Chapter 8, Verse 22
Verse textपुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।8.22।।
Verse transliteration
puruṣhaḥ sa paraḥ pārtha bhaktyā labhyas tvananyayā yasyāntaḥ-sthāni bhūtāni yena sarvam idaṁ tatam
Verse words
- puruṣhaḥ—the Supreme Divine Personality
- saḥ—he
- paraḥ—greatest
- pārtha—Arjun, the son of Pritha
- bhaktyā—through devotion
- labhyaḥ—is attainable
- tu—indeed
- ananyayā—without another
- yasya—of whom
- antaḥ-sthāni—situated within
- bhūtāni—beings
- yena—by whom
- sarvam—all
- idam—this
- tatam—is pervaded
Verse translations
Shri Purohit Swami
O Arjuna! That Highest God, in Whom all beings abide, and Who pervades the entire universe, is reached only by wholehearted devotion. *He is the one who determines the course of worldly events and the destiny of all living beings.*
Swami Ramsukhdas
।।8.22।। हे पृथानन्दन अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
Swami Tejomayananda
।।8.22।। हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।।
Swami Adidevananda
O son of Prtha, that supreme Person—in whom all beings are included and by whom all this is pervaded—is indeed reached through one-pointed devotion.
Swami Gambirananda
O son of Prtha, that supreme Person—in whom all beings are included and by whom all this is pervaded—is, indeed, reached through one-pointed devotion.
Swami Sivananda
That highest Purusha, O Arjuna, is attainable by unswerving devotion to Him alone, within Whom all beings dwell and by Whom all this is pervaded.
Dr. S. Sankaranarayan
O son of Prtha, the Supreme Soul is attainable through devotion that admits no other things; having attained it, the men of Yoga do not get birth again; within it exist the beings, and everything is well established in it, O Arjuna!
Verse commentaries
Sri Madhusudan Saraswati
।।8.22।।इदानीम्अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः इति प्रागुक्तं भक्तियोगमेव तत्प्राप्त्युपायमाह -- स परो निरतिशयः पुरुषः परमात्माहमेव। अनन्यया न विद्यतेऽन्यो विषयो यस्यां तया प्रेमलक्षणया भक्त्यैव लभ्यो नान्यथा। स क इत्यपेक्षायामाह -- यस्य पुरुषस्यान्तःस्थान्यन्तर्वतीनि भूतानि सर्वाणि कार्याणि। कारणान्तर्वर्तित्वात्कार्यस्य। अतएव येन पुरुषेण सर्वमिदं कार्यजातं ततं व्याप्तम्यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्।वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वयच्च किंचिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितःसपर्यगाच्छुक्रम् इत्यादिश्रुतिभ्यश्च।
Sri Purushottamji
।।8.22।।ननु यद्धामगता न निवर्तन्ते स त्वं कथं प्राप्यः इत्याकाङ्क्षायामाह -- पुरुष इति। हे पार्थ मद्भक्त सोऽहं परः पुरुषोत्तमः अनन्यया ऐहिकपारलौकिकयोर्मच्छरणैकरूपया मदितरज्ञानरहितया भक्त्या स्नेहेन लभ्यः प्राप्यः। स कीदृशः इत्यत आह -- यस्येति। यस्य अन्तस्स्थानि भूतानि चराचराणि रमणकारणात्मकानि यस्य मध्ये स्वरूपे तिष्ठन्ति येन इदं परिदृश्यमानं सर्वं जगत् ततं व्याप्तम्। अत्रायं भावः -- लौकिकाः सर्वे क्रीडोपयुक्ता न भवन्ति आचरणस्थितत्वात् अतस्ते ज्ञानादिना मद्धाम प्राप्यं लीनास्तत्रैव,मुक्ता भवन्तीत्यर्थः। येन क्रीडार्थमाविर्भूतेन तदधिष्ठानत्वादिदं मयि जगत् व्याप्तं सत् ततं विस्तृतं विभातीति भावः।
Sri Shankaracharya
।।8.22।। --,पुरुषः पुरि शयनात् पूर्णत्वाद्वा स परः पार्थ परः निरतिशयः यस्मात् पुरुषात् न परं किञ्चित्। सः भक्त्या लभ्यस्तु ज्ञानलक्षणया अनन्यया आत्मविषयया। यस्य पुरुषस्य अन्तःस्थानि मध्यस्थानि भूतानि कार्यभूतानि कार्यं हि कारणस्य अन्तर्वर्ति भवति। येन पुरुषेण सर्वं इदं जगत् ततं व्याप्तम् आकाशेनेव घटादि।।प्रकृतानां योगिनां प्रणवावेशितब्रह्मबुद्धीनां कालान्तरमुक्तिभाजां ब्रह्मप्रतिपत्तये उत्तरो मार्गो वक्तव्य इति यत्र काले इत्यादि विवक्षितार्थसमर्पणार्थम् उच्यते आवृत्तिमार्गोपन्यासः इतरमार्गस्तुत्यर्थः --,
Sri Vallabhacharya
।।8.22।।पुरुषः स पर इति। अनेनाक्षरात्परस्य स्वस्य पूर्णानन्दस्य निर्हेतुकभक्तिलभ्यत्वमुक्तम्। तेन न ज्ञानमार्गीयाणां पुरुषोत्तमप्राप्तिरिति सिद्धम्। परस्य लक्षणमाह -- यस्यान्तस्स्थानि भूतानि इति साक्षराणि। एतच्च स्पष्टं मृद्भक्षणप्रसङ्गेश्रीगोकुलेश्वरेयेन सर्वमिदं ततं [18।46] इति माहात्म्यं परिच्छिन्नमेव व्यापकमिति दामोदरलीलायां इदं सर्वंअक्षरधियां त्ववरोधः सामान्यतद्भावाभ्यामौपसदवत्तदुक्तं इत्यादिसूत्रभाष्ये [ब्र.सू.3।3।33] प्रपञ्चितम्। यत्तु (रामानुजाचार्यैः) कैश्चिदुक्तंभूम्यादिप्रकृतिर्जीवभूता च भगवतो धाम इति तद्युक्तमुक्तम्। तस्माज्जीवभूतस्य च तद्धामत्वं श्रूयतेऽपि यस्य पृथिवी शरीरं [बृ.उ.3।7।3] यस्यात्मा शरीरं [श.ब्रा.14।6।5।5] इति। न त्वक्षरत्वं तदा(सदा)जीवभूतस्य सम्भवति ज्ञानोत्तरं तत्त्वसिद्धेः। तस्माज्जीवातीतः सर्वकारणकारणभूतोऽक्षरोऽपि पृथगित्यवोचाम। यत उक्तं भागवते तृतीये [3941]आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः। दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत्। लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः। तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्। विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः।। इति तस्याक्षरस्यांशः पुरुषस्तु समष्टिव्यष्ट्यभिमानी वैराजः स जीवलोके जीवभूत इति व्यपदिश्यते। पुरुषोत्तमस्तु एतत्ित्रयान्य इति स्वयमेव वक्ष्यति। स च सर्वसाधनफलात्मजीवलोकोत्तरसानन्दस्वरूपो नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन [कठो.2।22] किन्तु यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः [कठो.2।22] इति श्रुतेः स्वानुगृहीतभक्तिलभ्य इति प्रतिभाति। तथैवाग्रे प्रदर्शयिष्यामः।
Swami Sivananda
8.22 पुरुषः Purusha? सः that? परः highest? पार्थ O Partha? भक्त्या by devotion? लभ्यः is attainable? तु verily? अनन्यया without another object (unswerving)? यस्य of whom? अन्तःस्थानि dwelling within? भूतानि beings? येन by whom? सर्वम् all? इदम् this? ततम् pervaded.Commentary All the beings (effects) dwell within the Purusha (the Supreme Person? the cause) because every effect rests within its cause. Just as the effect? pot? rests within its cause? the clay? so also all beings and the worlds rest within their cause? the Purusha. Therefore the whole world is pervaded by the Purusha.Sri Sankara explains exclusive devotion as Jnana or knowledge of the Self.Purusha is so called because everything is filled by It (derived from the Sanskrit root pur which means to fill) or because It rests in the body of all (derived from the Sanskrit root pur). None is higher than It and so It is the Supreme Person. (Cf.IX.4XI.38XV.6and7)
Sri Sridhara Swami
।।8.22।। तत्प्राप्तौ च भक्तिरन्तरङ्गोपाय इत्युक्तमेवाह -- पुरुष इति। स चाहं परः पुरुषोऽनन्यया न विद्यते अन्यः शरणत्वेन यस्यास्तया एकान्तभक्त्यैव लभ्यो नान्यथा। परत्वमेवाह। यस्य कारणभूतस्यान्तर्मध्ये भूतानि स्थितानि। येन च कारणभूतेन सर्वमिदं जगत्ततं व्याप्तम्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।8.22।।पुरुषः सः इति श्लोके तुशब्देनार्थान्तरद्योतनात्अनन्यया भक्त्या इत्यस्य सामर्थ्यात्पुरुषशब्दस्य परमात्मनि पुरिशयत्वपूर्णत्वपूर्वसद्भावपुरुदानादिभिर्निमित्तैः सहस्रशीर्षा पुरुषः [ऋक्सं.8।4।17।8यजुस्सं.31।1] इत्यादिप्रयोगप्राचुर्यात्परशब्देन विशेषणाच्च पूर्वोक्तात्फलादधिकफलोपदेशार्थोऽयं श्लोक इत्यभिप्रायेणाह -- ज्ञानिन इति।विभक्तं विवेचकैरिति शेषः। विलक्षणमिति वाऽर्थः। गगनाद्यन्तस्थितावपि गगनादेः परत्वाभावात्तत्सिद्ध्यर्थंयस्य इत्यादिप्रसिद्धवन्निर्देशोऽत्र पूर्वोक्तपरत्वपर इति दर्शयति -- मत्त इति। अनुवादपुरोवादयोरैकार्थ्यमिति भावः। यस्मात्परं नापरम् इत्यारभ्य तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् [श्वे.उ.3।9] इति श्रुतिस्मारणाययेन च परेण पुरुषेणेत्युक्तम्। भक्तेरनन्यत्वं कीदृशं इत्यत्राह -- अनन्यचेता इति।
Swami Chinmayananda
।।8.22।। हिन्दुओं के उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ उस साधन मार्ग को बताते हैं जिसके द्वारा उस परम पुरुष को प्राप्त किया जा सकता है जिसे अव्यक्त अक्षर कहा गया था। वह साधन मार्ग है अनन्य भक्ति। परम पुरुष से भक्ति (निष्काम परम प्रेम) तभी वास्तविक और पूर्ण हो सकती है जब साधक भक्त स्वयं को शरीर मन और बुद्धि द्वारा अनुभूयमान जगत् से विरत और वियुक्त करना सीख लेता है। नित्य पारमार्थिक सत्य से प्रेम ही वह साधन है जिसके द्वारा मिथ्या वस्तु से वैराग्य होता है। प्रखर जिज्ञासा से अनुप्राणित हुई आत्मतत्त्व की खोज और फिर उसके साथ एकत्त्व की यह अनुभूति कि यह आत्मा मैं हूँ अनन्य भक्ति है जिसके विषय में यहाँ बताया गया है।ध्यानावस्थित मन के द्वारा जिस आत्मा की अनुभूति स्वस्वरूप के रूप में होती है उसे कोई परिच्छिन्न चेतन तत्त्व नहीं समझना चाहिए जो केवल एक व्यष्टि उपाधि में ही स्थित उसे चेतनता प्रदान कर रहा हो। यद्यपि आत्मा की खोज और अनुभव साधक अपने हृदय में करता है तथापि उसका ज्ञान यह होता है कि यह चैतन्य आत्मा सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान है। इस हृदयस्थ आत्मा का जगदधिष्ठान सत्य ब्रह्म के साथ एकता का निर्देश भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में देते हैं कि जिसमें भूतमात्र स्थित है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है वह पुरुष है।मिट्टी के बने सभी घट मिट्टी में ही स्थित होते हैं और उनके नाम रूपरंग और आकार विविध होते हुए भी एक ही मिट्टी उन सबमें व्याप्त होती है। सभी लहरें तरंगें फेन आदि समुद्र में ही स्थित होते हैं और समुद्र उन्हें व्याप्त किये रहता है। घटों के अन्तर्बाह्य उनका उपादान कारण (मूल स्वरूप) मिट्टी और लहरों में समुद्र होता है।शुद्ध चैतन्य स्वरूप ही वह सनातन सत्य है जिसमें अव्यक्त सृष्टि व्यक्त होती है। किसी वस्त्र पर धागे से बनाये गये चित्र का अधिष्ठान कपास है जिसके बिना वह चित्र नहीं बन सकता था। शुद्ध चैतन्य तत्त्व वासनाओं के विविध सांचों में ढलकर अविद्या से स्थूल रूप को प्राप्त होकर असंख्य नामरूपमय जगत् के रूप में प्रतीत होता है। तत्पश्चात् सर्वत्र सब लोग विषयों को देखकर आकर्षित होते हैं उनकी कामना करते हैं उन्हें प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। जो पुरुष आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेता है वह यह समझ लेता है कि इस नानाविध सृष्टि का एक ही अधिष्ठान है जिसके अज्ञान से ही इस जगत् का प्रत्यक्ष हो रहा है। जीव अज्ञान के वश इसे ही सत्य समझ कर संसार के मिथ्या दुःखों से पीड़ित रहता है व्यक्त से अव्यक्त को लौटने के दो विभिन्न मार्गों को बताने के पश्चात् अब भगवान् अगले प्रकरण में साधकों द्वारा प्राप्त किये जा सकने वाले दो विभिन्न लक्ष्यों के भिन्नभिन्न मार्गों का वर्णन करते हैं। कोई साधक उस लक्ष्य को प्राप्त होते हैं जहाँ से संसार का पुनरावर्तन होता है तथा अन्य लक्ष्य वह है जिसे प्राप्त कर पुनः संसार को नहीं लौटना पड़ता।वे दो मार्ग कौन से हैं भगवान् कहते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।8.22।। व्याख्या--'यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्'--सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने निषेधरूपसे कहा कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं, पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं। यहाँ भगवान् विधिरूपसे कहते हैं कि परमात्माके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और परमात्मा सम्पूर्ण संसारमें परिपूर्ण हैं। इसीको भगवान्ने नवें अध्यायके चौथे, पाँचवें और छठे श्लोकमें विधि और निषेध--दोनों रूपोंसे कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे सिवाय किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सब मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं; मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं, अतः सब कुछ मैं ही हुआ।वे परमात्मा सर्वोपरि होनेपर भी सबमें व्याप्त हैं अर्थात् वे परमात्मा सब जगह हैं; सब समयमें हैं; सम्पूर्ण वस्तुओंमें हैं, सम्पूर्ण क्रियाओंमें हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंमें हैं। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें पहले भी सोना ही था, गहनारूप बननेपर भी सोना ही रहा और गहनोंके नष्ट होनेपर भी सोना ही रहेगा। परन्तु सोनेसे बने गहनोंके नाम, रूप, आकृति, उपयोग, तौल मूल्य आदिपर दृष्टि रहनेसे सोनेकी तरफ दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही संसारके पहले भी परमात्मा थे, संसाररूपसे भी परमात्मा ही हैं और संसारका अन्त होनेपर भी परमात्मा ही रहेंगे। परन्तु संसारको पाञ्चभौतिक, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, अनुकूल-प्रतिकूल आदि मान लेनेसे परमात्माकी तरफ दृष्टि नहीं जाती।
Sri Anandgiri
।।8.22।।नन्वव्यक्तादतिरिक्तस्य तद्विलक्षणस्य परमपुरुषस्य प्राप्तौ कश्चिदसाधारणो हेतुरेषितव्यो यस्मिन्प्रेक्षापूर्वकारी तत्प्रेक्षया प्रवृत्तो निर्वृणोति तत्राह -- तल्लब्धेरिति। परस्य पुरुषस्य सर्वकारणत्वं सर्वव्यापकत्वं च विशेषणद्वयमुदाहरति -- यस्येति। निरतिशयत्वं विशदयति -- यस्मादिति। तुशब्दोऽवधारणार्थः। भक्तिर्भजनम् सेवा प्रदक्षिणप्रणामादिलक्षणा तां व्यावर्तयति -- ज्ञानेति। उक्ताया भक्तेर्विषयतो वैशिष्ट्यमाह -- अनन्ययेति। कोऽसौ पुरुषो यद्विषया भक्तिस्तत्प्राप्तौ पर्याप्तेत्याशङ्क्योत्तरार्धं व्याचष्टे -- यस्येति। कथंभूतानां तदन्तःस्थत्वं तत्राह -- कार्यं हीति।स पर्यगात् इति श्रुतिमाश्रित्याह -- येनेति।
Sri Dhanpati
।।8.22।।तत्प्राप्तेव्याभिचारि साधनमाह। स परः पुरुषः सर्वोत्तमः पुरिशयनात्पूर्णत्वाद्वा पुरुषः। अनन्यया न विद्यतेऽन्यो विषयो यस्यां तया। आत्मविषययेति यावत्। भक्त्या ज्ञानलक्षणयोत्तमभक्त्या। तदुक्तंसर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः। भूतानि भगवत्यामन्येष भागवत्तोत्तमः।।ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री दयोपेक्षाः यः करोति स मध्यमः।।अर्चायामेव हरये पूजा यः श्रद्धयेहते। न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः इति।वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।यो वै अन्यां देवतामुपास्ते अहमन्योऽसावन्य इति न स वेदेति तस्मात्सः परः पुरुष अहमेव न तदभिन्नात्मनः किंचित्पृथगस्ति इत्यनन्यया भक्तया लभ्यः लब्धुं शक्यः। ननु सतु सदैव प्राप्त इत्याशङ्क्य द्विविधो हि लाभोऽलब्धलाभो लब्धलाभस्चेति। तत्रालब्धस्य ग्रामदे राजसेवादिना लाभ आद्यः। लब्धस्यैव ग्रैवेयकादेराप्तवाक्याल्लाभो द्वितीयः। तत्रान्त्यलाभोऽत्राभिप्रेत इत्याशयेन शङ्कामङ्गीकरोति। यस्य परस्य पुरुषस्यान्तर्मध्ये स्थानि स्थितानि भूतानि सर्वाणि कार्यजातानि भूतानि यस्मिन्नधिष्ठाने कल्पितानीत्यर्थः। कल्पितं ह्यधिष्ठास्यान्तर्भवति न व्यतिरिक्तं येन पुरुषेणेदं सर्व जगत्ततं सत्तास्फूर्तिभ्यां व्याप्तं त्वमपि मत्प्राप्त्यव्यभिचारिसाधिनभूतां भक्तिं यत्नेन संपादय नतु पृथानतयोऽहं मम तु भक्तिं विनैवेश्वरलाभो भविष्यतीति विश्रम्भाश्रयणं कुर्विति ध्वनयन् संबोधयति -- हे पार्थेति। मद्विषयानन्या भक्तिस्तवानायासलभ्येति सूचनार्थ वा संबोधनम्।
Sri Madhavacharya
।।8.22।।परमसाधनमाह -- पुरुष इति।
Sri Neelkanth
।।8.22।।एवं ज्ञेयं प्रत्यगभिन्नं ब्रह्मोक्त्वा जगत्कारणमुपासनीयमितोऽन्यदित्याह -- पुरुष इति। तुशब्दः पूर्ववैलक्षण्यद्योतनार्थः। हे पार्थ योयं भक्त्या आराधनेन। उपासनेनेतियावत्। कीदृश्या। अनन्यया नास्त्यन्यो यस्यां सा तया उपास्योपासकभेदमन्तरेणाहंग्रहरूपयेत्यर्थः। तया भक्त्या यो लभ्यः स परः पूर्वोक्तादव्यावृत्ताननुगतादक्षरादन्यः कारणात्मेति यावत्। लभ्यत्वादेवास्यान्यत्वमपि। नह्यात्मा च लभ्यश्चेति युज्यते। अस्य कारणत्वमेवाह -- यस्येति। यस्य पुरुषस्यान्तःस्थानि बीजे द्रुम इव सर्वाणि वियदादीनि स्थावरजंगमानि च येन च इदं सर्वं ततं व्याप्तमुपादानत्वात् स भक्त्या लभ्यत इति योजना।
Sri Ramanujacharya
।।8.22।।मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। (गीता 7।7)मामेभ्यः परमव्ययम् (गीता 7।13) इत्यादिना निर्दिष्टस्य यस्यान्तःस्थानि सर्वाणि भूतानि येन च परेण पुरुषेण सर्वम् इदं ततं स परपुरुषो अनन्यचेताः सततम् (गीता 8।14) इति अनन्यया भक्त्या लभ्यः।अथ आत्मयाथात्म्यविदः परमपुरुषनिष्ठस्य च साधारणीम् अर्चिरादिकां गतिम् आह द्वयोः अपि अर्चिरादिका गतिः श्रुतौ श्रुता सा च अपुनरावृत्तिलक्षणा।यथा पञ्चाग्निविद्यायांतद्य इत्थं विदुः ये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते तेऽर्चिषमभिसंभवन्त्यर्चिषोऽहः (छा0 उ0 5।10।1) इत्यादौ अर्चिरादिकया गत्या गतस्य परब्रह्मप्राप्तिः अपुनरावृत्तिः च उक्तास एनान्ब्रह्म गमयतिएतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्त्तं नावर्तन्ते (छा0 उ0 4।15।5) इति।न च प्रजापतिवाक्यादौ श्रुतिपरविद्याङ्गभूतात्मप्राप्तिविषया इयम्तद्य इत्थं विदुः इति गतिश्रुतिःये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते (छा0 उ0 5।10।1) इति परविद्यायाः पृथक्श्रुतिवैयर्थ्यात्।पञ्चाग्निविद्यायां चइति तु पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति (छा0 उ0 5।9।1) इतिरमणीयचरणाः कपूयचरणाः (छा0 उ0 5।10।7) इति पुण्यपापहेतुको मनुष्यादिभावो अपाम् एव भूतान्तरसंसृष्टानाम् आत्मनस्तु यत्परिष्वङ्गमात्रम् इति चिदचितोर्विवेकम् अभिधायतद्य इत्थं विदुः तेऽर्चिषमभिसंभवन्ति (छा0 उ0 5।10।1)इमं मानवमावर्त्तं नावर्तन्ते (छा0 उ0 4।15।5) इति विविक्ते चिदचिद्वस्तुनि त्याज्यतया प्राप्यतया चतद्य इत्थं विदुस्तेऽर्चिरादिना गच्छन्ति न च पुनरावर्तन्ते इति उक्तम् इति गम्यते।आत्मयाथात्म्यविदः परमपुरुषनिष्ठस्य चस एनान्ब्रह्म गमयति (छा0 उ0 4।15।5) इति ब्रह्मप्राप्तिवचनात् अचिद्वियुक्तम् आत्मवस्तु ब्रह्मात्मकतया ब्रह्मशेषतैकरसम् इत्यनुसंधेयम्।तत्क्रतुन्यायाच्च परशेषतैकरसत्वं चय आत्मनि तिष्ठन्यस्यात्मा शरीरम् (श0 ब्रा0 14।6।5।5।30) इत्यादिश्रुतिसिद्धम्।
Sri Abhinavgupta
।।8.20 -- 8.22।।सर्वतो लोकेभ्यः पुनरावत्तिः न तु मां परमेश्वरं (S K omit परमेश्वरम्) प्राप्य इति स्फुटयति -- पर इत्यादि प्रतिष्ठितमित्यन्तम्। उक्तप्रकारं कालसंकलनाविवर्जितं तु वासुदेवतत्त्वम्। व्यक्तम् सर्वानुगतम् तत्त्वेऽपि अव्यक्तम् दुष्प्रापत्वात्। तच्च भक्तिलभ्यमित्यावेदितं प्राक्। तत्रस्थं च एतद्विश्वं यत्खलु अविनाशिरूपं ( स्वरूपम्) सदा तथाभूतम्। तत्र कः पुनःशब्दस्य आवृत्तिशब्दस्य चार्थः स हि मध्ये तत्स्वभावविच्छेदापेक्षः। न च सदातनविश्वोत्तीर्णविश्वाव्यतिरिक्त -- विश्वप्रतिष्ठात्मक (SNK (n) विश्वनिष्ठात्मक -- ) परबोधस्वातन्त्र्यस्वभावस्य श्रीपरमेश्वरस्य तद्भावप्राप्तिः (N -- प्राप्तस्य) [ संभवति ] येन स्वभावविच्छेदः कोऽपि कदाप्यस्ति [इति कल्प्येत]। अतो युक्तमुक्ततम् मामुपेत्य तु (VIII 16) इति।
Sri Jayatritha
।।8.22।।भक्त्या युक्तः [8।10] इति भक्तेर्भगवत्प्राप्तिसाधनत्वस्योक्तत्वात् पुनरुक्तमुत्तरं वाक्यमित्यत आह -- परमेति। अन्यैः साधनैः सहोक्तत्वेन तत्साम्यशङ्कायां साधनेषु भक्तेः परमत्वमनेनाह। तच्च पुनर्वचनेनैव द्योत्यमिति भावः।