Chapter 8, Verse 4
Verse textअधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।8.4।।
Verse transliteration
adhibhūtaṁ kṣharo bhāvaḥ puruṣhaśh chādhidaivatam adhiyajño ’ham evātra dehe deha-bhṛitāṁ vara
Verse words
- adhibhūtam—the ever changing physical manifestation
- kṣharaḥ—perishable
- bhāvaḥ—nature
- puruṣhaḥ—the cosmic personality of God, encompassing the material creation
- cha—and
- adhidaivatam—the Lord of the celestial gods
- adhiyajñaḥ—the Lord of all sacrifices
- aham—I
- eva—certainly
- atra—here
- dehe—in the body
- deha-bhṛitām—of the embodied
- vara—O best
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।8.4।। हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थको अधिभूत कहते हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देहमें अन्तर्यामीरूपसे मैं ही अधियज्ञ हूँ।
Swami Tejomayananda
।।8.4।। हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! नश्वर वस्तु (पंचमहाभूत) अधिभूत और पुरुष अधिदैव है; इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूँ।।
Swami Adidevananda
That which exists in the physical plane is the mutable entity, and what exists in the divine plane is the Person. O best among the embodied beings, I Myself am the entity that exists in the sacrifice within this body.
Swami Gambirananda
That which exists in the physical plane is the mutable entity, and what exists in the divine plane is the Person. O best among the embodied beings, I Myself am the entity that exists in the sacrifice within this body.
Swami Sivananda
Adhibhuta—knowledge of the elements—pertains to My perishable nature, and the Purusha, or the Soul, is the Adhidaiva; I alone am the Adhiyajna here in this body, O best among the embodied.
Dr. S. Sankaranarayan
The changing nature is the lord of the material beings; the Person alone is the lord of the divinities; I am alone the Lord of sacrifices, and I, the best of the embodied souls, dwell in this body.
Shri Purohit Swami
Matter consists of forms that perish; Divinity is the Supreme Self; and He who inspires the spirit of sacrifice in man, O noblest of their race, is I Myself, Who now stand in human form before thee.
Verse commentaries
Sri Madhavacharya
।।8.4।।भूतानि सशरीरान् जीवानधिकृत्य यत्तदधिभूतम्। क्षरो भावो विनाशिकार्यपदार्थः। अव्यक्तान्तर्भावेऽपि तस्याप्यन्यथाभावाख्यो विनाशोऽस्त्येव। तच्चोक्तम् -- अव्यक्तं परमे व्योम्नि निष्क्रिये सम्प्रलीयते इति।तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम इति च।विकारोऽव्यक्तजन्म हि इति च स्कान्दे। पुरि शयनात्पुरुषो जीवः स च सङ्कर्षणो ब्रह्मा वा। स सर्वदेवानधिकृत्य तत्पतिरित्यधिदैवतम् देवाधिकारस्थ इति वा।सर्वयज्ञभोक्तृत्वादेरधियज्ञः। अन्योऽधियज्ञोऽग्न्यादिः प्रसिद्ध इति देह इति विशेषणम्।भोक्तारं यज्ञतपसां [5।29]।त्रैविद्या मां [9।20]।ये त्वन्यदेवताभक्ताः। [9।23] एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने ৷৷. गार्गि ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवाः [बृ.उ.3।8।9] इत्यादेः।कुतो ह्यस्य ध्रुवः स्वर्गः कुतो नैश्श्रेयसं पदम् [मं.भा.12।334।2] इत्यादिपरिहारश्च मोक्षधर्मे। भगवांश्चेत्तद्भोक्तृत्वादेरधियज्ञत्वं सिद्धमिति कथमित्यस्य परिहारः पृथङ्नोक्तः। सर्वप्राणिदेहस्थरूपेण साधियज्ञः।अत्रेति स्वदेहनिवृत्त्यर्थम्। न हि तत्रेश्वरस्य नियन्तृत्वं पृथगस्ति। नात्रोक्तं ब्रह्म भगवतोऽन्यत्।ते ब्रह्म [7।29] इत्युक्त्वासाधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः [7।30] इति परामर्शात् तस्यैव च प्रश्नात्।साधियज्ञं इति भेदप्रतीतेस्तन्निवृत्त्यर्थंअधियज्ञोऽहं इत्युक्तम्। मामित्यभेदप्रसिद्धेरक्षरमित्येवोक्तम्। आह च गीताकल्पे -- देहस्थविष्णुरूपाणि अधियज्ञ इतीरितः। कर्मेश्वरस्य सृष्ट्यर्थं तच्चापीच्छाद्यमुच्यते। अधिभूतं जडं प्रोक्तमध्यात्मं जीव उच्यते। हिरण्यगर्भोऽधिदैवं देवः सङ्कर्षणोऽपि वा। ब्रह्म नारायणो देवः सर्वदेवेश्वरेश्वरः इति।यथा प्रतीतं वा सर्वमत्र नैव विरुध्यते इति। स्कान्दे च -- आत्माभिमानाधिकारस्थितमध्यात्ममुच्यते। देहाद्बाह्यं विनाऽतीव बाह्यत्वादधिदैवतम्। देवाधिकारगं सर्वं महाभूताधिकारगम्। तत्कारणं तथा कार्यमधिभूतं तदन्तिकात् इति। महाकौर्मे च -- अध्यात्मं देहपर्यन्तं केवलात्मोपकारकम्। सदेहजीवभूतानि यत्तेषामुपकारकृत्। अधिभूतं तु मायान्तं देवानामधिदैवतम् इति।
Swami Ramsukhdas
।।8.4।। व्याख्या --'अधिभूतं क्षरो भावः'--पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश -- इन पञ्चमहाभूतोंसे बनी प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान् सृष्टिको अधिभूत कहते हैं।'पुरुषश्चाधिदैवतम्'-- यहाँ 'अधिदैवत' (अधिदैव) पद आदिपुरुष हिरण्यगर्भ ब्रह्माका वाचक है। महासर्गके आदिमें भगवान्के संकल्पसे सबसे पहले ब्रह्माजी ही प्रकट होते हैं और फिर वे ही सर्गके आदिमें सब सृष्टिकी रचना करते हैं। 'अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर'--हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन इस देहमें अधियज्ञ मैं ही हूँ अर्थात् इस मनुष्यशरीरमें अन्तर्यामीरूपसे मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 451.1)। भगवान्ने गीतामें 'हृदि सर्वस्य विष्ठितम्' (13। 17) 'सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः' (15। 15) 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति' (18। 61) आदिमें अपनेको अन्तर्यामीरूपसे सबके हृदयमें विराजमान बताया है। 'अहमेव अत्र (टिप्पणी प0 451.2) देहे'कहनेका तात्पर्य है कि दूसरी योनियोंमें तो पूर्वकृत कर्मोंका भोग होता है नये कर्म नहीं बनते पर इस मनुष्यशरीरमें नये कर्म भी बनते हैं। उन कर्मोंके प्रेरक अन्तर्यामी भगवान् होते हैं (टिप्पणी प0 451.3)। जहाँ मनुष्य रागद्वेष नहीं करता उसके सब कर्म भगवान्की प्रेरणाके अनुसार शुद्ध होते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते और जहाँ वह रागद्वेषके कारण भगवान्की प्रेरणाके अनुसार कर्म नहीं करता उसके कर्म बन्धनकारक होते हैं। कारण कि राग और द्वेष मनुष्यके महान् शत्रु हैं (गीता 3। 34)। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्की प्रेरणासे कभी निषिद्धकर्म होते ही नहीं। श्रुति और स्मृति भगवान्की आज्ञा है -- 'श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे।' अतः भगवान् श्रुति और स्मृतिके विरुद्ध प्रेरणा कैसे कर सकते हैं नहीं कर सकते। निषिद्धकर्म तो मनुष्य कामनाके वशीभूत होकर ही करता है (गीता 3। 37)। अगर मनुष्य कामनाके वशीभूत न हो तो उसके द्वारा स्वाभाविक ही विहित कर्म होंगे जिनको अठारहवें सहज,स्वभावनियत कर्म नामसे कहा गया है।यहाँ अर्जुनके लिये 'देहभृतां वर' कहनेका तात्पर्य है कि देहधारियोंमें वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो इस देहमें परमात्मा हैं -- ऐसा जान लेता है। ऐसा ज्ञान न हो तो भी ऐसा मान ले कि स्थूल सूक्ष्म और कारणशरीरके कणकणमें परमात्मा हैं और उनका अनुभव करना ही मनुष्यजन्मका खास ध्येय है। इस ध्येयकी सिद्धिके लिये परमात्माकी आज्ञाके अनुसार ही काम करना है।तीसरे और चौथे श्लोकमें जो ब्रह्म अध्यात्म कर्म अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञका वर्णन हुआ है उसे समझनेमात्रके लिये जलका एक दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे जब आकाश स्वच्छ होता है तब हमारे और सूर्यके मध्यमें कोई पदार्थ न दीखनेपर भी वास्तवमें वहाँ परमाणुरूपसे जलतत्त्व रहता है। वही जलतत्त्व भाप बनता है और भापके घनीभूत होनेपर बादल बनता है। बादलमें जो जलकण रहते हैं उनके मिलनेसे बूँदें बन जाती हैं। उन बूँदोंमें जब ठण्डकके संयोगसे घनता आ जाती है तब वे ही बूँदें ओले (बर्फ) बन जाती हैं -- यह जलतत्त्वका बहुत स्थूल रूप हुआ। ऐसे ही निर्गुणनिराकार ब्रह्म परमाणुरूपसे जलतत्त्व है अधियज्ञ (व्यापक विष्णु) भापरूपसे जल है अधिदैव (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) बादलरूपसे जल है अध्यात्म (अनन्त जीव) बूँदेंरूपसे जल है कर्म (सृष्टिरचनारूप कर्म) वर्षाकी क्रिया है और,अधिभूत (भौतिक सृष्टिमात्र) बर्फरूपसे जल है। इस वर्णनका तात्पर्य यह हुआ कि जैसे एक ही जल परमाणु भाप बादल वर्षाकी क्रिया बूँदें और ओले(बर्फ) के रूपसे भिन्नभिन्न दीखता है पर वास्तवमें है एक ही। इसी प्रकार एक ही परमात्मतत्त्व ब्रह्म अध्यात्म कर्म अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके रूपसे भिन्नभिन्न प्रतीत होते हुए भी तत्त्वतः एक ही है। इसीको सातवें अध्यायमें 'समग्रम्' (7। 1) और 'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) कहा गया है। तात्त्विक दृष्टिसे तो सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19)। इसमें भी जब विवेकदृष्टिसे देखते हैं तब शरीरशरीरी प्रकृतिपुरुष -- ऐसे दो भेद हो जाते हैं। उपासनाकी दृष्टिसे देखते हैं तो उपास्य (परमात्मा) उपासक (जीव) और त्याज्य (प्रकृतिका कार्य -- संसार) -- ये तीन भेद हो जाते हैं। इन तीनोंको समझनेके लिये यहाँ इनके छः भेद किये गये हैं -- परमात्माके दो भेद -- ब्रह्म (निर्गुण) और अधियज्ञ (सगुण)।जीवके दो भेद -- अध्यात्म (सामान्य जीव जो कि बद्ध हैं) और अधिदैव (कारक पुरुष जो कि मुक्त हैं)।संसारके दो भेद -- कर्म (जो कि परिवर्तनका पुञ्ज है) और अधिभूत (जो कि पदार्थ हैं)। 1. ब्रह्म 2. अध्यात्म 3. कर्म 4. अधिभूत 5. अधिदैव 6. अधियज्ञ विशेष बात (1)सब संसारमें परमात्मा व्याप्त हैं --'मया ततमिदं सर्वम्' (9। 4) 'येन सर्वमिदं ततम्' (18। 46) सब संसार परमात्मामें है -- 'मयि सर्वमिदं प्रोतम्' (7। 7) सब कुछ परमात्मा ही हैं --'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) सब संसार परमात्माका है--'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च' (9। 24) 'भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्' (5। 29) -- इस प्रकार गीतामें भगवान्के तरहतरहके वचन आते हैं। इन सबका सामञ्जस्य कैसे हो सबकी संगति कैसे बैठे इसपर विचार किया जाता है। संसारमें परमात्मप्राप्तिके लिये अपने कल्याणके लिये साधना करनेवाले जितने भी साधक (टिप्पणी प0 452) हैं वे सभी संसारसे छूटना चाहते हैं और परमात्माको प्राप्त करना चाहते हैं। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे सदा रहनेवाली शान्ति और सुख नहीं मिल सकता प्रत्युत सदा अशान्ति और दुःख ही मिलता रहता है -- ऐसा मनुष्योंका प्रत्यक्ष अनुभव है। परमात्मा अनन्त आनन्दके स्वरूप हैं वहाँ दुःखका लेश भी नहीं है -- ऐसा शास्त्रोंका कथन है और सन्तोंका अनुभव है।अब विचार यह करना है कि साधकको संसार तो प्रत्यक्षरूपसे दीखता है और परमात्माको वह केवल मानता है क्योंकि परमात्मा प्रत्यक्ष दीखते नहीं। शास्त्र और सन्त कहते हैं कि संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है इसको मानकर साधक साधन करता है। उस साधनामें जबतक संसारकी मुख्यता रहती है तबतक परमात्माकी मान्यता गौण रहती है। साधन करतेकरते ज्योंज्यों परमात्माकी धारणा (मान्यता) मुख्य होती चली जाती है त्योंहीत्यों संसारकी मान्यता गौण होती चली जाती है। परमात्माकी धारणा सर्वथा मुख्य होनेपर साधकको यह स्पष्ट दीखने लग जाता है कि संसार पहले नहीं था और फिर बादमें नहीं रहेगा तथा वर्तमानमें जो है रूपसे दीखता है वह भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है। जब संसार नहीं था तब भी परमात्मा थे जब संसार नहीं रहेगा तब भी परमात्मा रहेंगे और वर्तमानमें संसारके प्रतिक्षण अभावमें जाते हुए भी परमात्मा ज्योंकेत्यों विद्यमान हैं। तात्पर्य है कि संसारका सदा अभाव है और परमात्माका सदा भाव है। इस तरह जब संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव हो जाता है तब सत्यस्वरूपसे सब कुछ परमात्मा ही हैं -- ऐसा वास्तविक अनुभव हो जाता है जिसके होनेसे साधक सिद्ध कहा जाता है। कारण कि संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है -- ऐसी मान्यता संसारकी सत्ता माननेसे ही होती थी और संसारकी सत्ता साधकके रागके कारण ही दीखती थी। तत्त्वतः सब कुछ परमात्मा ही हैं। (2)सत् और असत् सब परमात्मा ही हैं --'सदसच्चाहम्' (9। 19) परमात्मा न सत् कहे जा सकते हैं और न असत् कहे जा सकते हैं -- 'न सत्तन्नासदुच्यते' (13। 12) परमात्मा सत् भी हैं असत् भी हैं और सत्असत् दोनोंसे परे भी हैं --'सदसत्तत्परं यत्' (11। 37)। इस प्रकार गीतामें भिन्नभिन्न वचन आते हैं। अब उनकी संगतिके विषयमें विचार किया जाता है।परमात्मतत्त्व अत्यन्त अलौकिक और विलक्षण है। उस तत्त्वका वर्णन कोई भी नहीं कर सकता। उस तत्त्वको इन्द्रियाँ मन और बुद्धि नहीं पकड़ सकते अर्थात् वह तत्त्व इन्द्रियाँ मन और बुद्धिकी परिधिमें नहीं आता। हाँ इन्द्रियाँ मन और बुद्धि उसमें विलीन हो सकते हैं। साधक उस तत्त्वमें स्वयं लीन हो सकता है उसको प्राप्त कर सकता है पर उस तत्त्वको अपने कब्जेमें अपने अधिकारमें अपनी सीमामें नहीं ले सकता।परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहनेवाले साधक दो तरहके होते हैं -- एक विवेकप्रधान और एक श्रद्धाप्रधान अर्थात् एक मस्तिष्कप्रधान होता है और एक हृदयप्रधान होता है। विवेकप्रधान साधकके भीतर विवेककी अर्थात् जाननेकी मुख्यता रहती है और श्रद्धाप्रधान साधकके भीतर माननेकी मुख्यता रहती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विवेकप्रधान साधकमें श्रद्धा नहीं रहती और श्रद्धाप्रधान साधकमें विवेक नहीं रहता प्रत्युत यह तात्पर्य है कि विवेकप्रधान साधकमें विवेककी मुख्यता और साथमें श्रद्धा रहती है तथा श्रद्धाप्रधान साधकमें श्रद्धाकी मुख्यता और साथमें विवेक रहता है। दूसरे शब्दोंमें जाननेवालोंमें मानना भी रहता है और माननेवालोंमें जानना भी रहता है। जाननेवाले जानकर मान लेते हैं और माननेवाले मानकर जान लेते हैं। अतः किसी भी तरहके साधकमें किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रहती।साधक चाहे विवेकप्रधान हो चाहे श्रद्धाप्रधान हो पर साधनमें उसकी अपनी रुचि श्रद्धा विश्वास और योग्यताकी प्रधानता रहती है। रुचि श्रद्धा विश्वास और योग्यता एक साधनमें होनेसे साधक उस तत्त्वको जल्दी समझता है। परन्तु रुचि और श्रद्धाविश्वास होनेपर भी वैसी योग्यता न हो अथवा योग्यता होनेपर भी वैसी रुचि और श्रद्धाविश्वास न हो तो साधकको उस साधनमें कठिनता पड़ती है। रुचि होनेसे मन स्वाभाविक लग जाता है श्रद्धाविश्वास होनेसे बुद्धि स्वाभाविक लग जाती है और योग्यता होनेसे बात ठीक समझमें आ जाती है।विवेकप्रधान साधक निर्गुणनिराकारको पसंद करता है अर्थात् उसकी रुचि निर्गुणनिराकारमें होती है। श्रद्धाप्रधान साधक सगुणसाकारको पसंद करता है अर्थात् उसकी रुचि सगुणसाकारमें होती है। जो निर्गुणनिराकारको पसंद करता है वह यह कहता है कि परमात्मतत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है। जो सगुणसाकारको पसंद करता है तो वह कहता है कि परमात्मा सत् भी हैं असत् भी हैं और सत्असत्से परे भी हैं।तात्पर्य यह हुआ कि चिन्मयतत्त्व तो हरदम ज्योंकात्यों ही रहता है और जड असत् कहलानेवाला संसार निरन्तर बदलता रहता है। जब यह चेतन जीव बदलते हुए संसारको महत्त्व देता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब यह जन्ममरणके चक्करमें घूमता रहता है। परन्तु जब यह जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद कर लेता है तब इसको स्वतःसिद्ध चिन्मयतत्त्वका अनुभव हो जाता है। विवेकप्रधान साधक विवेकविचारके द्वारा जडताका त्याग करता है। जडताका त्याग होनेपर चिन्मयतत्त्व अवशेष रहता है अर्थात् नित्यप्राप्त तत्त्वका अनुभव हो जाता है। श्रद्धाप्रधान साधक केवल भगवान्के ही सम्मुख हो जाता है जिससे वह जडतासे विमुख होकर भगवान्को प्रेमपूर्वक प्राप्त कर लेता है। विवेकप्रधान साधक तो सम शान्त सत्घन चित्घन आनन्दघन तत्त्वमें अटल स्थित होकर अखण्ड आनन्दको प्राप्त होता है पर श्रद्धाप्रधान साधक भगवान्के साथ अभिन्न होकर प्रेमके अनन्त प्रतिक्षण वर्धमान आनन्दको प्राप्त कर लेता है।इस प्रकार दोनों ही साधकोंको जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेदपूर्वक चिन्मयतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और,सत्असत् अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं -- ऐसा अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध --दूसरे श्लोकमें अर्जुनका सातवाँ प्रश्न था कि अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
Swami Chinmayananda
।।8.4।। परम अक्षर तत्त्व ब्रह्म है ब्रह्म शब्द उस अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व का संकेत करता है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है।ब्रह्म का ही प्रतिदेह में आत्मभाव अध्यात्म कहलाता है। यद्यपि परमात्मा स्वयं निराकार और सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी है तथापि उसकी सार्मथ्य और कृपा का अनुभव प्रत्येक भौतिक शरीर में स्पष्ट होता है। देह उपाधि से मानो परिच्छिन्न हुआ ब्रह्म जब उस देह में व्यक्त होता है तब उसे अध्यात्म कहते हैं। श्री शंकाचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं प्रतिदेह में प्रत्यगात्मतया प्रवृत्त परमार्थ ब्रह्म अध्यात्म कहलाता है।मात्र उत्पादन ही कर्म नही है। उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करने का आदेश दिया जा सकता है तथा केवल अधिक परिश्रम से उसे सम्पादित भी किया जा सकता है। यहाँ प्रयुक्त कर्म शब्द का तात्पर्य और अधिक गम्भीर सूक्ष्म और दिव्य है। बुद्धि में निहित वह सृजन शक्ति वह सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति जिसके कारण बुद्धि निर्माण कार्य में प्रवृत्त होकर विभिन्न भावों का निर्माण करती है कर्म नाम से जानी जाती है। अन्य सब केवल स्वेद और श्रम है अर्जन और अपव्यय है स्मिति और गायन है सुबकन और रुदन है।नश्वर भाव अधिभूत है अक्षर तत्त्व के विपरीत क्षर प्राकृतिक जगत् है जिसके माध्यम से आत्मा की चेतनता व्यक्त होने से सर्वत्र शक्ति और वैभव के दर्शन होते हैं। क्षर और अक्षर में उतना ही भेद है जितना इंजिन और वाष्प में रेडियो और विद्युत् में। संक्षेप में सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् क्षर अधिभूत है। अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। वेदान्तशास्त्र के अनुसार प्रत्येक इन्द्रिय मन और बुद्धि का अधिष्ठाता देवता है उनमें इन उपाधियों के स्वविषय ग्रहण करने की सार्मथ्य है। समष्टि की दृष्टि से शास्त्रीय भाषा में इसे हिरण्यगर्भ कहते हैं।इस देह में अधियज्ञ मैं हूँ वेदों के अनुसार देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में आहुति दी जाने की क्रिया यज्ञ कहलाती है। अध्यात्म (व्यक्ति) की दृष्टि से यज्ञ का अर्थ है विषय भावनाएं एवं विचारों का ग्रहण। बाह्य यज्ञ के समान यहाँ भी जब विषय रूपी आहुतियाँ इन्द्रियरूपी अग्नि में अर्पण की जाती हैं तब इन्द्रियों का अधिष्ठाता देवता (ग्रहण सार्मथ्य) प्रसन्न होता है जिसके अनुग्रह स्वरूप हमें फल प्राप्त होकर अर्थात् तत्सम्बन्धित विषय का ज्ञान होता है। इस यज्ञ का सम्पादन चैतन्य आत्मा की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। अत वही देह में अधियज्ञ कहलाता है।भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ दी गयी परिभाषाओं का सूक्ष्म अभिप्राय या लक्ष्यार्थ यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक सत्य है और शेष सब कुछ उस पर भ्रान्तिजन्य अध्यास है। अतः आत्मा को जानने का अर्थ है सम्पूर्ण जगत् को जानना। एक बार अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने के पश्चात् वह ज्ञानी पुरुष कर्तव्य अकर्तव्य और विधिनिषेध के समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। कर्म करने अथवा न करने में वह पूर्ण स्वतन्त्र होता है।जो पुरुष इस ज्ञान में स्थिर होकर अपने व्यक्तित्व के शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक स्तरों पर क्रीड़ा करते हुए आत्मा को देखता है वह स्वाभाविक ही स्वयं को उस दिव्य साक्षी के रूप में अनुभव करता है जो स्वइच्छित अनात्म बन्धनों की तिलतिल हो रही मृत्यु का भी अवलोकन करता रहता है।अन्तकाल में आपका स्मरण करता हुआ जो देहत्याग करता है उसकी क्या गति होती है
Sri Anandgiri
।।8.4।।संप्रति प्रश्नत्रयस्योत्तरमाह -- अधिभूतमिति। अधिभूतं च किं प्रोक्तमित्यस्य प्रतिवचनं अधिभूतं क्षरो भाव इति। तत्राधिभूतपदमनूद्य वाच्यमर्थं कथयति -- अधिभूतमित्यादिना। तस्य निर्देशमन्तरेण निर्ज्ञातुमशक्यत्वात्प्रश्नद्वारा तन्निर्दिशति -- कोऽसाविति। कार्यमात्रमत्र संगृहीतमिति वक्तुमुक्तमेव व्यनक्ति -- यत्किंचिदिति। अधिदैवं किमिति प्रश्ने पुरुषश्चेत्यादिप्रतिवचनं तत्र पुरुषशब्दमनूद्य मुख्यमर्थं तस्योपन्यस्यति -- पुरुष इति। तस्यैव संभावितमर्थान्तरमाह -- पुरि शयनाद्वेति। वैराजं देहमासाद्यादित्यमण्डलादिषु दैवतेषु योऽन्तरवस्थितो लिङ्गात्मा व्यष्टिकरणानुग्राहकोऽत्र पुरुषशब्दार्थः स चाधिदैवतमिति स्फुटयति -- आदित्येति। अधियज्ञः कथमित्यादिप्रश्नं परिहरन्नधियज्ञशब्दार्थमाह -- अधियज्ञ इति। कथमुक्तायां देवतायामधियज्ञशब्दः स्यादित्याशङ्क्य श्रुतिमनुसरन्नाह -- यज्ञो वा इति। परैव देवताऽधियज्ञशब्देनोच्यते। सा च ब्रह्मणः सकाशादत्यन्ताभेदेन प्रतिपत्तव्येत्याह -- स हि विष्णुरिति। शास्त्रीयव्यवहारभूमिरत्रेत्युक्ता। देहसामानाधिकरण्याद्वात्रेत्यस्य व्याख्यानम् -- अस्मिन्निति। किमधियज्ञो बहिरन्तर्वा देहादिति संदेहो मा भूदित्याह -- देह इति। ननु यज्ञस्य देहाधिकरणत्वाभावात्कथं तथाविधयज्ञाभिमानिदेवतात्वं भगवता विवक्ष्यते तत्राह -- यज्ञो हीति। एतेन तस्य बुद्ध्यादिव्यतिरिक्तत्वमुक्तमवधेयम्। नहि परा देवता दर्शितरीत्याधियज्ञशब्दिता बुद्ध्यादिष्वन्तर्भावमनुभावयितुमलम्। देहान्बिभ्रतीति देहभृतः सर्वे प्राणिनस्तेषामेव वरः श्रेष्ठः। युक्तं हि भगवता साक्षादेव प्रतिक्षणं संवादं विदधानस्यार्जुनस्य सर्वेभ्यः श्रैष्ठ्यम्।
Sri Dhanpati
।।8.4।।अधिभूतं च किं प्रोक्तमिति चतुर्थप्रश्नस्योत्तरमाह -- अधिभूतमिति। भूतं प्राणिजातमधिकृत्य भवतीत्यधिभूतम्। क्षरो भावः क्षरतीति क्षरो विनाशी भावो यत्किंचिज्जनिमद्वस्त्वित्यर्थः। अधिदैवं किमुच्यत इति पञ्चमप्रश्नस्योत्तरमाह। पुरुषश्चाधिदैवतं पूर्णमनेन सर्वमिति पुरुषः सर्वासु पूर्षु शयनाद्वा पुरुषः आदित्यान्तर्गतो हिरण्यगर्भः सर्वप्राणिकरणानुग्राहकः सोऽधिदैवतं दैवतान्यादित्यादीन्यधिकृत्य चक्षुरादिकरणग्राममनुगृह्णतीत्यधिदैवतमुच्यते। अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदनेति षष्ठश्रस्योत्तरमाह -- अधियज्ञ इति। यज्ञो हि देहेनोत्पात्द्योऽतो देहसमवायी। अतो देहस्तस्याधिकरणं भवति। अस्मिन्देहेऽधियज्ञः सर्वयज्ञाभिमानिनी देवता विषण्वाख्या।यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः। सोऽधियज्ञो विष्णुरहमेव कथमित्यवान्तरप्रकारप्रश्नोऽप्यनेनैव परिहृतः। अधियज्ञो बुद्य्धादिव्यतिरिक्तः परमात्माभिन्नोऽस्मिन्देहे प्रतिपत्तव्य इति। देहान्बिभ्रतीति देहभृतस्तेषां सर्वेषां प्राणिनां वरः श्रेष्ठस्तस्य संबोधनं हे देहभृतां वरेति। उक्तंच भगवता प्रतिक्षणं संवादं संविदधानस्यार्जुनस्य सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः श्रैष्ट्यमिति भाष्यटीकाकाराः। एवंभूतं मां देहभृतां वरस्त्वं प्रतिपत्तुमर्हसीति सूचनार्थं,वा संबोधनम्।
Sri Neelkanth
।।8.4।।क्षरो भावो जनिमद्वस्तु कर्मफलभूतं तत्साधनभूतं च तदधिभूतमित्युच्यते। अधिदैवतं पुरुषः सर्वासु पूर्षु वसतीति सर्वकरणानुग्राहकः सकलदेवतात्मा हिरण्यगर्भः। अधियज्ञो यज्ञाभिमानी विष्णुरन्तर्यामी सोऽहमेव देह्यस्मि। अत्रास्मिन्देहे देहभृतां वर।
Sri Ramanujacharya
।।8.4।।ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यतया निर्दिष्टम् अधिभूतं क्षरो भावः वियदादिभूतेषु वर्तमानः तत्परिणामविशेषः क्षरणस्वभावो विलक्षणः शब्दस्पर्शादिः साश्रयः विलक्षणाः साश्रयाः शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः ऐश्वर्यार्थिभिः प्राप्याः तैः अनुसंधेयाः।पुरुषश्च अधिदैवतम् अधिदैवतशब्दनिर्दिष्टः पुरुषः अधिदैवतं दैवतोपरि वर्तमानम् इन्द्रप्रजापतिप्रभृतिकृत्स्नदैवतोपरि वर्तमानः इन्द्रप्रजापतिप्रभृतीनां भोग्यजाताद् विलक्षणशब्दादेः भोक्ता पुरुषः सा च भोक्तृत्वावस्था ऐश्वर्यार्थिभिः प्राप्यतया अनुसन्धेया।अधियज्ञः अहम् एव अधियज्ञशब्दनिर्दिष्टो अहम् एव अधियज्ञः यज्ञैः आराध्यतया वर्तमानः अत्रेन्द्रादौ मम देहभूते आत्मतया अवस्थितः अहम् एव यज्ञैः आराध्य इति महायज्ञादिनित्यनैमित्तकानुष्ठानवेलायां त्रयाणाम् अधिकारिणाम् अनुसन्धेयम् एतत्।इदमपि त्रयाणां साधारणम् --
Sri Sridhara Swami
।।8.4।।किंच -- अधिभूतमिति। क्षरो विनश्वरो भावो देहादिपदार्थो भूतं प्राणिमात्रमधिकृत्य भवतीत्यधिभूतमुच्यते। पुरुषो वैराजः सूर्यमण्डलमध्यवर्ती स्वांशभूतसर्वदेवतानामधिपतिरधिदैवतमुच्यते। अधिदैवतमधिष्ठात्री देवतास वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते। आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत इति श्रुतेः। अत्रास्मिन्देहेऽन्तर्यामित्वेन स्थितोऽहमेवाधियज्ञो यज्ञाधिष्ठात्री देवता यज्ञादिकर्मप्रवर्तकस्तत्फलदाता च कथमित्यस्योत्तरमनेनैवोक्तं द्रष्टव्यम्। अन्तर्यामिणोऽसङ्गत्वादिभिर्गुणैर्जीववैलक्षण्येन देहान्तर्वर्तित्वस्य प्रसिद्धत्वात्। तथाच श्रुतिः -- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति इति। देहभृतां मध्ये श्रेष्ठ इति संबोधयन् त्वमप्येवंभूतमन्तर्यामिणं पराधीनस्वप्रवृत्तिनिवृत्त्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां बोद्धुमर्हसीति सूचयति।
Swami Sivananda
8.4 अधिभूतम् Adhibhuta? क्षरः perishable? भावः nature? पुरुषः the soul? च and? अधिदैवतम् Adhidaivata? अधियज्ञः Adhiyajna? अहम् I? एव alone? अत्र here? देहे in the body? देहभृताम् of the embodied? वर O best.Commentary Adhibhuta the perishable nature the changing universe of the five elements with all its objects all the material objects everything that has birth the changing world of names and forms.Adhidaiva Purusha literally means that by which everything is filled (pur to fill). It may also mean that which lies in this body. It is Hiranyagarbha or the universal soul or the sustainer from whom all living beings derive their sensepower. It is the witnessing consciousness.Adhiyajna Consciousness the presiding deity of sacrifice. The Lord of all works and sacrifice isVishnu. Lord Vishnu identifies Himself with all sacrificial acts. Yajna is verily Vishnu? says the Taittiriya Samhita of the Veda. Lord Krishna says? I am the presiding deity in all acts of sacrifice in the body. All sacrifices are done by the body and so it may be said that they rest in the body.
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।8.4।।ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यतया निर्दिष्टमित्येतदधिदैवतेऽप्यनुषञ्जनीयम् अधिभूतक्षरशब्दनिर्वचनानुरोधेन व्याख्यातिवियदादीति। भूतशब्दस्यात्र जन्तुविषयत्वव्यवच्छेदाय वियदादिशब्दः। शब्दाद्यवस्थातद्वतोर्भोग्ययोर्द्वयोरपि क्षरशब्देन सङ्ग्रहणायक्षरणस्वभाव इति निर्वचनम्। नश्वर इत्यर्थः।विलक्षण इतिइन्द्रप्रजापतिप्रभृतीनां भोग्यजातात् इति वक्ष्यमाणमत्रापि द्रष्टव्यम्। एवंविधं च वैलक्षण्यं स्वासाधारणभक्तियोगप्रसन्नपरमात्मसङ्कल्पविशेषप्रसूतभोगरूपत्वात्। अस्य ज्ञातव्यताहेतुं दर्शयति -- विलक्षणा इति।क्षरो भावः इत्येकवचनं जात्यभिप्रायमिति भावः।प्राप्याप्राप्यत्वादित्यर्थः। अधिदैवतशब्दे रूढिभ्रमव्युदासायाह -- अधिदैवतशब्दनिर्दिष्ट इति। तन्निरुक्तिःदैवतोपरिवर्तमानमिति। देवतोपरीति सम्बन्धसामान्यषष्ठ्या समासः। दैवतशब्दस्यात्र सर्वेश्वरात् सङ्कोचं देवतान्तरेष्वभिव्याप्तिं चाह -- इन्द्रेति। उपरि वर्तमानत्वमिह न केवलं देशाद्यपेक्षया किन्तु भोगप्रकर्षादपीत्यभिप्रायेणेत्याह -- इन्द्रेत्यादि पुरुष इत्यन्तम्।ननु पुरुषान्तरमिहाविवक्षितम् स्वात्मस्वरूपपुरुषानुसन्धानमधिकार्यन्तरस्यापि समानम् ततोऽत्र को विशेषः इत्यत्राह -- सा चेति। न परिशुद्धस्वरूपमिहानुसन्धेयं न चाशुद्धेऽपि हेयत्वमिह भाव्यम्। पुरुषशब्दनिर्देशश्चात्र भावप्रधान इति भावः।अहमेवेति क इति प्रश्नस्योत्तरम्। कथमिति प्रश्नस्योत्तरत्वं तदभिप्रेतं विवृणोति -- अधियज्ञ इति। यज्ञे सम्बध्यमानोऽधियज्ञः। तत्र च सर्वेश्वरस्याराध्यतया सम्बन्ध इत्याह -- यज्ञैराराध्यतया वर्तमान इति। इन्द्रादयो हि तत्र च आराध्याः श्रुताः तत्कथमहमेवेत्युच्यत इत्यत्रोत्तरम्अत्र देहे इत्यनेन विवक्षितमिति दर्शयति -- अत्रेन्द्रादाविति।अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे इतीश्वरेणाभिधीयमानत्वात्तद्देहविषयत्वं प्रतीतम्। स चेश्वरदेहःयज देवपूजायाम् [1।1027] इति याज्यदेवतापेक्षयज्ञप्रसङ्गादिन्द्रादिरेवेत्यभिप्रायेणोक्तम् -- इन्द्रादाविति।यां यां तनुम् [7।21] इति प्रागुक्तं स्मारयति -- मम देहभूत इति। कर्मणा ह्यचिद्द्रव्यं कस्यचिद्देहो भवति न तथाऽत्र देहत्वं कादाचित्कमिति ज्ञापनायदेहभूत इति प्रयोगः। देहभूतकेवलेन्द्रादिव्यवच्छेदार्थंअहमेवेत्यवधारणम्। पूर्वनिर्दिष्टब्रह्माध्यात्मकर्माधिभूताधिदैववन्न तत्त्वान्तरमिति ज्ञापनार्थं वा। विष्णुः सर्वा देवताः इति च श्रुतिः। एतेनकथम् इति प्रश्नस्याप्युत्तरं दत्तम्। तत्तद्विशिष्टस्याराध्यत्वात्।देहभृतां वर,इत्यनेनाध्यात्मचिन्तानुगुणसत्त्वोत्तरदेहेन्द्रियादिमत्त्वं स्वस्यालौकिकेन्द्रादिदेहवत्त्वे निदर्शनं चाभिप्रेतम्। एवंविधाधियज्ञविज्ञानमनुष्ठानानुप्रविष्टम् न तु तदुपकारकमात्रम् न चैश्वर्यार्थिमात्रविषयमिति दर्शयति -- इति महायज्ञेति। अकरणनिमित्तानर्हतादिपरिहाराय त्रयाणामवश्यकर्तव्यताद्योतनायनित्यनैमित्तिकोक्तिः।
Sri Abhinavgupta
।।8.4।।अधिभूतमिति। क्षरति स्रवति परिणामादिधर्मेण इति क्षरः (S omits क्षरः) घटादिः पदार्थग्राम उच्यते। पुरुषः आत्मा। स च अधिदैवतम् तत्र सर्वदैवतानां परिनिष्ठितत्त्वात्। अत एव अशेषयज्ञभोक्तृत्वेन यज्ञान् अवश्यकार्याणि कर्माणि अधिकृत्य यः स्थितः पुरुषोत्तमः सः अहमेव। अहमेव च देहे स्थित इति प्रश्नद्वयमेकेन यत्नेन निर्णीतम्।
Sri Jayatritha
।।8.4।।परिहारं सङ्गमयितुमधिभूतशब्दार्थं तावदाह -- भूतानीति। अधिकृत्य तदुपकारित्वेन यद्वर्ततेक्षरः,सर्वाणि भूतानि [15।16] इति वक्ष्यमाणं क्षरं व्यावर्तयितुं व्याचष्टे -- क्षर इति। क्षरशब्दव्याख्या विनाशीति। भावशब्दस्यार्थद्वयं कार्य इति पदार्थ इति। भवत्युत्पद्यत इति भावः। उत्पत्तिमान्पदार्थो नाशवान् पदार्थ इति प्रत्येकमुत्तरम्। सर्वभूतानामध्यात्मत्वान्न ग्रहणम्। नन्वव्यक्तमपि सशरीरान् जीवानधिकृत्य वर्तत इति तस्याप्यधिभूतेऽन्तर्भावोऽस्त्येव न चैतद्विनाशि कार्यं वानासतः [2।16] इत्युक्तत्वात्। ततोऽव्यापकमुत्तरमित्यत आह -- अव्यक्तेति। अव्यक्तस्याधिभूतान्तर्भावेऽपि नाव्यापकमुत्तरमिति शेषः। कुतः इत्यत आह -- तस्यापीति। अन्यथाभावो वैषम्यपरित्यागेन साम्यावस्थापत्तिः। यत इति शेषः। तथा विक्रियालक्षणं जन्म चेत्यपि ग्राह्यम्। उभयत्र क्रमेण प्रमाणान्याह -- तच्चेति। व्योम्नि व्याप्ते प्रलये प्रचुरव्यापाराभावात् निष्क्रिये। ननु पुरुषः परमात्मा स ब्रह्माधियज्ञशब्दाभ्यामुक्त इत्यत आह -- पुरी त। शरीरे अधिकरणे शेतेः [अष्टा.3।2।15] इति डः।वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च इत्यादिना साधुः। तथाप्यध्यात्मशब्देन गतार्थतेत्यत आह -- स चेति। सर्वजीवाभिमानित्वादिति भावः। तस्याधिदैवत्वं कथं इत्यतो द्वेधाऽऽह -- स इति। अधिकृत्य वर्तत इत्यस्यैव विवरणं -- पतिरिति। देवाधिकारस्थस्तत्प्रकरणेषु मुख्यतः प्रतिपाद्यः। सर्वदेवतासङ्ग्रहार्थं वा द्वितीयं व्याख्यानम्। अक्षरार्थस्तु पूर्ववत्।अधियज्ञः कथं [8।2] इत्यस्योत्तरं भगवताऽनुक्तं भाष्यकृदाह -- सर्वेति। आदिपदेन तत्प्रवर्तकत्वादिनाऽध्यात्मशब्दवदधियज्ञशब्देऽव्ययीभावः। किन्तु अधिगतो यज्ञमिति प्रादिसमासः। अधिष्ठितो यज्ञोऽनेनेति बहुव्रीहिर्वा।अधियज्ञः कः इति प्रश्ने तत्परिहारे च देह इत्यस्य प्रयोजनमाह -- अन्य इति। अन्यो भगवतः इति सिद्धार्थतापरिहारार्थं प्रश्नवाक्ये देह इति विशेषणं प्रयुक्तं कर्तृभोक्तृफलदातृ़णां हेप्रेरकत्वेन वर्तमान इति। अतः परिहारवाक्येऽपि यथाप्रश्नं तदुपात्तमिति वाक्यशेषः। भगवतः सर्वयज्ञभोक्तृत्वं कुतो येनैवमुत्तरमध्याह्रियते इत्यत आह -- भोक्तारमिति। त्रैविद्यानुष्ठितयज्ञभोक्तृत्वाभावात्सर्वेत्यनुपपन्नमित्यत आह -- त्रैविद्या इति। प्रवर्तकत्वे श्रुतिमाह -- एतस्येति। यज्ञफलदातृत्वादौ प्रमाणमाह -- कुतो हीति। ध्रुवश्चिरन्तनः। निश्श्रेयसे मुक्तौ भवं पदं सुखम्। इत्यादेः प्रश्नस्य। नन्वेष परिहरो भगवतैवं कुतो नोक्तः इत्यत आह -- भगवांश्चेदिति। चेच्छब्दो यदाशब्दार्थे। अधियज्ञोऽहमिति यदाधियज्ञत्वेन भगवानुक्तः तदा तस्य सर्वयज्ञभोक्तृत्वादेरधियज्ञत्वमर्जुनस्य सिद्धमेव भोक्तारमित्यादेरर्थस्य तेन श्रुतत्वात् अन्यत्वपक्ष एव कथमिति पृष्टत्वात्। एवमालोच्य भगवता कथमित्यस्य प्रश्नस्य परिहारोऽधियज्ञोऽहमित्यतः पृथक् नोक्तः। अस्माभिस्तु मन्दान्बोधयितुमुक्त इति भावः। ननु यज्ञधियज्ञः स्वयमेव तर्हि कथंसाधियज्ञं मां इति प्रागवोचत् इत्यत आह -- सर्वेति। रूपविशेषापेक्षया साहित्यमुक्तमिति भावः। अनेन परिहारवाक्यस्थस्य देह इति विशेषणस्य प्रयोजनान्तरं चोक्तं भवति।अत्रेति देहविशेषणं किमर्थं इत्यत आह -- अत्रेति। इह लौकिके देह इत्यर्थः। कुत ईश्वरदेहो व्यावर्तनीयः इत्यत आह -- न हीति। तत्र स्वदेहे। पृथक् पृथग्भावेन। यथाऽधियज्ञोऽहमेवेत्युक्तं न तथा ब्रह्माहमिति। अतो भगवतोऽन्यदेवेदं ब्रह्म परममिति तु स्वरूपकथनम्। न तु विशेषणमिति शङ्का निवारयति -- नात्रेति। पूर्वाध्यायेते ब्रह्म तद्विदुः [7।29] इत्युक्त्वा कथम्भूतं ब्रह्मेत्याकाङ्क्षायां साधिभूताधिदैवं साधियज्ञं च ब्रह्मेति वक्तव्ये मामिति ब्रह्मणः परामर्शात्। तत्रास्तु भगवानेव ब्रह्म अत्र तु कुतः इत्यत आह -- तस्यैवेति पृष्टस्यैव वक्तव्यत्वात्। तर्हि अधियज्ञस्य ब्रह्मणश्च भगवत्त्वादेकत्राहमेवेत्युक्तिः अपरत्र तदनुक्तिः किंनिबन्धना इत्यत आह -- साधियज्ञमिति। शेषं तात्पर्यनिर्णये। एतेनापव्याख्यानमपि निरस्तम्। द्वादशादौ च विस्तरेण आगमसम्मत्योक्तं स्थापयति -- आह चेति। यानि देहस्थविष्णुरूपाणिसोधियज्ञ इतीरितः। तदपीच्छाप्रयत्नाद्यमेव न तु परिणामरूपम्। जडं देहाद्बाह्यम्। न केवलमेषां पदानामेतावन्मात्रार्थत्वं किन्तु यथाप्रतीतं प्रतीतिमनतिक्रम्य शब्दशक्त्या यावत्प्रतीतं प्रमाणाविरुद्धं च तदत्र व्याख्यायमानं वक्तुरभिप्रायं न व्यभिरचरतीत्यर्थः. कि़ञ्चिद्व्यवहितत्वात् मध्येऽपीति शब्दः। एतदेव वाक्यान्तरेण स्पष्टयति -- स्कान्दे चेति। आत्मनोऽभिमानस्य विषयः आत्माधिकारस्थं तत्र प्रतिपाद्यं देहाद्बाह्यं विनेति। सामर्थ्यादात्माभिमानस्थेन सम्बध्यते। तत्र युक्तिः अतीव बाह्यत्वात्। अत्यभिमानविषयत्वाभावात्। महाभूताधिकारगं महाभूतम्। कार्यकारणग्रहणहेतुः। तदन्तिकात्तत्तादात्म्यात् देवानामुपकारकृत्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।8.4।। संप्रत्यग्रिमप्रश्नत्रयस्योत्तरमाह -- क्षरतीति क्षरो विनाशी भावो यत्किंचिज्जनिमद्वस्तु भूतं प्राणिजातमधिकृत्य भवतीत्यधिभूतमुच्यते। पुरुषो हिरण्यगर्भः समष्टिलिङ्गात्मा व्यष्टिसर्वकरणानुग्राहकः।आत्मैवेदमग्र आसीत्पुरुषविधः इत्युपक्रम्यस यत्पूर्वोऽस्मात्सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुषः इत्यादि श्रुत्या प्रतिपादितः। चकारात्स वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते। आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत इत्यादिस्मृत्या च प्रतिपादितः। अधिदैवतं दैवतान्यादित्यादीन्यधिकृत्य चक्षुरादिकरणान्यनुगृह्णातीति तथोच्यते। अधियज्ञः सर्वयाज्ञाधिष्ठाता सर्वयज्ञफलदायकश्च। सर्वयज्ञाभिमानिनी विष्ण्वाख्या देवता।यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः। सच विष्णुरधियज्ञोऽहं वासुदेव एव न मद्भिन्नः कश्चित्। अतएव परब्रह्मणः सकाशादत्यन्ताभेदेनैव प्रतिपत्तव्य इति कथमिति व्याख्यातम्। सचात्रास्मिन्मनुष्यदेहे यज्ञरूपेण वर्तते बुद्ध्यादिव्यतिरिक्तो विष्णुरूपत्वात्। एतेन स किमस्मिन्देहे ततो बहिर्वा देहे चेत्कोऽत्र बुद्ध्यादिस्तद्यतिरिक्तो वेति संदेहो निरस्तः। मनुष्यदेहे य यज्ञस्यावस्थानं यज्ञस्य मनुष्यदेहनिर्वत्वात्पुरुषो वै यज्ञः पुरुषस्तेन यज्ञो यदेनं पुरुषस्तनुते इत्यादिश्रुतेः। हे देहभृतां वर सर्वप्राणिनां श्रेष्ठेति संबोधयन् प्रतिक्षणं मत्संभाषणात्कृतकृत्यस्त्वमेतद्बोधयोग्योऽसीति प्रोत्साहयत्यर्जुनं भगवान्। अर्जुनस्य सर्वप्राणिश्रेष्ठत्वं भगवदनुग्रहातिशयभाजनत्वात्प्रसिद्धमेव।
Sri Purushottamji
।।8.4।।एवं ब्रह्माध्यात्मकर्मोत्तराण्युक्त्वाऽधिभूताद्युत्तराण्याह -- अधिभूतमिति। क्षरो भावो विनश्वरो देहो भगवद्विप्रयोगतापाधिक्येन नाशभावयुक्तोऽधिभूतं जीवमात्रमधिकृत्य भवतीति अधिभूतं दास्यार्थमाविर्भावितस्वांशे विप्रयोगतापार्थं प्रकटीक्रियत इति तथोच्यत इति भावः। च पुनः। पुरुषो मम जीवहृदि पुरुषत्वेन रसात्मको भावः स अधिदैवः तं क्रीडात्मकभावमधिकृत्य भवतीति सर्वमूलरूप इति तथोच्यत इति भावः। किञ्च हे देहभृतां वर मत्सेवौपयिकसामर्थ्ययुक्त अत्र जगति देहे देहनिमित्तं सेवौपयिकोपचयार्थं अधियज्ञः यज्ञादिकर्मात्मकस्तत्प्रवर्तकश्चेत्यर्थः।
Sri Shankaracharya
।।8.4।। --,अधिभूतं प्राणिजातम् अधिकृत्य भवतीति। कोऽसौ क्षरः क्षरतीति क्षरः विनाशी भावः यत्किञ्चित् जनिमत् वस्तु इत्यर्थः। पुरुषः पूर्णम् अनेन सर्वमिति पुरि शयनात् वा पुरुषः आदित्यान्तर्गतो हिण्यगर्भः सर्वप्राणिकरणानाम् अनुग्राहकः सः अधिदैवतम्। अधियज्ञः सर्वयज्ञाभिमानिनी विष्ण्वाख्या देवता यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः। स हि विष्णुः अहमेव अत्र अस्मिन् देहे यो यज्ञः तस्य अहम् अधियज्ञः यज्ञो हि देहनिर्वर्त्यत्वेन देहसमवायी इति देहाधिकरणो भवति देहभृतां वर।।
Sri Vallabhacharya
।।8.4।।अग्रिमाणामाह -- अधिभूतमिति। पूर्वनिर्दिष्टमधिभूतं क्षरो भावः भूताधिकृतः क्षरणस्वभावो भौतिकः पदार्थः युष्मदादिविराडन्तः किञ्च पुरुषो जीवोऽत्रात्मा सर्वत्रास्त्यधिदैवतं (सर्वेषामधिदैवतं) सर्वसाधारणं शब्दादिभोक्तृ चेति सूर्याद्या अधिदेवताश्चकारेण संगृह्यन्ते। सा भोक्तृत्वावस्था पुरुषान्तर्यामिज्ञानिभिः (पुरुषोत्तमज्ञानिभिः) सर्वत्रैकरूपतया(सर्वाधिगम्यतया)ऽनुसन्धेया। अधियज्ञोऽहमिति -- यस्त्वया पृष्टः कोऽधियज्ञ इति स चाहं यज्ञाधिष्ठातावयवी यज्ञैश्चाराध्यः परमात्मरूपः।देहेऽस्मिन्कथं इत्यस्योत्तरमाह -- अत्र देहे समस्तभूतशरीरे तदन्तर्यामितया स्थितः यथोक्तं भागवते -- आध्यात्मिकस्तु यः प्रोक्तः सोऽसावेवाधिदैविकः। यस्तत्रोभयविच्छेदः स स्मृतो ह्याधिभौतिकः। एकमेकतराभावे यदि नोपलभामहे। त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा [स्वाश्रयाश्रयः] स्वाश्रयः परः। [भाग.2।10।9] इति। हे देहभृतां वर यथा देहभृतः केचन विज्ञाः (लिप्ताः) केचनाऽविज्ञाः (अलिप्ताः) तथाऽहमभिज्ञः (अलिप्तः) साक्षी त्वं चापि तेषु वरो जिज्ञासुः देहभृत्त्वादिति तं स्तौति।