Chapter 4, Verse 8
Verse textपरित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।
Verse transliteration
paritrāṇāya sādhūnāṁ vināśhāya cha duṣhkṛitām dharma-sansthāpanārthāya sambhavāmi yuge yuge
Verse words
- paritrāṇāya—to protect
- sādhūnām—the righteous
- vināśhāya—to annihilate
- cha—and
- duṣhkṛitām—the wicked
- dharma—the eternal religion
- sansthāpana-arthāya—to reestablish
- sambhavāmi—I appear
- yuge yuge—age after age
Verse translations
Shri Purohit Swami
To protect the righteous, to destroy the wicked, and to establish the kingdom of God, I am reborn from age to age.
Swami Ramsukhdas
।।4.8।। साधुओं-(भक्तों-) की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
Swami Tejomayananda
।।4.8।। साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।
Swami Adidevananda
For the protection of the good and the destruction of the wicked, for the establishment of Dharma, I am born from age to age.
Swami Gambirananda
For the protection of the pious, the destruction of the evil-doers, and the establishment of virtue, I manifest myself in every age.
Swami Sivananda
For the protection of the good, for the destruction of the wicked, and for the establishment of righteousness, I am born in every age.
Dr. S. Sankaranarayan
For the protection of the good people, and for the destruction of evildoers, and for the purpose of firmly establishing righteousness, I take birth in every age.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।4.8।। परित्राणाय परिरक्षणाय साधूनां सन्मार्गस्थानाम् विनाशाय च दुष्कृतां पापकारिणाम् किञ्च धर्मसंस्थापनार्थाय धर्मस्य सम्यक् स्थापनं तदर्थं संभवामि युगे युगे प्रतियुगम्।।तत्
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.8।।तत्किं धर्मस्य हानिरधर्मस्य च वृद्धिस्तव परितोषकारणं येन तस्मिन्नेव काल आविर्भवसीति। तथाचानर्थावह एव तवावतारः स्यादिति नेत्याह धर्महाम्या हीयमानानां साधूनां पुण्यकारिणां वेदमार्गस्थानां परित्राणाय परितः सर्वतो रक्षणाय तथा अधर्मवृद्ध्या वर्धमानानां दुष्कृतां पापकारिणां वेदमार्गविरोधिनां विनाशाय च तदुभयं कथं स्यादिति तदाह। धर्मसंस्थापनार्थाय धर्मस्य सम्यगधर्मनिवारणेन स्थापनं वेदमार्गपरिरक्षणं धर्मसंस्थापनं तदर्थं संभवामि पूर्ववत्। युगे युगे प्रतियुगम्।
Sri Purushottamji
।।4.8।।एवं धर्मार्थं जीवान् सृष्ट्वा तेषां रक्षणार्थं चाहं प्रकटो भवामीत्याहुः परित्राणायेति। साधूनां भक्तानां परित्राणाय दुष्कृतां धर्मप्रतिपक्षिणां नाशाय धर्मसंस्थापनाय ज्ञानकर्माश्रमादिरूपस्य सम्यक्प्रकारेणस्थापनाय युगे युगे सम्भवामीति। सम्यक्प्रकारेण भवामि प्रकटो भवामि न जीववद्भवामि।
Sri Vallabhacharya
।।4.7 4.8।।कदा किमर्थं सम्भवसीत्यपेक्षायां स्वप्रादुर्भावकालमाह द्वाभ्याम् यदा यदा हीति। परित्राणायेति। साधूनां धर्मवतां परित्राणाय तत्प्रतिपक्षाणां दुष्कृतां दुष्टं कर्म कुर्वतां विनाशाय च युगेयुगे सम्भवामि। न चात्रावतारकालनियम इत्येतदर्थं यदा यदा युगेयुगे इत्युक्तम् नचैवं दुष्टनिग्रहं कुर्वतोऽपि वैषम्यं शङ्कनीयं यथा चोक्तं लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथाऽर्मके। तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः इति।
Swami Ramsukhdas
4.8।। व्याख्या--'परित्राणाय साधूनाम्'--साधु मनुष्योंके द्वारा ही अधर्मका नाश और धर्मका प्रचार होता है, इसलिये उनकी रक्षा करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।दूसरोंका हित करना ही जिनका स्वभाव है और जो भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदिका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक स्मरण, कीर्तन आदि करते हैं और लोगोंमें भी इसका प्रचार करते हैं, ऐसे भगवान्के आश्रित भक्तोंके लिये यहाँ 'साधूनाम्' पद आया है। जिसका एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य है, वह साधु है (टिप्पणी प0 223) और जिसका नाशवान् संसारका उद्देश्य है, वह असाधु है।असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती है। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है। साधुतासे अपना उद्धार और लोगोंका स्वतः उपकार होता है।साधु पुरुषके भावों और क्रियाओँमें पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है--
Swami Chinmayananda
।।4.8।। यह तो स्पष्ट है कि बिना किसी इच्छा अथवा प्रयोजन के ईश्वर अपने को व्यक्त नहीं करता। इच्छाओं के आत्यन्तिक अभाव का अर्थ है कर्मों का पूर्ण अभाव। बिना किसी साधन के विद्युत् शक्ति किसी विशेष रूप में व्यक्त नहीं हो सकती। इसी प्रकार परमब्रह्म किसी प्रयोजन के अभाव में किसी उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट उपाधि को न धारण कर सकता है और न उसे उसकी कोई आवश्यकता ही होती है। जिस प्रकार शान्त और स्थिर जल में किसी वस्तु के डालने पर उसमें तरंगे उठने लगती हैं उसी प्रकार इच्छा रूपी विक्षेपक के होने पर ही परम पूर्ण स्वरूप में से उच्च या हीन किसी प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति संभव है।पूर्ण परमात्मा में गोपाल कृष्ण के रूप में अवतार लेने की कारण रूप जो इच्छा है उसे यहाँ व्यास जी अपने शब्दों में वर्णन करते हैं। सब इच्छाओं में सर्वोत्तम दैवी इच्छा है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की इच्छा किन्तु वह भी एक इच्छा ही है। कर्तव्य पालन करने वाले साधु पुरुषों के रक्षण का कार्य करते हुये अपनी माया का आश्रय लेकर एक और कार्य अवतारी पुरुष को करना होता है वह है दुष्टों का संहार।दुष्टों के संहार से तात्पर्य शब्दश दुष्ट व्यक्तियों के संहार से ही समझना आवश्यक नहीं है उसमें दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश अभिप्रेत है। वस्त्र रखने की आलमारी रखने की पुर्नव्यवस्था करने के समान यह कार्य है। जो वस्त्र अत्यन्त निरुपयोगी हो जाते हैं उन्हें नये वस्त्रों के रखने हेतु स्थान बनाने हेतु वहाँ से हटाना ही पड़ता है। इसी प्रकार अवतारी पुरुष साधुओं का उत्साह बढ़ाते हैं दुष्टों के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयत्न करते हैं और कभीकभी दुष्टों का पूर्ण संहार भी आवश्यक हो जाता है।अर्जुन के लिये इतना सब कुछ विस्तार से बताना पड़ा क्योंकि वह श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ था। श्रीकृष्ण को एक मनुष्य और मित्र के रूप में ही समझने के कारण वह प्रथम अध्याय में इतने प्रकार के तर्क प्रस्तुत करता रहा अन्यथा उसमें इतना साहस ही नहीं होता। यदि यह मान भी लिया जाय कि अर्जुन को श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व के विषय में पूर्ण भान था तब इसका अर्थ होगा कि एक नास्तिक के समान श्रीकृष्ण की सहायता पाकर भी वह अपने विजय के प्रति पूर्ण आश्वस्त नहीं था यह उचित नहीं प्रतीत होता। जब भगवान् उसे अपना मित्र भक्त कहते हैं तब वह शिशुओं की सी सरलता से उनसे कहता है आप मुझे सिखाइये मैं आपका शष्य हूँ। इस वाक्य में श्रीकृष्ण के प्रति उसका आदर भाव तो स्पष्ट होता है किन्तु किसी भी प्रकार उसमें उनके ईश्वरत्व का ज्ञान होना सिद्ध नहीं होता।भगवान् अपने ही विषय में जानकारी क्यों दे रहे हैं
Sri Anandgiri
।।4.8।।यथोक्ते काले कृतकृत्यस्य भगवतो मायाकृते जन्मनि प्रश्नपूर्वकं प्रयोजनमाह किमर्थमित्यादिना। यथा साधूनां रक्षणमसाधूनां निग्रहश्च भगवदवतारफलं तथा फलान्तरमपि तस्यास्तीत्याह किञ्चेति। धर्मे हि स्थापिते जगदेव स्थापितं भवत्यन्यथा भिन्नमर्यादं जगदसंगतत्वमापद्येतेत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।4.8।।अवतरणप्रयोजनमाह। परित्राणाय रक्षणाय साधूनां सन्मार्गस्थानां भक्तानाम्। विनाशाय च पापिष्ठानाम्। किंच धर्मसंस्थापनार्थाय। तथाचावतरणप्रयोजनत्रयमुक्तम्। यत्तु तदुभयं कथं स्यादित्यत आह। धर्मसंस्थापनार्थायेति तच्चिन्त्यम्। धर्मसंस्थापनेन साधूनां रक्षणस्य पापिनां नाशस्य चासिद्धेः। यथा वसुदेवग्रहेऽवतीर्णेन श्रीकृष्णेन गीताद्युपदेशेन धर्मसंस्थापनं युधिष्ठिरादिपरिपालनेन साधुपरित्राणां कंसादिमारणेन दुष्कृतां विनाश इति प्रयोजनत्रयमेव संपादितम्। नहि गीतोपदेशमात्रेण तत्र तत्र कृतमर्जुनसंरक्षणं तत्तदुपायैः कर्मनाश्च सिध्यतीति दिक्। एतेन साधुरक्षणेन दुष्टवधेन च धर्मं स्थिरीकर्तुमिति प्रत्युक्तम्। नहि वसुदेवादिरक्षणेन कंसादिवधेन च कस्यचिद्धर्मस्य स्थापनं भवति धर्मस्थापनहेतुभूतैतत्कर्मद्वयाकर्तुर्व्यासावतारस्य धर्मसंस्थापनार्थस्य वैयर्थ्यापत्तेश्च। तथाच कदाचिदेकस्मै कदाचिद्द्वाभ्यां कदाचित्सर्वस्मै प्रयोजनाय भगवदवतरणमिति ध्येयम्।
Sri Madhavacharya
।।4.8।।न जन्मनैव परित्राणादि कार्यमिति नियमः। तथापि लीलया स्वभावेन च यथेष्टचारी। तथा ह्युक्तम् देवस्यैष स्वभावोऽयम्।लोकवत्तु लीलाकैवल्यम् ब्र.सू.2।1।33क्रीडतो बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय। अरिभयादिव स्वयं पुराद्व्यवात्सीद्यदनन्तवीर्यः। पूर्णोऽयमस्यान्न न किञ्चिदाप्यं तथापि सर्वाः कुरुते प्रवृत्तीः। अतो विरुद्धेषुमिमं वदन्ति परावरज्ञा मुनयः प्रशान्ताः इत्यादि ऋग्वेदखिलेषु।
Sri Neelkanth
।।4.8।।किमर्थमात्मानं मायया सृजसीत्यत आह परित्राणायेति। दुष्कृतां दुष्टं कर्म कुर्वतां पापिनाम्। संभवाम्याविर्भवामि।
Sri Ramanujacharya
।।4.8।।साधव उक्तलक्षणधर्मशीला वैष्णवाग्रेसरा मत्समाश्रयणे प्रवृत्ता मन्नामकर्मस्वरूपाणाम् अवाङ्मनसगोचरतया मद्दर्शनाद् ऋते स्वात्मधारणपोषणादिसुखम् अलभमाना अणुमात्रकालम् अपि कल्पसहस्रं मन्वानाः प्रशिथिलसर्वगात्रा भवेयुः इति मत्स्वरूपचेष्टितावलोकनालापादिदानेन तेषां परित्राणाय तद्विपरीतानां विनाशाय च क्षीणस्य वैदिकधर्मस्य मदाराधनरूपस्य आराध्यस्वरूपप्रदर्शनेन तस्य स्थापनाय च देवमनुष्यादिरूपेण युगे युगे संभवामि। कृतत्रेतादियुगविशेषनियमः अपि नास्ति इत्यर्थः।
Sri Sridhara Swami
।।4.8।।किमर्थमित्यपेक्षायामाह परित्राणायेति। साधूनां स्वधर्मवर्तिनां रक्षणाय। दुष्टं कर्म कुर्वन्तीति दुष्कृतस्तेषां वधाय च। एवं धर्मस्य संस्थापनार्थाय साधुरक्षणेन दुष्टवधेन च धर्मं स्थिरीकर्तुं युगेयुगे तत्तदवसरे संभवामीत्यर्थः। नचैवं दुष्टनिग्रहं कुर्वतोऽपि नैर्घृण्यं शङ्कनीयम्। यथाचाहुःलालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके। तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः।। इति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.8।।किमर्थं इति प्रश्नस्योत्तरमुच्यत इत्याह जन्मन इति। साधुशब्दोऽत्र नासमर्थादिविषयः दुष्कृच्छब्दप्रतियोगिरूपत्वात् अतः सुकृतिविषयोऽयमित्यभिप्रायेणोक्तं उक्तलक्षणधर्मशीला इति।उक्तलक्षणशब्देनवेदेनोदितस्य इत्यादि परामृश्यते। ये पुनरुक्तलक्षणधर्मेण देवतान्तराण्येव उपासते ये च वैष्णवाःप्रदर्शनविद्यादिन्यायेन तत्तद्देवताविशिष्टवेषेणैव भगवन्तमुपासते न तेषामवतारप्रदर्शनेऽत्यन्तनिर्बन्धः तत्तद्देवताकञ्चुकितवेषेणैव तदपेक्षितसकलप्रदानोपपत्तेरित्यभिप्रायेणोक्तं वैष्णवाग्रेसरा इति भगवद्भक्तवर्या इत्यर्थः।उक्तलक्षणधर्मशीला इतिवैष्णवाग्रेसरा इति पदाभ्यांन चलति निजवर्णधर्मतो यः वि.पु.3।7।20वर्णाश्रमाचारवता वि.पु.3।8।9 इत्यादि सूचितम्। यथावस्थितमुपायं प्राप्यं चावलम्बमाना इति च फलितम्। त्राणं हि नामात्रानिष्टनिवर्तनपूर्वकेष्टप्रापणम्। एवंविधवैष्णवाग्रेसराणामनिष्टश्च भगवदलाभः तत्समाश्रयणपूर्वकं तल्लाभेनैव च तस्यानिष्टस्य निवर्तनमित्यभिप्रेत्योच्यतेमत्समाश्रयण इत्यारभ्यआलापादिदानेनेत्यन्तम्। नह्यमीषामन्नपानताम्बूलादिधारणपोषणादिकम् किन्तुअहं कृष्ण एव सर्वं इत्यभिप्रायेणोच्यतेमद्दर्शनाद्विना स्वात्मधारणपोषणादिकमलभमाना इति। अदर्शनं चानिष्पन्नयोगावस्थत्वात्। यद्यमी मत्साक्षात्कारात्पूर्वमल्पं कालं लोचने मीलयित्वा सहेरन् तदाऽहमपि तादृशीं तेषामवस्थां सहेयापि नत्वेते तथेत्यभिप्रायेणोक्तं क्षणेत्यादि।त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् भाग.10।31।15 इत्यादिकमिह भाव्यम्। अदर्शनदुःखस्य च चरमावस्थोच्यतेप्रशिथिलसर्वगावा भवेयुरिति। स्वविश्लेषपरिक्लिष्टानामुज्जीवनाय प्रवृत्तस्य क्रमाद्भक्तानुभाव्याकारा उच्यन्तेमत्स्वरूपचेष्टितावलोकनालापादिदानेनेति। नह्यपवर्गसुखादिवदवतारमन्तरेण स्वसङ्कल्पमात्रेणैव तद्दातुं शक्यमिति भावः।परित्राणाय इत्यत्रोपसर्गेण विविधानिष्टनिवृत्तिपूर्वकविविधेष्टप्राप्तिः सूचितेत्यभिप्रायेणमन्नामगुणकर्मेत्यादिकं धारणेत्यादिकं स्वरूपचेष्टितेत्यादिकं चोक्तम्। स्वरूपमत्र विग्रहः। एवं साधूनामान्तरभयात्परित्राणमुक्तम् अथ तेषामेव बाह्यभयात्परित्राणमुच्यत इत्यभिप्रायेणाहतद्विपरीतानां विनाशाय चेति। चकारोऽन्वाचयार्थः। इदमप्युक्तमन्तरादित्याधिकरणभाष्येसाधवो ह्युपासकाः तत्परित्राणमेवोद्देश्यम् आनुषङ्गिकस्तु दुष्कृतां विनाशः सङ्कल्पमात्रेणापि तदुपपत्तेः इति। भागवतानामपराधो हि दुष्कृत्त्वकाष्ठेत्यभिप्रायेणतद्विपरीतानामित्युक्तम्।रिपूणामपि वत्सलःमच्छरैस्त्वं रणे शान्तस्ततः पूतो भविष्यसि इतिवद्दुष्कृतामपि विनाशो नात्यन्तविनाशः किन्तु वैपरीत्यहेतुभूतराक्षसप्रभृतिशरीरग्रन्थ्यादिविनिवर्तनम् तन्निवृत्तौ च तेषामपि धार्मिकत्वं सम्भवेदिति सोऽपि धर्मसंस्थापनपर्यवसितः। मच्छेषभूतमाराधनं मयैव हि स्थापनीयमित्यभिप्रायेणमदाराधनरूपस्येत्युक्तम्। अनुष्ठानमुखेनोपदेशमुखेन च धर्मप्रवर्तनं व्यासादिद्वाराऽपि शक्यम् आराध्यरूपप्रदर्शनेन भक्त्युत्पादनमवतारासाधारणप्रयोजनम् परश्शतपरुषवादी जन्मत्रयशत्रुः शिशुपालोऽपि हि कृष्णदर्शनेन प्रीतिमान्भूत्वा मुक्तिं गत इत्यभिप्रायेणआराध्यस्वरूपप्रदर्शनेनेत्युक्तम्।रुपौदार्यगुणैः पुंसां दृष्टिचित्तापहारिणाम् वा.रा.2।3।29 इत्यादि च भाव्यम्। एतेन धर्मस्य सम्यक्स्थापनं हि स्वपर्यन्ततया स्थापनमित्युक्तं भवति।युगे युगे इति वीप्सातात्पर्यं व्यनक्तिकृतत्रेतादीति। न तु प्रतियुगमवश्यं सम्भवामि नापि युगविशेषनिर्बन्ध इति भावः।
Sri Abhinavgupta
।।4.5 4.9।।बहूनि इत्यादि अर्जुन इत्यन्तम्। श्रीभगवान् किल पूर्णषाड्गुण्यत्वात् शरीरसंपर्कमात्ररहितोऽपि स्थितिकारित्वात् कारुणिकतया आत्मांशं सृजति। आत्मा पूर्णषाड्गुण्यः अंशः उपकारकत्वेन अप्रधानभूतो ( N omit अ) यत्र तत् आत्मांशं शरीरं गृह्णाति इत्यर्थः। अत एवास्य जन्मदिव्यम् यत आत्ममायया योगप्रज्ञया स्वस्वातन्त्रयशक्त्या ( omits स्व) आरब्धम् न कर्मभिः। कर्मापि दिव्यम् फलदानासमर्थत्वात्। यश्चैवमेतत्तत्त्वं वेत्ति आत्मन्यप्येवमेव मन्यते सोऽवश्यं भगवद्वासुदेवतत्त्वं जानाति।
Sri Jayatritha
।।4.8।।परित्राणाय साधूनां इति साधुपरित्राणादिकं भगवदवतारस्य प्रयोजनमुक्तम् तत्र किं जन्मनैव परित्राणादिकं कार्यमिति नियमः इत्यपेक्षायामाह नेति। जन्मना विनाऽपि कर्तुं समर्थत्वादिति भावः। तर्हि किमर्थं जन्मेत्यत आह तथापीति। यथेष्टचारी इच्छयैव तथा चरति तथेच्छैव किमर्था इत्यत उक्तम् लीलयेति। लीलाप्यालस्यपरिहाराद्यर्था न भवतीत्यत उक्तम् स्वभावेन चेति। अत्रैव प्रमाणान्याह तथा हीति। अयमेष इयमिच्छा। अत्र प्रवृत्तिषु विरुद्धेषुं लोकविपरीतेच्छुम्।
Swami Sivananda
4.8 परित्राणाय for the protection? साधूनाम् of the good? विनाशाय for the destruction? च and? दुष्कृताम् of the wicked? धर्मसंस्थापनार्थाय for the establishment of righteousness? संभवामि (I) am born? युगे युगे in every age.Commentary Sadhunam The good who lead a life of righteousness? who utiles their bodies in the service of humanity? who are free from selfishness? lust and greed? and who devote their lives to divine contemplation.Dushkritam Evildoers who lead a life of unrighteousness? who break the laws of the society? who are vain and are dishonest and greedy? who injure others? who take possession of the property of others by force? and who commit atrocious crimes of various sorts.