Chapter 4, Verse 36
Verse textअपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।4.36।।
Verse transliteration
api ched asi pāpebhyaḥ sarvebhyaḥ pāpa-kṛit-tamaḥ sarvaṁ jñāna-plavenaiva vṛijinaṁ santariṣhyasi
Verse words
- api—even
- chet—if
- asi—you are
- pāpebhyaḥ—sinners
- sarvebhyaḥ—of all
- pāpa-kṛit-tamaḥ—most sinful
- sarvam—all
- jñāna-plavena—by the boat of divine knowledge
- eva—certainly
- vṛijinam—sin
- santariṣhyasi—you shall cross over
Verse translations
Shri Purohit Swami
Even if you are the greatest of sinners, you will cross over all sin by the ferryboat of wisdom.
Swami Ramsukhdas
।।4.36।। अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापसमुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा।
Swami Tejomayananda
।।4.36।। यदि तुम सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाले हो, तो भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा, निश्चय ही सम्पूर्ण पापों का तुम संतरण कर जाओगे।।
Swami Adidevananda
Even if you are the most sinful of all sinners, you can cross over all sins by the boat of knowledge alone.
Swami Gambirananda
Even if you are the worst sinner among all sinners, you can still cross over all wickedness with the raft of Knowledge alone.
Swami Sivananda
Even if thou art the most sinful of all sinners, yet thou shalt surely cross over all sins by the raft of knowledge.
Dr. S. Sankaranarayan
Even if you are the highest sinner among all sinners, you can cross over the ocean of all sins by the boat of knowledge.
Verse commentaries
Sri Jayatritha
।।4.36।।येन 4।35 इति ज्ञानस्यैव निर्देश इति स्थापयन्अपि चेत् इत्यादेः प्रतिपाद्यमाह करणेति। येनेति करणतया निर्दिष्टमित्यर्थः।श्रेयान्। 4।33 इत्याद्यपेक्षया पुनरिति।
Swami Sivananda
4.36 अपि even? चेत् if? असि (thou) art? पापेभ्यः than sinners? सर्वेभ्यः (than) all? पापकृत्तमः most sinful? सर्वम् all? ज्ञानप्लवेन by the raft of knowledge? एव alone? वृजिनम् sin? सन्तरिष्यसि (thou) shalt cross.Commentary You can cross the ocean of sin with the boat of the knowledge of the Self. (Cf.IX.30)
Swami Ramsukhdas
।।4.36।। व्याख्या--'अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः'-- पाप करनेवालोंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं (1) 'पापकृत्' अर्थात् पाप करनेवाला, (2) 'पापकृत्तर' अर्थात् दो पापियोंमें एकसे अधिक पाप करनेवाला और (3) 'पापकृत्तम' अर्थात् सम्पूर्ण पापियोंमें सबसे अधिक पाप करनेवाला। यहाँ 'पापकृत्तमः' पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि अगर तू सम्पूर्ण पापियोंमें भी अत्यन्त पाप करनेवाला है, तो भी तत्त्वज्ञानसे तू सम्पूर्ण पापोंसे तर सकता है।भगवान्का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापोंका त्याग करके साधनमें लगा हुआ है, उसका तो कहना ही क्या है! पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों, उसको भी जिज्ञासा जाग्रत् होनेके बाद अपने उद्धारके विषयमें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते देरी नहीं लगती।यदि कहीं सौ वर्षोंसे घना अँधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय, तो उस अँधेरेको दूर करके प्रकाश करनेमें दीपकको सौ वर्ष नहीं लगते, प्रत्युत दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।'चेत्'--(यदि) पद देनेका तात्पर्य यह है कि प्रायः ऐसे पापी मनुष्य परमात्मामें नहीं लगते; परन्तु वे परमात्मामें लग नहीं सकते--ऐसी बात नहीं है। किसी महापुरुषके सङ्गसे अथवा किसी घटना, परिस्थिति, वातावरण आदिके प्रभावसे यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि अब परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना ही है, तो वे भी सम्पूर्ण पापसमुद्रसे भलीभाँति तर जाते हैं।नवें अध्यायके तीसवें-इकतीसवें श्लोकोंमें भी भगवान् ऐसी ही बात अनन्यभावसे अपना भजन करनेवालेके लिये कही है कि महान् दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान्का भजन ही करूँगा, तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है।
Sri Vallabhacharya
।।4.36।।किञ्च अपि चेदिति। स्पष्टार्थः।
Swami Chinmayananda
।।4.36।। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार का आश्वासन दिया था किन्तु वह अनुभव इतना भव्य और उच्चकोटि का था कि अर्जुन को स्वयं पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसकी स्वयं के विषय में यह धारणा थी कि वह इस अनुभव को प्राप्त करने के योग्य नहीं था। जिस किसी विवेकी पुरुष को अपने अवगुणों का भान है उसके मन में ऐसी शंका आ सकती है।वेदान्त ऐसा दर्शन नहीं है कि वह निष्ठुरहृदय होकर पापियों को ज्ञानार्जन से वंचित रखे। वेदान्त इस धारणा में विश्वास नहीं रखता कि कोई व्यक्ति पतित है और वह हीन योनियों में सदा भटकता रहेगा तथा उस पतित व्यक्ति का उद्धार केवल तभी होगा जब वह वेदान्त मंदिर में प्रवेश करेगा अत्यन्त सहिष्णु वेदान्त दर्शन केवल सत्य की और केवल सत्य की ही घोषणा करता है। सर्वव्यापी दिव्य तत्त्व सर्वत्र व्यक्त हो रहा है और इसलिये कोई भी पापी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वप्रयत्न से अपने जन्मसिद्ध पूर्णत्व के अधिकार को प्राप्त न कर सके।गीता मानव मात्र के लिये लिखा गया एक जीवन शास्त्र है और उसकी सार्वभौमिकता इस श्लोक में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। गीता का आश्वासन है कि अत्यन्त पापी पुरुष भी वर्तमान जीवन की परिच्छिन्नताओं तथा दुखदायी अवगुणों को तैर कर पूर्णत्व के तट पर ज्ञान नौका के द्वारा पहुँच सकता है। मनुष्य के पूर्णत्व प्राप्ति का यह अधिकार विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थ में इतने स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है।यह पहचान कर कि जीव का वास्तविक स्वरूप पूर्ण परमात्मा से भिन्न नहीं है तथा तत्पश्चात् आत्मरूप में रहने को ही सम्यक् ज्ञान कहते हैं। अपने पारमार्थिक आनन्दस्वरूप को पहचान लेने पर वैषयिक सुख हमें प्रलोभित नहीं कर सकते और न पापपूर्ण जीवन में हमें खींच सकते हैं। बड़े ही सुन्दर शब्दों में यहां कहा गया है ज्ञान नौका द्वारा तुम सम्पूर्ण पापों को तर जाओगे।किस प्रकार यह ज्ञान पापों को नष्ट करता है एक दृष्टान्त के द्वारा इसका उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।4.36।।ज्ञानस्य प्रकारान्तरेण प्रशंसां प्रस्तौति किञ्चेति। पापकारिभ्यः सर्वेभ्यः सकाशादतिशयेन पापकारित्वमेकस्मिन्नसंभावितमपि ज्ञानमाहात्म्यप्रसिद्ध्यर्थमङ्गीकृत्य ब्रवीति अपिचेदिति। ब्रह्मात्मैक्यज्ञानस्य सर्वपापनिवर्तकत्वेन माहात्म्यमिदानीं प्रकटयति सर्वमिति। अधर्मे निवृत्तेऽपि धर्मप्रतिबन्धाज्ज्ञानवतोऽपि मोक्षः संभवतीत्याशङ्क्याह धर्मोऽपीति। इहेत्यध्यात्मशास्त्रं गृह्यते।
Sri Dhanpati
।।4.36।।किंच न केवलमेतावदेव किंत्वन्यज्ज्ञानमाहात्म्यमपि श्रृण्वित्याह अपिचेदिति। असंभाविताभ्युपगमार्थं निपातद्वयम्। यदिचेत्त्वं सर्वेभ्यः पापकृद्यभोऽतिशयेन पापकृदसि तथापि ज्ञानमेव प्लवं पोतं तरणसाधनं कृत्वा वृजिनार्णवं धर्माधर्मरुपदुःखसमुद्रं तरिष्यसि। मुमुक्षुं प्रति पुण्यस्यापि वृजिनरुपत्वात्। तथाच श्रुतिःतथा सयोऽहमां वेद न ह वै तस्य केनच न कर्मणा लोको मीयते न स्तेयेन न भ्रूणहत्यया न साधुना कर्मणा भूयान् भवति नो एवासाधुना कनीयान् त्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रमहनमरुन्मुखान्यतीन्सालावृकेभ्यः प्रायच्छम् इत्याद्या।
Sri Madhavacharya
।।4.36।।करणभूतं ज्ञानं स्तौति पुनः श्लोकत्रयेण।
Sri Shankaracharya
।।4.36।। अपि चेत् असि पापेभ्यः पापकृद्भ्यः सर्वेभ्यः अतिशयेन पापकृत् पापकृत्तमः सर्वं ज्ञानप्लवेनैव ज्ञानमेव प्लवं कृत्वा वृजिनं वृजिनार्णवं पापसमुद्रं संतरिष्यसि। धर्मोऽपि इह मुमुक्षोः पापम् उच्यते।।ज्ञानं कथं नाशयति पापमिति दृष्टान्त उच्यते
Sri Neelkanth
।।4.36।।अपि चेदिति। वृजिनं वृजिनार्णवम्। धर्मोपीह मुमुक्षोः पापमित्युच्यते।
Sri Ramanujacharya
।।4.36।।यदि अपि सर्वेभ्यः पापकृत्तमः असि सर्वं पूर्वाजितं वृजिनरूपं समुद्रम् आत्मविषयज्ञानरूपप्लवेन एव संतरिष्यसि।
Sri Sridhara Swami
।।4.36।।किंच अपिचेदिति। सर्वेभ्यः पापकारिभ्यो यद्यप्यतिशयेन पापकारी त्वमसि तथापि सर्वं पापसमुद्रं ज्ञानपोतेनैव सम्यगनायासेन तरिष्यसि।
Sri Purushottamji
।।4.36।।तथा चायं भावः भगवताऽग्रे पुष्टिमार्गरीत्योपदेशेन स्वानुभवः कारणीयस्तदुपदेशयोग्यार्थं सर्वत्र भगवद्भावात्मकज्ञानरूपः संस्कारः कर्त्तव्यः स च साक्षात्स्वोपदेशेऽग्रे कार्यविलम्बः स्यादिति ज्ञानवाक्यानुसारेण स्वरूपपापार्थमुद्यतस्तद्भोगं विना किं ज्ञानेन स्यात् इत्यत आह अपीति। क्षत्ित्रयाणां त्वयं धर्म एव अपि चेत् यदि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृद्भ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः पापकृन्मुख्योऽसि तथापि ज्ञानप्लवेनैव ज्ञानरूपोडुपेन तरणसाधनेन सर्वं वृजिनं पापं सर्वं पापं सर्वपदेनार्णवरूपं सन्तरिष्यसि सम्यक्प्रकारेणानायासेन तरिष्यसि पापविनिर्मुक्तो भविष्यसीत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.36।।एवं ज्ञानांशस्य प्राधान्यं विपाकानुगुणं कालेकाले वेदनीयत्वलक्षणं चोक्तम् अथ तस्य विरोधिनिवर्तकत्वरूपं माहात्म्यमुच्यते अपि चेत् इतिश्लोकेन। चेच्छब्दपर्यायो यदिरपिश्च सहितौ यद्विषयौ तद्विषयावत्रापि चेदित्येताविति व्यञ्जनाय यद्यपीत्युक्तम्।पापकृत्तमशब्दप्रतियोगित्वात्पापेभ्य इति शब्दः पापविशिष्टपुरुषविषयः पापमात्रे वा हेतौ पञ्चमी। ज्ञानप्लवेन सन्तरिष्यसीत्यनयोः सामर्थ्यात्वृजिनरूपं समुद्रमिति रूपितम्। समुद्रत्वानुगुणं सर्वशब्दोक्तमानन्त्यमनादिकालप्रवृत्ततयेत्याद्यभिप्रायेणाहपूर्वार्जितमिति।
Sri Abhinavgupta
।।4.36 4.37।।सर्वं कर्माखिलम् (श्लो. 433) इति यदुक्तं तत्स्फुटयितुं प्रथमश्लोकेन अधर्मोऽपि नश्यति इति वदन् सर्वं कर्म इति द्वितीयेन संस्कारलेशोऽपि नावतिष्ठतीति सूचयन् अखिलम् इति व्याचष्टे अपि चेदिति। यथेति। सुसमिद्धोऽभ्यासजातप्रतिपत्तिदार्ढ्यबन्धेन (K omits सु) ज्ञानाग्निर्भवति यथा तथा प्रयतनीयमिति भावः ।
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.36।।किंच शृणु ज्ञानस्य माहात्म्यम् अपिचेदित्यसंभाविताभ्युपगमप्रदर्शनार्थौ निपातौ। यद्यप्ययमर्थो न संभवत्येव तथापि ज्ञानफलकथनायाभ्युपेत्योच्यते। यद्यपि त्वं पापकारिभ्यः सर्वेभ्योऽप्यतिशयेन पापकारी पापकृत्तमः स्यास्तथापि सर्वं वृजिनं पापम् अतिदुस्तरत्वेनार्णवसदृशं ज्ञानप्लवेनैव नान्येन ज्ञानमेव प्लवं पोतं कृत्वा संतरिष्यसि सम्यगनायासेन पुनरावृत्तिवर्जितत्वेन च तरिष्यस्यतिक्रमिष्यसि। वृजिनशब्देनात्र धर्माधर्मरूपं कर्म संसारफलममिभिप्रेतं मुमुक्षोः पापवत्पुण्यस्याप्यनिष्टवात्।