Chapter 4, Verse 9
Verse textजन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।4.9।।
Verse transliteration
janma karma cha me divyam evaṁ yo vetti tattvataḥ tyaktvā dehaṁ punar janma naiti mām eti so ’rjuna
Verse words
- janma—birth
- karma—activities
- cha—and
- me—of mine
- divyam—divine
- evam—thus
- yaḥ—who
- vetti—know
- tattvataḥ—in truth
- tyaktvā—having abandoned
- deham—the body
- punaḥ—again
- janma—birth
- na—never
- eti—takes
- mām—to me
- eti—comes
- saḥ—he
- arjuna—Arjun
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
Whoever knows correctly the divine birth and action of Mine, he, upon abandoning the body, does not go to rebirth, but goes to Me, O Arjuna!
Swami Ramsukhdas
।।4.9।। हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीरका त्याग करके पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।
Swami Tejomayananda
।।4.9।। हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत: जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता; वह मुझे ही प्राप्त होता है।।
Swami Adidevananda
He who thus knows in truth My divine birth and actions does not get rebirth after leaving the body; he will come to Me, O Arjuna.
Swami Gambirananda
He who thus knows truly the divine birth and actions of Mine does not get rebirth after casting off the body. He attains Me, O Arjuna.
Swami Sivananda
He who thus knows, in their true light, My divine birth and actions, having abandoned the body, is not born again; he comes to Me, O Arjuna.
Shri Purohit Swami
He who realizes the divine truth concerning My birth and life does not take birth again; and when he leaves his body, he becomes one with Me.
Verse commentaries
Sri Purushottamji
।।4.9।।तदेव विवृण्वन्ति जन्म कर्म चेति। मे जन्म प्राकट्यं कर्म क्रिया दिव्यं क्रीडात्मकम्। अहं लीलार्थं प्रकटो भवामीत्यर्थः। लीलायां क्रियमाणायां कालीयदमनादिरूपकर्मभिः साधूनां भक्तानां रक्षा भवतीति भावः। यतो मत्प्राकट्यं क्रीडार्थं तत एवं यो वेत्ति स तत्त्वतो देहं त्यक्त्वा लीलायां सेवार्थसृष्टदेहेन सेवां कृत्वा तदसामर्थ्ये देहं त्यक्त्वा हे अर्जुन पुनर्जन्म लौकिकं पूर्ववन्नैति न प्राप्नोति। मामेति मां प्राप्नोति। प्रकर्षेणाप्नोति अलौकिकदेहेन लीलायामिति भावः। अत एव मामित्युक्तं न तु मत्पदं मद्भावं वा एतादृशस्य दुर्लभत्वात्स इत्येकवचनमुक्तम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.9।।जन्म नित्यसिद्धस्यैव मम सच्चिदानन्दघनस्य लीलया तथानुकरणं कर्म च धर्मसंस्थापनेन जगत्परिपालनं मे मम नित्यसिद्धेश्वरस्य दिव्यमप्राकृतमन्यैः कर्तुमशक्यमीश्वरस्यैवासाधारणम्। एवमजोऽपि सन्नित्यादिना प्रतिपादितं यो वेत्ति तत्त्वतो भ्रमनिवर्तनेन। मूढैर्हि मनुष्यत्वभ्रान्त्या भगवतोऽपि गर्भवासादिरूपमेव जन्म स्वभोगार्थमेव कर्मेत्यारोपितं परमार्थतः शुद्धसच्चिदानन्दघनरूपत्वाज्ञानेन तदपनुद्य अजस्यापि मायया जन्मानुकरणमकर्तुरपि परानुग्रहाय कर्मानुकरणमित्येव यो वेत्ति स आत्मनोऽपि तत्त्वस्फुरणात् त्यक्त्वा देहमिमं पुनर्जन्म नैति किंतु मां भगवन्तं वासुदेवमेव सच्चिदानन्दघनमेति। संसारान्मुच्यत इत्यर्थः। हे अर्जुन।
Swami Chinmayananda
।।4.9।। अवतार कैसे होता है तथा उसका प्रयोजन भी बताने के पश्चात् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि जो पुरुष उनके दिव्य जन्म और कर्म को तत्त्वत जानता है वह सब बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मस्वरूप बन जाता है। तत्त्वत शब्द से यह स्पष्ट किया गया है कि इसे केवल बुद्धि के स्तर पर जानना नहीं है वरन् यह अनुभव करना है कि अपने ही हृदय में किस प्रकार परमात्मा का अवतरण होता है। आज निसन्देह ही हम एक पशु के समान जी रहे हैं परन्तु जब कभी हम निस्वार्थ इच्छा से प्रेरित हुए कर्म करते हैं उस समय परमात्मा की ही दिव्य क्षमता हमारे कर्मों में झलकती है।इस श्लोक में सूक्ष्म संकेत यह भी है कि आत्मविकास के लिये भगवान् के आनन्दरूप की उपासना करना निराकार आत्मा के ध्यान के समान ही प्रभावकारी है। कुछ वेदान्त विचारक ऐसे भी हैं जो भगवान् के सगुणसाकार होने की कल्पना को स्वीकार नहीं करते। अत वे अवतार को भी नहीं मानते। वास्तव में यह युक्तियुक्त नहीं है। पूरी लगन से जो पुरुष साधना करता है वह सगुण अथवा निर्गुण उपासना के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।यहाँ उस पूर्णत्व की स्थिति का संकेत किया गया है जिसे प्राप्त करके जीव का पुनर्जन्म नहीं होता। वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर इसका संकेत अमृतत्त्व शब्द से किया गया है तो दूसरे स्थानों पर पुनर्जन्म के अभाव के रूप में। ऐसा प्रतीत होता है मानो पहले लोग मृत्यु से डरते थे इसलिये पूर्णत्व की स्थिति मे उसका अभाव बताया गया है। अन्य विचारकों ने यह अनुभव किया होगा कि मृत्यु से अधिक दुखदायी जन्म है क्योकि उसके पश्चात् दुखों की एक शृंखला प्रारम्भ हो जाती है। अत मोक्ष का लक्षण पुनर्जन्म का अभाव कहा गया है।जिनका जन्म होता हैउसी का नाश भी होता है इस कारण अमृतत्त्व और पुनर्जन्म के अभाव से पूर्णत्व की स्थिति का ही संकेत किया गया है। तथापि दूसरे शब्द से विचारकों की परिपक्वता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।यह मोक्षमार्ग केवल वर्तमान में ही प्रवृत्त नहीं हुआ बल्कि प्राचीनकाल में भी अनेक साधकों ने इसका अनुसरण किया था राग भय और क्रोध से रहित मन्मय (मेरे में स्थिति वाले) मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त
Sri Jayatritha
।।4.9।।जन्म कर्म चेति। भगवज्जन्मादिज्ञानमात्रेण मुक्तिरुच्यत इति प्रतीतिनिरासायाह पृथगिति।एकदेशज्ञानेनेत्यर्थः। दर्शनार्थमुपलक्षणार्थम्। यथाप्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह न त्विति उक्तं तृतीये। प्रमाणान्तरं चाह वेदादीति। वाक्यत्वाविशेषादेतस्य गीताबाधकत्वं कुतः इत्यतः सावकाशत्वनिरवकाशत्वाभ्यामित्याह अत्रेति। अयोगव्यवच्छेदमात्रपरत्वमित्यर्थः। एतच्च पूर्वोक्तादर्थान्तरमिति ज्ञेयम्। इतरवाक्यान्यधिकारिविशेषापेक्षया सावकाशानीति कुतो नान्या गतिः इत्यत आह नेति। विशेषणात् पक्षान्तरव्यवच्छेदात्। इतोऽप्यत्र सर्वज्ञानमङ्गीकार्यमित्याह तत्त्वत इति।आपतति इत्यनेनार्थापत्तिमभिप्रैति। एतमेवन्यायमन्यप्राप्यमतिदिशति यत्रेति। एवं भवति सर्वज्ञाने प्रमितेऽप्येकदेशज्ञानोक्तिर्भवति। तत्त्वतो ज्ञानं कथं सर्वज्ञतामाक्षिपतीत्यत आह उक्तं चेति। जिज्ञसेत् जिज्ञासेत। अन्यत्रापिएको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः इति। सर्वत्र सार्वज्ञं यथाशक्ति विवक्षितमित्यवधेयम्।
Swami Ramsukhdas
4.9।। व्याख्या--'जन्म कर्म च मे दिव्यम्'--भगवान् जन्म-मृत्युसे सर्वथा अतीत--अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका मनुष्यरूपमें अवतार साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता। वे कृपापूर्वक मात्र जीवोंका हित करनेके लिये स्वतन्त्रतापूर्वक मनुष्य आदिके रूपमें जन्म-धारणकी लीला करते हैं। उनका जन्म कर्मोंके परवश नहीं होता। वे अपनी इच्छासे ही शरीर धारण करते हैं (टिप्पणी प0 226)।भगवान्का साकार विग्रह जीवोंके शरीरोंकी तरह हाड़-मांसका नहीं होता। जीवोंके शरीर तो पाप-पुण्यमय, अनित्य, रोगग्रस्त, लौकिक, विकारी, पाञ्चभौतिक और रज-वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले होते हैं, पर भगवान्के विग्रह पाप-पुण्यसे रहित, नित्य, अनामय, अलौकिक, विकाररहित, परम दिव्य और प्रकट होनेवाले होते हैं। अन्य जीवोंकी अपेक्षा तो देवताओंके शरीर भी दिव्य होते हैं, पर भगवान्का शरीर उनसे भी अत्यन्त विलक्षण होता है, जिसका देवतालोग भी सदा ही दर्शन चाहते रहते हैं (गीता 11। 52)।भगवान् जब श्रीराम तथा श्रीकृष्णके रूपमें इस पृथ्वीपर आये तब वे माता कौसल्या और देवकीके गर्भसे उत्पन्न नहीं हुए। पहले उन्हें अपने शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी स्वरूपका दर्शन देकर फिर वे माताकी प्रार्थनापर बालरूपमें लीला करने लगे। भगवान् श्रीरामके लिये गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं--
Sri Shankaracharya
।।4.9।। जन्म मायारूपं कर्म च साधूनां परित्राणादि मे मम दिव्यम् अप्राकृतम् ऐश्वरम् एवं यथोक्तं यः वेत्ति तत्त्वतः तत्त्वेन यथावत् त्यक्त्वा देहम् इमं पुनर्जन्म पुनरुत्पत्तिं न एति न प्राप्नोति। माम् एति आगच्छति सः मुच्यते हे अर्जुन।।नैष मोक्षमार्ग इदानीं प्रवृत्तः किं तर्हि पूर्वमपि
Swami Sivananda
4.9 जन्म birth? कर्म action? च and? मे My? दिव्यम् divine? एवम् thus? यः who? वेत्ति knows? तत्त्वतः in true light? त्यक्त्वा having abandoned? देहम् the body? पुनः again? जन्म birth? नः not? एति gets? माम् to Me? एति comes? सः he? अर्जुन O Arjuna.Commentary The Lord? though apparently born? is always beyond birth and death though apparently active for firmly establishing righteousness? He is ever beyond all actions. He who knows this is never born again. He attains knowledge of the Self and becomes liberated while living.The birth of the Lord is an illusion. It is Aprakrita (beyond the pale of Nature). It is divine. It is peculiar to the Lord. Though He appears in human form? His body is Chinmaya (full of consciousness? not inert matter as are human bodies composed of the five elements).
Sri Abhinavgupta
।।4.5 4.9।।बहूनि इत्यादि अर्जुन इत्यन्तम्। श्रीभगवान् किल पूर्णषाड्गुण्यत्वात् शरीरसंपर्कमात्ररहितोऽपि स्थितिकारित्वात् कारुणिकतया आत्मांशं सृजति। आत्मा पूर्णषाड्गुण्यः अंशः उपकारकत्वेन अप्रधानभूतो ( N omit अ) यत्र तत् आत्मांशं शरीरं गृह्णाति इत्यर्थः। अत एवास्य जन्म दिव्यम् यत आत्ममायया योगप्रज्ञया स्वस्वातन्त्रयशक्त्या ( omits स्व) आरब्धम् न कर्मभिः। कर्मापि दिव्यम् फलदानासमर्थत्वात्। यश्चैवमेतत्तत्त्वं वेत्ति आत्मन्यप्येवमेव मन्यते सोऽवश्यं भगवद्वासुदेवतत्त्वं जानाति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.9।।प्रासङ्गिकस्यावतारयाथात्म्यकथनस्य परमप्रकृतमोक्षोपयोगित्वमुच्यते जन्म कर्म इति श्लोकेन।एवमिति अजोऽपि 4।6 इत्यादिनोक्तप्रकारेणेत्यर्थः।दिव्यं इत्यस्यैवार्थःअप्राकृतमिति।मदसाधारणमित्यनेन बहु स्यां प्रजायेय छां.उ.6।2।3तै.आ.6।2 इत्युक्तजन्मव्यवच्छेदः। वह्न्यौष्ण्यवद्धर्मिग्राहकप्रमाणसिद्धः पदार्थान्तरेष्वदृष्टश्च प्रकारो न तर्कबाध्य इति भावः।जन्म कर्म च मे दिव्यम् इत्युक्ते जन्मवत्तद्धेतुभूतं पुण्यमपि किमस्ति। इति शङ्काव्युदासायचेष्टितमिति व्याख्यातम्।तत्त्वत इति संशयविपर्ययरहितमित्यर्थः।देहं परित्यज्य इत्युक्ते प्रारब्धकर्मपर्यवसानदेहं परित्यज्येति साधारणप्रतीतिः स्यात् तद्व्यवच्छेदाय वर्तमानदेहं परित्यज्येत्युक्तम्। एतच्चयो वेत्ति स पुनर्जन्म नैति इति वेदितृत्वावस्थापेक्षया पुनर्जन्मप्रतिषेधात्फलितम्।पुनर्जन्म नैति इत्यनेन विरोधिनिवृत्तिरुच्यतेमामेति इतीष्टप्राप्तिः। न केवलं विरोधिनिवृत्तिमात्रेण स्वात्मानन्दानुभवमात्रम् अपित्ववताररहस्यज्ञानवान्मामेव प्राप्नोतीत्यवधारणार्थः। ननु वर्तमानदेहं परित्यज्येत्याद्ययुक्तम् प्रारब्धकर्मावसाने हि मोक्षः शारीरके निर्णीतः प्रारब्धस्य च कर्मणः कियन्ति जन्मानि साध्यानीति न नियमः व्यासादिष्वनियमदर्शनात्। न च जन्मकर्मज्ञानमात्रान्मोक्षः दीर्घकालनैरन्तर्यादरसेवनीयदुष्करतरकर्मज्ञानानुगृहीतोपासनशास्त्रार्थनैरर्थक्यप्रसङ्गादित्यत्राह मदीयेति। दिव्यजन्मचेष्टितज्ञानेनोपासनविरोधिनां समस्तानां पापानां निवृत्तत्त्वादस्मिन्नेव जन्मनि जन्मान्तरारम्भकपापांशप्रशमनसमर्थपुष्कलोपासननिष्पत्तेर्न जन्मान्तरपरिग्रहः। स्मरन्ति चविनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि वि.पु.6।7।35 इति। एवं चोपासनपौष्कल्यहेतुतयाऽस्याभिधानात् परम्परया मोक्षसाधनत्वमिति नोपासनशास्त्रवैयर्थ्यमिति भावः।यथोदितप्रकारेण मामाश्रित्येति पुष्कलध्यानावस्थोच्यते।मदेकप्रिय इति तु भक्तिरूपापन्नतोक्तिः। अहमेक एव प्रियः प्रीतिविषयो यस्य स मदेकप्रियःप्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहम् 7।17 इति वक्ष्यते। एतेन पुरुषार्थान्तरनिष्ठव्यवच्छेदः।मेदकचित्त इति समाध्यवस्था। मय्येकस्मिन्नेव चित्तं यस्य स मदेकचित्तः।
Sri Ramanujacharya
।।4.9।।एवं कर्ममूलभूतहेयत्रिगुणप्रकृतिसंसर्गरूपजन्मरहितस्य सर्वेश्वरत्वसर्वज्ञत्वसत्यसंकल्पत्वादिसमस्तकल्याणगुणोपेतस्य साधुपरित्राणमत्समाश्रयणैकप्रयोजनं दिव्यम् अप्राकृतं मदसाधारणं मम जन्म चेष्टितं च तत्त्वतः यो वेत्ति स वर्तमानं देहं परित्यज्य पुनः जन्म न एति माम् एव प्राप्नोति।मदीयदिव्यजन्मचेष्टितयाथात्म्यविज्ञानेन विध्वस्तसमस्तमत्समाश्रयणविरोधिपाप्मा अस्मिन् एव जन्मनि यथोदितप्रकारेण माम् आश्रित्य मदेकप्रियो मदेकचित्तो माम् एव प्राप्नोति।तद् आह
Sri Neelkanth
।।4.9।।जन्म मायामयम् कर्म साधुत्राणम् दिव्यमप्राकृतं यो वेत्ति स त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म न प्राप्नोति किंतु मामेति मामेव प्राप्नोति। एतेन भगवतो जन्मानि कर्माणि च भगवत्प्राप्तिकामेन गेयानीति दर्शितम्।
Sri Madhavacharya
।।4.9।।पृथङ्मुक्त्युक्तिर्हि सर्वज्ञानि(न)नियमदर्शनार्थम्। न तु तावन्मात्रेण मुक्तिरित्युक्तम् 3।20।वेदाद्युक्तं तु सर्वं यो ज्ञात्वोपास्ते सदा हि माम्। तस्यैव दर्शनपथं यामि नान्यस्य कस्यचित् इत्युक्तेश्च महाकौर्मे। अत्रोक्तस्यैतज्ज्ञात्वैव जन्म नैतीति गतिः। इतरवाक्यानां नान्या गतिः। नान्यस्य कस्यचिदिति विशेषणात् तत्त्वत इति विशेषणाच्च सर्वं ज्ञानमापतति। यत्रैवं भवति तत्र तत्त्वत इति विशेषणे न विरोधः। उक्तं च एकं च तत्त्वतो ज्ञातुं विना सर्वज्ञतां नरः। न समर्थो महेन्द्रोऽपि तस्मात्सर्वत्र जिज्ञसेत् इति स्कान्दे।
Sri Dhanpati
।।4.9।।जन्म मायिकम्। कर्म साधुपरित्राणादि। मम परमेश्वरस्यैश्वरमप्राकृतं यस्तत्त्वतो वेत्ति स देहं त्यक्त्वा पुनरुत्पत्तिं न प्राप्नोति किंतु मां परमात्मानमेति। मुच्यत इत्यर्थः। अर्जुनेति संबोधयन् मज्जन्मकर्मतत्त्वज्ञानशोधितत्वंपदस्तत्पदाभेदं लब्ध्वा मुच्यत इति सूचयति।
Sri Anandgiri
।।4.9।।मायामयमीश्वरस्य जन्म न वास्तवं तस्यैव च जगत्परिपालनं कर्म नान्यस्येति जानतः श्रेयोवाप्तिं दर्शयन् विपक्षे प्रत्यवायं सूचयति तज्जन्मेत्यादिना। यथोक्तं मायामयं कल्पितमिति यावत् वेदनस्य यथावत्त्वं वेद्यस्य जन्मादेरुक्तरूपानतिवर्तित्वम्। यदि पुनर्भगवतो वास्तवं जन्म साधुजनपरिपालनादि चान्यस्यैव कर्म क्षत्रियस्येति विवक्ष्यते तदा तत्त्वापरिज्ञानप्रयुक्तो जन्मादिः संसारो दुर्वारः स्यादिति भावः।
Sri Sridhara Swami
।।4.9।।एवंविधानामीश्व रजन्मकर्मणां ज्ञाने फलमाह जन्मकर्मेति। मे जन्म स्वेच्छाकृतं कर्म च धर्मपालनरूपं दिव्यमलौकिकं तत्त्वतः परानुग्रहार्थमेवेति यो वेत्ति स देहाभिमानं त्यक्त्वा पुनर्जन्म नैति न प्राप्नोति किंतु मामेव प्राप्नोति।
Sri Vallabhacharya
।।4.9।।किञ्च उत्पत्तिस्त्रिधा। यथोक्तंवैष्णवतन्त्रेअनित्ये जननं नित्ये परिच्छिन्ने समागमः। नित्यापरिच्छिन्नतनौ प्राकट्यं चेति सा त्रिधा इति। अतो न ममायं सम्भवः प्राकृतस्येव कर्म वा मायिकं किन्त्वैच्छिकं दिव्यमित्याशयेन स्वजन्मकर्मणां ज्ञाने फलमाह जन्मकर्मेति। जन्मन इह प्रादुर्भावार्थकत्वाद्दिव्यत्वं किं पुनर्वपुषः कर्म च तथा दिव्यमलौकिकं तत्त्वतो यो वेत्ति सोऽपि जन्मफलं प्राप्य प्राकृतं देहं त्यक्त्वाऽर्थादलोकसम्बन्धिसच्चिदानन्दमयस्वरूपं प्राप्य पुनर्जन्म नैति किन्तु मामेतीत्यर्थः।अत्र केचित् जन्ममूलदेहस्य भगवति प्राकृतत्वमभ्युपगच्छन्ति तदसत् तत्र देहदेहिविभागाभावात्। पाञ्चभौतिकत्वजन्यत्वनियमस्य प्राकृतविषयत्वादप्राकृते यथाश्रुतीच्छाविषयत्वेन तत्सिद्धिः। अन्यथाज्ञानेच्छादीनामनित्यत्वनियमान्नित्यज्ञानादिकमपि वाद्यभिमतं न तत्र सिद्ध्येत्। ननु ज्ञानादिभिरेव जगत्कर्तृत्वोपपत्तौ प्रत्यक्षबाधाच्च किमित्यानन्यमयदेहोऽभ्युपेयः इति चेत् न कर्तृत्वनिर्वाहार्थमेव व्याप्तिबलेन नित्यज्ञानवत्तथाविधदेहस्वीकारात् नित्यापरिच्छिन्नतनोः प्राकट्यस्यैव जन्मत्वेन जन्यत्वाभावात्। आनन्दाद्ध्येव नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 स यथा सैन्धवघनः बृ.उ.4।5।13आनन्दमयोऽभ्यासात् ब्र.सू.1।1।12 आह चतन्मात्रं आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः इत्यादिश्रुतिन्यायपुराणवाक्यैः पूर्ण एव देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणात्मस्वरूप एव सदानन्दरूपो ज्ञानरूपः पुरुषोत्तमः नत्वात्ममात्रमिति निर्बाधमुपैहि। ननु तथाप्यानन्दत्वदेहवत्त्वयोर्विरोध इति चेत् न स्वस्वाधिकरणे प्रमाणैरेकत्रोभयोः सिद्ध्यसिद्धिभ्यां वा विरोधाभावात्। तथाप्यानन्दस्य धर्मिरूपत्वे कथं धर्मरूपत्वम् इति चेत् न स यथा सैन्धवघनः यः सर्वज्ञः मुं.उ.1।9 इति श्रुतिभ्यां ज्ञानरूपत्वज्ञानाधारवदानन्दरूपत्वतदाधारत्वयोरविरोधात्। विरुद्धधर्माश्रयत्वाच्चानन्दादिमत्त्वमिति दिक्। एतेन यस्तत्र परिदृश्यमानरूपः स एव साक्षात्स्वेच्छातनुरानन्दमयः पुरुषोत्तमो नान्य इति यथाभूतार्थोपदेष्टृभगवद्वाक्यादवसेयम्।पुरुषोत्तम एवायं स्वैश्वर्याद्यक्षरात्मकम्। विरुद्धधर्माश्रयणं स्वीयविश्वासपूर्त्तये। क्वचित् क्वचिद्दर्शयति प्रभुर्गोपालनन्दनः। निगमप्रतिपाद्यात्मदृश्यमानवपुर्हरिः। विशेषस्तूत्तरत्र स्पष्टीभविष्यति।