयति अनालोचितेति। विशेषाः जातिगुणवृत्तविद्यादिरूपाः। उक्ताः कारुण्यादिगुणाः एवंविधशरण्यत्वे हेतवः। शरण्यशब्देनाभिगमनीयत्वमुक्तम् तत्फलभूतविरोधिनिरसनशीलतामाह प्रणतार्तिहरमिति। सर्वसाधारणतया गुणान्तरैः सह निर्दिष्टमपि वात्सल्यगुणं भूयोऽपि विशेषसम्बन्धानुसन्धानाय विशेषतोऽवतारेषु कार्यकरत्वज्ञापनाय सापराधानामभीतये ज्ञानादिरहितदशायामपि स्वयमेव रक्षक इति प्रदर्शनाय तत्प्रतिबन्धकभूतपरमात्मवैमुख्यनिवृत्तिये च पृथगनुसन्धत्तेआश्रितवात्सल्यैकजलधिमिति। उक्तकारुण्यादिगुणगणफलितं प्रकृतावतारस्यावतारान्तराद्वैलक्षण्यमाह अखिलेति।अजोऽपि सन्नव्ययात्मा 4।6 इत्यादिना पूर्वोक्तं स्मारयतिअजहदिति। अवतारविशेषमाश्रितो हि मामित्याहेत्यभिप्रायेणाह वसुदेवेति। तेजःकान्तिरूपावतारविग्रहगुणविशेषाभ्यां अवतारदशायामेव परत्वसौलभ्यव्यञ्जकाभ्यां उपासकचित्ताकर्षणमभिप्रेत्याहअनवधिकेति। अत्रापि भास्वरत्वं तेजः तत एवानभिभवनीयत्वमपि सिद्धम्। कान्तिस्तु रामणीयकं लावण्यापरपर्यायचन्द्रिकाकल्पा प्रभा वा। अतएव हिआप्याययन्तमित्यक्तम्। एतेनविश्वमाप्याययन् कान्त्या सा.सं.2।70 स्मारितम्। भजते इत्यस्य विवक्षितं वक्तुं धातुपाठपठितमर्थं तावत् दर्शयतिसेवत इति।सेवा भक्तिरुपास्तिः इति नैघण्टुकप्रसिद्धिमाश्रित्य विवक्षिते श्रुतिप्रसिद्धे स्थापयतिउपास्त इत्यर्थ इति।योगिनामपि सर्वेषाम् इत्युक्तं वर्गद्वयं सङ्कलय्य सर्वेभ्य इत्युक्तम्।मे मतः इत्यत्रास्मच्छब्दाभिप्रेतमाह सर्वमित्यादिना। अत्रापियो वेत्ति युगपत् न्या.तं. इत्यादिकमनुसंहितम्।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु भगवद्रामानुजविरचितश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां षष्ठोऽध्यायः।।6।।
Sri Madhusudan Saraswati
।।6.47।।इदानीं सर्वयोगिश्रेष्ठं योगिनं वदन्नध्यायमुपसंहरति योगिनां वसुरुद्रादित्यादिक्षुद्रदेवताभक्तानां सर्वेषामपि मध्ये मयि भगवति वासुदेवे पुण्यपरिपाकविशेषाद्गतेन प्रीतिवशान्निविष्टेन मद्गतेनान्तरात्मनान्तःकरणेन प्राग्भवीयसंस्कारपाटवात्साधुसङ्गाच्च मद्भजन एव श्रद्धावानतिशयेन श्रद्दधानः सन् भजते सेवते सततं चिन्तयति यो मां नारायणमीश्वरेश्वरं सगुणं निर्गुणं वा मनुष्योऽयमीश्वरान्तरसाधारणोऽयमित्यादिभ्रमं हित्वा स एव मद्भक्तो योगी युक्ततमः सर्वेभ्यः समाहितचित्तेभ्यो युक्तेभ्यः श्रेष्ठो मे मम परमेश्वरस्य सर्वज्ञस्य मतो निश्चितः। समानेऽपि योगाभ्यासक्लेशे समानेऽपिभजनायासे मद्भक्तिशून्येभ्यो मद्भक्तस्यैव श्रेष्ठत्वात्त्वं मद्भक्तः परमो युक्ततमोऽनायासेन भवितुं शक्ष्यसीति भावः। तदनेनाध्यायेन कर्मयोगस्य बुद्धिशुद्धिहेतोर्मर्यादां दर्शयता ततश्च कृतसर्वकर्मसंन्यासस्य साङ्गं योगं विवृण्वता मनोनिग्रहोपायं चाक्षेपनिरासपूर्वकमुपदिशता योगभ्रष्टस्य पुरुषार्थशून्यताशङ्कां च शिथिलयता कर्मकाण्डं त्वंपदार्थनिरूपणं च समापितम्। अतःपरं श्रद्धावान्भजते यो मामिति सूत्रितं भक्तियोगं भजनीयं च भगवन्तं वासुदेवं तत्पदार्थं निरूपयितुमग्रिममध्यायषट्कमारभ्यत इति शिवम्।
Sri Neelkanth
।।6.47।।समाप्तः कर्मप्रधानस्त्वंपदार्थविवेकः। अतःपरमुपासनाप्राधान्येन तत्पदार्थं निरूपयितुकामस्तदुपासनां महाफलत्वेन स्तौति योगिनामिति। दैवमेवापरे यज्ञमित्यादिना चतुर्थाध्यायप्रोक्ता द्वादशयोगास्तद्वतां योगिनां सर्वेषां मध्ये यो मद्गतेन मयि वासुदेवे समर्पितेनान्तरात्मना चित्तेन श्रद्धावान्सन् मां भजते स मे मम युक्ततमोऽतिशयेन युक्तः श्लाघ्यो मतोऽभिप्रेतः। तस्मान्मद्भक्तो भवेति भावः।
Sri Shankaracharya
।।6.47।। योगिनामपि सर्वेषां रुद्रादित्यादिध्यानपराणां मध्ये मद्गतेन मयि वासुदेवे समाहितेन अन्तरात्मना अन्तःकरणेन श्रद्धावान् श्रद्दधानः सन् भजते सेवते यो माम् स मे मम युक्ततमः अतिशयेन युक्तः मतः अभिप्रेतः इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येषष्ठोऽध्यायः।।
Sri Purushottamji
।।6.47।।योगिनोऽपि बहुविधा इति तन्मध्ये दास्यधर्मेण भजनवानुत्तम इत्याह योगिनामपीति। सर्वेषामपि योगिनां मध्ये योगिनस्त्रिविधाः योगाभ्यासेन भगवद्ध्याननिष्ठाः भक्तियोगेन साधनसेवनपराः रसात्मकस्वसंयोगभावनिष्ठाः तन्मध्ये मद्गतेन अन्तरात्मना भावात्मकस्वरूपेण मम स्वशक्तिसंयोगेच्छारूपयोगेन मदर्थं श्रद्धावान् प्रेमयुक्तो यो मां भजते स मे मम युक्ततमः अत्यन्तं युक्तः प्रियो मतोऽभिमत इत्यर्थः। अतस्तथाभावेन त्वं योगी भवेति भावः।दास्यात्मकस्वयोगेन भक्तिमार्गभ्रमं हि यः। नाशयामास पार्थस्य स मे कृष्णः प्रसीदतु।।1।।
Sri Vallabhacharya
।।6.47।।योगिनामपि सर्वेषां मध्ये मत्पुष्टिभक्तिपरायणः श्रेष्ठः। यन्निरुद्धं मय्येव चित्तं फलादौ च समं योगेऽपेक्षितं युक्तं तथाभूतेनान्तरात्मा श्रद्धावान् श्रीमदाचार्यवर्योपदेशवाक्येष्वास्तिक्यबुद्धिमान् सन् मां वासुदेवं भजते सेवते यः स मे युक्ततमो मतः। अतो योगफलितशरणभक्तिमान् भवेति गूढाभिसन्धिः। अतएवोक्तमाचार्यरत्नैः साङ्ख्ययोगौ निरूप्यादौ मोहमुत्सार्य फाल्गुने। भक्तिपीयूषपातारं कृतवानिति संग्रहः। उक्तमध्यायषट्केऽपि स्वधर्मकरणं मतम्। विवेकेन च धैर्येण साङ्ख्ये योगे च भक्तितः। सूत्रवदिदमुक्तम्।
Sri Sridhara Swami
।।6.47।।योगिनामपि यमनियमादिपराणां मध्ये मद्भक्तः श्रेष्ठ इत्याह योगिनामिति। मद्गतेन मय्यासक्तेनान्तरात्मना मनसा यो मां परमेश्वरं वासुदेवं श्रद्धायुक्तः सन्भजते स योगयुक्तेषु श्रेष्ठो मम संमतः। अतो मद्भक्तो भवेति भावः।