Chapter 4, Verse 18
Verse textकर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।
Verse transliteration
karmaṇyakarma yaḥ paśhyed akarmaṇi cha karma yaḥ sa buddhimān manuṣhyeṣhu sa yuktaḥ kṛitsna-karma-kṛit
Verse words
- karmaṇi—action
- akarma—in inaction
- yaḥ—who
- paśhyet—see
- akarmaṇi—inaction
- cha—also
- karma—action
- yaḥ—who
- saḥ—they
- buddhi-mān—wise
- manuṣhyeṣhu—amongst humans
- saḥ—they
- yuktaḥ—yogis
- kṛitsna-karma-kṛit—performers all kinds of actions
Verse translations
Swami Sivananda
He who sees inaction in action and action in inaction, he is wise among men; he is a yogi and performer of all actions.
Swami Ramsukhdas
।।4.18।। जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला है।
Swami Tejomayananda
।।4.18।। जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।।
Swami Adidevananda
He who sees inaction in action and also action in inaction is wise among men. He is fit for release and has accomplished all actions.
Swami Gambirananda
He who finds inaction in action, and action in inaction, is the wise one [possessed of the knowledge of Brahman] among men; they are engaged in yoga and are performers of all actions!
Dr. S. Sankaranarayan
He who finds non-action in action, and action in non-action, is an intelligent one among men and is said to be a performer or destroyer of all actions.
Shri Purohit Swami
He who can see inaction in action, and action in inaction, is the wisest among men. He is a saint, even though he still acts.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।4.18।।तस्यैव कर्मणो याथात्म्यं स्वयं दर्शयन् क्रियाद्वैतमाह कर्मण्यकर्मेति। वैदिकरूपे विहिते कर्मणि यज्ञकर्मणि स्वक्रियानिर्वर्त्त्ये उक्तप्रकारके कर्मणीत्युपलक्षणं सर्वत्रैव अकर्म निर्बन्धकत्वं समं ब्रह्म वा साङ्ख्ययोगमार्गीयः सन् पश्येत् भावयेत् सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत छा.उ.3।1।4।1 इति श्रुतेःसर्वं ब्रह्मात्मकं जानन् तथा कर्म च भावयेत् इत्याचार्योक्तेश्च। अयमेव ज्ञानयज्ञ इति स्वयमेव वक्ष्यति भगवान्। इदं चोत्तमाधिकारिककर्मणो याथात्म्यं सङ्क्षेपत उक्तम्। कर्माधिकारिणोऽकर्मणि च निषिद्धे अकरणे वा कर्म बन्धनं पश्येत्। अत्रेदमाकूतम्या निशा सर्वभूतानां 2।69 इत्यत्रेव परस्परं विपरीतस्वभावयोरुत्तमापकृष्टयोर्विपरीते क्रियानिर्वर्त्ये कर्मणी भवतः तेनापकृष्टाधिकारिकं कर्मोत्तमाधिकारिणो कर्मैव उत्तमाधिकारिककर्म चापकृष्टाधिकारिणः अकर्माकर्त्तव्यमेव। तत्र चान्योन्यभावधीभेदात् फलवैलक्षण्यं युक्तमेवेति। तदेवं यथाभूतं यः पश्येत्स सर्वमनुष्येषु बुद्धिमान् युक्तः ब्रह्मणि योगे च प्रवणः कृत्स्नकर्मकृच्च तत्कर्मणि सर्वकर्मफलानामानन्दानामन्तर्भूतत्वात्तत्कर्त्ता भवति। अन्येत्वयुक्ता अबुद्धिमन्तोऽपूर्णकर्मकारिणश्चेत्युक्ताः।
Swami Ramsukhdas
4.18।। व्याख्या--'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्'-- कर्ममें अकर्म देखनेका तात्पर्य है--कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात् अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना। अमुक कर्म मैं करता हूँ, इस कर्मका अमुक फल मुझे मिले--ऐसा भाव रखकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है। प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये उसका फल भी आरम्भ और अन्त होनेवाला होता है। परन्तु जीव स्वयं नित्य-निरंतर रहता है। इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फलसे सर्वथा सम्बन्धरहित है, फिर भी वह फलकी इच्छाके कारण उनसे बँध जाता है। इसीलिये चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मेरेको कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है। फलकी स्पृहा या इच्छा ही बाँधनेवाली है--'फले सक्तो निबध्यते' (गीता 5। 12)।फलकी इच्छा न रखनेसे नया राग उत्पन्न नहीं होता और दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना राग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार रागरूप बन्धन न रहनेसे साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है। वीतराग होनेसे सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। जीवका जन्म कर्मोंके अनुबन्धसे होता है। जैसे, जिस परिवारमें जन्म लिया है, उस परिवारके लोगोंसे ऋणानुबन्ध है अर्थात् किसीका ऋण चुकाना है और किसीसे ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्मोंमें अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है। यह लेन-देनका व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है। इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करनेका उपाय है--आगेसे लेना बंद कर दें अर्थात् अपने अधिकारका त्याग कर दें और हमारेपर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दें। इस प्रकार नया ऋण लें नहीं और पुराना ऋण (दूसरोंके लिये कर्म करके) चुका दें, तो ऋणानुबन्ध (लेनदेनका व्यवहार) समाप्त हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण बंद हो जायगा (गीता 4। 23)। जैसे, कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता है, तो वह दो काम करेगा-- पहला ,जिसको देना है, उसको दे देगा और दूसरा, जिससे लेना है, वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा। ऐसा करनेसे उसकी दूकान उठ जायगी। अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है, वह सब-का-सब ले लूँ, तो दूकान उठेगी नहीं। कारण कि जबतक वह लेनेकी इच्छासे वस्तुएँ देता रहेगा, तबतक दूकान चलती ही रहेगी, उठेगी नहीं।
Swami Chinmayananda
।।4.18।। वेदान्त के वर्णनानुसार दीर्घकाल तक जब मनुष्य कर्तव्य कर्मों का पालन करता है तब सभी सच्चे साधकों के मन में एक प्रश्न उठता है कि उन्हें कैसे ज्ञात हो कि उन्होंने पूर्णत्व की स्थिति प्राप्त कर ली है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण उस स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।शारीरिक कर्म बुद्धि में स्थित किसी ज्ञात अथवा अज्ञात इच्छा की केवल स्थूल अभिव्यक्ति है। पूर्ण नैर्ष्कम्य की स्थिति का अर्थ निष्कामत्व की स्थिति होनी चाहिए इसे ही पूर्ण ईश्वरत्व की स्थिति कहते हैं। परन्तु यहाँ बताया हुआ लक्ष्य अनन्तस्वरूप पूर्णत्व न होकर ज्ञान की तीर्थयात्रा के मध्य पड़ने वाला एक स्थान है। विवेकी पुरुष सहजता से अवलोकन कर सकता है कि शरीर से अकर्म होने पर भी उसके मन और बुद्धि पूर्ण वेग से कार्य कर रहे होते हैं। वह यह भी अनुभव करता है कि शरीर द्वारा निरन्तर कर्म करते रहने पर भी वह शान्त और स्थिर रहकर केवल द्रष्टाभाव से उन्हें स्वयं अकर्म में रहते हुए देख सकता है यह अकर्म सात्त्विक गुण की चरम्ा सीमा है।ऐसा व्यक्ति समत्व की महान् स्थिति को प्राप्त हुआ समझना चाहिये जो ध्यानाभ्यास की सफलता के लिए अनिवार्य है। जैसा कि अनेक लोगों का विश्वास है कि कर्तव्य कर्म ही हमें पूर्णत्व की प्राप्ति करा देंगे ऐसा यहाँ नहीं कहा गया है। यह सर्वथा असंभव है। कर्म स्वयं ही इच्छा का शिशु है और कर्मों के द्वारा हम वस्तुओं को उत्पन्न कर सकते हैं और कोई भी उत्पन्न की हुई वस्तु स्वभाव से ही परिच्छिन्न विनाशी होती है। इस प्रकार कर्मों के द्वारा प्राप्त किया ईश्वरत्व रविवासरीय ईश्वरत्व होगा जो आगामी सोमवार को हम से विलग हो जायेगा श्री शंकराचार्य और अन्य आचार्यवृन्द पुनपुन यह दोहराते हैं कि कर्तव्य पालन से शुद्धान्तकरण वाले व्यक्ति में वह सार्मथ्य आ जाती है कि वह स्वयं के मन में तथा बाहर होने वाली क्रियाओं को साक्षी भाव से देख सकता है। जब वह यह जान लेता है कि उसके कर्म विश्व में हो रहे कर्मों के ही भाग हैं तब उसे एक अनिर्वचनीय समता का भाव प्राप्त हो जाता है जो ध्यान के अभ्यास के लिए आवश्यक है।किसी व्यक्ति के शान्त बैठे रहने मात्र से उसे निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। शारीरिक निष्क्रियता (अकर्म) किसी व्यक्ति के क्रियाहीन होने का मापदण्ड नहीं हो सकता। यह एक सुविदित तथ्य है कि जब कभी हम गम्भीर निर्माणकारी विचारों में मग्न होते हैं तो हम केवल शारीरिक दृष्टि से बिल्कुल शान्त और निष्क्रिय हो जाते हैं। इसलिए जीवन के पादमार्ग (फुटपाथ) पर ही चलने वाले लोगों की दृष्टि से जो व्यक्ति क्रियाहीन कहलाता है उसके हृदय में गम्भीर विचारों की क्रिया का चलना सम्भव हो सकता है। बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध वाद्यों के समीप एक संगीतज्ञ हाथ में लेखनी लिए एक लेखक इन सब में कभीकभी निष्क्रयता देखी जाती है परन्तु वह निष्क्रियता सत्त्वगुण की है तमोगुण की नहीं। इन शान्त क्षणों के बाद ही वे अपनी श्रेष्ठ कलाकृति प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है।एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है।जब मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ तब मेरा ही कोई भाग मानों द्रष्टाभाव से देख सकता है कि हाथ में पकड़ी हुई लेखनी कागज पर शब्दों को लिख रही है। इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं अकर्म में रहते हुए कर्मों को देखने की क्षमता दुर्लभ नहीं है। जो कोई पुरुष इसका उपयोग करेगा वह स्पष्ट रूप से सब कर्मों में इस द्रष्टा को अकर्म रूप से पहचान सकता है।रेल चलती है वाष्प नहीं। पंखा घूमता है विद्युत नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहीं। शरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं।इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है। उसे यहाँ आत्मानुभवी नहीं कहा गया है। निसन्देह वह मनुष्यों में श्रेष्ठ है और आत्मप्राप्ति के अत्यन्त समीपस्थ है।संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण करने पर चित्त शुद्ध होता है और बुद्धि में कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं।उपर्युक्त ज्ञान की प्रशंसा अगले श्लोकों में की गयी है
Sri Anandgiri
।।4.18।।उत्तरश्लोकमाकाङ्क्षापूर्वकमुपादत्ते किं पुनरिति। प्रथमपादस्याक्षरोत्थमर्थं कथयति कर्मणीत्यादिना। द्वितीयपादस्यापिशब्दप्रकाशितमर्थं निर्दिशति अकर्मणि चेति। कर्माभावे यः कर्म पश्यतीति संबन्धः। प्रवृत्तेरेव कर्मत्वान्निवृत्तेस्तदभावत्वात्तत्र कथं कर्मदर्शनमित्याशङ्क्य द्वयोरपि कारकाधीनत्वेनाविशेषमभिप्रेत्याह कर्तृतन्त्रत्वादिति। प्रवृत्ताविव निवृत्तावपि कर्मदर्शनमविरुद्धमिति शेषः। ननु निवृत्तेर्वस्त्वधीनत्वात् कारकनिबन्धनाभावान्न तत्र कर्मदर्शनं युज्यते तत्राह वस्त्विति।क्रियाकारकफलव्यवहारस्य सर्वस्याविद्यावस्थायामेव प्रवृत्तत्वाद्वस्तुसंस्पर्शशून्यत्वात्प्रवृत्तिवन्निवृत्तावपि यः कर्म पश्यति स मनुष्येषु बुद्धिमानिति संबन्धः। कर्मण्यकर्माऽकर्मणि च कर्म पश्यतो बुद्धिमत्त्वं युक्तत्वं समस्तकर्मकृत्त्वं च कथमित्याशङ्क्याह इति स्तूयत इति। श्लोकस्य शब्दोत्थेऽर्थे दर्शिते तात्पर्यार्थापरिज्ञानान्मिथो विरोधं शङकते नन्विति। कथमिदं विरुद्धमित्याशङ्क्य कर्मणीति विषयसप्तमी वा स्यादधिकरणसप्तमी वेति विकल्प्याद्येऽन्याकारं ज्ञानमन्यावलम्बनमिति स्पष्टो विरोधः स्यादित्याह नहीति। अन्यस्यान्यात्मतायोगात्कर्माकर्मणोरभेदासंभवादकर्माकारं कर्मावलम्बनं ज्ञानमयुक्तमित्यर्थः। द्वितीयं दूषयति तत्रेति। कर्मण्यधिकरणे ततो विरुद्धमकर्म कथमाधेयं द्रष्टा द्रष्टुमीष्टे। नहि कर्माकर्मणोर्मिथोविरुद्धयोराधाराधेयभावः संभवतीत्यर्थः। विषयसप्तमीमभ्युपेत्य सिद्धान्ती परिहरति नन्वकर्मैवेति। लोकस्य मूढदृष्टेर्विवेकवर्जितस्य परमार्थतो ब्रह्माकर्माक्रियमेव सद् भ्रान्त्या कर्मसहितं क्रियावदिव प्रतिभातीत्यक्षरार्थः। परस्पराध्यासमभ्युपेत्योक्तं तथेति। यथा खल्वकर्म ब्रह्म कर्मवदुपलभ्यते तथा कर्म सक्रियमेव द्वैतमक्रिये ब्रह्मण्यधिष्ठाने संसृष्टं तद्वद्भातीत्यक्षरयोजना। कर्माकर्मणोरितरेतराध्यासे सिद्धे सम्यग्दर्शनसिद्ध्यर्थं भगवतो वचनमुचितमित्याह तत्रेति। यथा यदिदं रजतमिति प्रतिपन्नं तदिदानीं शुक्तिशकलं पश्येति भ्रमसिद्धरजतरूपविषयानुवादेन तदधिष्ठानं शुक्तिमात्रमुपदिश्यते तथा भ्रमसिद्धकर्माद्यात्मकविषयानुवादेन तदधिष्ठानं कर्मादिरहितं कूटस्थं ब्रह्म भगवता व्यपदिश्यते तथाच भगवद्वचनमविरुद्धमित्याह अत इति। इतश्चाध्यारोपितकर्माद्यनुवादपूर्वकं तदधिष्ठानस्य कर्मादिरहितस्य निर्विशेषस्य ब्रह्मणो भगवता बोध्यमानत्वान्न तत्र विरोधाशङ्कावकाशो भवतीत्याह बुद्धिमत्त्वादीति। कूटस्थाद्ब्रह्मणोऽन्यस्य सर्वस्य मायामात्रत्वादन्यज्ञानाद्बुद्धिमत्त्वयुक्तत्वसर्वकर्मकृत्त्वानामनुपपत्तेरत्र नस बुद्धिमानित्यादिना बुद्धिमत्त्वादिनिर्देशाद्ब्रह्मज्ञानादेव तदुपपत्तेः सर्वविक्रियारहितब्रह्मज्ञानमेव विवक्षितमित्यर्थः। बोधशब्दस्य सम्यग्ज्ञाने प्रसिद्धत्वात्कर्माकर्मविकर्मणां स्वरूपं बोद्धव्यमस्तीति वदता सम्यग्ज्ञानोपदेशस्य विवक्षितत्वादपि कूटस्थं ब्रह्मात्राभिप्रेतमित्याह बोद्धव्यमिति चेति। फलवचनपर्यालोचनायामपि कूटस्थं ब्रह्मात्राभिप्रेतं प्रतिभातीत्याह नचेति। सम्यग्ज्ञानाधीनफलमत्र न श्रुतमित्याशङ्क्याह यज्ज्ञात्वेति। अध्यारोपापवादार्थं भगवद्वचनमविरुद्धमित्युपपादितमुपसंहरति तस्मादिति। तद्विपर्ययेत्यत्र तच्छब्देन प्राणिनो गृह्यन्ते। विषयसप्तमीपरिग्रहेण परिहारमभिधायाधिकरणसप्तमीपक्षे दर्शितं दूषणमनङ्गीकारेण परिहरति नचेति। व्यवहारभूमिरत्रेत्युच्यते योग्यत्वे सत्यनुपलब्धेरित्यर्थः। अकर्माधिकरणं कर्म न संभवतीत्यत्र हेत्वन्तरमाह कर्माभावत्वादिति। नहि तुच्छस्याधिकरणं क्वचिद्द्रष्टुमिष्टं चेत्यर्थः। निरूप्यमाणे कर्माकर्मणोरधिकरणाधिकर्तव्यभावासंभवे फलितमाह अत इति। शास्त्रपरिचयविरहिणामध्यारोपमुदाहरति यथेति। कर्माकर्मणोरारोपितत्वमुक्तममृष्यमाणः सन्नाशङ्कते नन्विति। कर्म कर्मैवेत्यत्राकर्म चाकर्मैवेति द्रष्टव्यं। विमतं सत्यमव्यभिचारित्वाद्ब्रह्मवदित्यर्थः। तत्र कर्म तत्त्वतो नाव्यभिचारि कर्मत्वान्नौस्थस्य तटस्थवृक्षगमनवदित्यव्यभिचारित्वं कर्मण्यसिद्धमिति परिहरति तन्नेति। अकर्म च तत्त्वतो नाव्यभिचारि कर्माभावत्वाद् दूरप्रदेशे चैत्रमैत्रादिषु गच्छत्स्वेव चक्षुषा संनिधानविधुरेषु दृश्यमानगत्यभाववदित्याह दूरेष्विति। दूरत्वादेव विशेषतः संनिकर्षविरहितेषु तेषु स्वरूपेण चक्षुःसंनिकृष्टेषु चक्षुषा गत्यभावदर्शनादिति योजना। गतिरहितेषु तरुषु गतिदर्शनवत्प्रकृते ब्रह्मण्यविक्रिये कर्मदर्शनं सक्रिये च द्वैतप्रपञ्चे चितिमत्सु चैत्रादिषु गत्यभावदर्शनवत्कर्माभावस्य विपरीतस्य दर्शनं येन हेतुना संभवति तेन तस्य विपरीत दर्शनस्य निरसनार्थं भगवद्वचनमिति दार्ष्टान्तिकं निगमयति एवमित्यादिना। ननु कर्मतदभावयोरारोपितत्वादविक्रियस्य ब्रह्मणो ज्ञानमात्राभिप्रेतं चेदव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयं न जायते म्रियते वेत्यादिना पौनरुक्त्यं प्राप्तं तत्रैव ब्रह्मात्मनो निर्विकारत्वस्योक्तत्वादिति तत्राह तदेतदिति। तदेतदात्मनि शङ्कितं सक्रियत्वमसकृदुक्तप्रतिवचनमपि निर्विकारात्मवस्त्वपेक्षयात्यन्तविपरीतदर्शनं मिथ्याज्ञानं तेन भावितत्वं तत्संस्कारप्रचयवत्त्वं ततोऽतिशयेन मोहमापद्यमानो लोकः श्रुतमपि तत्त्वं विस्मृत्य पुनर्यत्किंचित्प्रसङ्गमापाद्य सक्रियत्वमेवात्मनश्चोदयतीति पुनः पुनस्तत्त्वभूतमुत्तरं भगवानभिधत्ते। वस्तुनश्च दुर्विज्ञेयत्वात्पुनः पुनः प्रतिपादनं तत्तद्भ्रमनिराकरणार्थमुपयुज्यते। तथाच नास्ति पुनरुक्तिरित्यर्थः। असकृदुक्तप्रतिवचनमेवानुवदति अव्यक्तोऽयमिति। कर्माभाव उक्त इति संबन्धः। उक्तस्यन जायते म्रियते वा विपश्चिदि त्यादिश्रुतौ प्रकृतस्मृतावसङ्गत्वादिन्यायेन च प्रसिद्धत्वमस्तीत्याह श्रुतीति। न केवलमुक्तः कर्माभावः किंतु सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्येत्यादौ वक्ष्यमाणश्चेत्याह वक्ष्यमाणश्चेति। ननु कर्मणो देहादिनिर्वर्त्यत्वेनत्रैविध्यात्कूटस्थस्वभावस्यात्मनोऽसङ्गत्वात्तद्व्यापाररूपस्य कर्मणोऽप्रसिद्धत्वान्न तस्मिन्नकर्मणि विपरीतस्य कर्मणो दर्शनं सिध्यतीत्याशङ्क्याह तस्मिन्निति। कर्मैव विपरीतं तस्य दर्शनमिति यावत्। अहं कर्तेत्यात्मसमानाधिकरणस्य व्यापारस्यानुभवात्कर्मभ्रमस्तावदात्मन्यत्यन्तरूढोऽस्तीत्यर्थः। आत्मनि कर्मविभ्रमोऽस्तीत्यत्र हेतुमाह यत इति। आत्मनो निष्क्रियत्वे कुतस्तस्मिन्यथोक्तो विभ्रमः संभवेदित्याशङ्क्याह देहेति। इदानीमात्मन्यकर्मभ्रममुदाहरति तथेत्यादिना। यथा शुक्तौ स्वाभाविकमरूप्यत्वं रूप्यत्वमारोपितं तदभावोऽप्यारोप्याभावत्वादारोपपक्षपाती तथात्मनोऽपि स्वाभाविकमविक्रियत्वं सक्रियत्वं पुनरध्यस्तं तदभावत्वात्कर्माभावोऽप्यध्यस्त एवेति मन्वानः सन्नुपसंहरति तत्रेदमिति। आत्मनि कर्मादिविभ्रमे लौकिके सिद्धे सतीदं कर्मणीत्यादिवचनं तत्परिहारार्थं भगवानुक्तवानित्यर्थः। संप्रत्युक्तेर्थे श्लोकाक्षरसमन्वयं दर्शयितुं कर्मणीत्यादि व्याचिख्यासुर्भूमिकां करोति अत्र चेति। व्यवहारभूमौ कार्यकरणाधिकरणं कर्म स्वेनैव रूपेण व्यवस्थितं सदात्मन्यविक्रिये कार्यकरणारोपणद्वारेण सर्वैरारोपितमित्यत्र हेतुमाह यत इति। अविवेकिनां तु कर्तृत्वाभिमानः सुतरामिति वक्तुमपिशब्दः। एवमात्मनि कर्मारोपमुपपाद्य प्रथमपादं व्याचष्टे अत इति। आत्मनि कर्मरहिते कर्मारोपे दृष्टान्तमाह नदीति। आरोपवशादात्मनिष्ठत्वेन कर्मणि सर्वलोकप्रसिद्धे कर्माभावं यः पश्येत्स बुद्धिमानिति संबन्धः। अकर्मदर्शनस्य यथाभूतत्वं सम्यक्त्वम्। तत्र दृष्टान्तमाह गत्यभावमिवेति। द्वितीयपादं व्याकरोति अकर्मणि चेति। अध्यारोपमभिनयति तूष्णीमिति। अकर्मणि कर्मदर्शने युक्तिमाह अहंकारेति। पूर्वार्धेनोक्तमनूद्योत्तरार्धं विभजते य एवमिति। आत्मनि कार्यकरणसंघातसमारोपद्वारेण तद्व्यापारमात्रे कर्मणि शुक्तिकायामिव रजतमारोपितविषये तदभावमकर्म वस्तुतो यो रजताभाववदनुभवत्यकर्मणि च संघातव्यापारोपरमे तद्द्वारा स्वात्मन्यहं तूष्णीमासे सुखमित्यारोपिते गोचरे कर्माहंकारहेतुकं यस्तत्त्वतो मन्यते स रूप्यतदभावविभागहीनशुक्तिमात्रवदात्ममात्रं कर्मतदभावविभागशून्यं कूटस्थं परमार्थतोऽवगच्छन्बुद्धिमानित्यादिस्तुतियोग्यतां गच्छतीत्येवं स्वाभिप्रायेण श्लोकं व्याख्यायात्र वृत्तिकारव्याख्यानमुत्थापयति अयमिति। अन्यथाव्याख्यानमेव प्रश्नद्वारा प्रकटयति कथमित्यादिना। ईश्वरार्थेनानुष्ठाने फलाभाववचनं व्याहतमिति मत्वाह किलेति। नित्यानामकर्मत्वमप्रसिद्धमित्याशङ्क्य फलराहित्यगुणयोगात्तेष्वकर्मत्वव्यवहारः सिध्यतीत्याह गौण्येति। नित्यानामकरणं मुख्यवृत्त्यैवाकर्म वाच्यमित्याह तेषां चेति। तत्र कर्मशब्दस्य प्रत्यवायाख्यफलहेतुत्वगुणयोगाद् गौण्यैव वृत्त्या प्रवृत्तिरित्याह तच्चेति। पातनिकामेवं कृत्वा श्लोकाक्षराणि व्याचष्टे तत्रेत्यादिना। अकर्मणि चेत्यादि व्याकरोति तथेति। स बुद्धिमानित्यादि पूर्ववत्। परकीयं व्याख्यानं व्युदस्यति नैतदिति। नित्यं कर्माकर्म नित्याकरणं कर्मेति ज्ञानाद्दुरितनिवृत्त्यनुपपत्तेर्भगवद्वचनं वृत्तिकारमते बाधितं स्यादित्यर्थः।धर्मेण पापमपनुदति इति श्रुतेर्नित्यानुष्ठानाद् दुरितनिबर्हणप्रसिद्धेस्तदनुष्ठानस्य फलान्तराभावात्तदकर्मेति ज्ञात्वानुष्ठाने क्रियमाणे कथमशुभक्षयो नेति शङ्कते कथमिति।क्षेत्रज्ञस्येश्वरज्ञानादिशुद्धिः परमा मता इति स्मरणात्कर्मणात्यन्तिकाशुभक्षयाभावेऽप्यङ्गीकृत्य परिहरति नित्यानामिति। नित्यानुष्ठानादशुभक्षयेऽपि नास्मिन्प्रकरणे तद्विवक्षितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभादिति ज्ञानादशुभक्षयस्य प्रतिज्ञातत्वात् न च तज्ज्ञानफलाभावविषयमेषितव्यमित्याह नत्विति। अशुभस्य फलाभावाज्ञानकार्यत्वाभावान्न फलाभावज्ञानात्क्षयः सिध्यतीत्यर्थः। किंचातीन्द्रियोऽर्थः शास्त्रान्निश्चीयते न च नित्यकर्मणां फलाभावज्ञानादशुभनिवृत्तिरित्यत्र शास्त्रमस्तीत्याह नहीति। नित्याकरणं कर्मेति ज्ञानमपि नाशुभनिवृत्तिफलत्वेन चोदितमस्तीत्याह नित्यकर्मेति। भगवद्वचनमेवात्र प्रमाणमित्याशङ्क्याह नचेति। साधारणमेव यज्ज्ञात्वेत्यादि भगवतो वचनं नतु नित्यानां फलाभावं ज्ञात्वेति विशेषविषयमित्यर्थः। अशुभमोक्षणासंभवप्रदर्शनेन कर्मण्यकर्मदर्शननिराकरणन्यायेनाकर्मणि कर्मदर्शनं निराकरोति एतेनेति। नामादिषु फलाय ब्रह्मदृष्टिवदकर्मण्यपि फलार्थं कर्मदृष्टिविधानान्नाशुभमोक्षणानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह नहीति। अत्र हि श्लोके नित्यस्य कर्तव्यतामात्रं परमते विवक्षितमतश्चाकर्मणि कर्मदर्शनं विधीयते तत्फलायेति कल्पना परस्य सिद्धान्ताविरुद्धेत्याह नित्यस्य त्विति। परमतेऽपि नित्यस्य कर्तव्यतामात्रमत्र श्लोके न विवक्षितं किंतु नित्यानुष्ठाने प्रवृत्तिसिद्ध्यर्थं नित्याकरणात्प्रत्यवायो भवतीति ज्ञानमपि कर्तव्यत्वेनात्र विवक्षितमेवेत्याशङ्क्याह नचेति। न तावत्प्रवृत्तिरस्य विज्ञानस्य फलं नियोगादेव तदुपपत्तेर्नापिफलान्तरमनुपलम्भादतोऽफलत्वादकरणात्प्रत्यवायो भवतीति ज्ञानं नात्र कर्तव्यत्वेन विवक्षितमित्यर्थः।किंचाकरणे कर्मदृष्टिविधावकरणस्यालम्बनत्वेन प्रधानत्वाज्ज्ञेयत्वं वक्तव्यं तच्च तुच्छत्वादनुपपन्नमित्याह नापीति। अकरणस्यासतो नामादिवदाश्रयत्वेन दर्शनासंभवेऽपि सामानाधिकरण्येनेदं रजतमितिवद्दर्शनं भविष्यतीत्याशङ्क्याह नापि कर्मेति। आदिशब्देन सर्वोत्कर्षादि गृह्यते फलवत्त्वं स्तुतिर्वा सम्यग्ज्ञानस्य युक्तं न मिथ्याज्ञानस्यानुपपत्तेरित्यर्थः। स्वप्ने मिथ्याज्ञानमपि फलवदुपलब्धमित्याशङ्क्य मिथ्याज्ञानस्याशुभाविरोधित्वान्न तस्मात्तन्निवृत्तिरित्याह मिथ्याज्ञानमेवेति। अशुभादेवाशुभानिवृत्तौ दृष्टान्तमाह नहीति। अविवेकपूर्वकमिदं रजतमिति सदसतोः सामानाधिकरण्यान्मिथ्याज्ञानं युक्तं कर्माकर्मणोस्तु विवेकेन भासमानयोः सामानाधिकरण्याधीनं ज्ञानं सिंहदेवदत्तयोरिव गौणं न मिथ्याज्ञानमिति शङ्कते नन्विति। कर्माकर्मेति दर्शने फलाभावो गुणोऽकर्म कर्मेति दर्शने तु फलाभावो गुणस्तन्निमित्तमिदं ज्ञानं गौणमित्याह फलेति। यथोक्तज्ञानस्य गौणत्वेऽपि प्रामाणिकफलाभावान्न तद्गौणतोचितेति दूषयति नेत्यादिना। कर्माकर्मेत्यादिगौणविज्ञानोपन्यासव्याजेन नित्यकर्मणः कर्तव्यतया विवक्षितत्वाद्गौणज्ञानस्याफलत्वमदूषणमित्याशङ्क्याह नापीति। ज्ञानादशुभमोक्षणस्य श्रुतस्य हानिरश्रुतस्य नित्यानुष्ठानस्य कल्पनेत्यनेन व्यापारगौरवेण न कश्चिद्विशेषः सिध्यतीत्यर्थः। उक्तमेव प्रपञ्चयति स्वशब्देनेति। नरकपातः स्यादतो विधेरेवानुष्ठेयानि तानीति शेषः। यथोक्तवाचकशब्दप्रयोगादेवापेक्षितार्थसिद्धिसंभवे भगवतो व्याजवचनकल्पनमनुचितमित्याह तत्रेति। प्रकृते श्लोके वृत्तिकृतां व्याख्यानेन परमाप्तस्यैव भगवतो विप्रलम्भकत्वमापादितमिति तदीयं व्याख्यानमुपेक्षितव्यमिति फलितमाह तत्रैवमिति। नित्यकर्मानुष्ठानसिद्ध्यर्थं व्याजरूपमिति भगवद्वचनमुचितमित्याशङ्क्यस्वशब्देनापीत्यादिप्रागुक्तपरिपाट्या तदनुष्ठानबोधनसंभवान्मैवमित्याह नचैतदिति। वस्तुशब्देन नित्यकर्मानुष्ठानमुच्यते। यथात्मप्रतिपादनं सुबोधत्वसिद्ध्यर्थं पौनःपुन्येन क्रियते तथा नित्यानामपि कर्मणामनुष्ठानं कर्मण्यकर्मेत्यादिशब्दान्तरेणोच्यमानं सुबोधं स्यादिति भगवतः शब्दान्तरं युक्तमित्याशङ्क्य तस्य नित्यानुष्ठानवाचकत्वाभावान्मैवमित्याह नापीति। किञ्च पूर्वमेव नित्यानुष्ठानस्य स्पष्टमुपदिष्टत्वान्न तस्य सुबोधनार्थं शब्दान्तरमपेक्षितमित्याह कर्मण्येवेति। कर्माकर्मादिविज्ञानव्याजेन नित्यकर्मानुष्ठानकर्तव्यतायां तात्पर्यमित्येतन्निराकृत्यकर्माकर्मादिदर्शनं गौणमिति पक्षे दूषणान्तरमाह सर्वत्र चेति। लोके वेदे च यथा प्रशस्तं देवतादितत्त्वं यच्च कर्तव्यमनुष्ठानार्हमग्निहोत्रादि तदेव बोद्धव्यमित्युच्यते न निष्फलं काकदन्तादि कर्मण्यकर्मदर्शनमकर्मणि च कर्मदर्शनं गौणत्वादेवाप्रशस्तमकर्तव्यं च नातस्तद्बोद्धव्यमिति वचनमर्हतीत्यर्थः। किञ्च कर्मादेर्मायामात्रत्वाद्गौणमपि तद्विषयं ज्ञानं मिथ्याज्ञानमिति न तस्य बोद्धव्यत्वसिद्धिरित्याह नचेति। मिथ्याज्ञानस्य बोद्धव्यत्वाभावेऽपि तद्विषयस्य बोद्धव्यता सिध्येदित्याशङ्क्य वस्त्वाभासत्वान्मैवमित्याह तत्प्रत्युपस्थापितं चेति। यत्पुनरकरणस्य प्रत्यवायहेतुत्वमकरणे गौण्या वृत्त्या कर्मशब्दप्रयोगे निमित्तमिति तद्दूषयति नापीति। अकरणात्प्रत्यवायो भवतीत्यत्र श्रुतिस्मृतिविरोधमभिधाय युक्तिविरोधमभिदधाति असत इति। असतः सद्रूपेण भवनमभवनं च निःस्वरूपत्वादनुपपन्नं निरस्तसमस्ततत्त्वस्य किंचित्तत्त्वाभ्युपगमे सर्वप्रमाणानामप्रामाण्यप्रसङ्गादित्याह तच्चेति। यत्तु नित्यानां फलराहित्यं तत्राकर्मशब्दप्रयोगे निमित्तमिति तन्निरस्यति नचेति। न केवलं विध्युद्देशे स्वफलाभावान्नित्यानां विध्यनुपपत्तिरपितु धात्वर्थस्य क्लेशात्मकत्वात्तत्र श्रुतफलाभावेनैव विधिरवकाशमासादयेदित्याह दुःखेति। दुःखरूपस्यापि धात्वर्थस्य साध्यत्वेन कार्यत्वात्तद्विषयो विधिः स्यादिति चेन्नेत्याह दुःखस्य चेति। स्वर्गादिफलाभावेऽपि नित्यानामकरणनिमित्तनिरयनिरासार्थं दुःखरूपाणामपि स्यादनुष्ठेयत्वमित्याशङ्क्याह तदकरणे चेति। फलान्तराभावेऽपि मोक्षसाधनत्वान्मुमुक्षुणा नित्यानि कर्माण्यनुष्ठेयानीत्याशङ्क्याह स्वाभ्युपगमेति। वृत्तिकारव्याख्यानासद्भावे फलितमुपसंहरति तस्मादिति। कोऽसौ यथाश्रुतोऽर्थः श्लोकस्येत्याशङ्क्याह तथाचेति।
Sri Dhanpati
।।4.18।।किं पुनः कर्मादस्तत्त्वं बोद्धव्यमस्तीत्यपेक्षायामाह कर्मणीति। नौस्थस्य तटस्थतरुपर्वतादिषुसमारोपितचाञ्चल्यप्रतीतिरिव लोकस्य देहाद्याश्रयं कर्मात्मन्यारोप्याहं कर्ता ममैतत्कर्मास्य फलं मया भोक्तव्यमिति भ्रान्त्या प्रतीतिस्तन्निवृत्त्यर्थं भगवानाह। कर्मणि क्रियत इति कर्म व्यापारमात्रमात्मन्यारोपितं तस्मिन्नकर्म पूर्वैर्जनकादिभिर्मुक्तैर्मुमुक्षुभिश्च नाहं कर्ता न ममैतत्कर्मास्य फलं मम नापेक्षितमिति कर्माभावो यथा दृष्टः तथाधुनातनोऽपि यः कश्चित्पश्यति सूर्यादिषु गच्छत्स्वप्यगमनप्रतीतिरिव देहेन्द्रियादिषु मायिकेषु नित्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिरुपक्रियायुक्तेषु निर्व्यापारस्तूष्णीं सुखमास इति भ्रान्त्या प्रतीतिस्तन्निराकरणायाह अकर्मणि कर्म यः पश्यति। निवृत्तेरपि क्रियात्वात्। स मनुष्येषु बुद्धिमान् स युक्तः योगी कृत्स्नकर्मकृत् समस्तकर्मकृच्च स इति कर्माकर्मणोस्तत्त्वदर्शी स्तूयते। यत्तु परमेश्वराराधनलक्षणे कर्मणि विषयेऽकर्म कर्मेदं न भवति इति यः पश्येत्तस्य ज्ञानहेतुत्वेन बन्धकत्वाभावात्। अकर्मणि च विहिताकरणे कर्म यः पश्येत्प्रत्यवायोत्पादकत्वेन बन्धहेतुत्वात् स बुद्धिमानित्यादि तदसंगतम्। एवं ज्ञानादशुभान्मोक्षस्यानुपपत्त्या यज्ज्ञात्वेत्यादि भगवदुक्तिबाध प्रसङ्गात्। नहि नित्यानामनुष्ठानसापेक्षाणां कर्मणां फलाभावज्ञानान्मोक्षणं भवति। नापि कर्माकर्माकर्म कर्मेति मिथ्याज्ञानादशुभस्वरुपादन्यतोऽशुभान्मोक्ष उपपद्यते। अकर्मणश्चाभावरुपतया भावरुपस्य प्रत्यवायस्योत्पत्तेर्वर्णनम्कथमसतः सञ्जायत इति श्रुतिविरुद्धमिति संक्षेपः। विस्तरस्तु भाष्ये द्रष्टव्यः। यदपि कर्मणि ज्ञानकर्मणि दृश्ये जडे सद्रूपेण स्फुरणरुपेण चानुस्यूतं सर्वभ्रमाधिष्ठानमकर्मवेद्यं स्वप्रकाशचैतन्यं परमार्थदृष्ट्या यः पश्येत्तथाऽकर्मणि च स्वप्रकाशे दृग्वस्तुनि कल्पितं कर्म दृश्यं मायामयं न परमार्थसत् दृग्दृश्ययोः संबन्धानुपपत्तेः। एवं परस्पराध्यासेऽपि शुद्धं वस्तु यः पश्यति स परमार्थदर्शित्वादुद्धिमानित्यादिवास्तवैरेव गुणैः स्तूयत इति कैश्चद्य्धाख्यातं तदप्युपेक्ष्यम्। ज्ञानकर्मणः घटादिरुपस्याप्रस्तुत्वात्। एवं ज्ञात्वेत्यादिनोपक्रम्य किं कर्मेत्यनेन तत्र वैषम्यं प्रदर्श्य तस्य कर्मणो बोद्धव्यं तत्त्वमस्तीति निरुप्यानेन श्लोकेन तत्त्वकथनस्योचितत्वेन ज्ञानकर्मणोऽकर्तव्यस्य वर्णनमसंगतमिति दिक्। यदपि कर्माकर्मणी वक्तव्यत्वेन बोद्धव्यत्वेन चोपक्षिप्यात्र तयोर्लक्षणदर्शनमुचितम्। अतो यदकर्मणा विशेषितं तदेव कर्म नान्यदिति कर्मलक्षणम्। यच्च कर्मणा विशेषितं तदेवाकर्म इत्यकर्मलक्षणमिति व्याख्येयम्। अक्षरार्थस्तु कर्म यज्ञादिकं ससाधनं तदकर्म स्पन्दशून्यं कूटस्थं ब्रह्म यः पश्येत्कर्म तदङ्गेषु ब्रह्मदृष्टिमध्यसेत्।अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमाग्निरहं हुतम् इत्युक्तेः। अन्यथा यत्कृतं तदृथाचेष्टारुपमेवातो गहना कर्मणो गतिः। किं तदकर्म यत्कर्मण्यध्यस्यते इत्याकाङ्क्षायां यत्रैतत्कर्म पुण्यपापात्मकं दृश्यतेपुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन इति तत्फलं च सुखदुःखादिकमहं सुख्यहं दुःखीति स प्रत्यक्चेतनोऽकर्म तत्रैवेदं कर्म अस्पन्दे स्पन्दात्मकं सर्पः असर्प इव अध्यस्तमित यः पश्येदिति तदप्यसंगतमेव प्रकरणविरोधस्यात्रापि तुल्यत्वात्। प्रस्तुतस्य तूष्णींभावात्मकस्याकर्मणः प्रत्यक्चैतन्यपरत्ववर्णने प्रस्तुतविरोधः स्फुटः। तथा कर्मण्यकर्मेत्यत्रापि कर्मप्रतियोगिकमेवाकर्मापेक्षितं नापि यज्ञरुपे कर्मणि ब्रह्मदृष्ट्यध्यासत्फलाभिसंधिकर्तृत्वाभिनिवेशत्यागं विनाऽशुभान्मोक्षणं भवति। तस्मात्सर्वज्ञैर्भाष्यकृद्भिरुक्तं व्याख्यानमेव समीचीनमिति दिक्।
Sri Madhavacharya
।।4.18।।कर्मादिस्वरूपमाह कर्मणीति। कर्मणि क्रियमाणे सत्यकर्म यः पश्येत् विष्णोरेव कर्म नाहं चित्प्रतिबिम्बः किञ्चित्करोमीति। अकर्मणि सुप्त्यादावकरणावस्थायाम्। परमेश्वरस्य यः कर्म पश्यति अयमेव परमेश्वरः सर्वदा सर्वसृष्ट्यादिकं करोतीति स बुद्धिमान् ज्ञानी स एव स युक्तो योगयुक्तः। सर्वाकरणाप्स एव च कृत्स्नकर्मकृत कृत्स्नफलवत्त्वात्।
Sri Neelkanth
।।4.18।।यत्कर्मादेस्तत्त्वं वक्ष्यामीति प्रतिज्ञातं तदाह कर्मणीति। कर्मणि कर्माकर्मविकर्मात्मके देहेन्द्रियादिव्यापारे अविद्यया प्रत्यगात्मन्यारोपिते सति तत्राकर्म कर्माभावं नौस्थे तीरतरौ चलने आरोपिते सति तत्त्वबुद्ध्या तत्र चलनाभावमिव यः पश्येत् तथाचलं गुणवृत्तम् इति न्यायेन त्रिगुणात्मकेषु देहेन्द्रियादिषु नित्यकर्मवत्सु यश्चन्द्रतारकादौ गत्यभावमिव तूष्णींभूतोऽहमस्मि न किंचित्करोमीत्यध्यस्ते अकर्मणि कर्माभावे कर्म तन्निग्रहाख्यप्रयत्नरूपं यः पश्यति स मनुष्येषु बुद्धिमान् तत्त्वदर्शी। आत्मनि भ्रान्तिजनितव्यापारस्य अनात्मनि च तादृशनिर्व्यापारत्वस्य बाधात्। स एव च युक्तो योगी कृत्स्नकर्मकृच्च। कर्मयोगफलस्य तत्त्वज्ञानस्य प्राप्तत्वादिति स्तुतिमात्रम्। आत्मनोऽकर्तृत्वं संघातस्यैव कर्तृत्वमिति भावयता कर्माणि कर्तव्यानीत्यर्थः। यद्यप्येतद्बहुधा प्रपञ्चितंअव्यक्तोऽयम् इत्यादौ तथापि तत्त्वस्य दुर्ज्ञेयत्वात्पुनःपुनरुच्यत इति प्राञ्चः। यत्तु कर्मणि नित्ये परमेश्वरार्थेऽनुष्ठीयमाने बन्धहेतुत्वाभावादकर्मेदमिति यः पश्येत्तथाऽकर्मणि नित्यकर्माकरणे प्रत्यवायहेतुत्वेन कर्मेदमिति च यः पश्येत्स बुद्धिमानिति तदसंगतमेव। नित्यकर्मण्यकर्मेदमिति ज्ञानस्याशुभमोक्षहेतुत्वाभावान्मिथ्याज्ञानत्वेन तस्यैवाशुभत्वाच्च। न चैतादृशां मिथ्याज्ञानं बोद्धव्यं तत्त्वं नाप्येतादृशज्ञाने बुद्धिमत्त्वादिस्तुत्युपपत्तिरिति दिक्। ये तु कर्मणि ज्ञानकर्मणि दृश्ये जडे सद्रूपेण स्फुरणरूपेण वानुस्यूतं सर्वभ्रमाधिष्ठानं अकर्म अवेद्यं स्वप्रकाशचैतन्यं परमार्थदृष्ट्या यः पश्येत् तथा अकर्मणि स्वप्रकाशे दृग्वस्तुनि कल्पितं कर्म दृश्यं मायामयं न परमार्थं सदिति यः पश्यति स बुद्धिमानिति परमार्थदर्शितत्वाद्वास्तवैरेव गुणैः स्तूयत इत्यपि व्याचख्युस्तदप्यसंगतमेव। कर्म कुरु कर्म प्रवक्ष्यामीत्यनुष्ठेयकर्मप्रस्तावे तत्त्वज्ञानानवसरात्। नापिकर्तुरीप्सिततमं कर्म इति पारिभाषिक्या कर्मसंज्ञया दृश्यस्य कर्मशब्दार्थत्वं ग्रहीतुं शक्यम्। तस्या घुटिभादिसंज्ञानामिवागमार्थनिर्णयानर्हत्वादिति संक्षेपः। वस्तुतस्तुकर्मणो हीति श्लोके कर्मविकर्माकर्मणां गतिशब्दितं पर्यवसानं गहनत्वाद्बोद्धव्यमित्युपक्षिप्तं तद्व्याख्यानं कर्मण्यकर्म यः पश्येत्स मनुष्येषु बुद्धिमानिति। तथाहि। कर्मणि कर्माकर्मविकर्मरूपे अकर्म तद्वैपरीत्यं शास्त्रतो दृश्यत। यथा क्रतुः कर्मणि श्रद्धाहीनस्य कृतोऽप्यकृत एव भवतीत्यकर्मणि पर्यवस्यति। दाम्भिकस्य तु विकर्मणि पर्यवस्यति। यथोक्तंअश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह इतिचत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथा कृतानि। मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः। इति च। एवमौदासीन्यमकर्मापि शक्तस्यार्तपरित्राणाभावाद्विकर्मणि पर्यवस्यति। दीक्षितस्य भगवद्ध्यानाद्यसक्तस्य वा स्वकाले पञ्चयज्ञाद्यकरणंदीक्षितो न ददाति इत्यादिवचनात्सर्वधर्मान्परित्यज्य इत्यादिवचनाच्च कर्मण्येव पर्यवस्यति। नित्यकर्मकाले प्रत्यवायहेतोरन्यस्याविहितस्याकरणात्। एवं विकर्मापि हिंसाअग्नीषोमीयं पशुमालभेत इति वचनाद्यज्ञे कर्मैव भवति सैव वृथा नष्टे पशौ न कर्म। विध्यर्थानिष्पत्तेः। नापि विकर्म कामकारेणाकृतत्वात्। किंतु परिशेषात्कृताप्यकृतैवेत्यकर्मणि पर्यवस्यति। एवं स्तेनप्रमोचनं तत्सयूथ्यानां कर्मापि राज्ञो विकर्म।स्तेनः प्रमुक्तो राजनि पापं मार्ष्टि इति वचनात् तदेव यतीनामुपेक्षणीयत्वादकर्म। एवं हिंसाफलके सत्यादौ दानफलकेऽनृतादौ च विकर्मत्वकर्मत्वे बोध्ये। तस्मात्कर्माकर्मविकर्माख्ये कर्मणि अकर्म तद्वैपरीत्यं यः पश्येत् स कार्याकार्यविभागज्ञो बोद्धव्यानामेषां प्रबोधात् बुद्धिमानित्युच्यते। तथा किं कर्मेति श्लोके यत्र कवीनामपि मोहोऽस्ति ययोश्च ज्ञानमशुभमोक्षहेतुस्ते कर्माकर्मणी प्रवक्ष्यामीत्युपक्षिप्तं तद्व्याख्या न कर्मणि च कर्म यः पश्येत्स युक्त इति। चकारो दर्शनद्वयसमुच्चयार्थः। तेन यो बुद्धिमान्युक्तश्च स एव कृत्स्नकर्मकृत् नत्वेकैक इत्यपि ज्ञेयम्। तथाहि अकर्मणि स्पन्दशून्ये कूटस्थे वस्तुनि कर्म सस्पन्दं बाह्यं वियदादि आभ्यन्तरं प्रमात्रादिकं चाधाराधेयभावेन वा उपादानोपादेयभावेन वा अधिष्ठानाध्यस्तभावेन वा पश्यन्तः शास्त्रविदः कर्माणि कुर्वन्ति। तत्राद्यः सांख्येऽसङ्गे मयि संघातकर्म एव सन्कर्त्रादिरविवेकात्स्फटिके लौहित्यमिव भातीति मन्यते। द्वितीयस्तु कनककुण्डलवद्ब्रह्मोद्भवं सर्वं ब्रह्मैवेति कर्म तत्साधनादिकमहं च ब्रह्मैवेति भावयन्करोति। एतौ युक्तावप्यतिबुद्धिमानप्ययुक्तः करोति तस्य सर्वमसदेव भवति नत्वशुभमोक्षाय।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्मिन्लोके यजति ददाति तपस्तप्यतेऽपि बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति इति श्रुतेः। यस्तु युक्तोऽपि निर्बुद्धित्वादकार्यमपि करोति स प्रत्यवैति। पापाश्लेषनिमित्तस्यापरोक्षज्ञानस्याभावात्। अनयोश्चाविद्याविद्याशब्दतयोः कर्मपरोक्षज्ञानयोः समुच्चयः श्रूयतेविद्यां चाविद्यां च इति मन्त्रे। यद्वा द्विविधं कर्मणि कर्मदर्शनं परोक्षमपरोक्षं च। तत्राद्यवान् ज्ञानकर्मसमुच्चयानुष्ठाता बुद्धिमानुच्यते। अपरोक्षमपि द्विविधम्। उपास्यसाक्षात्काररूपं तत्त्वसाक्षात्काररूपं च। तत्राद्यमपि व्याकृताव्याकृतरूपोपास्यभेदेन द्विविधम्। तत्रापि व्याकृतं सूत्रं कार्यम्। तद्दर्शी विगतदेहाहंकारत्वाद्योगशास्त्रे विदेह उच्यते। अव्याकृतं कारणं तद्दर्शी प्रकृतिलय उच्यते। अनयोरुपासनयोः संभवासंभवसंज्ञयोः समुच्चयो विधीयतेअन्यदेवाहुः संभवात् इत्यादिना। सोयं युक्त इत्युच्यते। अस्याप्यग्रे कर्तव्यमवशिष्टमस्तीति नायमपि कृत्स्नकर्मकृत् किंतु यस्य कर्मबाधेनाकर्मदर्शनं मुख्यमस्ति स एव कृतकृत्यत्वान्मुख्यः कृत्स्नकर्मकृदिति। एतेष्वाद्यो मनुष्येषु देहाभिमानिष्वेव बुद्धिमानित्यक्रान्तदर्शित्वादकविरेव। मध्यमौ क्रान्तदर्शिनावपि तत्त्वविषये मूढत्वात्कवयोऽप्यत्र मोहिता इत्युक्तौ। एतयोर्व्यवधानेनाशुभान्मुक्तिः। उत्तमस्तु जीवन्नेवाशुभान्मुक्त इति श्लोकार्थः प्रतिभाति।व्याख्यातुरपि मे नास्ति भाष्यकारेण तुल्यता। गुहावद्योतिनोऽप्यस्ति किं दीपस्यार्कतुल्यता। यद्वा कर्माकर्मणी वक्तव्यत्वेन बोद्धव्यत्वेन चोपक्षिप्यात्र तयोर्लक्षणप्रदर्शनमुचितम्। अतो यदकर्मणा विशेषितं तदेव कर्म नान्यदिति कर्मलक्षणम्। यच्च कर्मणा विशेषितं तदेवाकर्मेत्यकर्मलक्षणमिति व्याख्येयम्। अक्षरार्थस्तु कर्म यज्ञादिकं ससाधनम्। तत्राकर्म स्पन्दशून्यं कूटस्थं ब्रह्म यः पश्येत् कर्मतदङ्गेषु ब्रह्मदृष्टिमध्यस्येत्अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् इत्युक्तप्रकारेण। अन्यथा यत्कृतं तद्वृथा चेष्टारूपमेवातो गहना कर्मणो गतिः। किं तदकर्म यत्कर्मण्यध्यस्यत इत्याकाङ्क्षायां यत्रैतत्कर्म पुण्यपापात्मकं दृश्यतेपुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन इति तत्फलं च सुखदुःखादिकं अहं सुखी अहं दुःखीति स प्रत्यक्चेतनोऽकर्म तत्रैवेदं कर्म अस्पन्दे स्पन्दात्मकमसर्पे सर्प इवाध्यस्तमिति यः पश्येदिति। अयं भावः यथा रज्ज्वामध्यस्तं सर्पं पश्यन्नायं सर्पो रज्जुरियमिति वाक्यात्तस्य रज्जुत्वं विक्षेपप्राबल्यादप्रतिपद्यमानो नरः सर्पमिमं रज्जुदृष्ट्योपास्स्वेति नियोज्यते सचोपासनादाढ्ये सर्पं विस्मृत्य रज्जुतत्त्वमेव विन्दति। यस्तु वाक्यादेव रज्जुतत्त्वं विन्दति न तस्य प्रत्ययावृत्तिलक्षणया उपास्त्या प्रयोजनमस्ति। एवमकर्मण्यध्यस्तं कर्त्रादितत्त्वमसीतिवाक्याद्बाधितत्वाऽकर्मप्रतिपत्तिर्भवति शुद्धसत्वस्य। अन्यस्य तु कर्त्रादीनेवाकर्मदृष्ट्याउपासीनस्य भावनादार्ढ्यात्कर्त्रादिरूपतिरोधानेनाकर्मतत्त्वप्रतिपत्तिरिति। यद्वा कर्मणीवाकर्मण्यपि विकर्मसहितेऽकर्मदृष्टिर्माभूदित्याशङ्क्याह कर्मणीति। विहिताकरणे प्रतिषिद्धाचरणे च कर्मदृष्टिरेव भवेत्। अकर्मतो बिभ्यत्कर्म ब्रह्मदृष्ट्या कुर्यान्न त्वकर्मापि तादृशदृष्ट्या कुर्यादित्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।4.18।।अकर्मशब्देन अत्र कर्मेतरत् प्रस्तुतम् आत्मज्ञानम् उच्यते। कर्मणि क्रियमाणे एव आत्मज्ञानं य पश्येत् अकर्मणि च आत्मज्ञाने वर्तमान एव यः कर्म पश्येत्।किम् उक्तं भवतिक्रियमाणम् एव कर्म आत्मयाथात्म्यानुसन्धानेन ज्ञानाकारं यः पश्येत् तत् च ज्ञानं कर्मणि अन्तर्गततया कर्माकारं यः पश्येद् इति उक्तं भवति क्रियमाणे हि कर्मणि कर्तृभूतात्मयाथात्म्यानुसन्धानेन तद् उभयं सम्पन्नं भवति।एवम् आत्मयाथात्म्यानुसन्धानगर्भं कर्म यः पश्येत् स बुद्धिमान् कृत्स्नशास्त्रार्थवित् मनुष्येषु स युक्तः मोक्षार्हः स एव कृत्स्नकर्मकृत् कृत्स्नशास्त्रार्थकृत्।प्रत्यक्षेण क्रियमाणस्य कर्मणो ज्ञानाकारता कथम् उपपद्यते इत्यत्र आह
Sri Sridhara Swami
।।4.18।। तदेवं कर्मादीनां दुर्विज्ञेयत्वं दर्शयन्नाह कर्मण्यकर्मेति। परमेश्व राराधनलक्षणे कर्मणि विषये अकर्म कर्मेदं न भवतीति यः पश्येत्तस्य ज्ञानहेतुत्वेन बन्धकत्वाभावात्। अकर्मणि च विहिताकरणे कर्म यः पश्येत्तस्य प्रत्यवायोत्पादकत्वेन बन्धहेतुत्वात् मनुष्येषु कर्मकुर्वाणेषु स बुद्धिमान्व्यवसायात्मकबुद्धिमत्त्वाच्छ्रेष्ठः संस्तौति स युक्तः योगी तेन कर्मणा ज्ञानयोगावाप्तेः स एव कृत्स्नकर्मकर्ता च। सर्वतः संप्लुतोदकस्थानीये तस्मिन्कर्मणि सर्वकर्मफलानामन्तर्भूतत्वात्। तदेवमारुरुक्षोः कर्मयोगाधिकारावस्थायांन कर्मणामनारम्भात् इत्यादिनोक्त एव कर्मयोगः स्फुटीकृतः। तत्प्रपञ्चरूपत्वाच्चास्य प्रकरणस्य न पौनरुक्त्यदोषः। अनेनैव योगारूढावस्थायांयस्त्वात्मरतिरेव स्यात् इत्यादिना यः कर्मानुपयोग उक्तस्तस्याप्यर्थात्प्रपञ्चः कृतो वेदितव्यः। यदा आरुरुक्षोरपि कर्म बन्धकं न भवति तदाऽऽरूढस्य कुतो बन्धकं स्यादित्यत्रापि श्लोको योज्यते। यद्वा कर्मणि देहेन्द्रियादिव्यापारे वर्तमानोऽप्यात्मनो देहादिव्यतिरेकानुभवेनाकर्म स्वाभाविकं नैष्कर्म्यमेव यः पश्येत् तथा कर्मणि च ज्ञानरहिते दुःखबुद्ध्या कर्मणां त्यागे कर्म यः पश्येत् तस्य प्रतिबन्धकत्वेन मिथ्याचारत्वात्। तदुक्तंकर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् इति। य एवंभूतः स तु सर्वेषु मनुष्येषु बुद्धिमान्पण्डितः। तत्र हेतुः कृत्स्नानि सर्वाणि यदृच्छया प्राप्तान्याहारादीनि कर्माणि कुर्वन्नपि स युक्त एवाकर्त्रात्मज्ञानेन समाधिस्थ एवेत्यर्थः। अनेनैव ज्ञानिनः स्वभावादापन्नं कलञ्जभक्षणादिकं न दोषाय अज्ञस्य तु रागतः कृतं दोषायेति विकर्मणोऽपि तत्त्वं निरूपितं द्रष्टव्यम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.18।।एवमुपोद्धातः स्थितः अथ प्रकृतमुपदिश्यत इत्यभिप्रायेणाहकर्माकर्मणोरिति।कर्मण्यकर्म यः पश्येत् इति कर्मणि बोद्धव्यमुच्यते।अकर्मणि च कर्म यः इति तु ज्ञाने। अकर्मशब्दस्यात्र परोक्तकर्माभावस्वतन्त्रज्ञाननिष्ठाविषयतामपास्य तदन्यव्युत्पत्त्या आसत्त्या च सिद्धमाह अकर्मेति। अत्र कर्मयोगोपदेशप्रकरण इत्यर्थः। अन्वयार्थं दर्शयति कर्मणीति। अवधारणं शङ्काहेतुभूतविरोधद्योतनेन ज्ञानकर्मणोरनन्वितत्वपरिहारार्थम्। नन्विदमयुक्तम् अन्यानुष्ठानेऽन्यदर्शनस्यानपेक्षितत्वात् अन्यस्मिन्ननुष्ठीयमाने तदन्यज्ञानस्य दुष्करत्वात् अन्यस्मिंश्चानुसन्धीयमाने तदन्यस्य कर्तुमशक्यत्वात् अन्यतरत्रेतरदर्शने च तदन्यप्रतिक्षेपश्च स्यादित्यभिप्रायेण चोदयति किमुक्तं भवतीति। यदेतद्युगपदशक्यत्वं चोदितं तत्किं शास्त्रार्थत्वाकारभेदेन अन्यथा वा इति विकल्पमभिप्रेत्य प्रथमं दूषयति क्रियमाणमेवेति। ज्ञानविशिष्टस्य कर्मण उपायतया विहितत्वेन परस्परमन्वितत्वमिति न भिन्नशास्त्रार्थत्वमिति भावः। एतेन परस्परनिरपेक्षार्थद्वयपरतया परस्परप्रतिक्षेपशङ्काऽपि प्रत्युक्ता। द्वितीयेऽपि किं स्वरूपभेदमात्रेण दुष्करत्वम् उत विरुद्धत्वात्। न प्रथमः एकेनैव प्रेक्षणगमनभाषणादेर्युगपदनुष्ठानात्। न द्वितीयः गमनस्थानयोरिव ज्ञानकर्मणोर्विरोधाभावात्। न चानुपयोगः ध्यानविशेषविशिष्टविषनिर्हरणार्थचेष्टाजपादिन्यायादित्यभिप्रायेणाह क्रियमाणे हीति। तदुभयं कर्मणो ज्ञानविशिष्टत्वं ज्ञानस्य कर्मविशिष्टत्वं च।बुद्धिमानित्यत्रभूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने। संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः अष्टा.5।2।94वा. इति प्रत्ययवशात् प्रकृष्टा बुद्धिर्विवक्षितेत्याह कृत्स्नशास्त्रार्थविदिति।कृत्स्नकर्मकृदिति ह्यनन्तरमुच्यते तदनुरूपैव च बुद्धिरत्राभिधेयेति भावः।बुद्धिमान् कृत्स्नकर्मकृत् इति ज्ञानेऽनुष्ठाने च अभिहिते तदधीनफलयोग्यत्वमेवाह योग्यपर्यायेण युक्तशब्देनात्राभिधेयमित्यभिप्रेत्यमोक्षायार्ह इत्युक्तंस बुद्धिमान् स युक्त इति। तच्छब्दद्वयेन वाक्यभेदे सिद्धेकृत्स्नकर्मकृत् इत्येतदपि भिन्नवाक्यमेव भवितुमर्हति ज्ञानफलयोः पौष्कल्यस्येवानुष्ठानपौष्कल्यस्यापि प्रशंसाहेतुत्वे प्राधान्यादित्यभिप्रायेण तच्छब्दानुषङ्गमाह स एव कृत्स्नकर्मकृदिति।
Sri Abhinavgupta
।।4.18।।तमेव उद्बोधयितुमाह कर्मणि इति। आत्मीयेषु कर्मसु यः अकर्तृत्वं पश्यति प्रशान्ततया अकर्मसु च परकृतेषु आत्मकृतत्वं जानाति परिपूर्णोदितरूपत्वेन स एव सर्वस्य मध्ये बुद्धिमान् कार्त्स्येन साकल्येनासौ कर्म करोति अतोऽस्य केन कर्मणा फलं दीयताम इति उदितदशायाम्। प्रशान्तत्वे तु कृत्स्नानि कर्माणि कृन्तति छिनत्ति। अतः सर्वमेव कर्म करोति न किञ्चिद्वा करोति इत्युपनिषत्।
Sri Jayatritha
।।4.18।।कर्म प्रवक्ष्यामि 4।16 इति प्रतिज्ञातं कर्मादिप्रवचनं क्वापि नोपलक्ष्यतेकर्माणि इति श्लोकस्य यत्किञ्चिद्दर्शनस्तुतिरूपत्वादित्यत आह कर्मादीति। यद्यप्ययं श्लोकोऽन्यथा प्रतीयते तथाप्यविहितस्य स्तुत्ययोगाद्वाक्यभेदेन कर्मादिकं प्रतिपाद्य तत्स्तुतिः क्रियते इति भावः। कथमनेन तत्स्वरूपमुच्यते इत्यतो व्याचष्टे कर्मणीति वर्णाश्रमोचिते। अकर्म कर्माभावं स्वस्य। तद्विवृणोति विष्णोरेवेति।चित्प्रतिबिम्बः इत्यनेन तदधीनः करोमीत्यपि सूचयति। सुप्त्यादिकं कथमकर्म इत्यत उक्तम् अकरणेति। जीवापेक्षयेदम्। एतदपि विवृणोति अयमेवेति। सर्वदा जीवव्यापारभावेऽभावे च सर्वस्य महदादेः स्वप्नगजादेश्च अनेन भगवतः परानपेक्षया कर्तृत्वं स्वस्य तदधीनकर्तृत्वं च ज्ञात्वा वर्णाश्रमविहितानुष्ठानं कर्मेत्युक्तं भवति। अनेनैवोक्तलक्षणे विकर्माकर्मणी प्रोक्तप्रायो यः पश्येत्स बुद्धिमानिति कोऽर्थभेदः कथं च स्तुतिः इत्यत आह स इति। ज्ञानिशब्दो हि पामरविलक्षणे प्रसिद्धः। मतुबादीनां प्रशंसार्थत्वात् स युक्त इत्येतत्स्तुतियथा स्यात्तथा व्याचष्टे स एव चेति।कृत्स्नकर्मकृत् इत्येतन्मुख्ये बाधकं प्रदर्शयन् गौणं व्याख्याति सर्वेति। सर्वस्याश्वमेधादेः। कृत्स्नकर्मणां फलस्य ज्ञानस्य मोक्षस्य प्राप्तप्रायत्वादित्यर्थः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.18।।कीदृशं तर्हि कर्मादीनां तत्त्वमिति तदाह कर्मणि देहेन्द्रियादिव्यापारे विहिते प्रतिषिद्धे च अहं करोमीति धर्माध्यासेनात्मन्यारोपिरो नौस्थेनाचलत्सु तटस्थवृक्षादिषु समारोपिते चलनइवाकर्त्रात्मस्वरूपालोचनेन वस्तुतः कर्माभावं तटस्थवृक्षादिष्विव यः पश्येत्पश्यति। तथा देहेन्द्रियादिषु त्रिगुणमायापरिणामत्वेन सर्वदा सव्यापारेषु निर्व्यापारस्तूष्णीं सुखमास इत्यभिमानेन समारोपितेऽकर्मणि व्यापारोपरमे दूरस्थचक्षुःसंनिकृष्टपुरुषेषु गच्छत्स्वप्यगमन इव सर्वदा सव्यापारदेहेन्द्रियादिस्वरूपपर्यालोचनेन वस्तुगत्या कर्मनिवृत्त्याख्यप्रयत्नरूपं व्यापारं यः पश्येदुदाहृतपुरुषेषु गमनमिव। औदासीन्यावस्थायामप्युदासीनोऽहमास इत्यभिमान एव कर्म। एतादृशः परमार्थदर्शी स बुद्धिमानित्यादिना बुद्धिमत्त्वयोगयुक्तत्वसर्वधर्मकृत्त्वैस्त्रिभिर्धमैः स्तूयते। अत्र प्रथमपादेन कर्मविकर्मणोस्तत्त्वं कर्मशब्दस्य विहितप्रतिषिद्धपरत्वात् द्वितीयपादेन चाकर्मणस्तत्त्वं दर्शितमिति द्रष्टव्यम्। तत्र यत्त्वं मन्यसे कर्मणो बन्धहेतुत्वात्तूष्णीमेव मया सुखेन स्थातव्यमिति तन्मृषा। असति कर्तृत्वाभिमाने विहितस्य प्रतिषिद्धस्य वा कर्मणो बन्घहेतुत्वाभावात्। तथाच व्याख्यातं न मां कर्माणि लिम्पन्तीत्यादिना। सति च कर्तृत्वाभिमाने तूष्णीमहमास इत्यौदासीन्याभिमानात्मकं यत्कर्म तदपि बन्धहेतुरेव वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्। तस्मात्कर्मविकर्माकर्मणां तत्त्वमीदृशं ज्ञात्वा विकर्माकर्मणी परित्यज्य कर्तृत्वाभिमानफलाभिसंधिहानेन विहितं कर्मैव कुर्वित्यभिप्रायः। अपरा व्याख्या कर्मणि ज्ञानकर्मणि दृश्ये जडे सद्रूपेण स्फुरणरूपेण चानुस्यूतं सर्वभ्रमाधिष्ठानमकर्मावेद्यं स्वप्रकाशचैतन्यं परमार्थदृष्ट्या यः पश्येत्। तथा अकर्मणि च स्वप्रकाशे दृग्वस्तुनि कल्पितं कर्म दृश्यं मायामयं न परमार्थसत् दृग्दृश्ययोः संबन्धानुपपत्तेःयस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते इति श्रुतेः। एवं परस्पराध्यासेऽपि शुद्धं वस्तु यः पश्यति मनुष्येषु मध्ये स एव बुद्धिमान्नान्यः। अस्य परमार्थदर्शित्वादन्यस्य चापरमार्थदर्शित्वात्। सच बुद्धिसाधनयोगयुक्तोऽन्तःकरणशुद्ध्या एकाग्रचित्तः। अतः सएवान्तःकरणशुद्धिसाधनकृत्स्नकर्मकृदिति वास्तवधर्मैरेव स्तूयते। यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि परमार्थदर्शी भव तावतैव कृत्स्नकर्मकारित्वोपपत्तेरित्यभिप्रायः। अतो यदुक्तं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभादिति यच्चोक्तं कर्मादीनां तत्त्वं बोद्धव्यमस्तीति स बुद्धिमानित्यादिस्तुतिश्च तत्सर्वं परमार्थदर्शने संगच्छते। अन्यज्ज्ञानादशुभात्संसारान्मोक्षानुपपत्तेः। अतत्वं चान्यन्न बोद्धव्यं न वा तज्ज्ञाने बुद्धिमत्त्वमिति युक्तैव परमार्थदर्शिनां व्याख्या। यत्तु व्याख्यानं कर्मणि नित्ये परमेश्वरार्थेऽनुष्ठीयमाने बन्धहेतुत्वाभावादकर्मेदमिति यः पश्येत् तथा अकर्मणि च नित्यकर्माकरणे प्रत्यवायहेतुत्वेन कर्मेदमिति यः पश्येत् स बुद्धिमानित्यादि तदसङ्गतमेव। नित्यकर्मण्यकर्मेदमिति ज्ञानस्याशुभमोक्षहेतुत्वाभावात् मिथ्याज्ञानत्वेन तस्यैवाशुभत्वाच्च। नचैतादृशं मिथ्याज्ञानं बोद्धव्यं तत्त्वं नाप्येतादृशज्ञाने बुद्धिमत्त्वादिस्तुत्युपपत्तिर्भ्रान्तत्वात्। नित्यकर्मानुष्ठानं हि स्वरूपतोऽन्तःकरणशुद्धिद्वारोपयुज्यते न तत्राकर्मबुद्धिः कुत्राप्युपयुज्यते शास्त्रेण नामादिषु ब्रह्मदृष्टिवदविहितत्वात्। नापी दमेव वाक्यं तद्विधायकम्। उपक्रमादिविरोधस्योक्तेः। एवं नित्यकर्माकरणमपि स्वरूपतो नित्यकर्मविरुद्धकर्मलक्षकतयोपयुज्यते नतु तत्र कर्मदृष्टिः क्वाप्युपयुज्यते। नापि नित्यकर्माकरणात्प्रत्यवायः अभावाद्भावोत्पत्त्ययोगात्। अन्यथा तदविशेषेण सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् भावार्थाः कर्मशब्दास्तेभ्यः क्रिया प्रतीयेतैष ह्यर्थो विधीयत इति न्यायेन भावार्थस्यैवापूर्वजनकत्वात्।अतिरात्रे षोडशिनं न गृह्णाती त्यादावपि संकल्पविशेषस्यैवापूर्वजनकत्वाभ्युपगमात्नेक्षेतोद्यन्तमादित्यम् इत्यादि प्रजापतिव्रतवत्। अतो नित्यकर्मानुष्ठानार्हे काले तद्विरुद्धतया यदुपवेशनादिकर्म तदेव नित्यकर्माकरणोपलक्षितं प्रत्यवायहेतुरिति वैदिकानां सिद्धान्तः। अतएवाकुर्वन्विहितं कर्मेत्यत्र लक्षणार्थे शता व्याख्यातः। लक्षणहेत्वोः क्रियायाः इत्यविशेषस्मरणेऽप्यत्र हेतुत्वानुपपत्तेः। तस्मान्मिथ्यादर्शनापनोदे प्रस्तुते मिथ्यादर्शनव्याख्यानं न शोभतेतरां नापि नित्यानुष्ठानपरमेवैतद्वाक्यम्। नित्यानि कुर्यादित्यर्थे कर्मण्यकर्म यः पश्येदित्यादि तद्बोधकं वाक्यं प्रयुञ्जानस्य भगवतः प्रतारकत्वोपपत्तेरित्यादि भाष्य एव विस्तरेण व्याख्यातमित्युपरम्यते।
Sri Purushottamji
।।4.18।।दुर्विज्ञेयत्वाज्ज्ञानार्थं तत्स्वरूपमाह कर्मणीति। यः कर्मणि अकर्म पश्येत् कर्त्तव्ये अकर्तव्यं पश्येत्। मत्सम्बन्धं विना मदाज्ञां विना विकर्मणि अकर्त्तव्यं पश्येत्। तथैव मदाज्ञया अकर्मणि अकर्त्तव्ये कर्मणि कर्तव्यं पश्येत्। एवं ज्ञात्वा यः कृत्स्नकर्मकर्ता मनुष्येषु स बुद्धिमान् भवेत् स ज्ञानवान् स युक्तः। ममेति शेषः।
Sri Shankaracharya
।।4.18।। कर्मणि क्रियते इति कर्म व्यापारमात्रम् तस्मिन् कर्मणि अकर्म कर्माभावं यः पश्येत् अकर्मणि च कर्माभावे कर्तृतन्त्रत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्त्योः वस्तु अप्राप्यैव हि सर्व एव क्रियाकारकादिव्यवहारः अविद्याभूमौ एव कर्म यः पश्येत् पश्यति सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः योगी च कृत्स्नकर्मकृत् समस्तकर्मकृच्च सः इति स्तूयते कर्माकर्मणोरितरेतरदर्शी।।ननु किमिदं विरुद्धमुच्यते कर्मणि अकर्म यः पश्येत् इति अकर्मणि च कर्म इति न हि कर्म अकर्म स्यात् अकर्म वा कर्म। तत्र विरुद्धं कथं पश्येत् द्रष्टा न अकर्म एव परमार्थतः सत् कर्मवत् अवभासते मूढदृष्टेः लोकस्य तथा कर्मैव अकर्मवत्। तत्र यथाभूतदर्शनार्थमाह भगवान् कर्मण्यकर्म यः पश्येत् (गीता 4.18) इत्यादि। अतो न विरुद्धम्। बुद्धिमत्त्वाद्युपपत्तेश्च। बोद्धव्यम् इति च यथाभूतदर्शनमुच्यते। न च विपरीतज्ञानात् अशुभात् मोक्षणं स्यात् यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् (गीता 4.16) इति च उक्तम्। तस्मात् कर्माकर्मणी विपर्ययेण गृहीते प्राणिभिः तद्विपर्ययग्रहणनिवृत्त्यर्थं भगवतो वचनम् कर्मण्यकर्म यः इत्यादि। न च अत्र कर्माधिकरणमकर्म अस्ति कुण्डे बदराणीव। नापि अकर्माधिकरणंकर्मास्ति कर्माभावत्वादकर्मणः। अतः विपरीतगृहीते एव कर्माकर्मणी लौकिकैः यथा मृगतृष्णिकायामुदकं शुक्तिकायां वा रजतम्। ननु कर्म कर्मैव सर्वेषां न क्वचित् व्यभिचरति तत् न नौस्थस्य नावि गच्छन्त्यां तटस्थेषु अगतिषु नगेषु प्रतिकूलगतिदर्शनात् दूरेषु चक्षुषा असंनिकृष्टेषु गच्छत्सु गत्यभावदर्शनात् एवम् इहापि अकर्मणि कर्मदर्शनं कर्मणि च अकर्मदर्शनं विपरीतदर्शनं येन तन्निराकरणार्थमुच्यतेकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यादि।।तदेतत् उक्तप्रतिवचनमपि असकृत् अत्यन्तविपरीतदर्शनभाविततया मोमुह्यमानो लोकः श्रुतमपि असकृत् तत्त्वं विस्मृत्य विस्मृत्य मिथ्याप्रसङ्गम् अवतार्यावतार्य चोदयति इति पुनः पुनः उत्तरमाह भगवान् दुर्विज्ञेयत्वं च आलक्ष्य वस्तुनः।अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम् न जायते म्रियते इत्यादिना आत्मनि कर्माभावः श्रुतिस्मृतिन्यायप्रसिद्धः उक्तः वक्ष्यमाणश्च। तस्मिन् आत्मनि कर्माभावे अकर्मणि कर्मविपरीतदर्शनम् अत्यन्तनिरूढम् यतः किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः (गीता 4.16)। देहाद्याश्रयं कर्म आत्मन्यध्यारोप्य अहं कर्ता मम एतत् कर्म मया अस्य कर्मणः फलं भोक्तव्यम् इति च तथा अहं तूष्णीं भवामि येन अहं निरायासः अकर्मा सुखी स्याम् इति कार्यकरणाश्रयं व्यापारोपरमं तत्कृतं च सुखित्वम् आत्मनि अध्यारोप्य न करोमि किंचित् तूष्णीं सुखमासे इति अभिमन्यते लोकः। तत्रेदं लोकस्य विपरीतदर्शनापनयाय आह भगवान् कर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यादि।।अत्र च कर्म कर्मैव सत् कार्यकरणाश्रयं कर्मरहिते अविक्रिये आत्मनि सर्वैः अध्यस्तम् यतः पण्डितोऽपि अहं करोमि इति मन्यते। अतः आत्मसमवेततया सर्वलोकप्रसिद्धे कर्मणि नदीकूलस्थेष्विव वृक्षेषु गतिप्रातिलोम्येन अकर्म कर्माभावं यथाभूतं गत्यभावमिव वृक्षेषु यः पश्येत् अकर्मणि च कार्यकरणव्यापारोपरमे कर्मवत् आत्मनि अध्यारोपिते तूष्णीं अकुर्वन् सुखंआसे इत्यहंकाराभिसंधिहेतुत्वात् तस्मिन् अकर्मणि च कर्म यः पश्येत् यः एवं कर्माकर्मविभागज्ञः सः बुद्धिमान् पण्डितः मनुष्येषु सः युक्तः योगी कृत्स्नकर्मकृच्च सः अशुभात् मोक्षितः कृतकृत्यो भवति इत्यर्थः।।अयं श्लोकः अन्यथा व्याख्यातः कैश्चित्। कथम् नित्यानां किल कर्मणाम् ईश्वरार्थे अनुष्ठीयमानानां तत्फलाभावात् अकर्माणि तानि उच्यन्ते गौण्या वृत्त्या। तेषां च अकरणम् अकर्म तच्च प्रत्यवायफलत्वात् कर्म उच्यते गौण्यैव वृत्त्या। तत्र नित्ये कर्मणि अकर्म यः पश्येत् फलाभावात् यथा धेनुरपि गौः अगौः इत्युच्यते क्षीराख्यं फलं न प्रयच्छति इति तद्वत्। तथा नित्याकरणे तु अकर्मणि च कर्म यः पश्येत् नरकादिप्रत्यवायफलं प्रयच्छति इति।।नैतत् युक्तं व्याख्यानम्। एवं ज्ञानात् अशुभात् मोक्षानुपपत्तेः यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् इति भगवता उक्तं वचनं बाध्येत। कथम् नित्यानामनुष्ठानात् अशुभात् स्यात् नाम मोक्षणम् न तु तेषां फलाभावज्ञानात्। न हि नित्यानां फलाभावज्ञानम् अशुभमुक्तिफलत्वेन चोदितम् नित्यकर्मज्ञानं वा। न च भगवतैवेहोक्तम्। एतेन अकर्मणि कर्मदर्शनं प्रत्युक्तम्। न हि अकर्मणि कर्म इति दर्शनं कर्तव्यतया इह चोद्यते नित्यस्य तु कर्तव्यतामात्रम्। न च अकरणात् नित्यस्य प्रत्यवायो भवति इति विज्ञानात् किञ्चित् फलं स्यात्। नापि नित्याकरणं ज्ञेयत्वेन चोदितम्। नापि कर्म अकर्म इति मिथ्यादर्शनात् अशुभात् मोक्षणं बुद्धिमत्त्वं युक्तता कृत्स्नकर्मकृत्त्वादि च फलम् उपपद्यते स्तुतिर्वा। मिथ्याज्ञानमेव हि साक्षात् अशुभरूपम्। कुतः अन्यस्मादशुभात् मोक्षणम् न हि तमः तमसो निवर्तकं भवति।।ननु कर्मणि यत् अकर्मदर्शनम् अकर्मणि वा कर्मदर्शनं न तत् मिथ्याज्ञानम् किं तर्हि गौणं फलभावाभावनिमित्तम् न कर्माकर्मविज्ञानादपि गौणात् फलस्य अश्रवणात्। नापि श्रुतहान्यश्रुतपरिकल्पनायां कश्चित् विशेष उपलभ्यते। स्वशब्देनापि शक्यं वक्तुम् नित्यकर्मणां फलं नास्ति अकरणाच्च तेषां नरकपातः स्यात् इति तत्र व्याजेन परव्यामोहरूपेणकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यादिना किम् तत्र एवं व्याचक्षाणेन भगवतोक्तं वाक्यं लोकव्यामोहार्थमिति व्यक्तं कल्पितं स्यात्। न च एतत् छद्मरूपेण वाक्येन रक्षणीयं वस्तु नापि शब्दान्तरेण पुनः पुनः उच्यमानं सुबोधं स्यात् इत्येवं वक्तुं युक्तम्। कर्मण्येवाधिकारस्ते इत्यत्र हि स्फुटतर उक्तः अर्थः न पुनर्वक्तव्यो भवति। सर्वत्र च प्रशस्तं बोद्धव्यं च कर्तव्यमेव। न निष्प्रयोजनं बोद्धव्यमित्युच्यते।।न च मिथ्याज्ञानं बोद्धव्यं भवति तत्प्रत्युपस्थापितं वा वस्त्वाभासम्। नापि नित्यानाम् अकरणात् अभावात् प्रत्यवायभावोत्पत्तिः नासतो विद्यते भावः (गीता 2.16) इति वचनात् कथं असतः सज्जायेत (बृ0 उ0 6.2.2) इति च दर्शितम् असतः सज्जन्मप्रतिषेधात्। असतः सदुत्पत्तिं ब्रुवता असदेव सद्भवेत् सच्चापि असत् भवेत् इत्युक्तं स्यात्। तच्च अयुक्तम्सर्वप्रमाणविरोधात्। न च निष्फलं विदध्यात् कर्म शास्त्रम् दुःखस्वरूपत्वात् दुःखस्य च बुद्धिपूर्वकतया कार्यत्वानुपपत्तेः। तदकरणे च नरकपाताभ्युपगमात् अनर्थायैव उभयथापि करणे च अकरणे च शास्त्रं निष्फलं कल्पितं स्यात्। स्वाभ्युपगमविरोधश्च नित्यं निष्फलं कर्म इति अभ्युपगम्य मोक्षफलाय इति ब्रुवतः। तस्मात् यथाश्रुत एवार्थः कर्मण्यकर्म यः इत्यादेः। तथा च व्याख्यातः अस्माभिः श्लोकः।।तदेतत् कर्मणि अकर्मदर्शनं स्तूयते
Swami Sivananda
4.18 कर्मणि in action? अकर्म inaction? यः who? पश्येत् would see? अकर्मणि in inaction? च and? कर्म action? यः who? सः he? बुद्धिमान् wise? मनुष्येषु among men? सः he? युक्तः Yogi? कृत्स्नकर्मकृत् performer of all actions.Commentary In common parlance action means movement of the body? movement of the hands and feet? and inaction means to sit iet.It is the idea of agency? the idea I am the doer that binds man to Samsara. If this idea vanishes? action is no action at all. It will not bind one to Samsara. This is inaction in action. If you stand as s spectator or silent witness of Natures activities? feeling Nature does everything I am nondoer (Akarta)? if you identify yourself with the actionless Self? no matter what work or how much of it is done? action is no action at all. This is inaction in action. By such a practice and feeling? action loses its binding nature.A man may sit ietly. He may not do anything. But if he has the idea of agency or doership? or if he thinks that he is the doer? he is every doing action? though he is sitting ietly. This is action in inaction. The restless mind will ever be doing actions even though one sits ietly. Actions of the mind are real actions. Nor can anyone even for one moment remain really actionless? for helplessly is everyone driven to action by the alities of Nature. (Chapter III.5)Inaction also induces the feeling of egoism. The inactive man says? I sit ietly I do nothing. Inaction? like action? is wrongly attributed to the Self.He is the performer of all actions who knows this truth. He has attained the end of all actions? i.e.? freedom or knowledge or perfection.When a steamer moves? the trees on the shore which are motionless? appear to move in the opposite direction to a man who is in the steamer. Moving objects that are very far away appear to be stationary or motionless. Even so in the case of the Self inaction is mistaken for action and,action for inaction.The Self is actionless (Akarta or nondoer? Nishkriya or without work). The body and the senses perform action. The actions of the body and the senses are falsely and wrongly attributed by the ignorant to the actionless Self. Therefore the ignorant man thinks? I act. He thinks that the Self is the doer or the agent of the action. This is a mistake. This is ignorance.Just as motion does not really belong to the trees on the shore which appear to move in the opposite direction to a man on board the ship? so also action does not really pertain to the Self.This ignorance which is the cause of birth and death vanishes when you attain Selfrealisaion.