Chapter 4, Verse 19
Verse textयस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।
Verse transliteration
yasya sarve samārambhāḥ kāma-saṅkalpa-varjitāḥ jñānāgni-dagdha-karmāṇaṁ tam āhuḥ paṇḍitaṁ budhāḥ
Verse words
- yasya—whose
- sarve—every
- samārambhāḥ—undertakings
- kāma—desire for material pleasures
- saṅkalpa—resolve
- varjitāḥ—devoid of
- jñāna—divine knowledge
- agni—in the fire
- dagdha—burnt
- karmāṇam—actions
- tam—him
- āhuḥ—address
- paṇḍitam—a sage
- budhāḥ—the wise
Verse translations
Swami Sivananda
He whose undertakings are all devoid of desires and selfish purposes, and whose actions have been burned by the fire of knowledge, the wise call him a sage.
Dr. S. Sankaranarayan
He whose every exertion is devoid of intention for desirable objects, and whose actions are burnt up by the fire of wisdom—the wise call such a person a man of learning.
Shri Purohit Swami
The wise call him a sage, for whatever he undertakes is free from the motive of desire, and his deeds are purified by the fire of wisdom.
Swami Ramsukhdas
।।4.19।। जिसके सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भ संकल्प और कामनासे रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे जल गये हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.19।। जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।।
Swami Adidevananda
He whose every undertaking is free from desire and delusive identification (of the body with the self), whose actions are burned up in the fire of knowledge—the wise describe him as a sage.
Swami Gambirananda
The wise call him learned whose actions are all devoid of desires and their thoughts, and whose actions have been burned away by the fire of wisdom.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।4.19।।एतस्यैव बुद्धिमत्त्वं द्रढयति यस्येति। क्रियासमारम्भाः कामफलेममेदं कर्म फलसाधकं इति सङ्कल्पश्च ताभ्यां वर्जिताः स एवम्भूतः सकर्माऽप्यकर्मैव। यतो ब्रह्मज्ञानेनाग्निना दग्धकर्मा कर्मबीजबन्धनशून्य इत्यकर्मोच्यते अधेनुगोवत् तं पण्डा विवेकवती बुद्धिः सञ्जाता यस्य तथाविधमाहुर्बुधाः।यथार्थदर्शी ज्ञानाग्निदग्धकर्माशयोऽमलः। ब्रह्मभावरतो योगी कर्मवानपि पण्डितः इति।
Swami Ramsukhdas
।।4.19।। व्याख्या--'यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः' (टिप्पणी प0 245) विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें 'ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं'--ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं'--ऐसी बुद्धिका होना 'विकल्प' है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब 'ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये'--इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना--दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं।संकल्प और कामना--ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ, कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है। भगवान्ने कहींपर संकल्पोंका (6। 4), कहींपर कामनाओंका (2। 55) और कहींपर संकल्प तथा कामना--दोनोंका (6। 24 25) त्याग बताया है। अतः जहाँ केवल संकल्पोंका त्याग बताया गया है, वहाँ कामनाओंका और जहाँ केवल कामनाओंका त्याग बताया गया है, वहाँ संकल्पोंका त्याग भी समझ लेना चाहिये; क्योंकि संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है। तात्पर्य है कि साधकको सम्पूर्ण संकल्पों और कामनाओंका त्याग कर देना चाहिये।मोटरकी चार अवस्थाएँ होती हैं--
Swami Chinmayananda
।।4.19।। जिस पुरुष के सभी कर्म कामना और फलों के संकल्प (आसक्ति) से रहित होते हैं वह पुरुष सन्त या आत्मानुभवी कहलाता है। भविष्य में विषयोपभोग के द्वारा सुख पाने की बुद्धि की योजना को कामना कहते हंै। यह योजना बनाना स्वयं की स्वतन्त्रता को सीमित करना ही है। कामना करने का अर्थ है कि परिस्थितियों को अपने अनुकूल होने का आग्रह करना। इस प्रकार प्राप्त परिस्थितियों से सदा असन्तुष्ट रहते हुये भविष्य में उन्हें अनुकूल बनाने के प्रयत्न में हम अपने आप को भ्रमित करके अनेक विघ्नों का सामना करते रहते हैं। कर्म करने की यह पद्धति कर्त्ता के आनन्द और प्रेरणा का हरण कर लेती है।हम इस पर पहले ही विचार कर चुके हैं कि फलासक्ति किस प्रकार हमारी शक्तियों को नष्ट कर देती है। कर्मफल सदैव भविष्य में मिलता है इसलिए उसकी चिन्ता करने का तात्पर्य वर्तमान से पलायन करके अनुत्पन्न भविष्य में जीना है। यह नियम है कि कारणों अर्थात् कर्मों के अनुरूप ही कर्मफल मिलता है अत निश्चित रूप से सफलता पाने का एक मात्र उपाय है वर्तमान काल में पूरी लगन से कार्य करना।यहाँ कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष के सब कर्म काम और संकल्प से रहित होते हैं। प्रकरण के सन्दर्भ में इन दो शब्दों को ठीक से समझने की आवश्यकता है क्योंकि केवल शाब्दिक अर्थ लेने से यह कथन अत्यन्त अनुपयुक्त होगा। भगवान् के कथन से कोई यह न समझ ले कि समत्व में स्थित ज्ञानी पुरुष अपने स्फूर्त कर्मों में इष्ट फल पाने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करता है। इसका आशय इतना ही है कि वह कर्म करते समय काल्पनिक भय चिन्ता आदि में अपने मन की शक्ति विनष्ट नहीं करता। वेदान्त मनुष्य की बुद्धि की उपेक्षा नहीं करता है। गीता में उपदिष्ट जीवन यापन का मार्ग तो हमें वह साधन प्रदान करता है कि हम अधिकाधिक कुशलतापूर्वक कर्म करके अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करते हुए अपने कार्य क्षेत्र में सर्वोच्च सफलता प्राप्त करें।जो व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक जीने और कुशलतापूर्वक काम करने की कला को सीख लेता है वह कर्म करने में ही आनन्द को पाकर उसी में रम जाता है। किसी दिव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य के अभाव के कारण ही हमारा मन अनेक चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है। ज्ञानी पुरुष का मन दिव्य चैतन्यस्वरूप में स्थित रहने के कारण जगत् में सब प्रकार के कर्म करते हुए भी वह आनन्द का ही अनुभव करता है।ज्ञानी पुरुष की मनस्थिति के वर्णन का प्रयोजन अर्जुन जैसे साधकों के लिए साधन मार्ग का निर्देश करना है। अर्जुन के निमित्त दिया भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश सभी कालों के साधकों के लिए भी अनुकरणीय है।यदि हमारा पुत्र चिकित्सक बनना चाहता है तो हम उसे अन्य चिकित्सकों के संघर्ष की कहानी बताते हैं जिससे उत्तम चिकित्सक बनने के लिए आवश्यक गुणों को वह अर्जित कर सके। इसी प्रकार यहाँ ज्ञानी पुरुष के स्वाभाविक लक्षण बताकर भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को साधन मार्ग में प्रवृत्त करते हैं जिससे वह जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सके।उपर्युक्त लक्षणों से युक्त ज्ञानी पुरुष समाज के लिए कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ कर्म नहीं करता है। उसके कर्म अकर्म तुल्य ही हैं क्योंकि ज्ञानाग्नि से उसके कर्म (अर्थात् बन्धन के कारणभूत अहंकार और स्वार्थ) भस्म हो चुके होते हैं यह सात्त्विक स्थिति की चरम सीमा है। भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।4.19।।कर्मण्यकर्मदर्शनं पूर्वोक्तं स्तोतुमुत्तरश्लोकं प्रस्तौति तदेतदिति। यथोक्तदर्शित्वं पूर्वोक्तदर्शनसंपन्नत्वम्। समारम्भशब्दस्य कर्मविषयत्वं न रूढ्या किंतु व्युत्पत्त्येत्याह समारभ्यन्त इतीति। कामसंकल्पवर्जितत्वे कथं कर्मणामनुष्ठानमित्याशङ्क्याह मुधैवेति। उद्देशफलाभावे तेषामनुष्ठानं यादृच्छिकं स्यादित्याशङ्क्य प्रवृत्तेन निवृत्तेन वा तेषामनुष्ठानं यादृच्छिकं स्यादिति विकल्प्य क्रमेण निरस्यति प्रवृत्तेनेत्यादिना। ज्ञानाग्नीत्यादि विभजते कर्मादाविति यथोक्तज्ञानं योग्यमेव दहति नायोग्यमितिविवक्षितत्वात्तस्मिन्नग्निपदम्। यथोक्तविज्ञानविरहिणामपि वैशेषिकादीनां पण्डितत्वप्रसिद्धिमाशङ्क्य तेषां पण्डिताभासत्वं विवक्षित्वा विशिनष्टि परमार्थत इति।
Sri Dhanpati
।।4.19।।तदेतत्स्तौति यस्येति। यथोक्तदर्शिनः सर्वे समारभ्यन्त इति समारम्भाः कर्माणि कामैः फलतृष्णाभिः संकल्पैस्तत्रतत्र कर्तृत्वाभिनिवेशैस्तत्कारणीभूतैः यद्वा काम्यन्त इति कामाः फलानि तैः तत्कारणीभूतैस्तत्संकल्पैश्च वर्जिताः मुधैव चेष्टामात्रा अनुष्ठीयन्ते। कर्मादावकर्मादिदर्शनं ज्ञानं तदैवाग्निस्तेन दग्धानि शुभाशुभलक्षणानि कर्माणि यस्य तं परमार्थतः पण्डितं बुधाः तत्त्वदर्शिन आहुः।
Sri Madhavacharya
।।4.19।।एतदेव प्रपञ्चयति यस्येत्यादिना श्लोकपञ्चकेन। उक्तप्रकारेण ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्।
Sri Neelkanth
।।4.19।।अविदुषां कर्मण्यकर्मभावनां द्रढयितुं विदुषां कर्मदर्शनं स्तौति यस्य सर्वे समारम्भा इत्यादिभिः षड्भिः। यस्य विदुषः सर्वे समारभ्यन्त इति समारम्भाः कर्माणि। कामेन फलेच्छया संकल्पेनाहमिदं करोमीत्यभिमानेन च वर्जिताः तं ज्ञानाग्निना कर्मादावकर्मादिदर्शनेन दग्धान्यङ्कुरीभावाच्च्यावितानि कर्माणि शुभाशुभानि येन तं पण्डितं बुधा आहुः।
Sri Ramanujacharya
।।4.19।।यस्य मुमुक्षोः सर्वे द्रव्यार्जनादिलौकिककर्मपूर्वकनित्यनैमित्तिककाम्यरूपकर्मसमारम्भाः कामवर्जिताः फलसङ्गरहिताः संकल्पवर्जिताः च।प्रकृत्या तद्गुणैः च आत्मानम् एकीकृत्य अनुसन्धानं संकल्पः। प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपानुसन्धानयुक्ततया तद्रहिताः। तम् एवं कर्म कुर्वाणं पण्डितं कर्मान्तर्गतात्मयाथात्म्यज्ञानाग्निना दग्धप्राचीनकर्माणम् आहुः तत्त्वज्ञाः। अतः कर्मणो ज्ञानाकारत्वम् उपपद्यते।एतद् एव विवृणोति
Sri Shankaracharya
।।4.19।। यस्य यथोक्तदर्शिनः सर्वे यावन्तः समारम्भाः सर्वाणि कर्माणि समारभ्यन्ते इति समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः कामैः तत्कारणैश्च संकल्पैः वर्जिताः मुधैव चेष्टामात्रा अनुष्ठीयन्ते प्रवृत्तेन चेत् लोकसंग्रहार्थम् निवृत्तेन चेत् जीवनमात्रार्थम्। तं ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं कर्मादौ अकर्मादिदर्शनं ज्ञानं तदेव अग्निः तेन ज्ञानाग्निना दग्धानि शुभाशुभलक्षणानि कर्माणि यस्य तम् आहुः परमार्थतः पण्डितं बुधाः ब्रह्मविदः।।यस्तु अकर्मादिदर्शी सः अकर्मादिदर्शनादेव निष्कर्मा संन्यासी जीवनमात्रार्थचेष्टः सन् कर्मणि न प्रवर्तते यद्यपि प्राक् विवेकतः प्रवृत्तः। यस्तु प्रारब्धकर्मा सन् उत्तरकालमुत्पन्नात्मसम्यग्दर्शनः स्यात् सः सर्वकर्मणि प्रयोजनमपश्यन् ससाधनं कर्म परित्यजत्येव। सः कुतश्चित् निमित्तात् कर्मपरित्यागासंभवे सति कर्मणि तत्फले च सङ्गरहिततया स्वप्रयोजनाभावात् लोकसंग्रहार्थं पूर्ववत् कर्मणि प्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित् करोति ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वात् तदीयं कर्म अकर्मैव संपद्यते इत्येतमर्थं दर्शयिष्यन् आह
Sri Sridhara Swami
।।4.19।।कर्मण्यकर्म यः पश्येत् इति श्रुत्यर्थार्थापत्तिभ्यां यदुक्तमर्थद्वयं तदेव स्पष्टयति यस्येत्यादिपञ्चभिः।सम्यगारभ्यन्त इति समारम्भाः कर्माणि। काम्यत इति कामो बलं तत्संकल्पेन वर्जिता यस्य भवन्ति तं पण्डितभाहुः। तत्र हेतुः। यतस्तैः समारम्भैः शुद्धचित्ते सति जातेन ज्ञानाग्निना दग्धान्यकर्मतां नीतानि कर्माणि यस्य तम्। आरूढावस्थायां तु कामः फलविषयस्तदर्थमिदं कर्म कर्तव्यमिति कर्मविषयः संकल्पश्च ताभ्यां वर्जितः। शेषं स्पष्टम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।4.19।।प्रत्यक्षेणेति। प्रत्यक्षविरुद्धं न शास्त्रेणोपपत्त्या वा प्रतिपादयितुं शक्यमिति भावः।क्रियमाणस्येति। नहि चिरप्रध्वस्तं स्मृतिदशापन्नं ज्ञानमात्रपरिशेषाज्ज्ञानाकारमित्युच्यते किन्तु क्रियमाणमेवेदं कर्मेति भावः। यद्वाप्रत्यक्षेण क्रियमाणस्येति पदाभ्यां ज्ञानविषयस्य ज्ञानकार्यस्य च कथं ज्ञानैक्यमित्यभिप्रेतम्।कथमुपपद्यत इति नेदमुपपत्तिसहं यदि परं दृष्टिविधानादाविव भावनीयमिति भावः।सर्वशब्दासङ्कोचात् द्रव्यार्जनादिसङ्ग्रहः।कामसङ्कल्पवर्जिताः इत्यत्र न तावत्काम एव सङ्कल्प इति समासः पर्यायत्वादिप्रसङ्गात्। नापि कामानां सङ्कल्प इति उपयुक्तोभयपदार्थप्रधाने द्वन्द्वे सम्भवत्येकपदार्थप्रधानतत्पुरुषायोगात्। अतः कामसङ्कल्पाभ्यां वर्जिता इत्येवार्थ इत्यभिप्रेत्याह कामवर्जिता इति। वर्जितशब्दस्य प्रत्येकमन्वयं दर्शयता द्वन्द्वो ह्ययं समासान्तरात्प्रबल इति सूचितम्। कर्मप्रकरणे कामो हि फलसङ्ग इत्यभिप्रायेणाह फलसङ्गरहिता इति। सङ्कल्पोऽत्र न कर्मानुष्ठानसङ्कल्पः तदभावेऽनुष्ठानायोगात्। नापि फलसङ्कल्पः कामशब्देन कृतकरत्वात्। अतोऽत्र प्रकृतिनियुक्तात्मोपदेशप्रकरणे तदुपयुक्तः कश्चिदर्थो वक्तव्य इत्यभिप्रायेणाहप्रकृत्येति। समित्येकीकारे कल्पो भ्रान्तिज्ञानं प्रकृत्येति देहरूपेण परिणतयेति शेषः तद्गुणैरात्मन एकीकरणं नाम गुणहेतुके कर्मविशेषे स्वहेतुत्वानुसन्धानम्। यद्वा प्रकृतिगुणभूतानां सत्त्वरजस्तमसां देवत्वमनुष्यत्वादिसन्निवेशानां स्थौल्यकार्श्यशुक्लकृष्णादीनां च स्वमात्मानं प्रति गुणत्वेनानुसन्धानम्। एतेनास्वे गृहादौ स्वमिति बुद्धिरपि सङ्गृहीता भवति। एवंविधकामसङ्कल्पराहित्ये पण्डितशब्दाभिप्रेतं हेतुमाह प्रकृतिवियुक्तेति।पण्डितं हेयोपादेयभूतदेहात्मादिविवेकज्ञानवन्तम् ऊहापोहक्षमा हि बुद्धिः पण्डा। चरमोक्तस्यापि पण्डितशब्दस्य तं पण्डितमित्युद्देश्यनिवेशः पापनिवर्तकत्वलक्षणज्ञानप्राशस्त्यविध्यौचित्यात्। अप्रस्तुतस्वतन्त्रज्ञानान्तरव्यवच्छेदायोक्तंकर्मान्तर्गतेति। नह्यत्र क्रियमाणमेव कर्म ज्ञानाग्निना दह्यते निष्फलत्वप्रसङ्गात् नाप्युत्तरं तस्य विद्यामाहात्म्यनिवर्त्यत्वात् अतःप्राचीनेत्युक्तम्।तत्त्वज्ञा इति प्राप्यस्य प्राप्तुश्चात्मनः प्रापकस्य च कर्मयोगस्यासन्दिग्धाविपरीतस्वरूपज्ञा बुधशब्देन विवक्षिता इति भावः। शङ्कोत्तरत्वं निगमयति अत इति।
Sri Abhinavgupta
।।4.19।।अत एव यस्येति। कामेषु काम्यमानेषु फलेषु संकल्पं विहाय क्रियमाणानि कथितकथयिष्यमाणस्वरूपे ज्ञानाग्नौ अनुप्रवि(वे)श्य दह्यन्ते।
Sri Jayatritha
।।4.19।।ननु प्रतिज्ञातमुक्तं किमुत्तरैः श्लोकैः इत्यत आह एतदेवेति कर्मस्वरूपमेव। अनेनात्रापि वाक्यभेदेन कामादिवर्जनं विधाय स्तुतिः क्रियत इति सूचितम्। मिथ्यात्वज्ञानेन कर्मणामुपमर्दो ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वमिति व्याख्यानमसदिति भावेनाह उक्तेति। परमेश्वरस्यैव कर्तृत्वं ज्ञात्वा स्वस्य स्वातन्त्र्येण कर्माभावज्ञानमेव ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वमित्यर्थः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।4.19।।तदेतत्परमार्थदर्शिनः कर्तृत्वाभिमानाभावेन कर्मालिप्तत्वं प्रपञ्च्यते यस्येति ब्रह्मकर्मसमाधिनेत्यन्तेन। यस्य पूर्वोक्तपरमार्थदर्शिनः सर्वे यावन्तो वैदिका लौकिका वा समारम्भाः समारभ्यन्त इति व्युत्पत्त्या कर्माणि कामसंकल्पवर्जिताः कामः फलतृष्णा संकल्पोऽहं करोमीति कर्तृत्वाभिमानस्ताभ्यां वर्जिताः लोकसंग्रहार्थं वा जीवनमात्रार्थं वाप्रारब्धकर्मवेगाद्वृथाचेष्टारूपा भवन्ति। तं कर्मादावकर्मादिदर्शनं ज्ञानं तदेवाग्निस्तेन दग्धानि शुभाशुभलक्षणानि कर्माणि यस्य तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् इति न्यायात्। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तं बुधा ब्रह्मविदः परमार्थतः पण्डितमाहुः। सम्यग्दर्शी हि पण्डित उच्यते नतु भ्रान्त इत्यर्थः।
Sri Purushottamji
।।4.19।।किञ्च यो निष्कामो मदाज्ञात्वेन कर्म करोति स मद्भक्तानां च मे मत इत्याह यस्येति। यस्य सर्वे समारम्भाः सर्वकर्मणां सम्यक् मदाज्ञात्वेन आरम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः कामः फलं सङ्कल्पस्तदिच्छा एतदुभयरहिताः तं ज्ञानाग्निना दग्धकर्माणं ज्ञानाग्निना दग्धानि कर्माणि यस्य तादृशं दग्धत्वादग्रे तद्भोगवृक्षोत्पत्तिबीजभावरहितं बुधाः भक्ताः पण्डितं शास्त्रोक्तसर्वस्वरूपज्ञमाहुः वदन्ति।
Swami Sivananda
4.19 यस्य whose? सर्वे all? समारम्भाः undertakings? कामसङ्कल्पवर्जिताः devoid of desires and purposes? ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् whose actions have been burnt by the fire of knowledge? तम् him? आहुः call? पण्डितम् a sage? बुधाः the wise.Commentary A sage performs actions only with a view to set an example to the masses. Though he works? he does nothing as he has no selfish interests? as his actions are burnt by the fire of wisdom which consists in the realisaion of inaction in action? through the knowledge of the Self or BrahmaJnana. BrahmaJnana is a mighty spiritual fire which consumes the results of all kinds of actions (Karmas)? good and bad? and makes the enlightened sage ite free from the bonds of action. The sage who leads a life of perfect renunciation does only what is reired for the bare existence of his body. (Cf.III.19IV.10IV.37).