Chapter 16, Verse 22
Verse textएतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।16.22।।
Verse transliteration
etair vimuktaḥ kaunteya tamo-dvārais tribhir naraḥ ācharaty ātmanaḥ śhreyas tato yāti parāṁ gatim
Verse words
- etaiḥ—from this
- vimuktaḥ—freed
- kaunteya—Arjun, the son of Kunti
- tamaḥ-dvāraiḥ—gates to darkness
- tribhiḥ—three
- naraḥ—a person
- ācharati—endeavor
- ātmanaḥ—soul
- śhreyaḥ—welfare
- tataḥ—thereby
- yāti—attain
- parām—supreme
- gatim—goal
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
O son of Kunti! A man who has deserted these three gates of darkness does what is good for his Self and thereby reaches the highest goal.
Shri Purohit Swami
These are the gates that lead to darkness; if one avoids them, they will ensure their own welfare and eventually attain liberation.
Swami Ramsukhdas
।।16.22।।हे कुन्तीनन्दन ! इन नरकके तीनों दरवाजोंसे रहित हुआ जो मनुष्य अपने कल्याणका आचरण करता है, वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
Swami Tejomayananda
।।16.22।। हे कौन्तेय ! नरक के इन तीनों द्वारों से विमुक्त पुरुष अपने कल्याण के साधन का आचरण करता है और इस प्रकार परा गति को प्राप्त होता है।।
Swami Adidevananda
One who has been released from these three gates of darkness, O Arjuna, works for the benefit of the self; thus, they reach the supreme state.
Swami Gambirananda
O son of Kunti, a person who is free from these three doors to darkness strives for the good of the soul; thereby, they attain the highest Goal.
Swami Sivananda
A person who is liberated from these three gates of darkness, O Arjuna, practices what is beneficial for them and thus goes to the Supreme Goal.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।16.22।।त्यागे च विशिष्टं फलमाह -- एतैर्नरकद्वारभूतैरित्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।16.22।। व्याख्या -- एतैर्विमुक्तः कौन्तेय ৷৷. ततो याति परां गतिम् -- पूर्वश्लोकमें जिनको नरकका दरवाजा बताया गया है? उन्हीं काम? क्रोध और लोभको यहाँ तमोद्वार कहा गया है। तम् नाम अन्धकारका है? जो अज्ञानसे उत्पन्न होता है -- तमस्त्वज्ञानजं विद्धि (गीता 14। 8)। तात्पर्य है कि इन काम आदिके,कारण मेरे साथ ये धनसम्पत्ति? स्त्रीपुरुष? घरपरिवार आदि पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे और अब भी इनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है अतः इनमें ममता करनेसे आगे मेरी क्या दशा होगी आदि बातोंकी तरफ दृष्टि जाती ही नहीं अर्थात् बुद्धिमें अन्धकार छाया रहता है। अतः इन काम आदिसे मुक्त होकर जो अपने कल्याणका आचरण करता है? वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। इसलिये साधकको इस बातकी विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि वह काम? क्रोध और लोभ -- तीनोंसे सावधान रहे। कारण कि इन तीनोंको साथमें रखते हुए जो साधन करता है? वह वास्तवमें असली साधक नहीं है। असली साधक वह होता है? जो इन दोषोंको अपने साथ रहने ही नहीं देता। ये दोष उसको हर समय खटकते रहते हैं क्योंकि इनको साथमें रहनेका अवसर देना ही बड़ी भारी गलती है।मनुष्य साधनकी तरफ तो ध्यान देते हैं? पर साथमें जो कामक्रोधादि दोष रहते हैं? उनसे हमारा कितना अहित होता है -- इस तरफ वे ध्यान कम देते हैं। इस कमीके कारण ही साधन करते हुए सदाचार भी होते रहते हैं और दुराचार भी होते रहते हैं सद्गुण भी आते हैं और दुर्गुण भी साथ रहते हैं। जप? ध्यान? कीर्तन? सतसङ्ग? स्वाध्याय? तीर्थ? व्रत आदि करके हम अपनेको शुद्ध बना लेंगे -- ऐसा भाव साधकमें विशेष रहता है परन्तु जो हमें अशुद्ध कर रहे हैं? उन दुर्गुणदुराचारोंको हटानेका खयाल साधकमें कम रहता है? इसलिये --,आसुप्तेरामृते कालं नयेद् वेदान्तचिन्तया। न वा दद्यादवसरं कामादीनां मनागपि।।नींद खुलनेसे लेकर नींद आनेतक और जिस दिन पता लगे? उस दिनसे लेकर मौत आनेतक -- सबकासब समय परमात्मतत्त्वके (सगुणनिर्गुणके) चिन्तनमें ही लगाये। चिन्तनके सिवाय काम आदिको किञ्चिन्मात्र भी अवसर न दे।एतैर्विमुक्तः का यह मतलब नहीं है कि जब हम दुर्गुणदुराचारोंसे सर्वथा छूट जायँगे? तब साधन करेंगे किंतु साधकको भगवत्प्राप्तिका मुख्य उद्देश्य रखकर इनसे छूटनेका भी लक्ष्य रखना है। कारण कि झूठ? कपट? बेईमानी? काम? क्रोध आदि हमारे साथमें रहेंगे? तो नयीनयी अशुद्धि -- नयेनये पाप होते रहेंगे? जिससे साधनका साक्षात् लाभ नहीं होगा। यही कारण है कि वर्षोंतक साधनमें लगे रहनेपर भी साधक अपनी वास्तविक उन्नति नहीं देखते? उनको अपनेमें विशेष परिवर्तनका अनुभव नहीं होता। इन दोषोंसे रहित होनेपर शुद्धि स्वतःस्वाभाविक आती है। जीवमें अशुद्धि तो संसारकी तरफ लगनेसे ही आयी है? अन्यथा परमात्माका अंश होनेसे वह तो स्वतः ही शुद्ध है -- ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।(मानस 7। 117। 1)श्रेयः आचरति का तात्पर्य यह है कि काम? क्रोध और लोभ -- इनमेंसे किसीको भी लेकर आचरण नहीं होना चाहिये अर्थात् असाधन(निषिद्ध आचरण) से रहित शुद्ध साधन होना चाहिये। भीतरमें कभी कोई वृत्ति आ भी जाय? तो उसको आचरणमें न आने दे। अपनी तरफसे तो (काम? क्रोधादिकी) वृत्तियोंको दूर करनेका ही उद्योग करे। अगर अपने उद्योगसे न दूर हों तो हे नाथ हे नाथ हे नाथ ऐसे भगवान्को पुकारे। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं -- मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा।। अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा।।(विनयपत्रिका 125। 2 -- 3) सम्बन्ध -- जो अपने कल्याणके लिये शास्त्रविधिके अनुसार चलते हैं? उनको तो परमगतिकी प्राप्ति होती है? पर जो ऐसा न करके मनमाने ढङ्गसे आचरण करते हैं? उनकी क्या गति होती है -- यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।16.22।। जो साधकगण काम? क्रोध और लोभ से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं? वे वास्तव में अभिनन्दन के पात्र हैं। भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें आश्वासन देते हैं कि इन अवगुणों के त्याग से उन्हें परम लक्ष्य की प्राप्ति होगी। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए मानसिक और बौद्धिक शक्तियों की आवश्यकता होती है? जो प्राय इन कामादि अवगुणों के कारण व्यर्थ ही क्षीण होती है। इसलिए नरक के इन त्रिविध द्वारों को त्यागने का उपदेश यहाँ दिया गया है। यही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है।श्रेयस् शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता। संस्कृत के इस शब्द का आशय गंभीर और व्यापक है। श्रेयमार्ग के आचरण से न केवल साधक का ही कल्याण होता है? अपितु अपने आसपास के समाज के कल्याण में भी वह सहायक होता है।इस प्रकार सही दिशा में उन्नति करता हुआ साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास कोई एक दिन में घटने वाली आकस्मिक घटना नहीं है। जिस प्रकार? एक फूल की कली शनै शनै खिलती जाती है? उसी प्रकार? अनुशासन? अध्ययन एवं सन्मार्ग के आचरण से पूर्णत्व की प्राप्ति तक का विकास शनै शनै होता है। फूल के विकास की अपेक्षा आत्मविकास कहीं अधिक नाजुक है।इस श्लोक में अवगुणों का त्याग से परा गति की प्राप्ति कही गयी है। परन्तु यहाँ पूछा जा सकता है कि त्याग के द्वारा योग (प्राप्ति) कैसे हो सकता है कुभोजन के त्याग मात्र से पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति कैसे संभव है भगवान् कहते हैं कि जो पुरुष इन अवगुणों का त्याग करता है? वह फिर? स्वाभाविक ही अपने आत्मकल्याण के मार्ग का भी अनुसरण करता है? जिसके फलस्वरूप उसे पूर्णत्व की प्राप्ति होती है।आसुरी सम्पदा के त्याग तथा श्रेय साधन के आचरण का उपाय धर्मशास्त्र में ही बताया गया है। इसलिए? शास्त्रों का अध्ययन करके तदनुसार आचरण ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है? परन्तु
Sri Anandgiri
।।16.22।।न केवलं श्रेयः समाचरन्नासुरीं च संपदं वर्जयन्मोक्षमेव सम्यग्धीद्वारा लभते किंतु लौकिकमपि सुखमित्यपेरर्थः।
Swami Sivananda
16.22 एतैः from these? विमुक्तः liberated? कौन्तेय O Kaunteya? तमोद्वारैः gates to darkness? त्रिभिः (by) three? नरः the man? आचरति practises? आत्मनः for him? श्रेयः what is good? ततः and then? याति goes to? पराम् the Supreme? गतिम् Goal.Commentary When these gates to hell are abandoned? the path to salvation is made clear for the aspirant. He gets the company of sages? which leads to liberation. He gets spiritual instructions and practises them. He hears the scriptures? reflects? meditates and attains Selfrealisation.Tamodvara Gate to darkness leading to hell which is full of pain and delusion.
Sri Dhanpati
।।16.22।।एतैर्विमुक्तो लौकिकसुखोपभोगपूर्विकां परां गतिं यातीत्याह। एतैः कामादिभिस्त्रिभिस्तमसो नरकस्य दुःखमोहात्मकस्य द्वारैः श्रेयःप्रवृत्ति प्रतिबन्धकैर्विमुक्तो नर आत्मनः श्रेयः साधनं मदाराधनादिकं आचरत्यनुतिष्ठति। ततस्तदाचरणात् लौकिकसुखं भुक्त्वा परा गतिं मोक्षमपि याति गच्छति। यः कामादिभिर्विमुक्तः स एव नरः सार्थकनरजन्मा च इतरे पशवो निरर्थकनरजन्मानश्चेति सूचयितुं नर इत्युक्तम्। त्वं तु कामादिविनिर्मुक्तायाः कुन्त्याः पुत्रत्वाक्तैर्विमुक्तः सन लौकिकं सुखं भुक्त्वा परां गतिं गन्तुं योग्योऽसीते द्योतयन्नाह कौन्तेयेति।
Sri Neelkanth
।।16.22।।कामादित्रयत्यागे किं स्यादत आह -- एतैरिति। तमोद्वारैः तमसो नरकस्य दुःखमोहात्मकस्य द्वारभूतैर्विमुक्तः सन्। आत्मनः श्रेयः कल्याणं भगवदाराधनादिकमाचरति। ततः परां गतिं मोक्षं याति तस्मात्कामादित्रयं त्यजेदिति।
Sri Ramanujacharya
।।16.22।।एतैः कामक्रोधलोभैः तमोद्वारैः मद्विपरीतज्ञानहेतुभिः विमुक्तः नर आत्मनः श्रेय आचरति। लब्धमद्विषयज्ञानो मदानुकूल्ये प्रवर्तते ततो माम् एव परां गतिं याति।शास्त्रानादरः अस्य नरकस्य प्रधानहेतुः इति आह --
Sri Sridhara Swami
।।16.22।।त्यागे च विशिष्टफलमाह -- एतैरिति। तमसो नरकस्य द्वारभूतैरेतैस्त्रिभिः कामादिभिर्विमुक्तो नरः आत्मनः श्रेयःसाधनं तपोयोगादि कर्माचरति ततश्च मोक्षं प्राप्नोति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।16.22।।त्याज्यस्य दोषोक्त्या त्यागो विहितः त्यागस्यैवेदानीं फलप्रवाह उच्यतेएतैः इति श्लोकेन।मद्विपरीतज्ञानहेतुभिरिति तमःफलोक्तिः तमश्शब्दो वाऽत्र तत्पर्यन्तलक्षकः तमोद्वारैर्विमुक्तत्वात्तमसाऽपि विमुच्यते श्रेयश्चरणं च तत्त्वज्ञानपूर्वकमित्यभिप्रायेणाऽऽहलब्धमद्विषयज्ञान इति।श्रेय आचरतीत्यनेन प्रागुक्तभगवत्प्रद्वेषादिनिवृत्तिर्विवक्षिता। श्रेयः प्रशस्तं तच्च सङ्ग्रहाद्भगवदानुकूल्यं? तदनुप्रवेशात्सर्वस्य शास्त्रीयस्येत्यभिप्रायेणाऽऽहमदानुकूल्य इति। ततः श्रेयश्चरणादेव हेतोरित्यर्थः।मामप्राप्यैव [16।24] इत्यादिपरामर्शादिह परगतिशब्दनिर्दिष्टः प्राप्यपर्यवसानभूमिः परमपुरुष इत्याह -- मामेव परां गतिमिति।
Sri Abhinavgupta
।।16.21 -- 16.22।।त्रिविधमिति। एतैरिति। यत कामादिकं त्रयं (N त्रितयम्) नरकस्य द्वारं? तस्मात् एतत् त्यज़ेत्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।16.22।।एतत्त्रयं त्यजतः किं स्यादिति तत्राह -- एतैरिति। एतैः कामक्रोधलोभैस्त्रिभिस्तमोद्वारैर्नरकसाधनैर्विमुक्तो विरहितः पुरुष आचरत्यात्मनः श्रेयो यद्धितं वेदबोधितं हे कौन्तेय? पूर्वं हि कामादिप्रतिबद्धः श्रेयो नाचरति येन पुरुषार्थः सिध्येत् अश्रेयश्चाचरति येन निरयपातः स्यात्? अधुना तत्प्रतिबन्धरहितः सन्नश्रेयो नाचरति श्रेयश्चाचरति तत ऐहिकं सुखमनुभूय सम्यग्धीद्वारा याति परां गतिं मोक्षम्।
Sri Purushottamji
।।16.22।।तत्सङ्गत्यागेन तत्ित्रतयरहितः स्यादित्याह -- एतैरिति। कौन्तेय सत्सङ्गगुणसम्पन्न तत्तत्सङ्गत्यागे एतैस्त्रिभिस्तमोद्वारैर्विमुक्तो नरः आत्मनः श्रेयो भजनादिकमाचरति? ततस्तेन परां गतिं याति प्राप्नोति।
Sri Shankaracharya
।।16.22।। --,एतैः विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैः तमसः नरकस्य दुःखमोहात्मकस्य द्वाराणि कामादयः तैः? एतैः त्रिभिः विमुक्तः नरः आचरति अनुतिष्ठति। किम् आत्मनः श्रेयः। यत्प्रतिबद्धः पूर्वं न आचचार? तदपगमात् आचरति। ततः तदाचरणात् याति परां गतिं मोक्षमपि इति।।सर्वस्य एतस्य आसुरीसंपत्परिवर्जनस्य श्रेयआचरणस्य च शास्त्रं कारणम्। शास्त्रप्रमाणात् उभयं शक्यं कर्तुम्? न अन्यथा। अतः --,