Chapter 16, Verse 13
Verse textइदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।
Verse transliteration
idam adya mayā labdham imaṁ prāpsye manoratham idam astīdam api me bhaviṣhyati punar dhanam
Verse words
- idam—this
- adya—today
- mayā—by me
- labdham—gained
- imam—this
- prāpsye—I shall acquire
- manaḥ-ratham—desire
- idam—this
- asti—is
- idam—this
- api—also
- me—mine
- bhaviṣhyati—in future
- punaḥ—again
- dhanam—wealth
Verse translations
Swami Gambirananda
'I have gained this today; I will acquire this desired object. This is in hand; and this wealth will also come to me.'
Dr. S. Sankaranarayan
'I have gained this today; I will attain this object of my desire in the future; this is mine now; and this wealth will also be mine soon.'
Shri Purohit Swami
Today I have gained this; tomorrow I will fulfill another desire; this wealth is mine now, and the rest will soon be mine.
Swami Ramsukhdas
।।16.13।।इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब इस मनोरथको प्राप्त (पूरा) कर लेंगे।,इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन फिर हो जायगा।
Swami Tejomayananda
।।16.13।। मैंने आज यह पाया है और इस मनोरथ को भी प्राप्त करूंगा, मेरे पास यह इतना धन है और इससे भी अधिक धन भविष्य में होगा।।
Swami Adidevananda
'This I have gained today, and this desire I shall attain. This wealth is mine, and this will also be mine hereafter.
Swami Sivananda
"I have gained this today; I will fulfill this desire of mine; this is mine, and this wealth will be mine in the future."
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।16.13।। --,इदं द्रव्यं अद्य इदानीं मया लब्धम्। इदं च अन्यत् प्राप्स्ये मनोरथं मनस्तुष्टिकरम्। इदं च अस्ति इदमपि मे भविष्यति आगामिनि संवत्सरे पुनः धनं तेन अहं धनी विख्यातः भविष्यामि इति।।
Sri Vallabhacharya
।।16.13।।इदमद्य मया लब्धं इति स्पष्टम्।
Swami Sivananda
16.13 इदम् this? अद्य today? मया by me? लब्धम् has been gained? इमम् this? प्राप्स्ये (I) shall obtain? मनोरथम् desire? इदम् this? अस्ति is? इदम् this? अपि also? मे to me? भविष्यति shall be? पुनः again? धनम् wealth.Commentary I will be able to acire all that the world possesses. Then I will be the lord of all wealth. No one will be eal to me on the surface of this earth.In future Next year this wealth also shall be mine. I will be known to the world as a man of immense wealth. People will address me as my lord.These demons (who think like this) become selfconceited on account of their wealth. Their heads are swollen with pride. They regard everyone else as worthless as straw. Pride of wealth destroyes their power of discrimination. They strive for happiness but they never obtain it. They are entangled in the meshes of Maya. They are wedded to sin and misry here and hereafter.
Sri Sridhara Swami
।।16.13।।तेषां मनोराज्यं कथयन्नरकप्राप्तिमाह -- इदमद्येति चतुर्भिः। प्राप्स्ये प्राप्स्यामि। मनोरथं मनसः प्रियम्। शेषं स्पष्टम्। एषां त्रयाणां श्लोकानामित्यज्ञानविमोहिताः सन्तो नरके पतन्तीति चतुर्थेनान्वयः।
Swami Ramsukhdas
।।16.13।। व्याख्या -- इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् -- आसुरी प्रकृतिवाले व्यक्ति लोभके परायण होकर मनोरथ करते रहते हैं कि हमने अपने उद्योगसे? बुद्धिमानीसे? चतुराईसे? होशियारीसे? चालाकीसे इतनी वस्तुएँ तो आज प्राप्त कर लीं? इतनी और प्राप्त कर लेंगे। इतनी वस्तुएँ तो हमारे पास हैं? इतनी और वहाँसे आ जायँगी। इतना धन व्यापारसे आ जायगा। हमारा बड़ा लड़का इतना पढ़ा हुआ है अतः इतना धन और वस्तुएँ तो उसके विवाहमें आ ही जायँगी। इतना धन टैक्सकी चोरीसे बच जायगा? इतना जमीनसे आ जायगा? इतना मकानोंके किरायेसे आ जायगा? इतना ब्याजका आ जायगा? आदिआदि।इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् -- जैसेजैसे उनका लोभ बढ़ता जाता है? वैसेहीवैसे उनके मनोरथ भी बढ़ते जाते हैं। जब उनका चिन्तन बढ़ जाता है? तब वे चलतेफिरते हुए? कामधंधा करते हुए? भोजन करते हुए? मलमूत्रका त्याग करते हुए और यदि नित्यकर्म (पाठपूजाजप आदि) करते हैं तो उसे करते हुए भी धन कैसे बढ़े इसका चिन्तन करते रहते हैं। इतनी दूकानें? मिल? कारखाने तो हमने खोल दिये हैं? इतने और खुल जायँ। इतनी गायेंभैंसे? भेड़बकरियाँ आदि तो हैं ही? इतनी और हो जायँ। इतनी जमीन तो हमारे पास है? पर यह बहुत थोड़ी है? किसी तरहसे और मिल जाय तो बहुत अच्छा हो जायगा। इस प्रकार धन आदि बढ़ानेके विषयमें उनके मनोरथ होते हैं। जब उनकी दृष्टि अपने शरीर तथा परिवारपर जाती है? तब वे उस विषयमें मनोरथ करने लग जाते हैं कि अमुकअमुक दवाएँ सेवन करनेसे शरीर ठीक रहेगा। अमुकअमुक चीजें इकट्ठी कर ली जायँ? तो हम सुख और आरामसे रहेंगे। एयरकण्डीशनवाली गा़ड़ी मँगवा लें? जिससे बाहरकी गरमी न लगे। ऊनके ऐसे वस्त्र मँगवा लें? जिससे सरदी न लगे। ऐसा बरसाती कोट या छाता मँगवा लें? जिससे वर्षासे शरीर गीला न हो। ऐसेऐसे गहनेकपड़े और श्रृंगार आदिकी सामग्री मँगवा लें? जिससे हम खूब सुन्दर दिखायी दें? आदिआदि।ऐसे मनोरथ करतेकरते उनको यह याद नहीं रहता कि हम बूढ़े हो जायँगे तो इस सामग्रीका क्या करेंगे और मरते समय यह सामग्री हमारे क्या काम आयेगी अन्तमें इस सम्पत्तिका मालिक कौन होगा बेटा तो कपूत है अतः वह सब नष्ट कर देगा। मरते समय यह धनसम्पत्ति खुदको दुःख देगी। इस सामग्रीके लोभके कारण ही मुझे बेटाबेटीसे डरना पड़ता है? और नौकरोंसे डरना पड़ता है कि कहीं ये लोग हड़ताल न कर दें। प्रश्न -- दैवीसम्पत्तिको धारण करके साधन करनेवाले साधकके मनमें भी कभीकभी व्यापार आदिके कार्यको लेकर (इस श्लोककी तरह) इतना काम हो गया? इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा इतना पैसा आ गया है और इतना वहाँपर टैक्स देना है आदि स्फुरणाएँ होती हैं। ऐसी ही स्फुरणाएँ जडताका उद्देश्य रखनेवाले आसुरीसम्पत्तिवालोंके मनमें भी होती हैं? तो इन दोनोंकी वृत्तियोंमें क्या अन्तर हुआ उत्तर -- दोनोंकी वृत्तियाँ एकसी दीखनेपर भी उनमें बड़ा अन्तर है। साधकका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका होता है अतः वह उन वृत्तियोंमें तल्लीन नहीं होता। परन्तु आसुरी प्रकृतिवालोंका उद्देश्य धन इकट्ठा करने और भोग भोगनेका रहता है अतः वे उन वृत्तियोंमें ही तल्लीन होते हैं। तात्पर्य यह है कि दोनोंके उद्देश्य भिन्नभिन्न होनेसे दोनोंमें बड़ा भारी अन्तर है।
Swami Chinmayananda
।।16.13।। यह श्लोक स्वत स्पष्ट है। सामान्य लोग इसी प्रकार का जीवन जीते हैं। प्रतिस्पर्धा से पूर्ण इस जगत् में उस व्यक्ति को सफल समझा जाता है? जिसके पास अधिकतम धन हो। अत मनुष्य को जितना अधिक धन प्राप्त होता है? उससे उसकी सन्तुष्टि नहीं होती। धनार्जन की इस धारणा में हास्यास्पद विरोधाभास यह है कि धन प्राप्ति से सन्तोष होने के स्थान पर अधिकाधिक धन की इच्छा बढ़ती जाती है। आज तक किसी भी भौतिकवादी धनी व्यक्ति ने अपने धन को पर्याप्त नहीं माना है।इसके विपरीत स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षण बताते हुए गीता में कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष की परिपूर्णता ऐसी होती है कि जगत् के विषय उसके मन में किंचित् भी विकार उत्पन्न नहीं करते हैं? और वही पुरुष वास्तविक शान्ति प्राप्त करता है? न कि कामी पुरुष।इस श्लोक में आसुरी पुरुष का भौतिक वस्तुओं के संबंध में दृष्टिकोण बताया गया है? अब अगले श्लोक में उसके व्यक्तिविषयक दृष्टिकोण को,बताते हैं।
Sri Anandgiri
।।16.13।।तेषामभिप्रायोऽपि विवेकविरोधीत्याह -- ईदृशश्चेति। द्रव्यं गोहिरण्यादि। इदमन्यद्बुद्धौ प्रार्थ्यमानत्वेन विपरिवर्तमानमित्येतत्।
Sri Dhanpati
।।16.13।।विवेकविरोधिनामासुराणामभिप्रायमाह। इदं द्रव्यं गोहिरण्याद्यद्य इदानीं मया लब्धमिदमन्यनमनोरथं मनस्तुष्टिकरं प्राप्स्ये प्राप्स्यामि। इदमस्ति पुरैव संचितं इदमपि मे पुनर्धनमागामिनि संवत्सरे भविष्यति तेनाहं धनी विख्यातो भविष्यामि।
Sri Neelkanth
।।16.13।।आशापाशान्विवृणोति -- इदमद्येति।
Sri Ramanujacharya
।।16.13।।इदं क्षेत्रपुत्रादिकं सर्वं मया मत्सामर्थ्येन एव लब्धम्? न अदृष्टादिना? इमं च मनोरथम् अहम् एव प्राप्स्ये? न अदृष्टादिसहितः इदं धनं मत्सामर्थ्येन लब्धं मे अस्ति? इदम् अपि पुनः मे मत्सामर्थ्येन एव भविष्यति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।16.13।।एवंसहस्रभगसन्दर्शनात्मकश्च महानन्दलक्षणो मोक्षः इत्यादिभिः कामोपभोगः परमपुरुषार्थ इति कृत्वा तदर्थमर्थपुरुषार्थस्वीकार इत्युक्तम् अथ तत्र प्रवृत्तस्य व्यतिरेकसंज्ञासंस्थावस्थितयोगिवल्लब्धालब्धकृताकृतप्रत्यवेक्षणमुच्यतेइदमद्येत्यादिना। एतेन पूर्वोक्तचिन्ताविषयानन्त्यमप्युदाहृतं भवति। वक्ष्यमाणधनव्यतिरिक्तविषयत्वद्योतनाय पुत्रक्षेत्रादिशब्दः। सात्त्विकानामीश्वराद्यधीनकृताकृतप्रत्यवेक्षणाव्यवच्छेदाय अहङ्कारगर्भतयाऽपि तथाविधानु सन्धानस्य भ्रान्तिरूपत्वंमया इत्यनेन सूच्यत इत्याह -- मत्सामर्थ्येनैवेति। एवकाराभिप्रेतं विवृणोति -- नादृष्टादिनेति। एवमेवोत्तमपुरुषाकृष्टाहंशब्दव्याख्यानरूपेअहमेव इत्यादावप्यभिप्रायः।इदमस्तीदमपि इति चिन्तायां विषयभूयस्त्वज्ञापनम्।
Sri Abhinavgupta
।।16.13 -- 16.16।।इहमद्येत्यादि अशुचौ इत्यन्तम्। अनेकचित्ता (A अनेकचिन्ताः N अनेकचित्तविभ्रान्ताः) इतिनिश्चयाभावात्। अशुचौ निरये? अवीच्यादौ? जन्ममरणसन्ताने च।
Sri Madhusudan Saraswati
।।16.13।।तेषामीदृशीं धनतृष्णानुवृत्तिं मनोराज्यकथनेन विवृणोति -- इदमिति। इदं धनमद्य इदानीमनेनोपायेन मया लब्धमिदं तदन्यत् मनोरथं मनस्तुष्टिकरं शीघ्रमेव प्राप्स्ये? इदं पुरैव संचितं मम गृहेऽस्ति इदमपि बहुतरं भविष्यत्यागामिनि संवत्सरे पुनर्धनम्। एवं धनतृष्णाकुलाः पतन्ति नरकेऽशुचावित्यग्रिमेणान्वयः।
Sri Purushottamji
।।16.13।।एवं तेषां कर्मादिलक्षणमुक्त्वा मनसोऽसदर्थाभिनिवेशान्नरकप्राप्तिमाह -- इदमद्येति। मया कृतयत्नेन इदमद्य लब्धं? न तु यदृच्छयेति जानन्ति। एवमेव यत्नं कुर्वाण इदं मनोरथं मनस इष्टं प्राप्स्ये प्राप्स्यामि। इदं भोगाद्यर्थं धनं मेऽस्ति मदिच्छया स्थास्यति? गमिष्यतीति न जानन्ति। इदमपि धनं मे पुनः भविष्यति।