Chapter 16, Verse 3
Verse textतेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।16.3।।
Verse transliteration
tejaḥ kṣhamā dhṛitiḥ śhaucham adroho nāti-mānitā bhavanti sampadaṁ daivīm abhijātasya bhārata
Verse words
- tejaḥ—vigor
- kṣhamā—forgiveness
- dhṛitiḥ—fortitude
- śhaucham—cleanliness
- adrohaḥ—bearing enmity toward none
- na—not
- ati-mānitā—absence of vanity
- bhavanti—are
- sampadam—qualities
- daivīm—godly
- abhijātasya—of those endowed with
- bhārata—scion of Bharat
Verse translations
Swami Gambirananda
Vigour, forgiveness, fortitude, purity, freedom from malice, absence of haughtiness—these, O scion of the Bharata dynasty, are the qualities of one born destined to have the divine nature.
Shri Purohit Swami
Valor, forgiveness, fortitude, purity, freedom from hate and vanity—these are the qualities of one who possesses the divine, O Arjuna!
Swami Ramsukhdas
।।16.3।।तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीरकी शुद्धि, वैरभावका न रहना और मानको न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
Dr. S. Sankaranarayan
Vital power, forgiveness, fortitude, contentment, absence of treachery, and absence of excessive pride—these are in the person who is born for divine wealth, O Descendant of Bharata!
Swami Tejomayananda
।।16.3।। हे भारत ! तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (शुद्धि), अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।
Swami Adidevananda
Grandeur, patience, fortitude, purity, freedom from hatred and over-pride—these, O Arjuna, belong to one who is born to a divine destiny.
Swami Sivananda
Vigor, forgiveness, fortitude, purity, absence of hatred, absence of pride—these belong to one born for a divine state, O Arjuna.
Verse commentaries
Sri Madhusudan Saraswati
।।16.3।।तेज इति। तेजः प्रागल्भ्यं स्त्रीबालकादिभिर्मूढैरनभिभाव्यत्वम्। क्षमा सत्यपि सामर्थ्ये परिभवहेतुंप्रति क्रोधस्यानुत्पत्तिः। धृतिर्देहेन्द्रियेष्ववसादं प्राप्तेष्वपि तदुत्तम्भकः प्रयत्नविशेषः। येनोत्तम्भितानि करणानि शरीरं च नावसीदन्ति। एतत्त्रयं क्षत्रियस्यासाधारणम्। शौचमाभ्यन्तरं अर्थप्रयोगादौ मायानृतादिराहित्यं नतु मृज्जलादिजनितं बाह्यमत्र ग्राह्यम्। तस्य शरीरशुद्धिरूपतया बाह्यत्वेनान्तःकरणवासनाशोधकत्वाभावात् तद्वासनानामेव सात्त्विकादिभेदभिन्नानां दैव्यासुर्यादिसंपद्रूपत्वेनात्र प्रतिपिपादयिषितत्वात्। स्वाध्यायादिवत्केनचिद्रूपेण वासनारूपत्वे तदप्यादेयमेव। द्रोहः परजिघांसया शस्त्रग्रहणादि तदभावोऽद्रोहः। एतद्वयं वैश्यस्यासाधारणम्। अत्यर्थं मानितात्मनि पूज्यत्वातिशयभावनातिमानिता,तदभावो नातिमानिता पूज्येषु नम्रता। अयं शूद्रस्यासाधारणो धर्मः।तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इत्यादिश्रुत्या विविदिषौपयिकतया विनियुक्ता असाधारणाः साधारणाश्च वर्णाश्रमधर्मा इहोपलक्ष्यन्ते। एते धर्मा भवन्ति निष्पद्यन्ते दैवीं शुद्धसत्वमयीं संपदं वासनासन्ततिं शरीरारम्भकाले पुण्यकर्मभिरभिव्यक्तामभिलक्ष्य जातस्य पुरुषस्यतं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन इत्यादिश्रुतिभ्यः। हे भारतेति संबोधयन् शुद्धवंशोद्भवत्वेन पूतत्वात्त्वमेतादृशधर्मयोग्योऽसीति सूचयति।
Swami Ramsukhdas
।।16.3।। व्याख्या--'तेजः'--महापुरुषोंका सङ्ग मिलनेपर उनके प्रभावसे प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करके सद्गुण-सदाचारोंमें लग जाते हैं। महापुरुषोंकी उस शक्तिको ही यहाँ 'तेज' कहा है। ऐसे तो क्रोधी आदमीको देखकर भी लोगोंको उसके स्वभावके विरुद्ध काम करनेमें भय लगता है; परन्तु यह क्रोधरूप दोषका तेज है। साधकमें दैवी सम्पत्तिके गुण प्रकट होनेसे उसको देखकर दूसरे लोगोंके भीतर स्वाभाविक ही सौम्यभाव आते हैं अर्थात् उस साधकके सामने दूसरे लोग दुराचार करनेमें लज्जित होते हैं, हिचकते हैं और अनायास ही सद्भावपूर्वक सदाचार करने लग जाते हैं। यही उन दैवी-सम्पत्तिवालोंका तेज (प्रभाव) है। 'क्षमा'--बिना कारण अपराध करनेवालेको दण्ड देनेकी सामर्थ्य रहते हुए भी उसके अपराधको सह लेना और उसको माफ कर देना 'क्षमा' (टिप्पणी प0 798) है। यह क्षमा मोह-ममता, भय और स्वार्थको लेकर भी की जाती है; जैसे--पुत्रके अपराध कर देनेपर पिता उसे 'क्षमा' कर देता है, तो यह क्षमा मोह-ममताको लेकर होनेसे शुद्ध नही है। इसी प्रकार किसी बलवान् एवं क्रूर व्यक्तिके द्वारा हमारा अपराध किये जानेपर हम भयवश उसके सामने कुछ नहीं बोलते, तो यह क्षमा भयको लेकर है। हमारी धन-सम्पत्तिकी जाँच-पड़ताल करनेके लिये इन्सपेक्टर आता है, तो वह हमें धमकाता है, अनुचित भी बोलता है और उसका ठहरना हमें बुरा भी लगता है तो भी स्वार्थ-हानिके भयसे हम उसके सामने कुछ नहीं बोलते, तो यह क्षमा स्वार्थको लेकर है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा नहीं है। वास्तविक क्षमा तो वही है, जिसमें 'हमारा अनिष्ट करनेवालेको यहाँ और परलोकमें भी किसी प्रकारका दण्ड न मिले' -- ऐसा भाव रहता है।क्षमा माँगना भी दो रीतिसे होता है --(1) हमने किसीका अपकार किया, तो उसका दण्ड हमें न मिले -- इस भयसे भी क्षमा माँगी जाती है; परन्तु इस क्षमामें स्वार्थका भाव रहनेसे यह ऊँचे दर्जेकी क्षमा नहीं है। (2) हमसे किसीका अपराध हुआ, तो अब यहाँसे आगे उम्रभर ऐसा अपराध फिर कभी नहीं करूँगा -- इस भावसे जो क्षमा माँगी जाती है, वह अपने सुधारकी दृष्टिको लेकर होती है और ऐसी क्षमा माँगनेसे ही मनुष्यकी उन्नति होती है। मनुष्य क्षमाको अपनेमें लाना चाहे तो कौन-सा उपाय करे? यदि मनुष्य अपने लिये किसीसे किसी प्रकारके सुखकी आशा न रखे और अपना अपकार करनेवालेका बुरा न चाहे? तो उसमें क्षमाभाव प्रकट हो जाता है। 'धृतिः'--किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिमें विचलित न होकर अपनी स्थितिमें कायम रहनेकी शक्तिका नाम 'धृति' (धैर्य) है (गीता 18। 33)। वृत्तियाँ सात्त्विक होती हैं तो धैर्य ठीक रहता है और वृत्तियाँ राजसी-तामसी होती हैं तो धैर्य वैसा नहीं रहता। जैसे बद्रीनारायणके रास्तेपर चलनेवालेके लिये कभी गरमी, चढ़ाई आदि प्रतिकूलताएँ आती हैं और कभी ठण्डक, उतराई आदि अनुकूलताएँ आती हैं, पर चलनेवालेको उन प्रतिकूलताओं और अनूकूलताओंको देखकर ठहरना नहीं है, प्रत्युत 'हमें तो बद्रीनारायण पहुँचना है' -- इस उद्देश्यसे धैर्य और तत्परतापूर्वक चलते रहना है। ऐसे ही साधकको अच्छी-मन्दी वृत्तियों और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंकी ओर देखना ही नहीं चाहिये। इनमें उसे धीरज धारण करना चाहिये; क्योंकि जो अपना उद्देश्य सिद्ध करना चाहता है, वह मार्गमें आनेवाले सुख और दुःखको नहीं देखता-- मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।। (भर्तृहरिनीतिशतक) 'शौचम्'--बाह्यशुद्धि एवं अन्तःशुद्धिका नाम 'शौच' है (टिप्पणी प0 799.1)। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखनेवाला साधक बाह्यशुद्धिका भी खयाल रखता है; क्योंकि बाह्यशुद्धि रखनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि स्वतः होती है और अन्तःकरण शुद्ध होनेपर बाह्य-अशुद्धि उसको सुहाती नहीं। इस विषयपर पतञ्जलि महाराजने कहा है -- शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।(योगदर्शन 2। 40)'शौचसे साधककी अपने शरीरमें घृणा अर्थात् अपवित्र-बुद्धि और दूसरोंसे संसर्ग न करनेकी इच्छा होती है।' तात्पर्य यह है कि अपने शरीरको शुद्ध रखनेसे शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान होता है। शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान होनेसे सम्पूर्ण शरीर इसी तरहके हैं -- इसका बोध होता है। इस बोधसे दूसरे शरीरोंके प्रति जो आकर्षण होता है, उसका अभाव हो जाता है अर्थात् दूसरे शरीरोंसे सुख लेनेकी इच्छा मिट जाती है। बाह्यशुद्धि चार प्रकारसे होती है -- (1) शारीरिक (2) वाचिक, (3) कौटुम्बिक और (4) आर्थिक। (1) 'शारीरिक शुद्धि'--प्रमाद, आलस्य, आरामतलबी, स्वाद-शौकीनी आदिसे शरीर अशुद्ध हो जाता है और इनके विपरीत कार्य-तत्परता, पुरुषार्थ, उद्योग, सादगी आदि रखते हुए आवश्यक कार्य करनेपर शरीर शुद्ध हो जाता है। ऐसे ही जल, मृत्तिका आदिसे भी शारीरिक शुद्धि होती है। (2) 'वाचिक शुद्धि'--झूठ बोलने, कड़ुआ बोलने, वृक्षा बकवाद करने, निन्दा करने, चुगली करने आदिसे वाणी अशुद्ध हो जाती है। इन दोषोंसे रहित होकर सत्य, प्रिय एवं हितकारक आवश्यक वचन बोलना (जिससे दूसरोंकी पारमार्थिक उन्नति होती हो और देश, ग्राम, मोहल्ले, परिवार, कुटुम्ब आदिका हित होता हो) और अनावश्यक बात न करना -- यह वाणीकी शुद्धि है। (3) 'कौटुम्बिक शुद्धि'--अपने बाल-बच्चोंको अच्छी शिक्षा देना; जिससे उनका हित हो, वही आचरण करना; कुटुम्बियोंका हमपर जो न्याययुक्त अधिकार है, उसको अपनी शक्तिके अनुसार पूरा करना; कुटुम्बियोंमें किसीका पक्षपात न करके सबका समानरूपसे हित करना -- यह कौटुम्बिक शुद्धि है। (4) 'आर्थिक शुद्धि'--न्याययुक्त, सत्यतापूर्वक, दूसरोंके हितका बर्ताव करते हुए जिस धनका उपार्जन किया गया है, उसको यथाशक्ति, अरक्षित, अभावग्रस्त, दरिद्री, रोगी, अकालपीड़ित, भूखे आदि आवश्यकतावालोंको देनेसे एवं गौ, स्त्री, ब्राह्मणोंकी रक्षामें लगानेसे द्रव्यकी शुद्धि होती है।त्यागी-वैरागी-तपस्वी सन्त-महापुरुषोंकी सेवामें लगानेसे एवं सद्ग्रन्थोंको सरल भाषामें छपवाकर कम मूल्यमें देनेसे तथा उनका लोगोंमें प्रचार करनेसे धनकी महान् शुद्धि हो जाती है।परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य हो जानेपर अपनी (स्वयंकी) शुद्धि हो जाती है। स्वयंकी शुद्धि होनेपर शरीर, वाणी, कुटुम्ब, धन आदि सभी शुद्ध एवं पवित्र होने लगते हैं। शरीर आदिके शुद्ध हो जानेसे वहाँका स्थान? वायुमण्डल आदि भी शुद्ध हो जाते हैं। बाह्यशुद्धि और पवित्रताका खयाल रखनेसे शरीरकी वास्तविकता अनुभवमें आ जाती है? जिससे शरीरसे अंहताममता छोड़नेमें सहायता मिलती है। इस प्रकार यह साधन भी परमात्मप्राप्तिमें निमित्त बनता है। 'अद्रोहः'--बिना कारण अनिष्ट करनेवालेके प्रति भी अन्तःकरणमें बदला लेनेकी भावनाका न होना 'अद्रोह' (टिप्पणी प0 799.2) है। साधारण व्यक्तिका कोई अनिष्ट करता है, तो उसके मनमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति द्वेषकी एक गाँठ बँध जाती है कि मौका पड़नेपर मैं इसका बदला ले ही लूँगा; किन्तु जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है, उस साधकका कोई कितना ही अनिष्ट क्यों न करे, उसके मनमें अनिष्ट करनेवालेके प्रति बदला लेनेकी भावना ही पैदा नहीं होती। कारण कि कर्मयोगका साधक सबके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करता है, ज्ञानयोगका साधक सबको अपना स्वरूप समझता है और भक्तियोगका साधक सबमें अपने इष्ट भगवान्को समझता है। अतः वह किसीके प्रति कैसे द्रोह कर सकता है।'निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध'।।(मानस 7। 112 ख) 'नातिमानिता'--एक 'मानिता' होती है और एक 'अतिमानिता' होती है। सामान्य व्यक्तियोंसे मान चाहना 'मानिता' है और जिनसे हमने शिक्षा प्राप्त की, जिनका आदर्श ग्रहण किया और ग्रहण करना चाहते हैं, उनसे भी अपना मान, आदर-सत्कार चाहना 'अतिमानिता' है। इन मानिता और अतिमानिताका न होना 'नातिमानिता' है।स्थूल दृष्टिसे मानिता के दो भेद होते हैं -- (1) 'सांसारिक मानिता'--धन, विद्या, गुण, बुद्धि, योग्यता, अधिकार, पद, वर्ण, आश्रम आदिको लेकर दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें एक श्रेष्ठताका भाव होता है कि 'मैं साधारण मनुष्योंकी तरह थोड़े ही हूँ, मेरा कितने लोग आदरसत्कार करते हैं! वे आदर करते हैं तो यह ठीक ही है; क्योंकि मैं आदर पानेयोग्य ही हूँ' -- इस प्रकार अपने प्रति जो मान्यता होती है, वह सांसारिक मानिता कहलाती है। (2) 'पारमार्थिक मानिता'--प्रारम्भिक साधनकालमें जब अपनेमें कुछ दैवी-सम्पत्ति प्रकट होने लगती है, तब साधकको दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है। साथ ही दूसरे लोग भी उसे परमात्माकी ओर चलनेवाला साधक मानकर उसका विशेष आदर करते हैं और साथ-ही-साथ 'ये साधन करनेवाले हैं, अच्छे सज्जन हैं' -- ऐसी प्रशंसा भी करते हैं। इससे साधकको अपनेमें विशेषता मालूम देती है, पर वास्तवमें यह विशेषता अपने साधनमें कमी होनेके कारण ही दीखती है। यह विशेषता दीखना पारमार्थिक मानिता है। जबतक अपनेमें व्यक्तित्व (एकदेशीयता, परिछिन्नता) रहता है, तभीतक अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दिखायी दिया करती है। परन्तु ज्यों-ज्यों व्यक्तित्व मिटता चला जाता है, त्यों-ही-त्यों साधकका दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषताका भाव मिटता चला जाता है। अन्तमें इन सभी मानिताओंका अभाव होकर साधकमें दैवी-सम्पत्तिका गुण 'नातिमानिता' प्रकट हो जाती है।दैवीसम्पत्तिके जितने सद्गुण-सदाचार हैं, उनको पूर्णतया जाग्रत् करनेका उद्देश्य तो साधकका होना ही चाहिये। हाँ, प्रकृति-(स्वभाव-) की भिन्नतासे किसीमें किसी गुणकी कमी, तो किसीमें किसी गुणकी कमी रह सकती है। परन्तु वह कमी साधकके मनमें खटकती रहती है और वह प्रभुका आश्रय लेकर अपने साधनको तत्परतासे करते रहता है; अतः भगवत्कृपासे वह कमी मिटती जाती है। कमी ज्यों-ज्यों मिटती जाती है, त्यों-त्यों उत्साह और उस कमीके उत्तरोत्तर मिटनेकी सम्भावना भी बढ़ती जाती है। इससे दुर्गुण-दुराचार सर्वथा नष्ट होकर सद्गुण-सदाचार अर्थात् दैवी-सम्पत्ति प्रकट हो जाती है। 'भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत'--भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! ये सभी दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हुए मनुष्योंके लक्षण हैं। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेपर ये दैवी-सम्पत्तिके लक्षण साधकमें स्वाभाविक ही आने लगते हैं। कुछ लक्षण पूर्वजन्मोंके संस्कारोंसे भी जाग्रत् होते हैं। परन्तु साधक इन गुणोंको अपने नहीं मानता और न उनको अपने पुरुषार्थसे उपार्जित ही मानता है, प्रत्युत गुणोंके आनेमें वह भगवान्की ही कृपा मानता है। कभी खयाल करनेपर साधकके मनमें ऐसा विचार होता है कि मेरेमें पहले तो ऐसी वृत्तियाँ नहीं थीं, ऐसे सद्गुण नहीं थे, फिर ये कहाँसे आ गये? तो ये सब भगवान्की कृपासे ही आये हैं -- ऐसा अनुभव होनेसे उस साधकको दैवी-सम्पत्तिका अभिमान नहीं आता। साधकको दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको अपने नहीं मानना चाहिये; क्योंकि यह देव -- परमात्माकी सम्पत्ति है, व्यक्तिगत (अपनी) किसीकी नहीं है। यदि व्यक्तिगत होती, तो यह अपनेमें ही रहती, किसी अन्य व्यक्तिकी नहीं रहती। इसको व्यक्तिगत माननेसे ही अभिमान आता है। अभिमान आसुरी-सम्पत्तिका मुख्य लक्षण है। अभिमानकी छायामें ही आसुरी-सम्पत्तिका मुख्य लक्षण है। अभिमानकी छायामें ही आसुरी-सम्पत्तिके सभी अवगुण रहते हैं। यदि दैवी-सम्पत्तिसे आसुरी-सम्पत्ति (अभिमान) पैदा हो जाय, तो फिर आसुरीसम्पत्ति कभी मिटेगी ही नहीं। परन्तु दैवी-सम्पत्तिसे आसुरी-सम्पत्ति कभी पैदा नहीं होती, प्रत्युत दैवी-सम्पत्तिके गुणोंके साथसाथ आसुरीसम्पत्तिके जो अवगुण रहते हैं, उनसे ही गुणोंका अभिमान पैदा होता है अर्थात् साधनके साथ कुछ-कुछ असाधन रहनेसे ही अभिमान आदि दोष पैदा होते हैं। जैसे, किसीको सत्य बोलनेका अभिमान होता है, तो उसके मूलमें वह सत्यके साथ-साथ असत्य भी बोलता है, जिसके कारण सत्यका अभिमान आता है। तात्पर्य यह है कि दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको अपना माननेसे एवं गुणोंके साथ अवगुण रहनेसे ही अभिमान आता है। सर्वथा गुण आनेपर गुणोंका अभिमान हो ही नहीं सकता। यहाँ दैवी-सम्पत्ति कहनेका तात्पर्य है कि यह भगवान्की सम्पत्ति है। अतः भगवान्का सम्बन्ध होनेसे, उनका आश्रय लेनेसे शरणागत भक्तमें यह स्वाभाविक ही आती है। जैसे शबरीके प्रसङ्गमें रामजीने कहा है --, नवधा भगति कहउँ तोहिं पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।। नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।। सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
Swami Chinmayananda
।।16.3।। तेज यह केवल मुखमण्डल की ही आभा नहीं है? जो पौष्टिक आहार और पर्याप्त विश्राम से प्राप्त होती है। तेज शब्द से ज्ञानी पुरुष के मात्र शारीरिक सौन्दर्य या तेज से ही अभिप्राय नहीं है। अध्यात्म की आभा कोई ऐसा प्रभामण्डल नहीं है? जो ज्ञानी के मुख के चारों ओर अग्निवृत के समान जगमगाता हो। तत्त्वदर्शी ऋषि का तेज है? उसकी बुद्धि की प्रतिभा? नेत्रों में जगमगाता आनन्द? सन्तप्त हृदयों को शीतलता प्रदान करने वाली शान्ति की सुरभि? कर्मों में उसका अविचलित सन्तुलन? प्राणिमात्र के प्रति उसके हृदय में स्थित प्रेम का आनन्द और उसके अन्तरतम से प्रकाशित आनन्द का प्रकाश। यह तेज ही उस ऋषि के व्यक्तित्व का प्रबल आकर्षण होता है? जो प्रचुर शक्ति और उत्साह के साथ सब की सेवा करता है और उसी में स्वयं को धन्य समझता है।क्षमा जिस सन्दर्भ में इस गुण का उल्लेख किया गया है? उससे इसका अर्थ गाम्भीर्य बढ़ जाता है। सामान्य दुख और कष्ट? अपमान और पीड़ा को धैर्यपूर्वक सहन करनै की क्षमता ही क्षमा का सम्पूर्ण अर्थ नहीं है। बाह्य जगत् के अत्यधिक शक्तिशाली विरोध तथा उत्तेजित करने वाली परिस्थितयों के होने पर भी उनका सामना करने का सूक्ष्म कोटि का साहस और अविचलित शान्ति का नाम क्षमा है।धृति जब कोई व्यक्ति साहसपूर्वक जीना चाहता है? तब वह अपने जीवन में सदैव सुखद वातावरण? अनुकूल परिस्थितयाँ और अपने कार्य में सफलता के सहायक सुअवसरों को प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं कर सकता है। सामान्यत? एक दुर्बल व्यक्तित्व के पुरुष को अचानक निराशा आकर घेर लेती है और वह कार्य को अपूर्ण ही छोड़कर अपने कार्य क्षेत्र से निवृत्त हो जाता है। अनेक लोग तो ऐसे समय हतोत्साह होकर कार्य को त्याग देते हैं? जब विजयश्री उन्हें वरमाला पहनाने को तत्पर हो रही होती है निश्चल भाव से कार्यरत रहने के लिए मनुष्य को एक अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता होती है? जिसके द्वारा वह अपनी क्लान्त और श्रान्त आस्था काे पोषित कर दृढ़ बना सकता है। पुन एक युक्त पुरुष में निहित वह गुप्त शक्ति है धृति अर्थात् धैर्य। श्रद्धा की शक्ति? लक्ष्य में आस्था? उद्देश्य की एकरूपता? आदर्श का स्पष्ट दर्शन और त्याग की साहसिक भावना ये सब वे शक्ति श्रोत हैं? जहाँ से धृति की बूंदें रिसती हुई प्रवाहित होकर श्रम? अवसाद एवं निराशा आदि का परिहार करती हैं।शौचम् (शुद्धि) यह शब्द न केवल अन्तकरण के विचारों एवं उद्देश्यों की शुद्धि को इंगित करता है? वरन् इसके द्वारा वातावरण की शुद्धि? अपने वस्त्रों की और वस्तुओं की स्वच्छता भी सूचित की गयी है। आन्तरिक शुद्धि पर ही अत्यधिक बल देने के फलस्वरूप हम अपने समाज में बाह्य शुद्धि की सर्वथा उपेक्षा की जाते हुए देखते हैं। वस्त्रों की तथा नगर की स्वच्छता हमारे राष्ट्र में दुर्लभ हो गयी है। यद्यपि हमारे धर्म में साधक के लिए शुद्धि और स्वच्छता इन दोनों को ही अपरिहार्य बताया गया है? तथापि धर्णप्राण भक्तगण भी इनके प्रति उदासीन ही दिखाई देते हैं।अद्रोह अहिंसा का अर्थ है? किसी को भी पीड़ा न पहुँचाना और अद्रोह का अर्थ है मन में कभी हिंसा का भाव न उठना। जैसे? कोई भी व्यक्ति कभी स्वप्न में भी स्वयं को पीड़ित करने का विचार नहीं करता? वैसे ही आत्मैकत्व का बोध प्राप्त पुरुष के मन में किसी के प्रति भी द्रोह की भावना नहीं आती? क्योंकि अन्य को कष्ट देने का अर्थ स्वयं को ही पीड़ित करना है।न अतिमानिता इसका अर्थ है स्वयं की पूजनीयता के विषय में अतिशयोक्ति पूर्ण विचार न रखना। अतिमान के नहीं होने पर मनुष्य स्वयं को तत्काल ही सहस्रों अपरिहार्य उत्तेजनाओं से तथा अनावश्यक उत्तरदायित्वों से मुक्त कर सकता है। गर्वमुक्त पुरुष के लिए जीवन पक्षी के पंख के समान भारहीन होता है? जबकि एक अतिमानी पुरुष के लिए अपना जीवन प्राणदण्ड की शूली के समान बन जाता है? जिसे अत्यन्त कष्टपूर्वक वहन करते हुए उसे चलना पड़ता है? जब कि वह शूली उसके कंधों के मांस को निर्दयतापूर्वक छील रही होती है।उपर्युक्त छब्बीस गुण दैवीसम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति के स्वभाव का पूर्ण चित्रण करते हैं। पूर्णत्व प्राप्ति के सभी इच्छुक साधकों के मार्गदर्शन के रूप में इन गुणों का यहाँ उल्लेख किया गया है। जिस मात्रा में? उपर्युक्त दैवीगुणों के अनुरूप हम अपने जीवन को पुर्नव्यवस्थित करने में सक्षम होते हैं और जीवन की ओर देखने के अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकते हैं? उसी मात्रा में हम अपनी शक्तियों के निष्प्रयोजक व्यय को अवरुद्ध कर उन्हें सुरक्षित रख सकते हैं। इन जीवन मूल्यों का सम्मान करते हुए उन्हें जीने का अर्थ ही सम्यक् जीवन पद्धति को अपनाना है।अब? आसुरी सम्पदा का वर्णन करते हैं
Sri Anandgiri
।।16.3।।दैवीं संपदं प्राप्तस्य विशेषणान्तराण्यपि सन्तीत्याह -- किञ्चेति। व्यावर्त्यं कीर्तयति -- नेति। अध्यात्माधिकारादिति शेषः। क्षमाक्रोधयोरेकार्थत्वेन पौनरुक्त्यमाशङ्क्य परिहरति -- उत्पन्नायामिति। तयोरेवं विशेषादपौनरुक्त्यं फलतीत्याह -- इत्थमिति। वृत्तिविशेषमेव विशदयति -- येनेति। शौचस्य द्वैविध्यमेव प्रकटयति -- मृज्जलेत्यादिना। नैर्मल्यमेव स्फोरयति -- मायेति। उक्तमुपसंहरति -- एवमिति। अतिमानित्वाभावमेव व्यनक्ति -- आत्मन इति। कस्यैतानि विशेषणानीत्यपेक्षायामाह -- भवन्तीति। साधकस्य मनुष्यदेहस्थस्यैव कथं दैवीं संपदमभिलक्ष्य जातत्वमित्याशङ्क्याह -- दैवीति।
Sri Dhanpati
।।16.3।।किंच तेजः प्रागल्भ्यं मूढैरभिभवितुमशक्यत्वम्। सत्यपि विक्रियाकारणाक्रोशादौ विक्रियानुत्पत्तिः क्षमा। उत्पन्नाया विक्रियाया उपशमनक्रोध मूढैरभिभवितुमशक्यत्वम्। सत्यपि विक्रियाकारणाक्रोशादौ विक्रियानुत्पत्तिः क्षमा। उत्पन्नाया विक्रियाया उपशमनक्रोध इत्यक्रोधेनापौनरुक्त्यम्। धृतिर्धैर्यमन्तःकरणस्य वृत्तिविशेषो येनोत्तम्भितानि करणानि देहश्चावसादकारणे सत्यपि नावसीदति। शौचं द्विविधं बाह्यमाभ्यन्तरं च मृज्जलाभ्यां कृतं बाह्यं मायारागादिकालुष्याभावेन मनोबुद्य्धोर्नैर्मल्यमाभ्यन्तरम्। स्वाध्यायादिवद्वाह्यशोचस्यापि सात्त्विकवासनाधीनत्वेन बाह्यं शौचमत्र न ग्राह्यं तस्य शरीरशुद्धिरुपतया बाह्यत्वेनान्तःकरणवासनाशोधकत्वाभावादिति प्रत्युक्तम्। परिजिघांसाभावोऽद्रोहः। आत्मनः पूज्यतातिशयभावनाऽतिमानिता तदभावो नातिमानिता। एतान्यभयादीनि एतदन्तानि सात्त्विकीं सत्त्वप्रधानां दैवीं देवानां संपदमभिलक्ष्य जातस्य दैवीविभूत्यर्हस्य भाविकल्याणस्य भवन्ति। त्वमपि उत्तमवंशोद्भवत्वाद्दैवीं संपदमभिलक्ष्य जातोऽसीति सूचयन्नाह भारतेति।
Sri Madhavacharya
।।16.3।।क्षमा तु क्रोधाभावेन सहापकर्तुरनपकारः।अक्रोधदोषकृच्छत्रोः क्षमावान्स निगद्यते इत्यभिधानात्।
Sri Neelkanth
।।16.3।।किञ्च तेजः प्रागल्भ्यं न तूग्रता। क्षमा आक्रुष्टस्य ताडितस्य वान्तर्विक्रियानुत्पत्तिः। उत्पन्नाया विक्रियायाः प्रशमनमक्रोध इत्युक्तम्। धृतिर्देहेन्द्रियेष्ववसादं प्राप्तेषु तस्य प्रतिषेधकोऽन्तःकरणवृत्तिविशेषो येनोत्तम्भितानि देहादीनि नावसीदन्ति। शौचं द्विविधं मृज्जलाभ्यां बाह्यम्? आन्तरं मनोबुद्ध्योर्नैर्मल्यं मायारागादिकालुष्याभावः। अद्रोहः परजिघांसाया अभावः। नातिमानिता अत्यन्तं मानराहित्यम्। एतानि अभयादीनि दैवीं सत्त्वप्रधानां संपदं अभिलक्ष्य जातस्य स्वभावतो भवन्ति हे भारत।
Sri Ramanujacharya
।।16.3।।तेजः दुर्जनैः अनभिभवनीयत्वम्।क्षमा परनिमित्तपीडानुभवे अपि परेषुं तं प्रति चित्तविकाररहितता।धृतिः महत्याम् अपि आपदि कृत्यकर्तव्यतावधारणम्।शौचं बाह्यान्तःकरणानां कृत्ययोग्यता शास्त्रीया।अद्रोहः परेषु अनुपरोधः परेषु स्वच्छन्दवृत्तिनिरोधरहितत्वम् इत्यर्थः।नातिमानिता अस्थाने गर्वः अतिमानित्वम्? तद्रहितता।एते गुणा दैवीं संपदम् अभिजातस्य भवन्ति। देवसम्बन्धिनी संपत् दैवी देवा भगवदाज्ञानुवृत्तिशीलाः? तेषां संपत्। सा च भगवदाज्ञानुवृत्तिः एव? ताम अभिजातस्य ताम् अभिमुखीकृतस्य जातस्य तां निर्वर्तयितुं जातस्य भवन्ति इत्यर्थः।
Sri Sridhara Swami
।।16.3।।किंच -- तेज इति। तेजः प्रागल्भ्यं? क्षमा परिभवादिषूत्पद्यमानेषु क्रोधप्रतिबन्धः? धृतिर्दुःखादिभिरवसीदतश्चित्तस्य स्थिरीकरणम्? शौचं बाह्याभ्यन्तरशुद्धिः? अद्रोहो जिघांसाराहित्यं? अतिमानिता आत्मन्यतिपूज्यत्वाभिमानस्तदभावो नातिमानिता? एतान्यभयादीनि षड्विंशतिप्रकाराणि दैवीं संपदमभिजातस्य भवन्ति। देवयोग्यां सात्त्विकीं संपदमभिलक्ष्य तदाभिमुख्येन जातस्य भाविकल्याणस्य पुंसो भवन्तीत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।16.3।।भूतेतरविषयस्तेजश्शब्दः पराभिभवनसामर्थ्ये अन्यानपेक्षतायां वा प्रयुज्यते अतोऽत्राभिभावकत्वाविनाभूतमनभिभवनीयत्वं विवक्षितम् तच्च दुर्जनावकाशप्रदायिकार्पण्याभावद्वारेत्यभिप्रायेणाह -- दुर्जनैरिति। अक्रोधात् क्षमाया विशेषं दर्शयति -- परनिमित्तपीडानुभवेऽपीति। निरपराधेषु निर्विकारता ह्यौदासीन्यमात्रम्। न तु क्षमा पठ्यते च निरपराधेष्वपि क्रोधः -- ब्राह्मणा गणिका वैद्याः सारमेयाश्च कुक्कुटाः। दृष्टमात्रेण कुप्यन्ति न जाने तत्र कारणम् इतीत्यभिप्रायः।परेषु तं प्रतीति -- परेषां पीडानुभवं प्रतीत्यर्थः। भयचापलनिवृत्तेः पृथगुक्तत्वादुपस्थितायामपि महत्यामापदि शास्त्रीयानुष्ठानसङ्कल्पस्य अप्रच्युतावलम्बनमिह सात्त्विकी धृतिरित्यभिप्रायेणाह -- महत्यामिति।महत्यापदि सम्प्राप्ते() स्मर्तव्यो भगवान् हरिः [म.भा.2।68।42] इति सुकरमुख्यकर्तव्यापरित्यागादितरदपि कर्तव्यं कृतमेव हि स्यादिति भावः। वक्ष्यति च सात्त्विकीं धृतिंधृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी [18।33] इति। योगेनाव्यभिचारिण्या मोक्षसाधनभूतभगवदुपासनाख्यप्रयोजनेन प्रयोजनान्तरनिरपेक्षयेत्यर्थः। शरीरवाङ्मनांसि ह्यशुचिपुरुषस्पर्शाशुचिद्रव्योपयोगादिभिरुपहतसत्त्वानि तेषुतेषु कर्मस्वयोग्यानि शास्त्रैः शिष्यन्ते। तदभावोऽत्र शौचमित्याहबाह्येति। प्रत्यक्षसिद्धकरणपाटवादिरूपकृत्ययोग्यताव्यवच्छेदायाह -- शास्त्रीयेति। अहिंसाया उक्तत्वादद्रोहस्य ततो विशेषप्रदर्शनायाह -- परेष्वनुपरोध इति। प्रबलेन हि दुर्बलाः स्ववशे स्थापिताः,स्वाच्छन्द्यान्निवार्यन्ते? सोऽयमुपरोधः तदकरणमत्रानुपरोध इत्याह -- स्वच्छन्देति। स्वस्य तु योगोपकारी स्वच्छन्दवृत्तिनिरोधस्तप एव। अतःपरेष्विति विशेषितम्। मानो गर्व इति पर्यायस्तु सामान्यत इह निषेद्धुमिष्टः तथापि वंशवीर्यश्रुताद्यनुगुणं मात्रया भवन्नसौ सह्येतापि अन्यथा भवन्नसुराणां धर्मतया वक्ष्यमाणोऽत्र न प्रसङ्गमर्हतीत्यभिप्रायेण सोपसर्गमाननिषेध इत्याह -- अस्थाने गर्व इति।दैवीं सम्पदम् इत्युक्ते देवानां विभूतिः प्रतीयेत सा चात्र नान्वेति अतोऽभिप्रेतमवतारयितुं व्युत्पत्तिं तावदाह -- देवसम्बन्धिनीति।सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ इति विभागात्?सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानम् [14।17] इति सत्त्वस्यानुष्ठानपर्यन्तज्ञानहेतुत्वाच्च सत्त्वोत्तरत्वादेव भगवदाज्ञां नातिवर्तन्ते तदादावेवाह -- भगवदाज्ञानुवृत्तिशीला इति। सैव च तेषां सम्पदभिमता। अविवेकिनां भोग्यतत्साधनसमृद्धिवत्तेषां भगवदाज्ञानुवृत्तेः प्रीतिविषयत्वात्परमपुरुषार्थहेतुत्वाच्चेत्याह -- सा चेति। उक्तं चमहात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् [9।13] इति। अन्यत्र चविष्णुभक्तिपरो देवः [वि.ध.109।74अ.पु.373।12] इति। जातस्येत्यकर्मकस्य जायतेः पतत्यादिष्विवोपसर्गवशाद्द्वितीयान्वयमाह -- तामभिमुखीकृत्येति।अभिरभागे [अष्टा.1।4।91] इति कर्मप्रवचनीययोगाद्वा द्वितीया।अभिमुखीकृत्य अभिलक्ष्य यथा दैवी सम्पद्भवति? तथा कृत्वा जातस्येति यावत्। ईदृशगुणयुक्तानामेवंविधायाः सम्पदोऽवश्यम्भावित्वमत्र अभिमुखीकरणं विवक्षितम्। तथा च स्मर्यते -- जायमानं हि पुरुषं यं पश्येन्मधुसूदनः। सात्त्विकः स तु विज्ञेयः स वै मोक्षार्थचिन्तकः इति। तदिदमाह -- तां निर्वर्तयितुं जातस्येति।,
Sri Abhinavgupta
।।16.1 -- 16.5।।एतद्बुद्ध्वा इत्युक्तम्। बोधश्च नाम श्रुतिमयज्ञानान्तरम् (S श्रुत -- ) इदमित्थम् इत्येवंभूतयुक्तिचिन्ताभावनामयज्ञानोदेयेन (S??N चिन्तामयज्ञानोदयेन) विचारविमर्शपरमर्शादिरूपेण विजातीयन्यक्कारविरहिततद्भावनामयस्वभ्यस्ताकारविज्ञानलाभे सति भवति। यद्वक्ष्यते (S तद्वक्ष्यते N तद्वक्ष्यति) -- विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसी तथा कुरु (XVIII? 63) इति। तत्र श्रुतिमये ज्ञाने गुरुशास्त्रे एव प्राधान्येन प्रभवतः युक्तिचिन्ताभावनामये तु विमर्शक्षमता असाधारणा शिष्यगुणसंपत् ( -- रणशिष्य -- ) प्रधानभूता। अतः अर्जुनस्यास्त्येवासौ इत्यभिप्रायेण वक्ष्यमाणं विमृश्यैतत् इति वाक्यं सविषयं कर्तुं परिकरबन्धयोजनाभिप्रायेण आह भगवान् गुरुः अभयम् इत्यादि।आसुरभागसन्नविष्टा तामसी किल अविद्या। सा प्रवृद्धया दिव्यांशग्राहित्या विद्यया बाध्यते ( प्रवृद्धाया -- विद्याया बध्यते) इति वस्तुस्वभाव एषः। त्वं च विद्यात्मानं दिव्यमंशं सात्त्विकमभिप्रपन्नः तस्मादान्तरीं मोहलक्षणामविद्यां विहाय बाह्याविद्यात्मशत्रुहननलक्षणं (S बाह्यविद्या) शास्त्रीयव्यापारम् अनुतिष्ठ इत्यध्यायारम्भः।तथाहि -- अभयमित्यादि पाण्डवेत्यन्तम्। दिव्यांशस्य इमानि चिह्नानि तानि स्फुटमेवाभिलक्ष्यन्ते (S? स्फुटमेवोपलक्ष्यन्ते)। दमः (S omits दमः) इन्द्रियजयः। चापलं पूर्वापरमविमृश्य यत् करणम्? तदभावः अचापलम्। तेजः आत्मनि उत्साहग्रहणेन मितत्वापाकरणम्। दैवी संपदेषा। सा च तव विमोक्षाय? कामनापरिहारात्। अतस्त्वं शोकं मा प्रापः -- यथा भ्रात्रादीन् हत्वा सुखं कथमश्नुवीय इति। शिष्टं स्पष्टम्।
Sri Jayatritha
।।16.3।।अक्रोधः [16।2] इत्युक्तत्वात् क्षमेति पुनरुक्तिरित्यत आह -- क्षमा त्विति। क्रोधं दोषं अपकारं च न करोतीत्यक्रोधदोषकृत्। शत्रोरपकर्तुः।
Sri Purushottamji
।।16.3।।तेजो भगवत्कृपाप्रागल्भ्येनाधृष्यत्वम्? क्षमा विद्यमाने सामर्थ्ये परिभवादिषु क्रोधानुत्पत्तिः? धृतिः लौकिकालौकिकदुःखादिषु चित्तस्थैर्यम्? शौचं स्नानादिभगवत्स्मरणादिना च बाह्याभ्यन्तरशुद्धिः? अद्रोहः परानिष्टचिन्तनाभावः? अतिमानिता आत्मनि सर्वाधिक्यज्ञानं तदभावो नातिमानिता। एतानि सर्वाणि दैवीं भगवत्क्रीडौपयिकीं सात्त्विकीं सम्पदमभिजातस्य भगवदाभिमुख्येन भगवत्कृपया तस्य भवन्ति। एतद्धर्मवत्त्वे भगवदाभिमुख्यं ज्ञेयमिति भावः। भारतेति विश्वासार्थं सम्बोधनम्।
Sri Shankaracharya
।।16.3।। --,तेजः प्रागल्भ्यं न त्वग्गता दीप्तिः। क्षमा आक्रुष्टस्य ताडितस्य वा अन्तर्विक्रियानुत्पत्तिः? उत्पन्नायां विक्रियायाम् उपशमन् अक्रोधः इति अवोचाम। इत्थं क्षमायाः अक्रोधस्य च विशेषः। धृतिः देहेन्द्रियेषु अवसादं प्राप्तेषु तस्य प्रतिषेधकः अन्तःकरणवृत्तिविशेषः? येन उत्तम्भितानि करणानि देहश्च न अवसीदन्ति। शौचं द्विविधं मृज्जलकृतं बाह्यम् आभ्यन्तरं च मनोबुद्ध्योः नैर्मल्यं मायारागादिकालुष्याभावः एवं द्विविधं शौचम्। अद्रोहः परजिघांसाभावः अहिंसनम्। नातिमानिता अत्यर्थं मानः अतिमानः? सः यस्य विद्यते सः अतिमानी? तद्भावः अतिमानिता? तदभावः नातिमानिता आत्मनः पूज्यतातिशयभावनाभाव इत्यर्थः। भवन्ति अभयादीनि एतदन्तानि संपदं अभिजातस्य। किं विशिष्टां संपदम् दैवीं देवानां या संपत् ताम् अभिलक्ष्य जातस्य देवविभूत्यर्हस्य भाविकल्याणस्य इत्यर्थः? हे भारत।।अथ इदानीं आसुरी संपत् उच्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।16.1 -- 16.3।।पूर्वाध्यायेयो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् [15।19] इत्युक्तं? तत्रबुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः इत्युक्तत्वादसम्मूढस्य दैवत्वं? तदितरस्य चासुरत्वमिति विभजन् पूर्वं दैवीं सम्पदमाह त्रिभिः श्रीभगवान् -- अभयमिति। एते षड्विंशतिगुणाः दैवीं सम्पदमभिजातस्य भवन्ति? देवसम्बन्धिनी दैवी। देवा भगवद्वचनानुवर्त्तिर्धमशीलास्तेषां सम्पत्साधनरूपा सामग्री सृष्टिर्वा? सा च भगवन्निगमधर्मानुवर्त्तिकैव? तामभिजातस्य दैवजीवस्य भवन्तीत्यर्थः।
Swami Sivananda
16.3 तेजः vigour? क्षमा forgiveness? धृतिः fortitude? शौचम् purity? अद्रोहः absence of hatred? नातिमानिता absence of overpride? भवन्ति belong? सम्पदम् state? दैवीम् divine? अभिजातस्य to the one born for? भारत O descendant of Bharata (Arjuna).Commentary Tejas Vigour? energy? brilliance or lustre of the skin. The aspirant who is bent on attaining salvation marches boldly on the spiritual path. Nothing can tempt him or slacken his progress. This unbroken progress towards the realisation of the Self or the Absolute is lustre. It overcomes the downward pull of Tamas.Kshama Forgiveness. He who is endowed with this virtue does not exhibit anger even when he is insulted? ruked or beaten? although he is strong enough to take vengeance. He is unaffected by the insult or injury.Dhriti The sage absorbs within himself all calamities. He is steadfast even when he is in very adverse and trying conditions this is a particular Sattvic Vritti or state of mind which removes depression or exhaustion of the body and senses when they sink down. An aspirant who is endowed with this divine attribute never gets disheartened? even when he is under severe trials and difficulties or tribulations. Dhriti is a divine pickmeup (tonic) when the body and the senses are in a state of low spirits or dejection.Saucham Purity. This is of two kinds? viz.? external and internal. External purity is achieved by means of earth and water. The mind and heart (intellect) are freed from Maya (deception? lust? anger? greed? pride? jealousy? hypocrisy? likes and dislikes) by the practice of celibacy? forgiveness? friendliness? charity? humility? nobilit? love? complacency? compassion? etc. -- this is internal purity. This is more important than external purity.Adroha Absence of hatred? absence of desire to injure others.Atimanita is great pride. A proud man thinks that he is superior to others and that he is worthy of being honoured by others. Naatimanita is the opposite of this ality.Tejas? Kshama and Dhriti are the special alities or Dharmas of the Kshatriyas (warrior class). These are the Sattvic alities of Kshatriyas. Saucham and Adroha are the special Dharmas of the Vaisyas. They are the Sattvic alities of the Vaisyas (merchant class). Absence of pride is the special Dharma of the Sudras (servant class). It is a Sattvic ality that belongs to the Sudras.The divine wealth or Daivi Sampat consists of twentysix attributes. This is a rare gift from the Lord. This is an inexhaustible wealth which cannot be taken away by dacoits. This helps the aspirant attain the imperishable and immacultate Brahmic seat. It is the shortcut to the realm of eternal bliss or Moksha.