Chapter 4, Verse 10
Verse textवीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4.10।।
Verse transliteration
vīta-rāga-bhaya-krodhā man-mayā mām upāśhritāḥ bahavo jñāna-tapasā pūtā mad-bhāvam āgatāḥ
Verse words
- vīta—freed from
- rāga—attachment
- bhaya—fear
- krodhāḥ—and anger
- mat-mayā—completely absorbed in me
- mām—in me
- upāśhritāḥ—taking refuge (of)
- bahavaḥ—many (persons)
- jñāna—of knowledge
- tapasā—by the fire of knowledge
- pūtāḥ—purified
- mat-bhāvam—my divine love
- āgatāḥ—attained
Verse translations
Swami Sivananda
Freed from attachment, fear, and anger, absorbed in Me, taking refuge in Me, purified by the fire of knowledge, many have attained My Being.
Shri Purohit Swami
Many have merged their existences in Mine, being freed from desire, fear, and anger, always filled with Me and purified by the illuminating flame of self-abnegation.
Swami Ramsukhdas
।।4.10।। राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित, मेरेमें ही तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे भाव- (स्वरूप-) को प्राप्त हो चुके हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.10।। राग भय और क्रोध से रहित मनमय मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रुप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरुप को प्राप्त हुए हैं।।
Swami Adidevananda
Freed from desire, fear, and wrath, absorbed in Me, depending upon Me, purified by the austerity of knowledge, many have attained My state.
Swami Gambirananda
Many who were devoid of attachment, fear, and anger, who were absorbed in Me, who had taken refuge in Me, and were purified by the austerity of knowledge, have attained My state.
Dr. S. Sankaranarayan
Many persons, who are free from passion, fear, and anger; are full of Me; take refuge in Me; and have become pure through the austerity of wisdom—they have come to My being.
Verse commentaries
Sri Abhinavgupta
।।4.10।।वीतेति। तथा चैवं विदन्तो मन्मयत्वात् परिपूर्णच्छत्वात् क्रोधादिरहिताः निष्फलं कर्म करणीयं कुर्वाणाः बहवो मत्स्वरूपमवाप्ताः।
Swami Ramsukhdas
4.10।। व्याख्या--'वीतरागभयक्रोधाः'--परमात्मासे विमुख होनेपर नाशवान् पदार्थोंमें 'राग' हो जाता है। रागसे फिर प्राप्तमें 'ममता' और अप्राप्तकी कामना उत्पन्न होती है। रागवाले (प्रिय) पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर तो 'लोभ' होता है, पर उनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचनेपर (बाधा पहुँचानेवालेपर) 'क्रोध' होता है। यदि बाधा पहुँचानेवाला व्यक्ति अपनेसे अधिक बलवान् हो और उसपर अपना वश न चल सकता हो तथासमयपर वह हमारा अनिष्ट कर देगा--ऐसी सम्भावना हो तो 'भय' होता है। इस प्रकार नाशवान् पदार्थोंके रागसे ही भय, क्रोध, लोभ, ममता, कामना आदि सभी दोषोंकी उत्पत्ति होती है। रागके मिटनेपर ये सभी दोष मिट जाते हैं। पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर, दूसरोंका और दूसरोंके लिये मानकर उनकी सेवा करनेसे राग मिटता है। कारण कि वास्तवमें पदार्थ और क्रियासे हमारा सम्बन्ध है ही नहीं।अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी भगवान् केवल हमारे कल्याणके लिये ही अवतार लेते हैं। कारण कि वे प्राणीमात्रके परम सुहृद् हैं और उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ मात्र जीवोंके कल्याणके लिये ही होती हैं। इस प्रकार भगवान्की परम सुहृत्तापर दृढ़ विश्वास होनेसे भगवान्में आकर्षण हो जाता है। भगवान्में आकर्षण होनेसे संसारका आकर्षण (राग) स्वतः मिट जाता है। जैसे, बचपनमें बालकोंका कंकड़-पत्थरोंमें आकर्षण होता है और उनसे वे खेलते हैं। खेलमें वे कंकड़-पत्थरोंके लिये लड़ पड़ते हैं। एक कहता है कि यह मेरा है और दूसरा कहता है कि यह मेरा है। इस प्रकार गलीमें पड़े कंकड़-पत्थरोंमें ही उन्हें महत्ता दीखती है। परन्तु जब वे बड़े हो जाते हैं ,तब कंकड़-पत्थरोंमें उनका आकर्षण मिट जाता है और रुपयोंमें आकर्षण हो जाता है। रुपयोंमें आकर्षण होनेपर उन्हें कंकड़पत्थरोंमें अथवा खिलौनोंमें कोई महत्ता नहीं दीखती। ऐसे ही जब मनुष्यकी परमात्मामें लगन लग जाती है तब उसके लिये संसारके रुपये और सब पदार्थ आकर्षक न रहकर फीके पड़ जाते हैं। उसका संसारमें आकर्षण या राग मिट जाता है। राग मिटते ही भय और क्रोध दोनों मिट जाते हैं क्योंकि ये दोनों रागके ही आश्रित रहते हैं।
Swami Chinmayananda
।।4.10।। इस श्लोक में अध्यात्म साधना एवं साध्य दोनों को ही स्पष्टरूप से बताया गया है किसी भी साधक के लिये राग और उसके कार्यों का त्याग किये बिना कोई उन्नति करना संभव नहीं क्योंकि वे सदैव उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं। एक बार मन इनसे उत्पन्न विक्षेपों से रहित होकर शान्त और स्थिरचित्त हो जाता है तब पूर्णत्व की स्थिति उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य होती है जो उसे आगे बढ़ने के लिये उत्साहित करती है। आत्मविकास की इस स्थिति पर पहुँचने पर उस साधक को शास्त्राध्ययन की योग्यता प्राप्त होती है।उपनिषदों में वर्णित आत्मप्राप्ति की साधना इस प्रकार है (क) गुरु के चरणों के पास बैठकर वेदान्त का श्रवण (ख) श्रवण किये हुए विषय पर युक्ति पूर्वक मनन और (ग) इस प्रकार जाने हुए आत्मतत्त्व का निदिध्यासन अर्थात् ध्यान। वेदान्त के सिद्धान्त का अध्ययन और उस ज्ञान के अनुसार जीवन में आचरण करने को ही इस श्लोक में ज्ञानतप कहा गया।कुछ व्याख्याकारों के मतानुसार इस श्लोक में कर्म भक्ति एवं ज्ञान इन तीनों योगों के समुच्चय का उपदेश दिया गया है। कैसे उनके अनुसार कर्मयोग की भावना से अपने कार्य क्षेत्र में कर्म किये बिना राग भय और क्रोध निवृत्ति नहीं हो सकती। मन्मया और मामुपाश्रिता अर्थात् मुझमें स्थित और मेरे शरण हुए इन शब्दों में भक्तियोग का संकेत है क्योंकि ईश्वर की शरण में गया हुआ भक्त भगवान् के साथ में एकरूप हो जाता है। आत्मानात्मविवेक करके आत्मा के साथ तादात्म्य रखने के प्रयत्न को ज्ञानयोग कहते हैं जिसे यहाँ ज्ञानतप कहा गया है। इन सबका निष्कर्ष यह है कि भिन्नभिन्न प्रतीत होने वाले साधना मार्गों का अनुसरण करने पर साघकगण मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं।वास्तव में देखा जाय तो ये समस्त साधनामार्ग मन को साधन सम्पन्न बनाने के लिये ही हैं जिसे शास्त्रीय भाषा में अन्तकरण शुद्धि कहते हैं। हममें से कुछ लोगों का अपनी देह के साथ अत्यधिक तादात्म्य होता है। कुछ व्यक्ति अधिक भावुक होते हैं तो अन्य लोग बुद्धिवादी। इन सबके लिये एक ही प्रकार के साधन का उपदेश करने पर इस बात की सम्भावना रहती है कि उसे सार्वभौमिक स्वीकृति न मिले तथा सबके लिये उसकी उपयोगिता सिद्ध न हो सके।यह स्पष्ट है कि साधना मार्गों में विविधता होने पर भी सभी साधकों का आत्मानुभव एक ही है। यह एक विवादरहित तथ्य है क्योंकि विश्व के आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रत्येक सन्त ने अपने पूर्वकालीन साहित्य से विचारों को लेकर उनकी नयी प्रति प्रस्तुत कर दी हो इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् रागद्वेषवान् हैं क्योंकि वे किसी को मोक्ष प्रदान करते हैं और अन्यों को नहीं। इस पर कहते हैं
Sri Anandgiri
।।4.10।।संप्रति प्रस्तुतमोक्षमार्गस्य नूतनत्वेनाव्यवस्थितत्वमाशङ्क्य परिहरति नैष इति। मन्मयत्वस्य मद्भावगमनेनापौनरुक्त्यं दर्शयति ब्रह्मविद इति। आत्मनो भिन्नत्वेन भिन्नाभिन्नत्वेन वा ब्रह्मणो वेदनं व्यावर्तयति ईश्वरेति। अभेददर्शनेन समुच्चित्य कर्मानुष्ठानं प्रत्याचष्टे मामेवेति। तदुपाश्रयत्वमेवविशदयति केवलेति। मामुपाश्रिता इति केवलज्ञाननिष्ठत्वमुक्त्वा ज्ञानतपसा पूता इति किमर्थं पुनरुच्यते तत्राह इतरेति।
Sri Jayatritha
।।4.10।।किं चोत्तरश्लोकेऽधिकानुवादान्नात्रैतावन्मात्रं विवक्षितमिति भावेन तात्पर्यमाह सन्ति चेति। तथोक्तज्ञानेन आह श्रद्धोत्पादनार्थमिति शेषः। मन्मया मदात्मका इति प्रतीनिरासार्थमाह मन्मया इति। सर्वेषां भगवान् प्रचुरः को विशेषो ज्ञानिना इत्यत आह सर्वत्रेति। सर्वेषु पदार्थेषु किञ्चित्सत्तादिकम्। मदायत्तमेव सर्वे पश्यन्तीत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।4.10।।अस्य मोक्षर्मागस्याधुनिकत्वं वारयति वीतेति। रागो विषयेषु रञ्जनात्मकश्िचत्तवृत्तिविशेषः विषयत्यागान्नाशाच्च भयम् विषयप्राप्तौ विघ्नकर्तुषु ताडनाक्रोशनादिकर्तृषु च क्रोधः। वीता विगता रागादयो येभ्यस्ते अतएव मन्मया ईश्वराभेददर्शिनः। कर्मानुष्ठानसहभावं वारयति। मामेव परमेश्वरमुपाश्रिताः। केवलज्ञाननिष्ठा इत्यर्थः। तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशादिति न्यायात् इतरकर्मानपेक्षाः। केवलज्ञाननिष्ठा मुच्यन्त इति ज्ञापयन् विशिनष्टि। बहवोऽनेके ज्ञानमेव तपः तेन पूताः परां शुद्धिं गताः पूर्वेषामघानां नाशादुत्तरेषामसंबाधाच्चतदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्य्वपदेशात् इति न्यायात्। मद्भावं ब्रह्मभावं मोक्षं प्राप्ताः। यत्तु मन्मयाः मदेकचित्ताः मामुपाश्रिता एकान्तभक्त्या मामीश्वरं शरणं गताः सन्तो मत्प्रसादलभ्यं यदात्मज्ञानं तपश्च तत्परिपाकहेतुः स्वधर्मस्तयोः। द्वन्द्वैकवद्भावः। तेन पूताः शुद्धाः निरस्ताज्ञानतत्कार्यमलाः मद्भावं सायुज्यं प्राप्ता इति। तत्रेदं बोध्यम् मन्मयशब्दार्थत्यागे कारणाभावात्तच्छब्दार्थानुरोधेन मामुपाश्रिता इत्यस्यापि भाष्योक्तव्याख्यानमेव सम्यगिति। यदपि यदात्मज्ञानं चेत्यादि तदपि न। समुच्चयप्रसङ्गात्। यत्तु मद्भावं मद्विषयं भावं रत्याख्यं प्रेमाणमागता इति वेति तच्चिन्त्यम्। त्यक्त्वा देहमित्यादिपूर्वग्रन्थानुगुण्याभावप्रसङ्गात्।
Sri Madhavacharya
।।4.10।।सन्ति च तथा मुक्ता इत्याह वीतरागेति। मन्मयाः मत्प्रचुराः सर्वत्र मां विना न किञ्चित्पश्यन्तीत्यर्थः।
Sri Neelkanth
।।4.10।।एतस्यापि भगवत्प्राप्तेर्द्वारमाह वीतेति। रागो विषयेषु प्रीतिः भयं स्वोच्छेदाशङ्का क्रोधः स्वपरपीडाहेतुरभिज्वलनं ते त्रयो वीता येभ्यस्ते वीतरागभयक्रोधाः। अतएव मन्मयाः मदेकप्रधानाः। किं जारिणी यथा जारमपि भर्तारं चाश्रिता योगक्षेमार्थं तद्वन्नेत्याह। मामुपाश्रिताः ज्ञानतपसा ज्ञानमयं तप आलोचनं मम जन्मकर्मणोः स्वरूपस्य च निरन्तरं चिन्तनंयस्य ज्ञानमयं तपः इति श्रुतिप्रसिद्धं ज्ञानतपस्तेन पूताः सन्तो मद्भावं मत्तादात्म्यं प्राप्ता इत्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।4.10।।मदीयजन्मकर्मतत्त्वज्ञानाख्येन तपसा पूता बहव एवं संवृत्ताः। तथा च श्रुतिः तस्य धीराः परिजानन्ति योनिम् इति। धीरा धीमतामग्रेसरा एव तस्य जन्मप्रकारं जानन्ति इत्यर्थः।न केवलं देवमनुष्यादिरूपेण अवतीर्य मत्समाश्रयणापेक्षाणां परित्राणं करोमि। अपि तु
Sri Sridhara Swami
।।4.10।।कथं जन्मकर्मज्ञानेन त्वत्प्राप्तिः स्यादित्यत्राह वीतरागेति। अहं शुद्धसत्त्वावतारैर्धर्मपरिपालनं करोमीति मदीयं परमकारुणिकत्वं ज्ञात्वा वीता विगता रागभयक्रोधा येभ्यस्ते विक्षेपाभावात्। मन्मया मदेकचित्ता भूत्वा मामेवोपाश्रिताः सन्तो मत्प्रसादलभ्यं यदात्मज्ञानं च तपश्च तत्परिपाकहेतुः स्वधर्मस्तयोः। द्वन्द्वैकवद्भावः। तेन ज्ञानतपसा पूताः शुद्धा निरस्ताज्ञानतत्कार्यमलाः सन्तो मद्भावं मत्सायुज्यं प्राप्ता बहवः नत्वधुनैव प्रवृत्तोऽयं मद्भक्तिमार्ग इत्यर्थः। तदेवंतान्यहं वेद सर्वाणि इत्यादिना विद्याविद्योपाधिभ्यां तत्त्वंपदार्थावीश्व रजीवौ प्रदर्श्येश्व रस्य चाविद्याभावेन नित्यशुद्धत्वाज्जीवस्य चेश्व रप्रसादलब्धज्ञानेनाज्ञाननिवृत्तेः शुद्धस्य सतश्चिदंशेन तदैक्यमुक्तमिति द्रष्टव्यम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.10।।उपासनवैयर्थ्यमित्यादिशङ्कोत्तरत्वेन योऽयमर्थ उक्तः अयमेववीतराग इति श्लोकेनोच्यत इत्याह तदाहेति तदेव पूर्वप्रस्तुतं ज्ञानमिहज्ञानतपसा इत्युच्यते।मन्मया मामुपाश्रिताः इति तु परम्परया तत्साध्यज्ञानमित्यभिप्रायेणाह मदीयेति। अस्य श्लोकस्य पूर्वश्लोके व्याख्यातप्रायत्वात्एवं संवृत्ता इति संग्रहेणोक्तम्। तथाहिज्ञानतपसा पूताः इत्यस्यार्थोमदीयेत्यारभ्य पाप्मा इत्यन्तेन प्रपञ्चितः।मामाश्रित्य इत्यनेनमामुपाश्रिताः इत्यस्यार्थ उक्तः।मदेकप्रियः इत्यनेनवीतरागभयक्रोधाः इत्यस्यार्थोऽभिप्रेतः विषयान्तरेषु प्रीतिर्हि रागः तद्विरोधिषु निरसनेच्छा क्रोधः आगामीष्टविरोध्यनिष्टागमोत्प्रेक्षा भयम्। तदेतदखिलमपि न वासुदेवभक्तानामस्ति तदेकप्रियत्वेन विषयान्तरे रागाभावात् तत एव तन्मूलक्रोधाभावात् तल्लाभालाभव्यतिरिक्तेष्टानिष्टाभावेन भयाभावाच्च। इदं चन क्रोधो न च मात्सर्यम् म.भा.13।149।134 इत्यादिषु प्रसिद्धम्।मदेकचित्तः इतिमन्मयाः इत्यस्यार्थः। ज्ञानविषयभूतेन मया प्रचुरा मन्मयाः तादात्म्यविकारार्थयोरत्रानुपपन्नत्वात् अन्तर्यामित्वविवक्षायां तस्य सर्वसाधारणत्वाच्च।मन्मयाः इत्यत्रईश्वराभेददर्शिनः इतिशङ्करोक्तं शास्त्रोपक्रमादिविरोधाच्छब्दस्य चावाचकत्वाच्च निरस्तम्।मामेव प्राप्नोति इत्यनेनमद्भावमागताः इत्यस्यार्थो दर्शितः। मुक्त्यवस्थायामपि तादात्म्यस्य श्रुतिस्मृतितदर्थापत्तिसूत्रादिविरुद्धत्वात् अत्रापिमामेति सोऽर्जुन 4।9 इति कर्मकर्तृव्यपदेशात्मम साधर्म्यमागताः 14।2 इति परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वाच्चमद्भावमागताः इत्यस्य मत्स्वभावमपहतपाप्मत्वादिकं प्राप्ता इत्यर्थः। यद्वा ब्रह्मैव भवति मुं.उ.3।2।9 इत्यादाविवात्यन्तसाम्यात्तद्व्यपदेशः। अवताररहस्यस्य च ज्ञातव्यत्वे श्रुतिरप्यस्तीत्याहतथा चेति। उक्तार्थसंवादित्वं विवृणोतिधीमतामग्रेसरा इत्यादिना। एवंधीरशब्दनिर्वचनेन प्रागुक्तभगवत्प्राप्तिपर्यन्ताभङ्गुरज्ञानवत्त्वमुक्तं भवति।परिजानन्ति इत्यत्रोपसर्गेण पूर्वोक्तयथावस्थितप्रकारोऽभिप्रेत इति ज्ञापनायएवं तस्य जन्मप्रकारं जानन्तीत्युक्तम्।धीमतामग्रेसरा एव इति पाठे तु विशेषविधेः शेषनिषेधः फलित इति भावः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.10।।मामेति सोऽर्जुनेत्युक्तं तत्र स्वस्य सर्वमुक्तप्राप्यतया पुरुषार्थत्वं अस्य मोक्षमार्गस्यानादिपरंपरागतत्वं च दर्शयति रागस्तत्फलं तृष्णां सर्वान्विषयान्परित्यज्य ज्ञानमार्गे कथं जीवितव्यमिति त्रासो भयम् सर्वविषयोच्छेदकोऽयं ज्ञानमार्गः कथं हितः स्यादिति द्वेषः क्रोधः त एते रागभयक्रोधाः वीता विवेकेन विगता येभ्यस्ते वीतरागभयक्रोधाः शुद्धसत्त्वाः मन्मयाः मां परमात्मानं तत्पदार्थं त्वंपदार्थाभेदेन साक्षात्कृतवन्तः मदेकचित्ता वा मामुपाश्रिताः एकान्तप्रेमभक्त्या मामीश्वरं शरणं गताः बहवोऽनेके ज्ञानतपसा ज्ञानमेव तपः सर्वकर्मक्षयहेतुत्वात्।नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते इति हि वक्ष्यति तेन पूताः क्षीणसर्वपापाः सन्तो निरस्ताज्ञानतत्कार्यमलाः। मद्भावं मद्रूपत्वं विशुद्धसच्चिदानन्दघनं मोक्षमागताः अज्ञानमात्रापनयेन मोक्षं प्राप्ताः। ज्ञानतपसा पूता जीवन्मुक्ताः सन्तो मद्भावं मद्विषयं भावं रत्याख्यं प्रेमाणमागता इति वा।तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इति हि वक्ष्यति।
Sri Purushottamji
।।4.10।।एवं भक्तानां स्वप्राप्तिं स्वप्राकट्यस्वरूपज्ञानेनोक्त्वा ज्ञानेन द्वितीयायां स्वप्राप्तिस्वरूपमाहुः वीतरागेति। बहवो ज्ञानतपसा ज्ञानयुक्तेन तपसा पूताः सन्तो मामुपाश्रिताः उप समीपे आगताः। आश्रयणमात्रमेव कृतवन्तः न तु सेवादिकं तादृशा मन्मया मद्रूपं सर्वत्र ज्ञानरूपेण पश्यन्तस्तत्रैव लीना भूत्वा आगताः प्राप्तजन्मानो मद्भावं मोक्षं प्राप्नुवन्ति। कीदृशाः वीतरागभयक्रोधा ज्ञानप्रतिपक्षरहिताः।
Sri Shankaracharya
।।4.10।। वीतरागभयक्रोधाः रागश्च भयं च क्रोधश्च वीताः विगताः येभ्यः ते वीतरागभयक्रोधाः मन्मयाः ब्रह्मविदः ईश्वराभेददर्शिनः मामेव च परमेश्वरम् उपाश्रिताः केवलज्ञाननिष्ठा इत्यर्थः। बहवः अनेके ज्ञानतपसा ज्ञानमेव च परमात्मविषयं तपः तेन ज्ञानतपसा पूताः परां शुद्धिं गताः सन्तः मद्भावम् ईश्वरभावं मोक्षम् आगताः समनुप्राप्ताः। इतरतपोनिरपेक्षज्ञाननिष्ठा इत्यस्य लिङ्गम् ज्ञानतपसा इति विशेषणम्।।तव तर्हि रागद्वेषौ स्तः येन केभ्यश्चिदेव आत्मभावं प्रयच्छसि न सर्वेभ्यः इत्युच्यते
Sri Vallabhacharya
।।4.10।।किञ्च यद्यहं प्राकृतजन्मकर्मा तदा मदुपाश्रयान्न कोऽपि मुक्तः स्यात् दृश्यन्ते तु मुक्त्वा इत्याह वीतेति। मां पूर्णपुरुषोत्तममुपाश्रिता बहवो गोपीकंसचैद्यादयो अमुनाऽवतारेणैव वीतशब्दोऽव्याप्तौ साङ्ख्ये सङ्केतितः तथैव सूत्रंवीतनिवीतपरिचाय्ये इति। एवमाधिव्याप्तरागव्याप्तभयव्याप्तक्रोधव्याप्तास्तत्तदुपाधिकभाववन्तोऽपि तत्तद्दोषशून्याः पूताः साक्षाद्वस्तुसामर्थ्यान्निर्दोषाः अतो ज्ञानेन कीटभृङ्गन्यायेनसोऽस्मि इति भावनया अन्ये क्षात्त्राश्रितास्तपसा वा परेथ पूताः सन्तः तापेन च मन्मया मदाकारमज्जन्मादिना च ज्ञानरूपेण पूता वा प्रारब्धनिर्वाणसमये देहं प्राकृतं त्यक्त्वा लोकातिरिक्तां दिव्यां भागवतीं तनुं प्राप्ता इत्याशयेन मद्भावमागता इति तेषां स्वस्थितावागमनं वक्ति। एवं च बहवो मुक्ता मद्भावमागता दैवा आसुरा विवेकिनश्च निरूपिताः न त्वधुना एवायं प्रवृत्तो मदाश्रयमार्ग इत्यर्थः। एतेन व्यापिवैकुण्ठे मुक्तजीवानां प्राकृतदेहेन्द्रियासुहीनानां दिव्यत्वं बहुत्वं च सूचितं तेनान्ये एकदेशिकपक्षा व्यावर्त्तिताः।
Swami Sivananda
4.10 वीतरागभयक्रोधाः freed from attachment? fear and anger? मन्मयाः absorbed in Me? माम् Me? उपाश्रिताः taking refuge in? बहवः many? ज्ञानतपसा by the fire of knowledge? पूताः purified? मद्भावम् My Being? आगताः have attained.Commentary When one gets knowledge of the Self? attachment to senseobjects ceases. When he realises he is the constant? indestructible? eternal Self and that change is simply a ality of the body? then he becomes fearless. When he becomes desireless? when he is free from selfishness? when he beholds the Self only everywhere? how can anger arise in himHe who takes refuge in Brahman or the Absolute becomes firmly devoted to Him. He becomes,absorbed in Him (Brahmalina or Brahmanishtha). Jnanatapas is the fire of wisdom. Just as fire burns cotton? so also this Jnanatapas burns all the latent tendencies (Vasanas)? cravings (Trishnas)? mental impressions (Samskaras)? sins and all actions? and purifies the aspirants. (Cf.II.56IV.19to37).