Chapter 8, Verse 13
Verse textओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।8.13।।
Verse transliteration
oṁ ityekākṣharaṁ brahma vyāharan mām anusmaran yaḥ prayāti tyajan dehaṁ sa yāti paramāṁ gatim
Verse words
- om—sacred syllable representing the formless aspect of God
- iti—thus
- eka-akṣharam—one syllabled
- brahma—the Absolute Truth
- vyāharan—chanting
- mām—me (Shree Krishna)
- anusmaran—remembering
- yaḥ—who
- prayāti—departs
- tyajan—quitting
- deham—the body
- saḥ—he
- yāti—attains
- paramām—the supreme
- gatim—goal
Verse translations
Shri Purohit Swami
Repeating Om, the symbol of eternity, and holding Me always in remembrance, he who thus leaves his body and goes forth reaches the Supreme Spirit.
Swami Ramsukhdas
।।8.12 -- 8.13।। (इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक 'ऊँ' इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।
Swami Tejomayananda
।।8.13।। जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।।
Swami Adidevananda
He who departs, leaving the body while uttering the single syllable, viz. "Om," which is Brahman, and thinking of Me, attains the supreme Goal.
Swami Gambirananda
He who departs, leaving the body while uttering the single syllable, "Om," which is Brahman, and thinking of Me, attains the supreme Goal.
Swami Sivananda
Uttering the one-syllabled Om, the Brahman, and remembering Me, he who departs, leaving the body, attains the Supreme Goal.
Dr. S. Sankaranarayan
Reciting the single-syllabled Om, the very Brahman; meditating on Me; whoever travels well, casting away their body—surely they attain My State.
Verse commentaries
Sri Jayatritha
।।8.12 -- 8.13।।ननुमनो निरुध्य इत्यनेनैव सर्वेन्द्रियसंयमनं लब्धम् तत्किं पुनरुच्यते मैवम् वायुसञ्चरणद्वाराणां नाडीनामत्र ग्रहणात्। तन्नियमनं किमर्थं इत्यत आह -- ब्रह्मेति। इति हेतौ। इत्युक्तमिति शेषः। अत्र प्रमाणमाह -- निर्गच्छन्निति। सूर्यं गच्छति। मोक्षधर्मे चायमेवार्थ उक्त इति शेषः। हृदीत्यस्य प्रसिद्धार्थतानिरासार्थमाह -- हृदीति। हरतेः क्विप् च [अष्टा.3।2।76] इति क्विप् प्रसिद्धार्थ एव किं न स्यात् इत्यत आह -- नहीति। कुतो न सम्भवति इत्यत आह -- यत्रेति। आदौ हृदि निरुध्येत्यध्याहारो दोषः। मरणवेलायामखण्डस्मृतिर्वक्तव्या तत्कथं धारणोच्यते इत्यत आह -- योगेति।
Swami Ramsukhdas
।।8.13।। व्याख्या--'सर्वद्वाराणि संयम्य'--(अन्तसमयमें) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारोंका संयम कर ले अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-- इन पाँचों विषयोंसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका-- इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा बोलना, ग्रहण करना, गमन करना, मूत्र-त्याग और मल-त्याग -- इन पाँचों क्रियाओंसे वाणी, हाथ, चरण, उपस्थ और गुदा--इन पाँचों कर्मेन्द्रियोंको सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थानमें रहेंगी।
Swami Chinmayananda
।।8.13।। ध्यान के अभ्यास में मन को सफलता और कुशलतापूर्वक एकाग्र करने के लिए साधक को तीन कार्यों को सम्पादित करना होता है। इन तीनों का वर्णन इन श्लोकों में किया गया है जो उक्त क्रम में अभ्यसनीय है।(क) इन्द्रियों के द्वारा मन को संयमित करके इन्द्रिय अवयव स्थूल शरीर में स्थित हैं। श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय (नाक) ये वे पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की संवेदनाएं मन में प्रवेश करके उसे विक्षुब्ध करती हैं। विवेक और वैराग्य के द्वारा इन इन्द्रिय द्वारों को अवरुद्ध अथवा संयमित करना प्रथम साधना है जिसके बिना ध्यान में प्रवेश नहीं हो सकता। इनके द्वारा न केवल बाह्य विषय मन में प्रवेश करते हैं वरन् इन्हीं के माध्यम से मन बाह्य विषयों में विचरण एवं भ्रमण करता है। विक्षेपों की इन सुरंगों को अवरुद्ध करने पर नयेनये विक्षेपों का प्रवाह ही रुद्ध हो जाता है।(ख) मन को हृदय में स्थापित करके यद्यपि इन्द्रियों के संयमित होने पर मन बाह्य विषयों से क्षुब्ध नहीं हो सकता तथापि भूतकाल के विषयोपभोगों से अर्जित वासनाओं के स्मरण से वह स्वयं ही विक्षुब्ध हो सकता है। इसलिए मन को हृदय में स्थापित करने का उपदेश दिया गया है।वेदान्त में हृदय का अर्थ शरीर में स्थित रक्त संचालक अवयव से नहीं है। साहित्य और दर्शन में हृदय का अर्थ स्नेह और सहृदयता करुणा और कृपा भक्ति और प्रपत्ति जैसी आदर्श एवं रचनात्मक भावनाओं का अनवरत् उद्गम स्थल है। बाह्य स्थूल विषयों की संवेदनाओं का मन में प्रवेश अवरुद्ध करने के पश्चात् साधक को चाहिये कि वह भावनाओं के साधनरूप मन को दिव्य एवं पवित्र बनाये न कि उसका दमन करे। हृदय के उच्च और श्रेष्ठ वातावरण में ही मन को स्थिर करना चाहिये। इसका विवेचन किया जा चुका है कि रचनात्मक विचारों की सहायता से मन के विक्षेपों को न्यूनतम किया जा सकता है। नकारात्मक विचार वह है जिसके कारण मन क्षुब्ध और चंचल हो जाता है।(ग) प्राणशक्ति को मस्तक अर्थात् बुद्धि में स्थापित करने का अर्थ है बुद्धि को सभी निम्न स्तरीय विचारों एवं वस्तुओं से निवृत्त करना। विषय ग्रहण आदि के द्वारा बुद्धि का इनसे तादात्म्य रहता है। सतत आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से बुद्धि को विषयों से परावृत्त किया जा सकता है। उपर्युक्त तीन कार्यों के सम्पन्न होने पर मन की आत्मानुसंधान में जो दृढ़ स्थिति होती है उसे ही यहाँ योगधारणा कहा गया है।जो साधक अपने आसपास के वैषयिक वातावरण को भूलकर आनन्द और संतोष से पूर्ण हृदय से मन को बुद्धि के अनुशासन में ला सकता है वह मन में ओंकार का उच्चारण सरलता और उत्साह के साथ कर सकता है। शान्त मन में उठ रहीं ओंकार वृत्तियों को जो साक्षी होकर देख सकता है वही पुरुष प्रणवोपासना के योग्य है। श्लोक की अगली पंक्ति इस तथ्य को स्पष्ट करती है।देह त्याग कर जो जाता है ँ़ के उच्चारण तथा उसके लक्ष्यार्थ पर मनन करने के फलस्वरूप साधक मिथ्या जड़ उपाधियों के साथ हुये अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाता है जिसके कारण अहंकार का लोप हो जाता है। यही वास्तविक मृत्यु है। देह त्याग का अभिप्राय है देहात्मभाव का त्याग। प्रणव के लक्ष्यार्थ पर ध्यान करते हुये साधक परम गति को प्राप्त होता है क्योंकि उसका लक्ष्यार्थ है सम्पूर्ण विश्व का वह अधिष्ठान जिस पर जन्म और मृत्यु का मनः कल्पित नाटक खेला जाता है।क्या ध्यानमार्ग पर चलने वाले सभी साधकों को आत्मसाक्षात्कार समानरूप से कठिन है भगवान् कहते हैं --
Sri Anandgiri
।।8.13।।यथोक्तयोगधारणार्थं प्रवृत्तो मूर्धनि प्राणमाधाय धारयन्किं कुर्यादित्याशङ्क्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- तत्रैवेति। एकं च तदक्षरं चेत्येकाक्षरमोमित्येवंरूपं तत्कथं ब्रह्मेति विशिष्यते तत्राह -- ब्रह्मण इति। यः प्रयातीति मरणमुक्त्वा त्यजन्देहमिति ब्रुवता पुनरुक्तिराश्रिता स्यादित्याशङ्क्य विशेषणार्थं विवृणोति -- देहेति। एवमोंकारमुच्चारयन्नर्थं चाभिध्यायन्ध्याननिष्ठः स पुमानित्यर्थः। परमामिति गतिविशेषणं क्रममुक्तिविवक्षया द्रष्टव्यम्।
Sri Abhinavgupta
।।8.12 -- 8.14।।सर्वद्वाराणीत्यादि योगिन इत्यन्तम्। द्वाराणि इन्द्रियाणि। हृदि इति -- अनेन विषयसंगाभाव उच्यते न तु विष्ठास्थानाधिष्ठानम्। आत्मनः प्राणम् आत्मसारथिम् इच्छाशक्त्यात्मनि मूर्ध्नि सकलतत्त्वातीते धारयन् इति कायनियमः। ओमिति जपन् इति वाङ्नियमः। मामनुस्मरन्निति चेतसोऽनन्यगामिता (S चेतसाऽनन्यगामिता)। यः प्रयादि -- दिनाद्दिनम् (N दिनंदिनं) अपुनरावृत्तये गच्छति। तथा च देहं त्यजन् कथं मे (SN omit मे) पुनरिदं सकलापत्स्थानं शरीरं मा भूयात् इत्येवं यो मामनन्यचेताः स्मरति सततमेव याति जानाति (S omits जानाति) स मद्भावम् मत्स्वरूपम्। न (N नन्वत्र) मुनेः परब्रह्माद्वैतपदोपक्षेपविरोधी उत्क्रान्तौ ( तत् क्रान्तौ K (n) विरोधीति उत्क्रान्तौ भरः) भरः। तथाचोक्तम् -- व्यापिन्यां शिवसत्तायाम् उत्क्रान्तिर्नाम निष्फला।अव्यापिनि शिवे नाम नोत्क्रान्तिः शिवदायिनी।।इति।।यदि वा सतताभ्यासोऽपि यैर्न कृतः तथापि कुतश्चित् स्वतन्त्रेश्वरेच्छादेर्निमित्तादन्त्ये (S omits स्वतन्त्र -- ) एव क्षणे यदा तादृग्भावो जायते तदा अयमुत्क्रान्तिलक्षण उपायः संस्कारान्तरप्रतिबन्धक उक्तः। अत एव,यदक्षरं वेदविदो वदन्ति इत्यादिना अभिधास्ये इत्यन्तेन प्रतिज्ञा कृता क्षणमात्रस्यापि भगवदनुचिन्तनस्य,(S चिन्तनमयस्य) सकलसंस्कारविध्वंसनलक्षणाम् अद्भुतवृत्तिं प्रतिपादयितुम्। यदाहुराचार्यवर्याः,(S omits यदाहु -- इति) -- निमेषमपि यद्येकं क्षीणदोषे करिष्यसि।पदं चित्ते तदा शंभो किं न संपादयिष्यसि।।(स्तवचिन्तामणिः श्लो 114) इति।अत एव प्रयाणकाले स्मरणेन विना खण्डना [ दृष्टा ] इति येषां शङ्का तान् वीतशङ्कान् कर्तुमुक्तम्,अनन्यचेताः सततम् इति अन्यत्र फलादौ साध्ये यस्य न चेत इत्यर्थः। तस्याहं सुलभ इति। तस्य,(S omit तस्य) न किंचित् प्रयाणकालौचित्यपर्येषाम् तीर्थसेवा उत्तरायणम् आयतनसंश्रयः(N आवर्तनसंश्रयः) सत्त्वविशुद्धिः (SK -- विवृद्धिः) सचिन्तकत्वम् (N सचित्तकत्वम्) विषुवदादिपुण्यकालः दिनम् अकृत्रिमपवित्रभूपरिग्रहः स्नेहमलविहीनदेहता शुद्धवस्त्रादिपरिग्रहः (SN omit परि -- ) इत्यादिक्लेशोभ्यर्थनीय इत्यर्थः यत्प्रागुक्तम् -- तीर्थ श्वपचगृहे वा इत्यादि।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।। 8.13 सर्वद्वाराणि संयम्य इत्यत्र नवद्वारप्रतीतिनिरासाय प्रत्याहारविषयताद्योतनाय चाहसर्वाणि श्रोत्रादीनीति। द्वारानुबन्धरहितस्पर्शनादीन्द्रियाणां कथं द्वारशब्दार्थतेत्यत्रोक्तंज्ञानद्वारभूतानीति। संयमनमत्र शब्दादिविषयौन्मुख्यनिवर्तनमित्यभिप्रायेणाहस्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्येति।मनो हृदि निरुध्य च इत्यत्र हृन्मात्रस्य ध्येयतानुपपन्नेत्यत्रोक्तंहृदयकमलनिविष्टे मय्यक्षर इति। हृच्छब्दोऽत्र तत्रत्यपुरुषलक्षकः अन्यथामामनुस्मरन् इत्यनन्तरोक्तिर्न घटेतेति भावः। अर्थक्रमेण बलवता दुर्बलस्य पाठक्रमस्य बाधमभिप्रेत्यमनो हृदि निरुध्य इत्यस्यानन्तरन्आस्थितो योगधारणाम् इत्यादिकं व्याख्यातम्। प्रत्याहारानन्तरपठितधारणाव्यवच्छेदायाहयोगाख्यां धारणामिति। षष्ठी समासात्समानाधिकरणसमासस्य ग्राह्यत्वं निषादस्थपतिन्यायसिद्धम्।स्थपतिर्निषादः स्यात् शब्दसामर्थ्यात् [पू.मी.6।1।51] इति। धारणाशब्दाधिक्याभिप्रेतमाहमय्येव निश्चलां स्थितिमिति। प्रणवस्य ब्रह्मप्रतिपादकत्वात्ब्रह्म इति व्यपदेश इत्यभिप्रायेणमद्वाचकमित्युक्तम्। मन्त्रस्यार्थविशेषप्रकाशनमुखेनोपकारकत्वमप्यत्र ब्रह्मशब्देन प्रतिपादनाद्विवक्षितमित्यभिप्रायेणवाच्यं मामनुस्मरन्नित्युक्तम्। प्रणवस्य भगवद्वाचकत्वं योगाङ्गत्वादिकं च श्रुतिस्मृत्यादिसिद्धम्। यथा कठवल्ल्यां [2।15] सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इति।अत्र नाम्ना नामिनो निर्देशः। तथा प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् [मुं.उ.2।2।4] इति। तथा आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासा(द्देवं पश्येन्निगू)त्पश्येद्ब्रह्माग्निगूढवत् [ध्यानबिंदू.22] इति। तथा ओमित्येवं ध्यायथात्मानम् [मुं.उ.2।26] इति। तथा यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः। यथा पादोदरस्त्वचा विनि[र्मुच्यत]र्मुक्त एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकम्। स एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते [प्रश्नो.5।5] इति। तथा वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः। स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे।।स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत् [श्वे.उ.1।1314] इति। अत्रैव श्लोकेविष्णुं पश्येद्धृदि स्थितम् [शं.स्मृ.7।16] इति योगयाज्ञवल्क्यपाठः। तथाकांस्यघण्टानिनादस्तु यथा लीयति शान्तये। ओङ्कारस्तु तथा योज्यः शान्तये शान्तिमिच्छता। यस्मिन् स लीयते शब्दस्तत्परं ब्रह्म गीयते [ ] इति। तथाओं खं ब्रह्म खं पुराणम् [बृ.उ.5।1।1] इति। ओमित्येतदक्षरमादौ ৷৷. ब्रह्मास्य पादाश्चत्वारो वेदाश्चतुष्पादिदमक्षरं [परं ब्रह्म] पूर्वाऽस्य मात्रा पृथिव्यकारः इत्यारभ्य प्रथमा रक्तपीता महद्ब्रह्मदैवत्या द्वितीया विद्युमती कृष्णा विष्णुदेवत्या तृतीया शुभाशुभा शुक्ला रुद्रदैवत्या याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा विद्युमती सर्ववर्णा पुरुषदैवत्या [अ.शिखो.1] इति च। अत्र अर्धमात्राधिदैवतभूतः पुरुष एवावतीर्णावस्थो द्वितीयमात्रादैवत्वेन विष्णुरिति चोक्तः। तथा ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम् [तै.उ.1।8।1] इति ओङ्कार एवेदं सर्वम् [छां.उ.2।23।3] इति। तथा हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः। हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः। तस्योत्तरतः शिरो दक्षिणतः पादो य उत्तरतः स ओङ्कार य ओङ्कारः स प्रणवो यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तत्सूक्ष्मं यत्सूक्ष्मं तच्छुक्लं यच्छुक्लं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म [अ.शिरउ.3] इति। अत्र प्रकरणादिवशात् प्रतर्दनविद्यावदन्तरितं शासनमनुसन्धेयम्।मुमुक्षोरुत्क्रमणप्रकरणे च प्रणवः श्रूयते अथ यत्रैतव स्माच्छरीरादुत्क्रामति अथैतैरेव रंश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते सूओमिति वा होद्वामीयते स यावत् क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छति एतद्वै खलु लोकस्य द्वारं विदुषां प्रपदनं निरोधोऽविदुषा। तदेव श्लोकः -- शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति [छां.उ.8।6।5] इति। महाभारते च महेश्वरे वचनम्ओमित्येवं सदा विप्राः पठध्वं ध्यात केशवम् [ह.वं.वि.प.133।10] इति। आह च भगवान्या वल्क्यः -- देवतायाः परायाश्च ह्यालम्बः प्रणवः स्मृतः। कश्चिदाराधनाकामो विष्णोर्भक्त्या करोति वै।।तदाराधनसान्निध्ये प्रतिमां व्यञ्जिकां यथा। धातुद्रव्यादिपाषाणैः कृत्वा भावं निवेशयेत्।।श्रद्धाभक्त्यादराद्यैश्च तस्य देवः प्रसीदति। ओङ्कारेण तथा चात्मा ह्युपास्ते स प्रसीदति। [ ]सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।।य एतं प्रणवेनाद्यमक्षरं प्रतिपद्यते। ततोऽक्षरेण वेदेन वेद्यं ब्रह्माधिगच्छति।।एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्। एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मभूयाय कल्पते।।अदृष्टविग्रहो देवो भावग्राह्यो निरामयः। तस्योङ्कारः स्मृतं नाम तेनाहूतः प्रसीदति।।तस्मादोमिति पूर्वं तु कृत्वा युञ्जीत तत्परः। ब्रह्मोङ्कारविधानेन तत्त्वेन प्रतिपद्यते इति। अत्रसर्वद्वाराणि इत्यादिश्लोकयोर्भगवद्वाक्यतया प्रसिद्धयोरुदाहरणात्माम् इति निर्देशस्तद्विषयः। पुनश्चात्र हैरण्यगर्भादिसिद्धान्तेषु प्रणवार्थं प्रपञ्च्यान्तेऽप्याह -- त्रिरात्मा त्रिस्वभावश्च तथा त्रिव्यूह एव च। पञ्चरात्रे तथा ह्येष भगवद्वाचकः स्मृतः। बलं वीर्यं तथा तेजस्त्रिरात्मेति च संज्ञितः। ज्ञानैश्वर्ये तथा शक्तिस्त्रिस्वभाव इति स्मृतः।।सङ्कर्षणोऽथ प्रद्युम्नो ह्यनिरुद्धस्तथैव च। त्रिव्यूह इति निर्दिष्ट ओङ्कारो विष्णुरव्ययः।।भगवद्वाचकः प्रोक्तः प्रकृतेर्वाचकस्तथा। व्यक्ताव्यक्तो वासुदेवः प्रभवः प्रलयस्तथा।।इति। यच्चात्र हैरण्यगर्भकापिलावान्तरतपस्सनत्कुमारब्रह्मिष्ठपाशुपताख्येषु सिद्धान्तेष्वर्थभेदवर्णनं तदपि तत्तदर्थविशेषान्तरितपरमपुरुषपर्यवसानमभिप्रेत्येति मन्तव्यम्। अत एव हि विष्णुप्रतिपादकतयाऽन्तकाले स्मर्तव्यत्वेनोपसंह्रियते -- ओङ्कारं विपुलमचिन्त्यमप्रमेयं सूक्ष्माख्यं ध्रुवमचरं च यत्पुराणम्। तद्विष्णोः पदमपि पद्मजप्रसूतं देहान्ते मम मनसि स्थितिं करोतु इति। प्रणवेनैवात्र भगवदर्चनमुच्यते -- तल्लिङ्गैरर्चयेन्मन्त्रैः सर्वान् देवान् समाहितः। नमस्कारेण पुष्पाणि विन्यसेत्तु यथाक्रमम्।।आवाहनादिकं कर्म यन्न सूक्तं मया त्विह। तत्सर्वं प्रणवेनैव कर्तव्यं चक्रपाणये।।दद्यात्पुरुषसूक्तेन यः पुष्पाण्यप एव वा। अर्चितं स्याज्जगदिदं तेन सर्वं चराचरम्।।विष्णुर्ब्रह्मा च रुद्रश्च विष्णुरेव दिवाकरः। तस्मात्पूज्यतमं नान्यमहं मन्ये जनार्दनात् इति। तथा परमपुरुषसाक्षात्कारकारणतया चात्र प्रणवोपासनप्रकार उच्यते।ओम्भूर्भुवस्सुवर्महर्जनस्तपस्सत्यम् इति वैदिकम्।एतदुच्चार्य वै ब्रह्म परे व्योम्नि नियोजयेत्। हृदयेऽग्निश्च वायुश्च जीवो यः समुदाहृतः।।ओङ्कारं पद्मनाले तु उद्धृत्योपरि योजयेत्। आप्राणाच्छून्यभूतात्तु चेतोङ्गं जीवसंज्ञितम्।।जायते तु यतस्तस्मात्पुनस्तत्र निवेशयेत्। घण्टाशब्दवदोङ्कारमुपासीत समाहितः।।पुरुषं निर्मलं शुभ्रं पश्येद्वै नात्र संशयः इति। योगानुशासनसूत्रं चक्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः [ब्र.सू.1।24]तस्य वाचकः प्रणवः [ब्र.सू.1।27] इति। अतः प्रणवस्य भगवद्वाचकत्वं समाध्युत्क्रमणाद्यवस्थासु तेनैव भगवदनुस्मरणं च सिद्धम्।शतं चैका च हृदयस्य ना़ड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्ङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति [छां.उ.8।6।6] ऊर्ध्वमेकः स्थितस्तेषां यो भित्वा सूर्यमण्डलम्। ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन याति परां गतिम् [या.स्मृ.3।137] इत्यादिश्रुतिस्मृत्यनुसारान्मुमुक्षोरुत्क्रणौपयिकमिदं मूर्ध्नि प्राणाधानम्।त्यजन् यः प्रयातीति त्यक्त्वा यः प्रयातीत्यर्थः। आत्मार्थिनो ह्यात्मा गन्तव्यः तत्रापुनरावृत्तित्वमात्रात्परमगतित्वोक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- प्रकृतीति। ईदृशस्यात्मनः परमगतिशब्देन व्यपदेशो न केवलं प्रकरणवशात् किन्त्वस्मिन्नेवाध्याये तद्विषय एवायं प्रयोगोऽप्यस्तीत्याह -- यः स सर्वेष्विति। ,
Sri Sridhara Swami
।।8.13।। ओमिति। ओमित्येकं यदक्षरं तदेव ब्रह्मवाचकत्वाद्वा प्रतिमादिवद्ब्रह्मप्रतीकत्वाद्वा ब्रह्म तद्व्याहरन्नुच्चारयन् तद्वाच्यं च मामनुस्मरन्नेव देहं त्यजन्यः प्रकर्षेण याति अर्चिरादिमार्गेण स परमां श्रेष्ठां मद्गतिं याति प्राप्नोति।
Sri Ramanujacharya
।।8.13।।सर्वाणि श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि ज्ञानद्वारभूतानि संयम्य स्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्य हृदयकमलनिविष्टे मयि अक्षरे मनो निरुध्य योगाख्यां धारणां आस्थितः मयि एव निश्चलां स्थितिम् आस्थितः।ओम् इति एकाक्षरं ब्रह्म मद्वाचकं व्याहरन् वाच्यं माम् अनुस्मरन् आत्मनः प्राणं मूर्ध्न्याधाय देहं त्यजन् यः प्रयाति स याति परमां गतिं प्रकृतिवियुक्तं मत्समानाकारम् अपुनरावृत्तिम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थःयः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। (गीता 8।2021) इति अनन्तरम् एव वक्ष्यते। एवम् ऐश्वर्यार्थिनः कैवल्यार्थिनश्च स्वप्राप्यानुगुणः भगवदुपासनप्रकार उक्तः। अथ ज्ञानिनो भगवदुपासनप्रकारं प्राप्तिकारं च आह --
Sri Neelkanth
।।8.13।।मूर्ध्नि प्राणमाधाय किं कुर्यादत आह -- ओंकाररूपं एकाक्षरं एकं च तदक्षरं च वर्णो ब्रह्म च तद्व्याहरनुच्चरन् मां च ब्रह्मभूतमनुस्मरन् यो हि देवदत्तं स्मृत्वा तन्नाम व्याहरति तस्मै देवदत्तोऽभिमुखो भवत्येवं ब्रह्मणो नामोच्चारणेन संनिहिततरं व्यापकं ब्रह्म साधकस्य संनिधीयते। संनिहिते च ब्रह्मणि यो देहं त्यजन् म्रियमाणः प्रयाति ऊर्ध्वनाड्या उत्क्रामति स परमां गतिं संनिकृष्टब्रह्मरूपां याति। ब्रह्मैव प्रकृत्य श्रूयतेएषास्य परमा गतिरेषास्य परमा संपदेषोऽस्य परम आनन्दः इति। तामेव गतिं शुद्धं ब्रह्मैव प्राप्नोति ब्रह्मलोकप्राप्तिद्वारा।
Sri Madhavacharya
।।8.12 -- 8.13।।ब्रह्मनाडीं विना यद्यन्यत्र गच्छति तर्हि विना मोक्षं स्थानान्तरं प्राप्नोतीति सर्वद्वाराणि संयम्यनिर्गच्छंश्चक्षुषा सूर्यं दिशः श्रोत्रेण चैव हि इत्यादिवचनात् व्यासयोगे मोक्षधर्मे च। हृदि नारायणे।ह्रियते त्वया जगद्यस्माद्धृदित्येवं प्रभाषसे इति पाद्मे। नहि मूर्धनि प्राणे स्थिते हृदि मनसः स्थितिः सम्भवति।यत्र प्राणो मनस्तत्र तत्र जीवः परस्तथा इति व्यासयोगे। योगधारणामास्थितः योगभरण एवाभियुक्त इत्यर्थः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।8.13।।ओमित्येकमक्षरं ब्रह्मवाचकत्वात्प्रतिमावद्ब्रह्मप्रतीकत्वाद्वा ब्रह्म व्याहरन्नुच्चरन्। ओमिति व्याहरन्नित्येतावतैव निर्वाहे एकाक्षरमित्यनायासकथनेन स्तुत्यर्थम्। ओमिति व्याहरन्नेकाक्षरमेकमद्वितीयमक्षरमविनाशि सर्वव्यापकं ब्रह्म मां ओमित्यस्यार्थं स्मरन्निति वा। तेन प्रणवं जपंस्तदभिधेयभूतं च मां चिन्तयन्मूर्धन्यया नाड्या देहं त्यजन् यः प्रयाति स याति देवयानमार्गेण ब्रह्मलोकं गत्वा तद्भोगान्ते परमां प्रकृष्टां गतिं मद्रूपाम्। अत्र पतञ्जलिनातीव्रसंवेगानामासन्नः समाधिलाभः इत्युक्त्वाईश्वरप्रणिधानाद्वा इत्युक्तम्। प्रणिधानं च व्याख्यातंतस्य वाचकः प्रणवः तज्जपस्तदर्थभावनम् इति।समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् इति च। इहतु साक्षादेव ततः परमगतिलाभ इत्युक्तम्। तस्मादविरोधायोमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्नात्मनो योगधारणामास्थित इति व्याख्येयम्। विचित्रफलत्वोपपत्तेर्वा न विरोधः।
Sri Purushottamji
।।8.13।।ओमिति। एकाक्षरं शक्तिद्वयसम्बद्धपुरुषवद्वर्णत्रयात्मकमेकं यदक्षरं ब्रह्मवाचकत्वात्तत्सरूपत्वाद्वा ब्रह्मात्मकं व्याहरन्नुच्चारयन् मामेवंरूपं प्रकटमनुस्मरन् यो देहं त्यजन् प्रयाति प्रकर्षेण भावात्मतया गच्छति स परमां परो मीयते यया यत्र वा तां गतिं अक्षरात्मिकां याति प्राप्नोतीत्यर्थः।
Sri Shankaracharya
।।8.13।। --,ओमिति एकाक्षरं ब्रह्म ब्रह्मणः अभिधानभूतम् ओंकारं व्याहरन् उच्चारयन् तदर्थभूतं माम् ईश्वरम् अनुस्मरन् अनुचिन्तयन् यः,प्रयाति म्रियते सः त्यजन् परित्यजन् देहं शरीरम् -- त्यजन् देहम् इति प्रयाणविशेषणार्थम् देहत्यागेन प्रयाणम् आत्मनः न स्वरूपनाशेनेत्यर्थः -- सः एवं याति गच्छति परमां प्रकृष्टां गतिम्।।किञ्च --,
Sri Vallabhacharya
।।8.12 -- 8.13।।तत्प्राप्तौ साङ्गमुपायमाह -- सर्वद्वाराणीति द्वाभ्याम्। ब्रह्मवादे ममैव नामरूपात्मकत्वादिति योगी मां ँ़इत्येकाक्षररूपमनुस्मरन् तथा व्याहरन्नन्तकाले परमामेतां पदत्वेन निर्दिष्टां गतिं याति।
Swami Sivananda
8.13 Om? इति thus? एकाक्षरम् onesyllabled? ब्रह्म Brahman? व्याहरन् uttering? माम् Me? अनुस्मरन् remembering? यः who? प्रयाति departs? त्यजन् leaving? देहम् the body? सः he? याति attains? परमाम् supreme? गतिम् goal.Commentary Having controlled the thoughts the Yogi ascends by the Sushumna? the Nadi (subtle psychic nervechannel) which passes upwards from the heart. He fixes his whole Prana or lifreath in the crown of the head in the Brahmarandhra or the hole of Brahman. He utters the sacred monosyllable Om? meditates on Me and leaves the body.
Sri Dhanpati
।।8.13।।ओमिति। एकं च तदक्षरं ब्रह्म ब्रह्मणोऽभिधानभूतम्। अभिधायकमितियावत्। ऊँकारं व्याहरन्नुच्चारयन् तदभिधेयं परमात्मानं मामनुस्मरन्ननुचिन्तयन्। यत्तु ओमितिव्याहरन् एकाक्षरं एकमक्षरं एकमद्वितीयमक्षरमविनाशि सर्वव्यापकं ब्रह्म मां ओमित्यस्यार्थं स्मरन्नितिकेचित्। यत्तु ओमितिव्याहरन् एकाक्षरं एकमक्षरं एकमद्वितीयमक्षरमावैनासि सर्वव्यापकं ब्रह्म मां ओमित्यस्यार्थं स्मरन्नितिकेचित्। तन्न।एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्ययः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाचरेण परं पुरुषभिध्यायीत इतिश्रुत्यननुसरणेन तद्विस्मरणस्य स्पष्टवात्। श्रुतिस्थत्रिमात्रशब्दस्यैकशब्देन व्याख्यानं भगवता क्रियते। श्रुतौ त्रिमात्रेणेत्यस्य प्रथममकारेणाभिध्यायीत तत उकारेण ततो मकारेणेति भ्रमो मामूदित्येतद्तम्। ओमिति त्रिमात्रमेकमेवाक्षरं व्याहरन् नतु मात्राभेदेनाक्षरत्रयं पृथक्पृथग्व्याहारन्नित्यर्थः। किंच रुढिर्योगमपहन्तीति न्यायात् अक्षरशब्द ओंकारेणैव संबध्यते तस्य वर्णे रुढत्वात्। योगाश्रयणं तु रुढ्यसंभवे। तस्मात् श्रुत्यनुसारि व्यवहितान्वयरहितं रुढिपरित्यागदोषाग्रस्तं सर्वज्ञानां भाष्यकृतां व्याख्यानमेव प्रयाणकाल आत्मनो देहत्यागमात्रं प्रयाणं नतु स्वरुपनाशेनेत्यर्थः। देहं त्यजन्यः प्रयाति स परमां उत्कृष्टामबाध्यां गतिं स्थानं मोक्षाख्यं ब्रह्मलोकप्राप्तिक्रमेण याति अधिगच्छति।