Chapter 4, Verse 20
Verse textत्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।।
Verse transliteration
tyaktvā karma-phalāsaṅgaṁ nitya-tṛipto nirāśhrayaḥ karmaṇyabhipravṛitto ’pi naiva kiñchit karoti saḥ
Verse words
- tyaktvā—having given up
- karma-phala-āsaṅgam—attachment to the fruits of action
- nitya—always
- tṛiptaḥ—satisfied
- nirāśhrayaḥ—without dependence
- karmaṇi—in activities
- abhipravṛittaḥ—engaged
- api—despite
- na—not
- eva—certainly
- kiñchit—anything
- karoti—do
- saḥ—that person
Verse translations
Swami Gambirananda
Having given up attachment to the results of action, he who is ever-content, dependent on nothing, does not really do anything even though he is engaged in action.
Dr. S. Sankaranarayan
By abandoning attachment to the fruits of actions, remaining ever content and depending on nothing, that person, even though they are engaged in action, does not perform anything at all.
Shri Purohit Swami
Having surrendered all claim to the results of his actions, he is always contented and independent; in reality, he does nothing, even though he appears to be acting.
Swami Ramsukhdas
।।4.20।। जो कर्म और फलकी आसक्तिका त्याग करके आश्रयसे रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मोंमें अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।
Swami Tejomayananda
।।4.20।। जो पुरुष, कर्मफलासक्ति को त्यागकर, नित्यतृप्त और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है।।
Swami Adidevananda
Having renounced attachment to the fruits of their actions, ever contented with the eternal self, and dependent on none, one does not act at all, even while being engaged in action.
Swami Sivananda
Having abandoned attachment to the fruits of the action, ever content, depending on nothing, he does not do anything even while being engaged in activity.
Verse commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.20।।न च कामसङ्कल्पाभावेनालम् आसङ्गं स्नेहं च त्यक्त्वा ज्ञानस्वरूपमाह पुनर्नित्यतृप्त इति। नित्यतृप्तनिराश्रयेश्वरसरूपोऽस्मीति तथाविधः।
Swami Ramsukhdas
4.20।। व्याख्या--'त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गम्'--जब कर्म करते समय कर्ताका यह भाव रहता है कि शरीरादि कर्मसामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा और मेरे लिये है तथा इसका मेरेको अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्मफलका हेतु बन जाता है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषको प्राकृत पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदका अनुभव हो जाता है, इसलिये कर्म करनेकी सामग्रीमें, कर्ममें तथा कर्मफलमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेके कारण वह कर्मफलका हेतु नहीं बनता।सेना विजयकी इच्छासे युद्ध करती है। विजय होनेपर विजय सेनाकी नहीं, प्रत्युत राजाकी मानी जाती है; क्योंकि राजाने ही सेनाके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध किया है; उसे युद्ध करनेकी सामग्री दी है और उसे युद्ध करनेकी प्रेरणा की है और सेना भी राजाके लिये ही युद्ध करती है। इसी प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही जीव उनके द्वारा किये गये कर्मोंके फलका भागी होता है।कर्म-सामग्रीके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध न होनेके कारण महापुरुषका कर्मफलके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता।वास्तवमें कर्मफलके साथ स्वरूपका सम्बन्ध है ही नहीं। कारण कि स्वरूप चेतन, अविनाशी और निर्विकार है; परन्तु कर्म और कर्मफल--दोनों जड तथा विकारी हैं और उनका आरम्भ तथा अन्त होता है। सदा स्वरूपके साथ न तो कोई कर्म रहता है तथा न कोई फल ही रहता है। इस तरह यद्यपि कर्म और फलसे स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है तथापि जीवने भूलसे उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनका कारण है। अगर यह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाय, तो कर्म और फलसे उसकी स्वतःसिद्ध निर्लिप्तताका बोध हो जाता है।
Sri Purushottamji
।।4.20।।ननु फलेच्छारहितस्त्वत्सेवां विहाय किमिति कर्म करोति इत्याशङ्क्याह त्यक्त्वेति। यो नित्यतृप्तो मन्निष्ठया नित्यं तृप्तः पूर्णः कर्मफलासङ्गं त्यक्त्वा कर्मफलेच्छासक्तिं त्यक्त्वा निराश्रयः कर्मजनितादृष्टाद्याश्रयरहितः कर्मणि मदाज्ञात्वेन अभिप्रवृत्तः सोऽपि नैव किञ्चित् करोति। मदाज्ञारूपत्वात्तस्य तत्कर्म मोक्षे स्वफलभोगादिना बन्धकं न भवतीत्यर्थः।
Swami Chinmayananda
।।4.20।। यहाँ हमें न कर्मफल त्यागने को कहा गया है और न ही उसकी उपेक्षा करने को किन्तु फल के साथ हमारी मानसिक दासता तथा आसक्ति का त्याग करने को कहा गया है। जब हम इच्छित फलों की चिन्ताओं से ग्रस्त हो जाते हैं तब हम अपने कर्मों को कुशलतापूर्वक नहीं कर पाते हैं। इस चिन्ता और आसक्ति का त्याग करके समाज कल्याण के लिए हमको प्रयत्नशील होना चाहिये।एक सच्चा कलाकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति का कभी भी स्वेच्छा से विक्रय करने को तैयार नहीं होगा जिस चित्र को चित्रित करने के लिए उसने इतना अधिक परिश्रम किया और समय दिया वह चित्र ही उसका वास्तविक पारितोषिक होता है। यदि भूखे भी रहना पड़े तो भी वह उस चित्र की बिक्री करना नहीं चाहेगा उस चित्र को देखने मात्र से उसे जो सन्तोष और आनन्द का अनुभव होता है उसकी तुलना में सम्पूर्ण जगत् की सम्पत्ति भी तुच्छ प्रतीत होती है। यदि एक लघु परिच्छिन्न कलाकृति उस सामान्य व्यक्ति को इतना अधिक आनन्द प्रदान कर सकती है तो आत्मस्वरूप में स्थित दैवी आनन्द की अनुभूति में रमे हुए नामरूपमय जगत् में काम करते हुए ज्ञानी पुरुष के आनन्द का क्या मापदण्ड हो सकता है वास्तव में अनन्त तत्त्व को आत्मरूप से अनुभव किया हुआ पुरुष बाह्य आश्रयों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।फलासक्ति असन्तोष तथा बाह्य वस्तुओं पर आश्रय ये सब अविद्याजनित जीव के लिए ही होते हैं। यह जीव ही इन सबसे पीड़ित होता है। जब सत्य का साधक यह पहचान लेता है कि इस जीव का वास्तविक स्वरूप अनन्त और परिपूर्ण है तब यह जीवभाव (अहंकार) नष्ट हो जाता है और स्वभावत उसके सब दुखो का अन्त होना अवश्यंभावी है। पात्र में रखे हुये जल को हिलाने से उसमें स्थित सूर्य का प्रतिबिम्ब भी हिलता है। परन्तु जल को फेंक देने पर प्रतिबिम्ब लुप्त हो जाता है और फिर किसी भी प्रकार आकाश में स्थित सूर्य को हिलाया नहीं जा सकता । ऐसा आत्मज्ञानी पुरुष कर्म में प्रर्वत्त हुआ भी किञ्चिन्मात्र कर्म नहीं करता है।शरीर मन और बुद्धि बाह्य जगत् में कार्य करते रहते हैं किन्तु सर्वव्यापी आत्मा नहीं। इस चैतन्य आत्मा के बिना शरीर कार्य नहीं कर सकता परन्तु उसकी क्रिया का आरोप अकर्म आत्मा पर नहीं किया जा सकता है। अत आत्मस्वरूप में स्थित पुरुष कार्य करते हुए भी कर्त्ता नहीं कहा जा सकता। रेल चलती है परन्तु यह कहना ठीक नहीं होगा कि वाष्प गतिशील है।वेदान्त के शिक्षार्थी के मन में यह शंका उठती है कि आत्मानुभव होने पर ज्ञानी के पूर्वार्जित सभी कर्म नष्ट हो सकते हैं परन्तु तत्पश्चात् पुन जगत् में कर्म करने से हो सकता है कि वह नये पापपुण्यरूप कर्म करें जिसका फल भोगने हेतु उसे नए जन्मों को भी लेना पड़े। इस श्लोक में उपर्युक्त शंका को निर्मूल कर दिया गया है। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष कर्म करने पर भी किञ्चित कर्म नहीं करता है तब फिर उसे बन्धन कैसे होगा प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। सन्त पुरुष के शारीरिक कर्मों का भी कुछ तो फल होना ही चाहिये। यह सामान्य युक्तिवाद है जिसका खण्डन करते हुये भगवान् कहते हैं
Sri Neelkanth
।।4.20।।ननु प्रायश्चित्तेनेव ज्ञानाग्निना पूर्वकर्मदाहेऽपि क्रियमाणं तत्फलाय भवेदित्यत आह त्यक्त्वेति। आत्मलाभेन नित्यतृप्तत्वात्फलासङ्गं त्यक्त्वा निराश्रयत्वात्। अहंकाराद्याश्रयेण हि कर्म क्रियते। निराश्रयो निरहंकारो यस्मात् ततः कर्मसङ्गमहंकरोमीत्यभिमानं च त्यक्त्वा कर्मणि लौकिके वैदिके वा अभितः सर्वाङ्गोपसंहारेण प्रवृत्तोऽपि स नैव किंचित्करोति। अतोऽस्य क्रियमाणमपि कर्म न फलाय प्रभवतीत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।4.20।।ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वात्तदीयं ज्ञानोत्तरं क्रियमाणामपि कर्माकर्मैव संपद्यत इत्येतमर्थं दर्शयन्नाह त्यक्त्वेत्यादिना। यत्तु भवतु ज्ञानाग्निना प्राक्तनानामप्रारब्धकर्मणा दाहः। आगामिनां चानुत्पत्तिः। ज्ञानोत्पत्तिकाले क्रियमाणं तु पूर्वोत्तरयोरनन्तर्भावात् फलाय भवेदिति भवेत्कस्यचिदाशङ्का तामपनुदतीति तच्चिन्त्यम्। मूलात्तद्भाष्यादेवंभूतो जीवन्मुक्तो व्युत्थानदशायां कर्मणि वैदिके लौकिके प्रवृत्तोऽपीत्यादिस्वग्रन्थाच्च ज्ञानोत्तरक्रियमाणकर्माश्लेषस्य प्रतीतेः स्फुटत्वेनैवमुत्थानानौचित्यात्। ज्ञानोत्पत्तिकाल इत्यस्य किं ज्ञानोत्पत्तिक्षण इत्यर्थ उत ज्ञानसाधनानामनुष्ठानकाल इति। आद्ये पापादेरसंभवः। द्वितीये तत्कर्मणः पूर्वकर्मण्यन्तर्भाव इति शङ्काया अप्यनुत्थानाच्च। अतएव तस्य नाशो वा विश्लेषो वा व्यासेन पृथक् न सूत्रितः। कर्मस्वभिमानं फलासक्तिं च त्यक्त्वा यथोक्तेन ज्ञानेन नित्यतृप्तः। विषयेषु निराकाङ्क्षः। अतएव दृष्टादृष्टेष्टफलसाधनाश्रयरहतिः। योगक्षेमार्थाश्रयणीयरहित इति व्याख्या तु भाष्यान्तर्भूता। यत्त्वाश्रयो देहेन्द्रियादिरद्वैतदर्शनेन निर्गतो यस्मात्स निराश्रयः देहेन्द्रियाद्यभिमानशून्यः। फलकामनायाः कर्तृत्वाभिनिवेशस्य च निवृत्तौ क्रमेण विशेषणद्वयमिति व्याख्यानं तदपि दृष्टादृष्टेष्टफलसाधनानि देहेन्द्रियादीनि तदेवाश्रयस्तद्रहितः देहाद्यभिमानशून्य इति भाष्यं व्याख्याय तदविरोधेनादेयं तेनैवंभूतेन प्रयोजनाभावात्समग्रं कर्म यद्यपि त्याज्यं तथापि प्रारब्धप्राबल्यात् लोकसंग्रहार्थं लोकदृष्ट्या पूर्ववत्कर्मण्यभितः साङ्गोपाङ्गानुष्ठानाय प्रवृत्तोऽपि निष्क्रियात्मदर्शनसंपन्नत्वात्स्वदृष्ट्या नैव किंचित्करोति सः। तत्त्वविदः क्रियमाणकर्मसंबन्धो न भवतीत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।4.20।।विवेकात्पूर्वं कर्मणि प्रवृत्तावपि सति विवेके तत्र न प्रवृत्तिरित्याशङ्क्याङ्गीकरोति यस्त्विति। विवेकात्पूर्वमभिनिवेशेन प्रवृत्तस्य विवेकानन्तरमभिनिवेशाभावात्प्रवृत्त्यसंभवेऽपि जीवनमात्रमुद्दिश्य प्रवृत्त्याभ्यासः संभवतीत्यर्थः। सत्यपि विवेके तत्तत्साक्षात्कारानुदयात्कर्मणि प्रवृत्तस्य कथं तत्त्यागः स्यादित्याशङ्क्याह यस्तु प्रारब्धेति। त्यक्तेत्यादि समनन्तरश्लोकमवतारयितुं भूमिकां कृत्वा तदवतारणप्रकारं दर्शयति स कुतश्चिदिति। लोकसंग्रहादिनिमित्तं विवक्षितं कर्म परित्यागासंभवे सति तस्मिन्प्रवृत्तोऽपि नैव करोति किंचिदिति संबन्धः। कर्मणि प्रवृत्तो न करोति कर्मेति कथमुच्यते तत्राह स्वप्रयोजनाभावादिति। कथं तर्हि कर्मणि प्रवर्तते तत्राह लोकेति। प्रवृत्तेरर्थक्रियाकारित्वाभावंपश्वादिभिश्चाविशेषात् इति न्यायेन व्यावर्तयति पूर्ववदिति। कथं तर्हि विवेकिनामविवेकिनां च विशेषः स्यादित्याशङ्क्य कर्मादौ सङ्गासङ्गाभ्यामित्याह कर्मणीति। उक्तेऽर्थे समनन्तरश्लोकमवतारयति ज्ञानाग्नीति। एतमर्थं दर्शयिष्यन्निमं श्लोकमाहेति योजना। यथोक्तं ज्ञानं कूटस्थात्मदर्शनं तेन स्वरूपभूतं सुखं साक्षादनुभूय कर्मणि तत्फले च सङ्गमपास्य विषयेषु निरपेक्षश्चेष्टते विद्वानित्याह त्यक्त्वेत्यादिना। इष्टसाधनसापेक्षस्य कुतो निरपेक्षत्वमित्याशङ्क्य विशिनष्टि निराश्रय इति। यदाश्रित्येति यच्छब्देन फलसाधनमुच्यते। आश्रयरहितमित्यस्यार्थं स्पष्टयति दृष्टेति। तेन ज्ञानवता पुरुषेणैवंभूतेन। त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गमित्यादिना विशेषितेनेत्यर्थः। ततः ससाधनात्कर्मणः सकाशादिति यावत्। निर्गमासंभवे हेतुमाह लोकेत्यादिना। पूर्ववज्ज्ञानोदयात्प्रागवस्थायामिवेत्यर्थः। अभिप्रवृत्तोऽपि लोकदृष्ट्येति शेषः। नैव करोति किंचिदिति स्वदृष्ट्येति द्रष्टव्यम्।
Swami Sivananda
4.20 त्यक्त्वा having abandoned? कर्मफलासङ्गम् attachment to the fruits of action? नित्यतृप्तः even content? निराश्रयः depending on nothing? कर्मणि in action? अभिप्रवृत्तः engaged? अपि even? न not? एव verily? किञ्चित् anything? करोति does? सः he.Commentary The same idea of inaction in action is repeated here to produce a deep impression on the minds of the aspirants. He who works for the wellbeing of the world and he who performs actions without egoism and attachment for the fruits? to set an example to the masses? really does nothing at all though he is ever engaged in activity? as he possesses the knowledge of the Self which is beyond all activity and as he has realised his identity with It.As Brahman the Absolute is selfcontained? all the desires are gratified if one realises the Self. He is ever satisfied and does not depend on anything? just as a man who has the favour of the king does not depend on the minister or the government official for anything. (Cf.IV.41)
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.20।।भवतु ज्ञानाग्निना प्राक्तनानामप्रारब्धकर्मणां दाहः आगामिनां चानुत्पत्तिः ज्ञानोत्पत्तिकाले क्रियमाणं तु पूर्वोत्तरयोरनन्तर्भावात्फलाय भवेदिति भवेत्कस्यचिदाशङ्का तामपनुदति कर्मणि फले चासङ्ग कर्तृत्वाभिमानं भोगाभिलाषं च त्यक्त्वा अकर्त्रभोक्त्रात्मसम्यग्दर्शनेन बाधित्वा नित्यतृप्तः परमानन्दस्वरूपलाभेन सर्वत्र निराकाङ्क्षः। निराश्रयः आश्रयो देहिन्द्रयादिरद्वैतदर्शनेन निर्गतो यस्मात्स निराश्रयो देहेन्द्रियाद्यभिमानशून्यः। फलकामनायाः कर्तृत्वाभिमानस्य च निवृत्तौ क्रमेण हेतुगर्भं विशेषणद्वयम्। एवंभूतो जीवन्मुक्तो व्युत्थानदशायां कर्मणि वैदिके लौकिके वा अभिप्रवृत्तोऽपि प्रारब्धकर्मवशाल्लोकदृष्ट्याऽभितः साङ्गोपाङ्गानुष्ठानाय प्रवृत्तोऽपि स्वदृष्ट्या नैव किंचित्करोति सः। निष्क्रियात्मदर्शनेन बाधितत्वादित्यर्थः।
Sri Jayatritha
।।4.20।।यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः 4।19 इत्यनेन यदुक्तं तदेवत्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं इत्यनेनोच्यते। सङ्कल्पो हि कर्मासङ्गः कामश्च फलासङ्ग इत्यतः सङ्गतिपूर्वमन्यथा व्याचष्टे न चेति। नैतावता कर्मस्वरूपं सम्पूर्णमित्यर्थः। किं तर्हीत्यध्याहारः। ननुनित्यतृप्तो निराश्रयः इति साध्योऽर्थः कथं साधने निवेश्यते इत्यत आह ज्ञानेति। कर्मण्यकर्मेत्यपेक्षया पुनरिति। मिथ्याज्ञानमेतदित्यतोऽभिप्रायमाह नित्येति। इति हेतोरहमपि तथाविधः किन्त्वविद्यया तथा न प्रतीयत इति जानन्नित्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।4.20 4.21।।त्यक्त्वेति। निराशीरिति। अभिप्रवृत्तोऽपि आभिमुख्येन प्रवृत्तोऽपि। शरीरोपयोगि इन्द्रियव्यापारात्मकं कर्म शारीरं यत् मनोबुद्धिभ्यां न तथा अनुरञ्जितम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.20।।अनन्तरश्लोकस्यार्थान्तरपरत्वपौनरुक्त्ययोर्व्युदासायाह एतदेव विवृणोतीति।नित्यतृप्तः इत्यत्र नित्यं तृप्त इति नार्थः तृप्तिहेत्वनुक्तेःकर्मफलासङ्गं त्यक्त्वा इति कामवर्जितत्वविवरणेन अनित्यत्यागोऽभिहिते सङ्कल्पवर्जितत्वविवरणतया नित्यस्वीकारस्य च वक्तुमुचितत्वादित्यभिप्रेत्यनित्ये स्वात्मन्येव तृप्त इत्युक्तम्।निराश्रयः इत्यत्र न तावदाश्रयभूतदेशादिमात्रं निषिध्यते तत्परित्यागस्य अशक्यत्वात् अतोऽत्र लौकिकानां य आश्रयणीयत्वबुद्धिविषयः तस्याश्रयणीयत्वबुद्धिरेव निषिध्यत इत्यभिप्रेत्योक्तं अस्थिरेत्यादि। तद्वृत्तस्य आकाङ्क्षया य इत्यध्याहृतम्। अभिशब्दार्थ आभिमुख्यं तदेकपरता।नैव किञ्चित् इत्युक्ते सामान्यतो ज्ञानमपि निषिद्धं स्यादिति तद्व्युदासायोचितं विशेष्यमाह नैव किञ्चित्कर्मेति।कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति इति व्याहतमिदमित्याशङ्क्याह कर्मापदेशेनेति। विपरीतविषयसञ्चरणेन ज्ञानाभ्यासविरोधिनामिन्द्रियाणामनुकूलविषयसञ्चरणमात्रं हि कर्मयोग इति भावः।
Sri Shankaracharya
।।4.20।। त्यक्त्वा कर्मसु अभिमानं फलासङ्गं च यथोक्तेन ज्ञानेन नित्यतृप्तः निराकाङ्क्षो विषयेषु इत्यर्थः। निराश्रयः आश्रयरहितः आश्रयो नाम यत् आश्रित्य पुरुषार्थं सिसाधयिषति दृष्टादृष्टेष्टफलसाधनाश्रयरहित इत्यर्थः। विदुषा क्रियमाणं कर्म परमार्थतोऽकर्मैव तस्य निष्क्रियात्मदर्शनसंपन्नत्वात्। तेन एवंभूतेन स्वप्रयोजनाभावात् ससाधनं कर्म परित्यक्तव्यमेव इति प्राप्ते ततः निर्गमासंभवात् लोकसंग्रहचिकीर्षया शिष्टविगर्हणापरिजिहीर्षया वा पूर्ववत् कर्मणि अभिप्रवृत्तोऽपि निष्क्रियात्मदर्शनसंपन्नत्वात् नैव किञ्चित् करोति सः।।यः पुनः पूर्वोक्तविपरीतः प्रागेव कर्मारम्भात् ब्रह्मणि सर्वान्तरे प्रत्यगात्मनि निष्क्रिये संजातात्मदर्शनः स दृष्टादृष्टेष्टविषयाशीर्विवर्जिततया दृष्टादृष्टार्थे कर्मणि प्रयोजनमपश्यन् ससाधनं कर्म संन्यस्य शरीरयात्रामात्रचेष्टः यतिः ज्ञाननिष्ठो मुच्यते इत्येतमर्थं दर्शयितुमाह
Sri Ramanujacharya
।।4.20।।कर्मफलासङ्गं त्यक्त्वा नित्यतृप्तो नित्ये स्वात्मनि एव तृप्तः निराश्रयः अस्थिरप्रकृतौ आश्रयबुद्धिरहितो यः कर्माणि करोति। स कर्मणि आभिमुख्येन प्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् कर्म करोति कर्मापदेशेन ज्ञानाभ्यासम् एव करोति इत्यर्थः।पुनः अपि कर्मणा ज्ञानाकारता एव विशोध्यते
Sri Sridhara Swami
।।4.20।।किंच त्यक्त्वेति। कर्मणि तत्फले चासक्तिं त्यक्त्वा नित्येन निजानन्देन तृप्तः अतएव योगक्षेमार्थमाश्रयणीयरहितः एवंभूतो यः स्वाभाविके विहिते च कर्मण्यभितः प्रवृत्तोऽपि किंचिदपि नैव करोति। तस्य कर्माकर्मतामापद्यत इत्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।4.20।।एवं कर्त्ताऽप्यकर्त्तैव स असङ्गात् ब्रह्मवत् तदाह त्यक्त्वेति। अत्रकर्मण्यकर्म यः पश्येत् 4।18 इत्याद्युक्तं स्वयमेव विवृणोति भगवांश्चतुर्भिः। क्रियानिर्वर्त्ये कर्मणि यज्ञादौ फलं स्वर्गादि प्राकृतं तथा सङ्गं प्राकृतं स्वस्य कर्तृत्वाभिनिवेशनं च त्यक्त्वा अर्थात् अप्राकृतं वस्तु यथाभूततया सर्वं विभाव्य कर्मणि प्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति अकर्मैव स यथा ब्रह्मा कर्मोक्तं तथैव नित्यानन्देन तृप्तः प्राकृताश्रयरहितश्च तत्तद्वस्तुनि ब्रह्मभावनादिति वक्ष्यति।